Saturday, 20 July 2019

इमोशनल टॉक्सिन्स - 12

#इमोशनल_टॉक्सिन्स_सीरीज -12

#कर्म_विज्ञानम् : सनातन गॉड या अल्लाह जैसे भगवानों पर विस्वास नही करता, जो यह मानते है कि कोई गॉड या अल्लाह आपके कर्मो का परिणाम तय करते हैं। आपके कर्म ही आपके भविष्य का निर्धारण  करते हैं।
इस जन्म के भी और आगे वाले जन्मों की भी।
यही कर्म का विज्ञान है जो वैज्ञानिक है। 

शरीर वाक् मनोभिः यत् कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यम् वा विपरीतम् वा पंच एते तस्य हेतवः।।
भगवत गीता 18.15

कर्म तीन स्तर पर होते हैं - शरीर मन और वचन से। चौथा और किसी साधन से कर्म नही होते।
इन तीनो साधनों से मनुष्य जो भी कर्म करता है - वह चाहे न्याय के अनुकूल हो ( उचित हो) या प्रतिकूल ( अनुचित) वह इन पाँच कारणों के फलस्वरूप होता है।
अधिष्ठान ( मनुष्य का शरीर) कर्ता ( प्रकृति) करण ( उपकरण - इंद्रियां और मन), विविध प्रकार के कर्म, और दैव अर्थात कर्मो के संस्कार ( कर्म विपाक)।

मनुष्य के समस्त कर्मो के पीच्छे अन्य कोई पांचवा कारण नही होता।

लेकिन मनुष्य कर्ता स्वयं को मानता है। ऐसा इसलिए है कि प्रकृति से निकले महत्त्व से बनने वाला पहला तत्व अहंकार ही होता है। अहंकार के कारण ही बुद्धि निश्चयात्मक तौर पर यह जानती है कि यह शरीर उसकी है और इसके भरण पोषण और रक्षण का दायित्व भी उसी के ऊपर है। यदि अहंकार इतने तक ही अनुभव करता रहे तो ही उचित है लेकिन ऐसा नहीं होता।

होता यह है कि मनुष्य प्रकृति के कारण संपादित होने वाले कर्म को भी अपना ही कर्म मानने लगता है।

यदि इस शरीर नामक सिस्टम में यह पूँछा जाय कि इसमें तुम कौन हो तो शायद जो लोग अधिक समझते हैं, वे बुद्धि को स्वयं का होना स्वीकार करें, और यदि पूर्ण मूढ़ हो तो इस शरीर को भी स्वयं का होना मान लें।

वे पाँच कारण या हेतु कौन हैं जो कोई भी कर्म के कारक बनते हैं ?
उनका विस्तार रूप से यहां वर्णन है।

#कर्म_विज्ञानम् :

किसी भी कर्म को करने में पाँच कारण होते हैं।
1-अधिष्ठान
2-कर्ता
3-करण ( विविध एवं पृथक पृथक)
4- चेष्टा ( विविध प्रकार की पृथक चेष्टाएँ)
5- दैव

दैव अर्थात कोई देव नहीं है। योग वशिष्ठ में वशिष्ठ जी ने किसी दैव के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है। दैव अर्थात पूर्व के कर्मो के संस्कार।

अधिष्ठान - अर्थात शरीर
इंद्रियाणि मनो बुद्धि अस्य अधिस्थानम् उच्यते।
एतै विमोहियति एषः ज्ञानम् आवृत्य देहिनम्।

इन्द्रिय मन और बुद्धि इसका ( काम का ) अधिष्ठान है। ऐसा पहले 3.40 में कहा गया है।

कर्ता - कर्ता हम स्वयं को मानते हैं। जबकि कर्ता स्वरूप का अंश होने के कारण अकर्ता है।
इसके पूर्व कह आये हैं -

नहि कश्चित क्षणम् जातु तिष्ठत अकर्मकृत।
कार्यते ही अवश: कर्म सर्व: प्रकृति जै गुणै:।।
3.5

जन्म लेने के उपरांत मनुष्य किसी भी क्षण अक्रिय होकर नही बैठ सकता। प्रकृति प्रदत्त गुणों के कारण वह अवश होकर सारे कर्म करता है।
अर्थात मनुष्य के सारे कर्मो का निर्धारक वह नही है बल्कि प्रकृति प्रदत्त गुण ही उन कर्मो के निर्धारक होते हैं। हां मनुष्य भले ही कर्ता होने का भ्रम पाले रहता है।

