Friday 8 October 2021

चित्त की दशा : आनंद की खोज

#चित्त_की_दशा : माइंड सेट 

या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोय।
ज्यों ज्यों डूबे श्याम रंग त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।

चित्त अर्थात मन का अर्थ ही है - किसी न किसी चीज से रंगा होना। किसी न किसी चीज से उलझे रहना। मन खाली नहीं बैठ सकता। वह उसके स्वभाव के विरुद्ध है। अखबार पढ़ो, किताब पढ़ो, फेसबुक या व्हाट्सएप में उलझे रहो। कुछ न कुछ करते रहो। खाली होते ही मन में घबराहट और उलझन होने लगती है। 

चित्त की तीन दशा हो सकती है - अनुरागी विरागी और वीतरागी। 
अनुरागी - अर्थात जिसका अनुगमन करता हो। मन की निरंतर किसी न किसी चीज के पीछे भागता रहता है। चंचलता उसका स्वभाव है। वह स्थिर नहीं रह सकता। वह खोजता है सुख, आनंद। इच्छाओं के माध्यम से, कामनाओं के माध्यम से। लेकिन पाता है अशांति, दुख, तनाव, निराशा। इसका अर्थ क्या हुवा? लक्ष्य तो हमारा ठीक है परंतु सम्भवतः लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग ठीक नहीं है। 

मन को  बन्दर कहा गया है उसे शास्त्रों में। अर्जुन भी चित्त की इसी भाव दशा से परेशान था। अर्जुन कहता है:
चन्चलं ही मनः कृष्ण: प्रमाथ बलवत दृढम्।
मन बहुत चन्चल है, मथता रहता है, बलवती है और दृढ़ भी। 
मन का स्वभाव है कि यह न्यूनतम प्रतिरोध वाली दिशा में भागता है। न्यूनतम प्रतिरोध का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि जहां वह पहले जा चुका है बारम्बार। इसलिए वह वहीं जाता है। जिन विषयों में मन बारम्बार लगाया जाता है। जबरदस्ती नहीं, रुचि के साथ, अनुराग के साथ, वहां वह बारम्बार जाता है। 

इसीलिये मन पढ़ाई से भागता है। क्योंकि वहां कोई अनुराग नहीं है। उसे जबरदस्ती वहां लगाना पड़ता है। पढ़ते समय भी वह कई बार वहां से भाग खड़ा होता है। और पूरा पेज पढ़ने के उपरांत भी समझ में नहीं आता कि पढा क्या था?

तो मन जब उन उन चीजों में जाय जहाँ उसे लगता है कि खुशी मिलेगी, सुख मिलेगा, आनंद मिलेगा, वह है अनुराग। मन का यह पॉजिटिव आयाम हुवा। 

इसी का नेगेटिव आयाम है - विराग। पहले जिन जिन वस्तुओं से अनुराग था, कालांतर में उसी से विराग उत्पन्न हो गया। कल जिससे दांत काटी रोटी का रिश्ता था, आज वह शक्ल भी नहीं पसंद है। उसे देखते ही सारे शरीर में आग लग जाती है। सारा मन विषाक्त हो जाता है। फिर भी मन में बारम्बार वही घूमता रहता है। मन को लाख चाहें कि कहीं और ले जाएं, वह जाने को तैयार नहीं होता। परिणाम स्वरूप उतपन्न होती है व्यथा, कुंठा, निराशा तनाव और अवसाद। 

इन दोनों ही स्थितियों में हम मन मे जो भी अनुराग विराग चल रहा है, उसमें लिप्त हैं। हम अपने मन से अलग नहीं हैं। मन जहां जहां जा रहा है हम मन के साथ जा रहे हैं। 

एक तीसरा आयाम भी है चित्त का - वीतराग। मन न अनुरक्त होता है न विरक्त। दोनों से ऊपर उठ गया। द्रस्टा हो गया। साक्षी बन गया। मन में जो भी चल रहा है। वह स्पष्ट दिखने लगा। अब मन से पर्याप्त दूरी निर्मित करने में आपने सफलता प्राप्त कर लिया है। मन अब मलिन न रहा। अब वह उज्ज्वल होने लगा। मलिन और मन दो अलग अलग शब्द नहीं हैं। मन का होना ही मलिनता है। मन के पार जाना ही मन का उज्ज्वल होना है।
 लेकिन यह होगा कैसे?
ज्यों ज्यों डूबे श्याम रंग। 
कृष्ण के प्रेम में ज्यों ज्यों डूबता जाता है, त्यों त्यों ऐसा होने लगता है। अचानक न होगा। धीरे धीरे होगा। जैसे पानी को एक एक डिग्री गरम करने से वह 100 डिग्री तक गरम होता है। तब जाकर पानी भाप में बदलता है। ठीक वैसे ही। 

कृष्ण कहते हैं:
शनैः शनैः उपरमेत बुद्ध्या धृत गृहीतया। 
आत्म संस्थम मन: कृत्वा न कश्चित अपि चिंतयेत। 

मन जहाँ जहाँ जाती है बुद्द्धि भी वहीं वहीं जाती है और जो भी कुछ मन में चल रहा होता है उसके बारे में गलत सही का निर्णय लेती चलती है, विश्लेषण करती रहती है। जैसे कंप्यूटर में मेमोरी और प्रोसेसर एक साथ काम करते हैं ठीक वैसे ही। 

अब कृष्ण कह रहे हैं कि बुद्द्धि दो प्रकार की होती हैं। प्रवृत्त मार्गी और निवृत्त मार्गी। 
प्रवृत्त मार्गी बुद्द्धि वह है जो ऊपर वर्णित दो दशाओं - अनुराग और विराग में मन के साथ चलती रहती है। 
निवृत्त मार्गी बुद्द्धि वह है जो वीतरागी व्यक्ति की बुद्द्धि होती है। निर्लिप्त होती या निर्लिप्त बुद्द्धि। कृश्नः कह रहे हैं कि निवृतमार्गी बुद्द्धि और धैर्य पूर्वक योग के मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति का मन केन्द्रीभूत होने लगता है और उसका मन शांत हो जाता है। यही शांति ही आनंद है। 

हम शांति और आनंद से परिचित नहीं हैं। हम तो परिचित हैं उस आनंद से जो अशांति के साथ आती है। किसी ने कहा - हर्षोन्माद। हर्ष के साथ उन्माद। हर्ष के साथ कोलाहल। पार्टी, गाजा बाजा धूम धड़ाका वाले आनंद से ही हम परिचित हैं। शांति और आनंद जैसा कोई आयाम होता है जीवन का, इससे तो हम पूर्णतः अपरिचित हैं। हमने उसका स्वाद ही कभी नहीं लिया। 

प्रवृत्ति और निवृत्ति को एक अन्य उद्धरण द्वारा समझें। कृष्ण दुर्योधन को उपदेश देते हैं। तो वह कहता है:
जानामि धर्म: न च मे प्रवृत्ति। 
जानामि अधर्म: न च में निवृत्ति। 
धर्म को जानता हूँ मैं परंतु मैंने अधर्म का गहन अभ्यास किया है बचपन से ही, इसलिए मेरी कोई रुचि ही नहीं है धर्म की ओर जाने की।
और मैं अधर्म को भी जानता हूँ। परंतु उसका गहन अभ्यास किया है कि अब वही मेरी प्रवृत्ति बन चुकी है, आदत बन चुकी हैं। अब मैं उससे निकल नहीं सकता। 

जो हम बारम्बार अभ्यास करते हैं वही हमारी प्रवृत्ति बन जाती है, हैबिट कहिए, आदत कहिए, संस्कार कहिए, जो कहना हो कहिए।

परंतु एक बात तो तय है कि संसार में कोई व्यक्ति नहीं है जिसे सुख और आनंद की खोज न हो। परमानंद की खोज भले न हो। भले ही वह नाष्तिक क्यों न हो, लेकिन सुख और आनंद उसे भी चाहिये। 
लेकिन चाहने से क्या होता है?
लक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग भी तो ऐसा होना चाहिए जो लक्ष्य की ओर जाता हो। क्योंकि जिस मार्ग पर हम जा रहे हैं वह भविष्य के गहन खोल में छिपा है। 
तय हमें करना है कि हमारा मार्ग प्रवृत्ति का होगा।
या निवृत्ति का?

Sunday 26 September 2021

Discrimination is byproduct of intellect

#मन_बुद्द्धि_भेदभाव :

मन का मौलिक स्वभाव है चंचलता। और बुद्द्धि का मौलिक स्वभाव है - भेदभाव। 
यक्ष ने युधिष्ठिर से पूंछा कि संसार में सबसे वेगवान वस्तु क्या है? 
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि मन। 
साइंस कहता है कि प्रकाश सबसे वेगवान है। 
लेकिन साइंस मन के बारे में अनभिज्ञ है, इसलिए वह ऐसा कहता है। एक पल में आपका मन यहां से न्यूयॉर्क पहुँच जाता है यदि पहले कभी आप न्यूयॉर्क गए हों तो। 

तो मन सबसे अधिक वेगवान और चंचल वस्तु है - यह इसका मौलिक स्वभाव है। 

बुद्द्धि - का मौलिक स्वभाव है भेदभाव करना। 
कौन अपना है, कौन पराया है, इसका निर्णय बुद्द्धि करती है। कौन चीज खाद्य है कौन अखाद्य, इसका निर्णय बुद्द्धि करती है। कीचड़ और कमल का भेद बुद्द्धि के बिना संभव नहीं है। दीवाल कहाँ है, और दरवाजा कहाँ है यह निर्णय भी बुद्द्धि करती है।

मन और बुद्द्धि हमको मिली है जीवन जीवन जीने के लिए। परंतु सारा संसार मन और बुद्द्धि नामक यंत्र का गुलाम है। यद्यपि वह प्रकृति प्रदत्त यंत्र है मनुष्य को। इसके बिना जीवन संभव न हो सकेगा। इसके बिना कोई रचनात्मक कार्य भी न हो सकेगा। लेकिन यह रचना करता है तो विध्वंस भी करता है। 
हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए बम उस विध्वंस के उदाहरण हैं - जो मनुष्य की बुद्द्धि ने बनाये थे, जिसको एक विमान द्वारा वहां ले जाकर गिराया गया, वह भी मन और बुद्द्धि का ही कार्य था। 
मन और बुद्द्धि जिसके पास है वह भेदभाव करेगा ही। किसी न किसी स्तर पर। निर्बुद्धि भेदभाव नहीं करता। और न वह व्यक्ति जो मन और बुद्द्धि के पार चला गया हो। 

इसलिए माइंड या मन और इंटेलक्ट ( बुद्द्धि) का होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात यह है कि मन और बुद्द्धि मालिक हैं, जो हमें संचालित करते हैं या व्यक्ति मालिक है अपने मन और बुद्द्धि का। यदि मन और बुद्द्धि मालिक हैं व्यक्ति का तो वह व्यक्ति एक यंत्र मात्र है। और जिसका यंत्र वह है उसे ही माया कहते हैं।
कृष्ण कहते हैं:
ईश्वर सर्वभूतेषु हृत देशे तिष्ठति अर्जुन।
भ्रामयन सर्वभूतानि यंत्र आरूढानि मायया।।

हे अर्जुन ईश्वर तो सभी जीवों के हृदय में निवास करता है। परंतु सब को माया नामक यंत्र पर चढ़ाकर सबको भरमाये हुए है। 

और माया क्या है ? यह प्रश्न लक्ष्मण पूंछते हैं राम से।
राम एक लाइन का उत्तर देते हैं:
मैं और मोर तोर तै माया।

मैं मेरा, तुम और तेरा - यही माया है।

तो मैं मेरा, तुम तेरा यह निर्णय कौन देता है ?
यह निर्णय बुद्द्धि देती है। 
बुद्द्धि और मन का गुलाम - परतंत्र है।
जो मन और बुद्द्धि की गुलामी से निकल जाये - वही परम स्वतंत्र है। 

जो व्यक्ति अपनी बुद्द्धि और मन का मालिक हो जाता है उसे कई नामों की संज्ञा दी जाती है - ब्राम्हण, स्वामी, योगी आदि आदि।

©त्रिभुवन सिंह

Sunday 19 September 2021

Be Positive: Why and How

#Be_Positive: #But_why_and_How ?

वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं।
- महर्षि पतंजलि 
वितर्क अर्थात मन में जो भी चलता रहता है-गड्डम गड्ड। जो भी विचार आपके मन को व्यथित करते रहते हैं वह वितर्क की श्रेणी में आते हैं। 

तर्क का अर्थ है- लॉजिकल थिंकिंग। चैतन्य चिंतन है तर्क। आपको पता है कि आप क्या सोच रहे हैं। You know what's going in your mind. वितर्क का अर्थ है कि You are not aware of your mind, but its full of bullshit thoughts which are tremendously bothering you. 

