Tuesday 6 October 2020

प्राकृतिक शक्तियों को कैसे संतुलित करें?

#ग्रेस_प्रसाद_Lavitation :

यथैधांसि समिद्ध: अग्नि भस्मसात कुरुते अर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा।। 

- भगवतवीता । 4.37।
जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, हे अर्जुन उसी तरह ज्ञान रूपी अग्नि सभी कर्मों को जलाकर राख कर देती है। 

यह ध्यान की विधि का प्रतीकात्मक वर्णन है। यहाँ ईंधन समिधा और अग्नि तीनों प्रतीक हैं। ईंधन में ही अग्नि विराजमान रहती है परंतु वह स्वयं को नहीं जला सकती। अग्नि में ईंधन जाते ही वह स्वयं अग्नि का रूप धारण कर लेती है। और फिर ईंधन जल जाता है उस अग्नि में। 

कर्म से यहां अर्थ है मानसिक कर्म। कर्म करने के तीन उपकरण हैं हमारे पास - शरीर वाणी और मन। 
"शरीर वाक मनोभि: यत् कर्म प्रारभते नर:"।
- भगवतवीता 
शरीर वाणी और मन से जो भी कर्म मनुष्य करता है। 
वाणी और शरीर से होने वाले समस्त कर्मों का प्रारंभ मन में होता है। मन में बीज निर्मित होता है। शरीर और वाणी द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होती है। बीज मन मे बोया गया। वृक्ष के रूप में वह वाणी और शरीर मे पुष्पित पल्लवित होता है।

 जिस भाव विचार या इच्छाओं का वाणी और शरीर से अभिव्यक्ति हो गयी, उनका बीज नष्ट हो गया। अब उनके कर्मफल न बनेंगे। लेकिन ऐसा न होगा कि कर्म के परिणाम न होंगे। आपको क्रोध आया, आपने सामने वाले का सर फोड़ दिया। इसके परिणाम तो आएंगे ही। हो सकता है पलटकर वह आपका सर फोड़ दे। या पुलिस फाटा के झंझट में फंसे आप। कोर्ट कचहरी मुकदमें में फंसे।
लेकिन मन में क्रोध जागा, लेकिन किसी कारण उसको प्रकट नहीं कर सके। तो वह अंदर ही अंदर घूमेगा। विष निर्मित करेगा शरीर मे। 
  
 जो इच्छाएं आकांक्षाएं भाव और विचार मन मे ही बने परंतु अभिव्यक्ति न हो पायी, वे मन में विचारों के बादल की तरह उमड़ते रहते हैं। मन उसी में फंसा रहता है। रात और दिन। रात में सपनो के रूप में। दिन में मुंगेरीलाल के हसीन सपनो के रूप में - दिवास्वप्न। 

ज्ञानाग्नि - ध्यान की वह अवस्था जब आप सुखासन की स्थिति में बैठकर मन मे उमड़ और घुमड़ रहे विचारों को देखते हैं, साक्षी भाव से। अर्थात उनमें लिप्त हुए बिना, तो वे समस्त विचार धीरे धीरे विलीन हो जाते हैं। ज्ञान का अर्थ है आप। आपने अपने विचारों को देखा तो वे जल जाएंगे। आप अलग हैं। विचार अलग हैं। 

मेडिकल साइंस के अनुसार, हमारे मन में विचारों के बादल केमिकल मैसेंजर के माध्यम से प्रवाहित होते हैं, जिनको न्यूरोट्रांसमीटर कहा जाता है, हॉर्मोन कहा जाता है।यदि विचारों के बादल दिन रात उमड़ते ही रहते हैं, तो यह केमिकल बनते ही जाते हैं निरंतर। जो ग्रंथियों के रूप मे शरीर मे एकत्रित होते रहते हैं - लेकिन ये ग्रन्थियां विषाक्त होती हैं। 

मेडिकल साइंस के अनुसार कोशिका के स्तर पर हर कोशिका में मेटाबोलिज्म होती रहती है। कोशिकाओं में मेटाबोलिज्म के कारण बचे अवशेष lysosome नामक ग्रंथियों में एकत्रित होती रहती है।

