Thursday 25 July 2019

Manual of Human Intelligence

#इंटेलिजेंस_मैन्युअल :

जीवन एक सतत प्रक्रिया है। मृत्यु भी एक सतत प्रक्रिया है। जिस दिन पैदा होते हो मृत्यु शुरू हो जाती है:
जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु: ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मात अपरिहार्ये अर्थे न त्वं शोचितुम अर्हसि।।
- भगवतगीता।
जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है।

अनुभूति भी सतत प्रक्रिया है।
उसका एक और सुंदर नाम है - समझ।
जब जीवन को समझने का प्रयत्न आप शुरू करते हैं तो समझ विकसित होना शुरू होती है। शास्त्र उसमे आपकी सहायता करते हैं। शास्त्र पथ हैं या पथ प्रदर्शक हैं। मंजिल नहीं हैं।
मंजिल तो realization है अनुभूति है। वह भी एक सतत प्रक्रिया है। शुरुवात करोगे तभी उस दिशा में आगे जा सकोगे। पहला कदम महत्वपूर्ण है। वही एक दिन अंतिम कदम बनेगा।
आप एक छोटा सा कंप्यूटर खरीदते हैं। उसमें आर्टिफीसियल इंटेलेजेन्स होता है। उसकी मैन्युअल आती है। आप उस मैन्युअल को पढ़कर डरते डरते उसको ऑपरेट करना शुरू करते हैं। धीरे धीरे आप निर्भय होकर उसको ऑपरेट करना सीख जाते हैं।
इसी तरह आपके पास नेचुरल इंटेलिजेंस है।
लेकिन उसका ऑपरेटिंग मैन्युअल कहाँ है?
आप अपने इंटेलिजेंस के मैन्युअल को पढ़े और समझे बिना उससे काम ले रहे हैं?
यह सिर्फ आपके जीवन मे डिजास्टर पैदा करेगा - तनाव चिंता बेचैनी क्रोध अवसाद।

आपके नेचुरल इंटेलिजेंस का मैनुअल हैं - भगवतगीता, राम चरित मानस, उपनिषद, योगसूत्र, आदि आदि।
उनको पढ़कर जीवन को समझने का प्रयास जब आप शुरू करते हैं तभी आप इस डिजास्टर और जीवन मृत्यु के भय से मुक्ति प्राप्त करने की ओर अग्रसर होते हैं।
सावधानी यह बरतनी है कि यह मैन्युअल कोडेड लैंग्वेज में है।आपके कंप्यूटर की मैन्युअल यदि चीनी में  हो तो आप क्या करते हैं। सीधे किसी एक्सपर्ट से ऑपरेट करने की विधि सीख लेते हैं।
वही बात इसमे भी लागू होती है।
सदगुरु उसी एक्सपर्ट का नाम है जो कोडेड मैन्युअल को डिकोड करता है।

Wednesday 24 July 2019

सभी धर्म एक ही शिक्षा नही देते।

#अब्राहमिक_धर्म_ग्रंथो_और_हिन्दू_धर्म_ग्रंथो_में_सैद्धांतिक_अंतर:

भारत में कई दशकों से यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि सभी धर्म एक ही जैसे हैं और एक ही उपदेश देते हैं।
अनेक झूंठों में यह भी एक झूंठ है जिसको प्रसारित करने के लिए प्रचार के संसाधनों का उपयोग किया गया है।
फिल्मों को एक सशक्त माध्यम की तरह प्रयोग किया गया इस झूंठ को फैलाने हेतु।

दूसरा यह भ्रम फैलाया गया कि हिंदुत्व कहता है कि सभी धर्म भगवान को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त्र करता है।

हिंदुत्व मात्र हिन्दू धर्म मे सुझाये गए विभिन्न मार्गों की बात कर सकता है। उसे क्या पता कि X-ianity, यहूदी और इस-लाम के लोग क्या पढ़ते पढ़ाते हैं?

