Monday 27 April 2015

" ढोल गवाँर शूद्र पशु नारी/ सकल ताड़ना के अधिकारी "

" ढोल गवाँर शूद्र पशु नारी/ सकल ताड़ना के अधिकारी " को आधार बनाकर तुलसीदास की अस्मिता पर प्रश्न उठाने वाले, मूर्ख जाहिल उनपढ़ समाजद्रोही दलितचिंतकों और वामपंथियों को चुनौती :

पिछ्ले  कुछ  वर्षों मे स्वघोषित विद्वानों ने तुलसी दास जैसे महानायक के एक चौपाई की भ्रष्ट , कुंठित और शाजिसपूर्ण व्याख्या करके उनको बदनाम किया /
 उसके दो कारण हैं एक तो भारत की संस्कृति और धर्म पर प्रश्न चिन्ह लगाना , और दूसरे वामपंथी ईसाई दलित और मुस्लिम गंठजोड़ का आधार तैयार करके राजनैतिक शाजिस के तहत सत्ता पर काबिज होना और अपनी तिजोरी भरना , तीसरा इस्साइयत मे धर्म परिवर्तन के लिये तर्क गाँठना /

इसके दो जबाव है :
(१) इन लोगों ने हनुमान प्रसाद पोद्दार की टीका पर आधारित "रामचरित माणस" से ये दोहा न पढ़कर , किसी ईसाई या वामपंथी विद्वान द्वारा व्याख्या किये गये मानस से पढ़ा होगा , क्योंकि मोहन पोद्दार ने सॉफ साफ लिखा है - " कि ढोल, गवाँर शूद्र पशु और नारी - ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं / " यानी ताड़ना माने शिक्षा देना / 


यही काम डॉक्टर आम्बेडकर ने किया था , झोला छाप ईसाई संस्कृतगयों द्वारा " ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट" पढ़कर संस्कृत में रचित वेद पुराण आरण्यक उपनिषद और श्रुति स्मृति सबका ज्ञान प्राप्त कर लिया था /

(२) आप सबको पता है कि जब भी कोई कविता कि व्याख्या पढ़ी या पढ़ाई जाती थी तो हमेशा संदर्भ ही नहीं , प्रसंग सहित व्याख्या की जाती थी क्योंकि आलूबेरनी तक ने कहा था कि संस्कृत शब्दों का अर्थ बिना संदर्भ और प्रसंग के समझना मुश्किल है /

ये चौपाई तुलसीदास ने समुद्र के मुह से उसके खुद के लिए कहलवाई है जब लाख विनय के बाद वो रामचंद्रा जी को लंका प्रस्थान के लिए रास्ता नहीं देता , और राम जी तब बोलते हैं -
 " विनय न मानति जलद जड़ गए तीन दिन बीति /
बोले राम सकोप तब भाय बिन होय न प्रीति "
रामचन्द्रजी तब लक्ष्मण को आदेश देते हैं
लछिमन बान सरासन आनू / सोखहु वारिधि बिशिख कृशानु //
सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती / सहज कृपन सन सुंदर नीती //
ममता रत सन ज्ञान कहानी  / अति लोभी सन विरत बखानी //
क्रोधहि सम कामहि हरिकथा / ऊसर बीज बयेँ फल जथा //
अस कहि रघुपति चांप चढ़ावा / यह मत लछिमन के मन भावा //
संधानेहु प्रभु बिसिख कराला / उठी उदधि उर अंतर ज्वाला //
मकर उरग झष गन अकुलाने / जरत जन्तु जलनिधि जब जाने //
कनक थार भरि मनि गन नाना / विप्र रूप आयहु तजि माना //
.............
........

प्रभु भल कीन्हि मोहिं सिख दीन्हीं / मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं //
ढ़ोल गवांर शूद्र पशु नारी /  सकल ताड़ना के अधिकारी //

समुद्र खुद कह रहा है कि अच्छा हुआ आपने मुझे सिख / सीख/ शिक्षा दिया /


तो इन विद्वानों को मेरी चुनौती है कि आइये अपने तर्क प्रस्तुत कीजिये कि इस चौपाई को तुलसीदास ने समाज के लिये प्रस्तुत किया था, या किसी और ने अपने लिये किया था ? और किया था तो किस संदर्भ और प्रसंग में ? तीसरे ताड़ना का अर्थ क्या प्रताड़ना होता है ????
क्योंकि तुलसीदास ने खुद लिखा हैं :---
"काम क्रोध मद लोभ की जब तक मन में खान /
तब तक पण्डित मूर्खहु तुलसी एक समान " //
आओ आयेज बढ़ो चुनौती स्वीकार करो /
संस्कृत में एक श्लोक है।
" लालनात बहवः दोषः
ताड़नात बहवः गुणाः
तदस्मात शिष्यह् च पुत्रः च
ताड़नात न तु लालनात।।"

