Friday 30 October 2015

साधु वेश मे रावण आया : नाम है उनका पी एम भार्गव , Romila thapar , इरफान habib

#‎गांधी‬ जी से किसी ने 1946 की आजादी की लड़ाई , स्वतन्त्रता मिलने की खुसी और बँटवारे के गम के साथ साथ जिन्ना के मार्च 1946 के ‪#‎डाइरैक्ट_एक्शन_डे‬ के ऐलान के बाद भारत की धरती पर हुये सांप्रदायिक खून खराबे को संदर्भित करते हुये , एक पत्रकार ने पूंछा कि -" आपको ऐसा नहीं लगता कि देश अगर शिक्षित होता तो शायद इस स्थिति का सामना न करना पड़ता ? "
गांधी ने पलट कर कहा - " नहीं एकदम नहीं / अगर शिक्षा और साक्षरता को पैमाना माने तो जर्मनी से ज्यादा शिक्षित जनता कहाँ की होगी जहां 60 लाख यहूदियों और 40 लाख जीपसियों को मौत के घाट उतार दिया गया / शिक्षा नहीं विवेक न्याय ज्ञान सहिष्णुता और एक दूसरे का सम्मान करने से इस स्थिति से निपटा जा सकता है / "
ये प्रश्न आज पुनः जाग्रत हो गया है जब ‪#‎PM_भार्गव‬ जैसे ‪#‎वैज्ञानिक‬ ने ‪#‎एखलाक_सिंड्रोम‬ से पीड़ित होकर भारत के राष्ट्रपति द्वारा दिया गया ‪#‎पद्म_भूषण‬ पुरस्कार लौटने की घोषणा की है /
किस बात पर ?
यूपी के दादरी कस्बे मे मरहूम एखलाक (RIP) नामक एक व्यक्ति के अपने पड़ोसी के बछड़े को चुराकर हलाल करने की प्रतिकृया मे मोब द्वारा उसकी हत्या कर दी जाती है /
इस घटना का नाम दिया गया Lynch Mob / इसके विरोध मे उन्होने पुरस्कार लौताने की घोषणा की है / विरोध को नाजायज नही ठहराया जा सकता । लेकिन हर प्रतिक्रिया के औचित्य का आकलन भी होना चाहिए।
प्रदेश सरकार और न्याय व्यवस्था शायद अपना काम कर रही हो , लेकिन इनका संवेदनशील मस्तिस्क अब उस न्याय व्यवस्था पर न भरोसा करता है , और न ही प्रदेश सरकार से कानून व्यवस्था के समवंध मे कोई प्रश्न करता है ?
PM भार्गव जी को ये ‪#‎पुरस्कार‬ कब मिला था ?
#1986 मे ‪#‎दिल्ली‬ मे ‪#‎राजीव‬ गांधी के सरकार के दौरान भारत के ‪#‎राष्ट्रपति‬ के द्वारा /
इसके ठीक दो वर्ष पूर्व 1984 मे ‪#‎इन्दिरा‬ गांधी के हत्या के बाद पूरे भारत मे और खास तौर पर दिल्ली मे, ‪#‎हजारों_सिखों‬ को सरकार के गुर्गों और गुंडों के हांथों निर्मम हत्या की गई थी , उसके विरोध में । स्वर्णमंदिर को सैनिकों के बूटों के तले रौंदवाने के कारण आक्रोश मे यदि दो सिख इन्दिरा की हत्या कर देते हैं तो उनका बदला निर्दोष हजारों सिखों के खून से लिया जाएगा ? तब क्या भार्गव जी ने विरोध जताया था ? ( नहीं जताया होगा क्योंकि उनकी फ़ाइल #पद्म_भूषण पुरस्कार के लिए मंत्रालय से राष्ट्रपति भवन के रास्ते मे रही होगी / )
#पुरस्कार लेते वक़्त आपको याद नहीं आया था ये ‪#‎कत्लेआम‬ ‪#‎भार्गव‬ जी ? तब आपकी संवेदना क्या तेल लेने चली गई थी ?
1990 के दशक मे कश्मीर से लाखों ‪#‎कश्मीरी_पंडितों‬ की बेटी और बहनों के साथ बलात्कार हुआ था , उनका कत्ल किया गया गया शरेशाम ISIS के तर्ज पर / उनको उनके पुश्तैनी घरों से खदेड़ दिया गया था , तब आपकी ‪#‎आत्मा‬ मृतप्राय हो गयी थी ?
जिस astrology को हजारों वर्षों से , यूरोप और अरब के न जाने कितने यात्रियों, अलुबेर्णी से लेकर अबदूर राजजक तक ने लिखा कि भारत मे सूर्य और चन्द्र ग्रहण की इतनी सटीक गणना यहा के पंडित पत्रा देखकर बता देते हैं कि उसमे एक सेकंड का भी हेर फेर नहीं होता है , और जिसकी प्रशंसा और समर्थन ‪#‎नोबल‬ पुरुसकार प्राप्त ‪#‎C_V_Raman‬ जैसे भारत और विश्व के रत्न कर चुके हों, उसका भी विरोध इनही #भार्गव जी ने किया था बाजपेई सरकार के दौरान ,और संभवतः आंध्र highcourt मे उसके खिलाफ मुकदमा भी किया था , यद्यपि कोर्ट ने इनके ऊपर पेनाल्टी लगाए बिना ही खारिज कर दिया था /
लिखना तो आज ‪#‎रोमिला_थापर‬ और ‪#‎इरफान_हबीब‬ पर भी था / परंतु अब कल लिखुंगा /
लेकिन ये बार स्पस्ट है कि ये वैज्ञानिक और इतिहासकार शिक्षित और विद्वान हैं अपनी विधा के लेकिन निष्पक्ष नहीं हैं /
और विद्वान तो रावण भी था / तो फिर कैसे निर्धारित हो कि इनका आकलन किस पैमाने पर किया जाय ? दो पैमाने हैं --
1- विद्या विवादाय धनम मदाय शक्ति परेशाम परपीडनाय /
खलुश्च साधोर्विपरीतम एतद ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय //
तो इन विद्वान महानुभावों के उस भाव को आमजन को पहचानना ही होगा क्योंकि इनकी विद्वता पर कोई संदेह नहीं कर सकता / सोवियत प्रेमी नेहरू ने वामपंथियोंके लिए विद्या के आगार (खजाने ) खोल दिये थे / तो विद्यार्जन कर पहले तो ये विद्वान हो गए फिर इन ‪#‎वामी_विद्वानों‬ ने एक गिरोह बनाया जो 68 साल तक एक ताकतवर रावण की तरह अधर्म और अनीति नामक मारीचो को प्रश्रय देता रहा /
लेकिन आप ये निर्णय स्वयम करें कि ये विद्वान विद्या का उपयोग ‪#‎विवाद‬ पैदा करने के लिए कर रहे हैं कि ज्ञान देने के लिए ?
2- साधु वेश मे रावण आया /
दूसरी बात सीता का हरण करने महाप्रतापी ‪#‎रावण‬ भी साधु का वेश धारण करके आया था / अतः इन साधु और विद्वानों की नीति आउर नीयत दोनों का विश्लेषण हर भारतवासी करे/

Wednesday 28 October 2015

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : #‎HOOK_SWINGING_CONTROVERSIES‬ : missionaries and ...

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : #‎HOOK_SWINGING_CONTROVERSIES‬ : missionaries and ...:   #‎ HOOK_SWINGING_CONTROVERSIES‬ : FROM "CASTES OF MINDS " BY NICHOLAS B DIRKS Chapter:8 Policing of Tradition इस पोस्ट को ...

#‎HOOK_SWINGING_CONTROVERSIES‬ : missionaries and British administration hand and gloves to abolish Indian Tradition