क्योंकि इन रेलिजन्स मे भगवान को प्राप्त करने का कोई सिद्धांत नही है। उनके यहां भगवान उनके कर्मों का हिसाब किताब रखने वाला है। और डे ऑफ जजमेंट के दिन वह हिसाब करेगा कि उनके अनुयायियों का कर्म उनकी पाक पुस्तकों में वर्णित किये गए नियमों के कितना अनुकूल है और कितना प्रतिकूल था। उनके बही खातों से उनका डेटा निकाला जाएगा और तय किया जाएगा कि उनको स्वर्ग में जगह दिया जाय या जहन्नुम में उन्हें आग में जलाया जाय?
उनके अनुसार स्वर्ग और नर्क एक भौगोलिक स्थान है।

हिन्दू धर्मशास्त्रों को समझने वाले यह जानते हैं कि स्वर्ग और नर्क एक मानसिक स्थिति है, कोई भौगोलिक स्थान नही है।
सरग नरक चर अचर लोक सब बसै मध्य मन तैसे।
- विनय पत्रिका तुलसीदास

  वस्तुतः ऐसे किसी भगवान की परिकल्पना ही नही है जो आपके कर्मों का लेखा जोखा रखता हो। आप जो कर्म करेंगे उसी के अनुसार आपका प्रारब्ध स्वतः निर्मित होगा। एक वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण बात - कर्म संस्कार का सिद्धांत। आपको डॉक्टर बनना है तो डॉक्टर बनने के लिये पढ़ना पड़ेगा। नही पढ़ेंगे तो प्रवेश नही होगा किसी मेडिकल संस्थान में। भगवान अकर्ता है। वह दृस्टा मात्र है।

उनकी पुस्तक को पवित्र पुस्तक कहते हैं। क्योंकि एक लेवल लगाना आवश्यक है अनुयायियों के मष्तिष्क को मैनिपुलेट करने हेतु। भारतीय ग्रंथो में किसी भी ग्रंथ पर पवित्र का लेवल नही लगा है।

अभी हाल में कुछ भूतपूर्व पादरियों ने यह स्वीकार किया है कि चर्च ने स्वर्ग और नर्क का सिद्धांत ही मनुष्य मस्तिष्क को लोभ और भय से नियंत्रित करने के लिए ही रचा था। इसीलिए यूरोप में चर्च खाली हो गए है। बहुत कम लोग हैं जो चर्च में जा रहे हैं। वे नास्तिक बन रहे हैं।

उनकी पाक पुस्तकें ह्यूमन माइंड को नियंत्रित करने के लिए लिखी गयी हैं। वही समस्त संस्कृत ग्रंथ ह्यूमन माइंड को समझने की मैन्युअल हैं। उसको समझने के बाद कुछ वैज्ञानिक योग विधियों की सहायता से आप भगवान की सत्ता को स्वयं अनुभव कर सकते हैं और आप कह सकते हैं कि - #अहं_ब्रम्हास्मि।

Saturday 20 July 2019

इमोशनल टॉक्सिन्स - 12

#इमोशनल_टॉक्सिन्स_सीरीज -12

#कर्म_विज्ञानम् : सनातन गॉड या अल्लाह जैसे भगवानों पर विस्वास नही करता, जो यह मानते है कि कोई गॉड या अल्लाह आपके कर्मो का परिणाम तय करते हैं। आपके कर्म ही आपके भविष्य का निर्धारण  करते हैं।
इस जन्म के भी और आगे वाले जन्मों की भी।
यही कर्म का विज्ञान है जो वैज्ञानिक है। 

शरीर वाक् मनोभिः यत् कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यम् वा विपरीतम् वा पंच एते तस्य हेतवः।।
भगवत गीता 18.15

कर्म तीन स्तर पर होते हैं - शरीर मन और वचन से। चौथा और किसी साधन से कर्म नही होते।
इन तीनो साधनों से मनुष्य जो भी कर्म करता है - वह चाहे न्याय के अनुकूल हो ( उचित हो) या प्रतिकूल ( अनुचित) वह इन पाँच कारणों के फलस्वरूप होता है।
अधिष्ठान ( मनुष्य का शरीर) कर्ता ( प्रकृति) करण ( उपकरण - इंद्रियां और मन), विविध प्रकार के कर्म, और दैव अर्थात कर्मो के संस्कार ( कर्म विपाक)।

मनुष्य के समस्त कर्मो के पीच्छे अन्य कोई पांचवा कारण नही होता।

लेकिन मनुष्य कर्ता स्वयं को मानता है। ऐसा इसलिए है कि प्रकृति से निकले महत्त्व से बनने वाला पहला तत्व अहंकार ही होता है। अहंकार के कारण ही बुद्धि निश्चयात्मक तौर पर यह जानती है कि यह शरीर उसकी है और इसके भरण पोषण और रक्षण का दायित्व भी उसी के ऊपर है। यदि अहंकार इतने तक ही अनुभव करता रहे तो ही उचित है लेकिन ऐसा नहीं होता।

