Saturday, 18 October 2014

तो अंबेडकवादी, कहां इतर हैं गतिहीन ब्राह्मणवाद से...? part - 1

तो अंबेडकवादी, कहां इतर हैं गतिहीन ब्राह्मणवाद से...?
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जब हम "ब्राह्मणवाद" को कोसते हैं तो हमारा ध्येय आखिर किन बिंदुओं पर चोट करना होता है? मेरी निजी राय है कि यदि "दलीय राजनीति" के प्रभाव से हटकर सोचा जाए तो समय के साथ ब्राह्मणवाद का जो सबसे बड़ा दोष बना, वह है उसका "शारीरिक श्रम" से दूरी का बनना। श्रमण चिंतन परंपरा के अनुसार, समाज का "चेतन वर्ग," जो "ब्राह्मण" कहलाया, उसने जीवन के कुछ क्षेत्र में अपना मानसिक और बौद्धिक श्रम पूरी तरह से झोंक दिया। संगीत, कला, गणित, भाषा, स्वर और मौसम विज्ञान वह क्षेत्र थे, जिनका इस धरती पर पैदा हुए ज्ञान के मुकाबले कहीं कोई जोड़ ना था, ना तब और ना अभी कहीं दीख पड़ता है। "ब्राह्मणवाद" में संशोधन तभी संभव है जब ब्राह्मण यानि सवर्ण समझी जानी वाली जातियां खुद को "शारीरिक श्रम" से जोड़े और दलित जातियां खुद को ज्ञान की धारा से।
अब यहां से एक दूसरी दिक्कत सामने आ रही हैं। सामाजिक न्याय के पैरोकार, लगातार ब्राह्णवाद को गरियाने के साथ "विरासत के ज्ञान" को भी गरिया रहे हैं लेकिन बदले में ज्ञान की कोई बड़ी रेखा खींच पाने में सक्षम नहीं है। यदि उन्हें बड़ी रेखा खींचनी है तो उन्हें सात सुरों के बाद "आठवां सुर" तलाशना होगा, भाषा विज्ञान में उन्हें 36 ध्वनियों के बाद 3"7वीं ध्वनि" स्थापित करनी होगी। उन्हें "शून्य" से आगे बढ़कर गणित या गणना में कोई अद्भुत चमत्कार कर दिखाना होगा। या फिर सौरमंडल की स्थापित प्रतिस्थापनाओं से आगे जाकर "ब्राह्मांड की नवस्थापना" करना होगा।
विरासत को खारिज करने के अपने खतरे भी बहुत ही विकट हैं। यदि हम स्थापित ज्ञान को खारिज कर देते हैं, अस्वीकार कर देते हैं तो हमारे सामने वो "आधार" नहीं रह जाते जिनके सहारे हम ज्ञान के नए मानक तलाश कर दे पाएं। यह कैसे संभव है कि "शून्य" को अस्वीकार कर कोई गणितज्ञ नई स्थापना या गणना कर दिखाए? यह कैसे संभव है कि संगीत का कोई "नया कंपोजिशन" सात स्वरों के बिना ही हो जाए? यह कैसे मुमकिन होगा कि स्वर विज्ञान में बिना 36 ध्वनियों को मानें 38वीं ध्वनि दी जा सके। ज्ञान के क्षेत्र में जो भी सक्रिय हैं, वो जानते हैं कि बिना "अनुशासित" हुए, बिना पहले से स्थापित हुए ज्ञान को स्वीकार किए, उसमें पारंगत हुए ज्ञान का "नया मानक" स्थापित करना असंभव है, सिर्फ हास्यास्पद प्रयास भर है। दुनिया का कोई "आविष्कार" कोई चमत्कार से नहीं हुआ.."मूलभूत सिद्धांत" पहले से मौजूद थे, बस उन्हें समझने या आत्मसात करने में देर हुई हमसे। यह अकाट्य है कि मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी ही नए सिद्धांत को जन्म देती है। अब मैं यह ना बताऊंगा कि मित्रों में शामिल मेरे कितने ही दलित चिंतक अपनी संतानों को इसी ब्राह्मवादी ज्ञान के अंश तबलावादन, संगीत की अन्य विधाओं और शास्त्रीय नृत्य में पारंगत कर रहे हैं। ताकि उनकी संसति सुशिक्षित कहलाएं। लेकिन वो चाहते हैं कि एक वास्तविक दलित का बच्चा ज्ञान की इन परंपराओं से परे ही रहे। सिर्फ झंडा ढोए और उनका वोटर भर बने। क्या है यह?
