Saturday 19 October 2019

#चित्रगुप्त_डेकोडेड :

चित्रगुप्त एक पौराणिक चरित्र है, जो यमराज के यहां लोगों का डेटा मेन्टेन करते हैं। ऐसा लोग बोलते हैं। पुराण प्रतीकों की भाषा मे बात करते हैं।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि भारतीय इंटेलेकटुअल The Vinci Code के प्रतीकों पर तो सहज विस्वास कर लेते हैं, लेकिन पुराण के प्रतीकों को माइथोलॉजी बोलते हैं।
#कोलोनियल_हैंगओवर का असर है यह।
भारतीय सनातन सिद्धांत के अनुसार दैव ( गॉड ) जैसी कोई शक्ति नही है जो आपके प्रारब्ध को निर्धारित करती हो, जो आपको स्वर्ग या नरक में भेजती हो।
यह अब्राहमिक मजहब और रिलीजन का भारतीय मनस के ऊपर आरोपण है, यदि कोई भारतीय ऐसा समझता है तो।
दूसरी बात - यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे।
जो इस पिंड अर्थात शरीर में है, वही ब्रम्हांड में है। मनुष्य ब्रम्हांड का एक सैंपल है।
तो यमराज और चित्रगुप्त भी आपके इसी पिंड में रहते हैं। जिस दिन आप जन्म लेते हैं उसी दिन से दोनो सक्रिय हो जाते हैं। जन्म के साथ ही मृत्यु शुरू हो जाती है।
सृष्टि लय और प्रलय - ब्रम्हा विष्णु महेश यह तीन शक्तियां निरन्तर आपके अंदर काम करती रहती हैं।
विज्ञान भी सहमत हो गया है कि शरीर की नई नई कोशिकाएं, पुराने मृत कोशिकाओं को विस्थापित करती रहती हैं।
आप जो भी कर्म करते हैं -
" शरीर वाक मनोभि: यत कर्म आरभते नर:"- भगवतगीता
आप जितने भी कर्म शरीर वाणी और मन से करते हैं, उसी के अनुरुप इस जीवन मे आपको परिणाम मिलते हैं।
इसमे किसी भगवान को क्या लादना और लेना?
आप डॉक्टर बनने के लिए कर्म करोगे तो डॉक्टर बन जाओगे। वकील बनने के लिए कर्म करोगे तो वकील बन जाओगे। साधु या आर्य बनने की दिशा में कर्म करोगे तो साधु या आर्य बन जाओगे। असुर या अनार्य बनने के लिए कर्म करोगे तो असुर या अनार्य बन जाओगे।
लेकिन यह कर्म गुप्त चित्रों ( कोडेड या encripted messages ) के रूप में आपके मन मे संकलित रहते हैं - इसी को चित्र गुप्त कहा गया है पौराणिक कथाओं में।
आपके कर्म किसी तीसरे व्यक्ति को न याद हो लेकिन वह आपकी स्मृति में सदैव सुरक्षित रहती है। आपके मन की सारी बातें सिर्फ आपको पता होती हैं। आपकी पत्नी बेटा बेटी तक को नही पता होती आपके मन की बात।
और किसी भगवान को आपके मन से कुछ लेना लादना है नहीं। उसको तो आप तभी समझ पाएंगे जब आपके मन से समस्त कोडेड मैसेज विलुप्त हो जाएं।
आपके मन मे संकलित वासनाओं की संकलित डेटा के साथ जब आपकी मृत्यु होती है, अर्थात जब यमराज के काले भैंसे पर आप सवार होते हैं तो उसी घटना को मृत्य सम्पन्न होना कहते हैं। जैसे आप किसी समारोह के खत्म होने पर कहते हैं कि समारोह सम्पन्न हुवा।
आपके मन से संगृहीत encripted messages के अनुरूप आपको नया जीवन मिलता है जिसको प्रारब्ध या कर्म संस्कार भी कहते हैं। अब आप नए जीवन चक्र में प्रवेश करते हैं।
चित्रगुप्त का बस यही अर्थ है।
और यमराज का भी।
आपने कीड़ो की लाइफ साईकल पढ़ी है न।
उसमे अविस्वास करते हो ?
नही।
तो फिर इस जीवन मृत्य के साईकल में विस्वास क्यों नही करते?
पिछली पोस्ट पर उठी कुछ जिज्ञासाओं का उत्तर है यह पोस्ट।
तुलसीदास लिखते हैं :
नहिं कोऊ सुख दुख कर दाता।
निज कृत कर्म भोग सुनु भ्राता।।

#शूद्र_एक_घृणित_सम्बोधन_कब_हुआ ,इसके दो पहलू हैं

"#शूद्र_एक_घृणित_सम्बोधन_कब_हुआ ,इसके दो पहलू हैं
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ऋग्वेद मे लिखा है - ब्राम्हण्म मुखम आसीत ..... शूद्रह अजायत । अर्थात परंब्रम्ह की जिह्वा है ब्रामहण । यानि जो तपस्या (रेसेर्च ) से जो मांनव कल्याण हेतु जो मंत्र खोजे जाते है , उसी को जिह्वा से जगत मे प्रचारित प्रसारित करने वाले को ही ब्रामहण कहते हैं ।
दूसरी बात उस परम्ब्रंह की उपासना जब कोई करता है तो उसके चरण को ही प्रणाम कर चरणामृत लेता है , उसके मुह की उपासना नहीं न करता।
कौटिल्य ने लिखा - स्वधर्मों शूद्रस्य द्विजस्य सुश्रुषा वार्ता कारकुशीलव कर्मम च ।अर्थात सर्विस सैक्टर , मैनुफेक्चुरिंग ,एंजिनियरिंग, पशुपालन, खनिजदोहन और व्यापार की शिक्षा मे पारंगत होना ही शूद्र कर्म का हिस्सा है। यही वार्ता का अंग है।
अब इसमे कहीं भी किसी वर्ण विशेष को एक दूसरे से श्रेष्ठ घोसित नहीं किया गया है ।जैसे आज कार्यपालिका न्यायपालिका प्रशासन एक दूसरे से श्रेष्ठ नहीं एक दूसरे के पूरक हैं।
वर्ण व्यवस्था परस्पर पोषक और एक दूसरे पर निर्भर संस्था थी न कि ऊंच नीच आधारित।
जिस देश मे सर्वे भवन्तु सुखिनः, और वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष मंत्र रचे गए हों, वहां जन्मजात श्रेष्ठता की बार करना, निश्चित तौर पर उस संस्कृति पर आक्रान्ता संस्कृति का आरोपण मात्र हो सकता है।

