Friday 31 October 2014

."शूद्र कौन थे"- डॉ आंबेडकर का आधार - तथ्य या मिथ -Part- 20 दलितचिंतन और जातिविमर्श::डॉ आंबेडकर, कहाँ फंसे ईसाई पादरियों के बिछाए जाल में /

नैचुरल जस्टिस क्या होता है ?समाज मे जो जितना सम्मानित और जिम्मेदार हो , उसको उसकी गलतियों के लिए उसी अनुपात मे दंड का प्रावधान हो / ये ब्रिटिश द्वारा बनाए कानूनी प्रक्रिया का अंग नहीं है , परंतु भारतीय परंपरा का अंग रहा है / गुलाम बनाना सनात धर् का अं नहीं रहा कभी/ उसके लिये नैचुरल जस्टिथा / इस अपराध के लिए ब्रामहन को प्राण दंड/
 
"उदर दास को छोड़कर आर्यों के नाबालिग शूद्र वैश्य क्षत्रिय या ब्राम्हण को यदि उनके ही परिवार का कोई व्यक्ति बेंचे या गिरवी रखे तो उन पर क्रमशः बारह पण , चौबीश पण ,छत्तीश पण और अड़तालिश पण का दंड किया जाय / या  इन्ही नाबालिग शूद्र आदि को यदि कोई दूसरा व्यक्ति बेंचे या गिरवी रखे ,तो उक्त करम से उनको प्रथम ,माध्यम ,उत्तम साहस और प्राण बढ़ का दंड दिया जाय / यही दंड खरीददारों और इस मामले में गवाही देने वाले का भी किया जाय / " - कौटिल्य अर्थशास्त्रम
" जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , और महिला मातहतों को अनुचित दंड दे ,उसके सतीत्व को नष्ट करे ,नग्न अवस्था में उनके पास जाय, या नंगा कराकर अपने पास बुलाये तो उसके धन जब्त कर लिया जाय / यदि यही व्यवहार दाई (धात्री) परिचारिका , अर्धसीतिका ,,और उपचारिका से करवाया जाय तो उन्हें दासकार्य से मुक्त कराया जाय / यदि उच्चकुलुत्पन्न दास से उक्त कार्य करवाया जाय तो वह दासकर्म को छोड़कर जा सकता है / "--तीसरा अधिकरण --दासकर्मकरकल्पम्

" जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , उसके धन जब्त कर लिया जाय--Kautiya

डॉ अंबेडकर ने जब राजनीति मे कदम रखा तो बहुसंख्यक जनता जो एक्सपोर्ट क्वालिटी मैनुफेक्चुरिंग करती थी , और जो छोटे कृषक थे , वे बेरोजगार और बेघर हो चुके थे / कार्ल मार्क्स के 1853 के लेख के अनुसार 1815 मे ढाका मे 150,000   वस्त्र निर्माता थे , जिनकी संख्या 1835 मे घटकर मात्र 20,000 बची / कहाँ गए 130,000 लोग और उनकी भावी वंशजे ? 
विल दुरान्त और गणेश सखाराम सेउसकर के अनुसार 1875 से 1900 के बीच 2.5 कारों अन्न के अभाव मे काल के गाल मे समा जाते है / ऐसा नहीं था कि अन्न कि कमी थी , उनके पास अन्न खरीदने के लिए धन ही नहीं था / शहरो से लोग गावों की ओर भागे जहां उनको शरण मिली / और गाव के किसान जमीन जब्त होने के पश्चात शहरो की ओर / विल दुरान्त के अनुसार - इनमे से कुछ को , 1930 तक कारखानो और खदानों मे कुल श्रमिकों की संख्या 14 लाख मात्र थी , उसका हिस्सा बनने का सौभाग्य प्रपट हुआ / बाकी बचे लोगों मे जो सौभाग्यशाली थे उनको गोरो का मैला उठाने का काम मिला , क्योंकि गुलाम अगर इतने सस्ते हो तो सौचालय बनवाने की मुसीबत कौन पाले /
जबकि अमिय कुमार बघची के हैमिल्टन बूचनान के हवाले से दिये गए आकडे के अनुसार 1809- 1813 के बीच मात्र पूर्णिया और भागलपुर से 6.5 लाख लोग परंपरागत व्यवसाय से विस्थापित हुये / अब आप पूरे देश मे सोचिए कितनी बड़ी संख्या मे लोग बेरोजगार हुये होंगे ?
लेकिन डॉ अंबेडकर ने कभी भी मूल श्रोतो की ओर नजर न डाली , न कौटिल्य को पढ़ा और न ही तात्कालिक स्थापित लेखको को / उनके श्रोत कौन थे ? तथा कथित संस्कृतज्ञ कट्टर ईसाई , जिनके संस्कृत के ज्ञान पर प्रश्ञ्चिंह खड़े हो रहे हैं , जिंका उद्देश्य ही इसाइयत को हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ प्रमाणित करना था / 
डॉ अम्बेदकर ने जब "पुरुषसूक्ति" को आधार मानकर ,,वर्ण व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया / तो उनका ये निष्कर्ष कि ''चूंकि शूद्र उस विराट पुरुष के पैरों स
े पैंदा हुवा है , इसलिए 1900  के बाद भारत के एक बड़ा वर्ग " शूद्र" जैसे घृणित श्रेणी में ,,घृणित काम (Menial जॉब) करने के लिए मजबूर हुवा / और इसके पीछे ब्राम्हणो की शाजिश थी जिन्होंने धूर्ततापूर्वक ऋग्वेद के उस सूक्ति को एक क्षेपक के रूप मे जोड़ दिया (interpolation ) /
लेकिन फिर उसी सूक्ति से ये भी निकल के आता है कि उसी विराट पुरुष के पैरों से हिरण्यगर्भा धरती भी उत्पन्न हुई /