अब संगीत में ही देख लीजिए, "अमीर खुसरो साहब" ने अपनी सूझ लगाई और "ढोल" को बीच से काट कर "तबला" दे दिया। फिर उसको स्वतंत्र वाद्ययंत्र के रूप में स्वीकृति भी मिल गई। अब खुसरो साहब यदि ढोल को ही खारिज कर देते तो तबला कहां से पैदा होता?
अब बड़ी चुनौती यहीं से शुरू होती है। क्या जातिवाद का संघर्ष, उपेक्षा और हिकारत से सवर्ण इतर जातियां खुद को एक "कुंठित बौद्धिक वातावरण" में डाल रही हैं तो मैं कहूंगा "हां"। सामाजिक न्याय के संघर्ष को अब जब सैद्धांतिक जीत मिल चुकी है तो उसे ठहर कर पुनर्विचार करना चाहिए, श्रमण परंपरा का निर्वहन करते हुए। क्योंकि अभी तो मौजूदा दलित संघर्ष बाद में रूढ़ और गतिहीन हुए उस ब्राह्मणवाद से प्रेरित है, जिसने शारीरिक श्रम को हेय करार दिया। जिसने मानसिक श्रम को ही सबसे श्रेष्ठ माना। जिसने कहा कि दैहिक श्रम पर जीने वाला समाज के सबसे निचले पायदान में खड़ा हो।
अब यही काम तो सामाजिक न्याय के संघर्ष जुड़े साथी कर रहे हैं। जो चाहते हैं कि उन्हें बाद के रूढ़ और गतिहीन ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शामिल कर लिया जाए। ज्ञान के नाम पर उनका एकमात्र ध्येय किसी तरह अंग्रेजी समझने-जानने और इसके बाद स्थापित नौकरियों में जगह पाना है। ताकि उनका शुमार भी शारीरिक श्रम को हेय समझने वाले उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था में हो जाए, जो आज मामूली ज्ञान के बूते ढेर सारी सुविधाओं से लैस जिंदगी को जीता दिखाई दे रहा है। दरअसल इस बिंदू पर जाति भी खारिज हो जा रही है सिर्फ प्रतीक बचे दिखाई दे रहे हैं। वो चाहे महिषासुर हो या फिर दुर्गा। और इस चाहत में वह गतिहीन हो चुके ब्राह्मणवाद की तरह ही बौद्धिक योग्यता को खारिज करता दिखाई दे रहा है। और जातीय योग्यता से खुद को स्थापित करने को विह्वल है। जो रास्ता उसे सूझ रहा है, वह है यदि यह सब कुछ सहजता से पाना है तो गोलबंद होकर मानसिक श्रम को हेय स्थापित करो। अब ऐसे में सवाल उठता है कि एक गतिहीन ब्राह्मणवाद और मौजूदा सामाजिक न्याय के संघर्ष में बुनियादी फर्क क्या है? कुछ भी तो नहीं।
फिलहाल तो एक वक्त के बाद गतिहीन हुए ब्राह्मणवाद और जारी सामाजिक न्याय के संघर्ष, दोनों ही उस मनोधरातल को स्थापित करने का प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं, जिसमें शारीरिक श्रम को हेय माना गया और मानसिक श्रम को श्रेष्ठ स्वीकार गया। और मेरे विचार से यह एक "शहरी सोच" है, पर यह नगरीय सोच यह भूल जाती है कि बहुत सारे मामलों में वह एक "परजीवी समाज" है, जिसकी सब्जी से लेकर दूध और रोजमर्रा की चीजें वही उपलब्ध कराता है, जो शारीरिक श्रम करता हुआ समाज है। और उसके शारीरिक श्रम पर टिका है यह कथित सभ्य और शिक्षित समाज का अस्तित्व।
