Wednesday 23 December 2020

Desire Disease Distress and Depression. What's root cause of it?

#दशहरा - उन दस का हरण होने की अवस्था - जिसे इन्द्रिय कहते हैं। रावण अर्थात अनन्य इच्छाओं, कामनाओ, वासनाओं का दास। 
इन वासनाओं कामनाओ और इच्छाओं की पूर्ति के माध्यम हैं हमारी दस इंद्रियां। 
दसानन - जो दस शरीरों से भोगता है भोगों को, वासनाओं को, कामनाओं को, विषय वस्तुओं को - वही हैं है रावण - अनंत इच्छाओं के पीछे भागने वाला। 

#Desires_Disease_Distress और 
#डिप्रेशन: इन सब की उत्पत्ति कैसे होती है? और इनका एक दूसरे से क्या रिश्ता है?

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकलें।
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले।।

ख्वाहिशों का जन्म, जन्म के साथ ही हो जाता है।  जन्म के साथ इसे बाल घुट्टी में हमें पिलाया जाता है - सपने देखो। माता पिता समाज स्कूल सभी एक ही शिक्षा देते हैं: सपने देखो। सपने ही वे ख्वाहिशें हैं जिनका जन्म बालपन में होता है और मृत्यु पर्यंत उनसे मुक्त नहीं हो पाते हम। सपने भी छोटे मोटे नहीं। बिग ड्रीम्स। ड्रीम बिग। छोटे सपने देखोगे तो छोटे हो जाओगे। और फिर अंधी दौड़ शुरू होती है - अनंत ख्वाहिशों की। 

बच्चा अभी क ख ग घ सीख ही रहा है कि उसकी खोपड़ी में घुसेड़ दिया जाता है कि क्या बनेगा? माता पिता अडोसी पड़ोसी उससे पूंछना शुरू कर देते हैं कि बड़े होकर क्या बनोगे ? बनने की इच्छा उसके अंदर डाल दी गयी। अब वह दौड़ेगा उसके पीछे। 

Desire is dis ease. To be at ease ,one needs to halt his desires. 
ख्वाहिशें : यानी भविष्य। भविष्य अर्थात भूत का प्रक्षेपण। भूतकाल का प्रक्षेपण ही भविष्य है। 

जो भोगा था वह है भूत। उसमें रस बना हुआ है। जो भोगा था उससे तृप्ति अभी तक नहीं हुयी है। अभी भी उसमें रस बना हुआ है। भविष्य- आकांक्षा है उन भोगों को भोगते रहने की, और अनभोगे भोगों को भोगने की। 

ख्वाहिशें अर्थात डिजायर अर्थात कामना, अर्थात वासना। जो भी नाम दे दो। जो मिला है, जो भोगा है उससे मन भरा नहीं है। जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं हैं। 

"यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवति अधिवासितः।
अभुक्तेषु निरकांक्षी तादृशो भव दुर्लभ:।।"
- अष्टावक्र गीता

" जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं है और अनभोगे भोगो के प्रति निराकांक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है।"

दो चीजों को संसार मे हम पकड़े हुए हैं - एक तो भोगे हुए भोग। जो भोगा है उसका रस मन मे रचा बसा है। उसे बार बार भोगने का मन करता है। भोगा हुवा अर्थात अतीत। और एक अनभोगे सुख की आकांक्षा अर्थात भविष्य, कामना, वासना, डिजायर। यही दो पाट हैं  जीवन के। जिनके बीच मनुष्य पिसता रहता है:
"दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय। 
चलती  चाकी देखकर दिया कबीरा रोय"'।।

अतीत को भोग कर देखा। उसके रस को देख लिया। शायद निरर्थक था। इसीलिए अब भविष्य में नए भोगों की आकांक्षाओं को हम पालते हैं : यही है कामना, काम वासना, आशा, Hope, future. 

कोई कामना न हो तो हम सहज रहते हैं: at Ease.

 कामना के द्वारा पकड़े जाते ही बेचैनी शुरू हो जाती है। कैसे पूर्ति हो उसकी? Dis ease, distress. 

