Saturday 18 October 2014

तो अंबेडकवादी, कहां इतर हैं गतिहीन ब्राह्मणवाद से...? part-1

तो अंबेडकवादी, कहां इतर हैं गतिहीन ब्राह्मणवाद से...?
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जब हम "ब्राह्मणवाद" को कोसते हैं तो हमारा ध्येय आखिर किन बिंदुओं पर चोट करना होता है? मेरी निजी राय है कि यदि "दलीय राजनीति" के प्रभाव से हटकर सोचा जाए तो समय के साथ ब्राह्मणवाद का जो सबसे बड़ा दोष बना, वह है उसका "शारीरिक श्रम" से दूरी का बनना। श्रमण चिंतन परंपरा के अनुसार, समाज का "चेतन वर्ग," जो "ब्राह्मण" कहलाया, उसने जीवन के कुछ क्षेत्र में अपना मानसिक और बौद्धिक श्रम पूरी तरह से झोंक दिया। संगीत, कला, गणित, भाषा, स्वर और मौसम विज्ञान वह क्षेत्र थे, जिनका इस धरती पर पैदा हुए ज्ञान के मुकाबले कहीं कोई जोड़ ना था, ना तब और ना अभी कहीं दीख पड़ता है। "ब्राह्मणवाद" में संशोधन तभी संभव है जब ब्राह्मण यानि सवर्ण समझी जानी वाली जातियां खुद को "शारीरिक श्रम" से जोड़े और दलित जातियां खुद को ज्ञान की धारा से।
अब यहां से एक दूसरी दिक्कत सामने आ रही हैं। सामाजिक न्याय के पैरोकार, लगातार ब्राह्णवाद को गरियाने के साथ "विरासत के ज्ञान" को भी गरिया रहे हैं लेकिन बदले में ज्ञान की कोई बड़ी रेखा खींच पाने में सक्षम नहीं है। यदि उन्हें बड़ी रेखा खींचनी है तो उन्हें सात सुरों के बाद "आठवां सुर" तलाशना होगा, भाषा विज्ञान में उन्हें 36 ध्वनियों के बाद 3"7वीं ध्वनि" स्थापित करनी होगी। उन्हें "शून्य" से आगे बढ़कर गणित या गणना में कोई अद्भुत चमत्कार कर दिखाना होगा। या फिर सौरमंडल की स्थापित प्रतिस्थापनाओं से आगे जाकर "ब्राह्मांड की नवस्थापना" करना होगा।
विरासत को खारिज करने के अपने खतरे भी बहुत ही विकट हैं। यदि हम स्थापित ज्ञान को खारिज कर देते हैं, अस्वीकार कर देते हैं तो हमारे सामने वो "आधार" नहीं रह जाते जिनके सहारे हम ज्ञान के नए मानक तलाश कर दे पाएं। यह कैसे संभव है कि "शून्य" को अस्वीकार कर कोई गणितज्ञ नई स्थापना या गणना कर दिखाए? यह कैसे संभव है कि संगीत का कोई "नया कंपोजिशन" सात स्वरों के बिना ही हो जाए? यह कैसे मुमकिन होगा कि स्वर विज्ञान में बिना 36 ध्वनियों को मानें 38वीं ध्वनि दी जा सके। ज्ञान के क्षेत्र में जो भी सक्रिय हैं, वो जानते हैं कि बिना "अनुशासित" हुए, बिना पहले से स्थापित हुए ज्ञान को स्वीकार किए, उसमें पारंगत हुए ज्ञान का "नया मानक" स्थापित करना असंभव है, सिर्फ हास्यास्पद प्रयास भर है। दुनिया का कोई "आविष्कार" कोई चमत्कार से नहीं हुआ.."मूलभूत सिद्धांत" पहले से मौजूद थे, बस उन्हें समझने या आत्मसात करने में देर हुई हमसे। यह अकाट्य है कि मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी ही नए सिद्धांत को जन्म देती है। अब मैं यह ना बताऊंगा कि मित्रों में शामिल मेरे कितने ही दलित चिंतक अपनी संतानों को इसी ब्राह्मवादी ज्ञान के अंश तबलावादन, संगीत की अन्य विधाओं और शास्त्रीय नृत्य में पारंगत कर रहे हैं। ताकि उनकी संसति सुशिक्षित कहलाएं। लेकिन वो चाहते हैं कि एक वास्तविक दलित का बच्चा ज्ञान की इन परंपराओं से परे ही रहे। सिर्फ झंडा ढोए और उनका वोटर भर बने। क्या है यह?
अब संगीत में ही देख लीजिए, "अमीर खुसरो साहब" ने अपनी सूझ लगाई और "ढोल" को बीच से काट कर "तबला" दे दिया। फिर उसको स्वतंत्र वाद्ययंत्र के रूप में स्वीकृति भी मिल गई। अब खुसरो साहब यदि ढोल को ही खारिज कर देते तो तबला कहां से पैदा होता?