  #‎HOOK_SWINGING_CONTROVERSIES‬ : FROM "CASTES OF MINDS " BY NICHOLAS B DIRKS
Chapter:8 Policing of Tradition
इस पोस्ट को समझने के लिए कुछ मुख्य तथ्यों को समझें /
‪#‎इसाइयत‬ की बाइबल के अनुसार जब गोद ने एडम और ईव को धरती पर भेजा और उनसे ज्ञान के फल को खाने के लिये मना किया / इसके बावजूद जब सांप के बहकावे मे आकार ईव ने ‪#‎ज्ञान‬ का फल खा लिया तो उनकी चेतना जाग्रत हुयी और उन्होने वृक्षों के पत्तों से अपने शरीर को ढँक लिया / God ने जब यह जाना कि इनहोने उसकी हुकमुदूली की है तो श्राप दिया कि ' तुम दोनों (स्त्री पुरुष) के संयोग से जो भी संताने पैदा होगी वो पैदाशी पापी होंगी /
इसीलिए जीसस को Virgin Mary के कोख से जन्म लेना पड़ा , अन्यतः वो भी एक सामनी ईसाई की तरह पापी होते /
जीसस के क्रॉस पर लटकाकर हत्या किए जाने को ईसाई धर्मगुरु कहते हैं कि god के श्राप के कारण मनुष्यों के पाइडयशी पाप को हरण करने हेतु जीसस ने क्रॉस पर पीड़ा या कष्ट को भोगा था / अब जो भी व्यक्ति जीसस मे अपनी अष्ठा प्रकट करेगा और उनमी शरण मे जाएगा उसको मनुष्य योनि मे जन्म लेने के पाप से मुक्ति मिलेगी / इसीलिए सभी मनुष्यों को ये ईसाई बनाना चाहते हैं /
1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के बाद रानी विक्टोरिया ने घोषणा की कि ' भारत के किसी भी धर्म संबंधी रीति रिवाज मे ब्रिटिश शासन दखल नहीं देगा " / लेकिन भारत के लोगों पर यदि शासन करना है , और उनसे टैक्स वसूलना है , और ईसाई मिशनरियों के साथ ‪#‎धर्म‬ परिवर्तन कि शजिश करनी है , तो भारत के रीति रिवाज और ग्रन्थों का अदध्ययन और उनका अपने हित मे तोड़ मरोड़कर व्याख्या आवश्यक है /
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1891 मे ‪#‎मद्रास‬ मेल मे एक नाटकीय खबर छपी कि " मदुरा के निकट शोलावंदन मे हुक स्विंगिंग नामक एक बर्बर और असभ्य रिवाज जन्म ले रहा है जिसके द्वारा लोग इंद्रा देवता को बारिश के लिए प्रसन्न करने हेतु करते हैं " / ( 1900 मे भारत की जीडीपी 25 % से घटकर मात्र 2% बची थी , और 1875 से 1900 के बीच 2 करोड़ लोग भूख और अकाल से मर गए थे )
यद्यपि अखबारो मे छपी खबरों के हिसाब से ये प्रथा 1850 से पहले से भी पुरानी है / शिवराम ऐयर नामक एक ब्रामहन विद्वान के अनुसार -" ये एक प्रकार का ‪#‎हठयोग‬ साधना थी जिसको न जाने कबसे अभ्यास किया जाता था /" इस प्रक्रिया मे लोगों के पीठ की मांसपेशियो मे विशेष प्रकार से दो हुक फसाया जाता था जिसमे रस्सी के द्वारा उस व्यक्ति को 20 फीट के ऊपरा से ज्यादा ले जाकर झूला झूलना होता था /
1892 मे शोलावंदन के जिला मजिसट्रते ने रिपोर्ट किया कि ‪#‎कल्लन‬ नामक व्यक्ति ने 5000 लोगों कि भीड़ के सामने ये इस काला का प्रदर्शन किया , जिसने खुद बताया कि न तो उसे दर्द हुआ और न ही उसके घाव से ब्लीडिंग हुयी , यद्यपि हुक के लिए बनाए गए सूराखों मे एक उंगली प्रवेश कर सकती थी / डॉ फ्रैंक वां एलेन MD ने खुद इस घटना की रिपोर्ट किया कि - एक डॉ की हैसियत से मुझे आश्चर्य है कि इस व्यक्ति पर इस घटना का का कोई भी दुसप्रभाव नहीं हुआ / एक साधारण व्यक्ति के लिए ये जानलेवा हो सकती थी '/
इस समारोह मे समाज का हर तबका भाग लेता था /
ईसाई मिशनरियों को इस समराओह से सख्त ऐतराज था जिसको वो समय समय पर बार्बर और असभ्य और अमानवीय रिवाज ठहराते थे /
इसमे पेंच क्या था ?
पेंच ये था कि ये लोकप्रिय खेल उनके इसाइयत के प्रचार मे बड़ी बाधा और कॉम्पटिशन थी /
कैसे ?
ये जीसस जैसे प्रॉफ़ेट के उस क्रॉस पर लटकने को एक चुनौती देता था जिस पर ईसाई धर्मगुरुओं का ये दावा था (और है भी ) कि जीसस ने मनुष्यों को उनके पैदा होने के पाप से मुक्ति दिलाने के लिए अपनी जान सूली पर लटकाया था / और यहाँ एक आम हिंदुस्तानिन सूली पर लटककर झूला झूल ले रहा है , और उसके घाव से एक बूंद रक्त भी नहीं निकाल रहा है ?
ईसाई मिस्सीओनरियों ने लगातार प्रशासन पर इस प्रथा का अंत करने के लिए कनून बनाने के लिय दबाव डाला लेकिन प्रशासन की हिम्मत कभी इसके खिलाफ कोई कानून बनाने कि हुयी नहीं /
उन्होने ने यहा तक भ्रम फैलाया कि मंदिर के पुजारी इस धार्मिक अनुष्ठान से धन कमाते थे /
Miller
अंत मे 1894 मे मदुरै के जिला मजिस्टरटे एल सी मिल्लर ने अपने एकाधिकार का प्रयोग करते हुये इस शोलावंदन के इस सालाना धार्मिक अनुष्ठान पर रोक लगा दी / जिसका लोकल निवासियोइन ने जमकर प्रतिरोध किया , जिनमे ब्रामहानस (ऐयर ) मुदलियार पिल्लई ,कललर्स मरवार वालईयार , पेरियार और पललर , सभी वर्गों के लोग शामिल थे / इसके खिलाफ मुकदमा दाखिल किया गया जिसका ईसाई मिशनरियों ने विरोध किया /
अंत मे धारा 144 (सीपीसी ? ) के तहत बहुत ही आधारहीन तथ्यों के आधार पर ‪#‎हूक्स्विंगिंग‬ को बंद करवा दिया गया / "
ये तो है इतिहास ‪#‎रेलीजन‬ के अनुयाइयों का , जो आज भी ‪#‎चंगाई‬ करवाकर मरीजों का इलाज करते हैं , और सच्चे धर्म मे आने के लिए ( इसाइयत मे ) साम दाम दंड भेद सबका प्रयोग कर रहे हैं पूरी दुनिया मे /
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1034085179959717&set=gm.871081626345474&type=3













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Tuesday 27 October 2015

अमेरिका के affirmative Action और भारत के ‪#‎रिज़र्वेशन की पृस्तिभूमि और रूपरेखा क्या एक जैसी ही है ?


क्या आरक्षण पिछड़े वर्ग के लिए उपयोगी साबित हुआ है ? ६५+ साल में पिछड़े वर्ग के लोग आज भी उतने ही पिछड़े हैं. अमेरिका के free मार्केट इकॉनमी के सबसे बड़े इकोनॉमिस्ट का यह कहना है की आरक्षण ही सबसे बड़ी बाधा है उनके उत्कर्ष में। जब milton freedman से यह पुछा गया तो उन्होंने यही जवाब दिया। affirmative action keeps minority poor and backwards . उन्ही के शब्दों में - Sunil Saxena
--- मेरा प्रश्न ये है कि क्या अमेरिका मे कभी बाइबल से ‪#‎मान्यताप्राप्त‬ Slavery के कारण काले अफ्रीकन को ऊपर लाने के लिए ,1960 के बाद दिया जाने वाला affirmative Action ; और भारत मे गोरों द्वारा उजाड़े गए एक्सपोर्ट क्वालिटी मटिरियल के निर्माता उद्योग उद्यमियों को दिया जाने वाला ‪#‎रिज़र्वेशन‬ , एक ही कैटेगरी मे आएगा
और क्या उन दोनों मे कोई समानता है ?
अम्बा शंकर वाजपेयी
Ravindra Singh Basera Dev
प्रश्न जटिल है / कमेंट भी सोच समझकर कीजिएगा / क्योंकि अम्रीका के affirmative action और भारत के #रिज़र्वेशन की पृष्ठीभूमि और तरीका दोनों बहुत फर्क है / अभी जेएनयू मे जब @Rajeev Malhotra और उदितराज के साथ फ़रवरी 1015 मे सेमिनार हुआ था तो उदितराज ने अमेरीकन मोडेल को भारत मे लागू करने की बात की थी / लेकिन उनको जब तथ्यों का ज्ञान होगा तो उनके हांथ के टोंटे उद जाएँगे /
 Milton Friedman- Why Affirmative Action is bad♥
Milton Friedman economic views. Capitalism is based on being efficient and open to anyone so favoritism and Inequality beneficiary do not work as it should b..

https://www.youtube.com/watch?v=40eB_6o8Uws

Friday 23 October 2015

मैं हूँ ‪#‎मुसहर‬ तू ‪#‎मुस्बिल्ला‬ : साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों को समर्पित

मैं हूँ ‪#‎मुसहर‬ तू ‪#‎मुस्बिल्ला‬ //
‪#‎एखलाक‬ अल्लाह #एखलाक अल्लाह //
‪#‎अखलाक‬ ‪#‎सिंड्रोम‬ से पीड़ित सरकार के कृपा से ‪#‎पुरस्कार_लभते‬ वामियों , जामियों , और ‪#‎अल_तकियों‬ मे साहित्य अकादेमी या उस तरह के साहित्य रचना के एवज मे कब्जा किए पुरस्कारो को लौटाने की जो भगदड मची है , उसको देखकर आज मुझे अपना बचपन याद आ गया /
बचपन मे मुझे याद है कि गेहूँ की फसल काटने के बाद जब धान की रोपाई का समय आता था तो उनही खेतों को पहले पानी से सींचा जाता था , जिससे कि धान कि रोपाई के लिए खेत को तैयार किया जा सके /
गेहूं के फसल के दौरान ‪#‎चूहे‬ गेहूं की बालियों को काटकर , खेत के अंदर ही बिल बनाकर, उसमे उन बालियों को इकट्ठा कर लेते थे , और मौज से गर्मी मे जमीन के अंदर जीवन व्यतीत करते थे / चूहों के इस नवनिर्मित बिलों मे रहने वाले चूहों को हम लोग #मुस्बिल्ला कहते थे /
लेकिन जब धान की रोपाई के पूर्व उन खेतों की पानी से सिचाई होती थी , तो यह उन मुसबिल्लो के लिए प्रलयकाल का समय होता था / जैसे जैसे पानी इनके बिलों मे भरने लगता था , वैसे वैसे वे चूहे / मुसबिल्ले अपने बिलों को छोडकर खेत के बाहर जान बचाने के लिए भागने लगते थे / खेतों के मेडो पर हम बालकों की फौज हांथ मे बेहया का डनडा लेकर उनका इंतजार करते थे , और जैसे ही कोई मुस्बिल्ला नजदीक आता था उसका काम तमाम कर देते थे / हमारे साथ ही होते थे घर के पालतू कूकूर , जो उस दिन नोनवेज पार्टी करते थे उन मुसबिल्लो का /
तो भैया यही हाल हो गया है इन ‪#‎सेकुलर‬ साहित्यकारों का , कि कैसे जान बचाकर शीघ्र से शीघ्र शहीदों मे अपना नाम लिखाया जाय /
शुरू किया था ‪#‎उदय_प्रकाश‬ ने एक झूंठी कथा लिखकर , कि उनको लोगों ने गरियाया था ( कट्टर हिंदुओं ने ) , लेकिन एफ़आईआर दर्ज न कराई पट्ठे ने / अब बड़े कहानीकार हैं तो एक कथा गढ़ना उनके बाएँ हांथ का खेल था / खैर ॥
फिर शुरू हुआ मुसबिल्लों का बाहर नुकलने का दौर / 100 से ज्यादा बाहर आ चुके हैं , हमारी अपेकषा 1000 मुसबीललों के बाहर आने की है /
आओ , बचचू , बाहर आओ , हम मुसहर लोग मेड पर खड़े हैं बेहया का डनडा लेकर तुम्हारी बेहयाई का इलाज करने के लिए /
सेकुलर मुसबिल्लों सो गए हो तो कोई बात नहीं , लेकिन कल सुबह जल्दी जग जाना / आजकल अखिलेश सरकार 4 बजे सुबह बिजली देती है , और बिजली आते ही खेत मे पानी भरना शरु हो जाएगा / बाद मे ये न बोलना कि चेतवानी नहीं दी थी मौसम विभाग ने कि ‪#‎सुनामी‬ आने वाली है, नही तों हम शहीद होने से बच जाते /
‪#‎जागते_रहो‬ //

Thursday 22 October 2015

क्या #धर्म ‪#‎मजहब‬ और ‪#‎रिलिजन‬ के एक ही मायने होते हैं ?