धरमपाल जी ने अपनी पुस्तक The Beautiful Tree में 1830 का अंग्रेजों द्वारा संकलित एक डाटा दिया है जिसमे स्कूल जाने वाले शूद्र छत्रों की संख्या ब्रामहणो से चार गुणी थी।
तवेर्निएर 340 साल पहले कहता है कि शूद्र पदाति योद्धा थे , और उसने या अन्य किसी यात्री ने अछूत लोगों का जिक्र तक नहीं करता।
गणेश सखाराम देउसकर 1904 मे लिखते हैं कि 1875 से 1900 के बीच मे 2.5 करोड़ भारतीय अन्नाभाव मे भूख से प्राण त्याग देते हैं , ऐसा इस लिए नहीं हुआ था कि अन्न की कमी रही हो , ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अन्न खरीदने का उनकी जेब मे (बेरोजगारी के कारण) पैसा नहीं था ।
Will Durant 1930 मे The case for India मे, और J Sunderland ने "India in Bondage" में यही बात लिखते हैं कि 19 वे शताब्दी में 2.5 से 5 करोड़ लोग अन्न के अभाव से भूंख से इसलिए मर् जाते है क़ि देश की मैन्युफैक्चरिंग शक्ति बेरोजगार हो जाती है , और उसके पास अन्न खरीदने का पैसा नही था।
दोनों ही लेखको ने गनेश देउसकर के कथन की पुष्टि करते हुये लिखता है : कि "बेरोजगारी दूर करने हेतु लोग शहरों की ओर भागे कुछ लोगों को मिलों और खदानों मे काम मिल गया , बाकी बचे लोगों मे जो सौभाग्यशाली थे, उनको गोरों का मैला उठाने का काम मिल गया। क्योंकि अगर गुलाम इतने सस्ते हों तो सौचालय बनवाने का झंझट कौन पाले" ?
किसी भी देश मे सरकारी तंत्र द्वारा प्रायोजित ये आज तक का सबसे बड़ा जेनोसाइड है।
लेकिन 1946 में डॉ अंबेडकर लिखते हैं कि ऋग्वेद का पुरुषशूक्त एक क्षेपक है जो ब्रांहनों ने एक शाजिस के तहत बाद मे उसमे घुशेडा है , इसीलिए 20 वीं शताब्दी में अपार जनमानस की हालत दरिद्रों जैसी हो गई है जिसको शुद्र अतिशूद्र या अछूत कहते है । जो आज घृणित जीवन जीने को हजारो साल से मजबूर है ।
तथ्यों पर विश्वास किया जाय कि किसी के मनोमस्तिस्क के कल्पना की उड़ान पर ?
आइये इसकी जांच पड़ताल करें ।
"शूद्र एक घृणित" सम्बोधन कब हुआ ?
इसके दो पहलू हैं
(1 ) डॉ बुचनन ने 1807 में प्रकाशित ,अपनी पुस्तक में ये जिक्र किया है:
"..बंटर्स शूद्र थे , जो अपनी पवित्र वंशज से उत्पत्ति बताते हैं"।
देखिये बताने वालों के शब्दों में एक आत्म सम्मान और गर्व का पुट है।
अर्थात 1800 के आस पास तक शूद्र कुल में उत्पन्न होना , उतना ही सम्मानित था , जितना तथाकथित द्विज वर्ग ।इसके अलावा 1500 से 1800 के बीच के ढेर सारे यात्रा वित्रांत हैं ,जो यही बात बोलते हैं ..अगर आप कहेंगे तो उनको भी क्वोट कर दूंगा। फिर धूम फिर कर सुई वापस भारत के आर्थिक इतिहास पर आ जाता है।
1900 आते आते भारत के सकल घरेलु उत्पाद में 1750 की तुलना में 1200 प्रतिशत की घटोत्तरी हुई । 700 प्रतिशत लोग जो घरेलू उत्पाद के प्रोडूसर थे , उनके सर से छत और तन से कपडे छीन लिए गए और उनका परिवार भुखमरी और भिखारीपन की कगार पर पहुँच गया ।
अब उन्ही पवित्र शूद्रों के वंशजों की स्थिति अंग्रेजों के भारत के आर्थिक दोहन और घरेलू उद्योगों को विनष्ट किए जाने के कारण 150 सालों में upside डाउन हो गयी । अगर छ सात पीढ़ियों में शूद्र "रिचेस to रुग्स " की स्थिति में पहुँच गया , तो उसके प्रति भौतिक कारणों से समाज का दृष्टिकोण भी बदल गया।
जब एक अपर जनसमूह जिसकी रोजी रोटी का आधार हजारों साल से --"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च " के अनुसार मैनुफेक्चुरिंग करके जीवन यापन करना था , और जो भारत के आर्थिक जीडीपी की रीढ़ था , बेघर बेरोजगार होकर दरिद्रता की स्थिति मे जीवन बसर करने को मजबूर हुआ।
यही वर्ग हजारों सालों से भारत के अर्थजगत की रीढ़ हुआ करती थी । समाज में भौतिकता की प्रवृत्ति मैकाले के शिक्षा प्रभाव से बढ़ रही थी , और आध्यात्मिकता का ह्रास हो रहा था।
एक सोसिओलोगिस्ट प्रोफेसर John Campbell ओमान ने अपनी पुस्तक "Brahmans theism एंड Musalmaans " में लिखा .."कि ब्रम्हविद्या और पावर्टी ( अपरिग्रह ,,और गांधी के भेष भूसा ,,को कोई ब्रिटिश - पावर्टी ही मानेगा ) का सम्मान जिस तरह ख़त्म हो रहा है ,बहुत जल्दी वो समय आएगा जब भारत के लोग धन की पूजा ,पश्चिमी देश की तरह ही करेंगे।"
निश्चित तौर पर वह उस भारतीय समाज की बात कर रहा था जो मैकाले की शिक्षा से संस्कारित हो चुका था।
तो ऐसे सामजिक उथल पुथल में ये तबका सम्मानित तो नहीं ही रह जाएगा , घृणित ही समझा जाएगा । ये तो सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की देन है ।
(2) शूद्र शब्द दुबारा तब घृणित हुआ जब इस बेरोजगार बेघर हुए तबके को को बाइबिल के फ्रेमवर्क में फिट किया गया।
बाइबिल के अनुसार जेनेसिस (ओल्ड टेस्टामेंट ) में ये वर्णन है ,( Genesis 5:32-10:1New International Version (NIV) ) नूह Noah की उम्र 500 थी और उसके तीन पुत्र थे Shem, Ham and Japheth.। गॉड ने देखा की जिन मनुष्यों को उसने पैदा किया था, उनकी लडकिया खूबसूरत हैं और वे जिससे मन करता है उसी से शादी कर लेती हैं ,।गॉड ने ये भी देखा की मनुस्य दुष्ट हो गया है ,तो उसने महाप्रलय लाकर मनुष्यों को ख़त्म करने का निर्णय लिया । लेकिन नूह सत्चरित्र और नेक इंसान था तो , गॉड ने नूह से कहा कि सारे जीवों का एक जोड़ा लेकर नाव में बैठकर निकल जाओ,जिससे दुबारा दुनिया बसाया जा सके । जब महाप्रलय ख़त्म हुवा ,और धरती सूख गयी, तो नूह ने अंगूर की खेती की ,और उसकी वाइन (शराब ) बनाकर पीकर मदहोश हो गया ,और नंग धडंग होकर टेंट में गिर पड़ा । उसको Ham ने इस हालत में देखा तो बाहर जाकर अपने 2 अन्य भाइयों को बताया।
तो Shem, और Japheth.ने मुहं दूसरी तरफ घुमाकर कपडे से नूह को ढक दिया, और नूह को नंगा नहीं देखा ।
यानि सिर्फ Ham ने नूह को नंगा देखा ।जब शराब का नशा उतरा तो सारी बात नूह को पता चली तो उसने Ham को श्राप दिया की तुम्हारी आने वाली संतानें Shem, और Japheth.की आने वाली संतानों की गुलाम बनकर रहेंगी।
क्रिस्चियन धर्म गुरु और च्रिस्तिअनों ने इस जेनेसिस में वर्णित घटना को लेटर एंड स्पिरिट में पूरी दुनिया में लागू किया । बाइबिल में , टावर ऑफ़ बेबल ये भी वर्णन है , की गॉड ने नूह की संतानों से कहा की सारी दुनिया में फ़ैल जाओ ।
Monotheism वाले रिलिजन की एक बड़ी समस्या है की वे अपने ही रिलिजन को सच्चा रिलिजन मानते हैं ,और बाकियों को असत्य धर्म।
ईसाई धर्म गुरुओं ओरिजन (१८५-२५४ CE ) और गोल्डनबर्ग ने नूह के श्राप की आधार पर Ham के वंशजों को , को गुलामी और और उनके चमड़ी के काले रंग को नूह के श्राप से जोड़कर उसे रिलिजियस सैंक्टिटी दिलाया ।
काले रंग को उन्होंने अवर्ण,(discolored ) के नाम से सम्बोधित किया । उनकों घटिया , संस्कृति का वाहक और गुलामी के योग्य घोषित किया ।
जहाँ भी क्रिस्चियन गए ,और जिन देशों पर कब्ज़ा किया ,वहां के लोगो को चमड़ी रंग के आधार पर काले discolored लोगों को Hamites की संज्ञा से नवाजा।
ईसाइयत में नूह के श्राप के कारन Hamites असभ्य ,बर्बर और शासित होने योग्य बताया।
यही आजमाया हुवा नुस्का उन्होंने भारत पर भी अप्लाई किया ।बाहर से आये आर्य गोरे रंग के यानि द्विज सवर्ण, और यहाँ के मूल निवासी जिनको द्रविड़ शूद्र अछूत अतिशूद्र ,काले यानि अवर्ण। अर्थात बाइबिल के अनुसार Ham की संताने ,जो अनंत काल की गुलामी में झुलसने को मजबूर ,यानि "घृणित शूद्र " यानि डॉ आंबेडकर के शब्दों में "menial जॉब " करने को मजबूर।
अर्थात कौटिल्य के अनुसार शूद्रों कुछ धर्म --"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च ।" से गिरकर ...आंबेडकर जी के शब्दों में शूद्रों का धर्म (कर्तव्य ) --" "menial जॉब " में बदल जाता है १७५० से १९४६ आते आते।
शुश्रूषा या परिचर्या को जब् बाइबिल में खोजा गया तो वहां एक शब्द मिला #Servitude और servile यानि हैम के वंशज जो Perpetual Slavery के लिए शापित थे ।
तभी से #शूद्र शब्द को घृणित यानि मेनिअल जॉब वाला वर्ग मान लिया ।
इन डकैतों द्वारा प्रायोजित सरकारी नरसंहार और अछूत बनाये गए लोगों की तस्वीरें देखें।
सारी फोटुएं देखिये।
जिनके मन में इस बात की पीड़ा क्रोध और हीन भाव है कि उनके पूर्वजो का छुवा कोई खाता नहीं था, उनको ये समझ नही आता कि जो इस स्थिति में भी नही थे कि अपने इन मासूम बच्चों के मुहं में रोटी का टुकडॉ भी डाल सकें वे किसी दूसरे को अपने हाँथ का छुवा खिलाते और पिलाते क्या?
उनको उनसे बहुत लगाव है जिन्होंने इनके पूर्वजो का जेनोसाइड किया। आज मैकाले का ये बर्थडे मनाते हैं और सरस्वती जी के स्थान पर अंग्रेजी की पूजा कर रहे हैं।