मन में चलता ही रहता है कुछ न कुछ ऐसा। मन में गीत फूट रहा है, संगीत फूट रहा है, नृत्य फुट रहा है, तो वह सुखद होता है। मन में क्रोध पनप रहा है,  हिंसा, घृणा, ईर्ष्या द्वेष अवसाद पनप रहा है, तो वह दुखद होता है। 

लेकिन सुख के क्षण सीमित होते हैं। दुख के क्षण असीमित। दुख के क्षण नहीं होते - घण्टे महीने और साल होते हैं। अधिकतर दुख भूतकाल की पीड़ाओं से या भविष्य के भय से उपजते हैं। दोनों का अस्तित्व नहीं है लेकिन मन में यही सब कुछ गड्डमड्ड चलता रहता है। जो व्यथित करता है, चिंतित करता है, उदास करता है, भयभीत करता है। 

आजकल कुछ नहीं तो कोरोना ने सबको भयभीत कर रखा है। भय मनुष्य के मन का स्वाभाविक अंग है। वृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार मन के दस प्रकोष्ठ हैं: काम (कामना वासना चाहत डिजायर) संकल्प, विचिकित्सा ( संशय) धैर्य, अधैर्य, श्रद्धा, अश्रद्धा, हिं ( लज्जा) भीं ( भय ) धी ( बुद्द्धि विवेक)। 
यह मन या माइंड के अंग हैं। यह सभी मनुष्यों के अंदर होता है। भय बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है मानव मन का। निर्भयता ट्रैनिंग से आती है मन के। 

एक मित्र भयभीत है कोरोना से। यह बात Niraj Agrawal ने मुझे बताया। उसने बताया कि उस मित्र को भय के कारण नींद ही नहीं आ रही है। ऐसे बहुत से लोग होंगे जो भयभीत होंगे। भयभीत तो सभी हैं, परंतु कौन कितना है यह बताना संभव नहीं है। यह तो वह व्यक्ति स्वयं  जानता है। लेकिन मनुष्य का अहंकारी इतना प्रबल होता है कि उसके लिए यह स्वीकार करना कठिन होता है कि वह भयभीत है।

 मेडिकल साइंस इमोशन्स को कोई महत्व नहीं देता। क्योंकि इमोशन्स को शरीर में खोजा नहीं जा सकता। मेडिकल साइंस आजकल एविडेंस बेस्ड मेडिसिन की बात करता है। तो शरीर में इमोशन्स कहाँ खोंजे वह? लेकिन इससे सहमत होता है कि भय से शरीर का एक तंत्र सक्रिय होता है, जिससे निकले केमिकल शरीर की इम्युनिटी कम करते हैं। ( पढिये #फ्लाइट_ओर_फाइट : #HPA_Axis)। 

मन को इन व्यथाओं से मुक्त कराने की विधियों का ही योग विज्ञान में वर्णन है। हर मनुष्य के मन की व्यथा अलग अलग होती है। परंतु महर्षि पतंजलि ने उन्हें पांच श्रेणियों में बांटा है - अविद्या अस्मिता राग द्वेष अभिनिवेषा: पंच कलेशा:।।
 यद्यपि हर मनुष्य अलग है अनोखा है। इसलिए सबके माइंड का फॉरमेट एक जैसा ही होता है। 

महर्षि पतंजलि ने मन को व्यथा से मुक्त करने की अनेकों विधियों का वर्णन किया है योगसूत्र में। उनमे से एक विधि है - वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं। 

जब मन विचारों के जंजाल में उलझ जाए और ऊल जलूल विचार मन को व्यथित करने लगें, आतंकित करने लगें, तो प्रतिपक्ष की भावना मन में लाना चाहिए। जिसको आजकल कहा जाता है - Be Positive. Don't think Negative, Be positive.

 महर्षि कह रहे हैं कि ऐसी स्थिति में उल्टी भावना अपने मन के अंदर ले आनी चाहिए। अर्थात यदि मन में हिंसा और क्रोध उतपन्न हो, भय का संचार हो, व्यथा उत्पन्न हो तो करुणा और प्रेम, निर्भयता, हर्ष का भाव मन में लाना चाहिए। 

लेकिन क्या यह इतना आसान है?
नहीं आसान नहीं है। आसान होता तो महर्षि इसे सूत्र बद्व न करते। महर्षि पतंजलि वैज्ञानिक हैं और शब्दों में कंजूस। पूरे योग को तीन शब्दों में व्याख्यायित करने वाले : योगः चित्तवृत्ति निरोध:।

 चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। चित्त अर्थात मन या माइंड। उसकी वृत्ति क्या है? चंचल होना। बार बार वहीं घूमफिर कर आ जाना जो बात मन मे अंटक गयी है, जिस बात पर मन विदक गया है, जो बात मन में चुभ गयी है, जो मन में खटक रही है। यह तो मन का सहज स्वभाव है।
तो फिर ? कैसे होगा वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं?

तो पहली बात तो यह है कि हमें यह समझना होगा कि जिस तरह हम जीवन जीते हैं, उसमें हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे मन में चल क्या रहा है? हम अपने मन के प्रति बेहोश रहते हैं। हम घर से निकले आफिस के लिए। और आधे घण्टे में आफिस पहुँचे। उन आधे घण्टे में हमारे मन में क्या क्या चला, क्या क्या योजनाएं बनी, कौन कौन सी व्यथाएँ उत्पन्न हुयी, इस सबका हमें कोई ख्याल ही नहीं रहता। सब कुछ यंत्रवत हो रहा है। हम एक यंत्र की भांति जीवन गुजार रहे हैं। सर्वप्रथम इस बात को स्वीकार किया जाय कि हम यंत्रवत जीवन जी रहे हैं, बेहोशी में जी रहे हैं। स्वीकार करते ही आधा काम खत्म हो जाता है। लेकिन स्वीकार गहन होना चाहिए।निरंतर होना चाहिए। 

दूसरी बात यह है कि हमें होश में, बोध में जीने की कला सीखनी होगी। हमें अपने मन का चुपके से पीछा करना होगा। हमारे मन में क्या चल रहा है चुपचाप उस पर दृष्टि रखनी होगी। तभी यह समझ मे आएगा कि हमारे मन में क्या चल रहा है।

 इसी को महर्षि पतंजलि स्वाध्यायः कहते हैं। अपना अध्ययन। अपने मन मे जो भाव या विचार आ रहे हैं उनका अध्ययन। तभी यह संभव होगा कि मन में जो विचार उत्पन्न हो रहे हैं, व्यथित कर रहे हैं, उनसे अपने चित्त को सकारात्मक विचारों और भावों की तरफ मोड़ा जा सकेगा। 

©त्रिभुवन सिंह

एक वर्ष पुरानी पोस्ट।

उलटबासी

#उलटबासी :

पहले दही जमाइए पीछे दुहिये गाय।
बछड़ा वाके पेट में माखन हाट बिकाय।।
- कबीरदास 
हमारे हिंदीबाजों ने slaves और गुलामों की हिंदीबाजी दास में करके, अपने यूरोपियन आकाओं का अनुसरण किया और अरबी और यूरोपीय लुटेरी संस्कृति को भारत में खोज निकाला। 

कबीर किसके दास हो सकते हैं?
कबीर तो मालिक हैं अपने। स्वामी। 

उनकी उलटबासियों की यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर किस तरह व्याख्या कर पाते होंगे, मैं मात्र इसकी कल्पना कर सकता हूँ। 

वे कहते हैं कि पहले दही जमाइए। अर्थात पहले मन को एकाग्र कीजिये या निरुद्ध कीजिये। दूध तो हल्के से धक्के से छलक जाता है। दही हल्के धक्के से छलकता नहीं हिलता डुलता नहीं। यह योगी के  मनोस्थिति का वर्णन है। 
कृष्ण इसी को कहते हैं :
योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। 

प्रायः हमारे मन की क्या दशा होती है। जैसे ही मन में कोई विचार आया, हम उसी विचार के साथ बहने लगते हैं। 
या हम कोई काम कर रहे हैं। और मन में कुछ और चल रहा है। कभी कभी ऐसा होता है कि पूरा का पूरा पेज पढ़ गए और समझ में ही नहीं आया कि क्या पढ़ा था। क्योंकि मन या चित्त कहीं और था।
 सड़क पर चलते हुए आदमी को देखो। वह चला जा रहा है और मन में उसके कुछ न कुछ चल रहा है। कभी कभी तो वह स्फुट स्वर में कुछ बोल बैठता है। 

या हम गाड़ी चला रहे हैं। गाड़ी चली जा रही है और हमारे मन में सैकड़ो विचार और योजनाएं बन बिगड़ रही हैं। शरीर और मन एक स्थान पर नहीं है।

 कृष्ण कहते हैं योगस्थ होकर या ध्यानस्थ होकर काम करो।
 संग त्यक्तवा - विचारों की आंधी में न बहो। ध्यान से काम करो। हमने बचपन से यह सुना है अपने अभिभावकों से शिक्षकों से कि - ध्यान से खाओ, ध्यान से पढ़ो, ध्यान से काम करो। लेकिन क्या वे इसका अर्थ जानते थे? जब जानते नहीं थे, तो बताते क्या कि ध्यान क्या है? 

फिर कबीर कहते हैं कि पीछे दुहिये गाय। इंद्रियों के निग्रह के बारे में उसके बाद सोचो। हम उल्टा करने लगते हैं। पहले इन्द्रिय निग्रह करने का प्रयास करते हैं। उसका स्वरूप कुछ भी हो सकता है। कई योगियों की जीवन यात्रा में जैसे कि विश्वामित्र की जीवन यात्रा में हमने अप्सराओं की बात सुनी है। यह कोई भौतिक स्त्रियां नहीं थी। यह मन की कल्पना से उपजी स्त्रियां थीं। क्योंकि इन्द्रिय निग्रह के द्वारा उन्होंने ब्रम्हचर्य का पालन करना शुरू तो कर दिया परंतु मन में स्त्री बसी रही। उसी ने अप्सरा का रूप धर लिया। यह बात अपने मन में झांके बिना समझना असंभव है। 

कृश्ण इसे मिथ्याचार कहते हैं।
कर्मेन्द्रिय संयम्य या आस्ते मनसा स्मरण। 
इन्द्रियार्थेषु विमूढात्मा मिथ्याचार स उच्यते। 
कर्मेन्द्रियों का संयम करके जो लोग मन में विषयों के बारे में सोचते रहते हैं, वे विमूढ़ और मिथ्याचारी कहलाते हैं। 

गांधी के तीन बंदरो को सोचिये - बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो। 
अब बिना देखे तो पता न चलेगा कि कोई चीज अच्छी है या बुरी? देखना तो पड़ेगा। लेकिन देखने के बाद यदि आंख बंद भी कर लिया तो वह बुरी बात मन के अंदर चलने लगेगी। वही बात बुरी बात सुनने के संदर्भ में भी है। बुरी बात एक बार सुन लिया और कान बन्द कर लिया तो अब बुरी बात मष्तिष्क से निकलने भी न पाएगी। बुरा मत बोलो। तो गूंगा तो बोल नहीं सकता, लेकिन क्या उसके अंदर बुरे विचार नहीं बनते? 

यह मिथ्याचार है, दिखावा है। कर्म का स्रोत है मन। मन में विचार का बीज बोया जाय तो वह कर्म रूपी पौधे को जन्म देता है। अंग्रेजी में कई लोग बोलते हैं - Thought becomes thing. अमूर्त से मूर्त का जन्म। यद्यपि विचार अमूर्त नहीं होते, वे मूर्त ही होते हैं लेकिन इतने शूक्ष्म कि उनकी मूर्ति बनती नहीं। मेडिकल साइंस भी सिर्फ विचार की तरंगों को पकड़ पाता है, विचारों को नहीं, जिसे वह ब्रेन वेव्स कहता है। 

 जब तक मन पर नियंत्रण न होगा वह कर्म में परिणित होता ही रहेगा। भले वह कर्म मानसिक कर्म तक ही सीमित रहे। समाज उससे अप्रभावित रह सकता है लेकिन हम स्वयं उससे अप्रभावित नहीं रह सकेंगे। 

फिर आता है बछड़ा वाके पेट में।

यहीं से जन्म होता है - द्विजता का। दूसरा जन्म जिसे कहा गया है। साक्षी भी इसे ही कहा जाता है। द्विजता का जन्म होते ही उसकी सुवास चारों दिशाओं में फैलने लगती है। कबीर कहते हैं इसे - माखन हाट बिकाय।  

ॐ 
©त्रिभुवन सिंह

Friday 17 September 2021

सरकारी Vs प्राइवेट

#सरकारी_Vs_प्राइवेट :

आज जब सरकारी बनाम प्राइवेट की बहस शुरू की गयी है, तो मुझे लगता है कि इतिहास की दृष्टिकोण से भी इसको देखा जाय।

सरकारी नौकरी का सबसे बड़ा आकर्षण है #प्राइवेट_बिज़नेस और स्वरोजगार को हतोत्साहित करने वाले कानून, जो आज भी ब्रिटिश दस्युओं द्वारा निर्मित ढांचों पर बनाये जा रहे हैं। 
ब्रिटिश ने कानून बनाया था - प्रोटेक्टिव मॉडल कानून का। किसका प्रोटेक्शन? ब्रिटिश वाणिज्य और मैन्यूफैक्चरिंग का। उसकी नींव निर्मित होती थी - भारत में स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने वाले कानून बनाकर। लेकिन स्वतंत्र भारत मे आज भी जारी है उनका बने रहना? 
क्यों? 
#प्राइवेट_बिज़नेस पर टैप कीजिये तो आपको कई लेख मिलेंगे मेरे। 
फिलहाल एक प्रस्तुत है। किसी मित्र ने अपनी वाल पर संकलित कर रखा था।
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#सरकारी_नौकरी_का_आकर्षण: #प्राइवेट_बिज़नेस 

