Monday 22 December 2014

"शूद्र कौन थे"- डॉ आंबेडकर का आधार - तथ्य या मिथ -Part- 23 दलितचिंतन और जातिविमर्श::डॉ आंबेडकर, कहाँ फंसे ईसाई पादरियों के बिछाए जाल में /

  भारत के उद्धृत किए जाने वाले विदेशी संस्कृतज्ञों मे Maxmuuler का नाम सबसे ऊपर है / भारत सरकार ने जर्मन दूतावास का नाम मक्षमूलर भवन रखकर सम्मान बखसा है /

लेकिन नवीनतम खोज ये कहती हैं कि वो क्लास 10 से ज्यादा पढ़ा नहीं था और संस्कृत का स भी नहीं जनता था / लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसके लिखित फर्जी लेखन का इतना प्रचार प्रसार किया कि वो आज प्रोफेसर और डॉ मक्ष्मुल्लर के नाम से अकड़मिसिया मे जाना जाता है / पढ़ें --प्रदोश आइच को जो मक्ष्मुल्लर को एक ठग कहते हैं और प्रमाण के साथ अपनी पुस्तक Lies with long legs मे प्रकाशित भी किया है / 
https://bharatabharati.wordpress.com/.../the-fundamentals-of-indology-ar..
यही काम डॉ अंबेडकर के साथ किया गया है / यद्यपि उनके शिक्षण पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता , लेकिन सिमन कमिसन और लोथीयन कोमिटी कि रिपोर्ट पूरी तरह इस बात को प्रमाणित करती है कि अंग्रेजों के वे पालक पुत्र थे / जिनहोने अब्राहमिक रेलीजन के पीढ़ी दर पीढ़ी persecution के फलसफे को भारतीय सनातन धर्म के साथ जोड़ा /
आंबेडकर वादियों ने अम्बेडकर को नहीं पढ़ा ये तो कहना मुश्किल है ,/ लेकिन ये बात पक्की है कि उन्होंने आंबेडकर से उतना ही लिया जितना ,उनके राजनैतिक जरूरतों को उनके स्वार्थ को सिद्ध करने में सहायक है /
 ये तर्क और फलसफा के पीछे एक theology है / देखिये किसी भी हकीकत के पीछे कोई न कोई ..सिद्धांत और फलसफा होता है / क्या आप बता सकते हैं कि १९६० तक अमेरिका में ब्लैक्स को whites के  बराबर अधिकार नहीं मिला तो क्यों ??
अब देखिये भाषा की समस्या ।
मैं देहाती अवधी भाषी ।
हिंदी मेरी मात्रिभाषा ।
लेकिन मैं ही फंस गया ।
लेकिन maxmuller, john Muir , M A Shering , संस्कृत के विद्वान निकल गए ।
लगता है मैं ही मंद बुद्दि हूँ ।


आंबेडकर जी पहले व्यक्ति हैं जो इस बात को 1946 में नकार देते हैं ,कि आर्य यानि संस्कृत बोलने वाले लोग , बाहर से नहीं आये थे, भारत के मूलनिवासी थे । फिर कौटिल्य और महाभारत को उद्दृत करते हुए कहते हें कि शूद्र आर्य है यानि संस्कृत भाषी है । एक सामान्य सी बात है कि कभी जब संस्कृत आम् बोलचाल की भाषा रही होगी तो सभी संस्कृत में ही संवाद करते रहे होंगे । चाहे वे बाभन हो चाहे बनिया चाहे शूद्र । 
इसमें कोई विवाद की गुंजाईश बचती है क्या ।
किसी भी ग्रन्थ में लिखा है कि शूद्र को संस्कृत बोलने की मनाही है ??
आर्य का मतलब -महाकुलिन कुलीन सभ्य सज्जन साधवः । या मात्र एक संबोधन ।
मक्स्मुल्लेर ने भी यही कहा कि आर्य माने संस्कृत बोलने वाले ??
बताइए कहीं गुंजाईश बचती है बहस की ??
लेकिन शायद जब तक सफ़ेद चमड़ी वाले की मुहर न लगे ,मानसिक दासों को विश्वास नहीं होता ।
अभी तक अंग्रजी बोलना ही विद्वता का प्रतीक रहा है भारत में। क्या बोलते हैं , वो मायने नहीं रखता ।
लेकिन जब सीधे सोचने की क्षमता खो चुके हैं , तो आंबेडकर तो क्या कोई भी भारतीय बोले , हम तो फरक नहीं पड़ता , हम तो महिषासुर की ही पूजा करेंगे । 
लेकिन पिछले 10 सालों से सफ़ेद चमड़ी वालों ने भी डॉ अम्बेडकार के कथन को प्रमादिक करार दे दिया है  ।
ऐसे में दो ही चीज हो सकती है , या तो इन्होने पढ़ना बंद कर दिया है । या फिर इनके राजनीतक स्वार्थ हैं ।

तो किस विद्वान ने कहा कि आर्य बाहर से आये ??
मक्स्मुल्लेर ने ?? या जॉन मुइर ने या पादरी शेरिंग ने ??
कब आये ?? प्रागैतिहासिक काल में ??
यानी मिथकों (महाभारत और रामायण काल) के पहले ??
अच्छी गुंडई फैलाये हैं , मिथक भी कह रहे हो , और उसी को आधार बना कर ड्रामा भी रचा जा रहा है ।
भाई एक दिशा में चलो न ??
ये अंग्रेज तो आपका उद्धार ही करने आये थे , आप के पुरखो को तारने के लिए ही उन्होंने  आर्य द्रविड़ सवर्ण अवर्ण असवर्ण शूद्र अति शूद्र दलित शब्द गढ़े ।
अगर ये वैदिक काल से है तो ये शब्द भी वेदों में मिलने चाहिए ?? 

दिखाइए   किस वेद में लिखा है ??
शब्दों का अपना एक इतिहास होता है ।
25 - 30 साल पहले की कोई डिक्शनरी उठा लीजिये, और खोजिये scam शब्द ??और अगर मिल जाय तो बताइएगा ।
जब नेहरु के जमाने से लेकर इंदिरा के जमाने तक जितने सरकारी चोर थे उनका स्तर स्तर गिरा हुवा था, तो घोटाला शब्द से काम चल जाता था । लेकिन जब मनमोहन के जमाने में उच्च कोटि के सरकारी डकैत आ गए , तो scam यानि महाघोटाला जैसा शब्द गढा गया ।
लेकिन न तथ्यों से मानेगे और न तर्कों से मानेगे ,इन्हें महिसासुर की ही पूजा करनी है , तो मुझे लगता है कि दिमाग में कुछ "केमिकल लोचा" है ।


 अब एक प्रश्न उठता है कि आंबेडकर साहब ने रिगवेद को ही क्यों आधार बनाया , अपने बात को सिद्ध करने के लिए ??
और नारदस्मृति और आरण्यक ब्रम्हंस जैसे अर्चिएक पुस्तको के आधार पर ही क्यों अपने निष्कर्षो पर पहुंचे ??
इसके दो उत्तर है ;
(1)" एक ख़ास किस्म की एक कौम पैदा हुयी उसकी  संस्कृत के पुराने ग्रंथो के अध्यन में ही रूचि थी, जो  Orientalist Phillologist Indologist जैसे कौम के नाम से जानी जाती है ।उन्होंने भारत के तात्कालिक स्थिति का वर्णन न करके सिर्फ एक अनदेखे समयकाल के ग्रंथो को आधार बना कर तात्कालिक भारत पर टैग / चपका दिया। एक मिथ फैलाया गया की भारतीयों के पास इतिहास लिखने की कूबत नहीं होती ।इसलिए इतिहास को अपने हिसाब से लिख दिया । ये मिथ भी फैलाया कि वे बिजेता थे । इसलिए उनका शासन जस्टीफ़ाइड था । वही तात्कालिक राजनैतिक और सामाजिक परिस्थियों पर सन्नाटा पसरा पड़ा है ।"---Castes of Mind " By Nicholas B. dirk 
ऐसी स्थिति में डॉ आंबेडकर ने जब 1925 के आसपास जब भारतीय राजनीति में कदम रखा तो उनके पास 175 साल पूर्व के भारतीय समाज को समझने का कोई साधन या इनफार्मेशन उपलब्ध नहीं था ।
इसलिए घूमफिर कर उनको वेदेशी संस्क्रितज्ञो की शरण में जाना पड़ा। 
ये संस्क्रितज्ञ इतने ज्यादा संख्या में थे की आप कल्पना नहीं कर सकते । मात्र जर्मनी ने अकेले दम पर 132 इन्दोलोगिस्ट पैदा किया ।