यहां, मुझे मित्र Digvijai Nath Singh की एक बात बहुत मौजूं और सार्थक लग रही है, उन्होंने मेरी एक पोस्ट पर किए कमेंट में कहा था, "जो भी घृणा, नफरत का फैलाव हो रहा है, उसके "रणनीतिकार" इन्हीं परजीवी शहरों में बिना "शारीरिक श्रम" के पलते हुए लोग हैं। हालांकि आज शहरीकरण में बहुत सारी शारीरिक श्रम करता मानव समूह समाया हुआ है। शारीरिक श्रम को हेय समझने की समझ विकसित करनी हो तो कभी नवशहरी और किसी ग्रामीण को किसी रिक्शेवाले या मजदूर से बात करते देख लीजिए..खुद अहसास हो जाएगा। गांव में भी शारीरिक श्रम करने वालों से वही नफरत से बात करते हैं, जो वहां भी बौद्धिक श्रम से जीते परजीवी हैं।
यानि क्या यह माना जा सकता है, नफरत, शहर से गांव जा रहा है, गांव से शहर नहीं आ रहा है। फिलहाल इतना ही। शारीरिक श्रम को हेय समझना ही गतिहीन हुए ब्राह्मणवाद की चुनौती है और यही चुनौती सामाजिक न्याय के संघर्ष की है। पता नहीं, मैं नहीं जानता कि मैं कितना दुरुस्त हूं, मेरा मकसद तो नफरत के इस सैलाब के बीच एक रास्ता तलाशना है..और मैं उसी प्रयास में हूं। आपका स्वागत है, आप अपनी सहमति या आपत्ति दर्ज कराएं।
From the post Sumant Bhattacharya Journalist in Outlook 
  • Neetu Agrawal 100%सही...और इसी श्रम विभाजन के तहत नए ब्राह्मणवाद का उदय हो रहा है..Class System के रूप में..किन्तु जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के विरोधी इसकी आलोचना नहीं करते।See Translation
  • Ashok Kumar दोनों पक्षों में से एक भी कम नहीं है, जो ऐंठ बनी हई है उससे कटुता खत्म होने के बजाए विष-बेल और भी फल-फूल रही है| इस प्रसंग की शुद्ध ग्रामीण स्थिति को अनदेखा करने से इसकी जड़ें कभी भी समाप्त नहीं होंगी|See Translation
  • Tribhuwan Singh कृपया एक छोटा सा व्याख्यान ब्राम्हान्वाद पर दे ।क्या है ये ??? तभी सार्थक चर्चा हो पाएगी।
  • Tribhuwan Singh सुमंत जी ये प्रश्न आपसे है। पहले जिगासु की जिज्ञासा शांत की जाय।
  • Upasana Chaturvedi First of all brahmno ka virodh to sirf virodh karne k liye hota hai ......See Translation
  • Ugra Nath बिल्कुल सही जा रहे हैं , मेरे ख्याल से भी ।
  • Shivanand Tivary लोहिया ने कहा था कि ब्राह्मणवाद से लड़ने में सबसे बड़ा खतरा है खुद ब्राह्मण बनने की आकांक्षा।सामाजिक न्याय वालों में जब थोड़ी सम्पन्नता आती है, पहला काम वो करते हैं, अपनी औरतों को वे ब्राह्मणवादियों की तरह घर की चौखट के अंदर बंद कर देते हैं।जबकि उनकी औरतों का परिवार में आर्थिक अवदान पुरूषों से कम नहीं होता है।मुझे 92 की एक घटना याद है।सामाजिक न्याय आंदोलन चरम पर था।लालू जी उसके नायक के रूप में अपने उत्कर्ष पर थे।उस समय झरिया जो अब झारखंड में है, से किसी यादव संगठन का एक फरमान अखबार में छपा।आशय यह था कि हमारे बिरादरी का व्यक्ति राजा बन गया है।ऐसे में हमारे समाज के औरतों का सर पर टोकरी लेकर दूध, दही या गोइठा बेचना उसका अपमान है।मुझे लगा कि यह तो शुद्ध ब्राह्मणवाद का नकल है।मैं वह अखबार लेकर दौडा हुआ लालू जी के यहाँ पहुँचा।खबर दिखला कर मैंने आग्रह किया कि इस प्रवृत्ति का उनके द्वारा विरोध होना चाहिए।लेकिन वे मौन साध गए।मैंने कम से कम बिहार के सामाजिक न्याय के नेताओं को बहुत करीब से देखा है।उन्होंने द्विजों की बुराइयों को अपनाया लेकिन जो थोड़ी-बहुत अच्छाई उनमें बची थी उसकी ओर देखा तक नहीं।लेकिन पिछड़े और दलितों की युवा पीढी में उम्मीद की किरणें दिखाई दे रही है।उन्हीं से उम्मीद बंधती है।