 
लेकिन सवाल ये है  कि जब डॉ अम्बेदकर ये कहते हैं कि उनकी इस हाइपोथिसिस पर इसलिए कोई प्रश्न चिंह नहीं लगा सकता क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते थे , क्योंकि जितने धर्मग्रन्थ थे सबका ,अनुवाद हो चुका है / तो फिर ये भी देखना चाहिए कि किन संस्कृतविदों के अनुवाद से उन्होंने अपनी थीसिस के लिए "मटेरियल एंड मेथड " लिए ? उन संस्कृतविदों की संस्कृतज्ञ होने के क्लेम में कितना दम है ?? और दूसरी बात ये है , की इन संस्कृतज्ञों के संस्कृत में रूचि का कारण अकादमिक था , कि कुछ इतर उद्देश्य थे ?? कम से कम इतना तो सभी मानेंगे कि ये विदेशी संस्कृतज्ञ भारत में फिलैंथ्रॉपी के उद्देश्य से तो नहीं ही आये थे ??
तो क्यों न उनकी जांच कर लिया जाय जिनके पुस्तकों से डॉ अम्बेदकर ने अपनी थेसिस के लिए "मटेरियल एंड मेथड " लिया था / क्या यह अप्रसांगिक है ??


 लेकिन आगे बढ़ने के पहले एक संक्षिप्त टिप्पड़ी ,,,, "भंगी " पर /
गांधी ने कहा कि अछूत ,भंगी और मलप्रक्षालन जैसी शर्मनाक कुव्यवस्था ,हिन्दू समाज और हिंदूइस्म के माथे पर एक कलंक है, जब तक हिन्दू समाज इस कलंक से अपने आपको मुक्त नहीं करता, हिन्दू धर्म अपने
 गौरव को पुनः प्राप्त नहीं कर पायेगा / गांधी जैसे घोर हिन्दू नेता , जब हिन्दुस्म को इस कलंक के लिए जिम्मेदार मान लेता है और प्रायश्चित स्वरुप स्वयं शौचालयों को साफ़ करने का बीड़ा उठाता है और अपनी पत्नी को ,,दक्षिण भारत में एक अछूत के सौचालय को साफ़ करने से इंकार करने के कारण , मध्य रात्रि में, घसीटते हुए घर के गेट तक घसीटते हुए ले जाता हैं ,,,और गुस्से से कहते हैं कि -" सुन लो ये घर मेरा है , और जो मेरे बनाये हुए नियमों का पालन नहीं करेगा उसको मेरे घर में रहने का कोई अधिकार नहीं है "/ ( लुइस फिशर - लाइफ ऑफ़ महात्मा गांधी ) 