टेक्निकल और प्रोफेशनल इंस्टीटूट में पढ़ने के लिए कोचिंगों की लंबी फीस, और उससे भी बड़ी लंबी लाइन फिर भी समझ मे आती है, लेकिन सिविल सर्विसेज के लिए मां बाप की गाढ़ी कमाई से सालाना लाखों रूपये कोचिंग में बर्बाद करना नहीं समझ मे आता, जिनमे सफलता का प्रतिशत .005% है। यदि अधिक हो तो बताना, एडिट कर दूंगा।

 भारत स्वरोजगारियों का देश था और आज भी है, लेकिन सरकार ने कानून बनाकर स्वरोजगार को असाध्य बना रखा है ब्रिटिश समय से ही। 

इसलिए   ब्रिटिश द्वारा स्थापित "बेऔरोक्रेसी  की आत्मा #प्राइवेट_बिज़नेस" का  आकर्षण, और भारत सरकार के देश आजाद होने के 70 वर्ष बाद भी स्वरोजगार विरोधी कानून,  आज के युवक और युवतियों को तरह  विनाश के रास्ते पर ले जा रहा है। 

एक पुराना लेख पढिये। 
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भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का जितना सुंदर वर्णन J Sunderland ने अपनी पुस्तक India in Bondage मे की है , शायद उसकी बानगी कहीं भी देखने को न मिले । 1929 की ये पुस्तक छपने  के बाद ही अंग्रेजों ने इसको बन कर दिया था । इसकी एक्की  दुक्की प्रति ही दुनिया मे उपलब्ध है । मित्र Sunil Saxena की कृपा से मेरे पास एक प्रति आ गई है ।

 क्या लिखते है वो , देखिये जरा ।
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XV
दूसरे शब्दों मे कहें तो भारत के प्रति हो रहे अन्याय का इलाज , उसकी आर्थिक और राजनैतिक दुर्दशा का इलाज , जोकि दुनिया मे सभी सार्वकालिक रूप से और हर देश के लिए लागू होता है , वो है विदेशी शासन से मुक्ति और स्वराज्य । इंग्लैंड इस बात को जानता है, और वो खुद भी किसी विदेशी शासन से शासित होने के पूर्व नष्ट होना पसंद करेगा । यूरोप का हर देश इस बात को जानता है और वो किसी भी हालत मे अपनी स्वतन्त्रता और स्वराज्य का आत्म समर्पण के पहने मृत्युपर्यंत लड़ना पसंद करेगा । कनाडा , औस्ट्रालिया न्यूजीलैंड और दक्षिणी अफ्रीका इस बात से वाकिफ हैं : इसलिए, यद्यपि वो ग्रेट ब्रिटेन की संताने हैं , लेकिन उनमे से एक भी देश ब्रिटिश साम्राज्य का हिससा बने रहने की अनुमति  एक दिन के लिए भी नहीं देगा , यदि उनको खुद के स्वशासन करने के लिए कानून बनाने और अपने हितो की रक्षा करने और देश के भविष्य निर्माण की अनुमति नहीं होगी तो।
यही भारत के लिए आशा की बात है । उसको उसको ग्रेट ब्रिटेन से बिना कोई संबंध रखे स्वतंत्र होना ही चाहिए, या फिर यदि उसको ब्रिटिश साम्राज्य  का हिस्सा होना भी पड़े तो उसको एक सच्चे पार्टनर ( पार्टनर के नाम पर गुलाम नहीं ) का स्थान मिलना चाहिए , --- वो स्थान और स्वतन्त्रता जो साम्राज्य के अन्य पार्टनर यथा , कनाडा औस्ट्रालिया न्यूजीलैंड या फिर साउथ अफ्रीका जैसे देशो को मिला हुआ है।
अब हम लोगों के समक्ष एक डाटा है , जिससे हम भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का अर्थ समझ सकते हैं । इस संघर्ष का अर्थ , एक महान देश के महान लोगों का एक सामान्य , आवश्यक और चेतन विरोध है जो लंबे समय से गुलामी का दंश झेल रहे हैं । ये एक शानदार देश , जो आज भी अपनी inherent superiority के प्रति  चेतन है ,का असहनीय गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर , अपने पैरों पर पुनः खड़ा होने का एक प्रयास है । ये भारतीय लोगो का अपने उस देश को सच्चे अर्थों मे पुनः प्राप्त  करने का एक महती प्रयास है , जो उनका खुद का हो , बजाय इसके कि – जो कि डेढ़ सौ साल से विदेशी शासन की संरक्षण मे रहा है  --- जॉन स्तुवर्त मिल के शब्दों मे इंग्लैंड का “ मानवीय पशुवों का बाड़ा “ ( Human cattle Farm ) 
-----------------------------------------------------------------------नोट -- ज्ञातव्य हो कि जॉन स्तुवर्त मिल,  जेम्स मिल के सपूत हैं जिनहोने history of British India लिखी , भारत की धरती पर कदम रखे बिना 1817 मे ईस्ट इंडिया कोंपनी के देखरेख और नौकरी मे जिसमे भारत को एक बर्बर समाज वर्णित किया गया है , जो कि आज भी भारतीय इतिहासकारों की बाइबल कुरान और गीता है । भारत के प्रति वही कुत्सित भाव उसके पूत मे भी है , जोकि एक बड़ी हस्ती माना जाता है।
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यह पुस्तक 1929 में प्रकाशित हई।

और 1928 डॉ अम्बेडकर भारत के सभी वर्गों द्वारा विरोध किये जाने वाले साइमोंड के साथ अछूत की परिभाषा तय कर रहे थे।
जिसके उपरांत उन्होंने लोथियन कमिट्टी को सौंपी रिपोर्ट में राय व्यक्त किया कि अग्रजो द्वारा घोसित किये गए क्रिमिनल ट्राइब्स को वोट देने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। भारत मे उनकी संख्या आज 10 करोड़ होगी।

जिस व्यक्ति की मानसिकता अग्रजो द्वारा रचित भेदभाव वाली थी आज उसी के नाम पर सामाजिक न्याय और  #सामाजिक_समरसता का नारा दिय्या जा रहा है। 

400 वर्ष पूर्व जब ईस्ट इंडिया कंपनी के तथाकथित व्यापारी भारत आये तो वे भारत से सूती वस्त्र, छींटज़ के कपड़े, सिल्क के कपड़े आयातित करके ब्रिटेन के रईसों और आम नागरिकों को बेंचकर भारी मुनाफा कमाना शुरू किया।
ये वस्त्र इस कदर लोकप्रिय हुवे कि 1680 आते आते ब्रिटेन की एक मात्र वस्त्र निर्माण - ऊन के वस्त्र बनाने वाले उद्योग को भारी धक्का लगा और उस देश में रोजगार का संकट उतपन्न हो गया।

इस कारण ब्रिटेन में लोगो ने भारत से आयातित वस्त्रों का भारी विरोध किया और उनकी फैक्टरियों में आग लगा दी।
अंततः 1700 और 1720 में ब्रिटेन की संसद ने #कैलिको_एक्ट -1 और 2 नामक कानून बनाकर ब्रिटेन के लोगो को भारत से आयातित वस्त्रों को पहनना गैर कानूनी बना दिया। कैलिको अर्थात - कालीकट से एक्सपोर्ट होने वाले कपड़े। 

1757 में यूरोपीय ईसाईयों ने बंगाल में सत्ता अपने हाँथ में लिया, तो उन्होंने मात्र जमीं पर टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी ली, शासन व्यवस्था की नहीं। क्योंकि शासन में व्यवस्था बनाने में एक्सपेंडिचर भी आता है, और वे भूखे नँगे लुटेरे यहाँ खर्चने नही, लूटने आये थे। इसलिए टैक्स वसूलने के साथ साथ हर ब्रिटिश सर्वेन्ट व्यापार भी करता था, जिसको उन्होंने #प्राइवेट_बिज़नेस का सुन्दर सा नाम दिया। यानि हर ब्रिटिश सर्वेंट को ईस्ट इंडिया कंपनी से सीमित समय काल के लिये एक कॉन्ट्रैक्ट के तहत एक बंधी आय मिलती थी, लेकिन  प्राइवेट बिज़नेस की खुली छूट थी । 

  परिणाम स्वरुप उनका ध्यान प्राइवेट बिज़नस पर ज्यादा था, जिसमे कमाई ओहदे के अनुक्रम में नहीं , बल्कि उन दस्युयों के कमीनापन, चालाकी, हृदयहीनता, क्रूर चरित्र, और  धोखा-धड़ी पर निर्भर करता था । परिणाम स्वरुप उनमें से अधिकतर धनी हो गए, उनसे कुछ कम संख्या में धनाढ्य हो गए, और कुछ तो धन से गंधाने लगे ( stinking rich हो गए) । और ये बने प्राइवेट बिज़नस से -  हत्या बलात्कार डकैती, लूट, भारतीय उद्योग निर्माताओं से जबरन उनके उत्पाद आधे तीहे दाम पर छीनकर । कॉन्ट्रैक्ट करते थे कि एक साल में इतने का सूती वस्त्र और सिल्क के वस्त्र चाहिए, और बीच में ही कॉन्ट्रैक्ट तोड़कर उनसे उनका माल बिना मोल चुकाए कब्जा कर लेते थे। प्रदोष अइछ की पुस्तक ट्रुथ के अनुसार जब लार्ड क्लाइव जब 1842 से 1852 तक एक सिपाही की नौकरी करके इंग्लैंड लौटा तो उसके पास 40 000 पौंड थे जबकि जब इन्होंने भारत पर कब्जा किया तो बोम्बेय के गवर्नर की सालाना सैलरी 300 पौंड थी। 
 अंततः भारतीय घरेलू उद्योग चरमरा कर बैठ गया, ये वही उद्योग था जिसके उत्पादों की लालच में वे सात समुन्दर पार से जान की बाजी लगाकर आते थे।क्योंकि वहां से आने वाले 20% सभ्य ईसाई रास्ते में ही जीसस को प्यारे हो जाते थे।

ईसाई मिशनरियों का धर्म परिवर्तन का एजेंडा अलग से साथ साथ चलता था।

इन अत्याचारों के खिलाफ 90 साल बाद 1857 की क्रांति होती है, और भारत की धरती गोरे ईसाईयों के खून से रक्त रंजित हो जाती है ।
हिन्दू मुस्लमान दोनों लड़े ।
मुस्लमान दीन के नाम, और हिन्दू देश के नाम ।

तब योजना बनी कि इनको बांटा कैसे जाय। मुसलमानों से वे पूर्व में भी निपट चुके थे, इसलिए जानते थे कि इनको मजहब की चटनी चटाकर , इनसे निबटा जा सकता है।
लेकिन हिंदुओं से निबटने की तरकीब खोजनी थी।

1857 के 30 साल बाद इंटेरमीडिट पास जर्मन ईसाई मैक्समुलर को प्लाट करते है ब्रिटिश इस काम के लिए, जिसने अपनी पुस्तक लिखने के बाद अपने नाम के आगे MA की डिग्री स्वतः लगा लिया ( सोनिया गांधी ने भी कोई MA इन इंग्लिश लिटरेचर की डिग्री पहले अपने चुनावी एफिडेविट में लगाया था)। 1900 में उसके मरने के बाद उसकी आत्मकथा को 1902 में पुनर्प्रकाशित करवाते समय मैक्समुलर की बीबी ने उसके नाम के आगे MA के साथ पीएचडी जोड़ दी।

अब वे फ़्रेडरिक मष्मील्लीण (Maxmillian) की जगह डॉ मैक्समुलर हो गए। और भारत के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर लोग आज भी उनको संदर्भित करते हुए डॉ मैक्समुलर बोलते हैं।

इसी विद्वान पीएचडी संस्कृतज्ञ मैक्समुलर ने हल्ला मचाया किभारत में  #आर्यन बाहर से नाचते गाते आये। आर्यन यानि तीन वर्ण - ब्राम्हण , क्षत्रिय , वैश्य, जिनको बाइबिल के सिद्धांतों को अमल में लाते हुए #सवर्ण कहा गया।

जाते जाते ये गिरे ईसाई लुटेरे  तीन वर्ण को भारतीय संविधान में तीन उच्च (? Caste) में बदलकर संविधान सम्मत करवा गए।

आज तक किसी भी भारतीय विद्वान ने ये प्रश्न नही उठाया कि मैक्समुलर कभी भारत आया नहीं, तो उसने किस स्कूल से, किस गुरु से समस्कृत में इतनी महारत हासिल कर ली कि वेदों का अनुवाद करने की योग्यता हसिल कर ली।
हमारे यहाँ तो बड़े बड़े संस्कृतज्ञ भी वेदों का भाष्य और टीका लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

#बेऔरोक्रेसी_की_आत्मा_प्राइवेट_बिज़नेस
✍🏻© डॉ त्रिभुवन सिंह

#एक्स्प्लोर_एडवेंचर आदि आदि शब्दों का इतिहास शुरू होता है 1492 में, जब भुखमरी कंगाली अशिक्षा चर्च और बाइबिल की धर्मांधता के बीच एक एक अन्न के दाने को तरसते यूरोपीय धर्मांध ईसाइयों  को लंबी यात्रा की नौका बनाने और नौकायन करने का ज्ञान प्राप्त हो चुका था। 

एक और चीज का अविष्कार वे कर चुके थे - बारूद को बन बंदूक आदि में भरकर हत्या करने के हन्थियारो का। 

उंनके मन मे  भारत के धन वैभव की याद बनी हुई थी जो ईसाइयत फैलने के पूर्व रोमन और ग्रीक सभ्यता के समयकाल से प्लिनी मेगस्थनीज और सेल्युकस आदि के द्वारा रिकॉर्ड दस्तावेजों में दर्ज था। 

उनके पास दस्यु अभियान के लिए सब कुछ था - धर्मांध और अपढ़ ईसाई जो अन्न के अभाव में या तो यूरोप में ही प्राण त्याग दें। या फिर गैर ईसाइयों के #जऱ_जोरू_जमीन पर कब्जा करके अपने प्राणों की रक्षा करें। और यदि इस कार्य मे उनकी मौत हो जाती है तो गॉड और जीसस ने हेवन में उनके लिए स्थान रिज़र्व ही कर रखा था। 

लेकिन यह अभियान बहुत महंगे थे। आदमी के जान की कोई कीमत नही थी लेकिन जहाज और बंदूकें तथा दस्यु अभियान के लिए रास्ते के भोजन की व्यवस्था बहुत महंगा था। और धन सिर्फ राजाओं चर्च और नोबल्स या फुएडल्स ( इसका जो भी अर्थ होता हो ) के पास था। उन्होंने इन दस्युओं को स्पांसर किया। 

समझौता हुवा लूट के माल में 20% दस्युयों का और 80% स्पांसरर्स का। 

इस तरह कोलंबस और वास्कोडिगामा नामक दस्युयों के नेतृत्व में उन्होंने अमेरिका और तथाकथित वैभवशाली  तीसरे देशों को खोज निकाला - भारत भी उन्हीं में से एक था जिसकी खोंज में वे निकले थे। 

उसी एडवेंचर और एक्सप्लोरेशन शब्द का प्रयोग वे आज भी कर रहे हैं। 
©त्रिभुवन सिंह

पुरानी पोस्ट

Thursday 9 September 2021

मनोभाव का अर्थ क्या है?