 2016 में मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले Yoshinori Ohsumi ने प्रमाणित किया कि लंबे उपवास के द्वारा इन ग्रंथियों के अवशेषों को जलाया जा सकता है, और उससे ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। इससे अनेक रोगों यथा - डायबिटीज, हाइपरटेंशन के साथ साथ कैंसर आदि के इलाज में सहायता मिलती है -इसे Autophagy कहते हैं मेडिकल साइंस की भाषा में। इसी पर उसको नोबेल मिला उसे। 

मेडिकल साइंस उपवास का अर्थ सिर्फ फास्टिंग। भूंखे रहना। इसीलिए 2016 के बाद एक फ़ैशन आया है - इंटेरेटेन्ट फास्टिंग का। 16 घण्टे के लंबे उपवास के बाद मात्र 8 घण्टे खाना पीना। फिर 16 घंटे का लंबा फ़ास्ट। फिल्मी दुनिया से लेकर डॉक्टरों तक के बीच आजकल यह अत्यंत लोकप्रिय विधि हो गयी है - डायबिटीज, हाइपरटेंशन और वजन को नियंत्रित करने का। 

लेकिन तथ्य तो यह है कि जो जो भी चीज हमारे शरीर के अंदर जाती है, उसमें से जो शरीर और माइंड के लिए उपयोगी है उसको शरीर ले लेता है, बाकी बचा हुवा अवशेष विष का स्वरूप धारण कर लेता है जिसे शरीर से निकालना आवश्यक है। जैसे हम ऑक्सीजन ( प्राणवायु) लेते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड निकालते है। जैसे हम अन्न जल लेते हैं और मल मूत्र पसीना निकालते हैं।

 ठीक उसी तरह अन्य शरीर के अन्य इंद्रियों द्वारा ग्रहण किये गए इनपुट - यथा आंख कान नाक चमड़ी आदि से ग्रहण की गयी सूचनाएं मन में विचार के रूप में एकत्रित होती है। उनकी शरीर में अभिव्यक्ति केमिकल मेसेंजर्स के रूप में होता है। उन केमिकल मेसेंजर्स के अवशेष,  कोशिकाओं में विषाक्त ग्रंथियों के रूप में एकत्रित होती रहती हैं। इसकी अभिव्यक्ति हमारे सिस्टम में तनाव या स्ट्रेस के रूप में भी होता है। मेडिकल साइंस के अनुसार स्ट्रेस  के कारण डायबिटीज हाइपरटेंशन से लेकर कैंसर आदि तक होता है। 

लेकिन उपवास का अर्थ फास्टिंग नहीं होता। उपवास के साथ व्रत शब्द का उपयोग होता है- व्रत उपवास। व्रत का अर्थ है संकल्प - determination. उपवास का अर्थ है उसके पास वास करना, जो तुम हो। उपवास करने का संकल्प। 

उसका तरीका बताया कृष्ण ने :
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदय निरुद्ध च।
मूर्ध्नि आधाय आत्मनः प्राणं आस्थित: योग धारणाम्।।
भगवतवीता। 12। 
इंद्रियों के सभी द्वारों को बंद करके, मन को हृदय में और प्राणवायु को मूर्ध्नि ( दोनों भौओं) मध्य में केंद्रित करके योग धारण किया जाता है। 

इसी को कृष्ण ने - ज्ञानाग्नि में समस्त कर्मो को दग्ध करने की संज्ञा दिया है। आंख बंद करके सुखासन में मूर्ध्नि पर चेतना को केंद्रित करके विचारों को देखने से वे विचार स्वाहा हो जाते हैं। 

मूर्ध्नि के क्षेत्र को मेडिकल साइंस में Prefrontal Cortex कहते हैं। जहां पर सारे विचार बनते हैं जहां पर बुद्द्धि नामक सॉफ्टवेयर यह तय करती है क्या उचित है क्या अनुचित। ब्रेन में  बुद्द्धि और विचार के क्षेत्र को  प्रीफ्रंटल कोर्टेक्स कहते हैं। उसी को योग की भाषा मे मूर्ध्नि या आज्ञाचक्र कहते हैं। यदि किसी का प्रीफ्रंटल कोर्टेस क्षतिग्रस्त हो जाय तो वह व्यक्ति पागल हो जाता है। उसके निर्णय लेने की क्षमता का ह्रास हो जाता है। 

