Wednesday 30 September 2020

योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय

#योगस्थ_कुरु_कर्माणि :

  आपके काम करने का क्या तरीका है? समग्रता से काम करते हैं या फिर विभाजित व्यक्तित्व से काम करते हैं? 

योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धन्नजय।
-भगवतवीता

योग का अर्थ है मिलन। किसका मिलन? कर्म के संदर्भ में बात हो रही है। तो कर्म कितने अंगों से होता है?

कृष्ण कहते हैं:
शरीर वाक मनोभि: यत् कर्म प्रारभते नर:।

शरीर मन और वाणी से जो कर्म मनुष्यों द्वारा शुरू किए जाते हैं। अर्थात यही तीन यंत्र हैं हमारे पास कर्म करने के। इन्ही तीन उपकरणों की सहायता से हम अपने समस्त कर्म करते हैं : शरीर वाणी और मन। 

कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी कर्म करना हो उनको करते समय तीनों का मेल होना चाहिए। तभी जीवन में सफलता मिलेगी। इसी मिलन का नाम ध्यान है। हमारे गुरुओं ने माता पिता ने सबने हमको समझाया कि ध्यान से काम करना सीखो। हम अपने बच्चों को यही प्रवचन दे रहे हैं कि बेटा ध्यान से पढो, ध्यान से काम करो।  

लेकिन क्या हम स्वयं ध्यान से काम करना सीख पाये हैं? क्या हम इस शब्द का अर्थ समझते हैं? 

योगस्थ कुरु कर्माणि - ध्यान से काम करो। ध्यान - शरीर और मन:
अभी तो हमारे काम करने का तरीका ऐसा है कि हमें ध्यान का कुछ अता पता ही नहीं है। हम काम कुछ कर रहे हैं और मन में कुछ और चल रहा हैं। हम बैठे हैं आफिस में और मन में घर में हुवा महाभारत चल रहा है। पत्नी की किचकिच चल रही हैं। हम बैठे हैं घर में। पत्नी के साथ चाय पी रहे हैं। और मन में बॉस दहाड़ रहा है। घर मे बैठे हैं तो आफिस की किचकिच चल रही है। हम गाड़ी चलकर आफिस जा रहे हैं और रास्ते में मन मे सैकड़ो योजनाएं बन बिगड़ रही हैं। 
और तो और साधारण से साधारण नित्यकर्मों के समय भी मन स्थिर नहीं रहता।  शरीर के साथ नहीं रहता। भोजन करने बैठे हैं तो  टी वी खोल लिया। अखबार खोल लिया। किताब खोल ली। क्यों? क्योंकि भोजन करते समय भी मन इतना बेचैन है कि यदि उसे खुला छोड़ दें तो वह न जाने कौन कौन सा उपद्रव खड़ा कर दे? इस भय के कारण हम मन को कहीं न कहीं अटका देते हैं - टी वी में, किताबों में, अखबार में। मन के उपद्रव से बचने के लिए। मैं स्वयं अभी एक वर्ष पूर्व तक भोजन करते समय कुछ न कुछ अवश्य पढ़ता था। मेरी श्रीमती जी ऐतराज करती थीं तो संभबतः मेरे पास कोई तर्कपूर्ण तर्क नहीं रहता होगा। लेकिन अपने आप को सही प्रमाणित करने के लिए मैं कहता था कि " इससे भोजन खराब भी बना हो तो पता नहीं चलता"। खा लेता हूँ। इसे कहते हैं बेध्यानी से भोजन करना। बेहोशी में भोजन करना। होश नहीं है खाते समय। बेहोश हैं हम भोजन करते समय भी। 

 अरे भैया भोजन प्रेम से बनाया है आपकी पत्नी ने, माँ ने, उस प्रेम का तो अपमान न करो। ध्यान से खाओ। ध्यान का एक नाम प्रेम भी है। 
इस तरह हम शरीर और मन के स्तर पर प्रायः बंटे रहते हैं - विभक्त रहते हैं। यही बँटा पन यदि प्रगाढ़ हो जाय तो मनोवैज्ञनिक उसे #SplitPersonalityDisorder कहते हैं। एक मनोवैज्ञनिक बीमारी। 

अब मन और वाणी के द्वारा किये जाने वाले कर्मो में मेल, मिलन के बारे में: हम जैसा जीवन जीते हैं उसमें हमारी वाणी में कुछ चलता है और मन मे कुछ और। संसार में यह बहुत सामान्य बात है। मन में किसी के प्रति द्वेष है, घृणा है, लेकिन वह सामने आ जाय तो हमारी वाणी में मिठास आ जाती है। अहोभाग्य मित्र, आपके दर्शन हुए। लेकिन मन में चल रहा है कि अवसर मिले तो इसका गला दबा दूं। कहाँ से आ टपका यह नामुराद। मन और वाणी में कोई मेल नहीं है। मेरे एक सीनियर हैं। उनके बारे में सुना है कि किसी एक विषय में अलग अलग लोगों से इतनी अलग अलग बाते करते हैं कि शाम तक भूल जाता है कि किससे कौन सी बात की थी। बात तो एक ही करनी थी उस विषय पर। लेकिन मन में उसी बात के लिए अलग अलग व्यक्ति के लिए अलग अलग साँचा तैयार कर रखा है। अंत में सब गड्डम गड्ड हो जाती है कि किससे क्या कहा। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि अपने गुरु को सामने पाकर तुरंत पैर छूते हैं और जैसे ही गुरु एक कदम आगे बढ़ा, वे अपने गुरु को एक भद्दी गाली समर्पित करते हैं। तो मन और वाणी में कोई मेल नहीं है। यह भी विभक्त व्यक्तित्व निर्मित करता है - Split personality. 

ऐसा क्यों हो रहा है?
कृष्ण कह रहे हैं कि - योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। 

कर्म करते समय शरीर मन और वाणी से एक रहो। लेकिन ऐसा तभी होगा जब आसक्ति अर्थात संग का त्याग कर सकोगे। मन में हजारों इच्छाएं जन्म ले रही हैं। मन भाग रहा है निरन्तर उन इच्छाओं के पीछे। हर इच्छा के पीछे राग और द्वेष का भाव जुड़ा हुआ है। तो हम जहां हैं मन वहां से अनुपस्थित है। और जहां पर मन उपस्थित हैं वहां हम अनुपस्थित हैं। जहां मन और शरीर दोनों उपस्थित हैं वहां वाणी तो है लेकिन कौन सी? यह कहना मुश्किल है। सच्ची या झूंठी यह कहना मुश्किल है। 
शरीर वाणी और मन में विभाजन व्यक्ति के अंदर खींचतान उत्पन्न करता है, तनाव और बेचैनी उतपन्न करता है। उपद्रव पैदा करता है। 

कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी कर्म करना हो, उसे समग्रता के साथ करो, ध्यान के साथ करो। शरीर मन और वाणी में एकत्व स्थापित करके करो। विभक्त व्यक्तित्व के साथ कोई काम न करो। समग्र व्यक्तित्व के साथ करो। तभी मन का द्वंद, मन का तनाव, मन की उलझनें, बेचैनियों से बच सकोगे। 

©त्रिभुवन सिंह

Tuesday 29 September 2020

Quantum Physics Fractal Geometry and वेदांत

#वेदान्त_का_लेटेस्ट_विज्ञान : क्वांटम फिजिक्स और fractal ज्योमेट्री।

पश्चिम और अरबी दस्यु भारत आये थे - भूंखमरी से निजात पाने के लिए। लूट और दस्युता उसको अपने स्वयं के सेक्युलर रोमन और अरबी पूर्वजों से मिली थी, जिसको ईसाइयत और इस्लाम के धर्म ग्रंथो ने मान्यता दे रखी हैं। यद्यपि उन्होंने फनाटिसम के कारण अपने पूर्वज संस्कृति को नष्ट कर दिया, परंतु उनके ज्ञान पर अपना दावा बरकरार रखा।
 
प्लेटो, सुकरात अरस्तू से लेकर Euclid तथा हिप्पोक्रेट्स तक। यद्यपि उसमे संग्रहित बहुतायत ज्ञान भारत से ही गया है। 

भारत का आर्थिक सर्वनाश करने के बाद वे उसे मानसिक गुलामों का देश बनाकर चले गए। 

पढ़े लिखे भारतीय - अर्थात मानसिक गुलाम। पश्चिम के चश्मे से भारत को देखने वाले। पश्चिम का चश्मा - दस्युवो लुटेरों और मैक्समुलर जैसे अफवाहबाजों का चश्मा। 

भारत से बटोरे शास्त्रों के ज्ञान को उन्होंने अपनी भाषा मे लिखना शुरू किया - सम्भवतः कुछ रिसर्च भी किया। उन्होंने प्रकृति को समझने का प्रयास विज्ञान के माध्यम से किया। 

भौतिक विज्ञान के माध्यम से जब उन्होंने प्रकृति को समझना चाहा तो क्लासिकल फिजिक्स के नियम काम न आ सके। उसके लिए उन्होंने एक नया फिजिक्स विज्ञान विकसित किया - क्वांटम फिजिक्स। प्रकृति को  समझने के लिए उन्होंने वेदान्त का सहारा लिया या वेदान्त के निर्णय तक पहुंचे, यह फिजिसिस्ट बताएं, लेकिन वे पहुंचे वहीं, जहां वेदान्त पहुंचाता है। 

क्वांटम फिजिक्स के जनक मैक्स प्लांक कहते हैं - Counciousness is fundamental. चेतना सबके मूल में है। कृष्ण अपने ब्रम्ह स्वरूप की व्याख्या करते समय बोलते हैं - चेतना अश्मि सर्वभूतनाम। सभी जीवों में मैं चेतना के रूप में विद्यमान हूँ। 

Hans peter durr भी उसी निर्णय पर पहुंचा - Material is not made out of matter. लगभग समस्त नोबेल पुरस्कार प्राप्त फिजिसिस्ट ने वेदान्त को ही अपनी भाषा मे लिखा है।

लेकिन उनकी खूबसूरती यह रही कि वे उन वैदिक सिद्धांतो को तकनीकी स्वरूप प्रदान करने में सफल रहे - क्वांटम फिजिक्स के इन्ही वेदान्तिक सिद्धांतो को प्रयोग में लाकर कंप्यूटर, मोबाइल आदि आदि बन रहे हैं।

गणितज्ञों ने जब सृष्टि को समझजे का प्रयत्न किया.  आज तक जो क्लासिकल Euclidian ज्योमेट्री पढ़ाई जा रही है वह उसको समझाने में असफल रही। 
Euclidian ज्योमेट्री अर्थात - ट्रायंगल, क्यूब, परल्लेलोग्राम  आदि आदि। 