होता यह है कि मनुष्य प्रकृति के कारण संपादित होने वाले कर्म को भी अपना ही कर्म मानने लगता है।

यदि इस शरीर नामक सिस्टम में यह पूँछा जाय कि इसमें तुम कौन हो तो शायद जो लोग अधिक समझते हैं, वे बुद्धि को स्वयं का होना स्वीकार करें, और यदि पूर्ण मूढ़ हो तो इस शरीर को भी स्वयं का होना मान लें।

वे पाँच कारण या हेतु कौन हैं जो कोई भी कर्म के कारक बनते हैं ?
उनका विस्तार रूप से यहां वर्णन है।

#कर्म_विज्ञानम् :

किसी भी कर्म को करने में पाँच कारण होते हैं।
1-अधिष्ठान
2-कर्ता
3-करण ( विविध एवं पृथक पृथक)
4- चेष्टा ( विविध प्रकार की पृथक चेष्टाएँ)
5- दैव

दैव अर्थात कोई देव नहीं है। योग वशिष्ठ में वशिष्ठ जी ने किसी दैव के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है। दैव अर्थात पूर्व के कर्मो के संस्कार।

अधिष्ठान - अर्थात शरीर
इंद्रियाणि मनो बुद्धि अस्य अधिस्थानम् उच्यते।
एतै विमोहियति एषः ज्ञानम् आवृत्य देहिनम्।

इन्द्रिय मन और बुद्धि इसका ( काम का ) अधिष्ठान है। ऐसा पहले 3.40 में कहा गया है।

कर्ता - कर्ता हम स्वयं को मानते हैं। जबकि कर्ता स्वरूप का अंश होने के कारण अकर्ता है।
इसके पूर्व कह आये हैं -

नहि कश्चित क्षणम् जातु तिष्ठत अकर्मकृत।
कार्यते ही अवश: कर्म सर्व: प्रकृति जै गुणै:।।
3.5

जन्म लेने के उपरांत मनुष्य किसी भी क्षण अक्रिय होकर नही बैठ सकता। प्रकृति प्रदत्त गुणों के कारण वह अवश होकर सारे कर्म करता है।
अर्थात मनुष्य के सारे कर्मो का निर्धारक वह नही है बल्कि प्रकृति प्रदत्त गुण ही उन कर्मो के निर्धारक होते हैं। हां मनुष्य भले ही कर्ता होने का भ्रम पाले रहता है।

आगे इसको और भी स्पष्ट किया है:
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:
अहंकारविमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते।।
3.27

समस्त होने वाले कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं। मनुष्य अपने अहंकार के कारण और मूर्खता के कारण स्वयं को कर्ता समझता है।

आगे लिखा कि
तत्ववित्त महाबाहो गुण कर्म विभागयो।
गुणा: गुणेषु वर्तन्ते मत्वा इति न संजते।।
3.28

गुण गुणों में ही बरतते है। अर्थात शरीर मन और वाणी में गुण सदैव एक रूप से दूसरे रूप में आते जाते रहते हैं। कभी सात्विक विचार, कभी राजस विचार, कभी तामसी विचार।

करण : करण विभिन्न प्रकार के होते हैं।
कर्मों के उपकरण अर्थात यंत्र - 10 इंद्रियां, 5 ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ और चार अंतःकरण मन बुद्धि चित्त अहंकार। यही समस्त कर्मों के करने के उपकरण हैं
ज्ञानेन्द्रियाँ - स्रोत त्वक चक्षु जिह्वा नासिका
कर्मेन्द्रियाँ - पाणि पाद वाक उपस्थ पायु।
इन्ही उपकरणों से मनुष्य समस्त कर्म करता है।