 
गांधी जी जब इंग्लॅण्ड में बैरिस्टरी कि पढाई कर रहे थे , तो ब्रिटेन का कब्ज़ा लगभग पूरे विश्व पर था / उनका सूर्य डूबता ही नहीं था / तो ब्रिटिशर्स, और उनके "सत्य धर्म " (ईसाइयत) का अहंकार का सूर्य भी कि तरह दैदीप्यमान था / गांधी के पास इंग्लॅण्ड में निवास के दौरान ,ईसाइयत में धर्म परिवर्तन के लिए अनेकों बार आवेदन आया था / लेकिन उन्होंने ईसाई बनने से इंकार कर दिया / हालांकि कहीं हमने पढ़ा तो नहीं लेकिन लगता है कि हिन्दू धर्म न छोड़ने के लिए उनको उस समय भारत में प्रचलित अछूत और मल प्रच्छालन प्रथा के लिए उन्हें काफी जलील किया गया होगा जिसकी सफाई में बोलने के लिए ,, उनके पास कोई तर्क नहीं रहा होगा / यहाँ दो प्रश् उठते है-

 
(१) उन्होंने जब हिंदूइस्म को शुद्ध करने का वीड़ा उठाया तो उस जनसमूह को नाम दिया --" हरिजन " /

 
लेकिन हरिजन शब्द को भी अशुद्ध कर दिया उस समाज के चिंतकों ने स्वतंत्र भारत में / क्या तर्क --"हरिजन का मतलब जिसका जन्मदाता भगवान हो" . यानी जिसके बाप का पता न हो यानि जिसके बाप भगवान हो, अर्थात हरामी / कितना विकृत किया समाज को दलित चिंतकों ने ?? अर्थात हरिजन से उसको हरिजना बना दिया /
सज्जन का अर्थ --क्या सत ( सज्जन व्यकित ) का पुत्र ?? या जिसमें सच्चे व्यक्ति के गुण हों / दुर्जन का क्या मतलब == दुस्ट बाप कि संतान ?? या जिसके चरित्र में गन्दगी भरी हो /
तो फिर हरिजन का मतलब -- भगवान की संतान यानि जिसके बाप का पता न हो ?? या जिसके अंदर भगवान के सत्चितानन्द का गुण हो /
लेकिन घृणा की असीम कीचङ में आकंठ डूबे दलित चिंतकों ने गांधी के नाम का परित्याग कर,दलित शब्द से बिभूषित होना ज्यादा उचित समझा जिसका मतलब oppressed caste एक्ट तहत depressed class का गठन , जो 1935 में रानी विक्टोरिया ने रची -- उसके हिंदी अनुवाद को --दलित शब्द से नवाजा जाना ज्यादा उचित समझा /

 
(२) दूसरा है सूचनाओं के श्रोत का मामला --- गांधी के पास भी वही ,,ग्रन्थ उपलब्ध थे ,ब्रिटिश अधिकारयों और पादरियों के द्वारा हिंदूइस्म को बाइबिल के फ्रेमवर्क में परिभाषित करने का / लेकिन उन्होंने  उनके खिलाफ जंग तो छेड़ा लेकिन उनको अपने देश की परम्पराओं पर दृढ विश्वास था इसीलिये भारतीय राजनीति में पैर रखने के पूर्व भारत का भ्रमण किया , गोखले के निर्देश पर , और इसीलिये वे गीता का भी अपने हिसाब से अनुभाषित करने और समझने में सक्षम रहे - गीता माता /
लेकिन आंबेडकर भारतीय राजनीति में 1925 के आस पास भारतीय राजनीति में उदित होते हैं और 1931 में इंग्लॅण्ड में गांधी के बगल बैठकर ,,गोलमेज सम्मलेन में उन्ही ब्रिटिशर्स द्वारा उजाड़े गए लोगों को एक अलग कम्युनिटी की तरह रिप्रेजेंट करते हैं , और कम्युनल अवार्ड से सम्मानित होते है /
क्या अप्रसांगिक है इसकी विवेचना करना?


डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक -" अछूत कौन और कैसे " में मैला ढोने की 1900 के आसपास प्रचलित सामाजिक बुराई को, ऋग्वेद में पुरुश्सूक्ति के ब्राम्हणों के द्वारा बाद में घुसेड़े जाने यानी क्षेपक , से जोड़कर थीसिस लिखी है ।
लेकिन किस युग में ??
ये नहीं बताते ।

लेकिन अपनी थीसिस के "मटेरियल और मेथड " को प्रमानित् करने के लिए नारदस्मृति को प्रमाण के रूप में उल्लिखित करते हैं । 
लेकिन नारद तो मिथक थे । और सतयुग में पाए जाते थे । कितने साल पहले ?? 

