#मन_का_संघर्ष : पॉजिटिव थिंकिंग की बात वह करते हैं जो मन में उलझे हुए हैं। मन को वे जानते ही नहीं। यह सम्भवतः पाश्चात्य विचार है। पश्चिम मनुष्य के अंतःकरण से पूर्णतया अनभिज्ञ है, इसलिए पॉजिटिव या नेगेटिव थिंकिंग में उलझ कर रह गया है।
मन का काम है संघर्ष रचना। किसी के भी साथ या उसके विरोध में बह जाना ही संघर्ष है। उसकी बनावट और बुनावट ही ऐसी है। उसके मूल में होता है अहंकार। अहंकार का अर्थ ईगो नहीं है। अहंकार का अर्थ है कि इस धरती पर जन्म लेने के बाद जिन जिन से भी आपके मन ने अपना तादात्मिकरण कर रखा है, उन सबका समूह।
जैसे आप अनाम जन्में थे। आपके माता पिता ने आपको नाम दिया। अपनी पहचान दिया। नामकरण समाज मे जीने के लिए आवश्यक है। लेकिन आप नाम नही हैं। नाम तो आपके माता पिता देते हैं। लेकिन आप उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। कोई आपका नाम लेकर गाली देता है तो आप तुरंत सतर्क हो जाते हैं। हो सकता है कि वह आपके किसी नाम राशि को गाली दे रहा हो। लेकिन आप तुरंत प्रतिक्रिया के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं।
इस तरह की वे समस्त पर्तें, जो आपके मन ने धारण कर रखा है वह है आपका अहंकार। आप सदैव अपने अहंकार की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं। संसार मे जिंदा रहने के लिए यह परम आवश्यक है। सांसारिक मान पद प्रतिष्ठा हेतु संघर्ष आवश्यक है। यह आपके व्यक्तित्व का निर्माण करता है।
लेकिन यही आपका बंधन और कारागृह भी है। मन ही वह कारागृह है जिससे आप निकल नही सकते और उसी में छटपटाते हैं। मन ही तनाव निर्मित करता है। मन और कुछ नहीं है, सिवा विचारों की भीड़ के आपके अंदर। आप भीड़ हैं।
आप एक मिनट भी शांत होकर मौन होकर बैठ नही सकते। मौन का अर्थ मात्र मुह से मौन होना नहीं। शरीर वाक मनोभि : यत कर्म आरभते नरः। मनसा वाचा कर्मणा - समस्त रूप से मौन। मौन होते ही संसार की भीड़ आपके अंदर घुस जाती है। आप भीड़ में अकेले होते हैं और अकेले होते हैं तो भीड़ में होते हैं।
आपने इस तरह अपना विकास कर रखा है कि किसी भी वस्तु व्यक्ति भाव या विचार से साक्षात्कार होते ही आप अपने मन मे उनके प्रति एक राय बना लेते हैं। चाहे पक्ष में या विपक्ष में। आप सदैव प्रेज्यूडिस रहते हैं।
जो पत्रकार स्वयं को निष्पक्ष बोलते हैं उनको अपने मन प्रकृति के बारे में पता ही नही होता। वे मूर्ख हैं।
निष्पक्ष वह होता है जो समदर्शी होता है। उसी को गुरु सदगुरु ब्राम्हण या विप्र कहते हैं। ब्रम्ह भी समदर्शी होता है।
तो मन के तनाव और संघर्ष को कम या खत्म करने के लिये आपको सदैव प्रयास करना पड़ता है। यह कार्य बिना प्रयास के संभव नही है।
इसके लिये आप कहीं से भी शुरू कर सकते हैं कर्म योग ज्ञान योग भक्ति योग या क्रिया योग। लेकिन शुरू तो करना पड़ेगा।
प्रथम मंत्र आप भगवान कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिए गए मंत्र से ले सकते हैं:
इन्द्रियः इन्द्रियार्थेषु राग द्वेष व्यवस्थितौ।
तयो न वशं अगच्छेत तौ हि अस्य परिपंथनौ।।
- भगवतगीता।
कृष्ण कह रहे हैं कि हमारे मन मे सदैव किसी भी वस्तु व्यक्ति भाव या विचार के प्रति लाइक या डिस्लाइक का भाव बना रहता है। अच्छा या बुरा का भाव बना रहता है।
लोग कहते हैं कि अच्छा सोचो। पॉजिटिव थिंकिंग करो।
यह मूर्खो द्वारा रचा गया दर्शन है।कुछ भी न सोचो, कोई भी निर्णय मत करो। न अच्छा न बुरा। यह योगेश्वर भगवान कृष्ण कह रहे हैं, मैं नहीं।
अच्छा हो या बुरा हो, कोई भी विचार बन्धन बनता है। मन मे संघर्ष निर्मित करता है।
देख लो बस। निर्णय मत लो। इसी को साक्षी भाव भी कहते हैं।
गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मित्रों को समर्पित।
© त्रिभुवन सिंह
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