चेष्टा - विविध प्रकार के पृथक पृथक चेस्टायें अर्थात जतन कृत्य प्रयत्न।

देव- देवं च एव अत्र पंचमं
गीता के विभिन्न भाष्यकारों ने देव का अर्थ अलग अलग निकाला है - किसी ने देवी शक्ति, किसी ने परमात्मा।
लेकिन #योगवशिष्ठ में वशिष्ट जी ने किसी दैव शक्ति के अस्तित्व को निरस्त कर दिया है।
"वेद कहते हैं " यद्धि मनसा ध्यायति तद्वाचा बदति तत् कर्मणा करोति" - जैसा मन मे ध्यान करता है वैसा ही वाणी से बोलता है और वैसा ही शरीर कर्म करता है।
"जंतु: यत् वासनो राम तत्कर्ता भवति क्षणात्। अन्य कर्म अन्य भाव: इति एतत् न एव उपद्यते। ग्रामगो ग्रामम् आप्नोति पत्तानार्थी च पत्तनम्। यो यो यत् वासनाः तत्र स स प्रयतते सदा। यदेव तीव्र संवेगादृढम् कर्म कृतं पुरा। तदेव देवशब्देन पर्यायणेह कथ्यते।।"
( योगवषसिष्ठ मुमुक्षव्यवहार प्रकरण सर्ग 9 : 14-16)

हे रामचन्द्र जी, प्राणी की जैसी वासना होती है, उसी के अनुसार क्षण में ही कार्य करने लगता है। वासना कोई दूसरी हो और कर्म दूसरा हो यह वार्ता नही बन सकती। ग्राम को जाने वाला ग्राम को जाता है, नगर को जाने वाला नगर को, जिसकी जैसी वासना होती है वह सदा वैसा ही प्रयत्न करता है। फल की अधिक अभिलाषा से पूर्व जन्म में जो कर्म किया है उसी को इस जन्म में देव नाम से कहते हैं।
आगे बताते हैं - देव कर्म रूप है और कर्म मन रूप है और मन पुरुष रूप है, और पुरुष परमार्थ दशा में निर्विकारी चेतन मात्र है। हे राम जी चित्त, वासना, कर्म और दैव, ये सब अनिर्वचनीय मन की संज्ञा तत्वज्ञानी सज्जनों ने कहा है।

इस तरह दैव भी प्रकृति के द्वारा निर्धारित गुण द्वारा संचालित किये गए कर्मो के परिणाम स्वरूप उतपन्न संस्कारो के कारण उतपन्न हुई वासना भर है। जिसको योग शास्त्र में #कर्म_विपाक कहते हैं। जो जन्म आयु और भोग का कारक तत्व है।

पातंजल योगदर्शन के साधनपाद के12 वे और 13वे सूत्र में लिखा है -
क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्ट अदृष्ट जन्म वेदनीयः।
सति मूले तद्विपाको जाति: आयु: भोगाः।

अर्थात - क्लेश जिसकी जड़ में है वह है कर्माशय ( कर्मो की वासना)। वही वर्तमान और अगले जन्मों में भोगने योग्य है।
अविद्या आदि क्लेश के मूल में उस ( कर्माशय) का फल जाति ( जन्म ) आयु भोग होता है।

इमोशनल टॉक्सिन्स -11

#इमोशनल_टॉक्सिन्स_सीरीज -11

दिल ढूढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन।

#चित्तवृत्ति : #मन_के_ठिकाने_राग_और_द्वेष ::

चित्त की वृत्ति ही है उन ठिकानों की तलाश करना, जिन जिन व्यक्तियों, वस्तुओं, विषयों, और विचारों में हमने अपने विचार और इमोशन्स अर्थात भावनाओं ( Thoughts and Emotions) को, जीवन के अब तक के समयकाल में इन्वेस्ट कर रखा है।

हमारा कुल अस्तित्व है - शरीर मन भावना और ऊर्जा - Body mind emotions and energy.

जिस तरह शरीर का अस्तित्व बना है बाहर से मिलने वाले भोज्य और पेय पदार्थों से, वैसे ही माइंड विचार और इमोशन्स भी पाँच इंद्रियों से ग्रहण की गयी सूचनाओं पर ही निर्मित होते हैं।
अपना विचार जैसा विचार हो सकता है परंतु नया विचार जैसा कोई विचार नहीं होता।

विचार और भाव तदरूप होते हैं। विचार की गति तीक्ष्ण है भावनाओ की गति धीमी।

कुछ लोग सोचते हैं कि भावनाएँ दिल मे उठती हैं और विचार मस्तिष्क में। लेकिन यह मात्र भ्रम है। सूचनाओं के प्रभाव से हुए माइंड मैनीपुलेशन का परिणाम है। बस। नो मोर नो लेस - बीड़ी जलै ले जिगर से पिया टाइप के गाने सुनने के कारण।

