Monday 30 September 2019

#ट्राइब_का_क्रिश्चियन_एजेंडा:

यह सर्वविदित है कि ईसाइयों ने पिछले 500 वर्षों में मुsal मानों को बहुत पीछे छोड़ दिया।
यद्यपि दोनों के धर्मग्रंथ एक ही जैसे हैं, एक ही नीतियों का अनुपालन करने वाले।
बर्बरता में दोनों का कोई मुकाबला नही।
दस्युता में भी दोनो का कोई मुकाबला नहीं।
दोनो की नीति रही है - गैर धर्मी लोगों की जर जोरू जमीन पर कब्जा। तलवार के दम पर धर्म परिवर्तन।
लेकिन एक मामले में वे आगे निकल गए।
वे अपने असली कुरूप चेहरे को ढककर दूसरों को कुरूप प्रमाणित करने में वे विश्व मे सर्वश्रेष्ठ हैं।
याद होना चाहिए आपको इराक पर वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन के नाम पर उस देश का विनाश करना।
ऐसे अनेको उद्धरण मिलेंगे।
अफवाहबाजों के बाप हैं वे - विलियम जोंस और मैक्समुलर जैसे अफवाहबाज उनके सैंपल हैं।
भारत के कृषि शिल्प और वाणिज्य का उन्होंने विनाश किया और लगभग 45 ट्रिलियन पौंड की लूट किया।यह बात अभी उषा पटनायक ने बोला है। इसके अतिरिक्त पॉल बैरोच, अंगुस मैडिसन, शशि थरूर, और एस गुरुमूर्ति आदि आदि भी बोलते आये हैं।
उन्होंने 1850 से 1900 के बीच लगभग 3 से 4 करोड़ हिंदुओं को भूंख और संकामक रोगों से मरने को विवश किया।
लेकिन मैक्समुलर जैसे अफवाहबाज अकेडेमिया, और एम ए शेरिंग जैसे धर्मान्ध मिशनरी, और HH Risley जैसे रेसिस्ट अधिकारियों की मिली जुली तिकड़ी गिरोह ने अपने कुकृत्यों और अपराधों का भण्डा ब्राम्हण वाद और मनुवाद के सिर पर फोड़ा।
कालांतर में अम्बेडकर जैसे लोगों ने उन्ही के अफवाहों को आगे बढाने का कृत्य किया।
मैक्समुलर द्वारा रचित #आर्यन_अफवाह 1885 तक गजेटियर ऑफ इंडिया में छपती है। गजेटियर में छपने के अर्थ तो आप आज भी समझते हैं कि यही आधिकारिक और प्रमाणिक सत्य है।
उसी अफवाह को आधार बनाकर 1901 में जनसंख्या कमिसनर HH Risley भारत के समुदायों की एक लिस्ट बनाता है। गजेटियर में #आर्यन घोसित तीन वर्णों ब्राम्हण, क्षत्रिय, और वैश्य को वह अपनी लिस्ट में सबसे ऊंचा स्थान देता है और उन्हें हाई कास्ट घोसित करता है। बाकी अभी हिन्दू समुदायों को निन्म कास्ट।
अपने इस दुष्कृत्य को वह मनुस्मृति के हवाले करता है।
अर्थात वह लिखता है कि "मनुस्मृति हिंदुओं की बहुत श्रेष्ठ और आदर्श हिन्दुओ को चार कास्ट में ( वर्णों नहीं कास्ट ) में विभाजित किया गया है ... परंतु ...", इसके बाद वह हिन्दू समाज मे कास्ट की उत्पत्ति के बारे में युरोपियन अफवाहों को वर्णित करते हुए हिन्दुओ में 2378 कास्ट्स की लिस्ट बनाता है।
इससे दो रहस्यों का पर्दाफाश होता है। अब चूंकि रिसले जैसे गोरी चमड़ी ने कास्ट की उत्पत्ति के लिए मनुषमृति को उत्तरदायी ठहराया तो अम्बेडकर जैसे विद्वानों ने उसे मनुस्मृति से वेरीफाई किये बिना अग्निदाह करने का कृत्य करना उचित समझा - #AnnihilationOfCaste और मनुस्मृति का इतना ही सम्बन्ध है। तभी से सरकार द्वारा कास्ट सर्टिफिकेट प्राप्त करने के उपरांत मूर्ख पिछलग्गू जाति विहीन भारत की स्थापना करने में लगे हैं।
दूसरा रहस्य जो इस कथानक में आगे आएगा वह यह है - कि विभिन्न राजघराने जो आज SC/ ST या OBC हैं, वे रिसले द्वारा बनायी गयी लिस्ट में तीन ऊंची कास्ट में चिन्हित न होकर नीचे वाली लिस्ट में चिन्हित किये गए। इसीलिए वे राजघराना होते हुये भी SC/ST या OBC हैं।
अब आइये ट्राइब की कथा में। ट्राइब शब्द का किसी देशी भाषा मे समानार्थी शब्द नही है। कुछ लोग कहेंगे - कबीला। लेकिन यह पर्शियन या अरेबिक शब्द है। इसलिए मुझे इसका अर्थ नही पता। आपको पता हो तो बताइए।
1911 की जनगणना में वनवासी और गिरिवासी हिंदुओं को हिन्दुओ की लिस्ट से अलग चिन्हित किया जाता है कि ये - #एनिमिस्ट हैं। अब एनिमिस्ट का क्या अर्थ है यह वही जाने। आने वाले दिनों के वे इनके लिये कभी एनिमिस्ट और कभी ab original शब्द का प्रयोग करेंगे जो कि एक लैटिन शब्द है।
1935 में जब संविधान निर्माण का नाटक करते हुए गवर्नमेंट एक्ट ऑफ इंडिया 1935 का कानून ब्रिटिश संसद से निर्मित होगा तो 1936 में इन्हें शेडयूल्ड ट्राइब घोसित किया जाएगा। 1950 के संविधान में इन्हें जस का तस सम्मिलित कर लिया जाएगा।
उनको जो लाभ मिल रहा है मैं उसकी बात नही करता।
● मैं उससे बड़ी और देश विरोधी कृत्य की बात करता हूँ। अभी यह खबर छपी है कि मणिपुर के किसी NIT में गणेश जी की मूर्ति को हटवाया जाय क्योंकि ईसाइयों की धार्मिक भावना आहत हो रही है।
देश के अंदर इससे बड़ी देश द्रोही घटना और क्या होगी?
नीचे नागालैंड की ईसाई जनसंख्या का पिछले 1881 से 1981 के बीच हुए ईसाइयत में कितनी वृद्धि हुई, यह देखने वाली बात है।
1881 में इनका प्रतिशत था .003%
1981 में इनका प्रतिशत है 90.0%.
नागालैंड ट्राइबल स्टेट है।
इन गहरी चालों की समझ क्या हमारे राजनीतिज्ञों और बेरोक्रेसी को है कि संविधान में आरक्षण देने का उद्देश्य उनकी भलाई करना नहीं वरन ईसाइयत में धर्म परिवर्तन का संवैधानिक आधार तैयार करना था।
यदि 1935 का गवर्मेन्ट ऑफ इंडिया भारत के भलाई के लिए बना था तो 1935 के बाद लाखों भारतीयों ने आने वाले 12 वर्षो में नाहक ही अपनी जान गवायीं ?
यदि वे आपके इतने ही हितचिंतक थे, तो पूरे स्वतंत्रता संग्राम और सेनानियों का कोई महत्व है क्या ?
लेकिन भारत के पार्लियामेंट और बेरोक्रेसी में "एलियंस और स्टूपिड प्रोटागोनिस्ट्स" का ही बोल बाला रहा है पिछले 70 वर्षों में।
उनसे अपेक्षा भी क्या कर सकते हैं?

Wednesday 25 September 2019

#शूद्र_मृत्युदंड_दे_सकता_था_1807_तक ?