 (2) दूसरा कारण है ,,कि डॉ आंबेडकर हिंदूइस्म के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे , और चूंकि सूचना के श्रोत सारे के सारे , ईसाईयो के द्वारा भारत के ऊपर तथाकधित संस्कृत विद्वानों के द्वारा लिखी हुई पुस्तकें थी / च्रिस्तिअनों ने जब पूरी दुनिया पर कब्ज़ा किया , तो बाइबिल में लिखे जेनेसिस के आधार पर उस कब्जे को लीगल sanctity दी /उससे २-३ फैक्ट्स काफी हैं बताने के लिए 
बाइबिल के अनुसार पूरी मानवीयता सब आदम को वंशजें है , और सब एक ही भाषा बोलते हैं / टावर ऑफ़ बेबल के में ये भी लिखा है ,वही से वे पूरी दुनिया में फैले / आदम कि संताने एक ही भाषा बोलती है / 
अब जब विल्लियम जोंस ने अठारवीं शताब्दी के अंत में कलकत्ता में एशियाटिक सोसाइटी कि स्थापना की / तो डिक्लेअर किया कि संस्कृत एक बहुत ही सुन्दर भाषा है ,जो लैटिन और ग्रीक से भी ज्यादा परिस्कृत है / अभी तक ये पादरी  बाइबिल के इस verse का कोई एक्सप्लेन नहीं दे पाते थे कि दुनिया कि सारी  मानव प्रजाति एक ही भाषा कैसे बोलते  थे और वो भाषा थी कौन ?/ अब जब आगे जाके मैक्समूलर आर्य (संस्कृत बोलने वाले ) बाहर से आये थे , और फिर इसको इंडो ईरानी से ,इंडो यूरोपियन और होते होते इंडो जर्मन भासा का कलेवर देंगे , तो बाइबिल के उस verse को सिद्ध कर पाएंगे की दुनिया के सारे मनुष्य एक ही भाषा बोलने थे / यद्यपि इसकी कीमत मानवीयता को को ६० लाख यहूदियों और ४० लाख जिप्सियों के खून से चुकाना पड़ेगा / और "संस्कृत समस्त भाषाओँ की जननी " होने का गौरव प्राप्त करेगी / हालांकि ये verse जब रची गयी होगी तो उस समय  इसके अनुयायी हिब्रू भाषा बोलने वाले थे / इस लिए तब तक तो ये verse को एक्सप्लेन करने में कोई दिक्कत नहीं थी , क्योंकि जीसस स्वयं भी हिब्रू ही बोलते थे , लेकिन जब यहूद के बाद एक नए रिलिजन ने जन्म हुवा ,तो इनके धार्मिक गुरुओं को इस verse को प्रामाणिक सिद्ध करने में दिक्कत होती थी /
(२) दूसरा जब जेनेसिस के अनुसार नूह के श्राप से उनके तीसरे पुत्र Ham की संतानों की संतानो को अनंत काल तक जेफेथ और शेम के वंशजो की perpetual स्लेवरी में रहना पड़ेगा / और बाद में उसमे संसोधन होता है कि , चूंकि Hamites श्रापित है नूह के द्वारा ,इसीलिये उनका काला रंग, उस पाप के कारन था / महान रोमन सभ्यता में स्लेवरी एक बहुत आम व्यस्था थी और ईसाइयत में उसको Religious  मान्यता प्राप्त थी , इसीलिये 1770 में आजाद हुए अमेरिका में ..काले नीग्रो को 1960 तक गोरे ईसाईयों के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं हुवा थे /

       डॉ आंबेडकर को हिन्दू / सनातन परम्परा का ज्ञान तो था नहीं , लेकिन उनके छात्र जीवन का एक लम्बा समय ,ईसाइयों की सोहबत में गुजरा था, इसलिए उनको ईसाइयत के इसके फलसफे से वाकिफ होना कोई बड़ी बात नहीं है /
डॉ आंबेडकर ईसाइयत के इसी फलसफा के अनुसार ,,शायद शूद्रों की 1946 में दुर्दशा का कारन जानने के लिए वेदों की ओर रुख किया होगा /



यदि कभी आप हिन्दुओं के सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण पर्व महाकुम्भ में गए हैं ,अभी 2साल  पहले यह संगम नगरी में हुएवा था / इतनी जगह ,इतने हिन्दू संतों से मैं मिला ...यहाँ तक कि नागा साधुओं से ,,किसी ने ये नहीं पूंछा कि मेरी जाती क्या है ..बस एक ही वाक्य सर्वत्र ---आओजी , बैठो जी ,चाय पियो जी /
दूसरा कभी लगता है आप कभी किसी पवित्र बड़े मंदिर में भी नहीं गए हैं / मैं एक साल पहले मथुरा गया था ,,वहीँ भी किसी ने नहीं पूछा / आप क्या सींग लगाकर जाते हैं क्या कि लोग आप को दूर से पहचान कर ये काम करते है /
और सवर्ण avarn और असवर्ण का मिथ भी तोड़ूंगा / भागिएगा नहीं मैदान छोड़कर /

डॉ आंबेडकर शूद्र की उत्पत्ति का कारण खोजने के लिए फिर संस्कृत विद जॉन मुइर के पुस्तक "the ऑरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट " के पुस्तकांश का रिफरेन्स देते हैं / जो 19 साल की उम्र में भारत आया था , और 29 साल की उम्र में "मत्परीक्षा " नाम की पुस्तक लिखता है , जिसमें ईसाइयत को हिंदूइस्म से श्रेष्ठ घोषित करता है, जो त और ट के उच्चारण का फर्क नहीं समझता , जिसने दस साल की उम्र में निष्ठापूर्वक सरकारी नौकरी करते हुए ,समस्त संस्कृत ग्रंथो ,वेद उपनिषद् ,आरण्यक ब्राम्हण ,रामायण हैभारत और न जाने ग्रंथों , को उदरस्थ कर लिया था / और इस लायक हो चूका था कि "the ऑरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट " जैसी अप्रितम रचना लिख मारी थी /उसकी पुस्तक के पुस्तकांश में Satyayana ब्रह्मण के हवाले से , वशिष्ठ और विश्वामित्र (सुदास राजा ) कई वंशो की दुश्मनी का आधार बनाया है /
        इस तथ्य कि भी पड़ताल होना आवश्यक है / कि डॉ आंबेडकर जैसा विद्वान ,  उस समय काल में जितने राजनीतिज्ञ थे उनमे सबसे अधिक शिक्षित थे , कैसे एक bigot ईसाई के जाल में फंस गए , संस्कृत भाषा की अज्ञानता के कारण /

अगर आप वर्तमान को , एक ऐसे प्रागैतिहासिक पुस्तकों में वर्णित कुछ श्लोकों के आधार पर वर्णित करना चाहेंगे, और उस को किसी और रिलिजन के फ्रेमवर्क में फिट करेंगे , जिसमे वो फिट ही नहीं बैठ सकता , तो आप हमेशा दिग्भ्रमित होंगे, सनातन काल तक की दुश्मनी अब्रह्मिक monotheism की फलसफा है, जो आज भी जारी है ,यहूद ,इस्लाम और ईसाई के अनुयायियों में /
हिन्दू धर्म के ऐतिहासिक परंपरा में ,perpetual enmity का , हारने वालों को स्लेव बनाने का , उनका क़त्ल करने का कोई जिक्र तक नहीं है / राम ने रावण को हराया तो , राज्य विभीषण के हवाले कर, वापस अयोध्या आ गए / कृष्ण ने जब जरासंध की हत्या करवाई भीम के हांथों ,तो उसके पुत्र को राज पात सौप दिया/ युधिस्ठिर ने जब चक्रवर्ती राजा बनने के लिए , जब राजसूय यज्ञ कराया , तो सारे अधीन राजाओं से कर लेकर ,उनको अभयदान दिया /
लेकिन ये तो हैं मिथक , लेकिन पृथ्वीराज ने मुहम्मद गोरी को १६ बार हराया ,लेकिन हर बार उसने माफी मांग ली , और उन्होंने उसको माफ़ कर दिया /
                      अगर ईसाई Bigot जॉन मुइर , जैसे संस्कृतज्ञ इंडोलॉजिस्ट , की पुस्तक  "The ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट " , को क्वोट करते हुए , डॉ आंबेडकर ने जब वशिष्ठ और विश्वामित्र , तथा सुदास के वंशजों के बीच perpetual enmity का आधार बनाकर , शूद्रों की उत्पत्ति की परिकल्पना की , तो उन्हें ,मालूम नहीं था , की अगर ऐसे कोई दुश्मनी थी  भी तो , सतयुग के ४००० साल बाद त्रेता आते -आते दोनों में , सुलह हो गयी थी / क्योंकि जब राजा दशरथ से विश्वामित्र जी राम लक्ष्मण को अपने यज्ञ की रक्षा करने के लिए माँगते हैं , तो दशरथ जी नहीं देना चाहते थे ,,और कहा चौथे पण में मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी हैं ..इसलिए कैसे इनको आपके साथ भेज दूँ ?? तो गुरु वशिष्ठ ने दसरथ को समझाया -कि राजन आप अपने दोनों पुत्रों को, ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने दें , ये राम को राम बना देंगे / 
तीसरी बात फिर ४००० द्वापर में महाभारत में पजावन राजा का जिक्र किया है जो राजा सुदास का वंशज है / 
तो दो प्रशन उठते हैं कि न तो संस्कृतज्ञ जॉन मुइर को सनातन धर्म के कालचक्र , यानी सतयुग -कलयुग - द्वापर त्रेता ,,के Timeline  का पता था , और न डॉ आंबेडकर को / इसीलिये कब हुयी ये दुश्मनी ?? कब हुयी ये लड़ाई ??
इसीलिये  इसका अर्थ है ,या तो यह  एक  Bigot ईसाई की शाजिश थी , या अज्ञानता थी /जिसके जाल में डॉ आंबेडकर जी , उस आधारहीन नतीजे पर पहुंचे ?? 
लेकिन मेरा मत है किये एक Bigot ईसाई अधिकारी की ये भारत के समाज को बांटने की शाजिश थी , जिसमे वो कामयाब रहा / 
कैसे ?? आगे लिखूंगा /




Sunday 23 November 2014

"शूद्र कौन थे"- डॉ आंबेडकर , तथ्य या मिथ...? Part -25 :: डॉ आंबेडकर कितने गंभीर थे -" जाति उच्छेद के मुद्दे पर " ?

