Tuesday 10 August 2021

शास्त्र प्रज्ञा रहित व्यक्तियों के लिए निरर्थक हैं:

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा तस्य शास्त्रम किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पनम् किम् करिष्यति।। 

अब कोई बतावे कि #प्रज्ञा क्या बला है? 

क्योंकि शास्त्रों का अर्थ तो हम अपनी मन और बुद्द्धि के अनुसार ही समझते हैं। 
भगवतगीता एक व्यक्तिगत डायलाग है दो व्यक्तियों के बीच। आज की तिथि में हम उसे कहेंगे - privileged communication. 
लेकिन उसकी व्याख्या किंतने लोगों ने किया है? 
जितनों ने भी किया है सबने अपने मन के अनुसार ही किया है। अपने ही अर्थ निकाले हैं उनमें। कोई यह नहीं कह सकता कि जो उसका अर्थ समझ रहा है कृश्नः ने ठीक वही अर्थ अर्जुन को भी समझाया था। 

आइए समझते हैं कि प्रज्ञा क्या बला है? 

ह्यूमन सॉफ्टवेयर के चार एप्प्स हैं - मन अहंकार बुद्द्धि और चित्त।
मन क्या है?
संग्रह है यादों का। और भी बहुत कुछ है मन। लेकिन यहाँ यही समझना उचित होगा। 
अहंकार क्या है? जो भी हम अपने आपको समझते हैं वही है अहंकार। या जिस जिस भाव और विचारों से हम अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं वही है अहंकार। 
फिर आती है बुद्द्धि। बुद्द्धि भेदभाव मय अप्प है। यह भेदभाव के माध्यम से निर्णय लेती है। Intellect works by discrimination. इसका अर्थ क्या हुवा? इसका अर्थ हुवा कि बुद्द्धि तय करती है कि रात है या दिन। बुद्द्धि तय करती है कि हमें दरवाजे से निकलना चाहिए। वरना हम दीवार से भी निकलने का प्रयास कर सकते हैं और अपना सर फोड़ सकते हैं। 
इंद्रियां अर्थात सेंस ऑर्गन - सूचनाएं एकत्रित करके मन को देते हैं। मन अपने पूर्व स्मृति और अनुभवों के आधार पर उनका विश्लेषण करके उन सूचनाओं को अहंकार के पास प्रेषित करता है। कंप्यूटर के युग में इसे प्रोसेसर कहा जा सकता है। 
 अहंकार अपने  तादात्म्य के अनुसार तय करता है कि यह सूचना उसके हित में है या विरोध में है। 
अहंकार अपना निर्णय बुद्द्धि के पास भेजता है - और फिर बुद्द्धि निर्णय लेती है सूचना के पक्ष्य में या विपक्ष्य में। 
यह तो हुवा नार्मल तरीका ह्यूमन माइंड के काम करने का। 
अब प्रज्ञा क्या है? 
उस स्थिति और अवस्था को प्राप्त करना - जिसमें व्यक्ति मन अहंकार और बुद्द्धि को देख सकता है एक साक्षी या गवाह की भांति - बिना लिप्त हुए। 
इसको ऐसे समझिये - मान लीजिए आपके दो मित्र आपस में लड़ रहे हैं। आप दो काम कर सकते हैं। साक्षी की भांति, गवाह की भांति बिना उस लड़ाई झगड़े में उलझे, देख सकते हैं। या उस झगड़े में आप भी भागीदार बन सकते हैं। यदि भागीदार हुए तो फिर आप लिप्त हो गए। 

तो कवि कह रहा है कि जिसके अंदर स्वयं की प्रज्ञा न हो उसका शास्त्र क्या कर सकते हैं? भला या बुरा। ठीक उसी तरह जिस तरह एक अंधा हो और उसके सामने दर्पण रखा हो, तो दर्पण उसके किस काम का?

लेकिन शब्दों का क्या है? उनकी भी व्याख्या हर व्यक्ति अपने अनुसार कर सकता है। गांधारी धृतराष्ट्र को प्रज्ञाचक्षु के नाम से बुलाती थी। 

©त्रिभुवन सिंह