    • Sumant Bhattacharya Shivanand Tivary सर दिल की बात कहूं तो आप बिहार की राजनीति के परिवर्तन बिंदुओं के साक्षी और नियंता दोनों ही रहे हैं..मैं आपसे गुजारिश करने का साहस नहीं कर पा रहा हूं पर आने वाली संतति पर यह उपकार होगा यदि आप अपने अनुभवों को एक पुस्तक में तब्दील कर दें। मुकम्मल दस्तावेज की शक्ल दे दें। फिर छोड़े दें आने वाली पीढ़ी को फैसला करने के लिए कि क्या सही है और क्या गलत। यदि इस सार्थक काम में आपके कुछ काम आ सकूं तो मुझे खुशी होगी.। दिल्ली में हैं तो मिलने आना चाहूंगा।.सादरSee Translation
    • Shivanand Tivary दिल्ली का दाना-पानी पुरा हो गया सुमंत जी।पटना आ गया हूँ।दिल्ली आया तो खबर
      दूंगा।
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    • Anupama Upadhyay "ब्राह्मणवाद" में संशोधन तभी संभव है जब ब्राह्मण यानि सवर्ण समझी जानी वाली जातियां खुद को "शारीरिक श्रम" से जोड़े और दलित जातियां खुद को ज्ञान की धारा से।

      सामाजिक न्याय के पैरोकार, लगातार ब्राह्णवाद को गरियाने के साथ "विरासत के ज्ञान" को भी गरिया रहे हैं लेकिन बदले में ज्ञान की कोई बड़ी रेखा खींच पाने में सक्षम नहीं है। यदि उन्हें बड़ी रेखा खींचनी है तो उन्हें सात सुरों के बाद "आठवां सुर" तलाशना होगा, भाषा विज्ञान में उन्हें 36 ध्वनियों के बाद 3"7वीं ध्वनि" स्थापित करनी होगी। उन्हें "शून्य" से आगे बढ़कर गणित या गणना में कोई अद्भुत चमत्कार कर दिखाना होगा। या फिर सौरमंडल की स्थापित प्रतिस्थापनाओं से आगे जाकर "ब्राह्मांड की नवस्थापना" करना होगा।

      ज्ञान के क्षेत्र में जो भी सक्रिय हैं, वो जानते हैं कि बिना "अनुशासित" हुए, बिना पहले से स्थापित हुए ज्ञान को स्वीकार किए, उसमें पारंगत हुए ज्ञान का "नया मानक" स्थापित करना असंभव है,

      क्या जातिवाद का संघर्ष, उपेक्षा और हिकारत से सवर्ण इतर जातियां खुद को एक "कुंठित बौद्धिक वातावरण" में डाल रही हैं तो मैं कहूंगा "हां"।

      " "जो भी घृणा, नफरत का फैलाव हो रहा है, उसके "रणनीतिकार" इन्हीं परजीवी शहरों में बिना "शारीरिक श्रम" के पलते हुए लोग हैं - Digvijai Nath Singh

      शारीरिक श्रम को हेय समझना ही गतिहीन हुए ब्राह्मणवाद की चुनौती है और यही चुनौती सामाजिक न्याय के संघर्ष की है।
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    • Anupama Upadhyay समाज को इतनी पैनी नज़र से बहुतेरे देखते होगें,और अपने फायदे के लिए उपयोग कैसे करे सोचते होगें और करते होगें !!