#‎धर्म‬ की ‪#‎अधर्म‬ के ऊपर विजय के उपलक्ष्य मे त्रेता युग से ( 6, 000 वर्ष पूर्व ) आज तक निरंतर मनाए जाने वाले ‪#‎विजय_दशमी‬ की सभी भारतवासियों को शुभ कामनाए / https://hi.wikipedia.org/wiki/हिन्दू_काल_गणना
अब प्रश्न ये है कि #धर्म क्या है ?
"इति धारयति सः धर्मः" /
अर्थात जो धारण किया जाय वही धर्म है /
तो जिन ‪#‎गुणों‬ को जीवन मे धारण किया जाय , जो धर्म को परिभासित करते हैं , वे क्या हैं और उनके लक्षण क्या हैं ? तो धर्म के 10 लक्षण होते हैं जिनको धरण करने को ही धर्म कहते है /
क्या हैं वो 10 लक्षण ?
‪#‎धर्म_के_10_लक्षण‬
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.धर्म के 10 लक्षण हैं यानि 10 अंग है । उनको जीवन में प्राप्त करना और उसको व्यक्ति के चरित्र का अंग बनाना यानि धारण करना ही धर्म है।
" धृति क्षमा दमोस्तेय च सौच इन्द्रियनिग्रह ।
धी विद्या सत्य अक्रोधम दसकं धर्म लक्षणं ।।
1. धृति = धैर्य
2. क्षमा = करने की क्षमता प्राप्त करना
3. दम = कर्मेंन्द्रियों का दमन
4. स्तेय = चोरी न करना
5. सौच = मनसा वाचा कर्मणा व् शरीर को स्वच्छ रखना
6.धी = बुद्धि विवेक
7. इन्द्रियनिग्रह = ज्ञानेन्द्रियों पर नियंत्रण
8. विद्या
9. सत्य
10. अक्रोधम = क्रोध पर नियंत्रण रखना।
ये तो हुवा धर्म । लेकिन आम भारतीय कहता है कि सारे धर्म एक ही शिक्षा देते हैं / तो क्या इसमे कोई सच्चाई है ? या ये भी ‪#‎इसाइ‬ ‪#‎इस्लामिक‬ और ‪#‎वामपंथियों‬ का बिछाया हुआ माया जाल है ?

तो क्या #धर्म ‪#‎मजहब‬ और ‪#‎रिलिजन‬ के एक ही मायने होते हैं ?? आइये समझते है , आधुनिक ‪#‎विश्वामित्र_Rajiv‬ Malhotra के ब्लॉग से कि आखिर इन तीनों मे फर्क क्या है ?
#धर्म और ‪#‎Religion‬ में क्या अंतर है।।
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धर्म के अनेक अर्थ हैं जो इस बात पर निर्भर करता है कि किस सन्दर्भ में उसका प्रयोग किया जा रहा है।मोनियर - विलिएम की संस्कृत शब्दकोष के अनुसार इसके अनेक अर्थ हैं जिसमे conduct कर्तव्य अधिकार न्याय गुण नैतिकता ; धर्म के लक्षण , किसी नियम के तहत किया गया सद्कर्म । इसके और भी अर्थ सुझये गए हैं जैसे Law कानून या टोरा ( यहूदी) लोगो (ग्रीक) way / रास्ता (ईसाई) या यहाँ तक की ताओ (चीनी) ।
इनमे से कोई भी शब्द पूरी तरह से समर्थ नहीं है जो संस्कृत शब्द "धर्म" को सच्चे अर्थों में परिभाषित कर सके।पश्चिमी लेक्सिकन में धर्म का समानार्थी कोई शब्द ही नहीं है।
धर्म संस्कृत के धृ धातु से बना है जिसका अर्थ है " जो धारण करता हो ; या जिसके विना किसी वस्तु का कोई अस्तित्व संभव नहीं है। या जो ब्रम्हांड के harmony और स्टेबिलिटी को मेन्टेन रखता है। " धर्म के अंतर्गत कर्तव्य , नियमावली , सदशीलता गुड़ और नीतिशष्ट्र जैसे तमाम चीजों के प्राकृतिक और नैसर्गिक आचरण आते हैं । ब्रम्हांड के प्रत्येक इकाई का एक व्यक्तिगत धर्म होता है - एक इलेक्ट्रान, जिसका धर्म एक निश्चित दिशा में घूमना है , से लेकर बादल गैलक्सी पेड़ पौधे कीट पतंगे और मनुष्य सबका। मनुष्य के निर्जीव वस्तुओं के धर्म को समझने को ही हम भौतकी या फिजिक्स कहते हैं ।
ब्रिटिश उपनिवेशकारों ने रिलिजन के विचारों के आधार पर धर्म को समझने और समझाने (mapping) करने की कोशिस की जिससे वे भारतवासियों को समविसट कर सकें और उनको शासित कर सकें : उसके बाद भी धर्म की अवधारणा क्षदमवेशी (Elusive) ही रही।धर्म का रिलिजन में अनुवाद एक भ्रामक तथ्य है ; क्योंकि पश्चिमवासियों के अनुसार एक सच्चे रिलिजन के निम्नलिखित अनिवार्य अंग होते हैं :
(1) ये एक हु बहू परिभाषित ऐतिहासिक घटना पर आधारित God द्वारा प्रदत्त एक क़ानूनी किताब पर आधारित हैं ।
(2) एक ऐसी दैवीय शक्ति की प्रार्थना होनी चाहिए जो हमसे और ब्रम्हांड से अलग हो।
(3) किसी मानवीय संस्था से संचालित होनी चाहिए / जैसे चर्च :
(4) जिसमे औपचारिक सदस्य हों
(5) जो नियुक्त पुरोहित / पादरी द्वारा संचालित होना चाहिए।
(6) एक तयशुदा अनुष्ठानपन का ही पालन किया काना चाहिए।
लेकिन #धर्म किसी विशेष् स्वीकृत मत / मजहब या किसी विशेष पूजविधो से बंधा नहीं होता। किसी पश्चिम वासी के लिए "नास्तिक वृत्ति का ( Atheistic) religion " अपने आपमे एक विरोधाभाषी शब्द है। लेकिन बुद्धिज़्म जैनिज़्म और चार्वाक धर्म में किसी परंपरागत ईश्वर का कोई स्थान नहिं है ;कुछ हिन्दू विधाओं में तो ईश्वर के अस्तित्व पर ही विवाद है ; और न ही किसी एकमात्र देवता की पूजा की जाती है , और व्यक्ति अपने इष्टदेवता का चयन करने को स्वतंत्र है।
#धर्म जीवन के हर पहलु के सामञ्जस्यपूर्ण पूर्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन करता है ; जैसे अर्थ काम और मोक्ष।अतः रिलिजन धर्म के विस्तृत एवरूप का मात्र एक हिस्सा (subset) भर है।
रिलिजन सिर्फ मनुष्य मात्र पर लागू होता है ,पूरे ब्रम्हांड पर नहीं ; इलेक्ट्रान बन्दर पौधों और गैलक्सी का कोई रिलिजन नहीं है , जबकि इन सबका अपना अपना धर्म है चाहे वे उसका पालन निरुद्देश्य ही क्यों न करते हों ।
चूँकि मानवता का सार उसके देवत्व (divinity) में है ; इसलिए सब अपने #धर्म को व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर , बिना बाहरी हस्तक्षेप के या इतिहास का सहारा लिए बिना भी जान सकते हैं । पाश्चात्य religions में एकमात्र संगठित केंद्रीय सत्ता है जो ऊपर से ( नियम /कानूनों) को प्रकट करती है और शासित करती है।
धार्मिक परम्पराओं में अधर्म का अर्थ मनुष्य को अपने दयित्वों को सही तरीके से न निभा पाने के अर्थों में लिया जाता है ; इसका अर्थ ये कत्तई नहीं होता कि एक मान्यताप्राप्त विश्वास के प्रस्ताव को अस्वीकार करना , या फिर तयशुदा कानूनों (Commandments/ Canaons) का उल्लंघन करना।
#धर्म का अनुवाद प्रायः 'विधि' (Law) में भी किया जाता है , लेकिन अगर यह विधि है तो इसके कुछ तयशुदा विधान/ नियम भी होने चाहिए :
(1) इसको एक अथॉरिटी द्वारा प्रख्यायित (promulgated) और निर्णीत (डिक्री) किया जाना चाहिए , जिसकी एक निर्धारित क्षेत्र में सार्वभौमिक राजनैतिक सत्ता स्थापित हो।
(2) ये अनिवार्य और बाध्यकारी होना चाहिए
(3) किसी कोर्ट द्वारा व्याख्या निर्णय और बलपूर्वक क्रियान्वयन होने की व्यवस्था भी होनी चाहिए
(4) इन विधानों को भंग करने पर सजा/पेनाल्टी होनी चाहिए।
लेकिन धर्म की परम्परा में ऐसा कोई व्याख्या उपलब्ध नही है।
रोमन सम्राट कांस्टिन्टिने ने धर्मविधान (canon laws) के सिस्टम की शुरुवात की जिसका निर्धारण और बलपूर्वक क्रियान्वयन चर्च किया करता था। यहूदी ईश्वर का आधारभूत स्रोत इज़राइल का ईश्वर (God) था। पश्चिमी रेलिजन इस बात से सहमति जाहिर करते हैं कि ईश्वर के विधानों (Laws ऑफ़ God ) का पालन अवश्य होना चाहिए क्योंकि ये सार्वभौमिक सत्ता का ईश्वरीय आदेश है। इसलिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण (critical) हो जाता है कि झूठे ईश्वरों (false Gods) की निंदा/ भर्त्सना किया जाय और उनको पराजित किया जाय; क्योंकि वे सच्चे विधि (true laws) को कमजोर करने के लिए नकली (illigitimate) आदेश पारित कर सकते हैं ।और यदि कई ईश्वरों (dieties) के अस्तित्व को स्वीकार किया गया तो ये निर्णय लेने में भ्रम की स्थिति पैदा होगी कि सच्चा विधि/विधान कौन सा है।
वहीँ दूसरी तरफ (धर्म में ) ऐसे किसी भी सार्वभौमिक सत्ता का रिकॉर्ड / जिक्र नहीं है जो किसी क्षेत्र विशेष में या विशेष समयकाल मे, बिभिन्न धर्म -शास्त्रो (Texrs of Dharma for society) को व्याख्यायित करता हो , और न ही ऐसा कोई दावा कि ईश्वर ने उन सामाजिक विधानों (शाश्त्रो) के रहस्य को स्वयं बताया (revealed) हो, या फिर किसी शासक द्वारा उनका पालन करवाया जाना बाध्यकारी हो । सामजिक विधानों के किसी भी धर्म शाश्त्र के रचयिता को किसी भी राजा द्वारा नियुक्त नहीं किया गया था , और न ही उन्होंने कानून प्रवर्तक (Law Enforcer) की भूमिका में किसी (राजसत्ता ) को अपनी सेवाएं अर्पित की थी , या कभी भी किसी राजसत्ता के किसी भी रूप में कोई अंग रहे थे । वे आधुनिक काल के विधि वेत्ता (Jurists) के बजाय आज के सामजिक विज्ञानियों के समतुल्य थे।प्रसिद्द याज्ञवल्क स्मृति की रचना एक तपस्वी द्वारा सुदूर अभ्यारण्य में किया गया था।प्रसिद्द मनुस्मृति की रचना मनु के आश्रम में की गयी थी जिसकी शुरुवात में ही वे बताया गया है कि , उन्होंने समाधिस्त अवस्था में पूंछे गए प्रश्नो का उत्तर दिया था।मनु (1-82) में वे ऋषियों को बताते हैं कि हर युग का अपना अलग विशिष्ट सामाजिक और व्याहारिक धर्म होता है ।
धर्मशाष्ट्र किसी भी नियम को बलपूर्वक बाध्यकारी नहीं बनाते ; बल्कि एक प्रचलित परिपाटी का वर्णन भर करते हैं।कई परम्परागत स्मृतियाँ (Codified Social Dharma ) किसी वर्गविशेष (community) की प्रचलित स्थानीय रीतिरिवाज का ही वर्णन करती हैं ।( इनमे अन्तर्निहित ) महत्वपूर्ण सिद्धांत ये था कि वर्गविशेष के अंदर से ही आत्मनियंत्रण और अनुशासन को स्थापित करना। स्मतीतियों ने धर्मोपदेशक के आसन पर बैठकर कोई रूढ़िवादी विचार न लादने का दावा करती थी , न करती हैं ; जब तक कि 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश उपनिवेशी शासकों ने , स्मृतियों की जगह सत्ताधारी शासकों द्वारा बनाये गए कानूनों को बाध्यकारी बनाया।
धर्म की महिमा गिराकर उसका रिलिजन और विधि के कांसेप्ट से तुलना करने नुकसानदायक परिणाम हुए हैं : धर्म के अध्ययन को पश्चिम के चश्मे से पढ़ा जाने लगा है , जो इसको इसके खुद के स्थापित प्रतिमानों से बहुत दूर ले जाकर खड़ा करता है।
इसके अतिरिक्त ये धर्म के बारे में एक गलत अवधारणा पैदा करता है कि धर्म , विधिनियमक चर्चों , जो सत्तासंघर्ष में शामिल है , उसी के समतुल्य है।
भारत में धर्म की रिलिजन से तुलना एक अनर्थकारी कार्य सिद्ध हुवा है; ‪#‎सेकुलरिज्म‬ के नाम पर धर्म को उन्ही बंधनों में जकङ दिया गया है , जैसे ईसाइयत को यूरोप में ।
एक Non Religious समाज भी ईश्वर में आश्था न रखने के बावजूद भी अपनी नैतिकता को बचाकर रख सकता है ;लेकिन एक अ-धार्मिक समाज अपनी नैतिक दिसा खो बैठता है और भ्रस्टाचार और अधोपतन की खाई में गिर जाता है ।
नोट- अनुवाद है राजीव मल्होत्रा के इस लेख का।
लेख थोड़ा लंबा है / परंतु पढ़ें अवश्य / और शेयर न करें / कॉपी और पेस्ट करें /
प्राचीन हिन्दू खगोलीय और पौराणिक पाठ्यों में वर्णित समय चक्र आश्चर्यजनक रूप से एक समान हैं। प्राचीन भारतीय भार और मापन पद्धतियां, अभी भी प्रयोग में हैं (मुख्यतः हिन्दू और जैन धर्म के धार्मिक उद्देश्यों में)। यह सभी सुरत शब्द योग में भी पढ़ाई जातीं हैं। इसके साथ साथ ही हिन्दू ग्रन्थों मॆं लम्बाई, भार…
hi.wikipedia.org