तो फिर ये भी , एक अलग तस्वीर ये है कि सतयुग में प्रचलित हुए -- मैला धोने और ढोने की परंपरा को  चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु , ऐतिहासिक भारत के सबसे बड़े राजनीतिज्ञ कौटिल्य ने , कलयुग में उसका सुधार किया /
 

वैसे भी धरमपाल जैसे गांधीवादी ने अपनी पुस्तक -"The Beautiful Tree" में भारत में मैकाले की शिक्षा लागू होने के पूर्व , देशी शिक्षा के जरिये शिक्षित होने वाली 1830 के आसपास की जो लिस्ट प्रकाशित की है ,उनके लिस्ट में स्कूल जाने वाले शूद्र छात्रो की संख्या , तथाकथित विद्वान ब्रम्हाण छात्रो से चार गुना है । 

आंबेडकर जी के पूर्व के क्रिश्चियन मिशनरियों के लेखक और इतिहासकारों ने ऋग्वेद के पुरुष शूक्त को आधार बनाकर समाज में राजनैतिक और धर्म परिवर्तन के लिहाज से प्रमाणित करने कि कोशिश की कि वैदिक काल से ये समाज का वर्गीकरण कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित रहा है / उसी विचार को बाद में मार्क्सिस्टों ने और आंबेडकर वादियों ने आगे बढ़ाया / 1901  के पूर्व जाति आधारित जनगणना भी नहीं होती थी (पहली जनगणना 1871 में हुयी थी ) बल्कि वर्ण और धर्म के आधार पर होती थी/ 1901 में जनगणना कमिशनर रिसले नामक व्यक्ति ने ढेर सारे त्रुटिपूर्ण तथ्यों और एंथ्रोपोलॉजी को आधार बनाकर 1500 से अधिक जातियों और 42   नश्लों में भारत के हिन्दू समाज की जनगणना की / वही जांगना आजतक जातिगत विभाजन का मौलिक आधारहै /
पुनश्च : गीता के -"जन्मना जायते शूद्रः कर्मण्य द्विजः भवति " को इतिहासकार प्रमाण नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार महाभारत एक मिथ है /
लेकिन अभी मैं कौटिल्य अर्थशाश्त्रम् पढ़ रहा था तो एक रोचक श्लोक सामने आया / " दायविभागे अंशविभागः " नामक अध्ह्याय में पहला श्लोक है -"एक्स्त्रीपुत्राणाम् ज्येष्ठांशः ब्राम्हणानामज़ा:, क्षत्रियनामाश्वः वैश्यानामगावह , शुद्रणामवयः "
अनुवाद : यदि एक स्त्री के कई पुत्र हों तो उनमे से सबसे बड़े पुत्र को वर्णक्रम में इस प्रकार हिस्सा मिलना चाहिए : ब्राम्हणपुत्र को बकरिया ,क्षत्रियपुत्र को घोड़े वैश्यपुत्र को गायें और शूद्र पुत्र को भेंड़ें /
दो चीजें स्पस्ट होती हैं की वैदिक काल से जन्म के अनुसार वर्ण व्यस्था नहीं थी क्योंकि कौटिल्य न तो मिथ हैं और न प्रागैतिहासिक / ज्येष्ठपुत्र को कर्म के अनुसार ही हिस्सा मिलता था/ और एक ही मा के पुत्र कर्मानुसार किसी भी वर्ण में जा सकते थे /

."शूद्र कौन थे"- डॉ आंबेडकर का आधार - तथ्य या मिथ -Part- 19 : दलितचिंतन और जातिविमर्श::डॉ आंबेडकर, कहाँ फंसे ईसाई पादरियों के बिछाए जाल में

 जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , उसके धन जब्त कर लिया जाय-- कौटिल्य 

आंबेडकर जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने आर्यों के बाहर से आने का खंडन किया था।