#विचार_शोधन :

यदि यह समझ मे आ जाय कि हमारे विचार हमारे नहीं हैं, वे बाहर से संग्रहीत सूचनाएं मात्र हैं, तो उनके प्रति आसक्ति कम हो जाती है।
इन सूचनाओं को अपना समझना और उनके प्रति घोर आसक्ति ही हमारे मस्तिष्क में समस्त उपद्रव की जड़ है।
यह मैं फेसबुक पर भी देखता हूँ। निजी जीवन मे भी। और अपने बैच के व्हाट्सएप ग्रुप में भी।
हमारे समस्त ह्यूमन सिस्टम में यदि कोई सबसे महत्वपूर्ण चीज है तो वह है यह शरीर और उसके माध्यम से जिया जाने वाला जीवन।
जीवन को अनुभव करने के लिए समस्त सूचनाओं से आसक्ति खत्म करने की आवश्यकता होती है।
ध्यान रहे। सूचना लेने से परहेज बरतने की बात नही कर रहा, उसके प्रति आसक्ति, अपनापन खत्म करने की बात कर रहा हूँ। क्योंकि सूचनाएं बाहर से लेना बंद भी कर दोगे सप्रयास तो भी लोग सूचनाएं हमारे ऊपर प्रेषित करते रहेंगे।
क्योंकि हमारे मन के काम करने की एक ही तकनीक है - समस्त वस्तुवों, व्यक्तियों, भावनाओं और विचारों के प्रति, जिनसे हमारा साक्षात्कार होता है, उनके प्रति राग या द्वेष।
लाइक या dislike.
यह बात तुरंत हमारे मन मे आती है - इसी को प्रतिक्रिया कहते हैं। आवश्यकता है प्रति संवाद की। प्रतिक्रिया तो मन का कार्य है। प्रति संवाद विवेक का काम है।
यही बात भगवान कृष्ण भगवतगीता में कह रहे हैं:
इंद्रियस्य इंद्रियस्य अर्थेषु राग द्वेष व्यवस्थितौ।
तयो न वशं आगच्छेत तौ हि अस्य परिपंथनौ।।
हमारे मन मे सदैव राग और द्वेष का ही भाव रहता है अर्थात हम सदैव प्रेज्यूडिस रहते हैं। यही जीवन को अनुभव करने में सबसे बड़ी बाधा है।
यही तप है, यही शम है, यही दम है।
यही पूजा और तपस्या है।
इतना आसान नहीं है इसे समझना और इसका अनुपालन करना।
लेकिन क ख ग घ पढना लिखना और समझना भी आसान नही था। भूल गए कि क को समझने के लिये कबूतर भी पढना पड़ता था?
©त्रिभुवन सिंह

#मनु_महाराज_का_मनुवादी_आदेश:उपकरणों से शिल्पकर्म रत #शूद्रों से कर न लिया जाय।

#कर सिर्फ ट्रेडर्स यानी वाणिज्यिक लोगों से लिया जाय।
उपकरणों से शिल्पकर्म रत #शूद्रों से कर न लिया जाय।
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टैक्स लेना राज्य का कर्तव्य और अधिकार दोनों है, लेकिन कैसी सरकार टैक्स ले सकती है और किससे कितना ले सकती है, इसके भी सिद्धांत गढे गए हैं, पहले भी और हाल में भी।
ब्रिटिश जब कॉलोनी सम्राट हुवा करता था तब वहां के कुछ बड़े विद्वानों ने गैर जिम्मेदार सरकार को टैक्स न देने की बात की, थी जिनका नाम आज भी उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।
आज के संदर्भ में सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति जिसने टैक्सेशन का सकारण विरोध किया, था वो था डेविड हेनरी थोरौ जिसके सिविल diobedience के फार्मूले को गांधी ने भारत मे दमनकारी कुचक्री क्रूर बर्बर और Hypocrite ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रयोग किया। लेकिन चूंकि हम अनुवाद के मॉनसिक गुलाम है तो भाइयो ने उसे हिंसा और अहिंसा से जोड़ दिया।
बहरहाल ये लिंक पढ़िए जिसमे सिविल disobedience का सिद्धांत वर्णित है ।http://historyofmassachusetts.org/henry-david-thoreau-arre…/
यदि आप जॉन मोर जैसे फेक इंडोलॉजिस्ट द्वारा लिखित "ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट" के बजाय भारतीय संस्कृत ग्रंथों को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि वस्तुतः धर्मशास्त्र कहकर प्रचारित किये ग्रंथ सामाजिक शास्त्र है जो परिवर्तनशील जगत में जीने के दर्शन और सिद्धांत देते हैं। लेकिन चूंकि सनातन के अनुसार जगत परिवर्तनशील है इसलिए सामाजिक नियम और दर्शन भी परिवर्तित किये जाते रहे हैं समय समय पर - As and required टाइप से। कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ने वाले लोग जानते है कि कौटिल्य ने जब समाज के लिए नियम लिखे तो उन्होंने पूर्व के समाजशास्त्री ऋषियों के नियमो का उल्लेख करते हुए लिखा कि, उनके अनुसार ऐसा था लेकिन मेरे अनुसार ऐसा है। और भारतीय हिन्दू जनमानस उसको स्वीकार करता था।
लेकिन गुलाम मानसिकता के स्वतंत्र भारतीय चिंतक, अब्राहमिक मजहबों के उन सिद्धांत से प्रभावित रहे है जो ये कहते है कि होली बुक्स में लिखे गए पोलिटिकल मैनिफेस्टो अपरिवर्तनीय हैं, और उसी चश्मे से भारत को देखने समझने के अभ्यस्त हैं।
ज्ञातव्य है कि डॉ आंबेडकर की पुस्तक #WhoWereTheShudras जैसे गर्न्थो में जॉन मोर एम ए शेरिंग और मैक्समुलर जैसे फेक इंडोलॉजिस्ट और धर्मान्ध ईसाइयों के संदर्भो को ही आधार बनाया गया है।
मैकाले इन्ही भारतीय विद्वानो को "एलियंस और मूर्ख पिछलग्गू' कहा करता था।
यहां कर यानी टैक्स के सिद्धांतों का अतिप्राचीन संस्कृत ग्रंथ से उद्धारण देना चाहूंगा- जिसका समयकाल आप स्वयं तय कीजिये।
"स्वधर्मो विजयस्तस्य नाहवे स्यात परांमुखः।
शस्त्रेण वैश्यान रक्षित्वा धर्मयमाहरतबलिम्।।
राजा का धर्म है कि कि वह युद्ध मे विजयप्राप्त करे। पीठ दिखाकर पलायन करना उसके लिए सर्वथा अनुचित है। शास्त्र के अनुसार वही राजा प्रजा से कर ले सकता है जो प्रजा की रक्षा करता है।
धान्ये अष्टमम् विशाम् शुल्कम विशम् कार्षापणावरम।
कर्मोपकरणाः शूद्रा: कारवः शिल्पिनः तथा।।
संकटकाल में ( आपातकाल में सामान्य दिनों में नहीं) राजा को वैष्यों से धान्य के लाभ का आठवां भाग, स्वर्णादि के लाभ का बीसवां भाग कर के रूप में लेना चाहिए। किंतु शूद्र, शिल्पकारों, व बढ़ई आदि से कोई कर नहीं लेना चाहिए क्योंकि वे उपकरणों से कार्य करके जीवन यापन करते हैं।
#मनुषमृति : दशम अध्याय ; श्लोक संख्या 116, 117।
नोट: स्पष्ट निर्देश है कि श्रमजीवी या श्रम शक्ति से कर संकटकाल में भी नही लेना चाहिए।
कर सिर्फ वाणिज्य करने वाले वाणिज्य शक्ति से ही लेना चाहिए।
कौटिल्य ने उत्पाद पर टैक्स रेट 1/6 निर्धारित किया था। टैक्स उसी तरह हो जैसे सूर्य पानी से भाप बनाता है।
अंग्रेज इसे 1/3 से 1/2 तक ले गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी के समुद्री लुटेरों ने जब भारत मे 1757 मे टैक्स इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी छीनी तो ऐसा कोई भी मौका हांथ से जाने नहीं दिया , जहां से भारत को लूटा जा सकता हो। वही काम पूरी के जगन्नाथ मंदिर मे हुआ। वहाँ पर शासन और प्रशासन के नाम पर , तीर्थयात्रियों से टैक्स वसूलने मे भी उन्होने कोताही नहीं की। तीर्थयात्रियों की चार श्रेणी बनाई गई। चौथी श्रेनी मे वे लोग रखे गए जो गरीब थे। जिनसे ब्रिटिश कलेक्टर टैक्स न वसूल पाने के कारण उनको मंदिर मे घुसने नहीं देता था। ये काम वहाँ के पांडे पुजारी नहीं करते थे, बल्कि कलेक्टर और उसके गुर्गे ये काम करते थे।
( रेफ - Section 7 of Regulation IV of 1809 : Papers Relating to East India affairs )
इसी लिस्ट का उद्धरण देते हुये डॉ अंबेडकर ने 1932 मे ये हल्ला मचाया कि मंदिरों मे शूद्रों का प्रवेश वर्जित है। वो हल्ला ईसाई मिशनरियों द्वारा अंबेडकर भगवान को उद्धृत करके आज भी मचाया जा रहा है।
ज्ञातव्य हो कि 1850 से 1900 के बीच 5 करोड़ भारतीय अन्न के अभाव मे प्राण त्यागने को इस लिए मजबूर हुये क्योंकि उनका हजारों साल का मैनुफेक्चुरिंग का व्यवसाय नष्ट कर दिया गया था। बाकी बचे लोग किस स्थिति मे होंगे ये तो अंबेडकर भगवान ही बता सकते हैं। वो मंदिर जायंगे कि अपने और परिवार के लिए दो रोटी की व्यवस्था करेंगे ?
आज भी यदि कोई भी व्यक्ति यदि मंदिर जाता हैं और अस्व्च्छ होता है है तो मंदिर की देहरी डाँके बिना प्रभु को बाहर से प्रणाम करके चला आता है। और ये काम वो अपनी स्वेच्छा और पुरातन संस्कृति के कारण करता है , ण कि पुजारी के भय से।
जो लोग आज भी ये हल्ला मचाते हैं उनसे पूंछना चाहिए कि ऐसी कौन सी वेश भूषा पहन कर या सर मे सींग लगाकर आप मंदिर जाते हैं कि पुजारी दूर से पहचान लेता है कि आप शूद्र हैं ?
विवेकानंद ने कहा था - भूखे व्यक्ति को चाँद भी रोटी के टुकड़े की भांति दिखाई देता है।
एक अन्य बात जो अंबेडकर वादी दलित अंग्रेजों की पूजा करते हैं, उनसे पूंछना चाहूँगा कि अंग्रेजों ने अपनी मौज मस्ती के लिए जो क्लब बनाए थे , उसमे भारतीय राजा महराजा भी नहीं प्रवेश कर पाते थे।
बाहर लिखा होता था -- Indian and Dogs are not allowed . मुझे लगता हैं कि उनही क्लबो के किसी चोर दरवाजे से शूद्रों को अंदर एंट्री अवश्य दी जाती रही होगी ?
ज्ञानवर्धन करें ?
गुलाम मानसिकता का दुष्परिणाम तो भुगतना ही होगा।