#शूद्र_मृत्युदंड_दे_सकता_था_1807_तक ? :: ब्राम्हण शूद्रों के भी पुरोहित थे । दक्षिण भारत की एक झलक द्रविडियन नश्ल के पोस्ट्मॉर्टेम के पूर्व।
इस सामाजिक वैभव का निर्माण तब हुवा था, जब समाज केंद्रीय कानूनों से नही वरन स्वयं से प्रशासित था।
कानून तो बनाये ही गए भारत को लूटने और उसका दोषारोपण ब्रम्हानिस्म और मनुवाद पर करने हेतु।
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1750 से 1900 के बीच भारत की जीडीपी विश्व जीडीपी का 25 प्रतिशत से घटकर मात्र 2 प्रतिशत बचती है। और जिसके कारण 800 प्रतिशत लोग बेरोजगार और बेघर हो जाते हैं ।
एक वर्ष पूर्व जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का भी एक लेख आया जिसमे उन्होंने अंग्रेजों कि इसी डस्ट कृत्य को जिम्मेदार ठहराते हुए 100 मिलियन लोगों यानि करोड़ लोगों की #भूख से मौत का जिम्मेदार ठहराया है।
गणेश सखाराम देउसकर और विल दुरान्त ने लिखा है कि मात्र 1875 से 1900 के बीच 2.5 करोड़ लोगों की मौत #अन्नाभाव और संक्रामक रोगों की चपेट में आने से हो जाती है , इसलिए नहीं कि अन्न की कोई कमी थी , बल्कि बेरोजगार हुये भारत का निर्माता वर्ग के पास जीवन रक्षा हेतु, अन्न खरीदने का पैसा नहीं था।
अंग्रेज नहीं मरता कोई?
सिर्फ भारतीय ही मरते हैं?
इसी को डॉ आंबेडकर ने एनी बेसेंट के हवाले से उनका 1909 के भाषण का उल्लेख किया है जिसमे बेसेंट जी ने कहा कि इंग्लैंड की 10 प्रतिशत जनसँख्या "The submeged tenth ( तलछट की आबादी ) और भारत की एक छठी आबादी Generic Depressed one sixth Class जैसी है जो रहने खाने और अशिक्षा सौच और जीवन यापन के लिए एक ही जैसा कार्य करती है यानि मेहतर भंगी और स्वीपर का काम।
लेकिन इसे विद्वानों ने इसके लिए भारत के ग्रंथों से बिना सन्दर्भ और प्रसंग से उद्दृत किये श्लोकों का हवाला देते हुए ब्रम्हानिस्म को जिम्मेदार ठहराया है। इस इतिहास लेखन में भारत के आर्थिक इतिहास को काटकर अलग कर दिया गया।
लेकिन ईसाई संस्कृतज्ञ विद्वानों द्वारा हमारे पूर्वजों को "धूर्त दुस्ट घमंडी ब्राम्हणों की" उपाधि से नवाजे जाने के पूर्व ,डॉ फ्रांसिस बुचनन की 1807 में लिखी एक पुस्तक (जिसका जिम्मा अंग्रेजी शासकों ने सौपा था ,दक्षिण भारर्त की जनता के बारे में , उनकी संस्कृति , और उस समय के व्यापार के बारे में ):
" JOURNEY FROM MADRAS through the countries of MYSORE CANARA AND MALABAR" PUBLISHED BY EAST INDIA COMPANY , के कुछ वाक्यांश , जो उस समय के भारत की झलक देते हैं।
(इस बात को ध्यान में रखा जाय कि 1750 तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद विश्व का 25 %% था , जबकि ब्रिटेन और अमेरिका कुल मिलाकर मात्र 2% के हिस्सेदार थे। और पर कैपिटा industralisation और प्रति व्यक्ति आमदनी लगभग बराबर थी। आने वाले 50 वर्षों में यानि 1800 में भारत का शेयर गिरकर 20% तक पहुँच गया था , लेकिन 1900 वाला हाल नहीं हुवा था जब भारत के जीडीपी का शेयर मात्र 2 % बचा।
इस समय तक ईसाईयों को अभी ब्राम्हणों को धूर्त घमंडी और खड़यन्त्र कारी सिद्ध करने का अवसर नहीं आ पाया था।)
विजय नगर के तुलवा क्षेत्र ,जो पहले जैन राजाओं के कब्जे में था जिसको बाद में हैदर और टीपू सुलतान ने अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था , के बारे में डॉ बुचनन के उद्धरण :
(1) इस इलाके में 6 मंदिर और 700 ब्राम्हणों के घर थे , लेकिन जब टीपू सुलतान ने इस क्षेत्र पर कब्ज़ा किया इन ब्राम्हणों के घरों को तबाह। नष्ट कर दिया , और अब मात्र 150 ब्राम्हणों के घर बचे हैं।
(Vol iii,पेज - 75 )
(2) तुलवा में घाट के ऊपर बसने वाले ब्राम्हण ,वैश्य और अन्य जातियां अपने पुत्रों को वारिस मानते हैं , परन्तु राजा (क्षत्रिय ) और शूद्र,जो कि भूमि के मालिक हैं वे अपने बहनों के बच्चों को अपना वारिस मानते हैं।
शूद्रों को भी जानवर खाने और देशी शराब पीने की इजाजत नहीं है , सिर्फ क्षत्रियों को मात्र युद्ध के समय जानवरों कि हत्या करने और खाने की इजाजत है।ये सभी लोग अपने मृतकों को आग में जलाते हैं ( लाश को फूकते हैं )।
(Vol iii, पेज - 75 )
(३) मध्वाचार्य के अनुयायियों ने बताया कि तलुए के ब्राम्हण पंच द्रविड़ कहलाते हैं जो कि पूर्व में भारत के पांच अलग अलग राज्यों और भाषाओँ को बोलने वाले है , जिनमे तेलिंगा (आंद्रेय से ) , कन्नड़ (कर्णाटक से ) ,गुर्जर (गुजरात से) ,मराठी (महाराष्ट्र से ) ,तमिल बोलने वाले पांच भाषाओ को मिला कर पंच द्रविड़ का इलाका बनता है। लेकिन तमिल बोलने वाला इलाका द्रविड़ या देशम कहलाता है। इनकी शादी विवाह सिर्फ अपने ही मूल भाषा बोलने वालों के बीच होता है।
(Vol iii, पेज -90)
(4)इस क्षेत्र का एक्सपोर्ट और इम्पोर्ट गजट के अनुसार क्रमशः9 ,63,833 रूपये (यानि एक्सपोर्ट ) और 1,08,045 रुपये (इम्पोर्ट ) है , और एक रुपये की कीमत 2 पौंड के बराबर है।
( अर्थात एक्सपोर्ट लगभग इम्पोर्ट का 9 गुना , यानि कितने लोग रोजगार युक्त ,कितने टेचनोक्रट्स ,कितने interpreunerer , जो अगले 100 सालों में बेघर और बेरोजगार होने वाले हैं)
(Vol iii पेज- 246)
(5) एक चिका- बैली -करय नामक एक स्थान पर लोहे कि भट्ठी का वर्णन वे करते हैं कि वहाँ पर जो लोहा बनाया जाता था कच्चे आयरन ore से , स्टील बनाने की तकनीक का वर्णन करते हुए बुचनान बताता है कि गाँव के लोग किस तरह लोहा पैदा करते थे, उसका बंटवारा किस रूप से करते थे ?
इसी को वैदिक मॉडल ऑफ इकॉनमी कहते हैं। जिसमें कोई मालिक नही है, सब शेयर होल्डर हैं।
" Every 42 plough shares are thus distributed -----------------------------------------------------------------------
To the proporieters -----11
tot he 9 charcoal makers ------------9
To the iron smith ------------------3.5
to the 4 hammer -men --------7
to the 6 bellows -men --------8
to the miner -------------------1
to the buffalo driver ---------------2.५
total ----------------------42"
( Vol iii, page--362)
ये प्रमाण है इस बात का कि भारतीय समाज में आज से मात्र २०० साल पहले तक मालिक और श्रमिक के हिस्से बराबर तो नहीं लेकिन एकदम वाजिब होते थे, शोसण पर आधारित श्रम नहीं था , जैसा कि हमें पढ़ाया गया है , उससे एकदम इतर।
डॉ फ्रांसिस बुचनन आगे उद्धृत करते हैं कि Comarapeca कोंकणी कि एक ऐसी ट्राइब है , जो कि विशुद्ध शूद्र है, ये उस इलाके में ऐसे ही बसते हैं , जैसे मलयालम के विशुद्ध शूद्र nairs हैं। ये पैदाइशी खेतिहर और योद्धा हैं ,,और इनका झुकाव डकैती की तरफ रहता है ( ज्ञात हो कि बुचनन ने जब caste / ट्रेड की लिस्ट बनाई तो क्षत्रियों को संदेशवाहक ,योद्धा या डकैत क़ी श्रेणीं में डाला )। इनके मुखिया वंशानुगत रूप से नायक कहलाते हैं जो किसी को भी आपस में सलाह करके जात बाहर कर सकते थे। ये पुराने शाश्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं और मांस तथा शराब का भी सेवन कर सकते हैं। श्रृंगेरी के स्वामलु उनके गुरु हैं जो उनको पवित्र जल . भभूत और उपदेश देते हैं शादी विवाह नामकरण और शगुन तिथियों को बताने के लिए इनके निश्चित ब्राम्हण पुरोहित हैं। ये मंदिरों में विष्णु और शिव जी क़ी पूजा करते हैं जिनकी देखभाल कोंकणी ब्राम्हण करते हैं। ये देवियों के मंदिरों में शक्ति क़ी पूजा भी करते हैं और पशुबलि भी चढ़ाते हैं।
कोंकण में रहने वाले ब्राम्हण जो मूलरूप में गोवा में रहते थे , पुर्तगालियों ने जब उनको गोवा से भगा दिया (नहीं तो धर्म परिवर्तन कर देते ) अब मुख्यतः व्यापारी हो गए हैं ,लेकिन कुछ लोग अभी भी पुरोहिताई करते हैं।
तुलवा भाषी मूलनिवासी , जो लोग खजूर/ ताड के पेड़ों से गुड और शराब बनाने के लिए उनका रस/जूस निकलते हैं उनको बिलुआरा (Biluaras ) नामक जात से जाना जाता है ,वे अपने को शूद्र कहते हैं लेकिन कहते हैं कि वे बुन्त्स (bunts ) से सामजिक स्तर पर नीचे मानते हैं / लेकिन इनमे से कुछ लोग खेती भी करते हैं , लेकिन ज्यादातर लोग मजदूर हैं इन खेतों में , लेकिन काफी लोग मालिक भी हैं खेतों के।
इनके आपसी मामलों को निपटने के लिए सरकार द्वारा एक व्यक्ति नियुक्त होता है जिसको गुरिकारा के नाम से जाना जाता है , उसे किसी व्यक्ति को अपने समाज के वरिष्ठ लोगों से सलाह करके ,जात बाहर करने या मृत्युदंड (कार्पोरल पनिशमेंट ) देने का अधिकार है। इनमे से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है। इनको मांस भाषण का अधिकार तो है परन्तु मदिरा पीने का हक़ नहीं है। इनका मानना है कि मृत्यपर्यंत अच्छे लोग स्वर्ग में जाते हैं , और बुरे लोग नरक में।जो लोग सक्षम है . वे लाशों को जलाते हैं परन्तु , गरीब लोग उनको जमीन में गाड़ देते हैं।
इनमे से कुछ लोग ही विष्णु जैसे बड़े देवताओं कि पूजा करते हैं , लेकिन ज्यादातर लोग "मरिमा" नामक शक्ति को बलि चढ़ाते हैं , बुरी आत्माओं को भगाने के लिए।
ज्यादातर बुलिआरों या उन लोगों के यहाँ जो शक्ति कि पूजा करते हैं, के शादी व्याह में या मृत्यु पर कोई पुरोहित मन्त्र या शास्त्र पढने नहीं जाता।
लेकिन जो बुलिअर विष्णु की पूजा करते हैं उनके पुरोहिताई का जिम्मा श्री वैष्णवी ब्राम्हणों का है।वे उनको उपदेश भी देते हैं ,Chaki'dntikam, भी देते हैं और पवित्र जल का छिड़काव भी करते हैं"।
( रेफ: डॉ फ्रांसिस बुचनन .a journey from Mdras through ,mysore Canara and Malabar " Vol iii --पेज - 52-53)
buchanan classified all castes of south India 122 categories only , and as sole criteria being caste / trade Buliars were categorized as extractors of juice from palm tree and Buntus as Cultivators but both categorized under Shudras under Varna scale of Hindu DharmVarnashram .
बुचनन का नाम इतिहास के हर व्यक्ति को मालूम हैं।
शूद्र / दलित मृत्युदंड दे सकता था 1807 तक ???
शूद्र / दलित खेतों का मालिक भी हो सकता है , और खेतिहर किसान भी हो सकता है।
और ब्राम्हण उसका पुरोहित भी था?
बुचनान एक डॉक्टर था। साइंस की पृष्ठभूमि का। उसकी बुद्धि तथ्य खोजने वाली प्रतीत होती है।
उसने यह सर्वे 1800 AD में शुरू किया था।
उसके अनुसार द्रविड़ एक क्षेत्रीय अस्मिता वाला शब्द है।
अब आएंगे दस्युवो के साथ वाले धर्मान्ध ईसाई - मिशनरीज और प्रशासकों के भेष में।
वे पहले कल्पना के पर लगाकर यह सिद्ध करेंगे कि द्रविड़ कोई क्षेत्रीय अस्मिता न होकर एक अलग भाषा है जिसका संस्कृत से सम्बन्ध न होकर हिब्रू भाषा से सम्बन्ध है।
फिर एक विलियम मोनिर मोनिर नामक मैक्समुलर का प्रतिद्वंदी आएगा जो यह सिद्ध करेगा कि द्रविड़ भाषा नही, वरन एक नश्ल है।
भारत के कृषि शिल्प वाणिज्य को नष्ट किया जाएगा जिससे करोड़ो लोग भुखमरी और संकामक रोगों की चपेट में आकर मृत्यु का वरण करेंगे।
उधर यूरोप में बैठकर मैट्रिक पास प्रोफेसर और डॉक्टर मैक्समुलर आर्यन अफवाह की रचना करेगा।
1872 फ्रस्टेट मिशनरी एम ए शेरिंग अकारण ही ब्राम्हणो को दुष्ट, अहंकारी और स्वार्थी जैसे गाली देने का टेमपलेट तैयार करेगा।
कुल मिलाकर 1900 आते आते अपने अपराधों के कारण बेघर बेरोजगार और मृत्यु से संघर्षरत भारतीयों की इस दशा के लिए ब्रम्हानिस्म और मनुवाद को दोषी ठहराया जाएगा।
हिंदुओं के तीन वर्ण जिनको वह आर्यन कहते थे, उन्हें 1901 में तीन ऊंची कास्ट में चिन्हित किया जाएगा, बाकी समस्त समुदायों को नीची जाति में।
आगे की कथा हम कई बार लिख चुके हैं।
कल #मक्कार_दिवस था, उसको पढ़कर समझिए।
यह पुस्तक तीन वॉल्यूम में संकलित है। लगभग 1450 पेज में। गूगल आर्काइव से फ्री डाउनलोड कर सकते हैं।
3000 वर्षो की अछूत कथा धड़ाम से गिर पड़ेगी क्योंकि इसके 1450 पेजो में एक पैराग्राफ भी अछूतपन और अछूत के बारे में नहीं है।