कामना की पूर्ति में बाधा उतपन्न होते ही क्रोध का जन्म होता है। इच्छित अभिलाषा न पूरी हुयी, तो क्रोध का जन्म होता है।  काम मौलिक है। क्रोध उसका by product है। काम के पेट से क्रोध का जन्म होता है। काम के आपूर्ति में कोई बाधा उतपन्न हुयी, क्रोध का जन्म हो जाता है।

 लेकिन क्रोध का प्रकटीकरण, असामाजिक कृत्य माना जाता है। और हानिकारक भी हो सकता है। एक बाबू अपने अफसर से क्रोधित हो सकता है, परंतु अभिव्यक्त नही कर सकता। करेगा कहीं उसकी अभिव्यक्ति - अपने subordinate पर, अपनी बीबी पर। लेकिन तत्काल नहीं कर सकता। तत्काल तो मुखौटा अपनाना पड़ता है। गाली खाकर भी दांत चियारना पड़ता है। तो उसने मुखौटा धारण कर लिया। मुखौटा अर्थात असहजता। dis ease, डिस्ट्रेस। अंदर कुछ और बाहर कुछ और।
तनाव पैदा हो गया। 

काम की प्राप्ति हो गयी - जो भी प्राप्त हो गया है, वह अपने हाँथ से छूटे न कभी - मोह का जन्म हुवा। जो प्राप्त हुवा है वह हाँथ से निकल न जाय। रुपया पैसा धन बाल बच्चे, धन पद सब कभी छूट न जाय। भय ने मन मे जन्म लिया उनकी सुरक्षा के लिए। असहजता, बेचैनी का जन्म हुवा। भविष्य कभी आएगा कि नही, यह नहीं पता। भविष्य कभी आता भी नहीं, आयेगा कभी तो वर्तमान बनकर ही। लेकिन मोह का जन्म हो गया। 

काम की प्राप्ति हुयी, इच्छाओं वासनाओं की पूर्ति हुयी, लेकिन जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है। जो पड़ोसी के पास है, जो मित्र के पास है, जो भाई के पास है, जो संसार मे कहीं अन्यत्र उपलब्ध है : वह भी चाहिए। लोभ का जन्म हुवा। कल तक 20 रुपये के महंगे थे। आज लखपति हैं। लेकिन निगाह है करोड़पति पर। दौड़ शुरू हो गयी।  comparision और कम्पटीशन का खेल शुरू हुआ। संसार मे आप किसी भी क्षेत्र में शीर्ष पर नहीं हो सकते। कोई न कोई आपसे आगे रहेगा ही। शीर्ष पर पहुंच भी गए तो बने न रह पाएंगे। जैसे किसी को धक्का देकर आपने अपने पूर्व शीर्ष स्थान को प्राप्त किया था, वैसे ही कोई धक्का देकर आपको भी गिरायेगा। 

काम क्रोध लोभ मोह : मद मत्सर। 
यह इसी क्रम में जाना जाता है। सबका जन्म काम से ही होता है। काम है मूल बाकी सब उसके उत्पाद हैं।  

काम या वासनाओं का स्वरूप तीन है:
"सुत वित लोकेषणा तीनी।
येहि कृत केहि कर मन न मलीनी।।"
 - रामचरित मानस। 
काम धन पद और प्रतिष्ठा - वासनाओं, कामनाओं की दौड़ इन्ही तीन दिशाओं में होती है। धन कमा लिय्या तो अब पद और प्रतिष्ठा कमाना है।

डॉक्टर बनने की दौड़ में बचपन से सम्मिलित थे। बन गए डॉक्टर। धन जितना कमाया जा सकता था डॉक्टरी से कमा लिया। अब उसमें आनंद नही आ रहा है। अब एम एल ऐ का टिकट चाहिए। लगे हैं लाइन में हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे नेता के पीछे दुम हिलाते हुए। बुके लेकर स्वागत करने को बेकरार हैं। टिकट मिलता ही नहीं लेकिन। मिल गया यदि और  बन गए  एम एल ए, तो बात ही क्या है। उनकी दौड़ जारी हो गयी मंत्री पद के लिए। 
लेकिन एक ठसक आ गयी। एक मद चढ़ गया। यह मद किसी मद्यप के मद से बहुत अधिक होता है। मद्यप का मद तो कुछ घण्टों का होता है। यह मद पांच वर्षों के लिए पक्का हो गया। कल जिसके सामने वोट मांगने के लिए गिड़गिड़ाते देखे जाते थे। आज उसको पहचानते भी नहीं। 
"प्रभुता पाई काहि मद नाहीं।
नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं। 
- रामचरितमानस

काम की दौड़ में साथ साथ दौड़े थे। एम एल ऐ के टिकट के लिये साथ साथ लाइन में लगे थे। जिसको मिल गया उसको उसका मद पीड़ित करेगा। जिसको नहीं मिला, उसको मत्सर: ईर्ष्या, द्वेष, डाह - यह सब दाह समान है, आग लगा देती हैं शरीर में - सहजता नष्ट हो गयी। at ease रहना सम्भव न होगा अब: dis ease , डिस्ट्रेस। 