Monday 7 October 2019

#ब्रम्हानिस्म_और_कास्ट : एक अभारतीय और औपनिवेशिक दस्युवों द्वारा रचित अवधारणा।

#ब्रम्हानिस्म_और_कास्ट : एक अभारतीय और औपनिवेशिक दस्युवों द्वारा रचित अवधारणा।
#ब्रम्हानिस्म शब्द का प्रयोग ईसाई मिशनरियों ने शुरू किया था। रोबर्ट de निबोली अपने आपको रोमन सन्यासी बताकर हिन्दू समाज मे धर्म परिवर्तन की सेंध लगाना चाहता था।
एक मिशनरी ईसाई मोनिर एंड मोनिर, जिसने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत की एकमात्र उपलब्ध अकादमिक पोस्ट बोडेन चेयर ऑफ संस्कृत के लिए, महान संस्कृतज्ञ मैक्समुलर को पराजित करके वह सीट हथियाया था। वह लिखता है "जब ब्रम्हानिस्म के शक्तिशाली किले को कमजोर कर दिया जाय तो ईसाइयत के सैनिक एक बार मे धावा बोलकर उसको समाप्त कर दें"।
लेकिन भारत मे जाति नामक संस्था के जीवित रहते यह सम्भव नही था। क्योंकि जाति एक विस्तारित वंश वृक्ष या समुदाय हुवा करता था, जिसको प्रशासित और नियंत्रित करने का उत्तरदायित्व उसी समुदाय के द्वारा चुने हुए बुजुर्ग करते थे। वह ईसाइयत के प्रवेश के लिए अभेद्य किला था। क्योंकि धर्म परिवर्तित व्यक्ति को तुरन्त जाति बाहर किया जाता था।
इसीलिए मैक्समुलर नामक फ़ण्डामेंटालिस्ट ईसाई ने अपना अनुभव लिखा:
" जाति ...... धर्म परिवर्तन में सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन हो सकता है कि यह कभी पूरे समुदाय के धर्म परिवर्तन हेतु शक्तिशाली इंजन की तरह काम करे"।
मैक्समुलर ने 1859 में #आर्यन_अफवाह नामक फिक्शन की रचना किया जिसको फेक साइंस में विज्ञान की तरह प्रसारित प्रचारित किया गया।
इसलिए जाति को हिंदूइस्म का विलेन बोलकर प्रसारित करने की योजना बनायी गयी। इससे ब्राम्हण और जाति दोनो को ठिकाने लगाया जा सकता था।
1872 में "कास्ट एंड ट्राइब्स ऑफ इंडिया" के लेखक एम ए शेरिंग नामक धर्मान्ध और फ़ण्डामेंटालिस्ट पादरी लिखता है:
" कास्ट हिंदुओं के पूरे धार्मिकता का वर्णन करती है। कास्ट ने ही हिंदुओं को गुलाम बनाया है और यह 'इन सहज विश्वासी गुलाम हिन्दू मनोमस्तिष्क ने ही सत्ता और अच्छे उपहारों के प्यासे दुस्ट ब्राम्हणो ( Wily Brahmins) को स्वर्णिम अवसर प्रदान किया है। ये दुस्ट ब्राम्हण ही विशेष दोषी हैं। ब्राम्हण न सिर्फ दुस्ट है वरन 'अहंकारी' घमंडी, स्वार्थी,अत्याचारी, आपस मे सांठ- गांठ करने वाला, और महत्वाकांक्षी है। शेरिंग इस बात पर दृढ़ था वैदिक काल के बाद जाति की उत्पत्ति निश्चित तौर पर ब्राम्हणो का षड्यंत्र था। " कास्ट की उत्पत्ति के लिए ब्राम्हण उत्तरदायी हैं। यह उसी का अविष्कार है"।
इस तरह के सतही और निराधार गालियां का साँचा ( टेमपलेट) तैयार किया गया जो आज तक काम कर रहा है।
आगे चलकर मैक्समुलर के आर्यन अफवाह के सांचे को हिन्दू समाज पर फिट किया गया तो HH Risley जैसे अनेक रेसिस्ट फ़ण्डामेंटालिस्ट ईसाई शासकों ने इसी तरह के अन्य फेक न्यूज़ की रचना किया।
एक साथ उन्होंने दो शिकार किया - हिन्दू समाज की मेधाशक्ति को गाली देकर उसे निम्न प्रमाणित किया। और समाज के आंतरिक ग्लू "जाति" को निम्न और ब्राम्हणो के द्वारा रचित निम्न सामाजिक संरचना बताकर उस जाति नामक उस अभेद्य दुर्ग को तोड़ने में सफल रहे जिसके जीवित रहते ईसाइयत का हिन्दू समाज मे प्रवेश सम्भव नही था।
आगे चलकर अम्बेडकर जैसे "एलियंस और स्टूपिड प्रोटागोनिस्ट्स" पैदा होंगे जो फ़ण्डामेंटलिस्ट ईसाइयों के बिछाए गए नरेटिव के जाल में फंसकर #AnnihilationOfCast जैसी अवधारणा का जन्म देंगे जिन्हें न वर्ण व्यवस्था की समझ थी न जाति की।
संविधान में कास्ट को घुसेड़वाना उसी ईसाई फ़ण्डामेंटलिस्ट षड्यन्त्र का हिस्सा था, जिसको हमारे पूर्वजों ने बिना सोचे समझे लपक लिया।
( ब्रेकिंग इंडिया - राजीव मल्होत्रा, और तथ्यों के आलोक में अम्बेडकर - डॉ त्रिभुवन सिंह से साभार उद्धरित है अधिकतर कंटेंट)
#नोट : कास्ट न वर्ण है, और न ही जाति।
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अब एक लेख पढिये जिसे किसी स्कॉलर ने लिखा है :