#जात कि #जाति ??
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 #जात_पांत , से जात - #बिरादरी तब हुयी , जब #इस्लाम का  भारत में प्रवेश हुवा / और लोग इस्लाम के प्रति मुहब्बत से लपक के मुसलमान बन गए ( अरे कोई मुहबत से अपनी जड़ को काटता है क्या ?) /
                            जात - बिरादरी और जात - पांत को विस्तारित किया जाय , तो केवट - राम संवाद से ही आप इसको समझ सकते हैं / निषाद कुटुंब , जो कि जलमार्ग के नियंत्रक यानि शासक हुवा करते थे , रामचन्द्र जी जब उससे वन गमन के समय श्रृंगबेरपुर में कहते हैं कि भाई मुझे गंगाजी के पार उतार दो - तो केवट कहता है कि -" मांगी नाव न केवट आनी , कहै तुम्हार मर्म मैं जानी " /
   फिर जब गंगा पार उतर के राम चन्द्र जी संकोच करते हुए उतराई के आवाज में ,,मुद्रिका देने लगते हैं , तो वो कहता है --" हे राम हमारी तुम्हारी जात एक है , मैं इस सुर सरि का खेवैया हूँ , और आप भवसागर के / मैं आप से कैसे उतराई ले सकता हूँ ?? हाँ आप ये जरूर ध्यान रखियेगा कि जब मेरा भवसागर पार करने का मौका आये तो , मुझसे उतराई मत लीजियेगा / यानी जात का मतलब --कुटुंब और एक ख़ास पेशा / तो पेशा तो बदला जा सकता था, कुटुंब को छोड़े बिना भी /
फिर ईसाई आये , उन्होंने संस्कृत पढ़ा ,और जो तालव्य का त ..और मूर्धन्य के ट का भेद नहीं समझते और तुमको को टुमको बोलते थे , वे संस्कृत मे विद्वता हासिल किए , और उनके शिष्यों ने उनसे इंग्लिश में, संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया / और उन विद्वानों ने caste को हिंदी अनुवाद जाति में किया,तो गांधी गांधी होते हुए भी आज तक तेली हैं , आंबेडकर आंबेडकर होते हुए भी आज तक महार है , और अखिलेश मुख्यमंत्री होते हुए भी अहीर हैं / तो अब आप पेशा भले ही बदल ले , लेकिन जाति का दाग आप पिछवाड़े चस्पा ही रहेगा /
वैसे अमरकोश के अनुसार जाति का मतलब -" वन औसधि , तथा सामान्य जन्म" भर है /
डॉ आंबेडकर के चेले आज तक ."Annihilation of castes "...पढ़ तो रहे हैं ,,लेकिन समझ नहीं पा रहे हैं / अभी कुछ दिन पूर्व   " जाति व्यवस्था के उच्छेद " पर परम विद सुश्री अरुंधती राय जी नए निष्कर्ष के साथ एक पुस्तक के रूप में प्रगट हो गई है
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माँगी नावं न केवट आना ,कहत तुम्हार मर्म मैं जाना /
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निषाद कहत सुनइ रघुराई ,मैं न लेहूँ प्रभु तेरी उतराई
हमरे कुल की रीति दयानिधि,संत मिले त करब सेवकाई \
रीति छोड़ उनरीति न करिहौं ,मैं न लेहूँ प्रभु तेरी उतराई/
नदी नावं के हमहि खेवैया, औ भवसागर के श्री रघुराई /
तुलसी दास यही वर मांगू , उहवाँ न लागै प्रभु मेरी उतराई /
--जात पांत न्यारी, हमारी न तिहारी नाथ ,
कहबे को केवट , हरि निश्चय उपचारिये
तू तो उतारो भवसागर परमात्मा
औ मैं तो उतारूँ , घाट सुर सरि किनारे नाथ /
नाइ से न नाइ लेत , धोबी न धुलाई लेत
त तेरे से उतराई लेत, कुटुंब से निकारिहयों /
जैसे प्रभु दीनबंधु ,तुमको मैं उतारयो नाथ /
तेरे घाट जैहों नाट मोको भी उतारियों
उहवाँ न लागै प्रभु मेरी उतराई /
मैं न लेहूँ प्रभु तेरी उतराई/.......चुन्नू लाल मिश्रा केवट राम संवाद /
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जब जात शब्द को तुलसी दास ने बताया था ,,जिसमें केवट ने कहा कि --रामचन्द्र जी आप और मैं एक ही जात के हैं ,,मैं गंगा जी मे नावं खेता हूँ , और आप भवसागर की नाव खेते हो , हमारी जात एक ही है ,जैसे नाउ नाउ से , और धोबी धोबी से पारिश्रमिक नहीं लेता , तो वैसे एक केवट दूसरे केवट से कैसे पारिश्रमिक ले सकता है / और लिया तो मुझे कुटुंब से #बाहर कर दिया जाएगा /यहाँ तक तो ठीक था /

उसी तरह पुर्तगालियों द्वारा ,, 1600 में जात के लिए के लिए Caste शब्द का प्रयोग किया गया / 1901 में जनगणना कमिश्नर H H Risley,  जनगणनां Caste के आधार पर पहली बार करता है , और 2000 से ज्यादा जातियां , "नेसल बेस इंडेक्स " को सोशल hiearchy  का आधार बनाया ./ उसने एक unfailing  "लॉ ऑफ़ caste " बनाया और बताया कि "भारत में लोगों के नाक की चौड़ाई उसके सामजिक स्टेटस के inversely proportionate होती है / दूसरी मह्हत्वपूर्ण बात ये है कि सोशल hierarchy के क्रम  मे जो उसने  लिस्ट बनाई उसको अल्फबेटिकल क्रम में न रखकर  सोशल hierarchy के आधार पर ऊपर से नीचे की ओर   लिस्टिंग किया / यहीं से उस ऊंची और निचली या अगड़ी और  पिछड़ी जातियों के एक नए सिद्धांत की रचना होती है , जिसके आधार पर सरकारें आज भी काम कर रहीं है /
      डॉ आंबेडकर खुद इस आधार को निराधार बताते हुए खंडन करते हैं , तो शायद एक ही तथ्य स्पस्ट होता है , कि वे तात्कालिक समय के एंथ्रोपोलॉजी जैसे विषयों में तो एक्सपर्ट थे ,लेकिन जब उन्होंने इतिहास की तरफ नजर उठाई तो , शायद कहीं फर्जी संस्कृत विदों के जाल में उलझ कर रह गये /
और जब हमारे देश के विद्वान जो कॉपी एंड पेस्ट के , आधार पर न जाने कितनी पीएचडी ,लेते और देते रहते हैं , उन्होंने caste का अनुवाद जाति में करते हैं , तो आधुनिक भारत की तस्वीर सामने आती है /
A L Basham जैसे लोग शायद इसी को जाति की तरलता और rigidity ऑफ़ caste सिस्टम के नाम से बुलाये //


  • नाइ से न नाइ लेत , धोबी न धुलाई लेत
    त तेरे से उतराई लेत, कुटुंब से निकारिहयों   इसीको ईसाई विद्वानों ने ..Outcasts का नाम दिया /, हिन्दू समाज में समाज को नियंत्रित करने के लिए एक व्यवस्था थी - जो उन मान्यता प्राप्त परम्पराओं का पालन नहीं करेगा उसको _"कुटुंब से निकारिहों " यानी जात-बाहर कर दिया जाता था / यानि उनको भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करना पड़ता था / उनकी सारी व्यक्तिगत अधिकारों से वंचित कर कुटुंब और समाजबहिस्कृत कर दिया था /
    इस बात का वर्णन डॉ बुचनन ने अपनी पुस्तक में 1807 में भी किया है - कि शूद्रों को अपने कुटुंब को संचालित करने के लिए ,उस समाज के बुजुर्ग आपसी सलाह के उपरांत किसी को सजा भी दे सकते थे / ये सामाजिक व्यवस्था ईसाइयत फैलाने में सबसे बड़ी बाधा थी / इसबात का जिक्र संस्कृत विद्वान मॅक्समुल्लर और पादरी M A शेरिंग दोनों ने लिखा है /
    इस लिए इस कुप्रथा का दानवीकरण करना ही पड़ेगा / और वही हुवा --इसी को outcasts कहा डॉ आंबेडकर ने ,,और आगे चलकर वर्ण व्यवस्था में एक और अंग के रूप में लिखा -"अवर्ण " /
    अब बांटे प्रमुखता से -
    (१) जब इन -"कुटुंब से निकारिहों " को धनसम्पत्ति बाल बच्चे पत्नी ,सब का त्याग करना पड़ता था ,तो इनके वंश कैसे आगे बढ़ेंगे / कैसे डॉ आंबेडकर के द्वारा वर्णित पांचवे वर्ण का निर्माण होगा ??
    (२) ईसाई संस्कृत विद्वानों ने बताया वर्ण - यानि चमड़ी का रंग / तो ये नहीं बताया कि कौन सा रंग गोरा काला नीला पीला या सतरंगी ?? किस रंग का सवर्ण समाज था ??
    (३) ....पांचवा वर्ण - अवर्ण / ये भी नहीं बताया कि इसका क्या मतलब होता है - बदरंग कि बिना रंग का ?? या discouloured , जो ईसाई mythology
    में वर्णित अनंतकाल तक स्लेवरी में रहने के लिए नूह द्वारा श्रापित Ham के वंशज - जिसके पाप के कारण गॉड ने उसके वंशजों को "काला" रंग दे दिया ???
     Tribhuwan Singh http://www.google.co.in/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s...