प्रकृति को समझने के लिए Benoit Mandelbrot ने 1970 में fractal ज्योमेट्री की खोज की - जो आज कंप्यूटर की सबसे प्रिय भाषा और विषय है - किसी भी वस्तु की प्राकृतिक डिजाइनिंग के लिए।

लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि - कॉसमॉस, यूनिवर्स, या स्वयं को समझने और जानने के लिए 1000 वर्ष पूर्व बने मंदिरों में fractal ज्योमेट्री के ज्ञान का उपयोग किया गया था। 

उससे भी बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि - साइंटिस्ट तो थ्योरी देता है। fractal ज्योमेट्री का सिद्धांत ब्राम्हणों ने तैयार किया, जिनको हम ऋषि मुनि बोलते थे, लेकिन उनको वे आज नोबल लौरेट फिजिसिस्ट, बायोलॉजिस्ट, मथमेटिशन आदि बोलते हैं।

लेकिन उसको execute करने वाले, अर्थात धरातल पर उतारने वाले लोगों को शूद्र कहते हैं - राजशिल्पी कहते थे हम। आज उनको सॉफ्टवेयर इंजीनियर कहते हैं या कुछ और भी। 

लेकिन जब अम्बेडकर ने अपने माई बाप - साइमन और लोथियन को लिखकर दिया कि वे अछूत ही हैं क्योंकि मैं ऐसा समझता हूँ,  तबसे वे सर्टिफाइड अछूत हो गए।

उनको हमारा संविधान - #अनुसूचित_जाति बोलता है।

यह लिंक भी पढ़ लीजिये:

Monday 28 September 2020

हनुमान का क्या अर्थ है?

#पवनपुत्र_हनुमान का रहस्य: 

सीय राम मय सब जग जानी।
करहुं प्रणाम जोर जुग पानी।।
- रामचरितमानस

ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुखराशी।।
- रामचरितमानस

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातनः।
मनः षष्टाणिइन्द्रयानि प्रकृति स्थाने कर्षति।।
- भगवतगीता
जीव तो मेरा ही अंश है। आज से नहीं जबसे सृष्टि की रचना हुयी है। लेकिन मन सहित छः इंद्रियों के द्वारा संसार मे संघर्ष कर रहा है। कष्ट भोग रहा है। 
कृश्नः तो परमानंद सच्चिदानंद हैं। तो उनका अंश कष्ट क्यों भोग रहा है। संघर्ष क्यों कर रहा है? 
क्योंकि छः इंद्रियों सहित स्वयं को कर्ता मान बैठा है। और सबसे शक्तिशाली इन्द्रिय है मन अर्थात माइंड। उसी के कारण इतना कष्ट भोग रहा है। 

समस्त जीव  पुरुष और प्रकृति , चेतना और जड़ से बने हैं। 
राम चेतना हैं।
सीता उनकी शक्ति - प्रकृति।

हनुमान कौन हैं फिर। 
हनुमान हैं पवन पुत्र। 
वायु पुत्र। 
प्राण वायु हैं हनुमान। 

जीवन की गहराइयों को समझने के लिए प्राणवायु का सहारा लेना पड़ता है। वैसे भी यदि सतह पर जीना हो, तो भी प्राणवायु तो आवश्यक ही है। सतह अर्थात शरीर। केंद्र की परिधि। 
जब तक प्राणवायु आ जा रही है। तभी तक वह प्राणी है।अन्यथा निष्प्राण मिटटी। चेतना के जाते ही सब मिट्टी ही मिट्टी। तुरन्त इसको जलाओ फूको, गाड़ो। 

वायुपुत्र मनुष्य से सम्बन्ध है - प्राणवायु का।
प्राणवायु का सम्बन्ध है प्राणायाम से। 
प्राणायाम का सम्बन्ध है योग से भगवत प्राप्ति से। 
इसीलिए हनुमान वैराग्य के प्रतीक हैं।

ध्यान रहे:
यथा पिंडे।
तथा ब्रम्हांडे।।

हनुमान का #बन्दर स्वरूप माइंड की दशा का परिचायक है। माइंड अर्थात मन। मन में जब तक संसार बसा हुआ है तब तक यह बहुत चंचल रहता है। अस्थिर। कभी इधर कभी उधर। विचार के बादल सोते जागते मन मे मंडराते रहते हैं।बेचैन बन्दर की तरह मनुष्य की तरह इस पेड़ से उस पेड़ पर कूदता रहता है।

योग विज्ञान में मन की इस दशा को क्षिप्त और विक्षिप्त कहते हैं। मेडिकल साइंस इसे विभिन्न ब्रेन वेव्स के नाम से जानता है- अल्फा बीटा गामा डेल्टा थीटा। योग विज्ञान कहता है मन की पांच अवस्थाएं हैं - मूढ़ क्षिप्त, विक्षिप्त एकाग्र निरुद्ध। 
निरुद्ध की अवस्था योगी की अवस्था कहलाती है। योगी का माइंड निरुद्ध होता है। निर्विचार, शून्य, मौन। 
तुलसीदास कहते हैं -
सबहिं नचावत राम गोसाईं।
नाचत नर मर्कट की नाईं।।
मर्कट यानी बन्दर। 
भगवतवीता में कृष्ण कहते हैं:
"ईश्वर सर्वभूतेषु हृतदेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रमायन सर्वभूतानि यंत्र आरूढानि मायया"। 

ईश्वर सभी जीवों के हृदय में निवास करता है अर्जुन। परंतु अपनी माया से सबको रोबोट की तरह घुमाता रहता है। 

योग का ज्ञान प्राप्त करने के बाद अर्जुन अपनी समस्या बताता है कि मेरा माइंड तो बहुत अस्थिर रहता है प्रभु। इसका इलाज बताइये:
"चंचलम हि मनः कृश्नः प्रमाथि बलवत दृढम।
तस्य अहं निग्रह मन्ये वायुर्पि सुदुष्क्रतं।।"

मेरा मन बहुत चंचल है कृश्नः। मथता रहता है। बलशाली है और बहुत जिद्दी है। 

तो कृष्ण उसे क्रिया योग की विधि बताते है:
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रह चलं। 
अभ्यासेन तू कौंतेय वैराग्येण च ग्रहते।"
इसमे कोई संदेह नहीं है महाबाहु अर्जुन कि मन बहुत चंचल है और इसका निग्रह अर्थात नियंत्रण बहुत कठिन है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य से ऐसा संभव है।

अभ्यास। परंतु किसका अभ्यास? 

यही समस्या राम के सामने आयी थी। उन्होंने गुरु वशिष्ठ से पूंछा कि हे गुरुवर मन क्या है? What's mind guru ji ? 
गुरु वशिष्ठ ने उत्तर दिया:
"हे राम मनः संसार वन मर्कट:। 
चंचलत्वम मनो धर्म: यथा वहिनो उष्णता।।"

हे राम मन संसार संसार रूपी जंगल मे मन एक भटकते बन्दर की भांति है। चंचलता उसका स्वभाव है। ठीक उसी तरह जैसे अग्नि का स्वाभव है उसकी उष्णता। उसकी ऊष्मा। उसकी गर्मी। 

योगिक साइंस और वेदांत के अनुसार देह की पांच परतें हैं:
1- अन्न मय कोष - फ़ूड बॉडी या फिजिकल बॉडी।
2- प्राणमय कोष - एनर्जी बॉडी - every cell have mightochondria, which generates ATP by oxydation. (ऑक्सीजन को हम प्राणवायु कहते हैं। और हनुमान हैं वायु पुत्र। प्राणवायु के प्रतीक) 
3- मनोमय कोष - माइंड बॉडी - Thoughts and Emotions
4- विज्ञानमय कोष - Experiencia Body या बुद्द्धि विवेक 
5- आनंदमय कोष - Bliss body. Science has found a particle in human body - #Anandamide which means आनंद एमाइड। 

हनुमान एनर्जी बॉडी और माइंड बॉडी के प्रतीक हैं। एनर्जी बॉडी - वायु पुत्र
माइंड बॉडी - बन्दर। - महावीर विक्रम बजरंगी।
संसार में सफलता प्राप्त करना हो तो भी एनर्जी बॉडी और माइंड बॉडी की ही आवश्यकता पड़ती है।
और अध्यात्म की प्राप्ति करनी हो तो भी माइंड अर्थात मन या चित्त को प्राणवायु पर सवार करके प्राणायाम करना पड़ता है। 

अष्टांग योग में आठों चरण के मध्य में है - प्राणायाम।
-"यम नियम आसन प्राणायाम धारणा ध्यान समाधि"।।

इसीलिये हनुमान की इतनी महिमा कही गयी है। 
मनुष्यो की दो श्रेणी है - एक हैं श्रद्धा और भक्ति वाले। भक्ति के पथ के पथिकों के लिये हनुमान जी की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। लेकिन वे गवांर और पोगापंथी समझे जाते हैं। दूसरी श्रेणी के लोगों के द्वारा।   

दूसरे हैं पढ़े लिखे, शिक्षित,  बुद्द्धि वाले। ये प्रायः अपने को नास्तिक कहते हैं। लेकिन वे इस शब्द का अर्थ नहीं जानते। उनके लिए ही इस तरह की व्याख्याओं की आवश्यकता पड़ती है। 

अंत मे हनुमान के परम इष्ट भगवान राम नामक परम चैतन्य के लिए तुलसी दास लिखते हैं-
"विषय करन सुर जीव समेता।
सकल एक ते एक सचेता।
सबकर परम प्रकाशक जोई।
राम अनादि अवधिपति सोई।।
जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू।
मायाधीश ज्ञान गुण धामू।।

आपका मन संसार की तरफ उन्मुख है तो बन्दर।
परम चैतन्य प्रभु राम की तरफ उन्मुख है तो हनुमान। 
लेकिन हनुमान आपके अस्तित्व का हिस्सा हैं। 

यह गुह्य ज्ञान है। गुह्य का अर्थ गुप्त नहीं है। गुह्य का अर्थ है अप्रकट। है परंतु दिखता नहीं है। क्योंकि दृष्टि निर्मल नहीं है। दृष्टि परेज्यूडिसड है। राग द्वेष से पीड़ित है। मेमोरी से भरी हुयी है। 

®त्रिभुवन सिंह 

...........
...