Monday 30 September 2019

#ट्राइब_का_क्रिश्चियन_एजेंडा:

यह सर्वविदित है कि ईसाइयों ने पिछले 500 वर्षों में मुsal मानों को बहुत पीछे छोड़ दिया।
यद्यपि दोनों के धर्मग्रंथ एक ही जैसे हैं, एक ही नीतियों का अनुपालन करने वाले।
बर्बरता में दोनों का कोई मुकाबला नही।
दस्युता में भी दोनो का कोई मुकाबला नहीं।
दोनो की नीति रही है - गैर धर्मी लोगों की जर जोरू जमीन पर कब्जा। तलवार के दम पर धर्म परिवर्तन।
लेकिन एक मामले में वे आगे निकल गए।
वे अपने असली कुरूप चेहरे को ढककर दूसरों को कुरूप प्रमाणित करने में वे विश्व मे सर्वश्रेष्ठ हैं।
याद होना चाहिए आपको इराक पर वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन के नाम पर उस देश का विनाश करना।
ऐसे अनेको उद्धरण मिलेंगे।
अफवाहबाजों के बाप हैं वे - विलियम जोंस और मैक्समुलर जैसे अफवाहबाज उनके सैंपल हैं।
भारत के कृषि शिल्प और वाणिज्य का उन्होंने विनाश किया और लगभग 45 ट्रिलियन पौंड की लूट किया।यह बात अभी उषा पटनायक ने बोला है। इसके अतिरिक्त पॉल बैरोच, अंगुस मैडिसन, शशि थरूर, और एस गुरुमूर्ति आदि आदि भी बोलते आये हैं।
उन्होंने 1850 से 1900 के बीच लगभग 3 से 4 करोड़ हिंदुओं को भूंख और संकामक रोगों से मरने को विवश किया।
लेकिन मैक्समुलर जैसे अफवाहबाज अकेडेमिया, और एम ए शेरिंग जैसे धर्मान्ध मिशनरी, और HH Risley जैसे रेसिस्ट अधिकारियों की मिली जुली तिकड़ी गिरोह ने अपने कुकृत्यों और अपराधों का भण्डा ब्राम्हण वाद और मनुवाद के सिर पर फोड़ा।
कालांतर में अम्बेडकर जैसे लोगों ने उन्ही के अफवाहों को आगे बढाने का कृत्य किया।
मैक्समुलर द्वारा रचित #आर्यन_अफवाह 1885 तक गजेटियर ऑफ इंडिया में छपती है। गजेटियर में छपने के अर्थ तो आप आज भी समझते हैं कि यही आधिकारिक और प्रमाणिक सत्य है।
उसी अफवाह को आधार बनाकर 1901 में जनसंख्या कमिसनर HH Risley भारत के समुदायों की एक लिस्ट बनाता है। गजेटियर में #आर्यन घोसित तीन वर्णों ब्राम्हण, क्षत्रिय, और वैश्य को वह अपनी लिस्ट में सबसे ऊंचा स्थान देता है और उन्हें हाई कास्ट घोसित करता है। बाकी अभी हिन्दू समुदायों को निन्म कास्ट।
अपने इस दुष्कृत्य को वह मनुस्मृति के हवाले करता है।
अर्थात वह लिखता है कि "मनुस्मृति हिंदुओं की बहुत श्रेष्ठ और आदर्श हिन्दुओ को चार कास्ट में ( वर्णों नहीं कास्ट ) में विभाजित किया गया है ... परंतु ...", इसके बाद वह हिन्दू समाज मे कास्ट की उत्पत्ति के बारे में युरोपियन अफवाहों को वर्णित करते हुए हिन्दुओ में 2378 कास्ट्स की लिस्ट बनाता है।
इससे दो रहस्यों का पर्दाफाश होता है। अब चूंकि रिसले जैसे गोरी चमड़ी ने कास्ट की उत्पत्ति के लिए मनुषमृति को उत्तरदायी ठहराया तो अम्बेडकर जैसे विद्वानों ने उसे मनुस्मृति से वेरीफाई किये बिना अग्निदाह करने का कृत्य करना उचित समझा - #AnnihilationOfCaste और मनुस्मृति का इतना ही सम्बन्ध है। तभी से सरकार द्वारा कास्ट सर्टिफिकेट प्राप्त करने के उपरांत मूर्ख पिछलग्गू जाति विहीन भारत की स्थापना करने में लगे हैं।
दूसरा रहस्य जो इस कथानक में आगे आएगा वह यह है - कि विभिन्न राजघराने जो आज SC/ ST या OBC हैं, वे रिसले द्वारा बनायी गयी लिस्ट में तीन ऊंची कास्ट में चिन्हित न होकर नीचे वाली लिस्ट में चिन्हित किये गए। इसीलिए वे राजघराना होते हुये भी SC/ST या OBC हैं।
अब आइये ट्राइब की कथा में। ट्राइब शब्द का किसी देशी भाषा मे समानार्थी शब्द नही है। कुछ लोग कहेंगे - कबीला। लेकिन यह पर्शियन या अरेबिक शब्द है। इसलिए मुझे इसका अर्थ नही पता। आपको पता हो तो बताइए।
1911 की जनगणना में वनवासी और गिरिवासी हिंदुओं को हिन्दुओ की लिस्ट से अलग चिन्हित किया जाता है कि ये - #एनिमिस्ट हैं। अब एनिमिस्ट का क्या अर्थ है यह वही जाने। आने वाले दिनों के वे इनके लिये कभी एनिमिस्ट और कभी ab original शब्द का प्रयोग करेंगे जो कि एक लैटिन शब्द है।
1935 में जब संविधान निर्माण का नाटक करते हुए गवर्नमेंट एक्ट ऑफ इंडिया 1935 का कानून ब्रिटिश संसद से निर्मित होगा तो 1936 में इन्हें शेडयूल्ड ट्राइब घोसित किया जाएगा। 1950 के संविधान में इन्हें जस का तस सम्मिलित कर लिया जाएगा।
उनको जो लाभ मिल रहा है मैं उसकी बात नही करता।
● मैं उससे बड़ी और देश विरोधी कृत्य की बात करता हूँ। अभी यह खबर छपी है कि मणिपुर के किसी NIT में गणेश जी की मूर्ति को हटवाया जाय क्योंकि ईसाइयों की धार्मिक भावना आहत हो रही है।
देश के अंदर इससे बड़ी देश द्रोही घटना और क्या होगी?
नीचे नागालैंड की ईसाई जनसंख्या का पिछले 1881 से 1981 के बीच हुए ईसाइयत में कितनी वृद्धि हुई, यह देखने वाली बात है।
1881 में इनका प्रतिशत था .003%
1981 में इनका प्रतिशत है 90.0%.
नागालैंड ट्राइबल स्टेट है।
इन गहरी चालों की समझ क्या हमारे राजनीतिज्ञों और बेरोक्रेसी को है कि संविधान में आरक्षण देने का उद्देश्य उनकी भलाई करना नहीं वरन ईसाइयत में धर्म परिवर्तन का संवैधानिक आधार तैयार करना था।
यदि 1935 का गवर्मेन्ट ऑफ इंडिया भारत के भलाई के लिए बना था तो 1935 के बाद लाखों भारतीयों ने आने वाले 12 वर्षो में नाहक ही अपनी जान गवायीं ?
यदि वे आपके इतने ही हितचिंतक थे, तो पूरे स्वतंत्रता संग्राम और सेनानियों का कोई महत्व है क्या ?
लेकिन भारत के पार्लियामेंट और बेरोक्रेसी में "एलियंस और स्टूपिड प्रोटागोनिस्ट्स" का ही बोल बाला रहा है पिछले 70 वर्षों में।
उनसे अपेक्षा भी क्या कर सकते हैं?

Wednesday 25 September 2019

#शूद्र_मृत्युदंड_दे_सकता_था_1807_तक ?