अर्थात - लाड़  प्यार मे  अनेक दोष  हैं और शिकशा मे  अनेक गुण, इसलिए  पुत्र और शिष्य  को शिक्षित करना  चाहिए , न  कि लाड़  प्यार  से  बिगाणना चाहिए /

एक और उद्धरण -
लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताड़येत्
प्राप्तेशु षोड़शे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत्। (मित्रः इवः आचरेत्)
भावार्थ - पांच वर्ष का होने तक लाड़-प्यार करो, दस वर्ष का होने तक डांटां-फटकारा जा सकता है। किन्तु सोलह वर्ष का हो जाने के बाद पुत्र मित्र के समान हो जाता है, माने उससे मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए।

एक बात और यहाँ ताड़ना शब्द मे श्लेष अलंकार है / यानि एक शब्द के कई अर्थ  होते हैं / जैसे नीचे देखें :
चरण धरत चिंता करत चितवत चरहुन ओर /
सुबरन को खोजत फिरत कवि व्यभिचारी चोर //

सुबरन के यहाँ तीन अर्थ हैं - कवि के सुंदर वर्ण अर्थात अक्षर , व्यभिचारी के सुंदर वर्ण / रंग की नारी , और चोर के लिए सोना या स्वर्ण /  

एक दूसरा  व्यावहारिक तरीका :  कोई भी रचनाकार  जब पात्रों की रचना  करता  है तो उस पात्र के चेतना  आचार  और व्यहार  के  अनुकूल ही  उनके मुख से संवाद प्रेषित करवाता है, और  यही   नित प्रति  के व्योहार  मे भी परिलक्षित  होता  है: 
यथा यदि   कोई अशिशित  और  कुजात  तथा  हीन  कुल  परिवार  का व्यक्ति  रोज  शराब  पीकर  घर  मे कलह करता हो - तो उसकी  राय  अगर  पूंछेंगे तो  शायद  जो  वांपिशाच समझते  हैं , वैसी  ही  राय व्यक्त  करे /  तो  समुद्र  खुद को  जड़  मूर्ख  बोलकर  समाज के बारे मे  यह राय  रख रहा है /  यही  बात  यदि  रामचन्द्र  जी  के मुह  से , या  सूत्रधार के रूप मे  तुलसीदास ने लिखी  होती तो  उनकी राय माना जा सकता था /

एक अन्य उदाहरण - जब कृष्ण  अपने  समधी  दुर्योधन  को  पांडवों के लिए  5 गाव भी  दिलवा  पाने मे  सक्षम  नहीं होते तो कहते हैं कि - राजन ये  बहुत  बड़ा अधर्म  है /
तो दुर्योधन कहता है - जानामि धर्मह  न मे  प्रवृत्ति , जानामि  अधर्मह  न च  निवृत्तिह / 
अर्थात - मैं धर्म को जानता हूँ परंतु मेरी प्रवृत्ति ही नहीं है  धर्म की ओर , और  मैं  यह भी जानता  हू कि  अधर्म  क्या है , परंतु  अब  मैं उससे  निवृत्त  नहीं कर सकता  खुद को /
यदि इसी श्लोक को बिना  संदर्भ प्रसंग के  #मरकटियों की  तरह  इसका  वेद व्यास  की  राय मान लिया जाय तो  अनर्थ नहीं होगा क्या ?

पुनश्च : महान  शेकसपीयर  ने  एक  नाटक  लिखा है  - "merchant of Venis" - जिसमे  ईसाई  व्यवसायी  अपने यहूदी  दास  को यहूदी  होने के  नाते भेदभाव करता है , और उसको धमकाता है कि  उसने ऋण  न  चुकाया तो  वह  उसके शरीर  से उस  पैसे  के मूल्य  के बराबर मांस निकाल लेगा /
तो क्या शेक्सपीयर  को  नश्ल्वादी  मान  लिया  जाय ?
या होली  बाइबल के  प्रसंग के  अनुसार  इसाइयों की इस भावना  का निरूपण  माना जाय कि  इसाइयों के मन मे यहूदियों के प्रति  घृणा  जीसस के शूली  चढ़वाने  मे  यहूदियों के  हाथ  होने के कारण  यूरोप  मे हजारो  साल  की  पीढ़ी  दर  पीढ़ी  चली आ रही  नफरत है , जोकि  उस समयकाल  मे  काफी तीव्र थी , जिसकी निर्णायक परिणति दूसरे विश्वयुद्ध  मे  यूरोप  के इसाइयों के  हानथो 60  लाख  यहूदियों के  खून मे  होती है ?

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