Destruction of Indian Economy and its impact on Modern Indian society . Part 1

Tuesday 20 October 2015

किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके ‪#‎मनसा_वाचा_कर्मणा‬ से ही की जाती है ।

किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके ‪#‎मनसा_वाचा_कर्मणा‬ से ही की जाती है ।
यानि जो उस व्यक्ति के मन में हो , वही बात उसकी वाणी में भी मुखर होनी चाहिए ; और जो बात उसकी वाणी में मुखर हो रही हो , उसके कर्म में भी वही परिलक्षित होनी चाहिए ।
इस सिद्धांत का न पालन करने वाले व्यक्ति को पहचानना जरूरी होता है । इन्ही को ‪#‎कुटिल_खलु_कामी‬ भी कहते हैं ।इन पर कड़ी निगाह रखनी चाहिए -क्योंकि रावण यदि अक्षम हो तो साधू वेश में आता है ।
" साधू वेश में रावण आया "

इनको अवश्य पहचानें ।वरना वो आपकी पीठ में छुरा भौंकेंगे ।
एक और विशेषता होती है इनकी - ये बहुत मधुर भाषी होते हैं विनयशील होते हैं । लेकिन वहां भी एक लोचा है -" अति विनयी चौरस्य लक्षणन "
अर्थात अति विनयशील चोर हो सकता है ।
आम भाषा में जो मनसा वाचा कर्मणा एक न हो उसको ‪#‎दो_गला‬ कहते हैं ।
यानि डबल स्पीक = आपके सामने कुछ और ,लेकिन आपके पीछे कुछ और ।
तो ‪#‎दो_गलो_से_सावधान‬
They are like green serpent in green grass.

Saturday 17 October 2015

ये एक पत्र है राष्ट्रपति जी के लिए जिसको तैयार किया है ‪#‎एखलाक_सिंड्रोम‬ से पीड़ित पुरस्कृत साहित्यकार कि ‪#‎कूट_पुरुष‬ की गैंग ने ।


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ये एक पत्र है राष्ट्रपति जी के लिए जिसको तैयार किया है
‪#‎एखलाक_सिंड्रोम‬ से पीड़ित पुरस्कृत साहित्यकार कि ‪#‎कूट_पुरुष‬ की गैंग ने ।
‪#‎अँधा_बांटे_रेवाणी_फिर_फिर_खुद_को_देय‬ ब्रांड अकादमी साहित्य पुरस्कार प्राप्त करने और प्रदान करने वालों द्वारा, राष्ट्रपति महोदय को दी जाने वाली विरह वेदना से भरपूर अति संवेदनशील पत्र की ये स्क्रीन शॉट है ।
तर्क है कांग्रेस सर्कार के कार्यकाल में श्री दाभोलकर की हत्या और बाद में कुछ दिन पूर्व कुलवर्गी की हुयी हत्या के लिए हिन्दू संगठन जिम्मेदार हैं ।
प्रमाण ?
आपकी ये औकात ? ‪#‎मरकस_बाबा‬ के चेले हैं हम । हम ब्रम्हवाक्य के सिवा कुछ उवाचते ही नहीं ।
लेकिन सबसे बड़े बामपंथी डॉ नामवर सिंह ने तो कहा कि ये ड्रामा रचने वाले पुरस्कृत लोग सुर्ख़ियों में जगह पाने के लिए कर रहे हैं ।
तो असलियत क्या है ?
दाभोलकर और कुलबर्गी को मीडिया ने जज और जूरी बनकर हिन्दू संगठनो को हत्यारा साबित कर दिया था।
लेकिन दाभोलकर के केस में CBI और NIA ने अब तक यही कहा है कि मीडिया का निर्णय संभावनाओं से भी बहुत दूर की कौड़ी है ।
कुलबर्गी के मामले में CBI ने प्रॉपर्टी के विवाद की संभावना व्यक्ति की है ।
फ़िलहाल दोनों केस में कोर्ट का निर्णय बाकी है ।
‪#‎बछड़ा_चोर‬ और उसको हलाल करके पैसा कमाने वाला अखिलेश सर्कार की गैरजिम्मेदारी से मारा गया जिसकी क्षतपूर्ति उसने जनता के टैक्स का 45 लाख रुपया देकर भरपाई किया । बाकि अब पुलिस और कोर्ट देखेगी ।
अब कुछ असहज प्रश्न :
1- एकेडमी का पुरस्कार आपको मिला कि आपकी रचना को ? और मिला तो किस कारण से ? साहित्य रचना के लिए कि राजनीति के लिए ?
2- इसके पहले 84 में सिखों की कांग्रेस सर्कार के शह पर खुलेआम हत्या की गयी ,जिसको PM राजीव गांधी ने निहायत ही घटिया और जलील बयान दिया था कि - एक विशाल वृक्ष गिरेगा तो छिटपुट घटनाएं होंगी ही । उस समय आपकी आत्मा क्या गाँजा पी के सो रही थी ?
3- गोधरा और गुजरात , भोपाल गैसकांड हुवा था ।तब क्या आप अचेतन थे ?
4-बोम्बे ब्लास्ट हुवा ,अक्षयधाम मन्दिर हुवा तब आप किसी मदिरालय में मदिरा पीकर धुत थे ?
नहीं ऐसा कुछ भी नहीं हुवा ?
तो अचानक सबके इस ‪#‎प्रसव_पीड़ा‬ का राज क्या है ?

Thursday 15 October 2015

ब्रिटिश पार्लियामेंट का Calico Act और गांधी का स्वदेशी: कहाँ गायब हो गए भारत के रंगरेज और छिप्पीगर ?