#धिक्कार_दिवस 24 सितंबर

#धिक्कार_दिवस 24 सितंबर
या
इसी दिन 1932 में पूना पैक्ट हुवा था अम्बेडकर और गांधी के बीच। जिसके कारण हिंदुओं के एक बड़े हिस्से को कानूननअछूत घोसित किया गया था।
जबकि भारत का कोई शास्त्र और ग्रन्थ अछूत पन का जिक्र भी नही करता।
मजे की बात यह है कि 1900 AD के पूर्व ब्रिटिश दस्युवों द्वारा भारत के बारे में लिखे गए किसी भी ग्रन्थ में इस शब्द का जिक्र तक नही है।
आप आज जानते हैं कि ब्रिटिश दस्युवों के आने के पूर्व भारत विश्व की 24% जीडीपी का निर्माता था। लेकिन 1900 आते आते भारत मात्र 1.8% जीडीपी का निर्माता बच सका। उन्होंने भारत के समस्त #कृषि_शिल्प_वाणिज्य का विनाश कर दिया।
जहाँ 1700 और 1720 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत से आयातित सूती और छींट के वस्त्रों के देशी नग्रेजो द्वारा उपयोग करने से रोकने हेतु ब्रिटिश संसद ने #Calico_Act कानून बनाया गया था, जिससे उनके देशी मैन्युफैक्चरर को सुरक्षित रखा जा सके, वही 1900 आते आते भारत पूर्णतः ब्रिटिश से आयातित वस्त्रों पर निर्भर हो गया।
( Calico Act गूगल करिए )
करोड़ो भारतीय बेरोजगार हो गए। जो हजारों वर्षों से कृषि, शिल्प और वाणिज्य के आधार पर जीवन यापन करते थे। इसका प्रमाण है रोमन इतिहासकार प्लिनी द्वारा लिखित इतिहास। प्लिनी लिखता है कि भारत से सिल्क आयातित करने के कारण रोम से समस्त धन और सोना भारत चला जाता है।
भारत के आर्थिक व्यवस्था के नष्ट किये जाने और लूट की बात अभी 2015 में शशि थरूर ने ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन में आयोजित एक सेमिनार में किया। जिस पर ब्रिटेन के अन्य स्पीकर सहमत थे। भारत के प्रधानमंत्री Narendra Modi जी ने शशि थरूर को बधाई दिया था।
लेकिन कोई राजनेता और समाजशास्त्री यह बात करने को तैयार नही है कि इस लूट और विनाश का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?
यद्यपि इस लूट और विनाश का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा इस पर अनेकों लेखकों ने प्रकाश डाला है - 1900 से बीच 1930 के बीच।
रोमेश दत्त, दादा भाई नौरोजी, गणेश सखराम देउसकर, विल दुरंत, जे सुन्दरलैंड, आदि के द्वारा लिखित पुस्तकें मैने स्वयं पढ़ी हैं। इसके अतिरिक्त भी अनेको लेखकों ने इसका वर्णन किया है।
वामपंथी के पितामह #कार्ल_मार्क्स ने भी 1853 में भारत मे लूट और विनाश के प्रभाव के बारे में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून में लिखा था। ( गूगल कीजिये) मार्क्स लिखता है - "1818 में ढाका में 1,50,000 शिल्पी थे जिनकी सांख्य 1836 में घटकर मात्र 20,000 बची"।
क्या हुवा 1,30,000 शिल्पियों का आने वाले दिनों में?
और यह तो सिर्फ एक शहर का डेटा है। और वह भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पूर्व का।
इनका हुवा यह कि 1850 से 1900 के बीच 3 से 4 करोड़ बेरोजगार किये गए भारतीय भुखमरी और संकामक रोगों के शिकार हुए और मृत्यु को प्राप्त हुए।
इन्ही संक्रामक रोगों से बचने के लिए अछूत प्रथा ( न छूने की प्रथा ) की शुरुवात हुई।
लेकिन नरसंहार से बड़ा अपराध अछूतपन को सिद्ध किया गया। क्योंकि पढ़े लिखे भारतीय पूर्णतया - मैकाले स्कूल से निकले एलियंस और स्टूपिड प्रोटागोनिस्ट निकले। उन्होंने ने ही नहीं विश्व ने दस्यु ईसाइयो द्वारा रचे गए फेक न्यूज़ को सच मान लिया।
विलियम जोंस मैक्समुलर जैसे धर्मान्ध ईसाइयो द्वारा रचित फेक न्यूज़ को सच्चे इतिहास की तरह प्रसारित किया गया।
1901 में नश्लीय मानसकिता के HH रिसले मैक्समुलर द्वारा रचित #आर्यन_अफवाह को आधार बनाकर तीन वर्णों ( ब्राम्हण क्षत्रिय और वैश्य) को तीन ऊंची कास्ट में लिस्टित करता है, और बाकी अन्य शिल्प कृषि वाणिज्य आधारित बेरोजगार की गए समुदायों को नीची कास्ट में।
#अफवाहबाजों ने अपने अपराधों को फेक न्यूज़ के आधार पर अपने कुकृत्यों और अपराधों को ढांक तोप कर, इन नीची घोसित किये गये हिन्दू समुदायों के बेरोजगारी और संकामक रोगों से हो रही मौत की दुर्दशा का जिम्मेदार ब्रम्हानिस्म और मनुषमृति को ठहराया।
उन्होने राजनीतिक और ईसाइयत में धर्म परिवर्तन का आधार तैयार करने के लिए 1901 के जनगणना के बाद, वन वासी और गिरिवासी हिन्दुओ को एनिमिस्ट , और बेघर बेरोजगार किये गए हिंदुओं को डिप्रेस्ड क्लास के नाम से चिन्हित किया।
1928 में जिस साइमन कमीशन का पूरे भारत ने विरोध किया था, उससे अम्बेडकर सांठ गांठ करते हैं, कि वह अम्बेडकर की पीठ पर हाँथ रखकर उनकी राजनैतिक पहचान बनाने का वादा करता है, यह रिसर्च का विषय है, परंतु, अम्बेडकर जी उससे मिलते हैं।
और एक रिपोर्ट तैयार करते है - जिसको लोथियन समिति के नाम से जाना जाता है। जिसमे उन्होंने ब्रिटिश दस्युवो से सांठ गांठ करते हुए लिखा कि डिप्रेस्ड क्लास ही अछूत है।
उन्होंने अछूत और सछूत ( touchble और untouchble) जैसे शब्दों की व्याख्या करते हुए इसको हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग बताया। और पूरी के मंदिर को लूटने के लिए बनाये गए रेगुलशन 1806 का उद्धरण प्रस्तुत करते हुए अपनी बात को प्रमाणिक सिद्ध करने का प्रयास किया।
वे सफल भी रहे।
लेकिन सछूत और अछूत जैसे शब्द किसी भारतीय ग्रन्थ में नहीं मिलते।
क्यों नही मिलते ?
सोचिये।
अंग्रेज तो चाहते ही यही थे। बन्दर काम का था। मदारी के मनमाफिक करतब दिखा रहा था।
लेकिन यदि आप रेगुलशन 1806 को पढियेगा तो पाइयेगा कि अम्बेडकर जी ने फेक डॉक्यूमेंट तैयार करने का आपराधिक कृत्य किया था। IPC के अनुसार जाली कागजात तैयार करना बहुत बड़ा अपराध है।
नग्रेजो ने बाबा साहेब को उनके द्वारा किये गए सहयोग के लिये - उन्हें कम्युनल अवार्ड दिया और सेपरेट एलेक्टरेट प्रदान किया।
गांधी ने राउंड टेबल कांफ्रेंस में इसका विरोध किया था।
लेकिन ब्रिटिश द्वारा सेपरेट एलेक्टरेट दे दिया गया तो उन्होंने यरवदा के जेल में आमरण अनशन किया।
आज ही के दिन उस सेपरेट एलेक्टरेट के विरुद्ध गांधी और अम्बेडकर में पूना पैक्ट हुई।
जो आगे जाकर संविधान में आरक्षण का आधार बना।
ज्ञातव्य हो कि पाकिस्तान भी सेपरेट एलेक्टरेट की देन है और आरक्षण भी।
मजे की बात यह है कि ब्रिटिश शासन में दो गुलाम भारतीय आपस मे समझौता कर रहे हैं, जो आने वाले दिन में भारत के भविष्य का निर्धारण करेगा। इसका उदाहरण विश्व मे कहीं नही मिलेगा।
बिल्ली मौसी दो बंदरो के बीच रोटी बांटने में न्यायधीश की भूमिका निभा रही है। ब्रिटिश साले आज भी हंसते होंगे कि ये साले कितने बड़े चुतिया हैं।
बिल्ली मौसी और दो बन्दर - संविधान