आंबेडकर जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अंग्रेजो द्वारा प्रचारित और प्रसारित , चमड़ी के रंग को आधार बनाकर (रंगभेद ) हिन्दू समाज का , सवर्ण और अवर्ण में समाज के विभाजन का खंडन किया था। और उदाहरण के रूप में दसरथ पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र जी और यदुवंशी कृष्ण जी के स्यामल / काले रूप का उद्धरण देते हुए , अंग्रेजों की शाजिश का पर्दाफाश भी किया है ।
तो फिर क्यों दलित चिन्तक अब महिसासुर की पूजा करना चाहते हैं , और मूलनिवासी का ध्वज लेकर घूम रहे हैं ? ये खुद को अंबेडकरवादी बोलते तो हैं , लेकिन लगता है दलाली पोप की कर रहे हैं , अंबेडकर को त्याग चुके हैं /
बिहार और बंगाल मे   नाउ को  ठाकुर कहते हैं , और भगवान को भी ठाकुर जी / लेकिन उ प्र मे  ठाकुर को नाउ ,,कह देते तो लोग आप को दौड़ा लेते / लेकिन यही सांस्कृतिक विविधता हमारी विरासत हैं / क्या उसको संघिताबद्ध रिलिजन के प्रचारक समझ सकते हैं?? क्या वो सम
झ सकते हैं कि धर्म का अनुवाद रिलिजन नहीं हो सकता ??
तो कैसे वे संस्कृत के प्रकांड पंडित हो गए / मॅक्समुल्लर फ्रांस में एक संस्कृत -इंग्लिश डिक्शनरी पढ़कर, संस्कृत का विद्वान हो गया ?  उसको और तमाम उसी खपड़ी में नहाये, अंग्रेज विद्वानों के कथन को हम ब्रम्हवाक्य मान लेंगे क्या हम ??  हम क्या ऐसे ही विद्वानों के चश्मे से भारत के समाज और उसके इतिहास को पढ़ेंगे ?? क्या कभी अपनी सोच और देश के विद्वानों के ग्रंथों से समाज का चरित्र - चित्रण नहीं करेंगे ??

 गीता में लिखा गया है -" जन्मना जायते शूद्रः , संस्काराय द्विजः भवति /" यानी जन्म से हर व्यक्ति शूद्र होता है ,,लेकिन जैसे जैसे उसके संस्कार चेतन होते जाते हैं ,,वह द्विजता कि सीढ़ी चढ़ता जाता है /
गीता में शूद्रों के लिए लिखा गया है- "परिचर्यात्मकम् कर्
म शूद्रस्यापि स्वभावजम" -- यदि स्वाभाव से शूद्र है तो उसका कार्य परिचर्या करना है / यानि यदि वो विज्ञान और ज्ञान की दिशा मे नहीं जाना चाहता तो उसके लिए सर्विस सैक्टर है / क्या आप जबर्दस्ती किसी को ज्ञानी और विज्ञानी बनाना चाहते है ? और क्या आपके चाहने से कोई मान जाएगा ? अपने बच्चे को भी आप उसके जीवन की दिशा तय करने को बाध्य नहीं कर सकते / और बाध्य कर भी लें तो क्या आप उसकी destiny तय नहीं कर सकते / तो गलत क्या है सर्विस सैक्टर मे जाने मे ?


कौटिल्य अर्थशाश्त्र में शूद्रों का धर्म बताया -" स्वधर्मों शूद्रश्य द्विजात शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च \"


- वार्ता का अर्थ कौटिल्य के अनुसार -,"वार्ता -कृषि पशुपालन और व्यापार वार्ता विद्या के अंग हैं-- यह विद्या धान्य , पशु , हिरण्य ,,ताम्र आदि खनिज पदार्थों के बारे में ज्ञान " रखने की बात करती है /


-कारकुशीलव - का अर्थ ..शिल्प विज्ञानं में expertise हासिल करना --जिसको आज कि भाषा में technocrat इंजीनियर और न जाने कितने नामों से बुलाया जाता है -- यानि GDP क़ी रीढ़ .