#शूद्र_मृत्युदंड_दे_सकता_था_1807_तक ? :: ब्राम्हण शूद्रों के भी पुरोहित थे । दक्षिण भारत की एक झलक द्रविडियन नश्ल के पोस्ट्मॉर्टेम के पूर्व।
इस सामाजिक वैभव का निर्माण तब हुवा था, जब समाज केंद्रीय कानूनों से नही वरन स्वयं से प्रशासित था।
कानून तो बनाये ही गए भारत को लूटने और उसका दोषारोपण ब्रम्हानिस्म और मनुवाद पर करने हेतु।
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1750 से 1900 के बीच भारत की जीडीपी विश्व जीडीपी का 25 प्रतिशत से घटकर मात्र 2 प्रतिशत बचती है। और जिसके कारण 800 प्रतिशत लोग बेरोजगार और बेघर हो जाते हैं ।
एक वर्ष पूर्व जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का भी एक लेख आया जिसमे उन्होंने अंग्रेजों कि इसी डस्ट कृत्य को जिम्मेदार ठहराते हुए 100 मिलियन लोगों यानि करोड़ लोगों की #भूख से मौत का जिम्मेदार ठहराया है।
गणेश सखाराम देउसकर और विल दुरान्त ने लिखा है कि मात्र 1875 से 1900 के बीच 2.5 करोड़ लोगों की मौत #अन्नाभाव और संक्रामक रोगों की चपेट में आने से हो जाती है , इसलिए नहीं कि अन्न की कोई कमी थी , बल्कि बेरोजगार हुये भारत का निर्माता वर्ग के पास जीवन रक्षा हेतु, अन्न खरीदने का पैसा नहीं था।
अंग्रेज नहीं मरता कोई?
सिर्फ भारतीय ही मरते हैं?
इसी को डॉ आंबेडकर ने एनी बेसेंट के हवाले से उनका 1909 के भाषण का उल्लेख किया है जिसमे बेसेंट जी ने कहा कि इंग्लैंड की 10 प्रतिशत जनसँख्या "The submeged tenth ( तलछट की आबादी ) और भारत की एक छठी आबादी Generic Depressed one sixth Class जैसी है जो रहने खाने और अशिक्षा सौच और जीवन यापन के लिए एक ही जैसा कार्य करती है यानि मेहतर भंगी और स्वीपर का काम।
लेकिन इसे विद्वानों ने इसके लिए भारत के ग्रंथों से बिना सन्दर्भ और प्रसंग से उद्दृत किये श्लोकों का हवाला देते हुए ब्रम्हानिस्म को जिम्मेदार ठहराया है। इस इतिहास लेखन में भारत के आर्थिक इतिहास को काटकर अलग कर दिया गया।
लेकिन ईसाई संस्कृतज्ञ विद्वानों द्वारा हमारे पूर्वजों को "धूर्त दुस्ट घमंडी ब्राम्हणों की" उपाधि से नवाजे जाने के पूर्व ,डॉ फ्रांसिस बुचनन की 1807 में लिखी एक पुस्तक (जिसका जिम्मा अंग्रेजी शासकों ने सौपा था ,दक्षिण भारर्त की जनता के बारे में , उनकी संस्कृति , और उस समय के व्यापार के बारे में ):
" JOURNEY FROM MADRAS through the countries of MYSORE CANARA AND MALABAR" PUBLISHED BY EAST INDIA COMPANY , के कुछ वाक्यांश , जो उस समय के भारत की झलक देते हैं।
(इस बात को ध्यान में रखा जाय कि 1750 तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद विश्व का 25 %% था , जबकि ब्रिटेन और अमेरिका कुल मिलाकर मात्र 2% के हिस्सेदार थे। और पर कैपिटा industralisation और प्रति व्यक्ति आमदनी लगभग बराबर थी। आने वाले 50 वर्षों में यानि 1800 में भारत का शेयर गिरकर 20% तक पहुँच गया था , लेकिन 1900 वाला हाल नहीं हुवा था जब भारत के जीडीपी का शेयर मात्र 2 % बचा।
इस समय तक ईसाईयों को अभी ब्राम्हणों को धूर्त घमंडी और खड़यन्त्र कारी सिद्ध करने का अवसर नहीं आ पाया था।)
विजय नगर के तुलवा क्षेत्र ,जो पहले जैन राजाओं के कब्जे में था जिसको बाद में हैदर और टीपू सुलतान ने अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था , के बारे में डॉ बुचनन के उद्धरण :
(1) इस इलाके में 6 मंदिर और 700 ब्राम्हणों के घर थे , लेकिन जब टीपू सुलतान ने इस क्षेत्र पर कब्ज़ा किया इन ब्राम्हणों के घरों को तबाह। नष्ट कर दिया , और अब मात्र 150 ब्राम्हणों के घर बचे हैं।
(Vol iii,पेज - 75 )
(2) तुलवा में घाट के ऊपर बसने वाले ब्राम्हण ,वैश्य और अन्य जातियां अपने पुत्रों को वारिस मानते हैं , परन्तु राजा (क्षत्रिय ) और शूद्र,जो कि भूमि के मालिक हैं वे अपने बहनों के बच्चों को अपना वारिस मानते हैं।
शूद्रों को भी जानवर खाने और देशी शराब पीने की इजाजत नहीं है , सिर्फ क्षत्रियों को मात्र युद्ध के समय जानवरों कि हत्या करने और खाने की इजाजत है।ये सभी लोग अपने मृतकों को आग में जलाते हैं ( लाश को फूकते हैं )।
(Vol iii, पेज - 75 )
(३) मध्वाचार्य के अनुयायियों ने बताया कि तलुए के ब्राम्हण पंच द्रविड़ कहलाते हैं जो कि पूर्व में भारत के पांच अलग अलग राज्यों और भाषाओँ को बोलने वाले है , जिनमे तेलिंगा (आंद्रेय से ) , कन्नड़ (कर्णाटक से ) ,गुर्जर (गुजरात से) ,मराठी (महाराष्ट्र से ) ,तमिल बोलने वाले पांच भाषाओ को मिला कर पंच द्रविड़ का इलाका बनता है। लेकिन तमिल बोलने वाला इलाका द्रविड़ या देशम कहलाता है। इनकी शादी विवाह सिर्फ अपने ही मूल भाषा बोलने वालों के बीच होता है।
(Vol iii, पेज -90)
(4)इस क्षेत्र का एक्सपोर्ट और इम्पोर्ट गजट के अनुसार क्रमशः9 ,63,833 रूपये (यानि एक्सपोर्ट ) और 1,08,045 रुपये (इम्पोर्ट ) है , और एक रुपये की कीमत 2 पौंड के बराबर है।
( अर्थात एक्सपोर्ट लगभग इम्पोर्ट का 9 गुना , यानि कितने लोग रोजगार युक्त ,कितने टेचनोक्रट्स ,कितने interpreunerer , जो अगले 100 सालों में बेघर और बेरोजगार होने वाले हैं)
(Vol iii पेज- 246)
(5) एक चिका- बैली -करय नामक एक स्थान पर लोहे कि भट्ठी का वर्णन वे करते हैं कि वहाँ पर जो लोहा बनाया जाता था कच्चे आयरन ore से , स्टील बनाने की तकनीक का वर्णन करते हुए बुचनान बताता है कि गाँव के लोग किस तरह लोहा पैदा करते थे, उसका बंटवारा किस रूप से करते थे ?
इसी को वैदिक मॉडल ऑफ इकॉनमी कहते हैं। जिसमें कोई मालिक नही है, सब शेयर होल्डर हैं।
" Every 42 plough shares are thus distributed -----------------------------------------------------------------------
To the proporieters -----11
tot he 9 charcoal makers ------------9
To the iron smith ------------------3.5
to the 4 hammer -men --------7
to the 6 bellows -men --------8