#मन_की_भावदशा : #स्वस्थ होना क्या है। 

कभी ध्यान दिया है कि आप सड़क पर जा रहे हैं और देखते हैं कि कुछ कुत्ते आने जाने वाले हर वाहन को कुछ दूर दौड़ाते हैं भूंकते हुए। फिर वापस आ जाते हैं। 
फिर नए वाहन के साथ यही प्रक्रिया दोहराते हैं। 

क्या उनकी अभिलाषा वाहन चलाने की है? या वाहन चालक को हानि पहुंचाने की होती है? उसको धमकाने की होती है?
नहीं यह कुत्तों के मन की भाव दशा होती है। जो उनके कृत्य में दृष्टिगोचर होता है। 

ऐसी ही कुछ भाव दशा हमारे मन की होती है। हमारे मन की सड़क पर विचारों का रेला लगा होता है। एक के बाद एक विचार और भाव आते जाते रहते हैं। जैसे ही कोई विचार या भाव हमारे मन की सड़क पर आया - हमारा मन स्वतः उसके साथ चलने लगता है। उस विचार के संदर्भ में हमारे मन में गुणा भाग, विश्लेषण चलने लगता है। हमको पता भी नहीं होता कि हम किन विचारों में खो जाते हैं। यह तब तक चलता रहता है जब तक कि कोई नया विचार हमारे मन की सड़क पर नहीं आ जाता। अब यही प्रक्रिया इस दूसरे विचार या भाव के साथ दोहराया जाने लगेगा। 
हमारी यूनिवर्सिटी में दर्शन के एक प्रकांड शिक्षक थे। उनके शिष्य गण उनकी विद्वता का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि साहब उनका तो यह हाल था कि बाजार जाते थे पत्नी के साथ, परंतु कई बार पत्नी को बाजार में ही छोड़कर अकेले घर वापस आ जाते थे। घर आकर उन्हें ध्यान आता था कि वे तो विचारों में इतने मगन थे कि पत्नी को बाजार में ही भूलकर घर चले आये। मुझे लगता था कि यह विद्वानों का कोई लक्षण होता होगा।
 
लेकिन अब जाकर पता चला कि यह तो सम्मोहन की बीमारी है - जिसे आध्यात्मिक जगत में बेहोशी कहते हैं। Hypnosis कहते हैं। किसी व्यक्ति भाव या विचार के प्रति इतने सम्मोहित हैं कि हमें अपना पता ठिकाना भी नहीं पता। 
तुलसीदास कहते हैं:
मोहनिशा जग सोवनहारा।
देखत सपन अनेक प्रकारा।।
या चित्तवृत्ति की बात करते हुए पतंजलि इसे कहते हैं - विकल्प वृत्ति। एक विचार के साथ बहते रहना। संकल्प और विकल्प। 

हमने शेखचिल्ली की कहानियां पढ़ी हैं। वह दरअसल किसी शेखचिल्ली की कहानी नहीं है। वह हमारे अंदर ही छुपे हुए शेखचिल्लीपन का यथार्थ है। यही हमारे कृत्य में भी दृष्टिगोचर होता है। जिसे हम कहते हैं प्रतिक्रिया। किसी क्रिया के प्रति प्रतिक्रिया। 

जागृति तब आती है जब हम देख सकें कि हमारे मन की सड़क पर कौन कौन से विचार और भाव दशा के बादल आ जा रहे हैं। और जो यह देख सकता है वही अपने अस्तित्व के  केंद्र पर स्थित हो सकता है। इसी को कहते हैं स्वस्थ होना। अपने में स्थित होना। 
हमारी गति यहीं तक होती है। जिसे धारणा भी कहते हैं। 
ध्यान तो स्वतः घटित होता है। उसे ही परमात्मा का प्रसाद कहते हैं जो हमारे किये नहीं घटता बल्कि स्वतः घटता है। 

हमारे मन की भाव दशा तो ऐसी रहती है कि हमारे मन में दूसरे ही व्यक्तियों विचारों और भावों का निवास रहता है निरन्तर। यही है अस्वस्थ होना। 

©त्रिभुवन सिंह

Monday 6 September 2021

स्किल डेवलपमेंट का भारतीय फार्मूला

#स्किल_डेवलपमेन्ट: 
स्किल अर्थात कौशल। 
कौशल ही वर्ण व्यवस्था का आधार था। 
मेधा कौशल की बहुलता - ब्राम्हण। 
रक्षा कौशलं की बहुलता - क्षत्रिय। 
वाणिज्य कौशलं की बहुलता - वैश्य।
श्रम कौशलं की बहुलता - शूद्र। 

चलिये आपने बड़ा अच्छा किया कि इस व्यवस्था को नष्ट कर दिया जिसके दम पर भारत, हजारों वर्षों से  मात्र 200 वर्षो के पूर्व तक, विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति हुवा करता था। यह मैं नहीं कह रहा - अंगुस मैडिसन, पॉल बैरोच से लेकर गुरुमूर्ति और शशि थरूर सब बोल रहे हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इन स्किल्स की आवश्यकता नष्ट हो गयी ? आज भी मेधा शक्ति, रक्षा शक्ति, वाणिज्य शक्ति और श्रम शक्ति का हर देश और समाज में बोल बाला है। स्वरूप बदल सकता है समय के साथ, मूल सिद्धांत तो आज भी वहीं हैं।  

वर्ण व्यवस्था की ये कुशलताएं,  एक दूसरे के विपरीत नहीं वरन एक दूसरे के पूरक। जैसे रात और दिन - एक दृष्टिकोण यह हो सकता है कि दोनों के दूसरे के विरोधी हैं। या यहां तक कि शोषक भी मान सकते हो। लेकिन सत्य तो यह है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दिन ही दिन हो, रात न हो तो? 

आज समस्त संसार में स्किल डिवेलपमेंट को प्रधानता दी जा रही है। 

मेरी सलाह है, जिससे आप असहमत भी हो सकते हैं। कि उन स्किल्स की पहचान किया जाय, जिसे घर में सिखाया जाना संभव हो। घर का अर्थ है बचपन से। जब हर तरह की बात सीखना एक खेल था। हमें याद है कि बचपन में हल जोतना सीखना भी एक आनंद का विषय होता था। याकि खेत जोतने के बाद उसे समतल करना। हेंगा के द्वारा। 

तो ऐसे स्किल की पहचान की जाय - जिससे बचपन से ही बच्चे अपने माता पिता से सीख सकें। कालांतर में यदि उन्हें उसी क्षेत्र में आगे बढ़ना हो तो उस स्किल सम्बंधित स्कूल और कॉलेजों में भर्ती करवाकर उन स्किल्स के सैद्धांतिक पहलुओं को पढ़ाया जाय।
आज स्कूल और कॉलेज थ्योरी के अतिरिक्त क्या पढ़ाते हैं। रटवा रहे हैं वही सब बकवास, जो बच्चों के जीवन में कभी भी काम न आएगा। आज स्किल सम्बंधित डिग्री देने वाले अनेक संस्थान धन्ना सेठों द्वारा खोलकर उनमें स्किल सिखाने के नाम पर लूटा जा रहा है। अगल बगल देखिये। They are producing unemployable youths, by extracting huge money from their pockets. 

यदि ऐसा संभव हो सके तो बच्चे 20 की आयु के पूर्व ही प्रोडक्टिव कार्य करने में सक्षम हो सकेंगे।

#शिक्षक_दिवस_विशेष।
#NarendraModi

Tuesday 10 August 2021

शास्त्र प्रज्ञा रहित व्यक्तियों के लिए निरर्थक हैं:

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा तस्य शास्त्रम किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पनम् किम् करिष्यति।। 

अब कोई बतावे कि #प्रज्ञा क्या बला है? 

क्योंकि शास्त्रों का अर्थ तो हम अपनी मन और बुद्द्धि के अनुसार ही समझते हैं। 
भगवतगीता एक व्यक्तिगत डायलाग है दो व्यक्तियों के बीच। आज की तिथि में हम उसे कहेंगे - privileged communication. 
लेकिन उसकी व्याख्या किंतने लोगों ने किया है? 
जितनों ने भी किया है सबने अपने मन के अनुसार ही किया है। अपने ही अर्थ निकाले हैं उनमें। कोई यह नहीं कह सकता कि जो उसका अर्थ समझ रहा है कृश्नः ने ठीक वही अर्थ अर्जुन को भी समझाया था। 

आइए समझते हैं कि प्रज्ञा क्या बला है? 

ह्यूमन सॉफ्टवेयर के चार एप्प्स हैं - मन अहंकार बुद्द्धि और चित्त।
मन क्या है?
संग्रह है यादों का। और भी बहुत कुछ है मन। लेकिन यहाँ यही समझना उचित होगा। 
अहंकार क्या है? जो भी हम अपने आपको समझते हैं वही है अहंकार। या जिस जिस भाव और विचारों से हम अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं वही है अहंकार। 
फिर आती है बुद्द्धि। बुद्द्धि भेदभाव मय अप्प है। यह भेदभाव के माध्यम से निर्णय लेती है। Intellect works by discrimination. इसका अर्थ क्या हुवा? इसका अर्थ हुवा कि बुद्द्धि तय करती है कि रात है या दिन। बुद्द्धि तय करती है कि हमें दरवाजे से निकलना चाहिए। वरना हम दीवार से भी निकलने का प्रयास कर सकते हैं और अपना सर फोड़ सकते हैं। 
इंद्रियां अर्थात सेंस ऑर्गन - सूचनाएं एकत्रित करके मन को देते हैं। मन अपने पूर्व स्मृति और अनुभवों के आधार पर उनका विश्लेषण करके उन सूचनाओं को अहंकार के पास प्रेषित करता है। कंप्यूटर के युग में इसे प्रोसेसर कहा जा सकता है। 
 अहंकार अपने  तादात्म्य के अनुसार तय करता है कि यह सूचना उसके हित में है या विरोध में है। 
अहंकार अपना निर्णय बुद्द्धि के पास भेजता है - और फिर बुद्द्धि निर्णय लेती है सूचना के पक्ष्य में या विपक्ष्य में। 
यह तो हुवा नार्मल तरीका ह्यूमन माइंड के काम करने का। 
अब प्रज्ञा क्या है? 
उस स्थिति और अवस्था को प्राप्त करना - जिसमें व्यक्ति मन अहंकार और बुद्द्धि को देख सकता है एक साक्षी या गवाह की भांति - बिना लिप्त हुए। 
इसको ऐसे समझिये - मान लीजिए आपके दो मित्र आपस में लड़ रहे हैं। आप दो काम कर सकते हैं। साक्षी की भांति, गवाह की भांति बिना उस लड़ाई झगड़े में उलझे, देख सकते हैं। या उस झगड़े में आप भी भागीदार बन सकते हैं। यदि भागीदार हुए तो फिर आप लिप्त हो गए। 

तो कवि कह रहा है कि जिसके अंदर स्वयं की प्रज्ञा न हो उसका शास्त्र क्या कर सकते हैं? भला या बुरा। ठीक उसी तरह जिस तरह एक अंधा हो और उसके सामने दर्पण रखा हो, तो दर्पण उसके किस काम का?