अब बचता है --परिचर्या और शुश्रूशा ,,और संस्कार / संस्कार पर बाद में विमर्श आगे कहीं --आंबेडकर जी क़ी हाइपोथिसिस क़ी जब व्यख्या करेंगे / अभी --परिचर्या और शुश्रूशा का अर्थ संस्कृत ग्रन्थ से /
"अमरकोश" के अनुसार --द्वितीयं कॉन्डम -ब्रम्हवर्ग -७ श्लोक ५ के अनुसार --
चत्वारि श्रुशूषायाः - वरिवस्या तू शुश्रूषा परिचर्या उपासना /
-वरिवस्या का अर्थ तो हम भी नहीं जानते ,,(अगर आप बता सकें तो ,,ज्ञानवर्धन करे) लेकिन शुश्रूषा, परिचर्या, उपासना, शब्दों का अर्थ तो आप भी जानते हैं /
तो फिर डॉ आंबेडकर द्वारा वर्णित --शूद्रों के लिए --Menial जॉब ?? कहाँ से आया ?? कहीं से तो लिया होगा डॉ आंबेडकर ने, क्योंकि संस्कृत तो उनको आती नहीं थी , तो फिर संस्कृत के विद्वान क्रिश्चियन से, अंग्रेज अधिकारी, इतिहासकार ,या फिर किसी संस्कृतज्ञ पादरी से ??


"शूद्र कौन थे " नामक पुस्तक में पेज 90 पर  डॉ आंबेडकर ने कौटिल्य अर्थशास्त्र को उद्धृत करते हुए ये प्रमाणित किया है कि ब्राम्हण क्षत्रिय और वैश्य के साथ शूद्र भी आर्य थे / और उसके पहले उन्होंने प्रमाणित किया था की आर्य यानि संस्कृत भाषी हिन्दू ,बाहर से नहीं आये थे ,वे भारत के मूल निवासी थे / कितना तथ्यात्मक अध्ययन है उनका / किसने इंकार किया की शूद्र आर्य नहीं थे, भारत के ब्राम्हणों ने ???

  शूद्रो के गुलाम बनाये जाने की बात को ,,एकदम एक सिरे से ख़ारिज करते हुए डॉ आंबेडकर लिखते है -" गुलाम तो दूर की बात है ,,शूद्रों तो चक्रवर्ती राजाओं के राज्याभिषेक में शामिल होते थे / राज्याभिषेक में हिस्सा लेने वाले जनप्रतिनिधयों को रतनी के नाम से जाना जाता था , क्योंकि इनके पास रत्न होता था जिसको ये राजा को देते थे , और यही राजा के सार्वभौमिकता का प्रमाण होता था / राजा उसके बाद प्रत्येक रतनी के घर जाकर ,उनको भेंट देता था / और उन रतनियों एक रतनी शूद्र भी होता था / "
यही बात तो हम भी कह रहे हैं /


 डॉ आंबेडकर ने लिखा है कि -"शान्तिपर्व में राजनीति कि शिक्षा देते हुए भीष्म युधिस्ठिर को समझाते  हैं कि उनके मंत्रिमंडल में कौन कौन लोग हों ? तो  भीष्म कहते हैं - चार ब्राम्हण ,जो वेदों में निष्णात हों और चरित्रवान हों , 8  क्षत्रिय जो युद्धकला में पारंगत हों . 120 धनी वैश्य और 3 शूद्र जो विनम्र और पवित्र हों , और अपने दायत्वों के प्रति उत्तरदायी हो ,और एक सूत / और तुम्हारे सभी मंत्री पुराणों के ज्ञाता ,और 8 पवित्र गुणों से भरपूर हों /"
यही तो डॉ बुचनन ने लिखा है अपनी पुस्तक में शूद्रों के बारे में , जब दक्षिण भारत का सर्वे किया था उन्होंने कुछ खास किस्म कि जातियों का विवरण देते हुये कि ---

