Saturday, 20 July 2019

इमोशनल टॉक्सिन्स - 8

#इमोशनल_टॉक्सिन्स_सीरीज -8

#अहंकार_विमूढात्मा :

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वेश:
अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहं इति मन्यते।। - भगवतगीता 3.27

एक मित्र हैं। उनकी पत्नी के  शरीर मे रक्त बनने का सिस्टम खराब हो गया है, इसलिए नियमित समय पर उनको रक्त देना पड़ता है। इसी विषय पर विचार करते करते यह मंत्र याद आ गया। हम अपने जीवन मे मात्र रोटी कपड़ा मकान और वाहन के लिए ही संघर्ष रत रहते हैं - इनका स्तर अलग अलग हो सकता है। यथा कोई बैलगाड़ी के लिए परेशान है तो कोई चार्टर्ड प्लेन के लिए।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त भोजन जल वायु अग्नि और आकाश का उपयोग हम करते हैं। कुछ भी खा लें वह शरीर मे जाकर प्रकृति प्रदत्त सिस्टम से स्वतः रक्त मेदा मांस मज्जा बनता रहता है। हम क्या सहयोग करते हैं उसमे। वह तो स्वतः ही बन रहा है। विज्ञान के अनुसार स्वतः तो कुछ नही होता। कोई न कोई कर्ता होना चाहिए हर कार्य के पीछे। मेडिकल साइंस इसको ऑटोनोमिक नर्वस सिस्टम कहता है, एंडोक्राइन सिस्टम कहता है, और भी अन्य नाम देता है जो यह कार्य करते हैं। लेकिन यह भी तभी करते हैं जब तक शरीर मे चेतन तत्व विद्यमान रहता है जिसको councious ness या चेतना कहते हैं। वैदिक विज्ञान उसी को चेतना आत्मा या परमात्मा कहता है।
हमारे शरीर मे लाखों करोड़ो इवेंट्स एक साथ होते हैं जिनमे हमारा लगभग कोई सहयोग या नियंत्रण नही होता। लेकिन जब इस लाखों करोड़ों घटित होने वाले  स्वचालित सिस्टम की कोई एक भी कड़ी काम करना बंद कर देती है, तो ऊपर वर्णित घटना घटती है जिसको हम dis ease ( असहज) कहते हैं। तुलसीदास ने इस चेतन का स्वरूप बताया - सहज:
ईश्वर अंश जीव अविनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी।।
इसका कारण है हमारे अंदर अपने द्वारा निर्मित किया हुआ अहंकार। यह अहंकार हमारे सिस्टम में सहज रूप से कार्य करने वाले चेतनता के प्रति कृतघ्न होने को बाध्य करता है। मनुष्य सबसे बड़ा कृतघ्न जीव है। वह अपने अंदर ही कार्य कर रहे उस सिस्टम के प्रति कृतज्ञता नही व्यक्त करता जिसके कारण वह सहज जीवन जी रहा है। उस सहज सिस्टम की एक कड़ी भी यदि काम करना बंद कर दे तो हम उस असहजता ( dis ease) का उपाय खोजने में लाखों करोड़ो खर्च करने को तैयार हो जाते हैं, रोते हैं , कलपते हैं, अपने कर्मो के लिए स्वयं को कोसते हैं। ईश्वर से उपाय हेतु प्रार्थना करते हैं। लेकिन जब तक यह सिस्टम सहज रूप से कार्य करता है,  हम उसके प्रति कृतज्ञ नहीं होते।
इसका कारण है हमारे अंदर निर्मित हमारा अहंकार। जिसको ईगो भी कह सकते हैं और आइडेंटिटी भी। हम अपनी आइडेंटिटी निर्मित करते हैं जिसको पश्चिम में पर्सनालिटी भी कहते हैं। क्योंकि हमें अपने निर्माता पर विस्वास नही होता। यदि विस्वास होता तो हम क्यों निरन्तर अपनी आइडेंटिटी निर्मित करते ? एक बार आइडेंटिटी निर्मित कर ली तो या तो अहंकार के शिकार होते हैं या फिर आइडेंटिटी क्राइसिस के। दोनों ही स्थितियों में हम अपने सिस्टम में विष या न्यूरोटॉक्सिन का निर्माण करते रहते हैं। इस तरह जो वृत्ति हमारे अंदर विकसित होती है उससे हमारे अंदर निर्मित होता है - क्लेश या संघर्ष जो पुनः न्यूरोटॉक्सिन या विष निर्मित करता है। यह विष हमारे अंदर निरन्तर बहता रहता है।
पतंजलि कहते हैं कि -"वृत्तया पंच तय्या - क्लेश: अक्लेश: च।
कृष्ण कह रहे हैं कि हम समस्त कार्य अपने अंदर प्रकृति प्रदत्त तीन गुणों के कारण करते हैं। तीन गुण अर्थात इलेक्ट्रान प्रोटोन न्यूट्रॉन, या सत रज तम या ब्रम्हा विष्णु महेश। इन्ही तीन प्रकृति की शक्तियों के कारण हम जन्म लेते हैं, बड़े होते हैं, शादी व्याह करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं, और मर जाते हैं। पशु पक्षी कीड़े मकोड़े सब करते हैं। बस वे अहंकार निर्मित नही करते मनुष्य की भांति। शायद इसीलिए वे अपने जीवन को संपूर्णता के साथ जीते हैं। एक सड़क किनारे या गांव में  बैठी रंभाती गाय या भैंस को देखिये। कितनी असीम शांति दिखती है उसके चेहरे पर।
हमारे सारे भाव काम क्रोध लोभ मोह मद मत्सर, प्रेम करना दया घृणा सब प्रकृति की इन तीन शक्तियों से ही उत्पन्न होती हैं। इन भावों से ही प्रेरित होकर हम जीवन मे समस्त कार्य करते हैं।
कृष्ण कह रहे है कि ऐसा सोचने वाले लोग विमूढात्मा हैं क्योंकि वे स्वयं द्वारा निर्मित अहंकार के बस में होकर काम करते हैं। वे अस्वस्थ हैं। स्वस्थ नही हैं। अर्थात स्व में स्थित नही हैं, अपने स्वभाव के बस में नही हैं, दूसरों से संचालित हो रहे हैं। इसलिए वह कहते हैं कि - योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। योगश्थ होकर अर्थात स्व में स्थित होकर कर्म करो। यदि ऐसा करना संभव हुआ तो तुम्हारे अंदर संघर्ष निर्मित नही होगा। संघर्ष निर्मित नहीं होगा तो अहंकार और न्यूरोटॉक्सिन या विष कम बहेगा तुम्हारे अंदर।