Sunday 27 September 2020

Disire Disease Depression : are interconnected

#Desires_Disease_Distress: और 
#डिप्रेशन

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकलें।
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले।।

ख्वाहिशों का जन्म, जन्म के साथ ही हो जाता है।  जन्म के साथ इसे बाल घुट्टी में हमें पिलाया जाता है - सपने देखो। माता पिता समाज स्कूल सभी एक ही शिक्षा देते हैं: सपने देखो। सपने ही वे ख्वाहिशें हैं जिनका जन्म बालपन में होता है और मृत्यु पर्यंत उनसे मुक्त नहीं हो पाते हम। सपने भी छोटे मोटे नहीं। बिग ड्रीम्स। ड्रीम बिग। छोटे सपने देखोगे तो छोटे हो जाओगे। और फिर अंधी दौड़ शुरू होती है - अनंत ख्वाहिशों की। 

बच्चा अभी क ख ग घ सीख ही रहा है कि उसकी खोपड़ी में घुसेड़ दिया जाता है कि क्या बनेगा? माता पिता अडोसी पड़ोसी उससे पूंछना शुरू कर देते हैं कि बड़े होकर क्या बनोगे ? बनने की इच्छा उसके अंदर डाल दी गयी। अब वह दौड़ेगा उसके पीछे। 

Desire is dis ease. To be at ease ,one needs to halt his desires. 
ख्वाहिशें : यानी भविष्य। भविष्य अर्थात भूत का प्रक्षेपण। भूतकाल का प्रक्षेपण ही भविष्य है। 

जो भोगा था वह है भूत। उसमें रस बना हुआ है। जो भोगा था उससे तृप्ति अभी तक नहीं हुयी है। अभी भी उसमें रस बना हुआ है। भविष्य- आकांक्षा है उन भोगों को भोगते रहने की, और अनभोगे भोगों को भोगने की। 

ख्वाहिशें अर्थात डिजायर अर्थात कामना, अर्थात वासना। जो भी नाम दे दो। जो मिला है, जो भोगा है उससे मन भरा नहीं है। जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं हैं। 

"यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवति अधिवासितः।
अभुक्तेषु निरकांक्षी तादृशो भव दुर्लभ:।।"
- अष्टावक्र गीता

" जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं है और अनभोगे भोगो के प्रति निराकांक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है।"

दो चीजों को संसार मे हम पकड़े हुए हैं - एक तो भोगे हुए भोग। जो भोगा है उसका रस मन मे रचा बसा है। उसे बार बार भोगने का मन करता है। भोगा हुवा अर्थात अतीत। और एक अनभोगे सुख की आकांक्षा अर्थात भविष्य, कामना, वासना, डिजायर। यही दो पाट हैं  जीवन के। जिनके बीच मनुष्य पिसता रहता है:
"दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय। 
चलती  चाकी देखकर दिया कबीरा रोय"'।।

अतीत को भोग कर देखा। उसके रस को देख लिया। शायद निरर्थक था। इसीलिए अब भविष्य में नए भोगों की आकांक्षाओं को हम पालते हैं : यही है कामना, काम वासना, आशा, Hope, future. 

कोई कामना न हो तो हम सहज रहते हैं: at Ease.

 कामना के द्वारा पकड़े जाते ही बेचैनी शुरू हो जाती है। कैसे पूर्ति हो उसकी? Dis ease, distress. 

कामना की पूर्ति में बाधा उतपन्न होते ही क्रोध का जन्म होता है। काम मौलिक है। क्रोध उसका by product है। काम के पेट से क्रोध का जन्म होता है। काम के आपूर्ति में कोई बाधा उतपन्न हुयी, क्रोध का जन्म हो जाता है।

 लेकिन क्रोध का प्रकटीकरण, असामाजिक कृत्य माना जाता है। और हानिकारक भी हो सकता है। एक बाबू अपने अफसर से क्रोधित हो सकता है, परंतु अभिव्यक्त नही कर सकता। करेगा कहीं उसकी अभिव्यक्ति - अपने subordinate पर, अपनी बीबी पर। लेकिन तत्काल नहीं कर सकता। तत्काल तो मुखौटा अपनाना पड़ता है। गाली खाकर भी दांत चियारना पड़ता है। तो उसने मुखौटा धारण कर लिया। मुखौटा अर्थात असहजता। dis ease, डिस्ट्रेस। अंदर कुछ और बाहर कुछ और।
तनाव पैदा हो गया। 

काम की प्राप्ति हो गयी - जो भी प्राप्त हो गया है, वह अपने हाँथ से छूटे न कभी - मोह का जन्म हुवा। असहजता, बेचैनी का जन्म हुवा। भविष्य कभी आएगा कि नही, यह नहीं पता। भविष्य कभी आता भी नहीं, आयेगा कभी तो वर्तमान बनकर ही। लेकिन मोह का जन्म हो गया। 

काम की प्राप्ति हुयी, इच्छाओं वासनाओं की पूर्ति हुयी, लेकिन जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है। जो पड़ोसी के पास है, जो मित्र के पास है, जो भाई के पास है, जो संसार मे कहीं अन्यत्र उपलब्ध है : वह भी चाहिए। लोभ का जन्म हुवा। comparision और कम्पटीशन का खेल शुरू हुआ। संसार मे आप किसी भी क्षेत्र में शीर्ष पर नहीं हो सकते। कोई न कोई आपसे आगे रहेगा ही। शीर्ष पर पहुंच भी गए तो बने न रह पाएंगे। जैसे किसी को धक्का देकर आपने अपने पूर्व शीर्ष स्थान को प्राप्त किया था, वैसे ही कोई धक्का देकर आपको भी गिरायेगा। 

काम क्रोध लोभ मोह : मद मत्सर। 
यह इसी क्रम में जाना जाता है। सबका जन्म काम से ही होता है। काम है मूल बाकी सब उसके उत्पाद हैं।  

काम या वासनाओं का स्वरूप तीन है:
"सुत वित लोकेषणा तीनी।
येहि कृत केहि कर मन न मलीनी।।"
 - रामचरित मानस। 
काम धन पद और प्रतिष्ठा - वासनाओं, कामनाओं की दौड़ इन्ही तीन दिशाओं में होती है। धन कमा लिय्या तो अब पद और प्रतिष्ठा कमाना है।

डॉक्टर बनने की दौड़ में बचपन से सम्मिलित थे। बन गए डॉक्टर। धन जितना कमाया जा सकता था डॉक्टरी से कमा लिया। अब उसमें आनंद नही आ रहा है। अब एम एल ऐ का टिकट चाहिए। लगे हैं लाइन में हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे नेता के पीछे दुम हिलाते हुए। बुके लेकर स्वागत करने को बेकरार हैं। टिकट मिलता ही नहीं लेकिन। मिल गया यदि और  बन गए  एम एल ए, तो बात ही क्या है। उनकी दौड़ जारी हो गयी मंत्री पद के लिए। 
लेकिन एक ठसक आ गयी। एक मद चढ़ गया। यह मद किसी मद्यप के मद से बहुत अधिक होता है। मद्यप का मद तो कुछ घण्टों का होता है। यह मद पांच वर्षों के लिए पक्का हो गया। कल जिसके सामने वोट मांगने के लिए गिड़गिड़ाते देखे जाते थे। आज उसको पहचानते भी नहीं। 
"प्रभुता पाई काहि मद नाहीं।
नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं। 
- रामचरितमानस

काम की दौड़ में साथ साथ दौड़े थे। एम एल ऐ के टिकट के लिये साथ साथ लाइन में लगे थे। जिसको मिल गया उसको उसका मद पीड़ित करेगा। जिसको नहीं मिला, उसको मत्सर: ईर्ष्या, द्वेष, डाह - यह सब दाह समान है, आग लगा देती हैं शरीर में - सहजता नष्ट हो गयी। at ease रहना सम्भव न होगा अब: dis ease , डिस्ट्रेस। 

#डिप्रेशन: निराशा अवसाद: भविष्य से निराश। वर्तमान में उसे रुचि नहीं है। भूतकाल के अनुभवों के कारण भबिष्य में प्रक्षेपण करना भी बन्द कर देता है मनुष्य। अतीत के भोग आपको दो तरह के अनुभव दे सकते हैं : सुख या दुख। राग या द्वेष। 
"सुखानुषयी राग:।
दुखानुषयी द्वेष : ।।"
- पतंजलि योगसूत्र।

जिन अनुभवों से सुख की अनुभूति होती है वह है राग। आधुनिक भाषा मे उसे लाइक करना कहते हैं। इसके विपरीत जिन अनुभवों से दुःख की अनुभूति होती है वह है द्वेष। आधुनिक भाषा में उसे dislike कहते हैं। जो आप लाइक करते है वह हुवा सुख। जो नापसंद करते हैं उसे कहते हैं दुख। 

अतीत के अनुभव किसी किसी के लिए इतने दुखद होते हैं, इतने dislike भरे होते हैं कि वह अतीत का भविष्य में प्रक्षेपण करने में भी अपने आपको सक्षम नही पाता।उसको अपना भविष्य अंधकार में दिखता है। भविष्य में कुछ प्राप्त होता दिखता नहीं। 

 असहजता की सर्वोच्च स्थिति - dis ease। निराशा का जन्म वहीं से होता है। भविष्य चूंकि कल्पित होता है, इसलिए सभी निराशाएं भी कल्पित होती हैं। लेकिन व्यक्ति का यथार्थ बोध समाप्त होने के कारण उस कल्पित आशाहीन भबिष्य से व्यक्ति व्यथित हो जाता है, भयभीत। उससे निकलने की उसकी मनोष्थिति समाप्त हो जाती है: No Hope for Future is depression. परिणाम कई बार घातक होते हैं: यथा आत्महत्या। 

कल किसी ने कोट किया था चार शब्द: डिजायर, डिजीज, डिस्ट्रेस, और डिप्रेशन।  उसी का विस्तार कर दिया। 

©त्रिभुवन सिंह

Thursday 24 September 2020

कृष्ण: माइंड रीडर

#कृष्ण_माइंड_रीडर :

वैसे तो माना यह जाता है कि हिंसक पशु होते हैं। इसीलिये कई पशुओं के साथ हिंसक शब्द स्वतः जोड़ दिया जाता है।लेकिन यह मान्यता पूरी तरह से सत्यता से परे है। 

पशु प्रायः अपना पेट भरने या अपनी रक्षा हेतु हिंसा करता है। मनुष्य स्वभाव से हिंसक होता है। 

हिंसा का जन्म माइंड में होता है। पशु शरीर प्रधान है इसलिए उसकी हिंसा सीमित होती है।
मनुष्य माइंड प्रधान है इसलिए उसके अंदर हिंसा असीमित मात्रा में  और निरन्तर घटती रहती है।