Saturday 21 September 2019

Reservation is scam _ See the evidence

ग्वालियर का सिंधिया राज परिवार 300 साल पुराना है या 400 साल, ये नहीं पता।
लेकिन उनके बारे में तीन बातें सत्य हैं।
1-1857 में वे नग्रेजो के साथ थे।
2- आज उनकी कितनी संपत्ति और भूमि भारत के विभिन्न शहरों में हैं, सम्भवतः वह भी नहीं जानते।
3- और आप यह नही जानते कि 1989 के मंडल आयोग के निर्देशों के अनुसार वे ओबीसी हैं।
यदि आपको यह नहीं लगता कि जो इतिहास समाज शास्त्र और संविधान आपको पढ़ाया जा रहा है, वह एक बड़े झूंठ - फेक न्यूज़ पर आधारित नहीं है तो?
न लगे ऐसा तो एक ही बात संभव है।
आपको किसी मेन्टल डॉक्टर से मिलना चाहिए।
ये देखिये यह स्वयं बोल रहे हैं कि वे जाति के कुर्मी हैं।
यदि ऐसा सच है तो?
दो बातें।
भारत मे कुर्मी ओबीसी और अन्य लोग भी राजा हो सकते थे। उनके राजा होने पर तो किसी को संदेह नही है।
यदि यह सच है तो भारत मे पिछले 100 वर्षों में, पिछले 3000 वर्षों से जातिगत भेदभाव का जो रण्डी रोना मचा हुआ है, उसके पीछे कोई गम्भीर रहस्य छुपा है, कोई षड्यन्त्र छुपा हुआ है।
अभी पिछले वर्ष मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक एफीडेविट दिया है जिसमें उन्होंने 1000 वर्ष के जातिगत भेदभाव को स्वीकारा है।
उनको अपने एफीडेविट को रिव्यु करना चाहिए।
...
भारत के संविधान को समझो - जो आज भी राजघराने से उतपन्न जीव है, और उसकी तीन पीढ़ी संसद में थी, वह ओबीसी है ?
ओबीसी भी राजा हो सकता था मनु स्मृति के विधान से।
भारत उन्नति के पथ पर है, या क्षरण के पथ पर ?