भाव मात्र दो प्रकार के होते है - राग और द्वेष, लाइक और dislike. बाकी सब इसी के विस्तृत क्षेत्र है।

भागवतगीता में कृष्ण जी ने बोला -
विषय: विषयर्थेषु राग द्वेष व्यावस्थितौ।

आज तक के जीवन काल मे हमने जिन जिन व्यक्ति विषय वस्तु और विचारों में अपने इमोशन्स को इन्वेस्ट कर रखा है - चित्त की वृत्तियां वही जाकर अटकती हैं, मन वही भटकता रहता है। जिन जिन राग और द्वेषों में हमने अपने इमोशन्स को आज तक फंसा रखा है वहीं वहीं चित्त और मन घूम घूम कर जाता रहता है जिसका परिणाम - मोह या क्षोभ होता है।

दोनों ही चित्त और मन नामक बन्दर ( मर्कट ) को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं और मन वहीं फंसा रहता है।

मोह सबसे प्रबल होता है मन वही घूमता रहता है। जब तक शरीर और मष्तिष्क साथ देता है तो मोह और क्षोभ को अपने अनुसार हम मैनेज करते रहते हैं।

लेकिन जीवन मे एक ऐसा क्षण आता है कि शरीर साथ नही देता - सिर्फ मन या माइंड चलता है। यह बहुत ही दुरूह स्थिति होती है जीवन की। सिर्फ और सिर्फ मोह का प्राबल्य, वृद्धावस्था।

राजा भर्तहरि ने लिखा है -
कालो न यातो वयमेव यातो।
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा।।

एमोतीनल टॉक्सिन्स -10

#इमोशनल_टॉक्सिन्स_सीरीज -10

#मन_का_रीसायकल_बिन : सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय

मनोमस्तिष्क के रीसायकल बिन का सिद्धांत- कितने स्तरों पर होना चाहिए।

जो वस्तुएं हम छान सकते हैं उसको छानकर खाते पीते है जिससे कि गन्दगी और कूड़ा या अभक्ष्य हमारे शरीर के सिस्टम में न आने पाये। ये प्रथम स्तर है।

लेकिन ग्रहण करने के बाद भी भक्ष्य पदार्थ से शरीर का सिस्टम शरीर के लिए आवश्यक तत्व लेकर, बाकी को मल मूत्र के रूप में बाहर निकाल देती है - प्राकृतिक रीसायकल बिन का द्वितीय स्तर।

ये तो हार्डवेयर का मामला हुवा।

लेकिन क्या आपने अपने सॉफ्टवेयर के सिस्टम में छननी और रीसायकल बिन का अप्प डाउनलोड करने की आवश्यकता को भी समझा है कि इसमें पहली बात तो कूड़ा करकट जाने न पाए । और यदि चला भी जाय तो उसको सॉफ्टवेयर की मेमोरी से निकाला जा सके ?

ये सॉफ्टवेयर स्वयं ही अवचेतन स्तर पर दुखद और कष्टकारी डेटा रीसायकल बिन में डालता जाता है जिससे आप उन दुखद अनुभवों से स्वयं को मुक्त करने में सक्षम होते है। पुरानी दुखद घाव धीरे धीरे इसी कारण भर जाते हैं।

आपके सॉफ्टवेयर में क्या अपलोड किया जाय - जो करणीय हो, जो आत्म मोक्षर्थाय जगत हिताय वंक्षणीय हो, जो उचित हो, जो कल्याणकारी हो ?
ये ज्ञान प्राप्त होता है दर्शन से या धर्मग्रंथों से, जिसको कौटिल्य ने विद्या का प्रथम अंग बताया था। और जिसको हमारे गुरुकुलों में मैकाले शिंक्षा के पूर्व तक पोंगा पंडी जी लोग बिना सरकारी या प्राइवेट वेतन लिए ही पढ़ाते थे। ये तो हुवा प्रथम स्तर की छननी।

अब दूसरे स्तर पर जहां आप छननी नही लगा सकते और मन सहज भाव से सुखद - दुखद , उल्टा सीधा, वंक्षणीय और अवंक्षणीय, घृणा और प्रेम, लोभ और लाभ, मोह और माया, क्रोध और काम आदि के डेटा एकत्रित करके आपको असहज बनाये रखता है, क्या उसके लिए रीसायकल बिन का अप्प आपने अपने मष्तिष्क में डाउनलोड किया है ?