अब बड़ी चुनौती यहीं से शुरू होती है। क्या जातिवाद का संघर्ष, उपेक्षा और हिकारत से सवर्ण इतर जातियां खुद को एक "कुंठित बौद्धिक वातावरण" में डाल रही हैं तो मैं कहूंगा "हां"। सामाजिक न्याय के संघर्ष को अब जब सैद्धांतिक जीत मिल चुकी है तो उसे ठहर कर पुनर्विचार करना चाहिए, श्रमण परंपरा का निर्वहन करते हुए। क्योंकि अभी तो मौजूदा दलित संघर्ष बाद में रूढ़ और गतिहीन हुए उस ब्राह्मणवाद से प्रेरित है, जिसने शारीरिक श्रम को हेय करार दिया। जिसने मानसिक श्रम को ही सबसे श्रेष्ठ माना। जिसने कहा कि दैहिक श्रम पर जीने वाला समाज के सबसे निचले पायदान में खड़ा हो।
अब यही काम तो सामाजिक न्याय के संघर्ष जुड़े साथी कर रहे हैं। जो चाहते हैं कि उन्हें बाद के रूढ़ और गतिहीन ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शामिल कर लिया जाए। ज्ञान के नाम पर उनका एकमात्र ध्येय किसी तरह अंग्रेजी समझने-जानने और इसके बाद स्थापित नौकरियों में जगह पाना है। ताकि उनका शुमार भी शारीरिक श्रम को हेय समझने वाले उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था में हो जाए, जो आज मामूली ज्ञान के बूते ढेर सारी सुविधाओं से लैस जिंदगी को जीता दिखाई दे रहा है। दरअसल इस बिंदू पर जाति भी खारिज हो जा रही है सिर्फ प्रतीक बचे दिखाई दे रहे हैं। वो चाहे महिषासुर हो या फिर दुर्गा। और इस चाहत में वह गतिहीन हो चुके ब्राह्मणवाद की तरह ही बौद्धिक योग्यता को खारिज करता दिखाई दे रहा है। और जातीय योग्यता से खुद को स्थापित करने को विह्वल है। जो रास्ता उसे सूझ रहा है, वह है यदि यह सब कुछ सहजता से पाना है तो गोलबंद होकर मानसिक श्रम को हेय स्थापित करो। अब ऐसे में सवाल उठता है कि एक गतिहीन ब्राह्मणवाद और मौजूदा सामाजिक न्याय के संघर्ष में बुनियादी फर्क क्या है? कुछ भी तो नहीं।
फिलहाल तो एक वक्त के बाद गतिहीन हुए ब्राह्मणवाद और जारी सामाजिक न्याय के संघर्ष, दोनों ही उस मनोधरातल को स्थापित करने का प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं, जिसमें शारीरिक श्रम को हेय माना गया और मानसिक श्रम को श्रेष्ठ स्वीकार गया। और मेरे विचार से यह एक "शहरी सोच" है, पर यह नगरीय सोच यह भूल जाती है कि बहुत सारे मामलों में वह एक "परजीवी समाज" है, जिसकी सब्जी से लेकर दूध और रोजमर्रा की चीजें वही उपलब्ध कराता है, जो शारीरिक श्रम करता हुआ समाज है। और उसके शारीरिक श्रम पर टिका है यह कथित सभ्य और शिक्षित समाज का अस्तित्व।
यहां, मुझे मित्र Digvijai Nath Singh की एक बात बहुत मौजूं और सार्थक लग रही है, उन्होंने मेरी एक पोस्ट पर किए कमेंट में कहा था, "जो भी घृणा, नफरत का फैलाव हो रहा है, उसके "रणनीतिकार" इन्हीं परजीवी शहरों में बिना "शारीरिक श्रम" के पलते हुए लोग हैं। हालांकि आज शहरीकरण में बहुत सारी शारीरिक श्रम करता मानव समूह समाया हुआ है। शारीरिक श्रम को हेय समझने की समझ विकसित करनी हो तो कभी नवशहरी और किसी ग्रामीण को किसी रिक्शेवाले या मजदूर से बात करते देख लीजिए..खुद अहसास हो जाएगा। गांव में भी शारीरिक श्रम करने वालों से वही नफरत से बात करते हैं, जो वहां भी बौद्धिक श्रम से जीते परजीवी हैं।
यानि क्या यह माना जा सकता है, नफरत, शहर से गांव जा रहा है, गांव से शहर नहीं आ रहा है। फिलहाल इतना ही। शारीरिक श्रम को हेय समझना ही गतिहीन हुए ब्राह्मणवाद की चुनौती है और यही चुनौती सामाजिक न्याय के संघर्ष की है। पता नहीं, मैं नहीं जानता कि मैं कितना दुरुस्त हूं, मेरा मकसद तो नफरत के इस सैलाब के बीच एक रास्ता तलाशना है..और मैं उसी प्रयास में हूं। आपका स्वागत है, आप अपनी सहमति या आपत्ति दर्ज कराएं।
taken from the page of Sumant Bhattacharya
इस विषय पर काफी सार्थक चर्च हुई है लेकिन मैं सिर्फ अपने कमेंट्स इस ब्लॉग में डालूँगा अरुण कुमार जी और सुमंत दा कि राय पर / 
Tribhuwan Singh कृपया एक छोटा सा व्याख्यान ब्राम्हान्वाद पर दे ।क्या है ये ??? तभी सार्थक चर्चा हो पाएगी।