#डिप्रेशन: निराशा अवसाद: भविष्य से निराश। वर्तमान में उसे रुचि नहीं है। भूतकाल के अनुभवों के कारण भबिष्य में प्रक्षेपण करना भी बन्द कर देता है मनुष्य। अतीत के भोग आपको दो तरह के अनुभव दे सकते हैं : सुख या दुख। राग या द्वेष। 
"सुखानुषयी राग:।
दुखानुषयी द्वेष : ।।"
- पतंजलि योगसूत्र।

जिन अनुभवों से सुख की अनुभूति होती है वह है राग। आधुनिक भाषा मे उसे लाइक करना कहते हैं। इसके विपरीत जिन अनुभवों से दुःख की अनुभूति होती है वह है द्वेष। आधुनिक भाषा में उसे dislike कहते हैं। जो आप लाइक करते है वह हुवा सुख। जो नापसंद करते हैं उसे कहते हैं दुख। 

अतीत के अनुभव किसी किसी के लिए इतने दुखद होते हैं, इतने dislike भरे होते हैं कि वह अतीत का भविष्य में प्रक्षेपण करने में भी अपने आपको सक्षम नही पाता।उसको अपना भविष्य अंधकार में दिखता है। भविष्य में कुछ प्राप्त होता दिखता नहीं। 

 असहजता की सर्वोच्च स्थिति - dis ease। निराशा का जन्म वहीं से होता है। भविष्य चूंकि कल्पित होता है, इसलिए सभी निराशाएं भी कल्पित होती हैं। लेकिन व्यक्ति का यथार्थ बोध समाप्त होने के कारण उस कल्पित आशाहीन भबिष्य से व्यक्ति व्यथित हो जाता है, भयभीत। उससे निकलने की उसकी मनोष्थिति समाप्त हो जाती है: No Hope for Future is depression. परिणाम कई बार घातक होते हैं: यथा आत्महत्या। 

कल किसी ने कोट किया था चार शब्द: डिजायर, डिजीज, डिस्ट्रेस, और डिप्रेशन।  उसी का विस्तार कर दिया। 

इसमे दशहरा भी जोड़ लीजिये।

दशहरा है प्रतीक इस बात का कि नौ दिन और रातों के तपस्या के द्वारा हमने अपनी दसों इंद्रियों पर विजय पा लिया है।
उसी का लोक प्रतीक है दसहरा।

रावण वह है जो दसों इंद्रियों से संसार मे लिप्त है और भोग रहा है। परंतु भोगों को भोग कौन पाया है आज तक?
बल्कि भोगों ने ही अब तक सबको भोगा है। 
कबीर कहते हैं:
जगत चबैना काल का।
कुछ मुंह मे कुछ गोंद। 

यदि भोग ही पाता कोई तो बुद्ध महावीर और  भर्तहरि जैसे राजा राजपाट त्यागकर सन्यास न लेते। 

Desires और उनको भोगने के संदर्भ में भर्तहरि कहते हैं:

भोगों न भुक्ता वयमेव भुक्ता:
तपो न तृप्त: वयमेव तप्ता:।।
कालो न यातो, वयमेव यातो
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:।।

हम भोगों को नहीं भोगते। भोग ही हमें भोग डालते हैं। भोग हमसे पूर्व भी थे और हमारे बाद भी रहेंगे संसार में। तो भोक्ता कौन हुवा? हम कि भोग? 
तप हम नहीं करते। हम तप ही जाते हैं। 
काल कहाँ जाता है, हम ही चले जाते हैं। 
तृष्णा जीर्ण नहीं होती हम ही जीर्ण हो जाते हैं। 

भर्तहरि कह रहे हैं कि डिजायर वृद्ध नहीं होती,  कम नही  होतीं। हम ही वृद्ध हो जाते हैं। 
डिजायर को प्राप्त करने और पूर्ति करने के माध्यम हैं हमारे शरीर  की दस इंद्रियां। 

उन्हीं के  दहन करने का प्रतीक दिवस है दशहरा। 

शुभकामनाएं। 

©त्रिभुवन सिंह

❤️🙏🏽❤️

Sunday 20 December 2020

फ्यूज़न साइंस : जेनेटिक्स एंड एपीजनेटिक्स

#फ्यूज़न_साइंस_ऑफ_ह्यूमन_बीइंग :

#जेनेटिक्स_एंड_एपीजनेटिक्स :