लेकिन शब्दों का क्या है? उनकी भी व्याख्या हर व्यक्ति अपने अनुसार कर सकता है। गांधारी धृतराष्ट्र को प्रज्ञाचक्षु के नाम से बुलाती थी। 

©त्रिभुवन सिंह

Tuesday 27 July 2021

#बेहोशी_में_भोजन

#बेहोशी_में_भोजन

मैंने एक पोस्ट लगायी थी कि आप खाना खाते समय क्या करते हैं। जिनके उत्तर थे कि वे टी वी देखते हुए या कुछ और करते हुए खाते हैं, उनके लिए स्पष्ट कर दूं कि वह बेहोशी में खाना खाते हैं। 
होशपूर्वक नहीं खाते। 
वे खाना खाने के साथ अपने मन मे विष निर्मित करते रहते हैं।

मैं यह बात इसलिए बोल रहा हूँ कि मैं निरन्तर कई वर्षो तक खाना खाते हुए कोई न कोई पुस्तक पढ़ता रहता था, और उसे बहुत अच्छा समझता था। मेरी पत्नी विरोध करती थी परन्तु में नही मानता था। 

यह एक मूर्खता पूर्ण तरीके से भोजन करना है। इस तरह भोजन करने से आपके पाचनतंत्र से भोजन पचाने वाले रस सम्पूर्ण मात्रा में नही निकलते। कैसे निकलेंगे। उनको पर्याप्त फीडबैक नही मिल रहा है। शरीर के सारे हॉर्मोन और केमिकल फीडबैक मिलने पर ही स्रावित होते हैं। 

हमारे बुजुर्ग समझाते थे कि खाना खाते समय बात मत करो। चुपचाप खाना खाओ। वे साइंस नही जानते थे, लेकिन apllied साइंस जानते थे।

आजकल डॉक्टरी में एक बीमारी होती है #Cafe_coronary - जिसमें भोजन सांस की नली में चला जाता है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। दरअसल सांस और भोजन के एंट्री पॉइंट अलग अलग हैं लेकिन गले मे एक चौराहे पर दोनों मिल जाते हैं। बोलते समय सांस वाला रास्ता खुलता है और भोजन वाला बन्द रहता है। भोजन निकलते समय सांस वाला रास्ता बंद हो जाता है। एपिगलोटिस नामक ट्रैफिक कंट्रोलर यह काम निरंतर करता रहता है। कभी कभी वह ट्रैफिक कंट्रोलर सो जाता है और खाना खाते समय यदि आप बात कर रहे हैं तो भोजन सांस की नली में जाकर फंस जाता है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।

इसलिए प्रयास कीजिये कि होशपूर्वक, बोधपूर्वक, सजग होकर भोजन कीजिये। 
प्रयास कीजिये। 
इतना आसान नही है यह 😌

© Tribhuwan Singh  ✍🏼

Friday 19 February 2021

All Religions are Not Same

#स्वस्थ_और_स्वच्छ_माइंड : #प्रथम खण्ड 

रिलीज़न और मजहबी ग्रंथों में अपने अनुयायियों के लिए कमांड दिए गए हैं कि क्या क्या नहीं करना है, और क्या क्या करना है। 
जिज्ञासा का , प्रश्न पूंछने का कोई स्थान नहीं है। प्रश्न पूंछना उन आदेश कर्ताओं का अपमान होगा, जिनका दावा है कि ये कमांड्स सीधे ईश्वर के द्वारा दिये गए हैं। इसका हिसाब चुकाना होगा - सर कलम करवा कर। 

वहीं धर्म का मूल ही जिज्ञासा है। अथातो धर्म जिज्ञासा। अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा। सामने ब्रम्ह खड़ा हो तो उससे भी जो प्रश्न पूँछें - वही धर्मनिष्ठ है। स्वयं भगवान कृष्ण से अर्जुन ने इतने प्रश्न पूँछें,कि 5000 साल बाद भी उसमें कोई नया प्रश्न जोड़ा नहीं जा सका। 

धर्मग्रंथों में मूलतः माइंड के शुद्धिकरण और उस पर किस तरह नियंत्रण रखा जा सके, इसी की विधियों के बारे में चर्चा है।
हमारा अस्तित्व बना है माइंड से और शरीर से। वस्तुतः दोनों ही हमारे यन्त्र हैं या टूल हैं। यदि शरीर को कार मान लिया जाय और माइंड को इंजन, तो हम उस कार के ड्राइवर हैं। 

यदि हमारा शरीर अस्वस्थ हो जाय तो? 
यदि हमारा शरीर हमारे नियंत्रण में न रहे, और हमारे हांथ पैर झटका खाते रहें, अपने मन से तो? हम उसे बीमारी समझते हैं - यथा मिर्गी आदि का दौरा।
हम उसका इलाज जी जान से कराते हैं। मेडिकल साइंस में तो इसकी अलग ब्रांच ही बन गई है - एपीलिप्टोलॉजिस्ट।

ठीक इसी तरह यदि हमारा माइंड बीमार हो जाये तो?
यदि हमारा माइंड हमारे नियंत्रण में न रहे। अपने मन से जहां चाहे वहाँ जाय? हमारी इच्छा के विरुद्ध अपने मन से वहां वहाँ जाय, जहाँ हम उसे जाने देना नहीं चाहते तो? क्योंकि माइंड का वहां जाना हमें दुखी करता है, उद्वेलित करता है, चिंतित करता है, तनावग्रस्त करता है, उदास करता है, डिप्रेस करता है, क्रोधित करता है, तो क्या उस माइंड को बीमार नहीं माना जाना चाहिये? 

माइंड के अनियंत्रित स्वरूप को इसकी अशुद्धि कहते हैं, बीमारी कहते हैं,  मन का मैल कहते हैं। इस मैलेपन से माइंड की शुद्धि कैसे किया जाय,इस बीमार मन का इलाज कैसे किया जाय, इसी का वर्णन धर्म ग्रंथों में है। इसमें कोई कमांड नहीं हैं। इसमें माइंड की बीमारियों का वर्णन है, उसके लक्षण, उसका इलाज। इलाज की विभिन्न विधियां। 

तो एक बात स्पष्ट कर दिया जाय कि जहाँ मजहब और रिलीजन के ग्रंथ मन को बीमार करने के कमांडमेंट्स हैं, वहीं धर्म और उसके ग्रन्थ बीमार माइंड को स्वच्छ और स्वस्थ करने के मन्नुअल हैं।

इसलिए - इस बकवास को खारिज किया जाय कि सभी धर्म एक ही शिक्षा देते हैं। 

यदि मन हुवा तो इस सीरीज को आगे बढ़ाऊंगा।

Sunday 14 February 2021

योग और प्रतियोग :

#योग_प्रतियोग

उत्तर का विपरीत पक्ष सदैव प्रश्न ही नहीं होता, प्रति उत्तर भी होता है। जैसे ध्वनि के प्रतिउत्तर में प्रतिध्वनि। वैसे ही योग का विपरीत पक्ष है प्रतियोग।

योग का अर्थ समझाने की आवश्यकता नहीं है, प्रायः सब उसके संदर्भ में कुछ न कुछ जानते ही हैं। 

योग करने वाला योगी - अंतर्यात्रा। अन्तर्यात्रा करेगा, योग करेगा।  
प्रतियोग करने वाला प्रतियोगी - बहिर्यात्रा। बहिर्यात्रा करेगा, प्रतियोग करेगा प्रतियोगिता करेगा।
 
प्रतियोगिता अर्थात कम्पटीशन। लेकिन कम्पटीशन से उसका अर्थ स्पष्ट नहीं होता। 

यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्रों से पूंछो कि क्या करते हो - सर कम्पटीशन की तैयारी कर रहा हूँ। यूनिवर्सिटी उन्हें कंपीटिशन का भी अर्थ ठीक से नहीं बता पाती। 

मां के पेट से निकलते ही, संसार में आते ही प्रतियोगिता शुरू हो जाती है। प्रतियोगिता अर्थात संघर्ष,अर्थात द्वंद अर्थात राइवलरी ( Rivalry) । किस बच्चे के हिस्से में कितनी प्रतियोगिता आएगी, यह तय नहीं किया जा सकता, इसका कोई मानक भी नहीं है। लेकिन जिसकी जितनी आकांक्षा, जितनी महत्वाकांक्षा, उतनी ही बड़ी प्रतियोगिता। 

आजकल मनोविज्ञानी एक शब्द बोलते हैं - Sibling Rivalry. अर्थात सगे भाई बहनों के बीच प्रतियोगिता। 
अर्थात सगे बच्चे आपस में ही द्वंद कर रहे हैं, प्रतियोगिता कर रहे हैं। 
बच्चे बड़े होंगे। उन्हें आगे बढ़ना होगा। बड़े सपने देखने होंगे। समाज और परिवार की अपेक्षा अनुसार। 

आगे बढ़कर यह गला काट प्रतियोगिता में बदल जाती है। गला काट शब्द कहाँ से अवतरित हुवा प्रतियोगिता के संदर्भ में यह एक जांच का विषय है। पाने के लिये, उपलब्ध वस्तुओं की संख्या कम है, चाहने वालों की संख्या अधिक - इसलिए गला काटना ही पड़ेगा। इसको शब्दिक स्वरूप में न लें। लेकिन हिंसा का भाव में आये बिना, सफलता न मिलेगी, यह बात तय है। 

हिंसा एकत्रित होती चली जाती है - मन मे और शरीर में। लेकिन हमको पता नहीं चलता कि ऐसा हो रहा है। यह हिंसा शरीर में विभिन्न तरह के विषैले केमिकल निकालती है जिसको #इमोशनल_टोक्सिन कहते हैं। यह हमारे सिस्टम में शनैः शनैः एकत्रित होता जाएगा। हमारे सिस्टम को मथता जाएगा। विकृत और रुग्ण करता जाएगा। 

कालान्तर में यह हिंसा बदलती जाती है - बेचैनी, घबराहट, भय, में या फिर स्ट्रेस अवसाद, उदासी, डिप्रेशन में। 

एक फ़िल्म आई जिसमें इसे - केमिकल लोचा कहा गया। 
केमिकल लोचे का प्रभाव माइंड पर पड़ा तो उससे मानसिक समस्याओं का जन्म हुआ। और यदि शरीर पर पड़ा तो उसे स्ट्रेस से बनने वाली बीमारियां यथा हाइपरटेंशन, डायबिटीज आदि आदि का जन्म होता है। मेडिकल साइंटिस्ट उन्हें लाइफ स्टाइल डिजीज कहते हैं। 

लेकिन इन मानसिक और शारीरिक बीमारियों के मूल में उतपन्न कारण - हिंसा का कोई इलाज नहीं उपलब्ध है सिवा कुछ शामक केमिकल्स के - पिल्स के रूप के, या फिर शराब आदि के रूप में। 

यहीं पर योग का रोल आता है। 
हिंसा का जन्म न हो, यदि हो गया हो तो उसको बाहर कैसे निकालें? 
अष्टांगयोग इसी हिंसा से निबटने में सहायता करती है। इसकी आवश्यकता पूरे विश्व को है। विशेष करके उस समाज को,  जो अपनी हिंसा को शारीरिक श्रम के माध्यम से बाहर नहीं निकाल सकता - साधन संपन्न और वैभव पूर्ण समाज को।
 सबसे विक्षिप्त समाज यही है। न होता तो अरबों खरबों रुपये खर्च करता किसी देश को अव्यवस्थित करने के लिए, जैसा कि अभी किसान आंदोलन को प्रायोजित करने में किया गया। 

प्रतियोग का उत्तर है योग। 


©त्रिभुवन सिंह

Saturday 13 February 2021

माया मिली न राम:

#संशय_बिहग :

कल टेलिफोनिक वार्ता के समय एक सम्मानित और वैरिष्ठ अग्रज ने कहा कि यदि कोई फेसबुक पर तुम्हारे पोस्टों को पढ़े, तो पागल होकर घूमेगा कि क्या करे, क्या न करे। अंत में उसकी गति वही होगी-- माया मिली न राम। 

इस पर मैं अपना स्पष्टीकरण रखना चाहता हूँ।

मा या का तो अर्थ ही है : या-which, मा- does not exist. अर्थात Which doesn't exist. तो जिसका अस्तित्व ही नहीं है, उसको भला पा भी कैसे सकेगा कोई?
तो माया माया में भेद है। यदि माया का अर्थ संसार है तो संसार तो सुंदर है, संसार तो माया की पाठशाला है। 
 
माया का  अर्थ यह नहीं है कि संसार में दिखने वाले धन वैभव पद और प्रतिष्ठा के बारे में बात हो रही है। संसार तो भरा पड़ा है प्राप्य पदार्थो से  - स्त्री (पुरूष)  धन वैभव पद और प्रतिष्ठा से, सम्मान, पुरस्कार। 
लगो उसकी दौड़ में प्राप्त करो। 
राजनीति में सीधे न जा सको तो किसी शाखा विशेष में भी पदों और पुरस्कारों की कोई कमी नहीं है। वहीं भाग्य आजमाओ। करो किचाहिन। पटका - पटकी, धक्का मुक्की। इतनी आसानी से न मिलेगा लेकिन। लेकिन जो पा चुके हैं उनसे प्राप्ति की महत्ता या व्यर्थता के बारे में उनके विचार जान तो लो एक बार। और जो नहीं पाए हैं उनके दुःख को भी देख लो एक बार। और कुछ तो ऐसे हैं कि बार बार पाते हैं, भोगते हैं, पछताते हैं, फिर उसी के पीछे पुनः भागते हैं। 
पद न पा सको - धन पा लो। लेकिन यह भी आसानी से न मिलेगा। अनेकों तिकड़म करने पड़ेंगे। खटकर्म करने पड़ेंगे। उल्लू बनाना पड़ेगा। उल्लू बनने को लोग तैयार बैठे हैं तुम कला तो सीखो। क्योंकि जो उल्लू बनने को तैयार बैठे हैं, वे उन्हीं के पास जाते हैं, जो उल्लू बनाने में निष्णात हैं, पारंगत हैं- खग जाने खग ही की भाषा। 
लेकिन अनुभवी लोग कहते हैं कि धन का तीन ही परिणाम होता है - भोग दान नाश। भोगोगे कब? और कितना? तेली के बैल की तरह पेर रहे हो, चौबीसों घण्टे। भोगोगे कब ? 
दरिद्र तुम इतने हो, - तभी तो पागल हो धन के पीछे। अंदर दरिद्रता भरी पड़ी है, तभी तो प्यास बुझती नहीं। दरिद्र तुम इतने हो कि दान करने का साहस नहीं है। तो होना है नाश ही। तुम्हारी संतति करे या पड़ोसी उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 