    MA Sherring वो पहला पादरी था जिसने caste and tribes of India नामक पुस्तक 1872 मे लिखा / वो इसाइयत मे हिंदुओं के धर्म परिवर्तन को लेकर इतना निराश था कि उसने एक परिकल्पना गठित की - #जाति का गठन धूर्त ब्रांहनों की एक शाजिश है जिसको उन्होने अपने आधिपत्य को बनाए रखने के लिए बनाया / और जाति बंधन मे बंधे व्यक्ति का उद्धार संभव नहीं है ( मने ईसाई नहीं बन सकता )
    यही बात मक्ष्मुल्लर भी लिखता है कि " जाति धर्म परिवर्तन मे सबसे बड़ी बाधा है , लेकिन एक समय ऐसा आ सकता है कि यही जाति सामूहिक धर्म का आधार भी बना सकता है " / कालांतर मे मक्ष्मुल्लर ने ही हिंदुओं को विभाजित करने और एक दूसरे के सामने खड़ा करने के लिए ये "AIT यानि #आर्य बाहर से आए " , वाली फर्जी कहानी गढ़ी , जिसका खंडन अंबेडकर ने 1946 मे  ही कर  दिया/
    नेपाल , बाली इन्डोनेशिया मे वर्ण अभी भी लिखा जाता है / नेपाल मे जात लिखा जाता है , जाति नहीं / डॉ अंबेडकर की ये परिकल्पना कि " जाति " हिंदूइज़्म की मूल परंपरा है तो नेपाल मे Caste / जाति क्यों नहीं है ? वो तो हिन्दू राष्ट्र है /

दलितचिंतन और जातिविमर्श:Part-24 :डॉ आंबेडकर कितने गंभीर थे -" जाति उच्छेद के मुद्दे पर " ?

 जात- पांत , से जात - बिरादरी तब हुयी , जब इस्लाम का  भारत में प्रवेश हुवा / और लोग इस्लाम के प्रति मुहब्बत से लपक के मुसलमान बन गए ( अरे कोई मुहबत से अपनी जड़ को काटता है क्या ?) /  जात - बिरादरी और जात - पांत को विस्तारित किया जाय , तो केवट - राम संवाद से ही आप इसको समझ सकते हैं / निषाद कुटुंब , जो कि जलमार्ग के नियंत्रक यानि शाशक हुवा करते थे , रामचन्द्र जी जब उससे वन गमन के समय श्रृंगबेरपुर में कहते हैं कि भाई मुझे गंगाजी के पार उतार दो - तो केवट -" मांगी नाव न केवट आनी , कहै तुम्हार मर्म मैं जानी " / फिर जब गंगा पार उतर के राम चन्द्र जी संकोच करते हुए उतराई के आवाज में ,,मुद्रिका देने लगते हैं , तो वो कहता है --" हे राम हमारी तुम्हारी जात एक है , मैं इस सुर सरि का खेवैया हूँ , और आप भवसागर के / मैं आप से कैसे उतराई ले सकता हूँ ?? हाँ आप ये जरूर ध्यान रखियेगा कि जब मेरा भवसागर पार करने का मौका आये तो , मुझसे उतराई मत लीजियेगा / यानी जात का मतलब --कुटुंब और एक ख़ास पेशा / तो पेशा तो बदला जा सकता था, कुटुंब को छोड़े बिना भी /
फिर ईसाई आये , उन्होंने संस्कृत पढ़ा ,और जो तालव्य का त ..और मूर्धन्य के ट का भेद नहीं समझते और तुमको को टुमको बोलते थे , वे संस्कृत मे विद्वता हासिल किए , और उनके शिष्यों ने उनसे इंग्लिश में, संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया / और उन विद्वानों ने caste को हिंदी अनुवाद जाति में किया,तो गांधी गांधी होते हुए भी आज तक तेली हैं , आंबेडकर आंबेडकर होते हुए भी आज तक महार है , और अखिलेश मुख्यमंत्री होते हुए भी अहीर हैं / तो अब आप पेशा भले ही बदल ले , लेकिन जाति का दाग आप पिछवाड़े चस्पा ही रहेगा /
वैसे अमरकोश के अनुसार जाति का मतलब -" वन औसधि , तथा सामान्य जन्म" भर है /








Friday 7 November 2014

"शूद्र कौन थे"- डॉ आंबेडकर , तथ्य या मिथ...? part-23 -डॉ आंबेडकर,ने1946 मे के लिए वेदों की ओर क्यों रूख किया ?

ब्रिटिशकाल के तीन जननयक ऐसे है , जिनहोने अंग्रेजों और इसाई पादरियों को सचमुच मे फिलन्थ्रोपिस्ट मान लिया - फुले , पेरियार और अंबेडकर / जिनहोने शायद ही अपने जीवन काल मे अंग्रेजों की खिलाफत की हो , बल्कि शायद चरण वंदना ही किया उनकी /
मैकाले की शिक्षा पद्धति लागू होने के पूर्व सोने की चिड़िया कहलाने वाले एक्सपोर्टिंग भारत राष्ट्र मे भारतीय शिक्षा पद्धति ब्रांहड़ों के हाथ मे थी , जो बिना वेतनमान लिए सिद्धन्नम से गुजारा करने वाले आचार्य भारत के सभी वर्णों के लोगो को प्रायः निशुल्क शिक्षा देते थे , जिसको धरमपाल जी ने लंदन के इंडिया ऑफिस लिब्रेरी से ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों द्वारा एकत्र किए आंकड़ो को अपनी पुस्तक "The Beautiful Tree " मे प्रकाशित किया है / उन आंकड़ो के अनुसार समृद्ध भारत मे उन गुरुकुलों मे शूद्र छात्रों की संख्या  ब्रामहन  छात्रों की तुलना मे 4  गुना  थी / लेकिन दरिद्र   भारत  के  उपरोक्त  मात्र  3 नायकों  की पूरी जिंदगी भारत ,  हिन्दू और  ब्राम्हण  विरोध  मे  बीत  गई / संस्कृत   भाषा  की  अनभिज्ञता  उनके  इन विचारों  के  मूल कारणों मे  से एक  प्रमुख कारण है /
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किसी भाषा की अनभिज्ञता के कारण आप कहाँ से कहाँ पहुँच सकते हैं , उसके सबसे बड़े उदाहरण डॉ अंबेडकर हैं / डॉ अंबेडकर ने संस्कृत ग्रन्थों के आधार पर अपनी थेसिस तैयार की थी / उनको संस्कृत नहीं आती थी तो उनको अर्धशिक्षित ईसाई संस्कृतज्ञों की शरण लेनी पड़ी /  लेकिन जिन झोला छाप संस्कृतज्ञों को पढ़कर वे जिन निष्कर्षों पर पहुंचे , उनकी प्रामाणिकता और विशासनीयता की जांच किया जाय/
डॉ अंबेडकर ने 1946  मे शूद्रों की दुर्दशा का  कारण पुरुष शूक्त को माना , जिसके अनुसार  शूद्रों का जन्म पुरुष के पैरों  से  होने  के कारण  उनको  मेनियल  कार्य  करने के लिए बाध्य  होना पड़ा / लेकिन यदि शूद्र परम्ब्रंह के पैरो से पैदा हुआ है , तो परंब्रम्ह के उसी पैर से तो #धरती भी पैदा हुयी जिसको हिरण्यगर्भा कहा जाता है जो धन धान्य -  सोना चाँदी रत्न और भांति भांति प्रकार की जीवन उपयोगी धातुओं को भी तो जन्म होता है /
हमारे यहाँ तो जीवन बनता ही है #क्षिति (पृथ्वी की मिट्टी ) , जल पावक गगन और समीर से /
"क्षिति जल पावक गगन समीरा "
पाँच रचित यह अधम शरीरा / "
सुबह उठकर उसी धरती से हम प्रार्थना करते हैं कि -
" समुद्रवसने देवी पर्वतस्तनमंडलम तथा
विष्णु प्रिया नमस्तुभयम क्षमस्व पाद स्पर्शम "
अर्थात "इस धरती स्वरूपा समुद्र मे बसने वाली हे विष्णु प्रिय लक्षमी जी , आपको पैरों से स्पर्श कर रहा हूँ , इसलिए मुझे क्षमा करें"-  इस प्रार्थना को हम भारतीय सुबह उठते ही , धरती को प्रणाम कर फिर उस पर अपने कदम रखते हैं /
तो इसका अर्थ तो ये भी होता है न कि शूद्र सनातन का मूलाधार है , नीव है / बिना पैरो के समाज विकलांग नहीं हो जाएगा ?
लेकिन डॉ अंबेडकर अलग निष्कर्ष पर पहुंचे ? कैसे ??
आइये पड़ताल करें /
   आंबेडकर जी पहले व्यक्ति हैं जो इस बात को 1946 में नकार देते हैं ,कि #आर्य यानि संस्कृत बोलने वाले लोग , बाहर से नहीं आये थे, #भारत के मूलनिवासी थे । फिर कौटिल्य और महाभारत को उद्दृत करते हुए कहते हें कि #शूद्र_भी_आर्य है यानि संस्कृत भाषी है । एक सामान्य सी बात है कि कभी जब संस्कृत आम् बोलचाल की भाषा रही होगी तो सभी संस्कृत में ही संवाद करते रहे होंगे । चाहे वे बाभन हो चाहे बनिया चाहे शूद्र ।
इसमें कोई विवाद की गुंजाईश बचती है क्या ।
किसी भी ग्रन्थ में लिखा है कि #शूद्र को #संस्कृत बोलने की मनाही है ??
#आर्य का मतलब -महाकुलिन कुलीन आर्य सभ्य सज्जन साधवः । या मात्र एक संबोधन ।
मक्स्मुल्लेर ने भी यही कहा कि आर्य माने संस्कृत बोलने वाले ??
बताइए कहीं गुंजाईश बचती है बहस की ??
लेकिन शायद जब तक सफ़ेद चमड़ी वाले की मुहर न लगे ,मानसिक दासों को विश्वास नहीं होता ।
अभी तक अंग्रजी बोलना ही विद्वता का प्रतीक रहा है भारत में। क्या बोलते हैं , वो मायने नहीं रखता ।
लेकिन जब सीधे सोचने की क्षमता खो चुके हैं , तो आंबेडकर तो क्या कोई भी भारतीय बोले , हम को फरक नहीं पड़ता , हम तो महिषासुर की ही पूजा करेंगे ।
लेकिन पिछले 10 सालों से सफ़ेद चमड़ी वालों ने भी डॉ अम्बेडकार के कथन को प्रमादिक करार दे दिया है  ।
ऐसे में दो ही चीज हो सकती है , या तो इन्होने पढ़ना बंद कर दिया है । या फिर इनके राजनीतक स्वार्थ हैं ।
अरे कोई पूंछे इन मंद्बुद्धियो से कि महिसासुर ने किस भाषा में संवाद किया था ??अवधी में कि भोजपुरी में
??