यदि मनुष्य हिंसक न होता तो उसे अहिंसा की शिक्षा क्यो  दी जाती? पशुओं को तो अहिंसा की शिक्षा नहीं दी जाती।
 और यह देखा गया है कि ऋषियों मुनियों के आश्रम में ही नहीं हिंसक पशु उनके साथ रहते थे, वरन आज भी अनेक लोग तथातकठित हिंसक पशुओं को अपने साथ रखते हैं। क्योंकि उनके अंदर अहिंसा है - और पशु इसे पहचान लेता है। एक वीडियो होगी यु ट्यूब पर प्रसिद्ध डॉ आप्टे के बेटे की।  उसको देखिये। 

बात हो रही है #माइंड_रीडर योगिराज #कृष्ण की, जिन्होंने भगवतगीता के रूप में "मैन्युअल ऑफ माइंड" का उपदेश अर्जुन को दिया था।

 उन्हें कैसे पता कि धृतराष्ट्र भीम का बध करने का प्रयास करेगा? 
क्योंकि वे माइंड रीडर थे। 
यदि कभी आपके अंदर क्रोध अचानक फुट पड़ा हो, तो उस पर यदि आप ध्यान दीजिएगॉ तो पाइयेगा कि यह क्रोध जो अचानक फुट पड़ा था। बहुत से मामूली कारण से फूट पड़ा था। विचार करने पर  कालांतर में आपने पाया होगा कि आपके क्रोध की प्रतिक्रिया की तुलना में क्रोध को फूटने का अवसर उतपन्न करने वाली घटना बहुत छोटी थी। तुलनात्मक रूप से आपकी प्रतिक्रिया बहुत अधिक थी। बारूद की तुलना में चिंगारी बहुत सीमित थी। 
लेकिन आपका क्रोध हर स्थान पर, हर व्यक्ति के समक्ष्य नहीं फूटेगा।  क्रोध फूटेगा उसी के समक्ष्य , जिसके समक्ष्य आपका क्रोध बिना आपको तात्कालिक नुकसान पहुंचाए फूट सकता है। इतनी चेतना तो सदैव काम करती है। यह भी ध्यान से देखने वाली बात है। क्योंकि भय मनुष्य का ही सभी जीवों का मूल स्वभाव है। 
क्रोध ऐसे ही निर्मित और एकत्रित होता है। 
इसके निर्माण का आरंभ तब होता है जब आप किसी बात से असहमत होते हैं परंतु असहमति व्यक्त नही कर पाते किसी कारण। जानबूझकर या उचित अवसर के अभाव में। वह क्रोध आपके अंदर वाली मनस की खूंटी पर टंग जाता है। जितनी मात्रा में क्रोध निर्मित होता है उतनी ही मात्रा में आपके अंदर केमिकल और रसायन निर्मित होते हैं- जिनको मैं #इमोशनल_टोक्सिन कहता हूँ। वे कालान्तर में आपके अंदर डायबिटीज और हाइपरटेंशन जैसी बीमारियों की पृष्ठभूमि बनाते हैं। 

जो भी हमारे अंदर जाता है या निर्मित होता है उसका रेचन आवश्यक है। भोजन पानी अंदर जाता है - अनुपयोगी अंश मलमूत्र के रूप में रेचित होता है। सांस अंदर जाती है ऑक्सीजन के साथ - कार्बन डाई ऑक्साइड के साथ बाहर आती है- रेचित होती है। 
क्रोध भी निर्मित हो तो उसका रूपांतरण या रेचन आवश्यक है। अन्यथा वह इमोशनल टोक्सिन निर्मित करती है। 

बात भटक गयी। 
असहमति के प्रथम बीज से क्रोध का निर्माण शुरू होता है, और वह आपके अंदर टंगी खूंटी में टंगता जाता है। एक अवसर आता है कि क्रोध का घड़ा भर जाता है और एक छोटी सी चिन्गारी आपके क्रोध के घड़े में भरे बारूद में आग लगा देती है - और आप क्रोध से फट पड़ते हैं। 
यह है माइंड के काम करने का तरीका। 

कृष्ण माइंड रीडर हैं। 
योगी का एक अर्थ होता है माइंड को जानने वाला। 
माइंड को पढ़ने में वही सक्षम होगा जो माइंड को जानता होगा। 

धृतराष्ट्र है तो राजा - लेकिन वह राजा बनने के समय से ही असुरक्षित अनुभव करता रहता है - उसे राज के हाँथ से निकल जाने का भय निरन्तर बना रहता है। हर बार उस भय से उसके अंदर असहमति का जन्म होता है। क्रोध का जन्म होता है। 

क्योंकि वह पांडु से बड़ा था, नियमतः उसी को राजा होना था। लेकिन प्रकृति ने उसकी आंखें छीन ली थी। उसने उसको प्रकृति और संसार के प्रति सहज क्रोधी बना दिया था। क्रोध की ऊर्जा को काम की ऊर्जा में बदलकर उसने 100 पुत्र पैदा किए। 
जब उसके अपने पुत्र को राजा बनाने का अवसर आया तो पुनः संसार ने उससे यह अवसर छीन लिया। 

अब आइए - महाभारत के 18 दिन के युद्ध की तरफ। 
वह सदैव इस बात की जोड़ तोड़ में लगा रहता था कि किसी तरह पाण्डुपुत्र युद्ध करने के निर्णय से विरत हो जायँ, या युद्ध का परित्याग कर देवें। या कि कृष्ण ही सबसे घोटालेबाज थे, उन्ही के कारण उसके भतीजे युद्ध करने के लिए तैयार हुए थे। हर घटना पर उसकी आशापूर्ण प्रतिक्रियाओं को देखिये। मोस्ट पॉजिटिव माइंड सेट का व्यक्ति महाभारत में। कभी आशा छोड़ी ही नहीं उसने। 

 लेकिन हर घटना उसके मन के विरुद्ध घटती जाती है। हर क्षण वह युद्ध में घट रही घटनाओं से असहमत होता जाता है। यद्यपि वह भीम से भी अधिक बलशाली है।एक लाख हांथीयों का बल है उसके अंदर। लेकिन अपनी असहमति, और उससे उपजे क्रोध तथा हिंसा को बाहर निकानले के लिए वह युद्धक्षेत्र में नही जा सकता था क्योंकि अंधा था। रेचन नही कर सकता था क्रोध और हिंसा का। 
अतएव क्रोध निरन्तर उसके अन्दर संचित होता रहता है। 
पांच पांडवों में भीम ही ऐसा व्यक्ति था जो निरन्तर बिना शंसय के युद्ध करता आया था - बिना धर्म अधर्म आदि के चक्कर मे फंसे हुए। 
भीम ही वह व्यक्ति था जिसने उसके सबसे अधिक पुत्रो का बध किया था। 
भीम ही वह व्यक्ति था, जिसने उसके सबसे अधिक प्रिय पुत्रो दुशासन और दुर्योधन का जघन्य पूर्वक हत्या की थी।
इसलिए उसके क्रोध का घड़ा भर चुका था। फूटने का अवसर चाहिए था। बारूद एकत्रित हो चुका था। चिंगारी भर की देर थी। 
भीम को देखते ही उसका क्रोध फट पड़ता - यह बात माइंड रीडर कृष्ण जानते थे। इसीलिए उन्होंने धृतराष्ट्र के आमंत्रण पर भीम को पीछे करके, उसके पुतले को गला लगाने हेतु आगे प्रेषित कर दिया। 

उसके क्रोध का घड़ा फूटते ही वह एक बच्चे की भांति शांत हो जाता है, बिलख बिलख कर रोने लगता है।

हमारे ग्रन्थ लिखे हैं गुह्य भाषा मे - जिनको आजकल cryptology या cryptic भाषा कहते हैं। उनको डिकोड करने की आवश्यकता है - नयी पीढ़ी तक पंहुंचाने के लिए। क्योंकि उन्हें शास्त्रों की भाषा नही समझ मे आती है। क्रिप्टोलॉजी उनको समझ मे आती है।

दोष उनका नही है - उन्हें इसी भाषा मे शिक्षा दी जा रही है। या तो हम ग्रंथ को उनकी समझ के अनुरूप डिकोड करें या उनको शाश्त्रो की भाषा मे पढने की व्यवस्था निर्मित करें।

Singh Tri Bhuwan

Wednesday 23 September 2020

वाणी और मन: स्पीच एंड माइंड

#स्पीच_एंड_माइंड: वाणी और मन 

ॐ वाक् मे मनसि प्रतिष्ठिता।
मनो मे वाचि प्रतिष्ठिता।।
- सरस्वती रहस्योपनिषद

ऋषि का आग्रह है कि मेरी वाणी मेरे मन मे प्रतिष्ठित हो जाय। और मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाय।  कहने का तात्पर्य है वाणी और मन मे तालमेल बैठ जाए। दोनों में भेद न रहे। दोनों एक ही हो जाय। 

हमारे विचार ही उपद्रव हैं। हमारे  अंदर चलने वाले समस्त झगड़ा, झन्झट, अशांति, बेचैनी, सब के सब हमारे  विचारों की देन है। हम उपद्रव पालते हैं विचारों के रूप में। जितना बड़ा विचारक उतना उपद्रवी मन। इसीलिए विचारकों (Thinkers) को भारत में कोई महत्ता नहीं मिली। पश्चिम में विचारकों को बड़ी महत्ता है। क्योंकि वे मन बुद्द्धि और विचार से आगे जा ही नहीं पाए। 

 मन का स्वभाव है कि वह खाली नहीं बैठ सकता। उसको कोई सहारा चाहिए। माइंड अर्थात बन्दर। उसे उछल कूद ही पसंद है। मन को चाहिए उपद्रव, व्यस्तता,  ऑक्यूपेशन। वे कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर। Empty mind is devil's workshop. 
साइकाइट्री में आजकल माइंड का स्वभाव बता रहे हैं #Monkeying । 

और वाणी है संसार मे होने वाले झगड़ा झंझटों की जड़। सारे विवादों की जड़ है वाणी। वाणी के कारण ही समस्त झगड़े शुरू होते हैं।  और हमारी वाणी का शत प्रतिशत हिस्सा प्रायः प्रतिक्रिया है,  रिएक्शन है। क्योंकि हमारा स्वभाव ही रैक्शनरी है। हमारी वाणी प्रायः किसी न किसी विचार या किसी न किसी व्यक्ति की प्रतिक्रिया में निकलती है। यंत्रवत, रोबोटिक।

 हम हर बात पर रियेक्ट करते हैं। हर उस बात पर, जो हमें उकसाती है,  उस पर हम रियेक्ट करते हैं - पहले माइंड से, फिर वाणी से।