इसी को योगिक साइंस में निर्ग्रंथन भी कहा जाता है। मन और शरीर मे निर्मित विषैली ग्रंथियों को जलाना। 

इसी को आज मेडिकल साइंस autophagy कह रहा है।इंटेरेटेन्ट फास्टिंग से autophagy में सहायता मिलती है।  इससे शरीर को ऊर्जा मिलती है।

उपावस व्यक्ति के शरीर और मन को निर्भार करता है। बोझिल और तनाव ग्रस्त मन को हल्का करता है। इस विषय पर मेडिकल साइंस और योगिक साइंस में सहमति है। लेकिन मेडिकल साइंस के अनुसार उपवास का अर्थ है फास्टिंग। वहीं योगिक साइंस के अनुसार इसका अर्थ है ध्यान। इससे शरीर मे उदानवायु की मात्रा बढ़ती है। शरीर की  Buoyancy में वृद्धि होती है।
हमारे अंदर और बाहर प्रकृति की जो शक्तियां काम करती हैं। उनमें से  एक फ़ोर्स है ग्रेविटेशनल - गुरुत्वाकर्षण - जो नीचे घसीटती है। दूसरी ऊर्जा होती है - Levitational - जो ऊर्ध्व गति देती है। नग्रेजी में जिसे Grace कहते हैं। संस्कृत में जिसे प्रसाद कहते हैं। 

योग की विधियां निम्न गति को, गुरुत्वाकर्षण को अप्रभावी बनाती हैं, और ग्रेस प्रसाद या Lavitation को बढ़ाती हैं। योगिक साइंस आपके अंदर प्रकृति की शक्तियों को बैलेंस करने में सहायता करती है। गुरुत्वाकर्षण अपना काम करता है। levitational फ़ोर्स अपना। मनुष्य को अपने शरीर के अंदर निहित ऊर्जा के इन केंद्रों को सक्रिय करने के लिये अनेक विधियां हैं और उनका विज्ञान है। यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप किस स्तर पर अपने जीवन को ले जाना चाहते हैं। Life energy को किस लेवल तक उठाना चाहते हैं। जीवन मे गुरुता प्रमाद अंधकार बेहोशी को बनाये रखना है, या जाग्रत रहना है, ग्रेस बढ़ाना है, प्रसाद लाना है जीवन में, यह आपको तय करना होगा। 
ॐ 

©त्रिभुवन सिंह

Sunday 4 October 2020

अछूत और आरक्षण : ब्रिटिश दस्युवों के लूट का परिणाम

#अछूत_आरक्षण_ब्रिटिश_दस्यु_नीति_की_उपज :

400 वर्ष पूर्व जब ईस्ट इंडिया कंपनी के तथाकथित व्यापारी भारत आये तो वे भारत से सूती वस्त्र, छींटज़ के कपड़े, सिल्क के कपड़े आयातित करके ब्रिटेन के रईसों और आम नागरिकों को बेंचकर भारी मुनाफा कमाना शुरू किया।
ये वस्त्र इस कदर लोकप्रिय हुवे कि 1680 आते आते ब्रिटेन की एक मात्र वस्त्र निर्माण - ऊन के वस्त्र बनाने वाले उद्योग को भारी धक्का लगा और उस देश में रोजगार का संकट उतपन्न हो गया।
इस कारण ब्रिटेन में लोगो ने भारत से आयातित वस्त्रों का भारी विरोध किया और उनकी फैक्टरियों में आग लगा दी।
अंततः 1700 और 1720 में ब्रिटेन की संसद ने कैलिको एक्ट -1 और 2 नामक कानून बनाकर ब्रिटेन के लोगो को भारत से आयातित वस्त्रों को पहनना गैर कानूनी बना दिया।