तो किस विद्वान ने कहा कि आर्य बाहर से आये ??
मक्स्मुल्लेर ने ?? या जॉन मुइर ने या पादरी शेरिंग ने ??
कब आये ?? प्रागैतिहासिक काल में ??
यानी मिथकों (महाभारत और रामायण काल) के पहले ??
अच्छी गुंडई फैलाये हैं , मिथक भी कह रहे हो , और उसी को आधार बना कर ड्रामा भी रचा जा रहा है ।
भाई एक दिशा में चलो न ??
ये अंग्रेज तो आपका उद्धार ही करने आये थे , आप के पुरखो को तारने के लिए ही उन्होंने  आर्य द्रविड़ सवर्ण अवर्ण असवर्ण शूद्र अति शूद्र दलित शब्द गढ़े ।
अगर ये वैदिक काल से है तो ये शब्द भी वेदों में मिलने चाहिए ?? 

दिखाइए   किस वेद में लिखा है ??
शब्दों का अपना एक इतिहास होता है ।
25 - 30 साल पहले की कोई डिक्शनरी उठा लीजिये, और खोजिये scam शब्द ??और अगर मिल जाय तो बताइएगा ।
जब नेहरु के जमाने से लेकर इंदिरा के जमाने तक जितने सरकारी चोर थे उनका स्तर वस्तुतः गिरा हुवा था, तो घोटाला शब्द से काम चल जाता था । लेकिन जब मनमोहन के जमाने में उच्च कोटि के सरकारी डकैत आ गए , तो scam यानि महाघोटाला जैसा शब्द गढा गया ।

अब एक प्रश्न उठता है कि आंबेडकर साहब ने रिगवेद को ही क्यों आधार बनाया , अपने बात को सिद्ध करने के लिए ??
और नारदस्मृति और आरण्यक ब्रामहन जैसी   पुस्तको के आधार पर ही क्यों अपने निष्कर्षो पर पहुंचे ??
इसके दो उत्तर है ;
(1)एक आधुनिक लेखक क्या कहता है जरा देखें  -

" एक ख़ास किस्म की एक कौम पैदा हुयी उसकी  संस्कृत के पुराने ग्रंथो के अध्यन में ही रूचि थी, जो  Orientalist Phillologist Indologist जैसे कौम के नाम से जानी जाती है ।उन्होंने भारत के तात्कालिक स्थिति का वर्णन न करके सिर्फ एक अनदेखे समयकाल के ग्रंथो को आधार बना कर तात्कालिक भारत पर टैग / चपका दिया। एक मिथ फैलाया गया की भारतीयों के पास इतिहास लिखने की कूबत नहीं होती ।इसलिए इतिहास को अपने हिसाब से लिख दिया । ये मिथ भी फैलाया कि वे बिजेता थे । इसलिए उनका शासन जस्टीफ़ाइड था । वही तात्कालिक राजनैतिक और सामाजिक परिस्थियों पर सन्नाटा पसरा पड़ा है ।"
---Castes of Minds " By Nicholas B. dirk
ऐसी स्थिति में डॉ आंबेडकर ने जब 1925 के आसपास जब भारतीय राजनीति में कदम रखा तो उनके पास 175 साल पूर्व के भारतीय समाज को समझने का कोई साधन या इनफार्मेशन उपलब्ध नहीं था ।
इसलिए घूमफिर कर उनको विदेशी संस्क्रितज्ञो की शरण में जाना पड़ा।
ये संस्क्रितज्ञ इतने ज्यादा संख्या में थे की आप कल्पना नहीं कर सकते । मात्र जर्मनी ने अकेले दम पर 132 इन्डोलोजिस्ट पैदा किया ।


  (2) दूसरा कारण है कि डॉ आंबेडकर हिंदूइस्म के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे , और उनके आत्मकथा लेखक धीर के अनुसार बाबा साहब की प्रिय धर्मग्रंथ बाइबल थी , जो शायद उनका प्रेरणा ग्रंथ था / और चूंकि सूचना के श्रोत सारे के सारे , ईसाईयो के द्वारा भारत के ऊपर तथाकधित संस्कृत विद्वानों के द्वारा लिखी हुई पुस्तकें थी / इसाइयों ने जब पूरी दुनिया पर कब्ज़ा किया , तो बाइबिल में लिखे जेनेसिस के आधार पर उस कब्जे को लीगल sanctity दी /उससे २-३ फैक्ट्स काफी हैं बताने के लिए -
बाइबिल के अनुसार पूरी मानवीयता सब आदम को वंशजें है , और सब एक ही भाषा बोलते हैं / टावर ऑफ़ बेबल के में ये भी लिखा है ,वही से वे पूरी दुनिया में फैले / आदम कि संताने एक ही भाषा बोलती है /
अब जब विल्लियम जोंस ने अठारवीं शताब्दी के अंत में कलकत्ता में एशियाटिक सोसाइटी कि स्थापना की / तो डिक्लेअर किया कि संस्कृत एक बहुत ही सुन्दर भाषा है ,जो लैटिन और ग्रीक से भी ज्यादा परिस्कृत है / अभी तक ये पादरी  बाइबिल के इस verse का कोई एक्सप्लेन नहीं दे पाते थे कि दुनिया कि सारी  मानव प्रजाति एक ही भाषा कैसे बोलते  थे और वो भाषा थी कौन ? अब जब आगे जाके मैक्समूलर आर्य (संस्कृत बोलने वाले ) बाहर से आये थे , और फिर आर्यों और उनकी संस्कृत भाषा को इंडो ईरानी से ,इंडो यूरोपियन और होते होते इंडो जर्मन भाषा का कलेवर देंगे , तो बाइबिल के उस verse को सिद्ध कर पाएंगे कि दुनिया के सारे मनुष्य एक ही भाषा बोलने वाले थे / यद्यपि इसकी कीमत मानवीयता को इसाइयों के द्वारा सर्वश्रेष्ठ आर्य हिटलर के नेतृत्व मे ,  दूसरे विश्व युद्ध मे 60 लाख यहूदियों और 40 लाख जिप्सियों के खून से चुकाना पड़ेगा / और "संस्कृत समस्त भाषाओँ की जननी " होने का गौरव प्राप्त करेगी / 


 हालांकि ये verse जब रची गयी थी तो उस समय जीसस और इसके अनुयायी हिब्रू भाषा बोलने वाले थे / इस लिए तब तक तो ये verse को एक्सप्लेन करने में कोई दिक्कत नहीं थी , क्योंकि जीसस स्वयं भी हिब्रू ही बोलते थे , लेकिन जब यहूद के बाद एक नए रिलिजन ने जन्म हुवा ,तो इनके धार्मिक गुरुओं को इस verse को प्रामाणिक सिद्ध करने में दिक्कत होती थी /
(२) दूसरा जब जेनेसिस के अनुसार नूह के श्राप से उनके तीसरे पुत्र Ham की संतानों की संतानो को अनंत काल तक जेफेथ और शेम के वंशजो की perpetual स्लेवरी में रहना पड़ेगा / और बाद में उसमे संसोधन होता है कि , चूंकि Hamites श्रापित है नूह के द्वारा ,इसीलिये उनका रंग
उस पाप के कारन काला हो गया था / महान रोमन सभ्यता में स्लेवरी एक बहुत आम व्यस्था थी और ईसाइयत में उसको Religious  मान्यता प्राप्त थी , इसीलिये 1770 में आजाद हुए अमेरिका में ..काले नीग्रो को 1960 तक गोरे ईसाईयों के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं हुवा थे /
       डॉ आंबेडकर को हिन्दू / सनातन परम्परा का ज्ञान तो था नहीं , लेकिन उनके छात्र जीवन का एक लम्बा समय ,ईसाइयों की सोहबत में गुजरा था, इसलिए उनको ईसाइयत के इसके फलसफे से वाकिफ होना कोई बड़ी बात नहीं है /
डॉ आंबेडकर ईसाइयत के इसी फलसफा के अनुसार - शायद शूद्रों की 1946 में दुर्दशा का कारन जानने के लिए वेदों की ओर रुख किया होगा /