Shivanand Tivary लोहिया ने कहा था कि ब्राह्मणवाद से लड़ने में सबसे बड़ा खतरा है खुद ब्राह्मण बनने की आकांक्षा।सामाजिक न्याय वालों में जब थोड़ी सम्पन्नता आती है, पहला काम वो करते हैं, अपनी औरतों को वे ब्राह्मणवादियों की तरह घर की चौखट के अंदर बंद कर देते हैं।जबकि उनकी औरतों का परिवार में आर्थिक अवदान पुरूषों से कम नहीं होता है।मुझे 92 की एक घटना याद है।सामाजिक न्याय आंदोलन चरम पर था।लालू जी उसके नायक के रूप में अपने उत्कर्ष पर थे।उस समय झरिया जो अब झारखंड में है, से किसी यादव संगठन का एक फरमान अखबार में छपा।आशय यह था कि हमारे बिरादरी का व्यक्ति राजा बन गया है।ऐसे में हमारे समाज के औरतों का सर पर टोकरी लेकर दूध, दही या गोइठा बेचना उसका अपमान है।मुझे लगा कि यह तो शुद्ध ब्राह्मणवाद का नकल है।मैं वह अखबार लेकर दौडा हुआ लालू जी के यहाँ पहुँचा।खबर दिखला कर मैंने आग्रह किया कि इस प्रवृत्ति का उनके द्वारा विरोध होना चाहिए।लेकिन वे मौन साध गए।मैंने कम से कम बिहार के सामाजिक न्याय के नेताओं को बहुत करीब से देखा है।उन्होंने द्विजों की बुराइयों को अपनाया लेकिन जो थोड़ी-बहुत अच्छाई उनमें बची थी उसकी ओर देखा तक नहीं।लेकिन पिछड़े और दलितों की युवा पीढी में उम्मीद की किरणें दिखाई दे रही है।उन्हीं से उम्मीद बंधती है।
 Sumant Bhattacharya Shivanand Tivary सर दिल की बात कहूं तो आप बिहार की राजनीति के परिवर्तन बिंदुओं के साक्षी और नियंता दोनों ही रहे हैं..मैं आपसे गुजारिश करने का साहस नहीं कर पा रहा हूं पर आने वाली संतति पर यह उपकार होगा यदि आप अपने अनुभवों को एक पुस्तक में तब्दील कर दें। मुकम्मल दस्तावेज की शक्ल दे दें। फिर छोड़े दें आने वाली पीढ़ी को फैसला करने के लिए कि क्या सही है और क्या गलत। यदि इस सार्थक काम में आपके कुछ काम आ सकूं तो मुझे खुशी होगी.। दिल्ली में हैं तो मिलने आना चाहूंगा।.सादर
 Anupama Upadhyay "ब्राह्मणवाद" में संशोधन तभी संभव है जब ब्राह्मण यानि सवर्ण समझी जानी वाली जातियां खुद को "शारीरिक श्रम" से जोड़े और दलित जातियां खुद को ज्ञान की धारा से।