ब्रिटिश पार्लियामेंट का Calico Act और गांधी का स्वदेशी: कहाँ गायब हो गए भारत के रंगरेज और छिप्पीगर ?
------------------------------------------------------------------ कल मैंने एक प्रश्न पूंछा था कि स्वदेशी का अर्थ क्या है- भगवा , वामपंथ या फितूर / 

लोगों ने अपने हिसाब से जबाव दिया किसी ने कहा कि - भगवा है , किसी ने कहा इसका संबंध देश की अर्थ व्यवस्था से है , और किसी ने कहा कि ये फितूर है / 
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गांधी के स्वदेशी आंदोलन को आप खाड़ी चरखा और स्वदेशी शिक्षा व्यवस्था आदि से जोड़ कर देखते हैं http://www.gandhiashramsevagram.org/…/meaning-of-swadeshi.p…
लेकिन इसके भी पूर्व स्वदेशी आंदोलन और कानून ब्रिटेन ने बनाए थे calico act के नाम से 1700 एडी मे / लेकिन गांधी का स्वदेशी आंदोलन एक तरह से उनका ब्रिटेन के इतिहास से लिया गया था / मियां की जूती मियां के सिर /
क्यों ? और कैसे ?
क्योंकि ब्रिटेन और यूरोपियन जब भारत मे आए थे तो उनके यहाँ का मुख्य व्यवसाय ‪#‎ऊन_के‬ कपड़ों का था बाद मे थोड़ा बहुत सिल्क के कपड़ो का उत्पादन करते थे / 2012 का ये एक रिसर्च पेपर है https://www.google.co.in/url…
जिसको यदि चाहे तो विस्तार से पढ़ें / वर्ण मैं संछेप मे लिखता हूँ / ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों ने जब भारत से सूती छींट और चटकदार प्रिंटेड कपड़े ब्रिटेन मे ले जाकर यूरोप अफ्रीका और अम्रीका मे बेंचना शुरू किया तो यह कपड़े वहाँ बहुत लोकप्रिय होने लगे / जिसका असर वहाँ के ऊनी कपड़ों के उत्पादन को प्रभावित करने लगा क्योंकि ये कपड़े उनको बहुत सस्ते दाम पर मिलते थे , जिसको वो ऊंचे दाम पर बेंचते थे / इन कपड़ों को colicos के नाम से जाना जाता था क्योंकि ये उसे ‪#‎कालीकट‬ से खरीदते थे / ये कपड़े बहुत सुविधाजनक (comfortable ) सस्ते और रंगीन होने के कारण वहाँ खासे लोकप्रिय हो गए , खास तौर पर महिलाओं के बीच ,जो इन कपड़ों को पहनकर सिल्क और मलमल पहनने वाली , उच्च वर्ग की महिलाओं से स्पर्धा करना चाहती थी /
1697 मे ऊन और सिल्क के बुनकरों ईस्ट इंडिया कंपनी के ऑफिस मे दंगा किया/ http://www.jstor.org/action/showPublication…
इन घटनाओं और समाज और इन बुनकरों मे व्याप्त असंतोष के कारण ब्रिटिश संसद ने COLICO ACT को पास किया , जिसके अनुसार ब्रिटेन मे कलिकट से रंगीन और प्रिंटेड कपड़ों के बजाय बिना dye किए हुये कपड़े ही इम्पोर्ट हो सकते थे/
ये कानून मात्र देशी ऊन और सिल्क व्यवसाय को बचाने के लिए ही नहीं पास हुआ बल्कि इसका एक और पहलू भी है / The Calico Acts were created and passed in part because of strong national
sentiment that viewed the cotton trade as a threat to the nation.
ब्रिटेन के एकोनोमिस्ट के अनुसार एक्सपोर्ट को इम्पोर्ट के ऊपर तरजीह देनी थी जिससे देश की आर्थिक इकॉनमी का नुकसान न हो / तो जब तक ब्रिटेन भरता से कपड़े इम्पोर्ट कर यूरोप और फ़्रांस को पुनर्निर्यात करता रहा तब तक तो ठीक था , लेकिन जब Colico Act 1700 का आया तो अर्धनिर्मित सूती और उंप्रिंटेड कपड़ों के प्रिंटिंग और एंड प्रॉडक्ट बनाने हेतु कारकुशीलव लोगों का ब्रिटेन मे उस समय तक अकाल था / ऐसे मे फ़्रांस से इन कार्यों मे कुशलता प्राप्त लोग ब्रिटेन मे migrate करना शुरू कर दिये / और ब्रिटेन में रोजगार प्राप्त करने लगे / अंत मे ब्रिटेन के लोगों मे रानी से शिकायत की कि ये लोग वहाँ के मूलनिवासी अंग्रेजों की रोजी रोटी छीनकर उनको उनके परिवारों को बर्बाद कर रहे हैं / अंत मे राष्ट्रीय भावना से उद्वेलित होकर अंग्रेजों के न सिर्फ ऊन निर्माताओं वरना सामान्यजन इतना विक्षुप्त हुआ कि उसको Xenophobia से ग्रसित होकर colico / सूती वस्त्र को एक राष्ट्रीय खतरा मानकर उनके खिलाफ कई जगहों पर आयोजित दंगे किए गए / ये भावना इस हद तक पहुँच गई कि न सिर्फ वे इस सूती वस्त्रों से नफरत करने लगे ,  बल्कि अपने ही देश की उन #औरतों को #देशद्रोही मनाने लगे जो इन सूती वस्त्रों को पहनती थी / 


अंत मे 1720 मे COLICO ACT II बनाया जिसके तहत लगभग कॉटन के सभी उत्पादों के इम्पोर्ट को बैन कर दिया गया और सूती कपड़ों को पहनने को भी बैन कर दिया सिवा कुछ ऊपरी वर्ग और निचले तबके के लिए कुछ चुनिंदा आइटम को छोड़कर जिससे ट्रेड में imbalance को खत्म किया जा सके ।
खैर बाद मे कच्चे माल का आयात कर जब अंग्रेजों ने खुद सूती वस्त्र बनाना सीख लिया तो 50 साल बाद इस कानून को खत्म कर दिया /




ये था ब्रिटेन का स्वदेशी कानून और आंदोलन , भारत से आयातित रंगीन चमकदार और छींट्ज़ के कपड़ों के खिलाफ /
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गांधी जब भारत आए तो वे इस इतिहास से वाकिफ थे/ अब हम जानते है कि 1750 तक भारत विश्व जीडीपी का 25 % का मालिक था जबकि ब्रिटेन और अम्रीका मात्र 2% का / 1900 आते आते भारत मात्र 2% जीडीपी का मालिक बचा और करोनो लोग मौत के मुह मे समा गए बेरोजगारी बीमारी और भुखमरी से / 


तो गांधी ने स्वदेश और खाड़ी और चरखा का मूलमंत्र दिया / नेहरू अगर जरा सा भी अक़्लमंद होते तो गांधी के इस आंदोलन को घर घर पहुंचा सकते थे , और आज हम पुनः विश्व भर को कपड़ा पहना रहे होते / तो शायद आज 350 चपरासी कि नौकरी के लिए 23.5 लाख नौजवान अप्लाई न कर रहे होते , जिनमे 250 नौजवान पीएचडी हैं /
नोट : इतिहास के विद्यार्थी बताएं कि थापर और गुहा जैसे लोग कुछ लिखे हैं इस बारे में /