 रियेक्ट क्यों करते हैं? इसलिए कि हमने पहले से तय कर रखा है कि सही क्या है गलत क्या है। हमने संसार को अपने लाइक और dislike मे बांट रखा है।

"इन्द्रियस्यइन्द्रियर्थेषु राग द्वेष व्यवस्थितौ" - भगवतवीता।

 हमारा  जब भी किसी वस्तु व्यक्ति भाव या विचार से साक्षात्कार होता है तो हम निर्णयात्मक रूप से उसे या तो पसंद करते हैं या नापसंद। अपने संस्कारों, संस्कृतियों, शिक्षा और अपने विचारों  आदि के कारण ऐसा होता है। यह सामान्य बात है। लाइक और dislike हमारी मनोदशा का अंग है।  यह प्राकृतिक स्वभाव है माइंड का। across the globe mind works with this inherent attitude. So mind is not only individual but cosmic too.  ऐसे ही  हम संसार को देखते हैं। जिसको अटटीच्यूड कहते हैं आजकल। 

ऋषि कहता है कि उसकी वाणी उसके मन मे प्रतिष्ठित हो जाय। अर्थात जो मन मे हो वह ही वाणी से निकले। वही मुखरित हो तो मन में विचार चल रहा हो। 

 लेकिन जो मन में है वही वाणी से प्रकट हो जाय तो घर परिवार संसार मे, सर्वत्र उपद्रव खड़ा हो जाय। कोई पुराना मित्र मिलता है।  उसके लिए हमारे मन मे क्रोध है, घृणा है, अनादर है, उसका गला दबाने की इच्छा है मन में, कि अवसर मिले तो इसका गला दबा दूं।  लेकिन उसे व्यक्त नहीं कर सकते? हम कहते हैं - अहोभाग्य मित्र, बड़े दिनों बाद दर्शन हो रहे हैं। वह भी प्रतिक्रिया में यही बोलेगा। परंतु संभबतः उसके अंदर भी हमारे प्रति वही भाव और विचार हों मन मे। इसलिये हम मुखौटा ओढ़ लेते हैं, सभ्यता का मुखौटा।  असली अटटीच्यूड नहीं दिखाते उसे अपना। हम कहते हैं कि अहोभाग्य मित्र, बड़े दिन बाद आपके दर्शन हो रहे हैं। 

बारम्बार यही अभ्यास करते करते धीरे धीरे ऐसा ही व्यक्तित्व हमारा बन जाता हैं - झूंठा व्यक्तित्व। बाहर से कुछ और अंदर से कुछ और।  इसको हम पर्सनालिटी बिल्डिंग कहते हैं। लेकिन यह बेचैनी और अशांति की जड़ है। क्योंकि यह विभक्त व्यक्तित्व है। साइकेट्रिस्ट इसे कहते हैं - split Personality.  Dissociated Personality Disorder ( भूल भुलैया नामक फ़िल्म इसी पर बनी है) 

इसीलिये ऋषि की प्रार्थना है कि जो मेरे मन मे हो,  वही मेरी वाणी में हो। वाणी से वही बात निकले - जो मेरे मन मे हो। चाहे भला और चाहे बुरा। 

लेकिन संसार मे समस्या यह है कि जो मन में हो, और यदि वही बात निकल भी आवे तो लात खाने की संभावना बढ़ती जाएगी -
"बातहिं हांथी पाइए।
बातहिं हांथी पाव।।"

तो फिर जीवन कैसे सम्भब होगा? 
मन को निर्मल करने से, यह संभव होगा कि मन में वही विचार और भाव उत्पन्न  हों जिन्हें छुपाने की आवश्यकता न पड़े। वह कैसे होगा?
 
राग द्वेष, लाइक और dislike को पीछे रखकर संसार को देखने का अभ्यास करना होगा। "See the things as they are." कठिन है। क्योंकि हम चीजों को वैसे देख नहीं सकते जैसी वह हैं। हम उन पर अपने भाव, विचार, अवधारणाएँ, पसंद, नापसंद आरोपित करके देखते हैं। क्योंकि हमारे मन दुराग्रह से भरे हैं। 
तभी तो ऋषि प्रार्थना कर रहा है सरस्वती जी से। 

ऋषि की दूसरी प्रार्थना है कि मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाय। अर्थात मुझे जब बोलने की आवश्यकता हो तभी मेरा मन, मेरा माइंड काम करे। वरना वह शांत बैठा रहे। यह और भी कठिन है। लेकिन यह एडवांस्ड कोर्स है। पहले वाला बेसिक कोर्स था। बेसिक वाला कोर्स होने के बाद ही इस कोर्स में प्रवेश मिलेगा।

  हमारा मन तो चलता ही रहता है दिन रात। 24 घण्टे, अनवरत, दिन रात माइंड चलता ही रहता है। लेकिन माइंड और बॉडी हमारे टूल हैं, यंत्र हैं। उनको हमारे हिसाब से चलना चाहिए न?

हमारे कमरे में ए सी लगा है, पंखा लगा है, कंप्यूटर लगा है। सभी यंत्र हैं। सब हमारे हिसाब से चलते हैं। जब हम उन्हें चलाना चाहते हैं तो स्विच ऑन कर देते हैं। जब बन्द करना होता है तो स्विच ऑफ कर देते हैं।

 माइंड को भी ऐसे ही काम करने की ट्रेनिंग देनी होगी कि जब वाणी की आवश्यकता हो, जब बोलने की आवश्यकता हो तो माइंड काम करे, अन्यथा चुपचाप बैठा रहे - शांत, चैन से, आराम से - At ease, Not disease। Completely silent. शून्य, सन्नाटा।  बहुत कठिन है।  इसीलिए प्रार्थना की जा रही है सरस्वती जी से। 

वैदिक साइंस में जिस  शक्ति को सरस्वती के नाम से पुकारा जाता रहा है, उसे आज की भाषा मे बोला जाय तो सरस्वती हमारे माइंड और वाणी को को-ऑर्डिनेट करने वाली आंतरिक ऊर्जा या शक्ति का नाम है। 

हम हर एनर्जी को प्रणाम करते हैं। परमात्मा भी हमारे अंदर है एनर्जी के रूप में। जिसे हम चेतना या चैतन्य कहते हैं - Counciousness. 
Counciousness is fundamental - Max Plank, Nobel Prize winner Quantum Physicist. 

इसीलिए हमारे शास्त्रों में सरस्वती जी की पूजा की जाती है - क्योंकि वे माइंड और वाणी की कंट्रोलर हैं। कंट्रोलर की कृपा बनी रहे तो हांथी मिल जाय पुरस्कार स्वरूप। और कृपा न बन पायी तो -   हांथी के पैर के नीचे कुचले भी जा सकते हैं:

बातहिं हांथी पाइए।
बातहिं हांथी पाव।।

इसीलिये हम जब हम प्रार्थना करते हैं:

वर दे वीणा वादनि
वर दे। 

तो हम अपने अंदर की उस ऊर्जा और शक्ति से प्रार्थना करते हैं कि हे माँ मुझे ऐसा वरदान दे कि बुद्द्धि और वाणी हमें हांथी तो दिलवावे, हांथी पाव न दिलवावे।

®त्रिभुवन सिंह

Cherish or Perish: It's your choice

#Perish_or_cherish :. Choice is yours. 
 दुखी रहो या आनंदित रहो। चुनाव तुम्हारा। 

मैं खोज रहा हूँ किसी सुखी व्यक्ति को। मेरे जीवन में तो कोई न दिखा - सुखी संतुष्ट शांत। 
सुख की परिभाषा चार्वाक से लेकर सबने किया है। चार्वाक कहता है ऋण लेकर घी पियो। आजकल कौन घी पीता है?

 बॉलिवुड कभी माया नगरी कहलाती थी। धन नाम सब कमाया। फिर भी सुख खोज रहा है वीड ( गांजे) में, हैश ( ड्रग्स) में। सुख शांति होती तो क्या आवश्यकता थी वीड की, और  हैश की शरण मे जाने की?
कुछ ड्रग की शरण में है तो कुछ डायबिटीज ब्लड प्रेशर की। 

कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं कि सुखी व्यक्ति कौन है। 

शक्नोतीहैव य: सोढुम् प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामकोध उद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नर:।।
-(भगवतगीता 5.23) 

प्राक् शरीर विमोक्षणात:
शरीर को त्यागने के पूर्व। शरीर तो त्यागना ही पड़ेगा। कब? यह किसी को नहीं पता। लेकिन त्यागना पड़ेगा। जिसने जन्म लिया है उसको मरना होगा। यही ध्रुव सत्य है। 
कृश्नः पहले ही कह चुके हैं : जातस्य हि ध्रुवों मृत्यु:। जिसने जन्म लिया है वह मरेगा यह ध्रुव सत्य है। यह परम सत्य है। हर व्यक्ति इस ध्रुव सत्य से परिचित है। 

मृत्यु का महोत्सव चल रहा है पूरे विश्व में। एक छोटे से जीव के कारण - विषाणु - covid 19. इतना शूक्ष्म है कि देखा नहीं जा सकता आंखों से। फिर भी मृत्यु का तांडव उसने फैला रखा है। जो कल तक हमारे साथ हंस बोल रहे थे। जीवन के हर उत्सव में, हर दुःख में हमारे साथी थे, सहयोगी थे, वे आज हमारे साथ नहीं हैं। 
 
हम शरीर को न छोड़ना चाहें तो भी शरीर हमसे छूटेगा ही। और जब शरीर छूटेगा तो समस्त कामनाएं, समस्त योजनाएं, समस्त धन पद प्रतिष्ठा छिन जाएगी। छोड़ना पड़ेगा। यही सत्य है। 

शक्नोति इह एव य: सोंढुम्
 - जो समर्थ है इसको रोकने में।
क्या रोकने में?