या आपका मन इन दैवी और आसुरी प्रवृत्तियों और शक्तियों के बीच फुटबाल बना हुआ है - दूसरे स्तर की छननी -----

इतना समझ आ जाय तो बताइयेगा ।

इसी अप्प को डाउनलोड करने के बारे में जानने के लिए कृष्ण से अर्जुन अपने फुटबाल बने मन के निग्रहं के बारे में पूँछता है -
चंचलम् हि मनः कृष्ण: प्रमाथि बलव दृढम्।
तस्य अहम् निग्रहं वायो: इव सु- दुष्करम्।।
6:34

मेरा मन बड़ा चंचल सवरियां रे।
इसको वश में करना वायु को वश में करने से ज्यादा कठिन है।

इसी अप्प को नग्रेजी में कहते है - To de educate oneself.

इमोशनल टॉक्सिन्स - 9

#इमोशनल_टॉक्सिन्स_सीरीज -9

आज पूरे विश्व की सबसे बड़ी समस्या है - आइडेंटिटी क्राइसिस। यह पाश्चात्य सभ्यता के हैंगओवर का प्रभाव है। विश्व मे पर्सनालिटी डेवलोपमेन्ट पर बड़ी बड़ी पुस्तकें लिखी गयी हैं।

How to win and influence people कभी बेस्ट सेलर थी। बड़े बड़े राजनीतिग्यो को मैंने डेल कार्नेगी की इस पुस्तक का जिक्र करते हुए देखा है।

ढेरों अन्य लेखक हुए हैं जिन्होंने व्यक्तित्व को कैसे सुधारा जाय कि लोगों को प्रभावित किया जा सके, इस पर बड़े बड़े व्याख्यान दिए हैं।

मैंने स्वयं कई पुस्तकें पढ़ी हैं लेकिन सब वेस्ट होती है। व्यक्तित्व पहचान आइडेंटिटी निर्माण एक कृत्रिम तरीका है पर्सनालिटी को विकृत भ्रमित और कंफ्यूज करने का।

वस्तुतः भव सागर के सबसे बड़े व्याख्याता बाबा तुलसीदास ने इस व्यक्तित्व निर्माण को एक दोहे में लिख दिया है :

सुत वित लोक एषणा तीनी।
केहि कर मन इन कृत न मलीनी।।

आप को दूसरों को इन्फ्लुएंस करने के लोक जगत में यही तीन माध्यम है - सुत वित और लोकेषणा। व्यक्तित्व पर्सनालिटी और आइडेंटिटी या उसकी क्राइसिस इसी सहज मानवीय स्वभाव का प्रस्तुतिकरण मात्र है।

लेकिन "केहि कर मन इन कृत न मलीनी", का अर्थ है कि किसका मन इन्ही चीजों में नहीं उलझकर रह जाता है। और मन का उलझना - अर्थात बारंबार मन का इन्ही के पीछे भागना।
भागने में कोई दोष नहीं है।
भागते भागते कितना भागे - इसकी कोई सीमा नहीं है।
और यदि भागकर भी लक्ष्य अप्राप्य रहा तो ?
तो फिर कुंठा फ्रस्टेशन, डिप्रेशन एंग्जायटी इसका परिणाम होते है।

आइडेंटिटी बनाना बड़ी बात नहीं है।
आइडेंटिटी डिसॉल्व करना बड़ी बात नहीं है।

डिसॉल्व आइडेंटिटी के व्यक्ति को किसी को जीतने और प्रभावित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
लोग स्वयं ही आपसे प्रभावित होने लगते हैं।

लेकिन जितना कठिन आइडेंटिटी बनाना है - उससे डबल कठिन आइडेंटिटी को डिसॉल्व करना होता है।

इसी आइडेंटिटी को डिसॉल्व करने को महर्षि अरबिंदो ने #de_educate होना बताया था। जोकि बहुत श्रमसाध्य है। क्योंकि आपका मस्तिष्क आपकी आइडेंटिटी निर्माण में इतनी सूचनाएं, भावनाएं, पसंद नापसंद इकट्ठा कर चुका है कि उन लिखी हुई इबारतों को मिटाना बहुत मुश्किल होता है।
क्योंकि यह सूचनाएं, पसंद, नापसंद बहुत जाग्रत अवस्था मे संग्रहित नहीं की गयी हैं, यह तो बस "लोग आते ही गए और कारवां बनता गया" की तरह आइडेंटिटी निर्माण में जिसने भी इमोशनल लेवल पर जैसे छू दिया, वैसे ही भाव पसंद नापसंद दर्ज होती गयी।