Wednesday 7 October 2015

महाभारत प्रकरण: यक्ष-युधिष्ठिर संवाद : yaksha prasha

महाभारत प्रकरण: यक्ष-युधिष्ठिर संवाद – महाजनो येन गतः सः पन
by योगेन्द्र जोशी in अध्यात्म, दर्शन, नीति, महाभारत, लोकव्यवहार, Mahabharata, Morals, philosophy Tags: काल, जीवधारी, दर्शन, पांडव, महाभारत, यक्ष युधिष्ठिर संवाद, Mahabharata
महाकाव्य महाभारत में ‘यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ नाम से एक पर्याप्त चर्चित प्रकरण है । संक्षेप में उसका विवरण यूं है: पांडवजन अपने तेरह-वर्षीय वनवास पर वनों में विचरण कर रहे थे । तब उन्हें एक बार प्यास बुझाने के लिए पानी की तलाश हुई । पानी का प्रबंध करने का जिम्मा प्रथमतः सहदेव को सोंपा गया । उसे पास में एक जलाशय दिखा जिससे पानी लेने वह वहां पहुंचा । जलाशय के स्वामी अदृश्य यक्ष ने आकाशवाणी के द्वारा उसे रोकते हुए पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर देने की शर्त रखी, जिसकी सहदेव ने अवहेलना कर दी । यक्ष ने उसे निर्जीव (संज्ञाशून्य?) कर दिया । उसके न लौट पाने पर बारी-बारी से क्रमशः नकुल, अर्जुन एवं भीम ने पानी लाने की जिम्मेदारी उठाई । वे उसी जलाशय पर पहुंचे और यक्ष की शर्तों की अवज्ञा करने के कारण सभी का वही हस्र हुआ । अंत में युधिष्ठिर स्वयं उस जलाशय पर पहुंचे । यक्ष ने उन्हें आगाह किया और अपने प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहा । युधिष्ठिर ने धैर्य दिखाया, यक्ष को संतुष्ट किया, और जल-प्राप्ति के साथ यक्ष के वरदान से भाइयों का जीवन भी वापस पाया । यक्ष ने अंत में यह भी उन्हें बता दिया कि वे धर्मराज हैं और उनकी परीक्षा लेना चाहते थे ।
उस समय संपन्न यक्ष-युधिष्ठिर संवाद वस्तुतः काफी लंबा है । संवाद का विस्तृत वर्णन वनपर्व के अध्याय ३१२ एवं ३१३ में दिया गया है । यक्ष ने सवालों की झणी लगाकर युधिष्ठिर की परीक्षा ली । अनेकों प्रकार के प्रश्न उनके सामने रखे और उत्तरों से संतुष्ट हुए । अंत में यक्ष ने चार प्रश्न युधिष्ठिर के समक्ष रखे जिनका उत्तर देने के बाद ही वे पानी पी सकते थे । ये प्रश्न अधोलिखित श्लोक में सम्मिलित हैं:
को मोदते किमाश्चर्यं कः पन्थाः का च वार्तिका ।
ममैतांश्चतुरः प्रश्नान् कथयित्वा जलं पिब ।।१४।।
(कः मोदते, किम् आश्चर्यं, कः पन्थाः, का च वार्तिका, मम एतान् चतुरः प्रश्नान् कथयित्वा जलं पिब ।)
अर्थात् १. कौन व्यक्ति आनंदित या सुखी है?
२. इस सृष्टि का आश्चर्य क्या है?
३. जीवन जीने का सही मार्ग कौन-सा है? और
४. रोचक वार्ता क्या है?
मेरे इन चार प्रश्नों का उत्तर देने के बाद तुम जल पिओ ।
यहां तथा आगे उद्धृत सभी श्लोक महाभारत, वनपर्व, अध्याय ३१३ में प्राप्य हैं । एक टिप्पणी करना समीचीन होगा कि पारंपरिक संस्कृत में ‘कॉमा’ तथा ‘हाइफन’ का कोई स्थान नहीं है । किंतु वर्तमान काल में वाक्यों में स्पष्टता दर्शाने के लिए इनका प्रयोग होने लगा है । यहां पर भी ऐसा किया जा रहा है ।
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे ।
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ।।१५।।
(वारिचर, स्वे गृहे पञ्चमे वा षष्ठे अहनि शाकं पचति, अनृणी च अप्रवासी च सः मोदते ।)
१. हे जलचर (जलाशय में निवास करने वाले यक्ष), जो व्यक्ति पांचवें-छठे दिन ही सही, अपने घर में शाक (सब्जी) पकाकर खाता है, जिस पर किसी का ऋण नहीं है और जिसे परदेस में नहीं रहना पड़ता है, वही मुदित-सुखी है । यदि युधिष्ठिर के शाब्दिक उत्तर को महत्त्व न देकर उसके भावार्थ पर ध्यान दें, तो इस कथन का तात्पर्य यही है जो सीमित संसाधनों के साथ अपने परिवार के बीच रहते हुए संतोष कर पाता हो वही वास्तव में सुखी है ।
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम् ।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।१६।।
(इह अहनि अहनि भूतानि यम-आलयम् गच्छन्ति, शेषाः स्थावरम् इच्छन्ति, अतः परम् आश्चर्यम् किम् ।)
२. यहां इस लोक से जीवधारी प्रतिदिन यमलोक को प्रस्थान करते हैं, यानी एक-एक कर सभी की मृत्यु देखी जाती है । फिर भी जो यहां बचे रह जाते हैं वे सदा के लिए यहीं टिके रहने की आशा करते हैं । इससे बड़ा आश्चर्य भला क्या हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है और उस मृत्यु के साक्षात्कार के लिए सभी को प्रस्तुत रहना चाहिए । किंतु हर व्यक्ति इस प्रकार जीवन-व्यापार में खोया रहता है जैसे कि उसे मृत्यु अपना ग्रास नहीं बनाएगी ।
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः सः पन्थाः ।।१७।।
(तर्कः अप्रतिष्ठः, श्रुतयः विभिन्नाः, एकः ऋषिः न यस्य मतं प्रमाणम्, धर्मस्य तत्त्वं गुहायाम् निहितं, महाजनः येन गतः सः पन्थाः ।)
३. जीवन जीने के असली मार्ग के निर्धारण के लिए कोई सुस्थापित तर्क नहीं है, श्रुतियां (शास्त्रों तथा अन्य स्रोत) भी भांति-भांति की बातें करती हैं, ऐसा कोई ऋषि/चिंतक/विचारक नहीं है जिसके वचन प्रमाण कहे जा सकें । वास्तव में धर्म का मर्म तो गुहा (गुफा) में छिपा है, यानी बहुत गूढ़ है । ऐसे में समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है वही अनुकरणीय है । ‘बड़े’ लोगों के बताये रास्ते पर चलने की बातें अक्सर की जाती हैं । यहां प्रतिष्ठित या बड़े व्यक्ति से मतलब उससे नहीं है जिसने धन-संपदा अर्जित की हो, या जो व्यावसायिक रूप से काफी आगे बढ़ चुका हो, या जो प्रशासनिक अथवा अन्य अधिकारों से संपन्न हो, इत्यादि । प्रतिष्ठित वह है जो चरित्रवान् हो, कर्तव्यों की अवहेलना न करता हो, दूसरों के प्रति संवेदनशील हो, समाज के हितों के प्रति समर्पित हो, आदि-आदि ।
अस्मिन् महामोहमये कटाहे सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन ।
मासर्तुदर्वीपरिघट्टनेन भूतानि कालः पचतीति वार्ता ।।१९।।
(कालः अस्मिन् महा-मोह-मये कटाहे सूर्य-अग्निना रात्रि-दिवा-इन्धनेन मास-ऋतु-दर्वी-परिघट्टनेन भूतानि पचति इति वार्ता ।)
४. काल (यानी निरंतर प्रवाहशील समय) सूर्य रूपी अग्नि और रात्रि-दिन रूपी इंधन से तपाये जा रहे भवसागर रूपी महा मोहयुक्त कढ़ाई में महीने तथा ऋतुओं के कलछे से उलटते-पलटते हुए जीवधारियों को पका रहा है । यही प्रमुख वार्ता (खबर) है । इस कथन में जीवन के गंभीर दर्शन का उल्लेख दिखता है । रात-दिन तथा मास-ऋतुओं के साथ प्राणीवृंद के जीवन में उथल-पुथल का दौर निरंतर चलता रहता है । प्राणीगण काल के हाथ उसके द्वारा पकाये जा रहे भोजन की भांति हैं, जिन्हें एक न एक दिन काल के गाल में समा जाना है । यही हर दिन का ताजा समाचार है ।
महाभारत और उसके अंतर्गत यक्ष-युधिष्ठिर संवाद का कितना ऐतिहासिक महत्त्व है इस पर मेरी कोई टिप्पणी नहीं है । कदाचित् महाभारत मानव जीवन के सच का प्रतीकात्मक निरूपण है । ग्रंथ में वर्णित कथाएं शब्दशः अर्थपूर्ण न हों ऐसा संभव है । फिर भी उनका दार्शनिक पक्ष प्रभावी है, और मेरी दृष्टि में ग्रंथकार के चिंतन की व्यापकता आकर्षक है । – योगेन्द्र
छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति – संस्कृत नाट्यकृति मृच्छकटिकम् की उक्ति
22 जून 2009 टिप्पणी करे
by योगेन्द्र जोशी in नाटक, नीति, मृच्छकटिक, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति, Morals Tags: छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति, मृच्छकटिकम्, संस्कृत नाट्यकृति, Mruchchhakatikam, Sanskrit play
अक्सर यह देखने को मिलता है कि जब मनुष्य किसी एक विपत्ति का सामना कर रहा होता है तो और भी कई अड़चनें उसके सामने एक-एक कर प्रकट होने लगती हैं । ऐसी स्थिति की व्याख्या लोग ‘कंगाली/गरीबी में आटा गीला’ के कहावत से करते हैं । इस प्रकार की विपरीत परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर अंगरेजी में ‘मिसफॉर्च्यून्स् सेल्डम कम् अलोन् (misfortunes seldom come alone)’ कहावत का प्रयोग किया जाता है । संस्कृत भाषा में ऐसी कष्टकर परिस्थिति उत्पन्न होने पर ‘छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति’ कहना पड़ता है । मैं कह नहीं सकता कि इस उक्ति का मूल स्रोत क्या है, लेकिन मुझे इसके दर्शन नाट्यकार शूद्रक द्वारा रचित संस्कृत नाट्यकृति मृच्छकटिकम् के अधोलिखित श्लोक में मिले:
यथैव पुष्पं प्रथमे विकासे समेत्य पातुं मधुपाः पतन्ति ।
एवं मनुष्यस्य विपत्तिकाले छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति ।।
(मृच्छकटिकम्, नवम् अंक, २६)
(यथा एव प्रथमे विकासे पुष्पं पातुं मधुपाः समेत्य पतन्ति, एवं मनुष्यस्य विपत्तिकाले छिद्रेषु अनर्थाः बहुलीभवन्ति ।)
अर्थात् किसी पुष्प के आरंभिक विकास के समय यानी उसके खिलने की आरंभिक अवस्था में उसमें निहित मधु का पान करने जिस प्रकार भौंरों के समूह उसे आ घेरते हैं, उसी प्रकार विपत्ति के समय जरा-सी चूकों के घटित होने पर अनेकों अनर्थ अर्थात् अनिष्ट एक साथ मनुष्य के ऊपर आ पहुंचती हैं । (छिद्र = दोष, अवगुण, भूल, चूक; अनर्थ = अनिष्ट, दुर्योग, अवांछित स्थिति; बहुलीभू = एक के बदले अनेक हो जाना ।)
मृच्छकटिकम् नाटक के बारे में दो शब्द अन्यत्र लिखे गये हैं । नाटक में उसके प्रमुख पात्र चारुदत्त (नगर का एक सुख्यात, गुणी और प्रतिष्ठित नागरिक) पर राजा के रखैल का भाई शकार नायिका वसंतसेना (चारुदत्त की प्रेमिका) की हत्या का नितांत झूठा आरोप लगाता है । वस्तुतः शकार ने स्वयं ही वसंतसेना की हत्या का प्रयास किया होता है और उसे मृत मानते हुए छोड़ जाता है । परंतु वह मरती नहीं और एक बौद्ध भिक्षुक उसको अपने आश्रम चिकित्सा-शुश्रूषा के लिए ले गया होता है । न्यायालय में न्यायाधिकारी के सामने शकार पूर्व में चारुदत्त के साथ हुई घटनाओं का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि वे उसके विरुद्ध परिस्थितिजन्य साक्ष्य के रूप में स्वीकारे जा सकें । चारुदत्त असत्य का सहारा लेकर उन घटनाओं को नकार नहीं पाता है, अतः न्यायालय की दृष्टि में दोषी सिद्ध हो जाता है । न्यायालय में चल रही बहस के समय चारुदत्त अपनी पूर्व की भूलों का स्मरण करते हुए उक्त श्लोक का स्वगत पाठन करते हुए नाटक में दिखाया गया है ।
नाटक मृच्छकटिकम् मुझे काफी दिलचस्प लगा । आज से एक-डेड़ हजार साल पहले रचित इस नाटक में तत्कालीन परिस्थितियों का जो वर्णन मिलता है उसमें अपने देश में आज व्याप्त सामाजिक-राजनैतिक-प्रशासनिक वास्तविकता की झलक देखने को मिलती है । उदाहरणार्थ, न्यायाधिकारी चारुदत्त के निर्दोष होने को समझता है, किंतु वह इतना साहस नहीं जुटा पाता है कि शकार के मनःप्रतिकूल निर्णय लेने के लिए प्रस्तुत हो सके । शकार का राजा का निकटस्थ होना न्यायाधिकारी के प्रति उसकी समर्पिता को प्रभावित किए बिना नहीं रहती ।
विपत्तियां क्या वास्तव में एक साथ आ पड़ती हैं ? शायद सदैव नहीं, परंतु यह संभावना तो रहती ही है कि जब आप किसी एक समस्या को सुलझाने में लग जाते हैं तो किसी अन्य समस्या का समाधान छूट जाता है और उसके समय पर हल न हो पाना नई-नई समस्याओं को जन्म दे जाता है । अन्य एक कारण यह भी हो सकता है कि जब आपके समक्ष कोई समस्या आ खड़ी होती है तो जिन मित्र-परिचितों पर आप भरोसा किये रहते हैं वे किसी न किसी बहाने आपसे दूर होने लगते हैं । तब आपको लगता है कि आप अकेले पड़ रहे हैं । मनोवैज्ञानिक कारणों से नई छोटी-सी अड़चनें भी आपको भारी नजर आने लगती हैं । मित्र-परिचित सहयोग के लिए प्रस्तुत हो जायें तो स्थिति तथा उसके प्रति दृष्टिकोण बदल जायें । – योगेन्द्र
लोभः पापस्य कारणम् (हितोपदेश) – लोभ से प्रेरित होती है ठगी
13 जून 2009 1 टिप्पणी
by योगेन्द्र जोशी in दर्शन, नीति, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति, हितोपदेश, Morals Tags: ठगी, तृष्णा, महाभारत, लोभ, हितोपदेश, greed, Hitopadesha, Mahabharata
इधर कुछ दिनों से टीवी समाचार चैनलों पर ठगी के मामलों की चर्चा सुनने को मिल रही हैं । बताया जा रहा है कि गुजरात के अशोक जडेजा का देश भर में ठगी का जाल फैला हुआ है । इस किस्से की चर्चा के एक-दो दिन बाद दिल्ली के सुभाष अग्रवाल के कारनामों की भी चर्चा होने लगी । ठगी के इन मामलों में वास्तविक तथ्य क्या हैं इसे टीवी दर्शकों द्वारा तय कर पाना संभव नहीं है । यह सभी जानते हैं कि ये चैनल पूरे प्रकरण को अक्सर सनसनीखेज तथा अतिरंजित बनाकर पेश करते हैं । फिर भी वे निराधार नहीं होने चाहिए यह माना जा सकता है ।
ठगी की घटनाएं हमारे समाज में आये दिन होती हैं । हर घटना का समाचार अखबार और टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित नहीं किया जाता है, लेकिन वे घटती रहती हैं । किसी को धन दुगुना-तिगुना करने के नाम पर ठगा जाता है, तो किसी को नौकरी दिलाने के नाम पर । किसी को अस्पताल में कारगर इलाज के नाम पर ठगा जाता है, तो किसी को सरकारी दस्तावेज बनाने के नाम पर, इत्यादि । कई नादान लोग बेवकूफ बनते हैं, तो कुछ गिने-चुने शातिर लोग बेवकूफ बना रहे होते हैं ।
कुछ मामले हैं जिनमें व्यक्ति का ठगा जाना समझ में आता है । अपने देश की अधिकांश जनता अनपढ़ तथा नियम-कानूनों से अनभिज्ञ रहती है । वे लोग कई मौकों पर दूसरों के झांसे में आ सकते हैं, विशेषतः सरकारी कामकाज के संदर्भ में । लेकिन जो लोग जेवर-जेवरात को बैठे-बैठे ही दूना करके देने का वादा करने वालों के चंगुल में फंसते हैं और जो धनराशि को अल्प काल में ही दुगुना-तिगुना करके लौटाने की बात करने वालों के झांसे में आते है उन्हें में मूर्ख तथा लोभी मानता हूं । जरा सोचने की बात है कि कोई व्यक्ति कैसे ऐसा चमत्कार कर सकता है ? और यदि किसी के पास ऐसी जादुई शक्ति है तो वह क्योंकर दूसरों पर इतना मेहरबान होने लगता है ? क्यों नहीं वह बिना कुछ लिए ही जनसेवा में ही लग जाता है ?
इस प्रकार की घटनाओं के पीछे लोभ एक, कदाचित् एकमेव, कारण रहता है ऐसी मेरी मान्यता है । लोभ ही है जो व्यक्ति को उचितानुचित का विचार त्यागकर धनसंपदा अर्जित करने को प्रेरित करता है । यह तो ठगी करने वाले की बात हुई । दूसरी तरफ लोभ ही है जो किसी व्यक्ति को ठगी करने वाले के द्वारा किए जा रहे दावे पर विश्वास करने को बाध्य करता है । गंभीरता से विचार करने और वस्तुस्थिति की पर्याप्त जानकारी हासिल किये बिना ही वह झांसे में आ जाता है ।
शिक्षाप्रद लघुकथाओं के संग्रह ‘हितोपदेश’ ग्रंथ में लोभ के बारे में कहा गया हैः
लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।
लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ।।
(हितोपदेश, मित्रलाभ, २७)
अर्थात् लोभ से क्रोध का भाव उपजता है, लोभ से कामना या इच्छा जागृत होती है, लोभ से ही व्यक्ति मोहित हो जाता है, यानी विवेक खो बैठता है, और वही व्यक्ति के नाश का कारण बनता है । वस्तुतः लोभ समस्त पाप का कारण है ।
इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया हैः
लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम् ।
तृषार्तो दुःखमाप्नोति परत्रेह च मानवः ।।
(हितोपदेश, मित्रलाभ, १४२)
अर्थात् लोभ से बुद्धि विचलित हो जाती है, लोभ सरलता से न बुझने वाली तृष्णा को जन्म देता है । जो तृष्णा से ग्रस्त होता है वह दुःख का भागीदार बनता है, इस लोक में और परलोक में भी ।
ग्रंथ में अन्यत्र यह वचन भी पढ़ने को मिलता हैः
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ते अध्रुवं नष्टमेव हि ।।
(हितोपदेश, मित्रलाभ, २१५)
अर्थात् जो व्यक्ति ध्रुव यानी जो सुनिश्चित् है उसकी अनदेखी करके उस वस्तु के पीछे भागता है जो अनिश्चित् हो, तो अनिष्ट होना ही है । निश्चित् को भी वह खो बैठता है और अनिश्चित् का ता पहले से ही कोई भरोसा नहीं रहता है । ठगी के मामलों में फंसे लोगों के बारे में यह पूर्णतः लागू होता । जिस जमा-पूंजी को निश्चित् तौर पर वे अपना कह सकते हैं उसको जब बिना सोचे-समझे वे दांव पर लगा दें, तो उससे वे हाथ धो बैठते हैं, और बदले में वांछित फल पाते नहीं हैं ।
इतना सब कहने का तात्पर्य यह है कि अविलंब अपनी धनसंपदा को दुगुना-तिगुना करने की चाहत से व्यक्ति को बचना चाहिए और उसे यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि कोई व्यक्ति कैसे धनवृद्धि के अपने अविश्वसनीय दावे को सफल कर सकता है ।
लोभ या तृष्णा यानी भौतिक धन-संपदा आदि के प्रति अदम्य चाहत के बारे में महाकाव्य महाभारत में भी काफी कुछ कहा गया है, जिनका संक्षिप्त उल्लेख मैंने इसी ब्लॉग में अन्यत्र (‘कभी न बुढ़ाने वाली तृष्णा …’ एवं ‘तृष्णा से मुक्ति भोग से नहीं …’) किया है । – योगेन्द्र