प्रत्येक मनुष्य दो कोशिकाओं से निर्मित है -एक शुक्राणु और एक अंडाणु। यह हर बच्चा जानता है। 
Zygot बनता है इनसे। फिर मात्र तीन माह में ये लगभग 200 ट्रिलियन कोशिकाओं के समूह में बंट जाता है। सभी विशेषज्ञ कोशिकाएँ। कोई भी कोशिका सामान्य नहीं। हर कोशिका विशेषज्ञ। हर कोशिका लगभग अपने आप मे सम्पूर्ण। जो एक मनुष्य के शरीर मे घटता है वह सभी कोशिकाओं के अंदर घटता है - खाना पखाना, सांस लेना, मेटाबोलिज्म या उपापचय। 

जीव वैज्ञानिक इनका डेटा एकत्रित कर सकता है, कर लेता है - क्रोमोजोम से लेकर जीन तक - शूक्ष्म और स्थूल अध्ययन के द्वारा।  मेडिकल साइंस जिसको हम लोग पढते हैं। हम मनुष्य के हर गुण दोष को क्रोमोजोम और जीन्स पर डाल देते हैं।
जेनेटिक्स पर  सारा गुण दोष आरोपित करते आये हैं हम। अभी एक ब्रांच आयी है एपीजनेटिक्स। वह कहती है कि गुण दोष बदले जा सकते हैं।प्रकृति अंतिम निर्णय नहीं  सुनाती जीवन के बारे में। जीव अंतिम निर्णय देता है। गुण और जीवन बदले जा सकते हैं। वहीं पहुंच रहे हैं वे जहां हम बीसियों हजार साल पहले पहुंचे थे। 

मेडिकल साइंस और जेनेटिक साइंस आदि समझते हैं कि इतना ही जीव सम्पूर्ण होता है। मेडिकल या जेनेटिक साइंस प्रकृति या लौकिक संसार तक ही जा सकता है। फिजिकल अस्तित्व के ऊपर वह जा नहीं सकता। उसकी एक सीमा है। लेकिन वह समझता है कि यही अंतिम सीमा है।

लेकिन यदि सामान्य बुद्द्धि और जिज्ञासा हो तो इस मिथ को भंग किया जा सकता है। हम एक कोशिका अपने पिता से उधार लेते हैं और एक अपनी माता से । या दूसरी भाषा में कहें कि आनुवंशिकी विज्ञान (जेनेटिक साइंस) के अनुसार एक-एक कोशिका हमे अपने माता पिता से उपहार में मिली हैं। जिसने हम निर्मित होते हैं। लेकिन हमको जो भी चीज उपहार या उधार में मिलती है वह हमारी संपत्ति हो सकती हैं, हम नहीं हो सकते वह। लेकिन हमारा विवेक कहता है कि उसी में हम भी रहते हैं। 

तो फिर प्रश्न उठेगा कि हम हैं कौन? जिस जिस चीज को हमने आज तक अपना होना समझा था वह तो बाहर से ओढ़ी गयी डिग्रियां और उपाधियां मात्र निकलीं। वे हैं तो हमारी संपत्ति लेकिन हम उनसे अलग हैं।

फिर प्रश्न उठेगा कि मैं कौन हूँ?
Who Am I?
जिस दिन यह प्रश्न उठे अंदर से, तो समझना कि तुम्हारे कदम सत्यं शिवं सुंदरं की ओर उठने को तत्पर हैं। फिर तुम स्वयं खोजने लगोगे अपने होने को। 

ईशोपनिषद कहता है:
पूर्णमदम् पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णात पूर्णम् उदच्यते। 
पूर्णस्य पूर्णम आदाय पूर्णमेव अवशिष्यते। 
पूर्ण वह भी है पूर्ण यह भी है। पूर्ण से पूर्ण निकलता है। 
पूर्ण से पूर्ण निकलने के बाद भी पूर्ण ही बचता है। 

तो यह पहली कैसे सुलझे कि उधार या उपहार में प्राप्त दो कोशिकाओं से बने इस स्थूल शरीर मे मैं कहाँ और कैसे रह रहा हूँ? 
सत्वं रजः तम इति गुणा: प्रकृति संभवा।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययं ।। 
- भगवतगीता
प्रकृति से उत्पन्न तीन गुण, सत रज तम मिलकर इस शरीर मे अविनाशी जीव को बांधते हैं। 

यह असेम्बली तैयार होती है - मां के गर्भ में। असेम्बली शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ कि इस शब्द से आप परिचित हैं। हर वस्तु आज असेंबल होती है। मनुष्य जैविक कंप्यूटर है। कृत्रिम कंप्यूटर (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) असेम्बल होता है, यह आप जानते हैं। 