काम क्रोध उद्भवं वेगं:

काम और क्रोध के उद्भवं के वेग को। जो काम और क्रोध के उद्भवं के वेग को रोकने में समर्थ है वही योगी है और वही सुखी मनुष्य है। 

काम और क्रोध दोनों वेगवान होते हैं। दोनों में  वेग होता है। 
काम अर्थात कामना। इच्छा तृष्णा विषय वासना। 

वैसे तो 
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले।
   बहुत निकले मेरे अरमां फिर भी कम निकलें। 

इच्छाएं तो अनंत हैं - लेकिन तीन इच्छाएं ही सब के मूल में हैं - सेक्स, धन, पद या प्रतिष्ठा। जीवन की समस्त कामनाएं इन्हीं के इर्द गिर्द घूमती हैं। 
इच्छाएं हर क्षण नए नए रूप लेती हैं। लेकिन इच्छाये जब गहन आसक्ति का रूप लेती हैं तो कामनाएं प्रगाढ़ होने लगती हैं। उनमें वेग आने लगता है। फिर उन पर हमारा नियंत्रण खो जाता है। फिर लैला मजनू की कहानी बन जाती है। उन कामनाओं की पूर्ति न हो तो जीवन व्यर्थ। अवसाद निराशा आत्महत्या। 

कामनाओं की पूर्ति न हो तो उनसे क्रोध का भी जन्म हो सकता है।
जो चाहते थे वह हो सकता था। लेकिन हो न सका। किसी ने रोड़ा अटका दिया। किसी ने कामनाओं की कोठरी में आग लगा दिया। उसके प्रति मन क्रोध की अग्नि  धधक  उठेगी। और उस  क्रोध का वेग इतना अधिक हो सकता है कि यह हिंसक स्वरूप ले सकता है। सामने वाले का सर फूट सकता है। उसकी हत्या हो सकती है। इतना वेगवान भाव हैं यह। इन पर हमारा नियंत्रण न रहा। उसी की बात कर रहे हैं कृष्ण। 

वह कह रहे हैं - शरीर छूटने पर काम का भी अवसान हो जाएगा और क्रोध का भी। मुर्दे की क्या कामना हो सकती है?
जो कल अपने आप होना है, क्या उसे आज आप समझदारी के साथ, बोध के साथ नहीं कर सकते क्या?

 यदि कोई व्यक्ति जागकर इस तथ्य को देख सके तो वह काम और क्रोध के उद्भव और उसके वेग को रोकने में समर्थ हो सकता है। वही व्यक्ति योगी होता है । और वही व्यक्ति सुखी हो सकता है। 
अन्यथा तो बुद्ध कहते हैं कि चाहे जो कर लो : जीवन दुख है। 
एक राजा ने इसको अनुभव किया - जिसके पास पाने को सब कुछ था, और खोने को जीवन। 

©त्रिभुवन सिंह

Tuesday 22 September 2020

ब्रिटिश दस्युओं ने कितने भारतीयों को एकलव्य बनाया?

पुरानी पोस्ट है : #एकलव्य_महाभारत को संदर्भित करके ऊंची नीची जाति तथा शोषण का प्रोपगंडा फैलाने वालों से अपेक्षा है कि वे मात्र कुछ सौ वर्ष पहले हमारे शिल्पकारों के अंगूठे काटे जाने के सत्य इतिहास से परिचित होंगे। 

1772 के #एकलव्यों का  अंगूठा किस द्रोणाचार्य ने काटा था ? 

आज एक उद्भट विद्वान की वाल पर गया, जो उच्च शिक्षा आयोग में निरन्तर कई वर्ष तक सदस्य रहे हैं। 
#शम्बूक_कथा पर अपने पद के अनुरूप ही  अति गर्वीली पोस्ट लिखी थी। 

मैंने मात्र दो कमेंट लिखा और वे धराशायी हो गए। 
सत्य एक ही होता है। असत्य के अनेकों स्वरूप और कलेवर होते हैं। एक बार आप जोर से दहाड़िये तो। 
पेंट गीली होना निश्चित है। 

#मिथक के एक #एकलव्य के #अंगूठा काटने को लेकर भारत मे 3000 या 5000 वर्षो के अत्याचार का #रंडी_रोना मचाए वामियों और दलित चिंतको , मात्र 250 साल पहले सिल्क के कपड़े बनाने वाले भारतीयों ने #अपने_अंगूठे_खुद काट लिए। वे कहां गए क्या हुवा उनका? 10,000 साल की कथा तुम्हे पता है और 200 साल की कथा तुम्हे नही याद है।
तुम निम्न किस्म के केंचुए हो। स्वार्थ घृणा और  कुंठा से भरे हुए जोंक हो तुम। 
क्योंकि तुमको देश का खून चूसने और झूंठ का ढिंढोरा पीटने में आनंद आने लगा है। 

ब्रिटिश दस्युवो ने तुमको नष्ट किया बर्बाद किया और तुमको एकलव्य और शम्बूक का झुनझुना थमा दिया:

 “18वी शताब्दी मे विश्व के अन्य देशों की तरह ही, भारत मे भी सड़क या नदी से होने वाले व्यापार पर ड्यूटी लगा करती थी। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक सरकारी फरमान प्राप्त कर लिया था जिसके माध्यम से आयातित या निर्यात होने वाली वस्तुओं को टैक्स फ्री कर दिया था। अतः कंपनी द्वारा निर्यातित या आयातित किसी भी वस्तु पर टैक्स नहीं लगता था”।

(रिफ्रेन्स – रोमेश दुत्त इकनॉमिक हिसटरि ऑफ ब्रिटिश इंडिया, पेज -18)

"1757 मे मीर जफर को बंगाल का नवाब  बनाया गया लेकिन मात्र 3 साल बाद 1760 मे उसके ऊपर असमर्थ बताकर मीर कासिम को नवाब बनाया , जिसने कंपनी को बर्धमान मिदनापुर और चित्तगोंग नामक तीन जिलों का रवेनुए तथा मीरजाफ़र पर द्वारा दक्षिण भारत मे हुये युद्ध मे कंपनी द्वारा खर्च  किए गए, देय उधार धन 5 लाख रुपये कंपनी के खाते मे जमा करवाया"।
 ( रोमेश दुत्त – पेज -19 )

लेकिन उसके बाद सभ्य अंग्रेजों ने जो आम जनता के द्वारा निर्मित वस्तुओं की लूट मचाई, वो किसी भी सभ्य समाज द्वारा एक अकल्पनीय घटना है।  उस दृश्य को आप बंगाल के नवाब द्वारा मई 1762 को ईस्ट इंडिया कंपनी को लिखे पत्र से समझा जा सकता है:
 “ हर जिले, हर परगना , और हर फ़ैक्ट्री मे वे ( कंपनी के गुमाश्ते ) नमक, सुपाड़ी, घी , चावल धान का पुवाल ( सूखा डंठल, जरा सोचिए क्या क्या खरीद कर ये दरिद्र समुद्री डकैत खरीद कर यूरोप ले जाते थे ) बांस ,मछली ,gunnies अदरक चीनी तंबाकू अफीम और अन्य ढेर सारी वस्तुयेँ,जिनको लिख पान संभव नहीं है , को खरीदते बेंचेते रहते हैं । वे रैयत और व्यापारियों की वस्तुए ज़ोर जबर्दस्ती हिंसा और दमन करके ,उनके मूल्य के एक चौथाई मूल्य पर ले लेते हैं , पाँच रुपये की वस्तु एक रुपए मे लेकर भी वे रैयत पर अहसान करते हैं। 

 प्रत्येक जिले के ओफिसर अपने कर्तव्यो का पालन नहीं करते और उनके दमानात्मक रवैये और मेरा टैक्स न चुकाने के कारण मुझे प्रत्येक वर्ष 25 लाख रुपयों का नुकसान हो रहा है। मैं उनके द्वारा किए गए किसी समझौते का न उल्लंघन करता हूँ न भविष्य मे करूंगा , तो फिर क्यूँ अंग्रेज़ो के उच्च अधिकारी मेरा अपमान कर रहे हैं, और मेरा निरंतर नुकसान कर रहे हैं ”।
( रोमेश दुत्त पेज – 23 ) 

सभ्य बनाने आए इयसाइयों के नैतिक ऊंचाई को आप इस एक उद्धरण से ही माप सकते हैं।

यही बात ढाका का कलेक्टर महोम्मद अली ने कलकत्ता के अंग्रेज़ गवर्नर 26 मई 1762 मे लिखा “पहली बात तो ये है कि व्यापारी  फ़ैक्टरी मे रुचि दिखा रहे हैं और अपने नावों पर अंग्रेजों का झण्डा लगाकर अपने को अंग्रेजो का समान होने का दिखावा करते हैं , जिससे कि उनको duty न देना पड़े। दूसरी बात ढाका और लकीपुर की फ़क्टरियाँ व्यापारियों को तंबाकू सूती कपड़े , लोहा और अनेक विविध वस्तुओं को बाज़ार से ज्यादा दामों मे खरीदने का प्रलोभन देते हैं, लेकिन बाद मे जबर्दस्ती वो पैसा उनसे छीन लेते हैं; वे व्यापारियों को पैसा एडवांस मे देते हैं।

लेकिन फिर उनके ऊपर एग्रीमंट तोड़ने का बहाना बनाकर उनके ऊपर फ़ाइन लगाते हैं । तीसरी बात लुकीपुर फैक्ट्री के गुमाश्ते तहसीलदार से ताल्लूकदारों से उनके ताल्लूक ( कृषि योग्य जमीन ) को निजी प्रयोग के लिए जबरन कब्जा कर लेते हैं , और उसका भाड़ा  भी नहीं देते।  कुछ लोगों के कहने पर ,कोई शिकायत होने पर वे यूरोपेयन लोगों को एक सरकारी आदेश का परवाना लेकर गावों मे जाकर उपद्रव करते हैं। वे टोल स्टेशन बनाते हैं और जो भी किसी गरीब के घर समान मिलता है उसको बैंचकर पैसा बनाते हैं। इन उपद्रवों के कारण पूरा देश नष्ट हो गया है और रैयत न अपने घरों मे रह सकते हैं और न ही मालगुजारी चुका सकते हैं।  मिस्टर चवालीर ने कई स्तर पर झूँटे बाजार और झूंठे फक्ट्रिया बनाया हैं, और अपनी तरफ से झूंठे सिपाही बनाए हैं जो जिसको चाहे उसको पकड़कर उनसे जबरन अर्थदण्ड वसूलते हैं । उनके इस जबर्दस्ती के अत्याचारों के कारण कई हाट बाजार और परगना नष्ट हो गए हैं। ” 
( रोमेश दुत्त पेज 24- 25 )