वर्ण यानि चमड़ी का रंग / सवर्ण किस रंग का ? असवर्ण माने काला -- साँवले तो राम और कृष्ण भी थे / तो राम और कृष्न तो असवर्ण न हो गए?

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वर्ण यानि चमड़ी का रंग /
सवर्ण किस रंग का  ?
असवर्ण माने काला -- साँवले तो राम और कृष्ण भी थे / तो राम और कृष्न तो असवर्ण न हो गए? 
तो किस ग्रंथ से #अंग्रेजों,  #अंबेडकर और ‪#‎मरकस_बाबा‬ के चेलों ने असवर्ण और अवर्ण जैसे शब्दों की भ्रष्ट व्याख्या की /
देखिये -- बाइबल मे उसका आधार छुपा है /
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Black Slavery as the “Curse of Ham” : Bible Truth or Racist Apologetic?
“And Noah said ‘Cursed be Canaan! A slave of slaves, a slave to his brothers! Blessed be God, the God of Shem, but Canaan shall be his slave. God prosper Japheth…But Canaan shall be his slave’.” (Genesis 9:25-271)
Who Did Noah Curse—Ham, Canaan or Cush?
Turning to Genesis 9, there’s an arresting asymmetry between Noah’s blessing and his curse; he blessed Shem and Japheth; he did not curse Ham. Rather, Noah pronounced a curse on Ham’s son, Canaan, saying, “Cursed be Canaan: A servant of servants shall he be to his brothers…Blessed be… Shem and let Canaan be his servant.” Hence, strictly speaking, it is inaccurate to talk of “the curse of Ham.” The “curse of Canaan” is the correct term. This is important because Ham had four sons: Cush is listed first and Canaan, last (Gen. 10:6.) Witness Lee points out that “Ham’s son was Cush, the forefather of Ethiopia.” Scholars agree that “Cush” means “black.” Hence many expositors concur with Witness Lee that “Ham…was the forefather of the black people,” through his son, Cush.2 Yet, Ham was the forefather of other peoples also—through his other sons. So why focus attention exclusively upon only one lineage—Ham’s black descendents? Moreover, regardless of the ethnic origins or skin colors of the Cushites, the fact remains that no curse is pronounced on either Ham or Cush. The curse of servitude was pronounced on Caanan, another of Ham’s sons. The Bible states clearly that Noah cursed Ham’s fourth son, Canaan, not Ham’s first son, Cush (the black, “Ethiopian.”) There is no Biblical justification for transposing Noah’s curse from one of Ham’s sons to the other.
The Old Testament indicates that Ham had four sons: Cush, Mizraim, Put and Canaan (Gen. 10:6). According to scholars,3 Cush, Ham’s oldest son represents the African tribes known as Ethiopians; Mizraim corresponds to Egypt; Put (or Phut) is linked by some to Somalia, by others to Libya. Lastly, Canaan4 “normally represents the land of Palestine and Phoenicia…the Old Testament… use[s] the term for inhabitants of the area in a general sense…These many tribes are in some way related to Canaan, and thus are called Canaanites.” So “Ham is the ancestor of all these people from Phoenicia [through Palestine and Egypt] to Africa.” It is an unjustified leap of logic to reassign Noah’s curse away from Canaan to Ham (his father) or Cush, his black “Ethiopian” brother. The notion that Ham himself was black, originated in later rabbinical folklore. It is without Scriptural foundation. Hence expositors conclude5 “The reputed curse of Ham is not on Ham, but on Canaan, one of Ham’s sons. This is not a racial but geographic referent. The Canaanites, typically associated with the region of the Levant (Palestine, Lebanon, etc) were later subjugated by the Hebrews when they left bondage in Egypt according to the Biblical narrative.” Thus, these scholars conclude the object of Noah’s curse was not black people, but Canaan, the forefather of the Canaanites. Noah’s curse was fulfilled by the Hebrews’ subjugation of the Canaanites. Canaan became “a slaves of slaves,” when the Canaanites [e.g. the Gibeonites (Joshua 9:21, 27)] served the ex-slaves from Egypt, the Children of Israel. Genesis provides no biblical support for the assertion that black people are under Noah’s curse.
Black Slavery as the ‘Curse of Ham’ :Bible Truth, Jewish Myth or Racist Apologetic?
Cush, the forefather of the black peoples, was not cursed by Noah; rather it was Canaan. Therefore, simple logic dictates that Noah’s curse to be “a slave of slaves, a slave to his brothers,” does not apply to black people. The NIV Study Bible notes,6 “Noah’s curse cannot be used to justify the enslavement of blacks, since most of Ham’s descendants are known to be Caucasian, as the Canaanites certainly were (as shown by ancient paintings of the Canaanites discovered in Egypt).” We conclude that Genesis provides no biblical basis, either ethically or prophetically, to justify black slavery.
If black slavery is not a logical deduction from Genesis, where did this concept arise? Nowhere in Genesis do we find evidence that Ham was black. The tradition that Ham was a black man developed much later. It is a Rabbinical elaboration,7 not explicitly formulated until the Babylonian Talmud of 500 AD. Hence this concept belongs in the category of Jewish “myths and unending genealogies” (1 Tim.1:4). In the Middle Ages, European scholars of the Bible picked up on the Jewish Talmud idea that the “sons of Ham” were “blackened” by their sins.8 These arguments became increasingly common during the slave trade of the 18th and 19th Centuries. A historian, Edith Sanders, concludes that the identification of Ham’s descendents as Black Africans,9 “gained currency in the sixteenth century.” Thereafter, it “persisted throughout the eighteenth century, [and] served as a rationale for slavery, using Biblical interpretations in support of its tenets. The image of the Negro deteriorated in direct proportion to the growth of the importance of slavery.” Benjamin Braude, Professor of history at Boston College, writes10 “in 18th and 19th century Euro-America, Genesis 9:18-27 became the curse of Ham, a foundation myth for collective degradation, conventionally trotted out as God’s reason for condemning generations of dark-skinned peoples from Africa to slavery.” Sadly this notion has been perpetuated through its uncritical repetition by Bible teachers and writers. However, today evangelical scholars reject this view as an out-dated remnant of folklore, masquerading as Scriptural truth. - Nigel Tomes
(This portion is taken from Nigel’s article of the same title to be found on www.concernedbrothers.com.)
NOTES:
1. The Recovery Version reads: “And Noah said ‘Cursed be Canaan: A servant of servants shall he be to his brothers…Blessed be Jehovah, the God of Shem and let Canaan be his servant. May God enlarge Japheth…and let Canaan be his servant’.” (Gen., 9:25-27 RcV.)
2. The word “Cush” means “black” and direct references are made to Cushite and/or Ethiopian individuals in the Biblical narrative, such as the wife of Moses, Zerah the Ethiopian army commander (2 Chronicles 14:9-15) and Tirhakah, Cushite Pharoah of Egypt (2 Kings 19:9; Isaiah 37:9). [Allen P. Ross, “The Table of Nations in Genesis 10—Its Content,” Bibliotheca Sacra vol. 138 (1980) pp. 22-34.]
3. See for example: Allen P. Ross, “The Table of Nations in Genesis 10—Its Content,” Bibliotheca Sacra vol. 138 (1980) pp. 22-34.
4. Allen P. Ross, “The Table of Nations in Genesis 10—Its Content,” Bibliotheca Sacra vol. 138 (1980) pp. 22-34
5. Goldenberg, David M. The Curse of Ham: Race and Slavery in Early Judaism, Christianity, and Islam. Princeton University Press, 2003 (New edition 2005).
6. It’s worth quoting more of the NIV Study Bible’s notes on Genesis 9:25 in their entirety: “Cursed be Canaan! …This account of Noah’s cursing and blessing of his sons is addressed to Israel. Most likely it is for this reason that Canaan is here singled out from Ham’s descendants as the object of Noah’s curse. Israel would experience firsthand the depth of Canaanite sin (see Lev 18:2-3, 6-30) and the harshness of God’s judgment on it. In that judgment Noah’s curse came to be fulfilled in the experience of this segment of Ham’s descendants. But Ham’s offspring, as listed in 10:6-13, included many of Israel’s other long-term enemies (Egypt, Philistia, Assyria, Babylonia) who also experienced severe divine judgment because of their hostility to Israel and Israel’s God. Lowest of slaves. Joshua’s subjection of the Gibeonites (Jos. 9:21, 27) is one of the fulfillments (see also Jos 16:10; Jug 1:28, 30, 33, 35; 1 Ki 9:20-21). Noah’s curse cannot be used to justify the enslavement of blacks, since most of Ham’s descendants are known to be Caucasian, as the Canaanites certainly were (as shown by ancient paintings of the Canaanites discovered in Egypt).” [NIV Study Bible, Zondervan]
7. Ole Bjorn Rekdal, “When hypothesis becomes myth: the Iraqi origin of the Iraqw,” Ethnology vol. 37 (1998): 17-32, p. 19. Jewish scholars, working around the 6th century AD, introduced the idea that Ham was marked by dark skin. From the Babylonian Talmud, Sanhedrin 108b: “Our Rabbis taught…[that] Ham was smitten in his skin.” {Talmud Bavli, Sanhedrin 108b} James Fenton says from the “medieval versions [of these events] we learn more about the nature of Ham’s misdeeds. He mocked Noah’s nakedness, and invited his brothers to do the same (which they refused). What is more, this is not the first of Ham’s transgressions. When they had all been on the Ark together, Noah had insisted that everyone be sexually continent, but Ham, by the aid of a magic demon, slept with his wife. Next day Noah saw his footprints, and there grew up an enmity between Noah and his son. Ham was punished by being given a black skin. When the world came to be divided up, Japheth received Europe, Shem got Asia, and Ham was awarded Africa.” [James Fenton, Fenton, “A Short History of Anti-Hamitism,” New York Review of Books (Feb. IT, 1996), p.7] There is no scriptural basis for the notion that Noah enacted an ordinance of sexual abstinence on the Ark. This fiction is the invention of a religious legalistic mind! Professor Braude notes that there is no black depiction of Ham appears in western art until the nineteenth or twentieth century. This was much later than the tradition of depicting one of the “three wise men” as black. (ref. note 21 below)
8. The following are three examples of Medieval writers who make this extrapolation:[1] “Mar Ephrem the Syrian said: When Noah awoke and was told what Canaan did. . .Noah said, ‘Cursed be Canaan and may God make his face black,’ and immediately the face of Canaan changed; so did of his father Ham, and their white faces became black and dark and their color changed.” Paul de Lagarde, Materialien zur Kritik und Geschichte des Pentateuchs (Leipzig, 1867), part II [2] The Eastern Christian work, the Cave of Treasures (4th century), explicitly connects slavery with dark-skinned people: “When Noah awoke. . .he cursed him and said: ‘Cursed be Ham and may he be slave to his brothers’. . .and he became a slave, he and his lineage, namely the Egyptians, the Abyssinians, and the Indians. Indeed, Ham lost all sense of shame and he became black and was called shameless all the days of his life, forever.” La caverne des trésors: version Géorgienne, ed. Ciala Kourcikidzé, trans. Jean-Pierre Mahé, Corpus scriptorium Christianorum orientalium 526-27, Scriptores Iberici 23-24 (Louvain, 1992-93), ch. 21, 38-39 (translation). [3] Ishodad of Merv (Syrian Christian bishop of Hedhatha, 9th century): When Noah cursed Canaan, “instantly, by the force of the curse. . .his face and entire body became black [ukmotha]. This is the black color which has persisted in his descendents.” C. Van Den Eynde, Corpus scriptorium Christianorum orientalium 156, Scriptores Syri 75 (Louvain, 1955), p. 139.
9. Edith R. Sanders, “The Hamitic Hypothesis; Its Origin and Functions in Time Perspective,” The Journal of African History, Vol. 10, No. 4 (1969), pp. 521-532
10. Benjamin Braude, “The Sons of Noah and the Construction of Ethnic and Geographical Identities in the Medieval and Early Modern Periods,” William and Mary Quarterly, vol. LIV (January 1997): 103–142 Professor Braude points out that the linkage between Noah’s curse and black slavery first appears in Western literature with Portugese voyages to W. Africa of discovery & commerce (including slavery.) He says, “It appears, arguably for the first time in the exploration literature of Africa, in the mid-fifteenth-century Chronicle of the Discovery and Conquest of Guinea of Gomes Eannes de Azurara,” which talks of ‘ancient custom, which I believe to have been because of the curse which after the Deluge, Noah laid upon his son Cain [Portuguese original-”Cairn”], cursing him in this way:- that his race should be subject to all the other races of the world. And from his race these Blacks are descended…’.” (pp. 127-8.) This 15th century writing confuses Canaan (Gen. 9) with Cain (in Gen. 4) both of whom were cursed. This is probably the first historical instance of “Noah’s curse” being used to justify Black slavery.

Monday 5 October 2015

वर्ण के आधार पर हिन्दू समाज को 1900 तक जाना जाता था /

https://youtu.be/hehPjAJynr4
आप बार बार तथ्यात्मक प्रमाण के साथ कहते आए हैं ,जाति व्यवस्था अँग्रेजों की देन है।प्राचीन भारतीय वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी, उसी तथ्य को दूरदर्शन द्वारा कितनी ख़ूबसूरती से फ़िल्माया गया है... उपनिषद् गंगा नामक सीरियल में... जरूर देखिए...
----- Geetanjali Dubey

Here's the full Episode 18 of 'Upanishad Ganga'. Worth, not birth, decides your position on this earth For all the updates follow us on: Facebook: https://ww...
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 कौटिल्य ने एक बात और लिखी थी जिसको इन लोगों ने नही दिखाया।

द्विजात सुश्रुषा वार्ता कारकुशीलव कर्मं शूद्रश्य धर्मम्।

सुश्रुषा - सर्विस सेक्टर । आज उसको पैकेज में गिना जाता है ।
वार्ता - विद्या का अंग है जिसमे पशुपालन व्यापार खनिजविद्या टेक्निकल एजुकेशन पढ़ाया जाता है ।

कारकुशीलव यानि वार्ता में एक्सपर्ट प्राप्त करना।