ॐ शम्भो।

इमोशनल टॉक्सिन्स - 8

#इमोशनल_टॉक्सिन्स_सीरीज -8

#अहंकार_विमूढात्मा :

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वेश:
अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहं इति मन्यते।। - भगवतगीता 3.27

एक मित्र हैं। उनकी पत्नी के  शरीर मे रक्त बनने का सिस्टम खराब हो गया है, इसलिए नियमित समय पर उनको रक्त देना पड़ता है। इसी विषय पर विचार करते करते यह मंत्र याद आ गया। हम अपने जीवन मे मात्र रोटी कपड़ा मकान और वाहन के लिए ही संघर्ष रत रहते हैं - इनका स्तर अलग अलग हो सकता है। यथा कोई बैलगाड़ी के लिए परेशान है तो कोई चार्टर्ड प्लेन के लिए।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त भोजन जल वायु अग्नि और आकाश का उपयोग हम करते हैं। कुछ भी खा लें वह शरीर मे जाकर प्रकृति प्रदत्त सिस्टम से स्वतः रक्त मेदा मांस मज्जा बनता रहता है। हम क्या सहयोग करते हैं उसमे। वह तो स्वतः ही बन रहा है। विज्ञान के अनुसार स्वतः तो कुछ नही होता। कोई न कोई कर्ता होना चाहिए हर कार्य के पीछे। मेडिकल साइंस इसको ऑटोनोमिक नर्वस सिस्टम कहता है, एंडोक्राइन सिस्टम कहता है, और भी अन्य नाम देता है जो यह कार्य करते हैं। लेकिन यह भी तभी करते हैं जब तक शरीर मे चेतन तत्व विद्यमान रहता है जिसको councious ness या चेतना कहते हैं। वैदिक विज्ञान उसी को चेतना आत्मा या परमात्मा कहता है।
हमारे शरीर मे लाखों करोड़ो इवेंट्स एक साथ होते हैं जिनमे हमारा लगभग कोई सहयोग या नियंत्रण नही होता। लेकिन जब इस लाखों करोड़ों घटित होने वाले  स्वचालित सिस्टम की कोई एक भी कड़ी काम करना बंद कर देती है, तो ऊपर वर्णित घटना घटती है जिसको हम dis ease ( असहज) कहते हैं। तुलसीदास ने इस चेतन का स्वरूप बताया - सहज:
ईश्वर अंश जीव अविनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी।।
इसका कारण है हमारे अंदर अपने द्वारा निर्मित किया हुआ अहंकार। यह अहंकार हमारे सिस्टम में सहज रूप से कार्य करने वाले चेतनता के प्रति कृतघ्न होने को बाध्य करता है। मनुष्य सबसे बड़ा कृतघ्न जीव है। वह अपने अंदर ही कार्य कर रहे उस सिस्टम के प्रति कृतज्ञता नही व्यक्त करता जिसके कारण वह सहज जीवन जी रहा है। उस सहज सिस्टम की एक कड़ी भी यदि काम करना बंद कर दे तो हम उस असहजता ( dis ease) का उपाय खोजने में लाखों करोड़ो खर्च करने को तैयार हो जाते हैं, रोते हैं , कलपते हैं, अपने कर्मो के लिए स्वयं को कोसते हैं। ईश्वर से उपाय हेतु प्रार्थना करते हैं। लेकिन जब तक यह सिस्टम सहज रूप से कार्य करता है,  हम उसके प्रति कृतज्ञ नहीं होते।
इसका कारण है हमारे अंदर निर्मित हमारा अहंकार। जिसको ईगो भी कह सकते हैं और आइडेंटिटी भी। हम अपनी आइडेंटिटी निर्मित करते हैं जिसको पश्चिम में पर्सनालिटी भी कहते हैं। क्योंकि हमें अपने निर्माता पर विस्वास नही होता। यदि विस्वास होता तो हम क्यों निरन्तर अपनी आइडेंटिटी निर्मित करते ? एक बार आइडेंटिटी निर्मित कर ली तो या तो अहंकार के शिकार होते हैं या फिर आइडेंटिटी क्राइसिस के। दोनों ही स्थितियों में हम अपने सिस्टम में विष या न्यूरोटॉक्सिन का निर्माण करते रहते हैं। इस तरह जो वृत्ति हमारे अंदर विकसित होती है उससे हमारे अंदर निर्मित होता है - क्लेश या संघर्ष जो पुनः न्यूरोटॉक्सिन या विष निर्मित करता है। यह विष हमारे अंदर निरन्तर बहता रहता है।
पतंजलि कहते हैं कि -"वृत्तया पंच तय्या - क्लेश: अक्लेश: च।
कृष्ण कह रहे हैं कि हम समस्त कार्य अपने अंदर प्रकृति प्रदत्त तीन गुणों के कारण करते हैं। तीन गुण अर्थात इलेक्ट्रान प्रोटोन न्यूट्रॉन, या सत रज तम या ब्रम्हा विष्णु महेश। इन्ही तीन प्रकृति की शक्तियों के कारण हम जन्म लेते हैं, बड़े होते हैं, शादी व्याह करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं, और मर जाते हैं। पशु पक्षी कीड़े मकोड़े सब करते हैं। बस वे अहंकार निर्मित नही करते मनुष्य की भांति। शायद इसीलिए वे अपने जीवन को संपूर्णता के साथ जीते हैं। एक सड़क किनारे या गांव में  बैठी रंभाती गाय या भैंस को देखिये। कितनी असीम शांति दिखती है उसके चेहरे पर।
हमारे सारे भाव काम क्रोध लोभ मोह मद मत्सर, प्रेम करना दया घृणा सब प्रकृति की इन तीन शक्तियों से ही उत्पन्न होती हैं। इन भावों से ही प्रेरित होकर हम जीवन मे समस्त कार्य करते हैं।
कृष्ण कह रहे है कि ऐसा सोचने वाले लोग विमूढात्मा हैं क्योंकि वे स्वयं द्वारा निर्मित अहंकार के बस में होकर काम करते हैं। वे अस्वस्थ हैं। स्वस्थ नही हैं। अर्थात स्व में स्थित नही हैं, अपने स्वभाव के बस में नही हैं, दूसरों से संचालित हो रहे हैं। इसलिए वह कहते हैं कि - योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। योगश्थ होकर अर्थात स्व में स्थित होकर कर्म करो। यदि ऐसा करना संभव हुआ तो तुम्हारे अंदर संघर्ष निर्मित नही होगा। संघर्ष निर्मित नहीं होगा तो अहंकार और न्यूरोटॉक्सिन या विष कम बहेगा तुम्हारे अंदर।

