Monday 18 January 2021

Weight of Thoughts Make life hell.

′′The #Weight_of_Thoughts'′ bronze sculpture by Thomas Lerooy.

#विचारों_का_बोझ।

जीवन दुख है या संसार दुख है - बुद्ध।
बुद्ध ने संसार को दुख बोला हो तो भी, जीवन को दुख बोला हो तो भी, बात वह सिर्फ विचारों की ही कर रहे थे। 

हमारे जीवन की सबसे बाहरी परिधि है - शरीर। शरीर साधन है जीवन जीने का, संसार को भोगने का, और जीवन को विकसित करने का। समस्त प्राणियों को देह या शरीर मिलता है। इसकी मूलभूत स्वरूप है- भूंख भय मैथुन निद्रा। 
शरीर की आवश्यकता होती है- उसकी पूर्ति आवश्यक है। यदि जीवन आवश्यकताओं की पूर्ति में निकल रहा है,, तो भी मनुष्य बहुत चिंतित नहीं होता। समय कहाँ है उसके पास चिंतित होने का, विचारों के संग्रह करने का? फुटपाथ पर भी गहरी नींद में सो सकता है वह।

शरीर की दूसरी परिधि है - विचारों की। हम समस्त विचार बाहर से लेते हैं - शिक्षा द्वारा, संस्कार द्वारा, समाज द्वारा। यह बादल की भांति हमारे अंदर मंडराते रहते हैं। 
शरीर की तीसरी परत है - भाव दशा की। हमारे भाव, जो विचारों का द्रवीकृत स्वरूप है। लिक्विड फॉर्म ऑफ थॉट्स। थोड़ा गहरी अवस्था। 

चौथी परत है - सिद्धांतों, और अवधारणों की परत। जिस विचार और भाव दशा को हमने अपना लिया, गहन रूप से सत्य समझकर। वह परत। 

विचार , भाव और अवधारणा - ये अलग अलग नहीं हैं। एक ही चीज के तीन स्वरूप हैं। जैसे बादल, जल और बर्फ। 

तो बात हो रही थी इस तस्वीर में वर्णित - विचारों के बोझ की। हमारा शरीर छोटा हो जाता है, और मस्तिष्क बड़ा। बाहर से संग्रहीत किये गए  विचारों, भावों और अवधारणाओं के बोझ से। 

प्रकृति ने जो सिस्टम बनाया है, उसमें आटोमेटिक व्यवस्था है कि जो भी चीज हम ग्रहण करते हैं, उसमें से,  शरीर के लिए आवश्यक तत्व शरीर ले लेता है, बाकी  स्वयं निष्काषित कर देता है - मल मूत्र या स्वांस में कार्बन डाई ऑक्साइड के रूप में। विसर्जित कर देता है। क्योंकि वह विषाक्त होता है। 

सोचिये यदि इस सिस्टम में कोई बाधा आ जाय तो? प्राणों का खतरा उतपन्न हो सकता है या जीवन दुरूह हो जाता है। 
विषाक्त हो जाये सारा सिस्टम।
सेप्टिक कहते हैं डॉक्टर इसे।

अभी कल ही एक दमा का मरीज भर्ती हुवा - अति गम्भीर दशा में। उसका कार्बन डाई ऑक्साइड निकल नहीं पा रहा था। डॉक्टरों ने बताया कि CO2 narcosis हो रहा है। अर्थात अधिक मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड निकल न पाने के कारण बेहोशी हो रही है, चेतना लुप्त हो रही है। 

पूर्व में किसी मित्र  ने कहा कि - #IBS अर्थात इर्रिटेबल बोवेल सिंड्रोम पर लिखिए। 

मेडिकल साइंस कहता है कि IBS, एक साइको सोमेटिक बीमारी है। अर्थात माइंड में चल रहे उठापटक का प्रभाव हमारे आंत की आदतों पर पड़ता है। लोग दिन भर टॉयलेट में ही बैठे मिलते हैं। परमानेंट कब्जियत है यह। 

मेडिकल साइंस यह भी कहता है कि हमारा सिस्टम एक केमिकल की फैक्ट्री है या केमिकल सूप है। जितने केमिकल हमारे सिस्टम में निकलते हैं, उनका सबसे बड़ा स्रोत हमारा पाचन तंत्र होता है। 