  एक झलक डॉ बुचनन कि पुस्तक "Journey From Madras to the countries of Mysore Canara and Malabar" जोकि 1807 में छपी थी ,उसके कुछ पुस्तकांश ..
(१) ये मछुवारे मोगयार कहलाते हैं ,जो तुलवा के निवासी हैं ,मोगयार नाविक मछुवारागिरी , सामान ढोने और पा
लकी उठाने का काम करते हैं ,,और आपस में ही शादी ब्याह करते हैं /वे अपने आप को पवित्र शूद्र वंशज के मूल से उत्पत्ति बताते हैं , और हेल्पिकास ( एक और शूद्र जाती) से ऊपर का दर्जा रखते हैं, तुलवा की  ज्यादातर खेती यही लोग करते हैं (हेल्पिकास) / लेकिन ये अपने आपको बुन्ट्स से नीचे दर्जे का मानते हैं /------पेज २२
(२) तलुवा के ब्राम्हण कहते हैं कि पुरुष राम ने इस जगह को ब्राम्हणों के लिए तैयार किया था ,इसलिए उन्हें ही इस जगह का मालिक समझा जाना चाहिए /
लेकिन ,,वर्तमान में इस प्रदेश कि ज्यादातर जमीनों पर बुन्ट्स और दूसरे शूद्रो का कब्ज़ा है ,,और वो ही अपने आप को इसका मालिक बताते हैं / यद्यपि ब्राम्हण अपना मालिकाना हक़ जाता तो रहे हैं ,लेकिन अब ये जमीन उनके हाथ में नहीं है ,,और न भविष्य में संभावना दिख रही है / पेज -३२
अब कौटिल्य के शूद्रों के धर्म यानि कर्तव्यों को फिर से पढ़िए और डॉ आंबेडकर के शान्तिपर्व में शूदों के पवित्रता के उल्लेख को पढ़िए ,,और डॉ बुचनन के शूद्रों के उल्लेख को पढ़िए The Mogyar ....they pretend to be Shudras of pure decent ... और भारत के आर्थिक इतिहास को पढ़िए ..इस पुस्तक के छापने के समय काल को पढ़िए 1807 / अभी भारत विश्व जीडीपी के 25 % हिस्सेदारी से कुछ ही नीचे आया है / और , अभी शूद्र एक घृणित शब्द बनके नहीं उभर पाया है / अभी भी भारत एक एक्सपोर्ट करने वाला देश था/


  किसी भाषा के ज्ञान होने से और उस भाषा से अनभिज्ञ होने से ,समझने और लिखने में क्या खोट हो सकता है,या आप किस तरह बहकाये या दिग्भ्रमित किये जा सकते हैं, उसका उदाहरण मैं पेश कर रहा हूँ /
कौटिल्य के जिस दासकर्मकरकल्पम् को उद्धृत करके डॉ आंबेडकर (अभी म
ेरे पिछले कमेंट में देखें ), इस निर्णय पर पहुंचे कि शूद्र भी आर्यों के अंग हैं / उसको मैं कौटल्य के अर्थशाश्त्र से हिंदी में अनुवादित ( संस्कृत टेक्स्ट अगर आप कहेंगे तो वो भी पेश करूंगा ) ,तथ्य और डॉ आंबेडकर का ओरिजिनल इंग्लिश टेक्स्ट ,मैं पोस्ट कर रह हूँ /
"उदारदास को छोड़कर आर्यों के नाबालिग शूद्र वैश्य क्षत्रिय या ब्राम्हण को यदि उनके ही परिवार का कोई व्यक्ति बेंचे या गिरवी रखे तो उन पर क्रमशः बारह पण , चौबीश पण ,छत्तीश पण और अड़तालिस पण का दंड किया जाय / यदि इन्ही नाबालिग शूद्र आदि को यदि कोई दूसरा व्यक्ति बेंचे या गिरवी रखे ,तो उक्त करम से उनको प्रथम ,माध्यम ,उत्तम साहस और प्राण बढ़ का दंड दिया जाय / यही दंड खरीददारों और इस मामले में गवाही देने वाले का भी किया जाय /
डॉ आंबेडकर की पुस्तक से वही पंक्तिया (कौटिल्य के अर्थशाश्त्र से) नीचे लिख रहा हूँ ---तुलना करिये कि क्या एक ही शब्दार्थ , एक ही मायने ध्वनित हो रहा है कि नहीं ?? That the Shudra is a non-Aryan is contrary to the view taken by the school of Arthashastra. As a representative of that school, the opinion of Kautilya on that question is of great value. In laying down the law of slavery, Kautilya says:[f56]
The selling or mortgaging by kinsmen of the life of a Shudra who is not a born slave, and has not attained majority, but is Arya in birth shall be punished with a fine of 12
panas.
Deceiving a slave of his money or depriving him of the privileges he can exercise as an Arya (Aryabhava) shall be punished with half the fine (levied for enslaving the life of an Arya).
Failure to set a slave at liberty on the receipt of a required amount of ransom shall be punished with a fine of 12 panas; putting a slave under confinement for no reason
(samrodhaschakaranat ) shall likewise be punished.
The offspring of a man who has sold himself off as a slave shall be an Arya. A slave shall be entitled not only to what he has earned himself without prejudice to his masters work but also to the inheritance he has received from his father.
Here is Kautilya, who calls the Shudra an Aryan in the most emphatic and express terms possible. From "who were shudras " by Dr B R Ambedkar ,,page 90 