Critical analysisi of Who Were The Shudras

"भगवान् विश्वकर्मा जी के शुभ पर्व पर आज एक अत्यंत निकट और प्रियजन के लिए आशीर्वचन पूर्वक एक लघु समीक्षा लिखता हूँ। यह समीक्षा डॉ त्रिभुवन सिंह जी की पूर्व प्रकाशित समीक्षात्मक पुस्तक के सापेक्ष है।
विश्व को बनाने वाले विश्वकर्मा जी के पुराण महाविश्वकर्मपुराण के बीसवें अध्याय में राजा सुव्रत को उपदेश करते हुए शिवावतार भगवान कालहस्ति मुनि कहते हैं :-
ब्राह्मणाः कर्म्ममार्गेण ध्यानमार्गेण योगिनः।
सत्यमार्गेण राजानो भजन्ति परमेश्वरम्॥
ब्राह्मण अपने स्वाभाविक कर्मकांड आदि से (चूंकि वेदसम्मत कर्मकांड में ब्राह्मण का ही अधिकार है), योगीजन ध्यानमग्न स्थिति से और राजागण सत्यपूर्वक प्रजापालन से परमेश्वर की आराधना करते हैं।
स्त्रियो वैश्याश्च शूद्राश्च ये च संकरयोनयः।
भजन्ति भक्तिमार्गेण विश्वकर्माणमव्ययम्॥
स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा वर्णसंकर जन, (जो कार्यव्यवस्था एवं धर्मव्यवस्था के कारण कर्मकांड अथवा शासन आदि की प्रत्यक्ष सक्रियता से दूर हैं,) वे भक्तिमार्ग के द्वारा उन अविनाशी विश्वकर्मा की आराधना करते हैं।
इन्हीं विश्वकर्मा उपासकों के कारण भारत का ऐतिहासिक सकल घरेलू उत्पाद आश्चर्यजनक उपलब्धियों को दिखाता है, क्योंकि इनका सिद्धांत ही राजा सुव्रत को महर्षि कालहस्ति ने कुछ इस प्रकार बताया है,
शृणु सुव्रत वक्ष्यामि शिल्पं लोकोपकारम्।
पुण्यं तदव्यतिरिक्तं तु पापमित्यभिधीयते॥
इति सामान्यतः प्रोक्तं विशेषस्तत्वत्र कथ्यते।
पुण्यं सत्कर्मजा दृष्टं पातकं तु विकर्मजम्॥
(महाविश्वकर्म पुराण, अध्याय ३२)
हे सुव्रत ! सुनिए, शिल्पकर्म (इसमें हजार से अधिक प्रकार के अभियांत्रिकी और उत्पादन कर्म आएंगे) निश्चित ही लोकों का उपकार करने वाला है। शारीरिक श्रमपूर्वक धनार्जन करना पुण्य कहा जाता है। उसका उल्लंघन करना ही पाप है, अर्थात् बिना परिश्रम किये भोजन करना ही पाप है। यह व्यवस्था सामान्य है, विशेष में यही है कि धर्मशास्त्र की आज्ञानुसार किये गए कर्म का फल पुण्य है और इसके विपरीत किये गए कर्म का फल पाप है।
यही कारण है कि संत रैदास को नानाविध भय और प्रलोभन दिए जाने पर भी उन्होंने धर्मपरायणता नहीं छोड़ी, अपितु धर्मनिष्ठ बने रहे। लेखक ने जो पुस्तक की समीक्षा लिखी है वह अत्यंत तार्किक और गहन तुलनात्मक शोध का परिणाम है जिसका दूरगामी प्रभाव होगा। उचित मार्गदर्शन के अभाव में, धनलोलुपता में अथवा आर्ष ग्रंथों को न समझने के कारण भीमराव अंबेडकर ने तो अनर्गल लेखन किया ही है, आज के अभिनव अम्बेडकरवादी मूर्खजन की स्थिति और भी चिंतनीय है। वामपंथ और ईसाईयत में घोर शत्रुता रही, अंबेडकर इस्लाम के कटु आलोचक रहे और साथ इस इस्लाम और ईसाइयों के रक्तरंजित युद्ध अनेकों बार हुए हैं, किन्तु वामपंथ, ईसाईयत, इस्लाम एवं अंबेडकर की शास्त्रविषयक अज्ञानता, ये चारों आज एक साथ सनातनी सिद्धांतों के विरुद्ध खड़े हो गए हैं।
विडंबना यह है कि अंबेडकर यदि लिखें कि शूद्र नीच थे, तो अम्बेडकरवादी उसे सत्य मानकर सनातन को गाली देते हैं। वही अंबेडकर यदि लिखें कि आर्य बाहर से नहीं आये थे तो यहां अम्बेडकरवादी उसपर ध्यान न देकर वामपंथी राग अलापने लगते हैं। ऐसे में शूद्र को नीच कहने की बात का खंडन समीक्षा लेखक श्री त्रिभुवन सिंह जी ने बहुत कुशलता से किया है।
मनु के कुल में (मानवों में) पांच प्रकार के शिल्पी हैं। इसमें कारव, तक्षक, शुल्बी, शिल्पी और स्वर्णकार आते हैं) अधिक चर्चा भी न करें तो इसमें मुख्य मुख्य कार्य क्या हैं ?
कारव का कार्य है, "हेतीनां करणं तथा" ये लोग अत्याधुनिक शस्त्र बनाते हैं।
युद्धतंत्राणिकर्माणि मंत्राणां रक्षणं तथा।
बन्धमोक्षादि यंत्राणि सर्वेषामपि जीविनाम्॥
युद्ध की तकनीकी युक्तियों के व्यूह विषयक कार्य, युद्ध में परामर्श, रक्षा विषयक कार्य, बंधन और मोक्ष के यंत्र बनाना इनका काम है। और यह काम किस भावना से करते हैं ? सभी प्राणियों के हित में, उनके जीवन की रक्षा के लिए। वामपंथियों की तरह नरसंहार हेतु नहीं।
ऐसे ही तक्षक का कार्य क्या था ? वास्तुशास्त्रप्रवर्तनम्। आप जो विश्व, भारत के वैभवशाली वास्तुविद्या को देखकर चौंधिया रहा है, उसका प्रवर्तन यही करते थे। इतना ही नहीं, उस समय के अद्भुत किले, महल और अत्याधुनिक गाड़ियां भी बनाते थे, प्रासादध्वजहर्म्याणां रथानां करणं तथा। महाभारत में वर्णन है कि राजा नल ने राजा ऋतुपर्ण को एक विशेष रथ से एक ही दिन में अयोध्या (उत्तरप्रदेश से) से विदर्भ (महाराष्ट्र) पहुंचा दिया था। और ऐसा नहीं है कि ये अनपढ़ थे, इनके कर्म में और भी एक बात थी, न्यायकर्माणि सर्वाणि, आवश्यक होने पर ये न्यायालय का कार्य भी देखते थे।
शुल्बी के कर्मों में धातुविज्ञान से जुड़े समस्त कार्य आते हैं, आज भी मेहरौली, विष्णु स्तम्भ (कालांतर में कुतुब मीनार) वाला अद्भुत धातु स्तम्भ रहस्य बना हुआ है। और यह कार्य भी मनमानी नहीं करते थे, धर्माधर्मविचारश्च, उचित और अनुचित का समुचित विचार करके ही करते थे।
ऐसे ही शिल्पियों के कार्य में विविध भवनों का निर्माण, दुर्ग, किले, मंदिरों का निर्माण करना आता था। इतना ही नहीं, निर्माण कैसे होता रहा ? निर्माणं राजसंश्रयः, राजा के संश्रय में। भाषाविदों को ज्ञात होगा, संश्रय का अर्थ गुलामी नहीं होता, कृपापूर्वक पोषण होता है। साथ ही सद्गोष्ठी नित्यं सुज्ञानसाधनम्। ये लोग समाज के प्रेरणा हेतु अच्छी गोष्ठी, जिसे सेमिनार कहते हैं, उसका आयोजन करते थे ताकि अच्छे अच्छे ज्ञान का संचय और प्रसार हो सके।
स्वर्णकार आदि के कर्म में सुंदर और बहुमूल्य धातु के आभूषण, रत्नशास्त्र का ज्ञान उसके तौल मान की जानकारी के साथ साथ व्यापार, गणित और लेखनकर्म भी आता था। सुवर्णरत्नशास्त्राणां गणितं लेखकर्म च। यदि वे मूर्ख होते तो आज लाखों खर्च करने जो काम लोग बड़ी बड़ी डिग्रियों के लिए सीख रहे हैं, उससे कई गुणा अधिक प्रखर और कुशल काम वे हज़ारों वर्षों से कैसे सीख रहे थे ? कथित इतिहासकार तो उन्हें दलित, शोषित, वंचित, और नीच बताये फिर रहे हैं।
अच्छा, ये यदि इतने ही बड़े दलित थे तो न्यायालय में इनकी सलाह क्यों ली जाती थी ? इतने ही अनपढ़ थे तो रसायन, धातु के बारे में कैसे जानते थे, या फिर गणित और लेखनकर्म में कैसे काम आते थे ? यदि ये इतने ही गरीब और शोषित थे तो इनके लिए निम्न बात क्यों कही गयी ?
कारुश्च स्फाटिकं लिंगं तक्षा मरकतं तथा।
शुल्बी रत्नं शिल्पी नीलं सुवर्णमत्वर्कशालिकः॥
कारव के लिए स्फटिक के शिवलिंग की पूजा का विधान है। तक्षक को मरकत मणि के शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए। शुल्बी को माणिक्य के शिवलिंग, शिल्पीजनों को नीलम और स्वर्णकार को सोने के शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए।
वामपंथी जिन्हें दलित और शोषित बताते हैं, वो दैनिक पूजन में जैसे शिवलिंग की पूजा करते थे, वैसे शिवलिंग आज के करोड़पति जन भी अपने यहां रखने का साहस नहीं रखते।
विकृत इतिहासकार बताते हैं कि इन्हें गंदगी में रखा गया, इन्हें गरीब, वंचित और अशिक्षित रखा गया। जबकि सत्य यह नहीं है। यह हाल तो मुगलों और विशेषकर अंग्रेजों के समय से हुआ। और शूद्रों का क्या, पूरे सनातन का ही बुरा हाल हुआ। गुरुकुलों में शूद्र छात्रों की संख्या सर्वाधिक थी, यह तो लेखक अपनी समीक्षा में ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध कर ही चुके हैं। गरीबी और अशिक्षा की बात सनातन शास्त्र से मैं इसे खंडित कर चुका।
पापपुण्यविचारश्च तपः शौचं दमः शम:।
सत्यकर्माणि सर्वाणि मनुवंशस्वभावजम्॥
उक्त मनुकुल के (मानव शिल्पियों में) कुछ स्वाभाविक कर्म हैं, जिसमें पाप पुण्य का विचार, तपस्या, बाह्य और आंतरिक शुद्धि, इंद्रियों का दमन, आचरण की पवित्रता और समस्त सत्य के कर्म सम्मिलित हैं।
विश्व में सनातन ही ऐसा है, जहां अपने मार्गदर्शन करने वाले ग्रंथ की पूजा होती है, रक्षा करने वाले शस्त्र की पूजा होती है, निर्णय करने वाले तराजू की भी पूजा होती है और साथ ही नानार्थ आजीविका देने वाले औजारों की भी पूजा होती है। आज भी लोग अपनी बात को सत्य बताने के लिए अपनी आजीविका की, अपने यंत्रों की शपथ लेते हैं। विश्वकर्मा कसम भाई, झूठ नहीं बोल रहा, यह बात भारत का प्रत्येक व्यक्ति कभी न कभी कहता ही है।
जिन्हें लगता है कि शूद्र नीच थे, या तो वे विक्षिप्त हैं, या फिर अज्ञानी और दोनों से बुरे बौद्धिक वेश्या भी हो सकते हैं, क्योंकि सनातन शास्त्रों ने शूद्र को भी सम्माननीय स्थान दिया है।
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चत्वारः श्रेष्ठवर्णकाः॥
(महाविश्वकर्म पुराण, अध्याय २० - ७)
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चारों श्रेष्ठ वर्ण हैं। हमें वैर उसी से है जो उच्छृंखल हो और अमर्यादित हो। इसीलिए यहां शबरी भी सम्मानित हैं और रावण भी निंद्य। इसीलिए यहां रैदास भी सम्मानित हैं धनानन्द भी निंद्य। लेखक ने साहस दिखाते हुए निष्पक्ष इतिहास के माध्यम से जिस सत्य को पुनः प्रकाशित करने का प्रयास किया है, वह श्लाघनीय एवं अनुकरणीय है। ॐ ॐ ॐ ...
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महायोगी कालहस्ति उवाच
वेदशास्त्रेतिहासेषु पुराणेषु च सर्वतः।
विश्वकर्मा जगद्धेतुरिति राजेन्द्र ! कथ्यते॥
अजायता जगत् सर्वं सृष्ट्यादौ विश्वकर्मणः।
स एव कर्ता विश्वस्य विश्वकर्मा जगत्पति: ॥
प्रथमस्तु निराकारः ओंकारस्तदनंतरम्।
चिदानंद: परं ज्योतिः ब्रह्मानन्दस्तु पंचमः ॥
यस्मिन्भूत्वा पुनर्यस्मिन्प्रलीयन्ते भवन्ति च।
ज्योतिषां परमं स्थानं तत्परं ज्योतिरिष्यते ॥
पुष्पमध्ये यथा गन्धो पृथ्वी मध्ये यथा जलम्।
शंखमध्ये यथा नादो वृक्षमध्ये यथा रसः॥
तथा सर्वशरीरेषु अण्ववण्वंतरेष्वपि।
स्थित्वा भ्रमयतीदं हि तत्परंब्रह्म उच्यते ॥
महायोगी शिवावतार कालहस्ति ने कहा
हे राजन् !! वेद, शास्त्रों, इतिहास पुराण आदि सर्वत्र ही इस बात का उल्लेख है कि इस सारे संसार की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय आदि कर्मों के कारणभूत विश्वकर्मा ही हैं। भगवान विश्वकर्मा द्वारा ही इस संसार की सृष्टि की गई है, इसीलिए समस्त विश्व के वे प्रभु ही कर्ता एवं स्वामी हैं। उनके पांच स्वरूप हैं जिनमें प्रथम भेदलीला निराकार है, तदनन्तर ओंकार स्वरूप है, तीसरा चिदानन्द, चौथा परमज्योति और पांचवां भेद ब्रह्मानन्द के नाम से कहा गया है। यह सारा संसार जिनसे जन्म लेकर फिर जिनमें लीन हो रहा है, और यह चक्र निरन्तर चल रहा है, उन ज्योतियों की परम ज्योति भी विश्वकर्मा ही हैं। जैसे पुष्प के अंदर गंध, पृथ्वी में जल, शंख में ध्वनि तथा वृक्षों में रस विद्यमान होता है वैसे ही सभी शरीरों एवं अणु परमाणु में स्थित रहकर उनको इस संसार में घुमाने वाले परब्रह्म विश्वकर्मा हो हैं।
विश्वं गर्भेण संधृत्वा विश्वकर्मा जगत्पतिः।
वटपत्रपुटे शेते यद्दशांगुलमात्रकः॥
बालार्ककोटिलावण्यो बालरूपी दिगम्बर:।
योगमायायुतो देवो विश्वकर्मा च पत्रके॥
आनाभिकमलं ब्रह्मा आकण्ठं वैष्णवी तनुः।
आशीर्षमीश्वरो ज्ञेयो विश्वकर्मात्र ईतनौ ॥
कराभ्यां स पदांगुष्ठं वक्त्रे निक्षिप्य चुम्बयन्।
योगनिद्रा समायुक्तो शेते न्यग्रोधपत्रके ॥
मूर्तिभेदेन जनितास्तद्देवा विश्वकर्मणः।
लक्ष्यन्ते पृथगात्मानो वेदेषु प्रतिपादिताः॥
एकमूले महावृक्षे जातास्ते च पृथक्सुराः।
लक्ष्यन्ते रूपभेदेन तारतम्य विशेषतः॥
पंचशाखा भवन्त्यादौ विश्वकर्म महातरो:।
शिवोमूर्तिर्मूर्तिमांश्च कर्ता कर्म च नामभिः॥
ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः।
पंचब्रह्ममयं प्रोक्तमादीजं पञ्च शाखिनः॥
द्रुमसंस्थो जगत्कर्ता जगदुत्पादनोत्सुकः।
स्वार्थे शक्तिस्वरूपो भूत्साशक्ति: पञ्चधा भवेत्॥
तासां नामानि वक्ष्यामि आदि शक्तिरभूत्पुरा।
इच्छाशक्तिर्द्वितीयास्यात्क्रियाशक्तिस्तृतीयका॥
मायाशक्तिश्चतुर्थी स्यात् ज्ञानशक्तिस्तु पञ्चमी।
वसन्ति ताश्च शाखासु पञ्चब्रह्मासु सङ्गताः ॥
ब्रह्माणपञ्चपूर्वादि चतुर्दिक्षु च मध्यमे।
वसन्ति वक्त्रशाखासु शक्तिभिर्विश्वकर्मणः॥
ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः।
पंचानां ब्रह्मणाम् राजन् पंचैतेप्यधिदेवताः॥
पूर्वं तु शिवनामास्यममूर्तित्वस्य दक्षिणम्।
पश्चिमम्मूर्तिमन्ता च उत्तरे क्रतुनामकम्॥
मध्यं तु कर्मनामास्यं ब्रह्मणो विश्वकर्मणः।
एवमास्यानि जानीहि राजेन्द्र ! मतिमन्विभो: ॥
साकाररूपाण्येतानि निर्गुणस्य महाविभो:।
अनन्तानन्तवीर्यस्य ब्रह्मणो विश्वकर्मणः॥
(महाविश्वकर्मपुराण)
वे जगत्प्रभु विश्वकर्मा समस्त विश्व को अपने उदर में धारण करके दस अंगुल परिमाण के होकर वटपत्र पर शयन करते हैं। ऐसा लगता है मानो उन्होंने करोड़ों उदीयमान सूर्यों के तेज को धारण किया हो। वे दिगम्बर होकर अपनी योगमाया के साथ उस वटपत्र पर सोये हैं। उन गुणातीत विश्वकर्मा का वेदरूपी शरीर चरणों से नाभि तक ब्रह्मा के समान, नाभि से कंठ तक विष्णु के समान तथा कंठ से शीर्षभाग तक शिव के समान प्रतिभासित होता है। परब्रह्म विश्वकर्मा अपने हाथों से लीलापूर्वक अपने पांव का अंगूठा चूसते हुए बालरूप में योगनिद्रा से युक्त होकर वटपत्र पर शयित हैं। विश्वकर्मा के विग्रह से अलग अलग उत्पन्न हुए देवताओं को वेदों में अलग अलग रूपों में प्रतिपादित करके दिखाया गया है। एक ही मूल का विश्वकर्मा संज्ञक महावृक्ष है एवं उसके मूल से अनेक रूप एवं नामभेद के तारतम्य से जन्मे ये देवगण अनेक प्रकार के दिखाई देते हैं। विश्वकर्मा से सबसे पहले पांच भावों से युक्त शाखाओं का उद्भव हुआ जो शिव, अमूर्त, मूर्त, कर्ता एवं कर्म की संज्ञा से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर एवं सदाशिव रूपी पञ्चब्रह्ममय जगत के नाम से प्रसिद्ध हुए।
पूर्व में जिस विश्वकर्मा संसारवृक्ष की संस्था के विषय में कहा गया है, उन जगत्कर्ता ने संसार को उत्पन्न करने की आकांक्षा से अपनी काया को शक्ति का स्वरूप बनाया। वह शक्ति पांच प्रकार की है, जिनके नाम बताता हूँ। प्रथम आदिशक्ति है जो प्रारम्भ में रची गई। द्वितीय इच्छाशक्ति और तीसरी क्रियाशक्ति है। चौथी मायाशक्ति एवं पांचवीं ज्ञान शक्ति है। इन पांचों शक्तियों के रूप में शाखा रूप धारण करके वह पंचब्रह्म (मनु, मय, त्वष्ट, शिल्पी, विश्वज्ञ) सहित निवास करते हैं। उक्त मनु आदि पंचब्रह्म पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और उर्ध्व (मध्य) दिशाओं में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर तथा सदाशिव रूपी आधिदैविक शक्तियों के साथ निवास कर रहे हैं। वह विश्वकर्मब्रह्म पूर्वादि क्रम से शिव, अमूर्ति, मूर्तिमान्, क्रतु तथा कर्म नामक मुख वाले हैं। हे राजन् सुव्रत !! इस प्रकार उन जगत्पति के नाम सहित मुख बताये गए हैं। इस प्रकार उन निर्गुण महाविभु का साकार स्वरूप जानना चाहिए जो अनन्त शक्ति से युक्त हैं।
(महाविश्वकर्मपुराण)"
श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Shri Bhagavatananda Guru ji ने मेरी इस पुस्तक की समीक्षा किया है।
डॉ आंबेडकर अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि शूद्र निम्न नीच या मेनियाल थे।
मैने उनके इस कथन और निर्णय को अपनी पुस्तक में गलत सिद्ध किया हैं।
वर्णव्यवस्था समाज की एक श्रेष्ठ व्यवस्था थी जिसमे चारो वर्ण एक दूसरे के सहायक और अवलंब पर निर्भर करते थे।
बाबा साहेब को उस व्यवस्था की समझ नहीं थी, तो दोष व्यवस्था का नही हो सकता।
बालगुरु भगवतानंद जी ने शास्त्र प्रमाण के साथ यही बात प्रामाणिक रूप से सिद्ध किया है।
उनका अभिनंदन और उनको प्रणाम।