आगे इसको और भी स्पष्ट किया है:
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:
अहंकारविमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते।।
3.27

समस्त होने वाले कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं। मनुष्य अपने अहंकार के कारण और मूर्खता के कारण स्वयं को कर्ता समझता है।

आगे लिखा कि
तत्ववित्त महाबाहो गुण कर्म विभागयो।
गुणा: गुणेषु वर्तन्ते मत्वा इति न संजते।।
3.28

गुण गुणों में ही बरतते है। अर्थात शरीर मन और वाणी में गुण सदैव एक रूप से दूसरे रूप में आते जाते रहते हैं। कभी सात्विक विचार, कभी राजस विचार, कभी तामसी विचार।

करण : करण विभिन्न प्रकार के होते हैं।
कर्मों के उपकरण अर्थात यंत्र - 10 इंद्रियां, 5 ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ और चार अंतःकरण मन बुद्धि चित्त अहंकार। यही समस्त कर्मों के करने के उपकरण हैं
ज्ञानेन्द्रियाँ - स्रोत त्वक चक्षु जिह्वा नासिका
कर्मेन्द्रियाँ - पाणि पाद वाक उपस्थ पायु।
इन्ही उपकरणों से मनुष्य समस्त कर्म करता है।

चेष्टा - विविध प्रकार के पृथक पृथक चेस्टायें अर्थात जतन कृत्य प्रयत्न।

देव- देवं च एव अत्र पंचमं
गीता के विभिन्न भाष्यकारों ने देव का अर्थ अलग अलग निकाला है - किसी ने देवी शक्ति, किसी ने परमात्मा।
लेकिन #योगवशिष्ठ में वशिष्ट जी ने किसी दैव शक्ति के अस्तित्व को निरस्त कर दिया है।
"वेद कहते हैं " यद्धि मनसा ध्यायति तद्वाचा बदति तत् कर्मणा करोति" - जैसा मन मे ध्यान करता है वैसा ही वाणी से बोलता है और वैसा ही शरीर कर्म करता है।
"जंतु: यत् वासनो राम तत्कर्ता भवति क्षणात्। अन्य कर्म अन्य भाव: इति एतत् न एव उपद्यते। ग्रामगो ग्रामम् आप्नोति पत्तानार्थी च पत्तनम्। यो यो यत् वासनाः तत्र स स प्रयतते सदा। यदेव तीव्र संवेगादृढम् कर्म कृतं पुरा। तदेव देवशब्देन पर्यायणेह कथ्यते।।"
( योगवषसिष्ठ मुमुक्षव्यवहार प्रकरण सर्ग 9 : 14-16)

हे रामचन्द्र जी, प्राणी की जैसी वासना होती है, उसी के अनुसार क्षण में ही कार्य करने लगता है। वासना कोई दूसरी हो और कर्म दूसरा हो यह वार्ता नही बन सकती। ग्राम को जाने वाला ग्राम को जाता है, नगर को जाने वाला नगर को, जिसकी जैसी वासना होती है वह सदा वैसा ही प्रयत्न करता है। फल की अधिक अभिलाषा से पूर्व जन्म में जो कर्म किया है उसी को इस जन्म में देव नाम से कहते हैं।
आगे बताते हैं - देव कर्म रूप है और कर्म मन रूप है और मन पुरुष रूप है, और पुरुष परमार्थ दशा में निर्विकारी चेतन मात्र है। हे राम जी चित्त, वासना, कर्म और दैव, ये सब अनिर्वचनीय मन की संज्ञा तत्वज्ञानी सज्जनों ने कहा है।

इस तरह दैव भी प्रकृति के द्वारा निर्धारित गुण द्वारा संचालित किये गए कर्मो के परिणाम स्वरूप उतपन्न संस्कारो के कारण उतपन्न हुई वासना भर है। जिसको योग शास्त्र में #कर्म_विपाक कहते हैं। जो जन्म आयु और भोग का कारक तत्व है।

पातंजल योगदर्शन के साधनपाद के12 वे और 13वे सूत्र में लिखा है -
क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्ट अदृष्ट जन्म वेदनीयः।
सति मूले तद्विपाको जाति: आयु: भोगाः।

अर्थात - क्लेश जिसकी जड़ में है वह है कर्माशय ( कर्मो की वासना)। वही वर्तमान और अगले जन्मों में भोगने योग्य है।
अविद्या आदि क्लेश के मूल में उस ( कर्माशय) का फल जाति ( जन्म ) आयु भोग होता है।

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