1757 में यूरोपीय ईसाईयों ने बंगाल में सत्ता अपने हाँथ में लिया, तो उन्होंने मात्र जमीं पर टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी ली, शासन व्यवस्था की नहीं। क्योंकि शासन में व्यवस्था बनाने में एक्सपेंडिचर भी आता है, और वे भूखे नँगे लुटेरे यहाँ खर्चने नही, लूटने आये थे। इसलिए टैक्स वसूलने के साथ साथ हर ब्रिटिश सर्वेन्ट व्यापार भी करता था, जिसको उन्होंने #प्राइवेट_बिज़नेस का सुन्दर सा नाम दिया। यानि हर ब्रिटिश सर्वेंट को ईस्ट इंडिया कंपनी से सीमित समय काल के लिये एक कॉन्ट्रैक्ट के तहत एक बंधी आय मिलती थी, लेकिन  प्राइवेट बिज़नेस की खुली छूट थी । 

  परिणाम स्वरुप उनका ध्यान प्राइवेट बिज़नस पर ज्यादा था, जिसमे कमाई ओहदे के अनुक्रम में नहीं , बल्कि आपके कमीनापन, चालाकी, हृदयहीनता, क्रूर चरित्र, और  धोखा-धड़ी पर निर्भर करता था । परिणाम स्वरुप उनमें से अधिकतर धनी हो गए, उनसे कुछ कम संख्या में धनाढ्य हो गए, और कुछ तो धन से गंधाने लगे ( stinking rich हो गए) । और ये बने प्राइवेट बिज़नस से -  हत्या बलात्कार डकैती, लूट, भारतीय उद्योग निर्माताओं से जबरन उनके उत्पाद आधे तीहे दाम पर छीनकर । कॉन्ट्रैक्ट करते थे कि एक साल में इतने का सूती वस्त्र और सिल्क के वस्त्र चाहिए, और बीच में ही कॉन्ट्रैक्ट तोड़कर उनसे उनका माल बिना मोल चुकाए कब्जा कर लेते थे।
 अंततः भारतीय घरेलू उद्योग चरमरा कर बैठ गया, ये वही उद्योग था जिसके उत्पादों की लालच में वे सात समुन्दर पार से जान की बाजी लगाकर आते थे।क्योंकि वहां से आने वाले 20% सभ्य ईसाई रास्ते में ही जीसस को प्यारे हो जाते थे।

ईसाई मिशनरियों का धर्म परिवर्तन का एजेंडा अलग से साथ साथ चलता था।

इन अत्याचारों के खिलाफ 90 साल बाद 1857 की क्रांति होती है, और भारत की धरती गोरे ईसाईयों के खून से रक्त रंजित हो जाती है ।
हिन्दू मुस्लमान दोनों लड़े ।
मुस्लमान दीन के नाम, और हिन्दू देश के नाम ।

तब योजना बनी कि इनको बांटा कैसे जाय। मुसलमानों से वे पूर्व में भी निपट चुके थे, इसलिए जानते थे कि इनको मजहब की चटनी चटाकर , इनसे निबटा जा सकता है।
लेकिन हिंदुओं से निबटने की तरकीब खोजनी थी।

1857 के बाद इंटेरमीडिट पास जर्मन ईसाई मैक्समुलर, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के पैरोल पर था। और  जिसने अपनी पुस्तक लिखने के बाद अपने नाम के आगे MA की डिग्री स्वतः लगा लिया ( सोनिया गांधी ने भी कोई MA इन इंग्लिश लिटरेचर की डिग्री पहले अपने चुनावी एफिडेविट में लगाया था)। 1900 में उसके मरने के बाद उसकी आत्मकथा को 1902 में पुनर्प्रकाशित करवाते समय मैक्समुलर की बीबी ने उसके नाम के आगे MA के साथ पीएचडी जोड़ दी।

अब वे फ़्रेडरिक मष्मील्लीण (Maxmillian) की जगह डॉ मैक्समुलर हो गए। और भारत के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर लोग आज भी उनको संदर्भित करते हुए डॉ मैक्समुलर बोलते हैं।

इसी विद्वान पीएचडी संस्कृतज्ञ मैक्समुलर ने हल्ला मचाया किभारत में  #आर्यन बाहर से नाचते गाते आये। आर्यन यानि तीन वर्ण - ब्राम्हण , क्षत्रिय , वैश्य, जिनको बाइबिल के सिद्धांतों को अमल में लाते हुए #सवर्ण कहा गया।

जाते जाते ये गिरे ईसाई लुटेरे  तीन वर्ण को भारतीय संविधान में तीन उच्च (? Caste) में बदलकर संविधान सम्मत करवा गए।