संघर्ष कम निर्मित होगा तो तुम्हारे अंदर विष और न्यूरोटॉक्सिन भी कम निर्मित होगा। तुम अधिक सहज हो सकोगे, प्रसन्न हो सकोगे, आनन्द पूर्वक जी सकोगे।
तो पहला काम यह करना चाहिए कि अहंकार की मात्रा कम करने के लिए अपने उस सिस्टम के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करो जो तुमको प्रतिदिन, तुम्हारे सहयोग या अपेक्षा के बिना भी तुम्हारे सिस्टम को असहजता मुक्त ( dis ease free) बनाकर रखती है। क्योंकि यदि वह सिस्टम जरा सा भी असावधान हुई तो तुम गए बीमारी ( dis ease) की चपेट में। और एक बार उसके चपेट में गए तो फिर प्रकृति के स्थान पर मार्किट फ़ोर्स काम करने लगेगी। डॉक्टर मेडिसिन अस्पताल के चक्कर लगाते लगाते किस किस विष को पीकर किस किस विष का तुम अपने अंदर निर्माण करोगे यह तुमको स्वयं पता नही है। कोसाई का नया दौर शुरू हो जाएगा तुम्हारे अंदर - लेकिन वह कोसाई तुम्हारे अंदर अमृत नही पैदा करेगी, विष ही पैदा करेगी।
वही तो इतने वर्ष से करते आ रहे हो।
तुमको लगता होगा कि तुमने आज तक न जाने कितनी बार विष पिया है। लेकिन यह सच्चाई नहीं हैं। सच्चाई तो यह है कि तुमने आज तक विष निर्मित किया है अपने सिस्टम में। अपने अहंकार के कारण। अपने स्वचालित सिस्टम के प्रति कृतघ्नता के कारण।