थोड़ी मोड़ी कब्ज हो तो - रेचक औसाधियाँ या Cathartic agents से काम चल जाता है। आपने देखा होगा कि कैथर्टीक एजेंट्स का अरबों का कारोबार है मेडिकल साइंस में। 

लेकिन IBS के मरीजों में इन एजेंट्स से काम नहीं चलता। उनके माइंड या विचारों की उठा पटक को शांत करने हेतु शामक औसाधियाँ देनी पड़ती हैं। #SSRI मेडिसिन का जो समूह है, जिस पर साइकाइट्री की पूरी फार्मकोपिया आधारित है - वह इन्हीं केमिकल्स की मात्रा नियंत्रित करने हेतु बनी हैं। खरबों का कारोबार है इन दवाओं का। शामक औसाधियाँ हैं ये, अर्थात माइंड को शांत करने की औसाधियाँ। 

तो बात हो रही थी - विचारों के बोझ की। पूरी साइकाइट्री, साइकोलॉजी, और एक नई शाखा - साइको- immunology - विचारों के शमन या रेचन ( कैथेरसिस) के माध्यम से काम करते हैं। 

विचार भी हम बाहर से ही लेते हैं। अब इसमें कितना आवश्यक है, और कितना अनावश्यक, वह हर व्यक्ति के लिए अलग अलग होता है।

 समस्त विचार सबकी आवश्यकता नहीं होते। व्यक्ति अपने स्वभाव अनुकूल ही विचार संग्रह करता है। माइंड विचारों से अपने आपको स्वप्न के माध्यम से शुद्ध करने का प्रयत्न करता है - ऑटो मैटिक। लेकिन सारे विचार आपस में गड्ड मड्ड हो जाते हैं। एक दूसरे के विरोध में खड़े हो जाते हैं। आपस मे कटा-जुज्झ  मचा देते हैं। उससे विष निर्मित होता है - #इमोशनल_टॉक्सिन्स। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हम किसी विचार को सही समझते हैं, किसी विचार को गलत। अपनी शिक्षा संस्कार के कारण।
"इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे राग द्वेष व्यवस्थितौ"।
- भगवतगीता

हम अपने राग और द्वेष के अनुसार ही वस्तुओं, व्यक्तियों, भाव और विचारों का  ग्रहण करते हैं। 
इन गड्डम- गड्ड विचारों के कारण हमारा माइंड इतना भारी हो जाता है कि हम प्रायः विक्षिप्तता के कगार पर ही रहते हैं। जरा एक जोर के धक्के की आवश्यकता है और हम पूरी तरह पागल हो जाएंगे। हमारा सबसे बड़ा मित्र - हमारा माइंड, हमारे शत्रु में बदल जाता है। इससे बचने के लिए हमें #मेन्टल_कैथेरसिस  या निर्ग्रंथन सीखने की आवश्यकता पड़ती है। 

क्योकि IBS की तरह ही विचारों का बोझ हमारे तंतुओं में ग्रंथ बना लेता है जिससे उन समस्त बीमारियों का जन्म होता है जिन्हें लाइफ स्टाइल डिजीज कहते हैं।

प्रमाणस्वरूप: 
हमारी मेडिसिन की टेक्स्टबुक हैरिसन , हाइपरटेंशन के बारे में लिखती है: "यह बीमारी समस्त सभ्यताओं में पायी जाती है मात्र कुछ प्रिमिटिव ट्राइब्स को छोड़कर"।
न एक लाइन कम, न एक लाइन अधिक।
कारण क्या है कि प्रिमिटिव ट्राइब्स इस वैश्विक महामारी से अप्रभावित है?
विचारों का निर्माण - सभ्यताएं करती हैं। अवधारणाओं का निर्माण विचारक करते हैं - थिंकर्स। और उन्हीं विचारों में वे डूबते उतराते रहते हैं। जन्म लेते हैं, उन्हीं विचारों में जीते हैं, उन्हीं के कारण या उन्हीं के साथ मर जाते हैं। 

ट्राइब्स पवित्र जीवन जीते हैं - विचारों की खोल से मुक्त। 
©त्रिभुवन सिंह

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