आज तक किसी भी भारतीय विद्वान ने ये प्रश्न नही उठाया कि मैक्समुलर कभी भारत आया नहीं, तो उसने किस स्कूल से, किस गुरु से समस्कृत में इतनी महारत हासिल कर ली कि वेदों का अनुवाद करने की योग्यता हसिल कर ली।
हमारे यहाँ तो बड़े बड़े संस्कृतज्ञ भी वेदों का भाष्य और टीका लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

अभी हाल में जे एन यू के एक आर्थिक इतिहासकार का लेख छपा है - उषा पटनायक का।
उन्होंने दावा किया किया है कि ब्रिटिश दस्युवो ने भारत से 45 ट्रिलियन पौंड की लूट किया। 
इसका प्रभाव क्या हुवा?
इस पर आज तक इतिहासकार और सामाजिक शास्त्री चुप हैं। 
इसका प्रभाव यह हुवा कि जब ब्रिटिश दस्यु भारत आये थे तो भारत विश्व की 24% जीडीपी का निर्माता था।
और जब गए तो भारत की जीडीपी 1.8% से भी कम बची। 
करोड़ो भारतीय बेरोजगार हुए। 
उनमे से 1850 से 1900 के बीच लगभग 3 करोड़ से अधिक भारतीय भूंखमरी और संक्रामक रोगों की चपेट में आकर काल के गाल में समा गए। 
उन संकामक रोगों के कारण भारत मे छुआछूत का प्रचलन हुवा, जिसको विभिन्न राजनैतिक और ईसाइयत में धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से डॉ आंबेडकर की मदद से भारतीय सरकारी कागजों में छुआछूत को हिन्दू धर्म का अंग बताते हुए सरकारी विधान बनाया गया।
मेरा दावा है कि 1885 के पूर्व के किसी सरकारी या गैर सरकारी दस्तावेज में छुआछूत का जिक्र तक नही है। टेवेरनिर, वेरनिर, बुचनान आदि के किसी ग्रन्थ में इसका जिक्र क्यों नही है। 
15%  और 85% का राजनैतिक सामाजिक न्याय का ढोल पीटने वाले इसका उत्तर क्यों नही देते?

चल संपत्ति की लूट हो सकती है।
अचल संपत्ति कहाँ ले जाओगे।
भारत मे अभी भी हजारों वर्ष पूर्व निर्मित विशाल और भव्य मंदिर हैं।
अम्बेडकर जी बताते है कि शूद्र 3000 वर्षो से नीच है।
तो उनके अनुयायी बतावें कि इन भव्य मंदिरों का निर्माण किसने किया?
ब्राम्हणों ने, क्षत्रियों ने, या वैश्यों ने?

आज राजशिल्पी अनुषुचित जाति में आते हैं संविधान में।
उनके पुर्वजों द्वारा निर्मित यह भव्य इमारतें इस बात का प्रमाण है कि भारत मे हिन्दुओ का कास्ट के अनुसार बंटवारा और ऊंच नीच, ब्रिटिश दस्युवो की सरकारी नीति की देन है। 

#नोट : यह पोस्ट पिछले वर्ष लिखी गयी थी। 20 सितंबर 2019 को। तब न कोरोना था और न ही सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर टिप्पड़ी की थी। 

और पोस्ट खोजता हूँ।

Profession and Passion:

#Choiceless_Awareness:

This word was coined and popularized by Ziddu Krishnamurti.

This is being popularized by Scholars especially western scholars, that it's philosophy. It's totally wrong. It's not philosophy. Philosophy is something what you think about life nature or cosmos. Theories and hypothesis propounded by thoughtful thinkers is philosophy. The word दर्शन is considered to be synonym of philosophy. But it's totally wrong. Darshan is when you see the things without getting entangled emotionally or without being prejudiced about them. 

Only Drashta can do Darshan. Darshan is not thought or thinking. Whatsoever goes in West from anywhere,  it is concocted by them. Same thing have happened with this word choice less awareness. Becuase West haven't gone beyond intellect mind and thinking. 