इसी को कृष्ण कहते हैं - दैवी हि एषा गुणमयी मम् दुरत्यया। अर्थात मेरी माया दैवी गुणों वाली  है, और इससे पार पाना असंभव है। 

तो दौड़ो संसार की इस महादौड में जिसे - गला काट प्रतियोगिता कहते हैं। पाया तो व्यर्थ, न पाया तो दुखदायी। जिसने पाया हो उससे पूछों कि क्या पाया? वही बता सकेगा कि पाना सार्थक था या निरर्थक। 
और जिसने न पाया हो उससे उसका अनुभव पूंछ लो। न पा सकने की पीड़ा। 

जगजीत की एक ग़ज़ल है:
दुनिया जिसे कहते हैं - जादू का खिलौना है। 
मिल जाये तो माटी है खो जाए तो सोना है। 

तो पाने के लिए सारा संसार पडा है। पाओ न। दौड़ो उस रेस में। लेकिन क्या सिकन्दर पा सका था? या हिटलर? या आपके अड़ोसी पड़ोसी, आपके पिता माता? दौड़ दौड़ के फेंचकुर फेंक दोगे। जो पाओगे, उसे भोग न सकोगे। वो ही तुम्हें भोग लगा। यह मैं नहीं कह रहा। मेरी क्या बिसात है। इसको कहा था - राजा भरथरी ने। राजा ने कहा था, जिसको समस्त भोग उपलब्ध थे:
भोगो न भुक्ता वयमेव भुक्ता। 
भोगों को हम नहीं भोगते। भोग हमें भोग लेते हैं। 
यदि पाने की व्यर्थता को न समझा होता तो क्या ये राजे महाराजे त्यागे होते उसे, वे चाहे भर्तहरि  हों या बुद्ध। 

एक माया तो है संसार, जो सच है वास्तविक है। 
एक संसार हर मनुष्य का अपना निजी होता है। उसमें कोई झांक नहीं सकता। न पति, न पत्नी, न मित्र न यार, न बेटा न बेटी। सबका अपना एक निजी संसार होता है जिसे माया कहते हैं। 

एक बार अपने मन की तरफ देखो। देखो तो समझोगे कि मन मे चल क्या रहा है? मन मे चल रहा है अतीत ही अतीत। अतीत के किस्से, अतीत की कहानियां, अतीत के कष्ट, अतीत के सुख, अतीत की वेदनाएं। 
अभी ऐसा हुआ कि हमारे यहाँ , COVID के कारण एक बैच की सिल्वर जुबली नहीं हो सकी। तो लोगों ने प्लान किया कि दो बैचों का एक साथ कर दिया जाय। लेकिन 20 या 25 वर्ष पूर्व उन दो बैचों के बीच ऐसा कुछ हुवा था, कि वे एक साथ बैठने को राजी नहीं हैं। क्या हुआ था, भगवान जाने, लेकिन 20 साल पुराने घाव को उन्होंने इतनी बार देखा है, और खोदा है कि वह नासूर बन गया, आज भी जीवित है। 
तो हमारे मन में या तो मृत अतीत घूमता है, या भविष्य, जोकि अतीत को ही सजा सवांर कर कुछ और अच्छा बनाने की कल्पना मात्र है। दोनों का ही अस्तित्व नहीं है हमारे जीवन मे। न अतीत का, क्योंकि वह है ही नहीं, बीत चुका। और न भविष्य का, क्योंकि वह आया नहीं। 
इसी को कहते हैं माया - which does not exist. 

तो माया तो चीज ही ऐसी है जो कभी मिलेगी नहीं।
और राम तो कभी गायब ही नहीं हुए। वे तो सास्वत हैं, सनातन हैं, हमारे अंदर हैं। बस हमें पता होना चाहिये कि हम खोज किसे रहे हैं? माया को या राम को?
एक बार संदेह मिट जाय तो मार्ग अपने आप मिल जाता है:
राम नाम सुंदर करतारी।
संशय विहग उड़ावन हारी।।
- तुलसीदास

©त्रिभुवन सिंह

Tuesday 9 February 2021

हनुमान का अर्थ क्या है हमारे जीवन में?

#हनुमान_की_व्याख्या :

सीय राम मय सब जग जानी।
करहुं प्रणाम जोर जुग पानी।।
- रामचरितमानस

ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुखराशी।।
- रामचरितमानस

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातनः।
मनः षष्टाणिइन्द्रयानि प्रकृति स्थाने कर्षति।।
- भगवतगीता
जीव तो मेरा ही अंश है। आज से नहीं जबसे सृष्टि की रचना हुयी है। लेकिन मन सहित छः इंद्रियों के द्वारा संसार मे संघर्ष कर रहा है। कष्ट भोग रहा है। 
कृश्नः तो परमानंद सच्चिदानंद हैं। तो उनका अंश कष्ट क्यों भोग रहा है। संघर्ष क्यों कर रहा है? 
क्योंकि छः इंद्रियों सहित स्वयं को कर्ता मान बैठा है। और सबसे शक्तिशाली इन्द्रिय है मन अर्थात माइंड। उसी के कारण इतना कष्ट भोग रहा है। 

समस्त जीव  पुरुष और प्रकृति , चेतना और जड़ से बने हैं। 
राम चेतना हैं।
सीता उनकी शक्ति - प्रकृति।

हनुमान कौन हैं फिर। 
हनुमान हैं पवन पुत्र। 
वायु पुत्र। 
प्राण वायु हैं हनुमान। 

जीवन की गहराइयों को समझने के लिए प्राणवायु का सहारा लेना पड़ता है। वैसे भी यदि सतह पर जीना हो, तो भी प्राणवायु तो आवश्यक ही है। सतह अर्थात शरीर। केंद्र की परिधि। 
जब तक प्राणवायु आ जा रही है। तभी तक वह प्राणी है।अन्यथा निष्प्राण मिटटी। चेतना के जाते ही सब मिट्टी ही मिट्टी। तुरन्त इसको जलाओ फूको, गाड़ो। 

वायुपुत्र मनुष्य से सम्बन्ध है - प्राणवायु का।
प्राणवायु का सम्बन्ध है प्राणायाम से। 
प्राणायाम का सम्बन्ध है योग से भगवत प्राप्ति से। 
इसीलिए हनुमान वैराग्य के प्रतीक हैं।

ध्यान रहे:
यथा पिंडे।
तथा ब्रम्हांडे।।

हनुमान का बन्दर स्वरूप माइंड की दशा का परिचायक है। माइंड अर्थात मन। मन में जब तक संसार बसा हुआ है तब तक यह बहुत चंचल रहता है। अस्थिर। कभी इधर कभी उधर। विचार के बादल सोते जागते मन मे मंडराते रहते हैं।बेचैन बन्दर की तरह मनुष्य की तरह इस पेड़ से उस पेड़ पर कूदता रहता है।

योग विज्ञान में मन की इस दशा को क्षिप्त और विक्षिप्त कहते हैं। मेडिकल साइंस इसे विभिन्न ब्रेन वेव्स के नाम से जानता है- अल्फा बीटा गामा डेल्टा थीटा। योग विज्ञान कहता है मन की पांच अवस्थाएं हैं - मूढ़ क्षिप्त, विक्षिप्त एकाग्र निरुद्ध। 
निरुद्ध की अवस्था योगी की अवस्था कहलाती है। योगी का माइंड निरुद्ध होता है। निर्विचार, शून्य, मौन। 
तुलसीदास कहते हैं -
सबहिं नचावत राम गोसाईं।
नाचत नर मर्कट की नाईं।।
मर्कट यानी बन्दर। 
भगवतवीता में कृष्ण कहते हैं:
"ईश्वर सर्वभूतेषु हृतदेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रमायन सर्वभूतानि यंत्र आरूढानि मायया"। 

ईश्वर सभी जीवों के हृदय में निवास करता है अर्जुन। परंतु अपनी माया से सबको रोबोट की तरह घुमाता रहता है। 

योग का ज्ञान प्राप्त करने के बाद अर्जुन अपनी समस्या बताता है कि मेरा माइंड तो बहुत अस्थिर रहता है प्रभु। इसका इलाज बताइये:
"चंचलम हि मनः कृश्नः प्रमाथि बलवत दृढम।
तस्य अहं निग्रह मन्ये वायुर्पि सुदुष्क्रतं।।"

मेरा मन बहुत चंचल है कृश्नः। मथता रहता है। बलशाली है और बहुत जिद्दी है। 

तो कृष्ण उसे क्रिया योग की विधि बताते है:
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रह चलं। 
अभ्यासेन तू कौंतेय वैराग्येण च ग्रहते।"
इसमे कोई संदेह नहीं है महाबाहु अर्जुन कि मन बहुत चंचल है और इसका निग्रह अर्थात नियंत्रण बहुत कठिन है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य से ऐसा संभव है।

अभ्यास। परंतु किसका अभ्यास? 

यही समस्या राम के सामने आयी थी। उन्होंने गुरु वशिष्ठ से पूंछा कि हे गुरुवर मन क्या है? What's mind guru ji ? 
गुरु वशिष्ठ ने उत्तर दिया:
"हे राम मनः संसार वन मर्कट:। 
चंचलत्वम मनो धर्म: यथा वहिनो उष्णता।।"

हे राम मन संसार संसार रूपी जंगल मे मन एक भटकते बन्दर की भांति है। चंचलता उसका स्वभाव है। ठीक उसी तरह जैसे अग्नि का स्वाभव है उसकी उष्णता। उसकी ऊष्मा। उसकी गर्मी। 

योगिक साइंस और वेदांत के अनुसार देह की पांच परतें हैं:
1- अन्न मय कोष - फ़ूड बॉडी या फिजिकल बॉडी।
2- प्राणमय कोष - एनर्जी बॉडी - every cell have mightochondria, which generates ATP by oxydation. (ऑक्सीजन को हम प्राणवायु कहते हैं। और हनुमान हैं वायु पुत्र। प्राणवायु के प्रतीक) 
3- मनोमय कोष - माइंड बॉडी - Thoughts and Emotions
4- विज्ञानमय कोष - Experiencia Body या बुद्द्धि विवेक 
5- आनंदमय कोष - Bliss body. Science has found a particle in human body - #Anandamide which means आनंद एमाइड। 

हनुमान एनर्जी बॉडी और माइंड बॉडी के प्रतीक हैं। एनर्जी बॉडी - वायु पुत्र
माइंड बॉडी - बन्दर। - महावीर विक्रम बजरंगी।
संसार में सफलता प्राप्त करना हो तो भी एनर्जी बॉडी और माइंड बॉडी की ही आवश्यकता पड़ती है।
और अध्यात्म की प्राप्ति करनी हो तो भी माइंड अर्थात मन या चित्त को प्राणवायु पर सवार करके प्राणायाम करना पड़ता है। 

अष्टांग योग में आठों चरण के मध्य में है - प्राणायाम।
-"यम नियम आसन प्राणायाम धारणा ध्यान समाधि"।।

इसीलिये हनुमान की इतनी महिमा कही गयी है। 
मनुष्यो की दो श्रेणी है - एक हैं श्रद्धा और भक्ति वाले। भक्ति के पथ के पथिकों के लिये हनुमान जी की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। लेकिन वे गवांर और पोगापंथी समझे जाते हैं। दूसरी श्रेणी के लोगों के द्वारा।   

दूसरे हैं पढ़े लिखे, शिक्षित,  बुद्द्धि वाले। ये प्रायः अपने को नास्तिक कहते हैं। लेकिन वे इस शब्द का अर्थ नहीं जानते। उनके लिए ही इस तरह की व्याख्याओं की आवश्यकता पड़ती है। 

अंत मे हनुमान के परम इष्ट भगवान राम नामक परम चैतन्य के लिए तुलसी दास लिखते हैं-
"विषय करन सुर जीव समेता।
सकल एक ते एक सचेता।
सबकर परम प्रकाशक जोई।
राम अनादि अवधिपति सोई।।
जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू।
मायाधीश ज्ञान गुण धामू।।

आपका मन संसार की तरफ उन्मुख है तो बन्दर।
परम चैतन्य प्रभु राम की तरफ उन्मुख है तो हनुमान। 
लेकिन हनुमान आपके अस्तित्व का हिस्सा हैं। 

यह गुह्य ज्ञान है। गुह्य का अर्थ गुप्त नहीं है। गुह्य का अर्थ है अप्रकट। है परंतु दिखता नहीं है। क्योंकि दृष्टि निर्मल नहीं है। दृष्टि परेज्यूडिसड है। राग द्वेष से पीड़ित है। मेमोरी से भरी हुयी है। 

®त्रिभुवन सिंह 

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Thursday 4 February 2021

Science of Mass Hysteria.