  और अगर डॉ अम्बेदकर ने सिर्फ john Muir के द्वारा संदर्भित रिफरेन्स को उद्दृत करने के बजाय ,,कौटिल्य के अर्थशास्त्र को संस्कृत में न सही उसकी अंग्रेजी या मराठी अनुवाद ही पढ़ लेते तो उनकी ढेर सारी भ्रांतियां ख़त्म हो जातीं / अछूतों के बारे, में भंगी के बारे में , जिनका उन्होंने बौद्ध धर्म से सम्बन्ध स्थापित किया था अपने लेखों में / क्योंकि कौटिल्य ठीक इसी ऊपर संदर्भित श्लोक के चार श्लोक बाद एक ऐसी बात कहते हैं ......मेरे भी होश उड़ गए ......उसको पढ़ कर / नीचे लिख रहा हूँ आप लोगो के भी होश उड़ने वाले हैं /
" जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , और महिला मातहतों को अनुचित दंड दे ,उसके सतीत्व को नष्ट करे ,नग्न अवस्था में उनके पास जाय, या नंगा कराकर अपने पास बुलाये तो उसके धन जब्त कर लिया जाय / यदि यही व्यवहार दाई (धात्री) परिचारिका , अर्धसीतिका ,,और उपचारिका से करवाया जाय तो उन्हें दासकार्य से मुक्त कराया जाय / यदि उच्चकुलुत्पन्न दास से उक्त कार्य करवाया जाय तो वह दासकर्म को छोड़कर जा सकता है / "--तीसरा अधिकरण --दासकर्मकरकल्पम्


 जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , उसके धन जब्त कर लिया जाय-- कौटिल्य 

  लेकिन ये मुद्दे को फिर उठायेंगे ,,अभी तो फिलहाल डॉ अम्बेदकर के लिखे हुए पर ही केंद्रित करते हैं /
डॉ अम्बेदकर ने जब "पुरुषसूक्ति" को आधार मानकर वर्ण व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया / तो उनका ये निष्कर्ष कि ''चूंकि शूद्र उस विराट पुरुष के पैरों से पैंदा हुवा है , इसलिए 1900 के बाद भारत के एक बड़ा वर्ग " शूद्र" जैसे घृणित श्रेणी में ,,घृणित काम (Menial जॉब) करने के लिए मजबूर करने को मजबूर हुवा और इसके पीछे ब्राम्हणो की शाजिश ,थी , जिन्होंने धूर्ततापूर्वक ऋग्वेद के उस सूक्ति में ..एक क्षेपक जोड़ दिया (interpolation ) / लेकिन फिर उसी सूक्ति से ये भी निकल के आता है कि उसी विराट पुरुष के पैरों से हिरण्यगर्भा धरती भी उत्पन्न हुई /
लेकिन सवाल ये है कि जब डॉ अम्बेदकर ये कहते हैं कि उनकी इस हाइपोथिसिस पर इसलिए कोई प्रश्न चिंह नहीं लगा सकता , क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते थे , क्योंकि जितने धर्मग्रन्थ थे सबका ,अनुवाद हो चुका है / तो फिर ये भी देखना चाहिए कि किन संस्कृतविदों के अनुवाद से उन्होंने अपनी थीसिस के लिए "मटेरियल एंड मेथड " लिए ?? उन संस्कृतविदों की संस्कृतज्ञ होने के क्लेम में कितना दम है ?? और दूसरी बात ये है , की इन संस्कृतज्ञों के संस्कृत में रूचि का कारण अकादमिक था , की कुछ इतर उद्देश्य थे ?? कम से कम इतना तो सभी मानेंगे ,,की ये विदेशी संस्कृतज्ञ भारत में फिलैंथ्रॉपी के उद्देश्य से तो नहीं ही आये थे ??
तो क्यों न उनकी जांच कर लिया जाय जिनके पुस्तकों से डॉ अम्बेदकर ने अपनी थेसिस के लिए "मटेरियल एंड मेथड " लिया था / क्या यह अप्रसांगिक है ??