“इस तरह बंगाल के प्रत्येक महत्वपूर्ण जिले के व्यापार को कंपनी के नौकरों और अजेंटों ने नष्ट किया और इन वस्तुओं के निरमातों को निर्दयता के साथ अपना गुलाम बनाया । उसका वर्णन एक अंग्रेज़ व्यापारी विलियम बोल्ट्स ने आंखो देखी हाल खुद लिखा है :
“ अब इस बात को सत्यता के साथ बताया जा सकता है कि वर्तमान मे यह व्यापार जिस तरह इस देश मे हो रहा है , और जिस तरह कंपनी अपना इनवेस्टमेंट यूरोप मे कर रही है,वो एक दमनकारी प्रक्रिया है; जिसका अभिशाप इस देश का हर बुनकर और निर्माता भुगतने को मजबूर है, प्रत्येक उत्पाद को एकाधिकार मे बदला जा रहा है ; जिसमे अंग्रेज़ अपने बनियों और काले गुमाश्तों के मदद से, मनमाने तारीके से यह तय करते हैं कि कौन निर्माता किस वस्तु का कितनी मात्रा मे, और किस दर पर निर्मित करेगा ...गुमाश्ते औरंग या निर्माताओं के कस्बे मे पहुँचने के बाद वो एक दरबार लगाता है जिसको वह अपनी कचहरी कहता है। 

जिसमे वो अपने चपरासी और हरकारों की मदद से वो दलाल और पयकार और बुनकरों को बुलाता है, और अपने मालिक द्वारा दिये गए धन मे से कुछ पैसा उनको एडवांस मे देता है और उनसे एक एग्रीमंट पर दस्तखत  करवाता है जिसके तहत एक विशेष प्रॉडक्ट , एक विशेष मात्रा मे, एक विशेष समय के अंदर डेलीवर करना है। उस मजबूर बुनकर की सहमति आवश्यक नहीं समझी जाती है। और ये गुमाश्ते, जो कंपनी के वेतनभोगी थे , प्रायः इस तरह के एग्रीमंट उनसे अपने मन मुताबिक करवाते रहते थे; और यदि बुनकरों ने ये एडवांस रकम स्वीकार करने से इंकार किया तो उनको बांधकर शारीरिक यातना दी जाती है.... कंपनी के गुमाश्तों के रजिस्टर मे बहुत से बुनकरों के नाम दर्ज रहते थे, जो किसी दूसरे के लिए काम नहीं कर सकते थे, और वे प्रायः एक गुलाम की तरह एक गुमाश्ते से दूसरे गुमाश्ते के हाथों तब्दील किए जाते रहते हैं, जिनके ऊपर दुष्टता और अत्याचार हर नए गुमाश्ते के हाँथो बढ़ता  ही जाता है ... इस विभाग मे जो अत्याचार होता है वो अकल्पनीय है ; लेकिन इसका अंत इन बेचारे बुनकरों को धोखा देने मे ही होता है; क्योंकि गुमाश्तों और जांचकारो ( कपड़े की क्वालिटी जाँचने वाला ) द्वारा जो दाम उनके प्रोडक्टस का ताया किया जाता था वो कम से कम बाजार के दाम से 15 से 40 % कम होता है ...।

बंगाल के बुनकरों के साथ, कंपनी के अजेंटों द्वारा जबर्दस्ती किए गए इन अग्रीमेंट्स को पूरा न करने की स्थिति मे, उनके खिलाफ मुचलका जारी किया जाता था , उसके तहत उनके सारे सामान (कच्चा और पक्का माल ) उस एग्रीमंट की भरपाई के लिए कब्जा कर लिया जाता है और उसी स्थान पर उनको बेंच दिया जाता है ; कच्चे सिल्क को कपड़ों मे बुनने वाले लोगों के, जिनको Nagoads कहते हैं, उनके साथ भी इसी तरह का अन्याय होता है, और ऐसी घटनाए आम बात हैं जिसमे उन्होने जबर्दस्ती #सिल्क के #कपड़े #बनाने की #मजबूरी से बचने के लिए स्वयं ही अपने #अंगूठे #काट लिए / 

( and the winders of raw silk , called Nagoads, have been known of their cutting off their thumbs to prevent their being forced to wind silk ) 
(Ref: Consideration on India affairs (London 1772), p 191 to 194 : from Romesh Dutt ; Economic History of British India , page 25-27 )

इस सच्चाई तक तुम्हारी पहुंच नही है धूर्त और मक्कारों?
इसीलिये पुस्तक का नाम लिखा है। गूगल आर्काइव से डाउनलोड करो और पढो।

Sunday 20 September 2020

Be Positive: How and How: Patanjali guides you

#उत्तिष्ठत_जाग्रत:

उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरानिबोधत्। 
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथः तत् कवयो वदन्ति।।
-कठोपनिषद 

यह स्वामी विवेकानंद का अत्यंत प्रिय मंत्र था। बहुत से लोग समझते हैं कि उनके द्वारा रचित मंत्र है। लेकिन ऐसा नहीं है। यह कठोपनिषद से उद्धरित है। 

उत्तिष्ठत जाग्रत : उठ जाओ जाग जाओ। मनुष्य क्या सोया हुवा है? जो उसे कह रहे हैं कि उठ जाओ जाग जाओ। मनुष्य तो प्रतिदिन 6 से 8 घण्टे सोता है। उसके अतिरिक्त समय में जगा हुवा है। उठा हुवा है। कुछ न कुछ कर रहा है। तो फिर ऐसा क्यों कहा ? 

वस्तुतः जैसा हमारा जीवन है, उसमें हम सोए सोये ही जीते हैं। रात में भी सोते सोते सपने देखते हैं। दिन में भी सपने देखते हैं - दिवास्वप्न। मुंगेरीलाल के हसीन सपने। हसीन सपने सिर्फ मुंगेरीलाल ही नहीं देखता। हम समस्त लोग मुंगेरीलाल की तरह ही सपने देखते हैं। लेकिन इसका हमें बोध ही नहीं है कि हम सदैव सपने देखते रहते हैं। सोते सोते और जागते। इसका बोध तब होगा यदि अपने मन को देख सकोगे तब। एक इच्छा मन में उभरी। उसके उपरांत उसको पूरा करने की योजनाएं मन में चलने लगीं। सब हवा में है। इच्छा भी और उसको पूर्ण करने की योजना भी। आप घर से आफिस जाने के लिए निकले अपनी गाड़ी में। और आफिस पहुंचते पहुंचते आपने अपने मन मे सैकड़ो योजनाएं बनाये और रद्द किया। कब आफिस पहुंच गए। पता भी न चला। कितनी योजनाएं मन मे बनी यह भी याद नहीं रहा। आपने गाड़ी भी ड्राइव किया और सपने भी बुनते रहे। ऐसा ही न हो रहा है। 

तुलसीदास ने कहा-
"मोहनिशा जग सोवनहारा।
देखत सपना विविध प्रकारा।।
कृष्ण ने कहा -" या निशा सर्वभूतेषु जागर्ति तस्य संयमी"। 

इसी को कहा जा रहा है। उत्तिष्ठत जाग्रत। उठ जाओ। जाग जाओ। चेत जाओ। बेहोशी का जीवन मत जियो। अब भी समय है। कबीर कहते हैं :
कहैं कबीरदास कब से बही।
जब से चेता तब से सही। 

जन्म के समय भी तुम्हे होश नहीं था। मृत्यु के समय भी बेहोश रहोगे। बीच में बचा जीवन। वह भी बेहोशी में बिता दोगे क्या। इसलिए उठ जाओ। जाग जाओ। चेत जाओ। 

प्राप्य - जो प्राप्त करने योग्य है। क्या प्राप्त करने योग्य है इस जीवन में? बचपन से ही हम बच्चों को सपने में जीने का, सपने देखने का शिक्षण और प्रशिक्षण देना शुरू कर देते हैं। #Dream_Big। बड़े सपने देखो। महत्वाकांक्षा पालो। आकांक्षा भी नहीं। महत्वाकांक्षा। 
बच्चा अभी विद्यालय की देहरी भी नहीं डांक भी नहीं पाया था कि माता पिता अडोसी पड़ोसी पूंछने लगते हैं कि क्या बनोगे? महत्वाकांक्षा का बीज बो दिया बच्चे के अंदर। सपने बो दिए गए उसके मन में। असंतुष्टि के बीज रोप दिया गया। तृष्णा के बीज उसके मन मे बो दिया गया। 

अब बच्चा लग गया जीवन के अंधी दौड़ में। गला काट प्रतियोगिता। अब बनेगा कुछ। जो है वह नहीं रह जायेगा। आवरण चढ़ने लगेगा उस पर। मुखौटा धारण करेगा। बनने की दौड़ में लगा तो बन गया डॉक्टर इंजीनियर आईएएस पी सी एस, थानेदार, ठीकेदार। अब उसे चाहिए धन मान सम्मान। डॉक्टर बना था सेवा करने के लिए। आईएएस बना था देश सेवा करने लिये। लेकिन बनते ही, सेवा पीछे रह गयी। धन कमाने की दौड़ में सम्मिलित हो गया। शादी व्याह प्रेम मोहब्बत बाल बच्चे की दौड़ में सम्मिलित हो गया। धन भी अब संतुष्ट नही कर सका उसको। अब उसे चाहिए राजनीति में जाने के लिए पार्टी का टिकट। लोक प्रतिष्ठा चाहिए उसे। लोग पहचाने सम्मान दें। प्रयागराज जैसे छोटे शहर में चुनाव का मौसम आते ही आठ दस डॉक्टर कुर्ता पजामा गांठकर टिकटार्थियों की लाइन में लग जाते हैं। 

धन और पद कमाते ही उसका मद सर पर चढ़कर बोलने लगता है।
शराब तो उतर जाती है कुछ घण्टे बाद। धन और पद का मद 24 ×7× 375 चढ़ा रहता है। मद बना है मद्य से। मद्य अर्थात शराब। पद का मद देखिये किसे तरह चढ़ता है।
प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं।
को नर अस जन्मा जग माहीं।
- रामचरित मानस। 

 एक डीएम,  जो बचपन मे फैजाबाद पैसेंजर से आता था इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने, अब उन्ही लोगों को घास पात समझने लगता है, जिनके बीच से आया था। इसी को कहा जा रहा है बेहोशी में जीना, सपने में जीना। मद्य उतरती ही नहीं उसके मस्तिष्क से। 
ला पिला दे साकिया पैमाना पैमाने के बाद।
होश की बातें करेंगे होश में आने के बाद। 
पैमाने पर पैमाना पिये चला जा रहा है मनुष्य। धन का पैमाना, पद का पैमाना। होश है ही नहीं। बेहोश है व्यक्ति। 
पूरा जीवन बनने में, मुखौटा पहने हुए, असंतुष्टि में व्यतीत हो गया। तुष्टि क्या है इसका स्वाद भी न चखा। 

और इसी तरह एक समय आता है कि जिंदगी की शाम आ जाती है। बेहोशी में जन्मे, बेहोशी में जिये, बेहोशी में मर गए। होश क्या है इसका स्वाद ही न चखा जीवन में। 