#Hysteria_on_Twitter by Celebrities and their slaves. How it's Works? Sciences of Mass Hysteria: 

#True_Freedom, is not freedom of Mind,   it's freedom from mind. 

Mind is mystery. Mind is most marvelous gudget given to us by existence. But we are unaware of its virtues and vices. 

Because modern medical science knows nothing about it. Mind comes within the preview of medical scientists, but alas they just beat around the bush, when it comes to explain the nature, attributes, quality, and functioning of Mind. 

Everything in this world is full of virtues and vices, it depends upon the user, that how he uses it. Today knife ( surgical) gives more lives, than it takes. 

Mind is Pandora's box. So it can't be dealt in a small and single article. We will talk about only one aspect of mind, it's nature.

What's the nature of mind?
By nature I mean true nature of mind, as true nature of Sun is heat, True nature of moon is soothness. Similarly what's true nature of mind?

So true nature of mind is - Unrest, uneasiness, dis ease. Psychologist call it monkeying of mind. Monkey can't sit at ease, it can't rest. Just watch a monkey, and then compare it by your mind's nature. 

Arjun feels that his mind is not at ease , when he was being explained about Yoga.He says #चंचलं_हि_मन:कृश्नः। 
O Krishna My mind is not at ease, it's creating unrest within me. 

So True nature of mind is unrest, uneasiness, dis ease. So peace of mind is not true nature of mind. It's nature is to be unpeacefull. So peace of mind is beyond our reach, until unless we do something with our mind. And uppeacefull minds will create unpeacefull society and Nation. 

Why it's important to understand it today.

 Because information and technology revolution is latest gudget created by human mind, which has great virtues along with great vices. Today this IT sector created #social_media, is being used to created #unrest in several part of world, including India. Its being used as a tool to break the peace of society and nation. 

Lets come back to mind. So mind can't sit at ease,. It can't rest, because it is it's not true nature of mind. 

 So where does mind go? It goes anywhere, which attracts it, or distracts it,  hurts it.

 What hurts our mind, that attracts it most. That's why we don't forget anyone, who have hurt us even once in our life.

Lets narrate a recent incident so that we can understand it's nature. Recently, In our college Two batches have been compelled to celebrate their silver jubilee meet together,  because of C9vid19. But something,  what had happened between them,  more than two decades ago, have hurt them so much, that they are not ready to celebrate their silver jubilee togather, even after so long. Their wound is still raw. They must have been scratching their wounds, so that it doesn't heal. That's how mind works, individually or collectively. 

What hurts us most?

 Any  emotion, thought, people, person,  land or thing, with which we identify ourselves, becomes part of us.

 Any thought, emotion, or action which goes or seems to be going, against our this self created identity - hurts us most. So our mind starts revolving around them to counter them, to negate them. That's how our mind works.

 If people identify themselves altogather to any profession , any batch ( like example given above), any thought, any ideology, any state or any religion;  and if some one suggests, or they feel,  that this  action is against their identity;  then whole lot of people might go against that act or action.

 That's how IT is being used to mobalise people against any govt or state. Recent #twitter_war explains and exposes the whole  agriculture related agitation in India. 

Now back to the nature of mind. Mind means restlessness, mind means un ease, mind means dis ease. 

Anything which goes according to our mind's liking, satisfies us. 

But the Existence is such that, everything can't  happen according to our likings. 

 Liking and disliking is another true nature of mind. We like the things which happens according to our mind or self creates identity, and we dislike the things which doesn't happen according to our mind. 

So whenever things happen against our liking or identity, our mind runs amock to resist it, counter it, negate it. If it's temporary then no permanent harm is done. 

This is third true nature of mind. Mind means negating. Negativity is true nature of mind. That's why our life have so much negativity. 

 Consistently long lasting, this status of mind might lead to frustration, restlessness, distress, tension, anxiety, or depression, hysteria, whatever name you give to it. 

When mind goes beyond our controle that state is called madness, or hysteria. When it's temporary event then we can become normal. But when it's permanent, it's beyond controle and people become permanently mad. Mostly beyond any treatment. 

If it happens to an individual, its personal loss or loss of family. But if it happens to mass , it leads to mass hysteria, and that is loss of society and nation. 

So what's happening in political field today's India,  is #Mass_Hysteria created by mind manipulaters. 
In individual case, it is individual hysteria.

 Mind goes beyond our control several times a day, depending upon degree of stimulation. It manifests mostly in anger.

 We call that person became mad in anger, which means that man have no controle over his mind. Now mind have become master, and person have become it's slave. Really a pathetic and painful experience of life. 

So what is cure?
You need to be master of your mind, which is such a marvelous instrument. 
 Is it possible?
 Yes it's possible. 

How?

There is certain science and technology which we need to practice and master it. 

Let's use an anology. 

For example just few decades back, gravity was considered to be invincible. But science developed techniques and tools to throw the objects, beyond the sphere of gravity. Now they are known as satellite. One of the most useful gadgets, which is backbone of IT. 

Similarly there is science and technology available,  which can be used,  to go beyond the reach of our mind. If that can be practiced with patience and true method, we can go beyond our mind and become our master. 
Becoming master of mind is virtue.
Being slave of mind is vice. 

So whether Mind is vice or virtue, it totally depends upon us.

Whatever is being sold in the name of freedom in modern world is no freedom at all, until unless we become our own Master.


©Tribhuwan Singh

Wednesday 3 February 2021

एन्टी ब्रह्मिनिस्म का कुचक्र और षड्यंत्र : कारण और पृष्टभूमि

#ब्राम्हणवाद_को_खलनायक_बनाने_की_पृष्ठभूमि : दलित उत्पीड़न का पोस्टमॉर्टम:

wily ( दुस्ट) ब्राम्हण सिद्ध करने के कुचक्र का बैकग्राउंड।

मार्क्स ने 1853 ( आर्थिक इतिहास के क्रोनोलॉजी को ध्यान में रखें ) में  न्यूयॉर्क ट्रिब्यून में एक लेख लिखता है। अपने लेख में भारत सामाजिक पृष्ठिभूमि का वर्णन करते हुए वह कहता है:
( यह लेख गूगल पर उपलब्ध है)

" (1) भारत एक ऐसा राष्ट्र है, जहाँ प्रोडूसर यानि मैन्युफैक्चरर और कंस्यूमर दोनों ही एक हैं। अर्थात कंस्यूमर ही मैन्युफैक्चरर है, और मैन्युफैक्चरर  ही कंस्यूमर है। खुद ही निर्माण करता है और खुद ही इस्तेमाल करता है, यानि हर गावं एक स्वतंत्र आर्थिक इकाई है । इसको उसने "एशियाटिक मॉडल ऑफ़ प्रोडक्शन" का नाम दिया। किसी भी तरह के वर्ग विशेष द्वारा किसी वर्ग विशेष के शोसण का जिक्र नहीं है।

(2) ईस्ट इंडिया कंपनी ने कृषि और पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट  को नेग्लेक्ट किया और बर्बाद किया।

(3) ब्रिटेन जो कि इंडियन फैब्रिक इम्पोर्ट करता था, एक एक्सपोर्टर में तब्दील हुवा।

(5 ) भारत के फाइन फैब्रिक मुस्लिन का निर्माण नष्ट किये जाने के कारण 1824  से 1837 के बीच ढाका की फैब्रिक मैन्युफैक्चरर आबादी 150,000 से घट कर मात्र 20,000 रह गयी।
(अब कोई फैक्ट्री तो होती नहीं थी उस वक़्त, इसलिए सब मैन्युफैक्चरिंग घर घर होती थी)।
(6) हालांकि सब ठीक है ,,लेकिन ये जनमानस गायों और बंदरों (हनुमान जी ) कि पूजा न जाने कब से करते आ रहे है, इसलिए ये अर्ध बर्बर सभ्यता है। जो अंग्रेज भारत के साथ कर रहे हैं यद्यपि पीड़ादायक है, लेकिन यदि क्रांति लानी है तो इस सभ्यता को नष्ट करना आवश्यक है।  अंग्रेज एशियाटिक सभ्यता को नष्ट करके उस पर पाश्चात्य matrialism की नीव रखने का अति उत्तम कार्य कर रहे हैं।"

मार्क्स एक नास्तिक था उसको क्रिश्चियनिटी से उतनी ही दूरी बनाके रखनी चाहिए थी जितनी हिंदूइस्म से । लेकिन क्यों कहा उसने ऐसा , ये तो वही जाने लेकिन आधुनिक मार्क्सवादी वामपंथी और लिबरल्स अभी भी उसी फलसफा का अनुसरण कर रहे हैं। 

मार्क्स ने गाय और हनुमान कि पूजा करने वालों को सेमी barberic कहा, लेकिन 1500 से 1800 के बीच यूरोपीय christianon ने 200 मिलियन (20 करोड़ ) देशी अमेरिकन की हत्या  कर दिया । वे यूरोपीय ईसाई दैवीय लोग थे ? इस पर आज तक ने  मार्क्स ने कुछ बोला कभी न उनके उत्तराधिकारियों ने।
क्यों? क्या चमड़ी  का रंग बदल जाने से और गैर ईसाई होने से मानवता का मूल्य कम हो जाता है? 

अब दो मूल प्रश्न :
(1) जो लोग ढाका जैसे शहरों से बेरोजगार होने के कारण भागे शहर छोड़कर, वो कहाँ गए ? और क्यों गए ? उनका और उनकी वंशजो का क्या हुवा? 

 मेरा मानना है वो गावों की और गए , जहाँ उन्हें प्रताणित नहीं किया गया बल्कि शरण दिया लोगों ने ।

(२) आप जानते हैं शहर में रहना महंगा है । उस पर अगर उसका पेशा ही नष्ट कर दिया जाय तो वो अपना और अपने परिवार के लिए रोटी कपड़ा और मकान का इंतेज़ाम शहर में नहीं कर सकता । गावं में लोगों ने उनको कहा एक छोटा सा घर बनवा लो , रहो और खेती बाड़ी में मजदूरी करो या मदद करो । क्योंकि गावं में आप एक लुंगी या चड्ढी में भी बसर कर सकते हैं। श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी का शनिचर सिर्फ चड्ढी और बनियान में ही रहता था प्रधान बनाने के बाद भी ।

इस तरह एक स्किल्ड और enterpreuner तबका एक मजदूर वर्ग में तब्दील हो गया । इसी तथ्य में आंबेडकर का उस प्रश्न का भी उत्तर छुपा है , जिसमे उन्होंने कहा कि यद्यपि स्मृतियों में मात्र 12 अछूत जातियों का वर्णन है , लेकिन govt कौंसिल 1936 ने 429  जातियों को अछूत घोषित किया गया है । और आप अनुमान लगाये 700 प्रतिशत बेरोजगार कितनी बड़ी जनसँख्या होती है ।
जो लोग गावं में रहे हैं वो जानते हैं कि उनके दादा परदादा बताते रहे होंगे कि हमने फलने फलने को बसाया । बसाया तो कौन लोग थे, जो उजड़कर दुबारा बसने गए थे ? वो वही लोग हैं 700 % बेरोजगार स्किल्ड मन्फक्टुरेर ऑफ़ इंडिया।

अब कहानी को मंथर गति से आगे बढ़ाते हैं ..अगर 1900 तक भारत के स्किल्ड कारीगर और व्यापार से जुड़े अन्य लोग, जो विश्व के सकल घरेलु उत्पाद में भारत की 25% हिस्सेदारी (कम से कम angus maddison के आंकड़ों से अनुसार)  पिछले 1750   तक बरकरार रखा था , और जो 1900  आते आते मात्र 1.8 % तक सिमटकर रह गया , उनकी काम कौशल के साथ जीविका और जीवन भी बदल गया।
 जो निर्माता से मजदूर में तब्दील हो गया क्या वो मनुस्मृति या वेदों में लिखे कुछ श्लोकों के कारन हुवा?

 क्या दलित चिंतक समाज के अर्थशास्त्र को देखने का साहस रखते हैं ? आजादी आते आते और ५० साल लगभग गुजर गए।और इन 50  वर्षों में और भी स्किल्ड लोग बेरोजगार, और बेघर हुए होंगे ।

क्या ये ब्राम्हणवाद की देन है ?

बंगाल में आजादी के पूर्व करीब ४० से ज्यादा बार सूखा पड़ा जिसमे करोणों लोग मरे । कौन लोग थे वे?