सामाजिक न्याय के पैरोकार, लगातार ब्राह्णवाद को गरियाने के साथ "विरासत के ज्ञान" को भी गरिया रहे हैं लेकिन बदले में ज्ञान की कोई बड़ी रेखा खींच पाने में सक्षम नहीं है। यदि उन्हें बड़ी रेखा खींचनी है तो उन्हें सात सुरों के बाद "आठवां सुर" तलाशना होगा, भाषा विज्ञान में उन्हें 36 ध्वनियों के बाद 3"7वीं ध्वनि" स्थापित करनी होगी। उन्हें "शून्य" से आगे बढ़कर गणित या गणना में कोई अद्भुत चमत्कार कर दिखाना होगा। या फिर सौरमंडल की स्थापित प्रतिस्थापनाओं से आगे जाकर "ब्राह्मांड की नवस्थापना" करना होगा।

ज्ञान के क्षेत्र में जो भी सक्रिय हैं, वो जानते हैं कि बिना "अनुशासित" हुए, बिना पहले से स्थापित हुए ज्ञान को स्वीकार किए, उसमें पारंगत हुए ज्ञान का "नया मानक" स्थापित करना असंभव है,

क्या जातिवाद का संघर्ष, उपेक्षा और हिकारत से सवर्ण इतर जातियां खुद को एक "कुंठित बौद्धिक वातावरण" में डाल रही हैं तो मैं कहूंगा "हां"।

" "जो भी घृणा, नफरत का फैलाव हो रहा है, उसके "रणनीतिकार" इन्हीं परजीवी शहरों में बिना "शारीरिक श्रम" के पलते हुए लोग हैं - Digvijai Nath Singh

शारीरिक श्रम को हेय समझना ही गतिहीन हुए ब्राह्मणवाद की चुनौती है और यही चुनौती सामाजिक न्याय के संघर्ष की है।

 Tribhuwan Singh फिर मैं कहना चाहता हूँ कि ब्राम्हणवाद को अभी तक ठीक से परिभाषित नहीं किया गया है ?? और न ही सवर्ण को?? सवर्ण यानि जिसका कोई वर्ण हो या अपने ही वर्ण वाला ?? ढेर सारे शब्द गढ़े गए पिछले १५० - २०० वर्षों में सामाजिक तने बाने को तोड़ने के लिए ?? ब्राम्हण एक डिग्री है , क्वालिफिकेशन है , न कि पाण्डेय तिवारी या भट्टाचार्य होना/ सामाजिक अवधारणाएं बदली हैं तो दोष ब्राम्हण पर ???
 Tribhuwan Singh ब्राम्हणवाद के विरोध का अगर इतिहास देखेंगे, तो पाएंगे कि ये इतिहास १८५७ के बाद शुरू हुवा है ,,,,क्रिश्चियन शाशकों को क्रिश्चियनिटी को हिंदूइस्म से ऊपर साबित करने, और क्रिस्चियन मिशनरीज के धर्म परिवर्तन में असफल होने के कारण हुए frustation कि उपज है ब्राम्हणवाद का विरोध , जिसकी शुरुवात ब्राम्हणों(ऋषि मुनियों) द्वारा लिखी धर्म धर्म पुस्तकों से शुरू हुयी और बाद में ब्राम्हणों के विरोध में तब्दील हो गयी /
 Tribhuwan Singh ब्राम्हणवाद का विरोध Evangelist पादरियों द्वारा शुरू हुवा। इसाइयत को फैलाने के उद्देश्य से और इसाइयत (True Religion) को हिंदूइस्म (False Religion) से महान सिद्ध करने हेतु। लेकिन जब अत्याचारी और अंधाधुंध लूट के कारण, और भारतीय उद्योगों के नष्ट होंने के कारण समाज का एक बहुत बड़ा भाग बेरोजगार और sikhsha से वंचित हुवा। तो इस विरोध को राजनैतिक और सामाजिक रंग दिया गया।

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