to the miner -------------------1
to the buffalo driver ---------------2.५
total ----------------------42"
( Vol iii, page--362)
ये प्रमाण है इस बात का कि भारतीय समाज में आज से मात्र २०० साल पहले तक मालिक और श्रमिक के हिस्से बराबर तो नहीं लेकिन एकदम वाजिब होते थे, शोसण पर आधारित श्रम नहीं था , जैसा कि हमें पढ़ाया गया है , उससे एकदम इतर।
डॉ फ्रांसिस बुचनन आगे उद्धृत करते हैं कि Comarapeca कोंकणी कि एक ऐसी ट्राइब है , जो कि विशुद्ध शूद्र है, ये उस इलाके में ऐसे ही बसते हैं , जैसे मलयालम के विशुद्ध शूद्र nairs हैं। ये पैदाइशी खेतिहर और योद्धा हैं ,,और इनका झुकाव डकैती की तरफ रहता है ( ज्ञात हो कि बुचनन ने जब caste / ट्रेड की लिस्ट बनाई तो क्षत्रियों को संदेशवाहक ,योद्धा या डकैत क़ी श्रेणीं में डाला )। इनके मुखिया वंशानुगत रूप से नायक कहलाते हैं जो किसी को भी आपस में सलाह करके जात बाहर कर सकते थे। ये पुराने शाश्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं और मांस तथा शराब का भी सेवन कर सकते हैं। श्रृंगेरी के स्वामलु उनके गुरु हैं जो उनको पवित्र जल . भभूत और उपदेश देते हैं शादी विवाह नामकरण और शगुन तिथियों को बताने के लिए इनके निश्चित ब्राम्हण पुरोहित हैं। ये मंदिरों में विष्णु और शिव जी क़ी पूजा करते हैं जिनकी देखभाल कोंकणी ब्राम्हण करते हैं। ये देवियों के मंदिरों में शक्ति क़ी पूजा भी करते हैं और पशुबलि भी चढ़ाते हैं।
कोंकण में रहने वाले ब्राम्हण जो मूलरूप में गोवा में रहते थे , पुर्तगालियों ने जब उनको गोवा से भगा दिया (नहीं तो धर्म परिवर्तन कर देते ) अब मुख्यतः व्यापारी हो गए हैं ,लेकिन कुछ लोग अभी भी पुरोहिताई करते हैं।
तुलवा भाषी मूलनिवासी , जो लोग खजूर/ ताड के पेड़ों से गुड और शराब बनाने के लिए उनका रस/जूस निकलते हैं उनको बिलुआरा (Biluaras ) नामक जात से जाना जाता है ,वे अपने को शूद्र कहते हैं लेकिन कहते हैं कि वे बुन्त्स (bunts ) से सामजिक स्तर पर नीचे मानते हैं / लेकिन इनमे से कुछ लोग खेती भी करते हैं , लेकिन ज्यादातर लोग मजदूर हैं इन खेतों में , लेकिन काफी लोग मालिक भी हैं खेतों के।
इनके आपसी मामलों को निपटने के लिए सरकार द्वारा एक व्यक्ति नियुक्त होता है जिसको गुरिकारा के नाम से जाना जाता है , उसे किसी व्यक्ति को अपने समाज के वरिष्ठ लोगों से सलाह करके ,जात बाहर करने या मृत्युदंड (कार्पोरल पनिशमेंट ) देने का अधिकार है। इनमे से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है। इनको मांस भाषण का अधिकार तो है परन्तु मदिरा पीने का हक़ नहीं है। इनका मानना है कि मृत्यपर्यंत अच्छे लोग स्वर्ग में जाते हैं , और बुरे लोग नरक में।जो लोग सक्षम है . वे लाशों को जलाते हैं परन्तु , गरीब लोग उनको जमीन में गाड़ देते हैं।
इनमे से कुछ लोग ही विष्णु जैसे बड़े देवताओं कि पूजा करते हैं , लेकिन ज्यादातर लोग "मरिमा" नामक शक्ति को बलि चढ़ाते हैं , बुरी आत्माओं को भगाने के लिए।
ज्यादातर बुलिआरों या उन लोगों के यहाँ जो शक्ति कि पूजा करते हैं, के शादी व्याह में या मृत्यु पर कोई पुरोहित मन्त्र या शास्त्र पढने नहीं जाता।
लेकिन जो बुलिअर विष्णु की पूजा करते हैं उनके पुरोहिताई का जिम्मा श्री वैष्णवी ब्राम्हणों का है।वे उनको उपदेश भी देते हैं ,Chaki'dntikam, भी देते हैं और पवित्र जल का छिड़काव भी करते हैं"।
( रेफ: डॉ फ्रांसिस बुचनन .a journey from Mdras through ,mysore Canara and Malabar " Vol iii --पेज - 52-53)
buchanan classified all castes of south India 122 categories only , and as sole criteria being caste / trade Buliars were categorized as extractors of juice from palm tree and Buntus as Cultivators but both categorized under Shudras under Varna scale of Hindu DharmVarnashram .
बुचनन का नाम इतिहास के हर व्यक्ति को मालूम हैं।
शूद्र / दलित मृत्युदंड दे सकता था 1807 तक ???
शूद्र / दलित खेतों का मालिक भी हो सकता है , और खेतिहर किसान भी हो सकता है।
और ब्राम्हण उसका पुरोहित भी था?
बुचनान एक डॉक्टर था। साइंस की पृष्ठभूमि का। उसकी बुद्धि तथ्य खोजने वाली प्रतीत होती है।
उसने यह सर्वे 1800 AD में शुरू किया था।
उसके अनुसार द्रविड़ एक क्षेत्रीय अस्मिता वाला शब्द है।
अब आएंगे दस्युवो के साथ वाले धर्मान्ध ईसाई - मिशनरीज और प्रशासकों के भेष में।
वे पहले कल्पना के पर लगाकर यह सिद्ध करेंगे कि द्रविड़ कोई क्षेत्रीय अस्मिता न होकर एक अलग भाषा है जिसका संस्कृत से सम्बन्ध न होकर हिब्रू भाषा से सम्बन्ध है।
फिर एक विलियम मोनिर मोनिर नामक मैक्समुलर का प्रतिद्वंदी आएगा जो यह सिद्ध करेगा कि द्रविड़ भाषा नही, वरन एक नश्ल है।
भारत के कृषि शिल्प वाणिज्य को नष्ट किया जाएगा जिससे करोड़ो लोग भुखमरी और संकामक रोगों की चपेट में आकर मृत्यु का वरण करेंगे।
उधर यूरोप में बैठकर मैट्रिक पास प्रोफेसर और डॉक्टर मैक्समुलर आर्यन अफवाह की रचना करेगा।
1872 फ्रस्टेट मिशनरी एम ए शेरिंग अकारण ही ब्राम्हणो को दुष्ट, अहंकारी और स्वार्थी जैसे गाली देने का टेमपलेट तैयार करेगा।
कुल मिलाकर 1900 आते आते अपने अपराधों के कारण बेघर बेरोजगार और मृत्यु से संघर्षरत भारतीयों की इस दशा के लिए ब्रम्हानिस्म और मनुवाद को दोषी ठहराया जाएगा।
हिंदुओं के तीन वर्ण जिनको वह आर्यन कहते थे, उन्हें 1901 में तीन ऊंची कास्ट में चिन्हित किया जाएगा, बाकी समस्त समुदायों को नीची जाति में।
आगे की कथा हम कई बार लिख चुके हैं।
कल #मक्कार_दिवस था, उसको पढ़कर समझिए।
यह पुस्तक तीन वॉल्यूम में संकलित है। लगभग 1450 पेज में। गूगल आर्काइव से फ्री डाउनलोड कर सकते हैं।
3000 वर्षो की अछूत कथा धड़ाम से गिर पड़ेगी क्योंकि इसके 1450 पेजो में एक पैराग्राफ भी अछूतपन और अछूत के बारे में नहीं है।