डॉ आंबेडकर शूद्र की उत्पत्ति का कारण खोजने के लिए फिर संस्कृत विद जॉन मुइर के पुस्तक "the ऑरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट " के पुस्तकांश का रिफरेन्स देते हैं / जो 19 साल की उम्र में भारत आया था , और 29 साल की उम्र में "मत्परीक्षा " नाम की पुस्तक लिखता है , जिसमें ईसाइयत को हिंदूइस्म से श्रेष्ठ घोषित करता है, जो त और ट के उच्चारण का फर्क नहीं समझता , जिसने दस साल की उम्र में निष्ठापूर्वक सरकारी नौकरी करते हुए ,समस्त संस्कृत ग्रंथो ,वेद उपनिषद् ,आरण्यक ब्राम्हण ,रामायण  और न जाने ग्रंथों , को उदरस्थ कर लिया था / और इस लायक हो चूका था कि "the ऑरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट " जैसी अप्रितम रचना लिख मारी थी /उसकी पुस्तक के पुस्तकांश में Satyayana ब्रह्मण के हवाले से , वशिष्ठ और विश्वामित्र (सुदास राजा ) कई वंशजो के दुश्मनी का आधार बनाया है / क्योंकि बाइबल के Genesis मे ही ब्रांहंद की उत्पत्ति ,  नूह  और उससे श्रपित ham की बात लिखी है , इसलिए डॉ अंबेडकर ने भी वेद के पुरुषोक्त को आधार बनाया जो कि ब्रांहंड के उत्पत्ति के बारे मे बात करती है /
        इस तथ्य कि भी पड़ताल होना आवश्यक है / कि डॉ आंबेडकर जैसा विद्वान ,  उस समय काल में जितने राजनीतिज्ञ थे उनमे सबसे अधिक शिक्षित थे , कैसे एक bigot ईसाई के जाल में फंस गए , संस्कृत भाषा की अज्ञानता के कारण /
अगर आप वर्तमान को , एक ऐसे प्रागैतिहासिक पुस्तकों में वर्णित कुछ श्लोकों के आधार पर वर्णित करना चाहेंगे, और उस को किसी और रिलिजन के फ्रेमवर्क में फिट करेंगे , जिसमे वो फिट ही नहीं बैठ सकता , तो आप हमेशा दिग्भ्रमित होंगे /
हिन्दू धर्म के ऐतिहासिक परंपरा में ,perpetual enmity का , हारने वालों को स्लेव बनाने का , उनका क़त्ल करने का कोई जिक्र तक नहीं है / राम ने रावण को हराया तो , राज्य विभीषण के हवाले कर, वापस अयोध्या आ गए / कृष्ण ने जब जरासंध की हत्या करवाई भीम के हांथों ,तो उसके पुत्र को राज पाट सौप दिया/ युधिस्ठिर ने जब चक्रवर्ती राजा बनने के लिए , जब राजसूय यज्ञ कराया , तो सारे अधीन राजाओं से कर लेकर ,उनको अभयदान दिया /
लेकिन ये तो हैं मिथक , लेकिन पृथ्वीराज ने मुहम्मद गोरी को 16 बार हराया ,लेकिन हर बार उसने माफी मांग ली , और उन्होंने उसको माफ़ कर दिया /
                      अगर ईसाई Bigot जॉन मुइर , जैसे संस्कृतज्ञ इंडोलॉजिस्ट , की पुस्तक  "The ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट " , को क्वोट करते हुए , डॉ आंबेडकर ने जब वशिष्ठ और विश्वामित्र , तथा सुदास के वंशजों के बीच perpetual enmity का आधार बनाकर , शूद्रों की उत्पत्ति की परिकल्पना की , तो उन्हें ,मालूम नहीं था कि अगर ऐसे कोई दुश्मनी थी  भी तो , सतयुग के 4000 साल बाद त्रेता आते -आते दोनों में , सुलह हो गयी थी / क्योंकि जब राजा दशरथ से विश्वामित्र जी राम लक्ष्मण को अपने यज्ञ की रक्षा करने के लिए माँगते हैं , तो दशरथ जी नहीं देना चाहते थे इसलिए उन्होने विश्वामित्र से कहा - चौथे पण में मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी हैं इसलिए कैसे इनको आपके साथ भेज दूँ ?? तो गुरु वशिष्ठ ने दसरथ को समझाया -कि राजन आप अपने दोनों पुत्रों को, ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने दें , ये राम को राम बना देंगे /
तीसरी बात फिर डॉ अंबेडकर के अनुसार द्वापर में महाभारत में पजावन राजा का जिक्र किया गया है जो राजा सुदास का वंशज है /
तो दो प्रशन उठते हैं कि न तो संस्कृतज्ञ जॉन मुइर को सनातन धर्म के कालचक्र , यानी सतयुग - त्रेता -द्वापर - कलयुग ,,के Timeline  का पता था , और न डॉ आंबेडकर को / इसीलिये कब हुयी ये दुश्मनी ?? कब हुयी ये लड़ाई ??
इसीलिये  इसका अर्थ है कि या तो यह    Bigot ईसाइयों की शाजिश थी या डॉ अंबेडकर की अज्ञानता थी जिसके जाल में फँसकर डॉ आंबेडकर जी उस आधारहीन नतीजे पर पहुंचे ??
लेकिन मेरा मत है किये एक Bigot ईसाई अधिकारी की ये भारत के समाज को बांटने की शाजिश थी , जिसमे वो कामयाब रहा /
कैसे ?? आगे लिखूंगा /


 कुछ लोग आहत हैं कि उनकी नफ़रत की राजनीति का आधार खिसकता दिख रहा है /
कुछ चिंतित हैं कि धर्म परिवर्तन का बेस गायब हो रहा है / अगर शूद्र सम्बोधन उतना ही सम्मानीय था जितना कि बाकी वर्ण ,,तो समाज का एक बहुत बड़ा तबका ..एक गर्व से सम्मानित महसूस कर रहा है / उसके मस्तिस्क में भरे गए विष की ग्रंथि ,,अचानक से फुट जा रही है ,,और वो राहत की साँस ले रहा है, जिस घुटन का अहसास पता न जाने कितने सालो से , वो महसूस कर रहा था , उससे निजात मिलता दिख रहा है /




Tuesday 4 November 2014

डॉ अंबेडकर के उद्धरण संस्कृतज्ञों की पड़ताल : क्या उनमे संस्कृत ग्रन्थों को समझने की अक़लियत थी ? Part -22

डॉ अंबेडकर के उन संस्कृतज्ञ संदर्भ सूत्रों की एक जांच पड़ताल, जिनके संदर्भों को लेकर उन्होने अपनी थेसिस लिखी थी/
----------------------------------------------------------------------------------------------------------- डॉ अंबेडकर ने लिखा कि - "शूद्र  संपत्ति के अधिकार  से वंचित थे " /  

आइये देखें कि यह  एक  भ्रांति  थी , या  झोला छाप  ईसाई संस्कृतज्ञों  की  रची हुयी  शाजिश थी , जिनके बिछाए जाल मे   डॉ  अंबेडकर  सहज  रूप  से  फंस कर  रह गए / 
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तो प्रश्न फिर वही आके अँटक जाता है कि शूद्र संपत्ति के अधिकार या संपत्ति से कब वंचित थे या हुए ??
  या तो प्रागैतिहासिक समय में जिसका हमारे पास ग्रंथो के उद्धरण के अलावा कोई सबूत नहीं है या फिर 1807 के बाद ?
तो फिर सबूतों की सुई , घूम फिर कर भारत के 1750  के बाद के आर्थिक इतिहास पर आकर ठहर जाती है /
इस कठोर सच्चाई की ओर नजर उठकर कर देखिये तो सच्चाई कि परतें खुलती हुई नजर आएंगी /

 डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक "शूद्र कौन है " में ज्यादातर जॉन ज्यादा मुइर को क्वोट किया है / जॉन मुईर की  पर्सनालिटी के बारे में बाद में , लेकिन पहले उसकी पुस्तक Original Sanskrit Texts on the Origin and Progress of the Religion  में से कुछ उध्दरण -जो जॉन मुइर की अपनी खुद की राय हैं -

" -हिन्दू ,,जो कि indogerman के उत्पत्ति हैं ,,भारत में बाहर  से आये और सबसे पहले उत्तर भारत में रहने लगे / (प्राककथन ) /
-माधव ने कहा कि वेद तीन सिर्फ श्रेष्ठ तीन जातियाँ ही वेद पढने योग्य है /
-मिथिकीय दृष्टिकोण से देखा जाय तो वेदों कि उत्पत्ति के बारे में विरोधाभास है /
- ब्रम्हा ,वेदांत और सरिरिका सूत्र के निर्माता बादरायण जी के बारे मे आचार्य शंकर और जैमिनी दोनों एक मत है / इस प्रश्न के उत्तर में कि क्या कोई भी हिन्दू वेद पढ़ सकता है ? काफी विमर्श के बाद , सूत्रों के रचनाकार इस निर्णय पर पहुंचे हैं ,कि सिर्फ तीन श्रेष्ठ जनजातियाँ (ट्राइब्स) ही वेद पढने के योग्य हैं,,चौथी निम्न जनजाति (ट्राइब) वेदों के पढने के आयोग्य है / "....Original Sanskrit Texts on the Origin and Progress of the Religion and ....पेज ६५-६

