कुछ
और तथ्य जाति के इतिहास और समाज में उसकी वर्तमान स्थिति पर जाने के
पूर्व इस प्रश्न पर मैं सारे मित्रों की रे जानना चाहूँगा की क्या
ब्राम्हणों ने दलितों को शिक्षा से वंचित किया ?? यदि किया तो कब से कब तक
?? क्या आदि काल से ??
मेरा मानना है कि जनसामान्य में यही बात फैलाई गयी है की दलितों को शिक्षा से वंचित किया गया है। मेरी भी यही अवधारणा थी कुछ वर्ष पूर्व तक ।
१९३१ के गोलमेज सम्मलेन के दौरे पर ब्रिटेन में गांधी जी ने चैथम लाइन्स में भारतीयों और अंग्रेजों को सम्बोधित करते हुए गांधी ने भारत की समस्यायों और उनके निदान के सन्दर्भ में जब गांधी ने ये कहा कि " भारत आज जितना शिक्षित है (यानि १९३१ में ) , आज से ५० या १०० वर्ष पहले इससे कई गुना शिक्षित था " गांधी के इस बयां ने पूरे गोरी बिरादरी, जो भारत में शासन करना "White men s burden ) समझते थे , उनके विद्वानों में एक खलबली मच गयी /
फिलिप्स hodtog ,जो उस समय dhaka विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर थे , उन्होंने गांधी जी को challange किया कि या तो गांधी अपनी बात को प्रमाणित करें या सार्वजनिक रूप से माफी मांगें / इस पर गांधी ने hodtog को कहा कि यदि मैं गलत सिद्ध हुवा , तो मैं इस से ज्यादा धूम धाम से इस बात को कहूँगा कि मैंने गलतबयानी कि थी / ये विवाद ८ साल चला १९३९ तक दूसरे विश्वयुद्ध के शुरुवात तक /
जब विश्वामित्र दशरथ जी से राम और लक्षिमन को यज्ञ की पूर्ती हेतु वन ले जा रहे थे तो राम ने एक जिज्ञासा प्रकट की- " ऋषिवर आपके पास शाष्त्र के साथ साथ शश्त्रों का भी भण्डार है, और आप की तुलना में दिव्यश्त्रों का ज्ञान भी मुझे नहीं है , फिर आप उन राक्षसों से स्वयम न लड़ कर हमें क्यों ले जा रहे है ?? Tribhuwan Singh गुरु विश्वा मित्र हँसे और बोले- " प्रकृति का न्याय बड़ा विचित्र है पुत्र। प्रकृति किसी एक व्यक्ति को सम्पूर्ण शक्तियां नहीं देती ।दो पक्ष हैं पुत्र। एक चिंतन और दूसरा कर्म। यह भी एक अदभुत नियम है कि जो चिंतन करता है , जो न्याय अन्याय की बात सोचता है , सामाजिक कल्याण की बात सोचता है , उसके व्यक्तित्व का चिंतन-पक्ष विकसित होता है और उसका कर्म पक्ष पीछे छूट जाता है। तुम देखोगे पुत्र की चिन्तक सिर्फ सोचता है । वह जानता है कि क्या उचित है क्या अनुचित ।समाज और देश में क्या होना चाहिए क्या नहीं ।किन्तु चिंतन को कर्म में परिणित कर पाना उसके बस में नहीं होता। उसकी कर्म शक्ति क्षीण हो जाती है। वहां केवल मस्तिस्क रह जाता है ।दूसरी ओर जो न्याय और औचित्य राष्ट्र और समाज की बात न सोचते हुए सिर्फ स्वार्थ बस कम करते हैं , वो कर्म उनको राक्षस बना देता है ।न्याय और अन्याय का विचार मनुष्य को ऋषि बना देता है। और पुत्र , ऐसे लोग जिनमे न्याय-अन्याय का विचार और कर्म दोनों हों ,ऐसे अद्भुत लोग संसार में बहुत कम है । जनसामान्य ऐसे ही लोगों को इश्वर का अवतार मान लेता है।जब न्यायपूर्ण कर्म करने की शक्ति किसी में आ जाय और जनसामान्य का नेतृत्व अपने हाँथ में लेकर आगे बढे, अन्याय का विरोध करे , तो उसमे प्रकृति की शक्तियां पूर्णता में साक्षात् हो उठती हैं ।जब मुझमे कर्म था तब चिंतन नहीं था ;पर जब आज चिंतन है ज्ञान है, ऋषि कहलाता हूँ तो कर्म की शक्ति मुझमे नहीं है। सामान्यतः बुद्धिवादी ऋषि अपंग और कर्म शून्य हो जाया है। इसीलिये मुझे तुम्हारी आवश्यकता है राम।