क्या यही प्राप्य था जीवन का? क्या यही अभीष्ट था जीवन का। बच्चे को सिखाते गए कि होश से काम करो। ध्यान से काम करो। लेकिन ध्यान क्या है, होश क्या है इसको न सिखाया। सिखाते कैसे? स्वयं भी तो बेहोश ही जीवन जी रहे थे। 

तो मंत्र कह रहा है : प्राप्य वरानिबोधत। 
प्राप्य क्या है? प्राप्त करने योग्य क्या है? वह सद्गुरु जिसने बोध को प्राप्त किया हो। जिसने बोध को जाना हो ऐसा पुरूष। जिसने जागरण की कला जाना हो ऐसा सद्गुरु। वही प्राप्य है। वही बता सकेगा कि जागरण क्या है, होश क्या है, बोध क्या है। जिसने जाना है वही सिखा सकेगा यह कला। 

कबीर कहते हैं : कर्म करे निष्काम रहे जो ऐसी जुगति बतावे सो सद्गुरु कहावे। हर व्यक्ति सद्गुरु नहीं हो सकता। जो प्रवचन दे निष्काम कर्म का वह लेकिन युक्ति नहीं जानता है उसकी। वह है पंडित। वह सद्गुरु नहीं है। सद्गुरु तो वही है जो उसकी युक्ति सिखाता हो।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथः तत् कवयो वदन्ति। 
कवयो अर्थात सद्गुरु ऋषि - जिसने उस बोध को प्राप्त किया है। जो जाग्रत है। वह बताता है कि उस बोध को प्राप्त करने का पथ बड़ा दुर्गं है। कठिन है। असम्भव नहीं। कठिन - तीक्ष्ण क्षुरे के धार पर चलने जैसा कठिन। क्षुरे की धार पर चलना हो तो बेहोशी में नही चल सकते। पैर कट जाएगा। अत्यंत होश में ही , अत्यंत बोध के साथ ही क्षुरे की धार पर चलना संभव हो सकता है। 

©त्रिभुवन सिंह

उत्तिष्ठत जाग्रत :

#उत्तिष्ठत_जाग्रत:

उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरानिबोधत्। 
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथः तत् कवयो वदन्ति।।
-कठोपनिषद 

यह स्वामी विवेकानंद का अत्यंत प्रिय मंत्र था। बहुत से लोग समझते हैं कि उनके द्वारा रचित मंत्र है। लेकिन ऐसा नहीं है। यह कठोपनिषद से उद्धरित है। 

उत्तिष्ठत जाग्रत : उठ जाओ जाग जाओ। मनुष्य क्या सोया हुवा है? जो उसे कह रहे हैं कि उठ जाओ जाग जाओ। मनुष्य तो प्रतिदिन 6 से 8 घण्टे सोता है। उसके अतिरिक्त समय में जगा हुवा है। उठा हुवा है। कुछ न कुछ कर रहा है। तो फिर ऐसा क्यों कहा ? 

वस्तुतः जैसा हमारा जीवन है, उसमें हम सोए सोये ही जीते हैं। रात में भी सोते सोते सपने देखते हैं। दिन में भी सपने देखते हैं - दिवास्वप्न। मुंगेरीलाल के हसीन सपने। हसीन सपने सिर्फ मुंगेरीलाल ही नहीं देखता। हम समस्त लोग मुंगेरीलाल की तरह ही सपने देखते हैं। लेकिन इसका हमें बोध ही नहीं है कि हम सदैव सपने देखते रहते हैं। सोते सोते और जागते। इसका बोध तब होगा यदि अपने मन को देख सकोगे तब। एक इच्छा मन में उभरी। उसके उपरांत उसको पूरा करने की योजनाएं मन में चलने लगीं। सब हवा में है। इच्छा भी और उसको पूर्ण करने की योजना भी। आप घर से आफिस जाने के लिए निकले अपनी गाड़ी में। और आफिस पहुंचते पहुंचते आपने अपने मन मे सैकड़ो योजनाएं बनाये और रद्द किया। कब आफिस पहुंच गए। पता भी न चला। कितनी योजनाएं मन मे बनी यह भी याद नहीं रहा। आपने गाड़ी भी ड्राइव किया और सपने भी बुनते रहे। ऐसा ही न हो रहा है। 

तुलसीदास ने कहा-
"मोहनिशा जग सोवनहारा।
देखत सपना विविध प्रकारा।।
कृष्ण ने कहा -" या निशा सर्वभूतेषु जागर्ति तस्य संयमी"। 

इसी को कहा जा रहा है। उत्तिष्ठत जाग्रत। उठ जाओ। जाग जाओ। चेत जाओ। बेहोशी का जीवन मत जियो। अब भी समय है। कबीर कहते हैं :
कहैं कबीरदास कब से बही।
जब से चेता तब से सही। 

जन्म के समय भी तुम्हे होश नहीं था। मृत्यु के समय भी बेहोश रहोगे। बीच में बचा जीवन। वह भी बेहोशी में बिता दोगे क्या। इसलिए उठ जाओ। जाग जाओ। चेत जाओ। 

प्राप्य - जो प्राप्त करने योग्य है। क्या प्राप्त करने योग्य है इस जीवन में? बचपन से ही हम बच्चों को सपने में जीने का, सपने देखने का शिक्षण और प्रशिक्षण देना शुरू कर देते हैं। #Dream_Big। बड़े सपने देखो। महत्वाकांक्षा पालो। आकांक्षा भी नहीं। महत्वाकांक्षा। 
बच्चा अभी विद्यालय की देहरी भी नहीं डांक भी नहीं पाया था कि माता पिता अडोसी पड़ोसी पूंछने लगते हैं कि क्या बनोगे? महत्वाकांक्षा का बीज बो दिया बच्चे के अंदर। सपने बो दिए गए उसके मन में। असंतुष्टि के बीज रोप दिया गया। तृष्णा के बीज उसके मन मे बो दिया गया। 

अब बच्चा लग गया जीवन के अंधी दौड़ में। गला काट प्रतियोगिता। अब बनेगा कुछ। जो है वह नहीं रह जायेगा। आवरण चढ़ने लगेगा उस पर। मुखौटा धारण करेगा। बनने की दौड़ में लगा तो बन गया डॉक्टर इंजीनियर आईएएस पी सी एस, थानेदार, ठीकेदार। अब उसे चाहिए धन मान सम्मान। डॉक्टर बना था सेवा करने के लिए। आईएएस बना था देश सेवा करने लिये। लेकिन बनते ही, सेवा पीछे रह गयी। धन कमाने की दौड़ में सम्मिलित हो गया। शादी व्याह प्रेम मोहब्बत बाल बच्चे की दौड़ में सम्मिलित हो गया। धन भी अब संतुष्ट नही कर सका उसको। अब उसे चाहिए राजनीति में जाने के लिए पार्टी का टिकट। लोक प्रतिष्ठा चाहिए उसे। लोग पहचाने सम्मान दें। प्रयागराज जैसे छोटे शहर में चुनाव का मौसम आते ही आठ दस डॉक्टर कुर्ता पजामा गांठकर टिकटार्थियों की लाइन में लग जाते हैं। 

धन और पद कमाते ही उसका मद सर पर चढ़कर बोलने लगता है।
शराब तो उतर जाती है कुछ घण्टे बाद। धन और पद का मद 24 ×7× 375 चढ़ा रहता है। मद बना है मद्य से। मद्य अर्थात शराब। पद का मद देखिये किसे तरह चढ़ता है।
प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं।
को नर अस जन्मा जग माहीं।
- रामचरित मानस। 

 एक डीएम,  जो बचपन मे फैजाबाद पैसेंजर से आता था इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने, अब उन्ही लोगों को घास पात समझने लगता है, जिनके बीच से आया था। इसी को कहा जा रहा है बेहोशी में जीना, सपने में जीना। मद्य उतरती ही नहीं उसके मस्तिष्क से। 
ला पिला दे साकिया पैमाना पैमाने के बाद।
होश की बातें करेंगे होश में आने के बाद। 
पैमाने पर पैमाना पिये चला जा रहा है मनुष्य। धन का पैमाना, पद का पैमाना। होश है ही नहीं। बेहोश है व्यक्ति। 
पूरा जीवन बनने में, मुखौटा पहने हुए, असंतुष्टि में व्यतीत हो गया। तुष्टि क्या है इसका स्वाद भी न चखा। 

और इसी तरह एक समय आता है कि जिंदगी की शाम आ जाती है। बेहोशी में जन्मे, बेहोशी में जिये, बेहोशी में मर गए। होश क्या है इसका स्वाद ही न चखा जीवन में। 

क्या यही प्राप्य था जीवन का? क्या यही अभीष्ट था जीवन का। बच्चे को सिखाते गए कि होश से काम करो। ध्यान से काम करो। लेकिन ध्यान क्या है, होश क्या है इसको न सिखाया। सिखाते कैसे? स्वयं भी तो बेहोश ही जीवन जी रहे थे। 

तो मंत्र कह रहा है : प्राप्य वरानिबोधत। 
प्राप्य क्या है? प्राप्त करने योग्य क्या है? वह सद्गुरु जिसने बोध को प्राप्त किया हो। जिसने बोध को जाना हो ऐसा पुरूष। जिसने जागरण की कला जाना हो ऐसा सद्गुरु। वही प्राप्य है। वही बता सकेगा कि जागरण क्या है, होश क्या है, बोध क्या है। जिसने जाना है वही सिखा सकेगा यह कला। 

कबीर कहते हैं : कर्म करे निष्काम रहे जो ऐसी जुगति बतावे सो सद्गुरु कहावे। हर व्यक्ति सद्गुरु नहीं हो सकता। जो प्रवचन दे निष्काम कर्म का वह लेकिन युक्ति नहीं जानता है उसकी। वह है पंडित। वह सद्गुरु नहीं है। सद्गुरु तो वही है जो उसकी युक्ति सिखाता हो।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथः तत् कवयो वदन्ति। 
कवयो अर्थात सद्गुरु ऋषि - जिसने उस बोध को प्राप्त किया है। जो जाग्रत है। वह बताता है कि उस बोध को प्राप्त करने का पथ बड़ा दुर्गं है। कठिन है। असम्भव नहीं। कठिन - तीक्ष्ण क्षुरे के धार पर चलने जैसा कठिन। क्षुरे की धार पर चलना हो तो बेहोशी में नही चल सकते। पैर कट जाएगा। अत्यंत होश में ही , अत्यंत बोध के साथ ही क्षुरे की धार पर चलना संभव हो सकता है। 

©त्रिभुवन सिंह