इस भयानक दुर्दशा से अगर कोई अपने आपको बचा पाया होगा तो वो रहे होंगे किसान , और वो भी वही किसान,जो जमींदारी प्रथा और टैक्सेशन से अपने आपको बचा पाएं होंगे । पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक बहुत बड़ा वर्ग दलित वर्ग में आता है, और संविधान प्रदत्त आरक्षण का लाभ भी लेता है , बहुतायत से उसमे मेरे मित्र भी हैं , लेकिन वो सैकड़ों बीघो के जमीन के मालिक हैं।

 कैसे हैं वे इतने बड़े काश्तकार होते हुए भी दलित? क्या ये विसंगतियां दिखती नहीं लोगों को ? इससे ज्यादा ईमानदार चिंतक तो आंबेडकर जी थे ,जिन्होंने स्मृतियों में वर्णित और कौंसिल ऑफ़ इंडिया में लिस्टेड S C जातियों की विसंगत्यों पर एक ईमानदार प्रश्नचिन्ह तो खड़ा किया ।
अब आइये उस बात की चर्चा करें की भारतीय समाज को टुकडे टुकडे में कैसे बांटा प्रशासन ने और पादरियों ने। कैसे स्वास्तिक जर्मनी के हिटलर और सैनिकों के बांह पर सुशोभित हुवा? 
 कैसे ब्राम्हण वाद की फलसफा ने जन्म लिया? क्यों जरूरत पड़ी इन सबकी? 
1857 के संग्राम में इतने अंग्रेज मारे गए कि यदि पंजाब का  राजघराना जो कि अभी राजनीती में सक्रिय हैं , दूसरे सिंधिया घरानों ने  अंग्रेजों कि मदद न कि होती तो शायद उसी समय भाग गए होते।
 लेकिन 1857 की  पुनरावृत्ति को रोकने के  लिए  उन्होंने कि योजना बद्द तरीके से भारत में न सिर्फ हिन्दू मुस्लिम भेद पैदा किया बल्कि हिन्दू समाज को इतने हिस्सों में बाँट दो कि वे एक न हो सके।
 ये अघोषित राजनीतिक योजना थी । दूसरे कुछ वर्षों के लिए मिशनरियों के क्रिया कलाप पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। क्योंकि सेना में उच्च पदों पर बैठे अधिकारी खुले आम सिपाहियों के हिन्दू धर्म को नीचा दिखाया करते थे, इसलिए सेना में काफी असंतोष रहा करता था।
लेकिन यह ऊपरी स्तर पर किया गया। लेकिन जमीनी स्तर पर धर्म परिवर्तन की जमीन तैयार करने के लिए वैधानिक मार्ग अपनाया गया। 

अब बात ये है कि सिर्फ हिन्दू समाज को ही क्यों बांटना था ? क्योंकि 1857 के संग्राम में अधिकतम हिस्सेदारी हिन्दुओं की ही थी । 1857 के पहले सेना में सभी वर्ण के लोग एक साथ थे। मंगल पण्डे तो याद ही होंगे आपलोगों को ।

तो पहला काम था सेना का regimentation करना ।

 जिसके बाद उन्होंने राजपूत बटालियन, सिख रेजिमेंट , मराठा रेजिमेंट , इत्यादि खास तौर पर उन वर्गों को सेना में शामिल किया, जिन्होंने अंग्रेजों की 1857 में मदद क़ी थी।
विशेष तौर पर ब्रामणो को सेना से बाहर किया और ये ख्याल रखा गया कि जवान जो रखे जाय उनकी पारिवारिक पृष्ठिभूमि क्या है? और उनके कोई रिश्तेदार आर्मी में हैं कि नहीं हैं? यदि हैं तो उनको प्राथमिकता दी जाएगी। इसीलिए अम्बेडकर जी के पितामह और पिता दोनो सेना में रखे गए थे। 
एक नया शब्द कॉइन किया गया --मार्शल रेसेस जिनमे क्षत्रियों और सिखों को रखा गया। अर्थात मोटी बुद्धि के साहसी लोगों का समुदाय। 

भारत के हिन्दू समाज को बाँटने का सिलसिला शुरू हुवा "#आर्य " और "#द्रविड़" बंटवारे से । नार्थ साउथ विभाजन से। क्योंकि दक्षिण में क्रिस्चियन मिशनरीज काफी पहले से आ गयी थी परन्तु धर्म परिवर्तन में सफल नहीं हो पा रहीं थी ।  इस लिए सबसे पूर्वे भारत को उत्तर और दक्षिण भारतीयों में बांटा और उसमे वे सफल रहे । यानी आर्य और द्रविड़।
उसके  पश्चात कल्पित #आर्यनअफवाह और बाइबिल के चश्मे से हिन्दुओ को सवर्ण और असवर्ण में बांटा गया।
कास्ट को हिन्दू धर्म का अमानवीय और अभिन्न अंग बताते हुए इसकी उत्पत्ति के लिए ब्राम्हणो को उत्तरदायी ठहराया गया और ब्राम्हणवाद को जमकर गालियां देनी शुरू की गयी। 
एम ए शेरिंग ने ब्राम्हणो को गालियां देने का टेम्पलेट तैयार किया - wily Bramhan दुष्ट ब्राम्हण आदि आदि। 
अम्बेडकर जी इन मिशनरियों से अत्यंत प्रभावित थे। उनकी पुस्तक में एम ए शेरिंग के प्रति आदर का भाव यही दर्शाता है। 
1901 में HH रिसले ने सवर्णो को तीन उच्च जातियां और अन्य हिन्दू समुदाय को निम्न जातियों में विभाजित कर 2378 कास्ट की लिस्ट बनायी।
यही से ऊंची और निम्न जाति की अवधारणा पुष्पित पल्लवित होनी शुरू हुई। 

आगे की कहानी पिछली पोस्टों में लिखी गयी है।

©त्रिभुवन सिंह

Monday 18 January 2021

Weight of Thoughts Make life hell.

′′The #Weight_of_Thoughts'′ bronze sculpture by Thomas Lerooy.

#विचारों_का_बोझ।

जीवन दुख है या संसार दुख है - बुद्ध।
बुद्ध ने संसार को दुख बोला हो तो भी, जीवन को दुख बोला हो तो भी, बात वह सिर्फ विचारों की ही कर रहे थे। 

हमारे जीवन की सबसे बाहरी परिधि है - शरीर। शरीर साधन है जीवन जीने का, संसार को भोगने का, और जीवन को विकसित करने का। समस्त प्राणियों को देह या शरीर मिलता है। इसकी मूलभूत स्वरूप है- भूंख भय मैथुन निद्रा। 
शरीर की आवश्यकता होती है- उसकी पूर्ति आवश्यक है। यदि जीवन आवश्यकताओं की पूर्ति में निकल रहा है,, तो भी मनुष्य बहुत चिंतित नहीं होता। समय कहाँ है उसके पास चिंतित होने का, विचारों के संग्रह करने का? फुटपाथ पर भी गहरी नींद में सो सकता है वह।

शरीर की दूसरी परिधि है - विचारों की। हम समस्त विचार बाहर से लेते हैं - शिक्षा द्वारा, संस्कार द्वारा, समाज द्वारा। यह बादल की भांति हमारे अंदर मंडराते रहते हैं। 
शरीर की तीसरी परत है - भाव दशा की। हमारे भाव, जो विचारों का द्रवीकृत स्वरूप है। लिक्विड फॉर्म ऑफ थॉट्स। थोड़ा गहरी अवस्था। 

चौथी परत है - सिद्धांतों, और अवधारणों की परत। जिस विचार और भाव दशा को हमने अपना लिया, गहन रूप से सत्य समझकर। वह परत। 

विचार , भाव और अवधारणा - ये अलग अलग नहीं हैं। एक ही चीज के तीन स्वरूप हैं। जैसे बादल, जल और बर्फ। 

तो बात हो रही थी इस तस्वीर में वर्णित - विचारों के बोझ की। हमारा शरीर छोटा हो जाता है, और मस्तिष्क बड़ा। बाहर से संग्रहीत किये गए  विचारों, भावों और अवधारणाओं के बोझ से। 

प्रकृति ने जो सिस्टम बनाया है, उसमें आटोमेटिक व्यवस्था है कि जो भी चीज हम ग्रहण करते हैं, उसमें से,  शरीर के लिए आवश्यक तत्व शरीर ले लेता है, बाकी  स्वयं निष्काषित कर देता है - मल मूत्र या स्वांस में कार्बन डाई ऑक्साइड के रूप में। विसर्जित कर देता है। क्योंकि वह विषाक्त होता है। 

सोचिये यदि इस सिस्टम में कोई बाधा आ जाय तो? प्राणों का खतरा उतपन्न हो सकता है या जीवन दुरूह हो जाता है। 
विषाक्त हो जाये सारा सिस्टम।
सेप्टिक कहते हैं डॉक्टर इसे।

अभी कल ही एक दमा का मरीज भर्ती हुवा - अति गम्भीर दशा में। उसका कार्बन डाई ऑक्साइड निकल नहीं पा रहा था। डॉक्टरों ने बताया कि CO2 narcosis हो रहा है। अर्थात अधिक मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड निकल न पाने के कारण बेहोशी हो रही है, चेतना लुप्त हो रही है। 

पूर्व में किसी मित्र  ने कहा कि - #IBS अर्थात इर्रिटेबल बोवेल सिंड्रोम पर लिखिए। 

मेडिकल साइंस कहता है कि IBS, एक साइको सोमेटिक बीमारी है। अर्थात माइंड में चल रहे उठापटक का प्रभाव हमारे आंत की आदतों पर पड़ता है। लोग दिन भर टॉयलेट में ही बैठे मिलते हैं। परमानेंट कब्जियत है यह। 

मेडिकल साइंस यह भी कहता है कि हमारा सिस्टम एक केमिकल की फैक्ट्री है या केमिकल सूप है। जितने केमिकल हमारे सिस्टम में निकलते हैं, उनका सबसे बड़ा स्रोत हमारा पाचन तंत्र होता है। 

थोड़ी मोड़ी कब्ज हो तो - रेचक औसाधियाँ या Cathartic agents से काम चल जाता है। आपने देखा होगा कि कैथर्टीक एजेंट्स का अरबों का कारोबार है मेडिकल साइंस में। 

लेकिन IBS के मरीजों में इन एजेंट्स से काम नहीं चलता। उनके माइंड या विचारों की उठा पटक को शांत करने हेतु शामक औसाधियाँ देनी पड़ती हैं। #SSRI मेडिसिन का जो समूह है, जिस पर साइकाइट्री की पूरी फार्मकोपिया आधारित है - वह इन्हीं केमिकल्स की मात्रा नियंत्रित करने हेतु बनी हैं। खरबों का कारोबार है इन दवाओं का। शामक औसाधियाँ हैं ये, अर्थात माइंड को शांत करने की औसाधियाँ। 

तो बात हो रही थी - विचारों के बोझ की। पूरी साइकाइट्री, साइकोलॉजी, और एक नई शाखा - साइको- immunology - विचारों के शमन या रेचन ( कैथेरसिस) के माध्यम से काम करते हैं। 

विचार भी हम बाहर से ही लेते हैं। अब इसमें कितना आवश्यक है, और कितना अनावश्यक, वह हर व्यक्ति के लिए अलग अलग होता है।

 समस्त विचार सबकी आवश्यकता नहीं होते। व्यक्ति अपने स्वभाव अनुकूल ही विचार संग्रह करता है। माइंड विचारों से अपने आपको स्वप्न के माध्यम से शुद्ध करने का प्रयत्न करता है - ऑटो मैटिक। लेकिन सारे विचार आपस में गड्ड मड्ड हो जाते हैं। एक दूसरे के विरोध में खड़े हो जाते हैं। आपस मे कटा-जुज्झ  मचा देते हैं। उससे विष निर्मित होता है - #इमोशनल_टॉक्सिन्स। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हम किसी विचार को सही समझते हैं, किसी विचार को गलत। अपनी शिक्षा संस्कार के कारण।
"इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे राग द्वेष व्यवस्थितौ"।
- भगवतगीता

हम अपने राग और द्वेष के अनुसार ही वस्तुओं, व्यक्तियों, भाव और विचारों का  ग्रहण करते हैं। 
इन गड्डम- गड्ड विचारों के कारण हमारा माइंड इतना भारी हो जाता है कि हम प्रायः विक्षिप्तता के कगार पर ही रहते हैं। जरा एक जोर के धक्के की आवश्यकता है और हम पूरी तरह पागल हो जाएंगे। हमारा सबसे बड़ा मित्र - हमारा माइंड, हमारे शत्रु में बदल जाता है। इससे बचने के लिए हमें #मेन्टल_कैथेरसिस  या निर्ग्रंथन सीखने की आवश्यकता पड़ती है। 

क्योकि IBS की तरह ही विचारों का बोझ हमारे तंतुओं में ग्रंथ बना लेता है जिससे उन समस्त बीमारियों का जन्म होता है जिन्हें लाइफ स्टाइल डिजीज कहते हैं।

प्रमाणस्वरूप: 
हमारी मेडिसिन की टेक्स्टबुक हैरिसन , हाइपरटेंशन के बारे में लिखती है: "यह बीमारी समस्त सभ्यताओं में पायी जाती है मात्र कुछ प्रिमिटिव ट्राइब्स को छोड़कर"।
न एक लाइन कम, न एक लाइन अधिक।
कारण क्या है कि प्रिमिटिव ट्राइब्स इस वैश्विक महामारी से अप्रभावित है?
विचारों का निर्माण - सभ्यताएं करती हैं। अवधारणाओं का निर्माण विचारक करते हैं - थिंकर्स। और उन्हीं विचारों में वे डूबते उतराते रहते हैं। जन्म लेते हैं, उन्हीं विचारों में जीते हैं, उन्हीं के कारण या उन्हीं के साथ मर जाते हैं। 

ट्राइब्स पवित्र जीवन जीते हैं - विचारों की खोल से मुक्त। 
©त्रिभुवन सिंह

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