-  "ये नान आर्यन नश्ल  के लोग अम्रीका  के  रेड  इंडियंस की तरह ही  कमजोर  नश्ल  के थे  / दूसरी तरफ  Arians ज्यादा  संगठित और enterprising और creative लोग थे,  धरती पर  जन्म लेने  वाले  ज्यादा  सुदृढ़  पौधे  और जानवरो   की   तरह   ज्यादा  सुदृढ़  लोग/  अंततः  दो  विपरीत  राजनैतिक लोगों   की  तरह अलग दिखने   वाले   लोग /  Arian इस  तरह  से श्रेष्ठ और विजेता  नश्ल   साबित  हुयी /  इसको  प्रमाणित करने के  लिए  complexion ( रंग) को  एक  और  सबूत  की तरह   प्रस्तुत  किया  जा सकता   है/
संस्कृत  मे  caste  को मूलतः रंग ( कलर) के  नाम  से  जाना जाता  है इसलिए  caste  उनके   रंग ( चमड़ी  के  रंग) से  निर्धारित  हुयी /   लेकिन  ये  सर्व विदित  है   की ब्रांहनों  का  रंग  शूद्रों  और  चांडालों से  ज्यादा फेयर  था  /   इसी  तरह  क्षत्रियों  और वैश्यों  का  रंग  भी फेयर  रहा होगा / 
इस  तरह  हम  इस  निर्णय  पर  पहुँचते  हैं कि  Arian - इंडियन मूलतः  काले  मूलनिवासियों  से  भिन्न थे ; और इस  अनुमान को  बल मिलता है  कि वे  किसी उत्तरी  देश  से  आए  थे / अतः  Arian भारत  के  मूलनिवासी  नहीं थे बल्कि किसी दूसरे देश  मे उत्तर ( भारत )  मे आए  और  यही मत प्रोफेसर  मक्ष्मुल्लर का भी है "/ 
from - Original Sanskrit Texts , Second Part ; पेज 308- 309 by john muir 
ये है  डॉ अंबेडकर के  सबसे  चहेते  संदर्भ वाले  संस्कृतज्ञ का एक उद्धरण / कल्पना की भी कोई सीमा होती होगी , लेकिन जॉन मुईर के आरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट के ऑरिजिनैलिटी की  की सीमा  नहीं , असीमित है , अनिर्वाचनीय है /

  
 
जहाँ आंबेडकर जी खुद ही इस निर्णय पर पहुंचे है कि आर्य यानि हिन्दू बाहर से नहीं आये थे बल्कि मूल निवासी थे, indogerman नहीं थे/  तो उसी का खंडन करने वाले जॉन मुईर के  बाकी निष्कर्षो से सहमति का क्या आधार है ??


 सफ़ेद चमड़ी वाले क्रिस्चियन बाइबिल की श्रेष्ठता से इतने ग्रस्त थे कि उनको वेदों के निर्माताओ की बुद्धि को एक बच्चे से बड़ा नहीं समझते थे । मानवता के शुरवात में वेदों की रचना हुई , तो कमतर मस्तिस्क वाले हिन्दू जंगल में ही तो रहता होगा , इसलिए उनको ट्राइब  कह कर संबोधित किया गया । ट्राइबल इलाके के निवासी - इसलिए ट्राइब ।

 अब कुछ शब्द #जॉन_मुइर के बारे में / जॉन मुइर एक स्कॉटिश था जिसके पैदाइश 1910  में हुई थी ,वो 1929  में बंगाल में सिविल सर्वेंट के रूप में आया बाद में ये इलाहाबाद में रेवेनुए कमिशनर था / बाद में ये फतेहपुर जज बना / ये ईसाइयत फैलाने वाली मिशनरी उत्साह के बजाय सादगी से इसे ईसाइयत को हिन्दू मत से श्रेष्ठ सिद्ध करने का हिमायती था /  1939  में इन्होने एक "मत्परीक्षा" नाम कि पुस्तक लिखी ,जिसमे हिंदूइस्म को ईसाइयत से तुलना तो की,लेकिन ईसाइयत को श्रेष्ठ मत बताया /
इसके बाद इन्होने भारत की सभ्यता ,संस्कृति और धार्मिक इतिहास प् एक किताब लिखी ....... "Original Sanskrit Texts on the Origin and Progress of the Religion and Institutions of India" 1958
 

अब २ सवाल उठते हैं-
(१) क्या इस उम्र में (लगभग 40 से 50 साल की उम्र ) एक स्कॉटिश ,सरकारी नौकरी करते हुए ,,क्या संस्कृत में इस तरह दीक्षित हो सकता है की ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट पढने की काबिलियत पैंदा कर सकता है ?
(२) क्या कोई संस्कृत में दीक्षित होने के बावजूद उस उम्र में सरकारी नौकरी करते हुए ,,4 वेद ,108  उपनिषद गीता रामायण, ब्राम्हण स्मृतियाँ ,असंख्य पुराण , और महाभारत न जाने कितने सूत्र और भाष्य इत्यादि सारे  ग्रंथो को पढ़ सकता है ??
और उन पर एक एक्सपर्ट की तरह अपना मत प्रकट कर सकता है /
तो फिर संदेह होना लाजिम नहीं है क्या कि क्या वाकई ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट है ?? सिर्फ ओरिजिनल लिख भर देने से कोई चीज ओरिजिनल हो सक्ती है क्या ? यानि एक और संस्कृतज्ञ विद्वान से कॉपी एंड पेस्ट / इसीलिये मैंने लिखा कि आंबेडकर जी ने जो भी उद्धरण अपनी पुस्तक में शामिल किया है वो अनुवादों के अनुवादों का अनुवाद है, 
ओरिजिनल नहीं है   / और साथ कल्पना की उड़ान मलाई मार के/
सोचिये जरा एक पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यक्ति जो हिंदूइस्म को ईसाइयत से निम्न समझता है ,,,उसकी ईमानदारी पर आप शक क्यों नहीं करेंगे ??
फिर उस व्यक्ति जो शक के दायरे में आ जाता है उसको पढ़ कर और कॉपी पेस्ट किये गए तथ्यों पर लिखी गयी पुस्तक की प्रामाणिकता  कितनी हो सकती है /


  दूसरा रिफरेन्स डॉ आंबेडकर ने मॅक्समुल्लर का दिया है जो एक जर्मन इंडोलॉजिस्ट है / इंडोलॉजिस्ट का मतलब जो भारत प्रागऐतिहासिक इतिहास और संस्कृत भाषा के विद्वान है /
अब तक 133  इंडोलॉजिस्ट तो सिर्फ जर्मन विद्वान हुये है , सोचिये जरा ?अनुवादों के अनुवादों
का अनुवाद करने वाले /
मॅक्समुल्लर फ्रांस में एक दूसरे इंडोलॉजिस्ट द्वारा संस्कृत English  डिक्शनरी ,,पढ़कर संस्कृत के विद्वान बने गया था  / उनका जन्म 1828  में जर्मनी में हुवा था और बेसिक शिक्षा जर्मन में हुवी थी , उन्होंने 1860 में ऑक्सफ़ोर्ड में "प्रोफेसरशिप ऑफ़ बोडेन चेयर " के लिए इलेक्शन लड़ा लेकिन एक दूसरे ब्रिटिश इंडोलॉजिस्ट Sir Monier Monier-विलियम्स से हार गए (क्योंकि 1857   में भारत में शहीद किये गए अंग्रेजों, के कारन इंग्लॅण्ड में उत्पन्न जनाक्रोश के कारण ब्रिटिश राष्ट्रवाद बहुत जोरों पर था /)

Sir Monier Monier विलियम जी का भारत में द्रविड़ियन कल्चर को पैदा करने में काफी बड़ा योगदान था /
ऑक्सफ़ोर्ड में "प्रोफेसरशिप ऑफ़ बोडेन चेयर " कि स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्नल जोसफ बोडेन ने भारत में लूट के अपने पैसे को विश्वविद्यालय को दान देकर किया था/ इस चेयर एकमात्र उद्देश्य संस्कृत का अध्ययन करके  भारत में ईसाइयत में फैलाना है /(गूगल गुरु से मदद लें )
अब इसके बाद बेरोजगार मैक्समूलर को ईस्ट इंडिया कंपनी में प्रतिदिन की मजदूरी पर ,भारत के संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद करना था / हालांकि मैक्समूलर कभी भारत नहीं आये ,लेकिन उदारमना भारतीयों ने दिल्ली में उनके योगदान के लिए मैक्समूलर भवन कि स्थापना की है /
एक भारतीय इतिहासविद प्रदोष एच ने लिखा है कि मैक्समूलर एक स्विंडलर था / जो आदमी विशेविद्यालय मे झाँका तक न हो उसको भी अगर डॉ और प्रोफेसर कोई बना सकता  हैं - तो इस  देश  के  समाजशाश्त्र के  विद्वानो  का  अभिनंदन होना  ही  चाहिए/  ये प्रदोश  आइछ ने  अपने   शानदार  रिसर्च  बूक  मे  प्रामाणिक तथ्यों के  आधार पर  लिखा   है/


  http://www.google.co.in/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s...