#CurseOFHam : #रंगभेद_सवर्ण_असवर्ण का हिन्दू समाज पर निरूपण:

#CurseOFHam : #रंगभेद_सवर्ण_असवर्ण का हिन्दू समाज पर निरूपण:
एक प्रोफेट ने अपने पुत्र को अपनी शराबखोरी के लिए श्राप दिया और उस श्राप को पूरी विश्व की मानवता ने भोगा।
ई-साइयों का इतिहास अत्याचारों से भरा पड़ा है।
Apartheid या रंगभेद पर लाखों आर्टिकल और पुस्तकें मिलेंगी, लेकिन कोई यह नहीं लिखता कि चमड़ी के रंग के कारण कोई गोरे ईसाइयों के अत्याचार का पात्र कैसे बन जाता था?
अमेरिका कहने को तो 1776 में आजाद हो गया था लेकिन वहां रंगभेद की नीति 1960 तक चलती थी।
कार्य कारण सिद्धांत के अनुसार हर कृत्य का कोई कारण, कोई आधार होना चाहिए।
विश्व की अकेडेमिया इस विषय मे कभी रुचि नही लेती।
क्योंकि विश्व अकेडेमिया मे ईसाइयों के वर्चश्व है।
बाकी देशी अकेडेमिया - "एलियंस और स्टूपिड प्रोटागोनिस्ट" है।
वह अनुवादों से ही काम चला लेती है।
रंगभेद की शुरुवात तीसरी शताब्दी में हुई थी। बाइबिल की जेनेसिस में एक कथा है। कथा यह है कि गॉड मनुष्य की दुष्टता से परेशान हो जाता है तो निर्णय लेता है कि प्रलय लाकर समस्त मानवता को खत्म कर दिया जाय।
लेकिन प्रश्न यह उठा कि फिर सन्सार का निर्माण कैसे होगा? इसलिए उसने प्रोफेट नोह को एक नाव तैयार करने की सलाह दी जिसमे वह अपने परिवार के साथ हर जीव का एक जोड़ा रख ले, जिससे प्रलय के उपरांत सन्सार को पुनः निर्मित किया जा सके। ( Arc of Noah पढिये )।
जब प्रलय खत्म हुई और धरती दिखने लगी तो गॉड ने प्रोफेट नोह से कहा कि कुछ खेती बाड़ी करो। उसकी सलाह पर नोह ने अंगूर की खेती की। और उससे शराब बनाई। शराब पीकर एक दिन वह टल्ली हो गया और उसको अपने कपड़े लत्ते का होश न रहा। वह नंगा हो गया। उसके छोटे पुत्र Ham ने उसे नग्न देखा तो उसे हंसी छूट गयी। उसने बाहर आकर अपने दो भाइयों Shem और Jepheth को यह बात बतायी। उन दोनों ने अपने पिता की नग्नता से अपनी आंख छुपाकर ( मुंह दूसरी ओर फेरकर ) अपने पिता को चादर से ढक दिया।
दूसरे दिन होश में आने के बाद नोह ने सारी बात का पता लगाया। उसको जब पता चला कि Ham ने उसे नंगा देखकर हंस दिया था तो उसे बहुत क्रोध आया। उसने Ham को श्राप दिया कि उसकी संततियां पुस्त दर पुस्त, उसके बाकी दो पुत्रों की संततियों की गुलामी करेंगीं।
यूरोप के गोरे लोगों ने जब इजिप्ट पर कब्जा किया तो ईसाई धर्म उपदेशकों ने वहां के देशी लोगों के काले रंग को नोह के श्राप से जोड़ दिया। उन्होंने बताया कि उनके काले रंग का कारण नोह को हैम को दिए गए श्राप के कारण मिला है। और वे हैम की संततियां है। और वे पुस्त दर पुस्त गुलामी लायक हैं।
"यह नया सिद्धांत अलेक्सेन्द्रीय के ओरिजन ( Origen of Alaxandria 185- 254 CE) ने दिया था जो ईसाइयों के सर्वप्रथम धर्म उपदेशकों में से एक था।" ( Breaking India - राजीव मल्होत्रा)
वास्कोडिगामा और कोलम्बस के बाद पूरी दुनिया की मानवता पर इस माइथोलॉजी को निरूपित किया गया।
भारत मे सवर्ण और असवर्ण का बंटवारा इसी माइथोलॉजी को आधार बनाकर आर्यन अफवाह के टेम्लेट को लागू करके किया गया।
1517 से 1840 के बीच 20 मिलियन ( 2 करोड़) अफ्रीकन को पकड़कर अमेरिका ले जाया गया और उनके साथ जो व्यवहार किया गया वह किसी हौलोकास्ट से कम नहीं था।
राजीव मल्होत्रा ने Haynes नामक लेखक का संदर्भ देते हुए लिखा है कि " स्लेवरी के समर्थक सम्मानित डॉक्टर, वकील,नेता, प्रोफेसर, और पादरी थे, जो हैम को दिए गए श्राप को एक ऐतिहासिक तथ्य मानते थे।"

#मनुष्य_का_अस्तित्व_कॉस्मिक_है:

क्षिति जल पावक गगन समीर। इन्ही पांच तत्वों से हम निर्मित हैं।
जिस मिट्टी से बने हो उसका अस्तित्व भी कॉस्मिक है। तुम ये नही कह सकते कि हम फलनी व्यक्तिगत मिट्टी से बने हैं। जिस जल से तुम बने हो वह भी अस्तित्वगत है। तुम्हारे पेट मे जाने के पहले वह न जाने कितने लाख वर्षो से किन किन के पेट से गुजर चुका है। मनुष्य से लेकर पशु, चिड़ियों से लेकर चींटी तक के पेट से।
जो हवा तुम लेते हो वह तुम्हारी व्यक्तिगत संपत्ति नही है। वह तुम्हारे अंदर प्राण फूंकने के पूर्व न जाने किन किन के प्राणों से होकर गुजर चुकी है। आसमान और अग्नि का अस्तित्व भी कॉस्मिक है।
सिर्फ तुम्हारा मन है जो यह कहता है कि तुम इंडिविजुअल हो। क्योंकि तुमको पता नही है कि तुम्हारे मन के ऊपर संस्कार की कितनी पर्तें लदी हुई हैं।पैदा हुए थे तो तुम्हारा कोई नाम न था।
सुविधा के लिए तुम्हारे मा बाप ने तुम्हारा नाम रख दिया। फिर तुमने अपनी पहचान बनानी शुरू किया - परिवार, गांव, जाति, वर्ण, प्रोफेशन, धर्म, देश।
यह सब इडेन्टिटीज हैं जिनको हम सॉफ्टवेयर के शब्दों में अहंकार कहते हैं। और पश्चिम के शब्दों में व्यक्तित्व या परसोना अर्थात मुखौटा।
बुद्धि के स्तर पर सतत तुम अपनी इसी आइडेंटिटी को सुरक्षित रखने के लिए संघर्ष रत रहते हो।
इसी आइडेंटिटी के अनुसार तुम्हारे मन मे एकत्रित अतीत के अनुभव के डेटा का विश्लेषण करके हमारी बुद्धि सदैव अच्छा या बुरा का निर्णय लेती रहती है।
चित क्या है इसका हमे अनुभव ही नही है। उसका अस्तित्व सदैव ही कॉस्मिक होता है।
कृष्ण कहते हैं - चेतना अश्मि भूतानां
भूतानां का अर्थ है समस्त जीव - स्थावर जंगम समस्त जीव, पेड़ पौधे पहाड़ सब का सब।
अपने कॉस्मिक अस्तित्व को समझने की दिशा में एक गूढमन्त्र अर्जुन को श्री कृष्ण देते हैं।
आप भी अपना सकते है।
इंद्रियस्य इंद्रियस्य अर्थे राग द्वेष व्यवस्थितौ।
तयो न वशं अगच्छेत तौ हि अस्य परिपंथनौ।।
- भगवत गीता।
हमारे जीवन मे जिस भी व्यक्ति वस्तु विचार या भाव से हमारा साक्षात्कार होता है हम तुरंत उसके बारे में अपनी राय बना लेते है - कि यह बुरा है या अच्छा है।
इससे बचने की सलाह वे दे रहे हैं। देख लीजिये इनको - निर्णय मत लीजिये कि अच्छा है या बुरा है।
यह पहली सीढ़ी है। यद्यपि आसान नही है।
लेकिन क ख ग घ और abcd भी पढना आसान नही था न।
एक दिन में तो नही सीख पाए रोजी कमाने की विद्या - वह चाहे डॉक्टरी हो, इंजीनियरिंग हो, मास्टरी हो या वकालत हो। कोई भी पेशा हो।
और जो दिमाग मे इतना कचड़ा एकत्रित किया है उसे भी तो बहुत जतन से, श्रम से, सालों की मेहनत द्वारा ही सीखा है।
तो शुरुवात तो करो।
हर शुरुआत पहला कदम होता है लक्ष्य की ओर।
नोट - आज सुबह मैंने एक प्रश्न पूंछा था कि #ब्राम्हणवाद क्या है?
किसी ने उत्तर नही दिया था।
यही है बाम्हणवाद - चेतना अश्मि सर्व भूतानां

#महानता_की_भारतीय_और_पाश्चात्य_परिभाषा में भेद:

किसी ने कमेंट किया - गुरु जी गूगल से पढ़ रहा हूँ हर कोई अपनी जाति को महान बता रहा है।
राडार बाबा - अपनी जाति को महान बताना कोई बुराई नही है।
जाति का अर्थ कुल होता है।
कुलीन होना अच्छी बात है।
कुलीन का अर्थ ही होता है आर्य।
संस्कृत डिक्शनरी के अनुसार आर्य का अर्थ होता है :
षट सज्जनस्य - महाकुल कुलीन आर्य सभ्य सज्जन साधवः।
लेकिन अपनी जाति को महान बताने वाले महानता का अर्थ भी जानते हैं क्या?
लेकिन आर्य की युरोपियन परिभाषा भारत की परिभाषा से अलग है।
युरोपियन की महानता की परिभाषा थी आर्यन हिटलर के नेतृत्व में ईसाइयों द्वारा 60 लाख यहूदियों और 40 लाख जिप्सियों का नरसंहार।
भारत मे महानता की परिभाषा अलग है।
इस श्लोक में युरोपियन और भारतीय महानता की परिभाषा में स्पष्ट अंतर दिख जाएगा।
"विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति परेशां परपीड़नाय।
खलुश्च साधोर्विपरीतं एतद ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।
विद्या विवाद के लिए, धन मदान्ध होने के,और शक्ति दूसरों को परेशान करने के लिए होती है - लेकिन यह खलु ( युरोपियन महान ) लोगो की दृष्टिकोण है।
साधु ( भारतीय महान ) के लिए विद्या ज्ञान बांटने, धन दान देने और शक्ति दूसरों की रक्षा करने हेतु होती है।

#आप_अपने_शत्रु_भी_हैं_और_मित्र_भी


उद्धरेत् आत्मना आत्मानं न आत्मानं अवसायदेत्।
आत्मा एव हि आत्मनः बन्धु आत्मा एव ही रिपु: आत्मनः।।
- भगवत गीता 6/5
मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे। यह मन मनुष्य का मित्र भी है शत्रु भी है।
बहुत सुंदर मंत्र है।
हम सोचते हैं कि हमारे दुख और सुख के लिए कोई दूसरा उत्तरदायी है। क्यों? क्योंकि हम सदैव दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वह हमारे मन के अनुकूल चले। और यदि ऐसा नही होता तो हम दुखी हो जाते हैं।
इसीलिए हम परिस्थियों को नियंत्रित करना चाहते हैं, उन्हें अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं। यही काम राजनीति करती है, यही काम क्रांति के नाम पर साम्यवादी करते हैं। लेकिन इससे कुछ होता नही हैं। गोरे अंग्रेज की जगह काले अंग्रेज बैठ जाते हैं। जार का स्थान स्टॅलिन और लेनिन ले लेते हैं जो जार से बड़े अत्याचारी, हिंसक, और नरसंहार करने वाले हैं।
लेकिन हम यह भी जानते हैं कि हम अपने बच्चे या पत्नी तक को अपने अनुसार सोचने को विवश नही कर सकते तो परिस्थितियों को बदलने की सोचना या दूसरों से अपने अनुसार सोचने की अपेक्षा करना एकदम बचपना है, मूढ़ता है।
हम इतने कमजोर हैं कि सपने भी हमे प्रभावित कर लेते हैं। सोते सोते सपना देखा कि कोई आपको मारने के लिए दौड़ाए है। नीद खुली तो देखिए - सपना तो झूंठा था परंतु धड़कन तेज है और गला सूख रहा है।
लेकिन जगते हुए भी हमारी स्थिति कोई विशेष भिन्न नही होती। हमारे अगल बगल से गुजरते लोग, गुजरती कारें, हमारे अंदर उनको देख कर उठते विचार, या उनकी अनुपस्थिति में भी हमारे अंदर घुमड़ते विचार, हमें घसीटे लिए जाते हैं और हम परवश उनके पीछे बंधे हुए चले जाते हैं।
यह है वह स्थिति जिसको तुलसीदास ने कहा है:
मोहनिशा जग सोवन हारा।
देखत सपना विविध प्रकारा।
यही मन है जो मनुष्य का शत्रु है। जो मन मनुष्य को अपने बस में रखे वह मन मनुष्य का शत्रु है।
मन अर्थात मन मे उमड़ते घुमड़ते विचार, उनसे उतपन्न होने वाली कामनाएं, अपेक्षाएं, जिनको आज की भाषा मे टारगेट, गोल, जीवन का लक्ष्य आदि आदि नाम दिया गया है।
लक्ष्य और प्राप्ति के बीच जितनी दूरी होगी, उतना ही तनाव चिंता फ्रस्टेशन आदि जन्म लेगा। यह अज्ञानता की स्थिति कहलाती है।
मनुष्य का यही मन मित्र भी बन सकता है। लेकिन उसके लिए उसको सजग होना पड़ेगा, जाग्रत होना पड़ेगा। परिस्थितियों को देखेगा, लेकिन उनसे प्रभावित होने से, अपने को सतत प्रयास द्वारा रोकने का प्रयास करेगा।
वस्तुत: होता तो यह है कि हम जिन भी परिस्थितियों, व्यक्ति, वस्तु, भाव या विचार का साक्षात्कार करते हैं, उनके बारे में निर्णय ले लेते हैं कि यह बुरा है या अच्छा है।
भगवान कृष्ण इससे आगाह करते हैं:
इंद्रियस्य इंद्रियस्य अर्थे राग द्वेष व्यवस्थितौ।
तयो न वशं आगच्छेत तौ हि अस्य परिपंथनौ।।
- भगवतगीता
कृष्ण कह रहे है कि हमारे मन मे विषयो के प्रति राग या द्वेष ही रहता है। लेकिन उसके बस में न आएं क्योंकि यही बन्धन है। यही दुख का कारण है।
निर्णय लेते ही आप पक्षकार हो जाते हैं। अब यदि आप उसको पसंद करते हैं और कोई उसके विरुद्ध होगा तो आप संघर्ष करेंगे। संघर्ष ही दुख है।
तो निर्णय न लें। देख लें। उसका रस ले लें। निर्णय न लें।
यह स्थिति भी अज्ञान की ही है परंतु अब परिस्थितियों के बस में आप नही हैं। मन के बस में आप नही हैं। आप सतत जाग्रत होने का प्रयत्न कर रहे हैं। यही मन आपका मित्र है।
तीसरी स्थिति बुद्ध या जाग्रत मनुष्य की है। उसको प्रयास नही करना है। वह सदैव जाग्रत है। लेकिन वह परिस्थितियों को बदलने की क्षमता रखता है। उसकी उपस्थिति से परिश्थितिया बदल जाती है।
यह ज्ञानी की स्थिति है।
तो दो काम करें।
1- निर्णय न ले। दर्शक या साक्षी रहें।
2- मन के पीछे पीछे न भागिए। मन का पीछा कीजिये। मन पर पहरा दीजिये कि यह कहाँ कहाँ जाता है।