#धिक्कार_दिवस 24 सितंबर

#धिक्कार_दिवस 24 सितंबर
या
इसी दिन 1932 में पूना पैक्ट हुवा था अम्बेडकर और गांधी के बीच। जिसके कारण हिंदुओं के एक बड़े हिस्से को कानूननअछूत घोसित किया गया था।
जबकि भारत का कोई शास्त्र और ग्रन्थ अछूत पन का जिक्र भी नही करता।
मजे की बात यह है कि 1900 AD के पूर्व ब्रिटिश दस्युवों द्वारा भारत के बारे में लिखे गए किसी भी ग्रन्थ में इस शब्द का जिक्र तक नही है।
आप आज जानते हैं कि ब्रिटिश दस्युवों के आने के पूर्व भारत विश्व की 24% जीडीपी का निर्माता था। लेकिन 1900 आते आते भारत मात्र 1.8% जीडीपी का निर्माता बच सका। उन्होंने भारत के समस्त #कृषि_शिल्प_वाणिज्य का विनाश कर दिया।
जहाँ 1700 और 1720 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत से आयातित सूती और छींट के वस्त्रों के देशी नग्रेजो द्वारा उपयोग करने से रोकने हेतु ब्रिटिश संसद ने #Calico_Act कानून बनाया गया था, जिससे उनके देशी मैन्युफैक्चरर को सुरक्षित रखा जा सके, वही 1900 आते आते भारत पूर्णतः ब्रिटिश से आयातित वस्त्रों पर निर्भर हो गया।
( Calico Act गूगल करिए )
करोड़ो भारतीय बेरोजगार हो गए। जो हजारों वर्षों से कृषि, शिल्प और वाणिज्य के आधार पर जीवन यापन करते थे। इसका प्रमाण है रोमन इतिहासकार प्लिनी द्वारा लिखित इतिहास। प्लिनी लिखता है कि भारत से सिल्क आयातित करने के कारण रोम से समस्त धन और सोना भारत चला जाता है।
भारत के आर्थिक व्यवस्था के नष्ट किये जाने और लूट की बात अभी 2015 में शशि थरूर ने ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन में आयोजित एक सेमिनार में किया। जिस पर ब्रिटेन के अन्य स्पीकर सहमत थे। भारत के प्रधानमंत्री Narendra Modi जी ने शशि थरूर को बधाई दिया था।
लेकिन कोई राजनेता और समाजशास्त्री यह बात करने को तैयार नही है कि इस लूट और विनाश का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?
यद्यपि इस लूट और विनाश का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा इस पर अनेकों लेखकों ने प्रकाश डाला है - 1900 से बीच 1930 के बीच।
रोमेश दत्त, दादा भाई नौरोजी, गणेश सखराम देउसकर, विल दुरंत, जे सुन्दरलैंड, आदि के द्वारा लिखित पुस्तकें मैने स्वयं पढ़ी हैं। इसके अतिरिक्त भी अनेको लेखकों ने इसका वर्णन किया है।
वामपंथी के पितामह #कार्ल_मार्क्स ने भी 1853 में भारत मे लूट और विनाश के प्रभाव के बारे में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून में लिखा था। ( गूगल कीजिये) मार्क्स लिखता है - "1818 में ढाका में 1,50,000 शिल्पी थे जिनकी सांख्य 1836 में घटकर मात्र 20,000 बची"।
क्या हुवा 1,30,000 शिल्पियों का आने वाले दिनों में?
और यह तो सिर्फ एक शहर का डेटा है। और वह भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पूर्व का।
इनका हुवा यह कि 1850 से 1900 के बीच 3 से 4 करोड़ बेरोजगार किये गए भारतीय भुखमरी और संकामक रोगों के शिकार हुए और मृत्यु को प्राप्त हुए।
इन्ही संक्रामक रोगों से बचने के लिए अछूत प्रथा ( न छूने की प्रथा ) की शुरुवात हुई।
लेकिन नरसंहार से बड़ा अपराध अछूतपन को सिद्ध किया गया। क्योंकि पढ़े लिखे भारतीय पूर्णतया - मैकाले स्कूल से निकले एलियंस और स्टूपिड प्रोटागोनिस्ट निकले। उन्होंने ने ही नहीं विश्व ने दस्यु ईसाइयो द्वारा रचे गए फेक न्यूज़ को सच मान लिया।
विलियम जोंस मैक्समुलर जैसे धर्मान्ध ईसाइयो द्वारा रचित फेक न्यूज़ को सच्चे इतिहास की तरह प्रसारित किया गया।
1901 में नश्लीय मानसकिता के HH रिसले मैक्समुलर द्वारा रचित #आर्यन_अफवाह को आधार बनाकर तीन वर्णों ( ब्राम्हण क्षत्रिय और वैश्य) को तीन ऊंची कास्ट में लिस्टित करता है, और बाकी अन्य शिल्प कृषि वाणिज्य आधारित बेरोजगार की गए समुदायों को नीची कास्ट में।
#अफवाहबाजों ने अपने अपराधों को फेक न्यूज़ के आधार पर अपने कुकृत्यों और अपराधों को ढांक तोप कर, इन नीची घोसित किये गये हिन्दू समुदायों के बेरोजगारी और संकामक रोगों से हो रही मौत की दुर्दशा का जिम्मेदार ब्रम्हानिस्म और मनुषमृति को ठहराया।
उन्होने राजनीतिक और ईसाइयत में धर्म परिवर्तन का आधार तैयार करने के लिए 1901 के जनगणना के बाद, वन वासी और गिरिवासी हिन्दुओ को एनिमिस्ट , और बेघर बेरोजगार किये गए हिंदुओं को डिप्रेस्ड क्लास के नाम से चिन्हित किया।
1928 में जिस साइमन कमीशन का पूरे भारत ने विरोध किया था, उससे अम्बेडकर सांठ गांठ करते हैं, कि वह अम्बेडकर की पीठ पर हाँथ रखकर उनकी राजनैतिक पहचान बनाने का वादा करता है, यह रिसर्च का विषय है, परंतु, अम्बेडकर जी उससे मिलते हैं।
और एक रिपोर्ट तैयार करते है - जिसको लोथियन समिति के नाम से जाना जाता है। जिसमे उन्होंने ब्रिटिश दस्युवो से सांठ गांठ करते हुए लिखा कि डिप्रेस्ड क्लास ही अछूत है।
उन्होंने अछूत और सछूत ( touchble और untouchble) जैसे शब्दों की व्याख्या करते हुए इसको हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग बताया। और पूरी के मंदिर को लूटने के लिए बनाये गए रेगुलशन 1806 का उद्धरण प्रस्तुत करते हुए अपनी बात को प्रमाणिक सिद्ध करने का प्रयास किया।
वे सफल भी रहे।
लेकिन सछूत और अछूत जैसे शब्द किसी भारतीय ग्रन्थ में नहीं मिलते।
क्यों नही मिलते ?
सोचिये।
अंग्रेज तो चाहते ही यही थे। बन्दर काम का था। मदारी के मनमाफिक करतब दिखा रहा था।
लेकिन यदि आप रेगुलशन 1806 को पढियेगा तो पाइयेगा कि अम्बेडकर जी ने फेक डॉक्यूमेंट तैयार करने का आपराधिक कृत्य किया था। IPC के अनुसार जाली कागजात तैयार करना बहुत बड़ा अपराध है।
नग्रेजो ने बाबा साहेब को उनके द्वारा किये गए सहयोग के लिये - उन्हें कम्युनल अवार्ड दिया और सेपरेट एलेक्टरेट प्रदान किया।
गांधी ने राउंड टेबल कांफ्रेंस में इसका विरोध किया था।
लेकिन ब्रिटिश द्वारा सेपरेट एलेक्टरेट दे दिया गया तो उन्होंने यरवदा के जेल में आमरण अनशन किया।
आज ही के दिन उस सेपरेट एलेक्टरेट के विरुद्ध गांधी और अम्बेडकर में पूना पैक्ट हुई।
जो आगे जाकर संविधान में आरक्षण का आधार बना।
ज्ञातव्य हो कि पाकिस्तान भी सेपरेट एलेक्टरेट की देन है और आरक्षण भी।
मजे की बात यह है कि ब्रिटिश शासन में दो गुलाम भारतीय आपस मे समझौता कर रहे हैं, जो आने वाले दिन में भारत के भविष्य का निर्धारण करेगा। इसका उदाहरण विश्व मे कहीं नही मिलेगा।
बिल्ली मौसी दो बंदरो के बीच रोटी बांटने में न्यायधीश की भूमिका निभा रही है। ब्रिटिश साले आज भी हंसते होंगे कि ये साले कितने बड़े चुतिया हैं।
बिल्ली मौसी और दो बन्दर - संविधान

Saturday 21 September 2019

Reservation is scam _ See the evidence

ग्वालियर का सिंधिया राज परिवार 300 साल पुराना है या 400 साल, ये नहीं पता।
लेकिन उनके बारे में तीन बातें सत्य हैं।
1-1857 में वे नग्रेजो के साथ थे।
2- आज उनकी कितनी संपत्ति और भूमि भारत के विभिन्न शहरों में हैं, सम्भवतः वह भी नहीं जानते।
3- और आप यह नही जानते कि 1989 के मंडल आयोग के निर्देशों के अनुसार वे ओबीसी हैं।
यदि आपको यह नहीं लगता कि जो इतिहास समाज शास्त्र और संविधान आपको पढ़ाया जा रहा है, वह एक बड़े झूंठ - फेक न्यूज़ पर आधारित नहीं है तो?
न लगे ऐसा तो एक ही बात संभव है।
आपको किसी मेन्टल डॉक्टर से मिलना चाहिए।
ये देखिये यह स्वयं बोल रहे हैं कि वे जाति के कुर्मी हैं।
यदि ऐसा सच है तो?
दो बातें।
भारत मे कुर्मी ओबीसी और अन्य लोग भी राजा हो सकते थे। उनके राजा होने पर तो किसी को संदेह नही है।
यदि यह सच है तो भारत मे पिछले 100 वर्षों में, पिछले 3000 वर्षों से जातिगत भेदभाव का जो रण्डी रोना मचा हुआ है, उसके पीछे कोई गम्भीर रहस्य छुपा है, कोई षड्यन्त्र छुपा हुआ है।
अभी पिछले वर्ष मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक एफीडेविट दिया है जिसमें उन्होंने 1000 वर्ष के जातिगत भेदभाव को स्वीकारा है।
उनको अपने एफीडेविट को रिव्यु करना चाहिए।
...
भारत के संविधान को समझो - जो आज भी राजघराने से उतपन्न जीव है, और उसकी तीन पीढ़ी संसद में थी, वह ओबीसी है ?
ओबीसी भी राजा हो सकता था मनु स्मृति के विधान से।
भारत उन्नति के पथ पर है, या क्षरण के पथ पर ?