      परन्तु इतनी पैनी सोच विरले ही रखते है कुछ सकारात्मक करने के लिए !! साधुवाद इस धरती को अपनी उपस्थिति से सकारात्मक बनाने के लिए !!
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    • Tribhuwan Singh फिर मैं कहना चाहता हूँ कि ब्राम्हणवाद को अभी तक ठीक से परिभाषित नहीं किया गया है ?? और न ही सवर्ण को?? सवर्ण यानि जिसका कोई वर्ण हो या अपने ही वर्ण वाला ?? ढेर सारे शब्द गढ़े गए पिछले १५० - २०० वर्षों में सामाजिक तने बाने को तोड़ने के लिए ?? ब्राम्हण एक डिग्री है , क्वालिफिकेशन है , न कि पाण्डेय तिवारी या भट्टाचार्य होना/ सामाजिक अवधारणाएं बदली हैं तो दोष ब्राम्हण पर ???
    • Bhavya Pandit "ब्राह्मणवाद" को संशोधषन की जरूरत ही कहा ?? सत्ता की ऊंची गद्दीयों आसीन समाज के ठेकेदारों ने उन्हें खुदबखुद इस अवस्था में पहुचाने का जिम्मा उठा रखा है । अब परिस्थिति काफी बदल चुकी है ।
    • Ajay Chourasia aadrneey sumnta jee jatiwad ki utptti bhi inhi sram kary se utpnn hui hai ek prkar ke shrm krne wale log sngthit hote gye or smuh bnta gya ,
    • Tribhuwan Singh ब्राम्हणवाद के विरोध का अगर इतिहास देखेंगे, तो पाएंगे कि ये इतिहास १८५७ के बाद शुरू हुवा है ,,,,क्रिश्चियन शाशकों को क्रिश्चियनिटी को हिंदूइस्म से ऊपर साबित करने, और क्रिस्चियन मिशनरीज के धर्म परिवर्तन में असफल होने के कारण हुए frustation कि उपज है ब्राम्हणवाद का विरोध , जिसकी शुरुवात ब्राम्हणों(ऋषि मुनियों) द्वारा लिखी धर्म धर्म पुस्तकों से शुरू हुयी और बाद में ब्राम्हणों के विरोध में तब्दील हो गयी /
    • Arun Kumar ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले दलित चिंतक भी ब्राह्मणवादी सोच से अछुते नहीं रहे हैं। इन्होंने ब्राह्मणवाद का विरोध भी ब्राह्मणवादी सोच के तहत किया है।श्रमहीन सता। उद्देश्य कभी पिछड़े समाज को आगे लाना नही रहा है।
    • डा. प्रदीप कुमार मिश्र अत्यन्त सुलझे रूप में अत्यन्त जटिल बात कही दादा!!!......................चेतना की बाँछें खिल गईं.................वैचारिक परिष्कार के लिए आभार..............."आदरणीय शिवानन्द जी" से किए गये निवेदन में एक वोट मेरे समर्थन का भी दादा!!!.........प्रतीक्षा रहेगी....