Monday 16 September 2019

#विचार_विचारक_और_भारत :

विचारक शब्द थिंकर की हिंदीबाजी है। स्वतंत्र सोच विकसित करना पाश्चात्य सभ्यता में आज के कुछ शताब्दी पूर्व एक दुस्साहस भरा कृत्य था। और दंडनीय भी। बाइबिल और चर्च ने सोचने की स्वतंत्रता का अपहरण कर रखा था। आपको याद होगा चर्च ने 1600 ई. में किस तरह ब्रूनो को आग में जलाकर मार डाला था। क्योंकि उसने कहा कि पृथ्वी सूर्य के चारो तरफ घूमती है।
बाद में गैलीलियो को भी इसी वैज्ञानिक सोच और अवधारणा के कारण गृह कारावास दिया गया।
लेकिन भारत का धन वैभव लूटकर जब वे थोड़ा सम्पन्न हुए और यहां से संस्कृत ग्रंथो के अनुवाद वहां पहुंचे तो वहां सोचने की स्वतंत्रता मिली जिसको वे पुनर्जागरण कहते हैं।
यह उनके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। मनुष्य का मन स्वतंत्र हो तो तन कारावास में रहे या बाहर, वीर सावरकर पैदा हो ही सकते हैं।
इसीलिए उनके यहां विचार और विचारकों को इतने सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
लेकिन मन गुलाम हो तो किस तरह के विचारक पैदा होंगे?
बताने की आवश्यकता है क्या?
जब विदेशी शिक्षा का मॉडल भारत मे स्थापित किया गया तो यह कोलोनियल हैंगओवर के कारण विचार और विचारक भारत मे भी लोकप्रिय हो गया।
भारत मे विचार को कोई महत्व नही दिया जाता। ज्ञान को महत्व दिया जाता है। विचार ही तो था जिसने हिटलर को पैदा किया था। मैक्समुलर के #आर्यन_अफवाह को आधार बनाकर पूरे यूरोप के ईसाइयों का मस्तिष्क इस तरह विकृत किया गया कि वे सचमुच में स्वयं को आर्यन समझने लगे - और अपने साथ रहने वाले 60 लाख यहूदियों और 40 लाख जिप्सियों का कत्ल किया।
विचार ही तो है जो जन्नत पाने हेतु एक बहुत बड़ी आबादी के नवयुवक अपने आपको बम से उड़ा ले रहे हैं। आपको लगता होगा कि यह क्या बेवकूफी है - मरने के बाद कोई जन्नत और हूर को लेकर करेगा तो क्या करेगा?
लेकिन यह विचार ही तो है जो उन्हें इतना तीव्रता से आकर्षित करता है इन क्रूरताओं को करने के लिए।
इसीलिए भारत मे विचार और विचारकों को कोई महत्व नही दिया गया। ज्ञान को महत्व दिया गया। ज्ञान को, पण्डित्य को नहीं।
क्योंकि हम जानते थे कि विचार तो बाहर से लिया गया कचड़ा है। वह अपना अनुभव जन्य ज्ञान नही है। इसलिए इस कचड़े से मुक्ति पाओ। इसको सिर पर लादकर मत घूमो।
मनुष्य को ऐसा लगता है कि सोच विचार पर मनुष्य मात्र का अधिकार है। लेकिन तुमको कैसे पता कि कुत्ता बिल्ली सियार चींटी मधुमक्खी नही सोचती, मकड़ी नही सोचती बिचारती? यदि ऐसा होता तो किस तरह जानवरो को ट्रेनिंग देना संभव था? यदि ऐसा होता तो चिड़िया घोसला कैसे बनाती, मकड़ी जाला कैसे बनाती और मधुमक्खी छत्ता कैसे बनाती।
हम उनकी भाषा समझने की तकनीक विकसित नही कर पाए हैं इसलिए हमें ऐसा लगता है।
भारत मे बताया गया कि सोच ही कारागार है, बन्धन है, कष्ट का सागर है। सोच विचार को ही ह्यूमन सॉफ्टवेयर का मन और बुद्धि कहा गया है। वह तो सदा यही करता रहता है - सोच विचार।
और सोचते क्या हो ?
मैं और मेरा।
तू और तेरा।
लक्षमण ने रामचन्द्र जी से पूंछा कि माया क्या है?
मैं और मोर तोर तै माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।
- रामचरितमानस
सोच विचार ही माया है।
आदिगुरु शंकर ने संसार को माया कहा है। संसार माया नही है, आपके सोच विचार की दुनिया माया है।
इसी से मुक्ति पाने के लिए समस्त साधना की जाती है।
अर्जुन कृष्ण से पूंछता है कि मनुष्य न चाहते हुए भी वह काम क्यों कर बैठता है जिसे वह करना नही चाहता।
उसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि प्रकृति के गुणों के रचे बसे काम और क्रोध के कारण ही मनुष्य यह दुष्कर्म करता है। इसका उदाहरण ऊपर दिया गया है- यूरोप के ईसाइयों और जिहादी जन्नतियो का।
उसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि :
इन्द्रियाणि पराणि आहु: इंद्रियेभ्य: परः मनः।
मनस: तु परा बुद्धि: यः बुद्धे परत : तु स: ।।
- भगवत गीता।
जिसको ज्ञान कहा जाता है या आत्मज्ञान कहा जाता है वह बुद्धि और मन के परे रहता है। मन और बुद्धि के पार वह रहता है जो न चाहते हुए भी वह सभी कर्म करता है जो पाप कर्म कहलाते हैं।
इसीलिए सोच और विचार के पार जाकर आत्मस्वरूप को उपलब्ध ज्ञानी जन का ही भारत सम्मान करता है जो निर्विचार समाधि को उपलब्ध हो चुका हो।
किसी विचारक और चिन्तक का नहीं।

Sunday 15 September 2019

#संघ_की_बौद्धिकता_पर_एक_प्रश्न :

संघ के उद्देश्य और मेरे उद्देश्य में कोई अंतर नहीं है। हम दोनों ही चाहते हैं कि भारत, आक्रांताओं के भारत मे आने और उसका मालिक बनने के पूर्व का, एक वैभवशाली, गौरवशाली और विश्व धर्मगुरु की स्थिति को पुणः प्राप्त करे।
लेकिन रणनीति में अंतर है। मैं विश्वास करता हूँ कि सत्य को खोलकर रख दो, और उनको स्वयं निर्णय लेने दो कि क्या वे नीच थे, या गौरवशाली और वैभवशाली भारत के निर्माण का अभिन्न हिस्सा थे?
उनके पूर्वज हमारे पूर्वजों से न ही भिन्न थे, न ही अलग थे, न नीच थे। वे एक ऐसी व्यवस्था के अंग थे जो शिक्षा, रक्षा, वाणिज्य, शिल्प और सेवा के माध्यम से एक दूसरे के पूरक और सहयोगी थे। न कोई ऊंचा था न कोई नीच।
ऊंच और नीच कर्म आधारित था, चाहे महाभारत का समयकाल हो या आज से पांच सौ वर्ष पूर्व, जब चर्मकार रैदास क्षत्राणी महारानी मीरा बाई के आधयात्मिक गुरु थे।
लेकिन संघ चाहता है कि हंसे भी और गाल भी फुलाये।
वह डॉ आंबेडकर को महान भी सिद्ध करना चाहता है जो उनको नीच की टाइटल देते हैं, जो वर्ग भारत के ब्रिटिश दस्युवों द्वारा लूटे जाने और नष्ट किये जाने के पूर्व विश्व की 24% जीडीपी का निर्माता था। और यह भी चाहता है कि उन्ही की वंशजो को जब अम्बेडकर जी नीच बोलें तो उसको ब्रम्ह सत्य भी माना जाय।
ऐसे कैसे चलेगा ? ऐसे कैसे समरसता स्थापित होगी?
एक तरफ आप उनको नीच बोले जाने को स्वीकार्यता प्रदान करेंगे। और मोमिन और ईसाई दस्युवों को बरी करते हुए, #आर्यन_अफवाह पर आधारित फेक न्यूज़ को आधार बनाकर, अन्य तीनो वर्णों ( Castes according to constitution) को अपराधी ठहराएं और गाली देने की छूट देंते जायँ?
उनको सारे लाभ लेते हुए भी गाली देने की खुली छूट?
न सिर्फ उन तीन वर्णों को वरन हिन्दू धर्म, और उसके देवी देवताओं का अपमान करने की भी फ्री छूट?
ऐसे समरसता आ सकती है क्या ?
आपके लिए तुलसीदास जी ने लिखा है :
"दुई न होई एक साथ भुआलू।
हँसब ठठाब फुलाउब गालू।।
हंसना और गाल फुलाना एक साथ संभव नही है।
लेकिन आप दोनों करना चाहते हैं।
यही आपकी सबसे बड़ी बौद्धिक भूल है, जिसने आपको सदैव गलत और भ्रमित तर्क शास्त्रियों को प्रोमोट करने को बाध्य किया है।
मेरा मानना है कि सत्य को खोलकर रख दो।
उनको निर्णय लेने दो।
लोभ हर मनुष्य के चरित्र में इन बिल्ट है।
लेकिन वह उस गौरव से ऊपर नही है जिससे पूर्वजों की गौरावता जुड़ी हो।
Caste न वर्ण है न जाति।
जाति है वंश वृक्ष।
वर्ण भी मैं बता सकता हूँ कि क्या है?
Caste क्या है यह आप बताइए।
यदि जाति या वंश वृक्ष को समझना हो तो तुलसीदास के उस दोहे को याद करो, जो उन्होंने सती के पिता प्रजापति द्वारा उनके पति शंकर जी को अपमानित करने पर, सती जी के मुंह से बोलवाया है:
जद्यपि दुख दारुण दुख नाना।
सबसे कठिन जाति अपमाना।
अब सती की कौन जाति थी?
लेकिन उनके पति तो थे न?
वही है मूल कुल।
लाखों वर्ष की भारतीय संस्कृति में जातियां, विस्तारित वंश वृक्ष के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
यदि आप कहते हैं कि जाति ही कास्ट है तो कृपया बताइए कि औट्रलिया में 1856 में #हाफ_कास्ट_एक्ट कैसे, किसने और किसके लिए बनाया था ?