फिर बोले-"जब तुम मेरे आदेश के अनुसार काम करोगे तो तुम मेरे पूरक कहलाओगे। किन्तु जब तुम स्वयं न्याय की बात सोचकर स्वतंत्र कर्म करोगे तो अवतार कहलाओगे।"
मेरा मानना है कि जनसामान्य में यही बात फैलाई गयी है की दलितों को शिक्षा से वंचित किया गया है। मेरी भी यही अवधारणा थी कुछ वर्ष पूर्व तक ।
१९३१ के गोलमेज सम्मलेन के दौरे पर ब्रिटेन में गांधी जी ने चैथम लाइन्स में भारतीयों और अंग्रेजों को सम्बोधित करते हुए गांधी ने भारत की समस्यायों और उनके निदान के सन्दर्भ में जब गांधी ने ये कहा कि " भारत आज जितना शिक्षित है (यानि १९३१ में ) , आज से ५० या १०० वर्ष पहले इससे कई गुना शिक्षित था " गांधी के इस बयां ने पूरे गोरी बिरादरी, जो भारत में शासन करना "White men s burden ) समझते थे , उनके विद्वानों में एक खलबली मच गयी /
फिलिप्स hodtog ,जो उस समय dhaka विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर थे , उन्होंने गांधी जी को challange किया कि या तो गांधी अपनी बात को प्रमाणित करें या सार्वजनिक रूप से माफी मांगें / इस पर गांधी ने hodtog को कहा कि यदि मैं गलत सिद्ध हुवा , तो मैं इस से ज्यादा धूम धाम से इस बात को कहूँगा कि मैंने गलतबयानी कि थी / ये विवाद ८ साल चला १९३९ तक दूसरे विश्वयुद्ध के शुरुवात तक /
जब विश्वामित्र दशरथ जी से राम और लक्षिमन को यज्ञ की पूर्ती हेतु वन ले जा रहे थे तो राम ने एक जिज्ञासा प्रकट की- " ऋषिवर आपके पास शाष्त्र के साथ साथ शश्त्रों का भी भण्डार है, और आप की तुलना में दिव्यश्त्रों का ज्ञान भी मुझे नहीं है , फिर आप उन राक्षसों से स्वयम न लड़ कर हमें क्यों ले जा रहे है ?? Tribhuwan Singh गुरु विश्वा मित्र हँसे और बोले- " प्रकृति का न्याय बड़ा विचित्र है पुत्र। प्रकृति किसी एक व्यक्ति को सम्पूर्ण शक्तियां नहीं देती ।दो पक्ष हैं पुत्र। एक चिंतन और दूसरा कर्म। यह भी एक अदभुत नियम है कि जो चिंतन करता है , जो न्याय अन्याय की बात सोचता है , सामाजिक कल्याण की बात सोचता है , उसके व्यक्तित्व का चिंतन-पक्ष विकसित होता है और उसका कर्म पक्ष पीछे छूट जाता है। तुम देखोगे पुत्र की चिन्तक सिर्फ सोचता है । वह जानता है कि क्या उचित है क्या अनुचित ।समाज और देश में क्या होना चाहिए क्या नहीं ।किन्तु चिंतन को कर्म में परिणित कर पाना उसके बस में नहीं होता। उसकी कर्म शक्ति क्षीण हो जाती है। वहां केवल मस्तिस्क रह जाता है ।दूसरी ओर जो न्याय और औचित्य राष्ट्र और समाज की बात न सोचते हुए सिर्फ स्वार्थ बस कम करते हैं , वो कर्म उनको राक्षस बना देता है ।न्याय और अन्याय का विचार मनुष्य को ऋषि बना देता है। और पुत्र , ऐसे लोग जिनमे न्याय-अन्याय का विचार और कर्म दोनों हों ,ऐसे अद्भुत लोग संसार में बहुत कम है । जनसामान्य ऐसे ही लोगों को इश्वर का अवतार मान लेता है।जब न्यायपूर्ण कर्म करने की शक्ति किसी में आ जाय और जनसामान्य का नेतृत्व अपने हाँथ में लेकर आगे बढे, अन्याय का विरोध करे , तो उसमे प्रकृति की शक्तियां पूर्णता में साक्षात् हो उठती हैं ।जब मुझमे कर्म था तब चिंतन नहीं था ;पर जब आज चिंतन है ज्ञान है, ऋषि कहलाता हूँ तो कर्म की शक्ति मुझमे नहीं है। सामान्यतः बुद्धिवादी ऋषि अपंग और कर्म शून्य हो जाया है। इसीलिये मुझे तुम्हारी आवश्यकता है राम।
फिर बोले-"जब तुम मेरे आदेश के अनुसार काम करोगे तो तुम मेरे पूरक कहलाओगे। किन्तु जब तुम स्वयं न्याय की बात सोचकर स्वतंत्र कर्म करोगे तो अवतार कहलाओगे।"
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