संघर्ष कम निर्मित होगा तो तुम्हारे अंदर विष और न्यूरोटॉक्सिन भी कम निर्मित होगा। तुम अधिक सहज हो सकोगे, प्रसन्न हो सकोगे, आनन्द पूर्वक जी सकोगे।
तो पहला काम यह करना चाहिए कि अहंकार की मात्रा कम करने के लिए अपने उस सिस्टम के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करो जो तुमको प्रतिदिन, तुम्हारे सहयोग या अपेक्षा के बिना भी तुम्हारे सिस्टम को असहजता मुक्त ( dis ease free) बनाकर रखती है। क्योंकि यदि वह सिस्टम जरा सा भी असावधान हुई तो तुम गए बीमारी ( dis ease) की चपेट में। और एक बार उसके चपेट में गए तो फिर प्रकृति के स्थान पर मार्किट फ़ोर्स काम करने लगेगी। डॉक्टर मेडिसिन अस्पताल के चक्कर लगाते लगाते किस किस विष को पीकर किस किस विष का तुम अपने अंदर निर्माण करोगे यह तुमको स्वयं पता नही है। कोसाई का नया दौर शुरू हो जाएगा तुम्हारे अंदर - लेकिन वह कोसाई तुम्हारे अंदर अमृत नही पैदा करेगी, विष ही पैदा करेगी।
वही तो इतने वर्ष से करते आ रहे हो।
तुमको लगता होगा कि तुमने आज तक न जाने कितनी बार विष पिया है। लेकिन यह सच्चाई नहीं हैं। सच्चाई तो यह है कि तुमने आज तक विष निर्मित किया है अपने सिस्टम में। अपने अहंकार के कारण। अपने स्वचालित सिस्टम के प्रति कृतघ्नता के कारण।

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