तो जैविक कंप्यूटर की असेम्बली है मां का गर्भ। 
पिता और माता से मिला प्रकृति के तीन गुण - सत रज तम। जिसको जेनेटिक साइंस और मेडिकल साइंस समझ सकते हैं। अब इसमें असेंबली होनी होती है जीव की, जो आत्मा है और परमात्मा का अंश है। स्थूल प्रकृति और आत्मा के बीच का बन्धन बनाता है मन ( माइंड ) तथा पांच ज्ञानेन्द्रिया। ज्ञानेंद्रियों को भी विज्ञान ने समझ लिया है, लेकिन माइंड को अभी समझ नहीं सके हैं - माइंड एक तरह का सूक्ष्म भौतिक और अभौतिक के बीच के तरह का तत्व है। 

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातनः।
मनः षस्टाणि इन्द्रियाणि प्रकृति स्थाने कर्षति।।
- भगवतगीता

माता पिता से प्राप्त कोशिकाओं में हम प्रविष्ट होते हैं मन और पांच इंद्रियों के साथ। मन प्रकृति का हिस्सा है - आत्मा अलौकिक है, सनातन है, जबसे सृष्टि निर्मित हुयी है, तब से अस्तित्व में है - जो समस्त ऊर्जा का स्रोत है, लेकिन वह अकर्ता है। कुछ करता नहीं है। लेकिन सब कुछ उसी की उपस्थिति में घटता है। 

इसको वैज्ञानिक भाषा वालो को ऐसा समझाया जा सकता है। हमने एक तत्व सुना है - catalyst (उत्प्रेरक)। अनेकों जैविक और रसायनिक क्रियाएं तभी घटती हैं जब कैटेलिस्ट उपस्थित हो। वस्तुतः कैटेलिस्ट उसमें कोई सक्रिय योगदान नहीं देता है - अकर्ता है। ठीक आत्मा को ऐसा ही समझा जा सकता है मोटा मोटा। 

यह असेम्बली निर्मित होने के बाद दो कोशिकाओं का विभाजन शुरू होता है - और तीन माह में दो सौ ट्रिलियन कोशिकाओं मे विभाजित हो जाती हैं। इतने कम समय मे इतनी कोशिकाओं को निर्मित करने में कितनी बड़ी फैक्ट्री की आवश्यकता होगी, इसकी मात्र कल्पना की जा सकती है।
प्रकृति को स्त्री सूचक संज्ञा से संबोधित करते हैं हम। माया दुर्गा सीता काली आदि उन्हीं शक्तियों का नाम है जिससे यह जग निर्मित हुवा है। 

और परमात्मा, चेतना, ऋत को पुरूष के नाम से। प्रकति और पुरुष के मिलने से ही जीव का निर्माण होता है।

आदिशक्ति जेहिं जग उपजाया।
सो अवतरेहु मोर यह माया।।

या फिर

जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई।
जद्यपि मृषा छूटत कठिनई।। 
- रामचरितमानस 

यह एक नया तरीका है अस्तित्व को समझने का।
आपको शायद पसंद आये। 

#Note: I hope few medical scientists and genetists will come to counter or hail this article. This is how we can establish value of our heritage in modern world, which is blind enough to accept anything in the name of science - Even Aryan Invasion hoax too, in the name of fake Science Indology.

©Singh Tri Bhuwan

Tuesday 1 December 2020

जीवन का नियम

जीवन का नियम है - जो हो जाय वही जरूरी था। जो न हो पाए वह गैर जरूरी था। 
लेकिन मनुष्य के मन का नियम यह है कि जो हो गया, वह गैर जरूरी था।  जो न हो पाया वही जरूरी था। 
जो प्राप्त हो गया उसका मूल्य नहीं रहता जीवन में।
जो न मिल पाया वही कचोटता रहता है। 
जो प्राप्त है वह अपर्याप्त है। 
जो अप्राप्त है मन उसी के पीछे भटकता रहता है। 

इसी को #मृग_मरीचिका कहते हैं। 

#मृगतृष्णा

Mirage 
ऐसी प्यास जो कभी बुझती नहीं। 

मनुष्य जब पशु के आयाम में जीवन बिताता है - भूख भय मैथुन निद्रा। यह मनुष्य और पशुओ में सामान्य है। आवश्यकता है जीवन की। 
पशु से मनुष्य को अलग करती हैं उसकी महत्वाकांक्षा। उसके सपने। वह सपने जो वह दिन रात देखता रहता है। 

 मनुष्य की अनंत इच्छाएं, वासनाएं, कामनाएं उसको जीवन भर अप्राप्त के पीछे दौड़ाती रहती हैं। फिर एक दिन जीवन की शाम आ जाती है।

©त्रिभुवन सिंह