 तीसरा रिफरेन्स डॉ आंबेडकर ने दिया है , इंडोलॉजिस्ट प्रोटेस्टंट मिशनरी M A शेररिंग का, जिसने  1872 में "कास्ट एंड ट्राइब्स ऑफ़ इंडिया " नामक किताब लिखी /
ये प्रथम इंडोलॉजिस्ट हैं   जिन्होंने पहली बार caste को आधार बनाते हुए पुस्तक लिखी है लेकिन अभी इनके समय तक भी caste का मतलब सिर्फ पेशा ही था /
लेकिन ये इस बात से   निराश थे कि ब्रिटिश भारत के हिन्दू  ईसाई धर्म अपनाने को तैयार  क्यों नहीं हो रहे थे / अतः इन्होने इसका एक नयी तरकीब खोजी / इन्होने तर्क दिया - "क्योंकि वेदों में जातियों का वर्णन नहीं है ( वस्तुतः किसी भी संस्कृत टेक्स्ट में नहीं है ),  अतः ये 
लोगो को जातियों में बांटने  की  "धूर्त ब्राम्हणों " की  शाजिश है / "
ये पहला ईसाई पादरी था जिसने ईसाइयत फ़ैलाने हेतु .ब्राम्हणो और ब्रम्हानिस्म को गाली दी /प्रकारांतर में ये काम वामपंथी और दलित चिंतक कर रहे हैं /
अब फिर बात वहीँ आकर फंस गयी --भारत के 1750 के बाद के आर्थिक इतिहास पर जब भारत का जीडीपी विश्व जीडीपी का 25 प्रतिशत शेयर होल्डर था और ब्रिटेन मात्र 2 प्रतिशत का / भारत एक एक्सपोर्टर देश था / लेकिन एक पादरी को ब्रम्हानिस्म को गरियाने का समय काल को देखिये 1900  के आसपास ,जब भारत का आर्थिक ढांचा पूरी तरह नष्ट हो गया था / और वो मात्र २ प्रतिशत DGP का शेयर होल्डर बचा था / यानि upside डाउन / 87.5 %  प्रतिशत वार्ता और कारकुशीलव अर्थात शिल्प  निर्माता  बेरोजगार बेघर हो चुके थे /और  दरिद्रता का आलम ये था कि 1875- 1900 के बीच 2.5 से 3 करोड़ लोग भूख से और अन्न के अभाव से मौत के मुह मे समा जाते हैं , यद्यपि अन्न का कोई अभाव नहीं था , बस उनके पास अन्न खरीदने की क्रयशक्ति नहीं बची थी /
कार्ल मार्क्स के 1853 में भारत के बारे में छपे एक लेख के अनुसार ढाका  में 1815 में करीब एक लाख पचास हज़ार शिल्पी थे ,जिनकी संख्या 1935 में घटकर मात्र बीस हज़ार बची थी / बाकी एक लाख 30 हजार शिल्पियों का और उनके परिवार का क्या हुआ , जो भारत के गौरवशाली जीडीपी के दो हजार साल से उत्पादक थे / ये प्रश्न डॉ अंबेडकर की आँख मे आँख डालकर उनके भारतीय समाज और उसके इतिहास के समझ पर प्रश्ञ्चिंह खड़ा कर रहे हैं / 

क्या उनको जबाव मिलेगा ? अंबेडकर के झंडाबरदार अनुयायी क्या इन सहज जिज्ञासाओं का सामना करेंगे ?

क्या M A शेरिंग जैसे bigot क्रिश्चियन इंडोलॉजिस्ट के रिफरेन्स पर प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा किया जाना चाहिए ??


एक नई  दृष्टि से  नीचे वर्णित लेख को पढ़ें , सोचे , और मेरे लेख पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करें /
शूद्र एक घृणित सम्बोधन कब हुआ :
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(१) डॉ बुचनन ने १८०७ में प्रकाशित ,अपनी पुस्तक में ये जिक्र किया है ..बंटर्स शूद्र थे , जो अपनी पवित्र वंशज से उत्पत्ति बताते हैं / देखिय बताने वालों के शब्दों में एक आत्म सम्मान और गर्व का पुट है / यानि 1800 के आस पास तक शूद्र कुल में उत्पन्न होना , उतना ही सम्मानित थे , जितना तथाकथित द्विज वर्ग / इसके अलावा 1500 से 1800 के बीच के ढेर सारे यात्रा वित्रांत हैं जो यही बात बोलते हैं ..अगर आप कहेंगे तो ,,उनको भी क्वोट कर दूंगा/ फिर धूम फिर कर सुई वापस भारत के आर्थिक इतिहास पर आ जाता है / 1900 आते आते भारत के सकल घरेलु उत्पाद में 1750 की तुलना में 1200 प्रतिशत की घटोत्तरी हुई ,700 प्रतिशत जो घरेलु उत्पाद के प्रोडूसर थे , उनके सर से छत , तन से कपडे छीन गए और उनका परिवार भुखमरी ,,और भिखारी की कगार पर पहुँच गया / अब उन्ही पवित्र शूद्रों के वंशजों की स्थिति 150 सालों में ,,upside डाउन हो गयी / अगर छ सात पीढ़ियों में शूद्र "रिचेस तो रुग्स " की स्थिति में पहुँच गया तो समाज का दृष्टिकोण भी बदल गया /जब एक अपर जनसमूह जिसकी रोजी रोटी का आधार हजारों साल से --"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च /" के आधार पर जीवन यापन करने वाला शूद्र वर्ण में विकसित हुवा तबके का आधारभूत, परंपरागत व्यवसाय जाता रहा / यही वर्ग हजारों सालों से भारत के अर्थजगत की रीढ़ हुआ करती थी / समाज में भौतिकता यानि spirituality का ह्रास हो रहा था / एक सोसिओलोगिस्ट प्रोफेसर John Campbell ओमान ने अपनी पुस्तक "Brahmans theism एंड Musalmans " में लिखा .."कि ब्रम्हविद्या और पावर्टी ( अपरिग्रह और हमारे ऋषि मुनि  साधू सन्यासी और गांधी के भेष भूसा को कोई ब्रिटिश - पावर्टी ही मानेगा ) का सम्मान जिस तरह ख़त्म हो रहा है ,,बहुत जल्दी वो समय आएगा ,,जब भारत के लोग धन की पूजा ,पश्चिमी देश कि तरह ही करेंगे / " तो ऐसे सामजिक उथल पुथल में ...ये तबका सम्मानित तो नहीं ही रह जाएगा ,,घृणित ही समझा जाएगा / ये तो सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की देन है /

(२) शूद्र शब्द दुबारा तब घृणित हुआ जब इस बेरोजगार बेघर हुए तबके को को बाइबिल के फ्रेमवर्क में फिट किया गया /
बाइबिल के अनुसार जेनेसिस (ओल्ड टेस्टामेंट ) में ये वर्णन है ,( Genesis 5:32-10:1New International Version (NIV) ) नूह की उम्र ५०० थी और उसके तीन पुत्र थे Shem, Ham and Japheth.गॉड ने देखा की जिन मनुष्यों को उसने पैदा किया था, ,उनकी लडकिया खूबसूरत हैं ,और वे जिससे मन करता है उसी से शादी कर लेती हैं ,/ गॉड ने ये भी देखा की मनुस्य दुष्ट हो गया है ,तो उसने महाप्रलय लाकर मनुष्यों को ख़त्म करने का निर्णय लिया / लेकिन नूह सत्चरित्र और नेक इंसान था तो , गॉड ने नूह से कहा कि सारे जीवों का एक जोड़ा लेकर नाव में बैठकर निकल जाओ,जिससे दुबारा दुनिया बसाया जा सके / जब महाप्रलय ख़त्म हुवा ,और धरती सूख गयी, तो नूह ने अंगूर की खेती की ,और उसकी वाइन (शराब ) बनाकर पीकर मदहोश हो गया ,और नंग धडंग होकर टेंट में गिर पड़ा / उसको Ham ने इस हालत में देखा तो बाहर जाकर अपने २ अन्य भाइयों को बताया
/ तो Shem, और Japheth.ने मुहं दूसरी तरफ घुमाकर कपडे से नूह को ढक दिया, और नूह को नंगा नहीं देखा / यानि सिर्फ Ham ने नूह को नंगा देखा ।जब शराब का नशा उतरा तो सारी बात नूह को पता चली ,,तो उसने Ham को श्राप दिया की तुम्हारी आने वाली संतानें ,, Shem, और Japheth.की आने वाली संतानों की गुलाम बनकर रहेंगी /
क्रिस्चियन धर्म गुरु और च्रिस्तिअनों ने इस जेनेसिस में वर्णित घटना को लेटर एंड स्पिरिट में पूरी दुनिया में लागू किया / बाइबिल में , टावर ऑफ़ बेबल ये भी वर्णन है , की गॉड ने नूह की संतानों से कहा की सारी दुनिया में फ़ैल जाओ /
Monotheism वाले रिलिजन की एक बड़ी समस्या है ,,की वे अपने ही रिलिजन को सच्चा रिलिजन मानते हैं ,और बाकियों को असत्य धर्म /
ईसाई धर्म गुरुओं ओरिजन (185- 254 CE ) और गोल्डनबर्ग ने नूह के श्राप की आधार पर Ham के वंशजों को , को गुलामी और और उनके चमड़ी के काले रंग को नूह के श्राप से जोड़कर उसे रिलिजियस सैंक्टिटी दिलाया / काले रंग को उन्होंने अवर्ण,(discolored ) के नाम से सम्बोधित किया / उनकों घटिया , संस्कृति का वाहक और गुलामी के योग्य घोषित किया /
/जहाँ भी क्रिस्चियन गए ,और जिन देशों पर कब्ज़ा किया ,वहां के लोगो को चमड़ी रंग के आधार पर काले discolored लोगों को Hamites की संज्ञा से नवाजा / ईसाइयत में नूह के श्राप के कारन Hamites ,,असभ्य ,बर्बर और शासित होने योग्य बताया /
यही आजमाया हुवा नुस्का उन्होंने भारत पर भी अप्लाई किया / बाहर से आये आर्य गोरे रंग के यानि द्विज सवर्ण और यहाँ के मूल निवासी जिनको द्रविड़ , शूद्र अछूत अतिशूद्र काले यानि अवर्ण आदि संज्ञा दी गई  वो बाइबिल के अनुसार Ham कि संताने ,जो अनंत काल की गुलामी में झुलसने को मजबूर ,यानि "घृणित शूद्र " यानि डॉ आंबेडकर के शब्दों में "menial जॉब " करने को मजबूर /
अर्थात कौटिल्य के अनुसार शूद्रों के धर्म -"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च /" से गिरकर अंबेडकर जी के शब्दों में शूद्रों का धर्म (कर्तव्य )  "menial जॉब " में बदल जाता है 1750 से 1946 आते आते /