Our brought up is such that right from beginning of our life, we are taught to see the things as right or wrong.Our family society culture and education teaches us to see the things in the framework of righteousness or wrongness. We develop our liking and disliking according to that framework. This linking and disliking goes upto extent of Religion and Nation. This is the root cause of most bloody wars between communities and Nations in last several centuries. 

Choiceless - denotes developing an awarenesses about the things, where we can stop making decisions in form of right or wrong, good or bad. We can elevate our awareness beyond our likings and dislikings. We can refrain ourselves from being prejudiced. We see the whole lot of things with our jaundiced eyes. That's why we can't see the things as they are. 

Awareness- Just getting out of bed and continue following the same routine everyday, this is what is happening in our life, more or less. When we close our eyes, we sleep. And when we open our eyes, we consider it to be awakened.

 But that is not true. Awakening means we are aware of each and every physical and Mental activities going on within ourself. A close observation and alertness about our physical activity as well as mental activities. 

As of now we are dissociated physically and mentally. Meaning by,  when we are indulged in any activity,  something other is going on in our mind. 

Simplest tasks like eating, we can't do with full awareness. While eating we are watching TV, mobile, newspaper or a book. And if we are not doing this, even then our mind is full of bizarre thoughts while eating. This is not awareness. In spiritual sense it's called sleeping. 

या निशा सर्वभूतेषु जागृति तस्य संयमी। 
यस्यामि जागर्ति सर्वभूतेषु सा निशा पश्यते मुने:।।
  - Bhagwat geeta 

What is known as night for all creatures Yogi is aware in those moments. What we called our awakend stage Yogi calls it as sleeping stage

So choice less awareness is not a philosophy as Western thinkers and psychologists have been propagating it. It's stage of being. It's not thought.

Rather than its state of thoughtlessness.

 © Tribhuwan Singh

Choiceless Awareness:

#Choiceless_Awareness:

This word was coined and popularized by Ziddu Krishnamurti.

This is being popularized by Scholars especially western scholars, that it's philosophy. It's totally wrong. It's not philosophy. Philosophy is something what you think about life nature or cosmos. Theories and hypothesis propounded by thoughtful thinkers is philosophy. The word दर्शन is considered to be synonym of philosophy. But it's totally wrong. Darshan is when you see the things without getting entangled emotionally or without being prejudiced about them. 

Only Drashta can do Darshan. Darshan is not thought or thinking. Whatsoever goes in West from anywhere,  it is concocted by them. Same thing have happened with this word choice less awareness. Becuase West haven't gone beyond intellect mind and thinking. 

Our brought up is such that right from beginning of our life, we are taught to see the things as right or wrong.Our family society culture and education teaches us to see the things in the framework of righteousness or wrongness. We develop our liking and disliking according to that framework. This linking and disliking goes upto extent of Religion and Nation. This is the root cause of most bloody wars between communities and Nations in last several centuries. 

Choiceless - denotes developing an awarenesses about the things, where we can stop making decisions in form of right or wrong, good or bad. We can elevate our awareness beyond our likings and dislikings. We can refrain ourselves from being prejudiced. We see the whole lot of things with our jaundiced eyes. That's why we can't see the things as they are. 

Awareness- Just getting out of bed and continue following the same routine everyday, this is what is happening in our life, more or less. When we close our eyes, we sleep. And when we open our eyes, we consider it to be awakened.

 But that is not true. Awakening means we are aware of each and every physical and Mental activities going on within ourself. A close observation and alertness about our physical activity as well as mental activities. 

As of now we are dissociated physically and mentally. Meaning by,  when we are indulged in any activity,  something other is going on in our mind. 

Simplest tasks like eating, we can't do with full awareness. While eating we are watching TV, mobile, newspaper or a book. And if we are not doing this, even then our mind is full of bizarre thoughts while eating. This is not awareness. In spiritual sense it's called sleeping. 

या निशा सर्वभूतेषु जागृति तस्य संयमी। 
यस्यामि जागर्ति सर्वभूतेषु सा निशा पश्यते मुने:।।
  - Bhagwat geeta 

What is known as night for all creatures Yogi is aware in those moments. What we called our awakend stage Yogi calls it as sleeping stage

So choice less awareness is not a philosophy as Western thinkers and psychologists have been propagating it. It's stage of being. It's not thought.

Rather than its state of thoughtlessness.

 © Tribhuwan Singh