    • Arun Kumar ब्राह्मणवाद के विरोध का सबसे अच्छा उदाहरण गाँधी जी द्वारा दक्षिण अफ्रीका मे किया गया आंदोलन है।उद्देश्य स्पष्ट। हमारे दलित चिंतको ब्राह्मणवाद का नहीं ब्राह्मणों और सनातन संस्कृतियों का विरोध करते है।पूर्वाग्रसित मानसिक विकार के द्वारा चिंतन कुत्सित और संकुचित हो जाता है।
    • Tribhuwan Singh ब्राम्हणवाद का विरोध Evangelist पादरियों द्वारा शुरू हुवा। इसाइयत को फैलाने के उद्देश्य से और इसाइयत (True Religion) को हिंदूइस्म (False Religion) से महान सिद्ध करने हेतु। लेकिन जब अत्याचारी और अंधाधुंध लूट के कारण, और भारतीय उद्योगों के नष्ट होंने के कारण समाज का एक बहुत बड़ा भाग बेरोजगार और sikhsha से वंचित हुवा। तो इस विरोध को राजनैतिक और सामाजिक रंग दिया गया।

      • Tribhuwan Singh दूसरी बात जो अम्बेडकरवादी ब्राम्हणत्व
      • Tribhuwan Singh को प्राप्त कर चुके वे 3 पीढ़ियों से लगातार लाभ लेते जा रहें हैं। क्या वे अपनी ही विरादरी के निम्नतम पायदान पर बैठे दलित के लिए वो जगह देने के लिए तैयार हैं ?? क्योंकि मैंने तो देखा है 3 पीढ़ियों से एक ही व्यक्ति के वंशजों को आरक्षण का लाभ लेते हुए।
        क्या ब्राम्हण के एक मूल चरित्र अपरिग्रह का अर्थ ये दलित ब्राम्हण समझेंगे।
        क्या अधिकार की बात करने वाले कर्तव्यों की भी बात करेंगे??
      • Tribhuwan Singh Reverednd M A Shering wrote a book in 1872 known as "Hindu Tribes and caste" which is encyclopedic in coverage ,starting from Bramhans then moving towards Kshatriyas and then down the Varna scale .But unlike earlier colonial works that relied on textually derrived Varna categories as a general categories about Indian Society .Sherring used these categories as frame for his attempt to marry textual and his empirical knowledge " ---from Castes of Mind by Nicholas B dirk
      • Tribhuwan Singh Reverednd M A Shering को आंबेडकर जी ने अपनी पुस्तक में काफी क्वोट किया है ,,और यही दलितों की बाइबिल है / शेररिंग कोई सामाजिक शास्त्री नहीं थे बल्कि पादरी थे , जाति समूह और संरचना भारतीय समाज की एक ऐसी व्यवस्था थी , जिससे ईसाइयत में धर्म परिवर्तन में सबसे बड़ी बाधा थी . यही बात मॅक्समुल्लर ने भी कही है / अब देखें क्या लिखता है वो --तो आपको लगेगा की किसी दलित चिंतक के मुहं से निकले हुए वाक्य हैं /अगले पोस्ट को पढ़ें /
      • Tribhuwan Singh he was frustrated by impossibility of mass conversion , so he used invention of caste distinction and divide and rule . He made following observations (which are argument of dalitchintaks till date);
      • Tribhuwan Singh (1) Caste was not there when Aryans entered in India (This theory havebeen proven wrong since more than one decade scientifically, though marxist and dalit chintaks dont agree)
      • Tribhuwan Singh (2) caste was invention of "wily Bramhans" , who were thirsting for rule and superior gifts
      • Tribhuwan Singh (3) It is the "wily Bramhans" who are at fault .The Bramhan is not only wily , he is "arrogant and proud","selfish", "Tyrannical", "intractable",and "ambitious".
      • Tribhuwan Singh (4) The rise of caste after the Vedic period was most certainly the result of a Bramhan Conspiracy .--"Caste therefore owes its origin to the Bramhan.It is his invention>"
      • Tribhuwan Singh He then illustrates further -Although the Caste didnt exist at the beginning of Aryans life in India , The Bramhan was able to engineer it in the "childhood of the Hindus".
      • Tribhuwan Singh Sherring observes further --"Caste is sworn enemy of human happiness", "caste is opposed to intellectual freedom", "Caste sets its face sternly against progress", "Caste makes no compromise", "Caste is intensely selfish He encouraged the formation of serious anti Bramhan sentiments .
      • Tribhuwan Singh इन तर्कों से कोई इतर तर्क क्या आपको दलित चिन्तक दे पाते हैं ?? अगर देते हैं तो साझा करे।

        • Rajja Murad मनुवाद को सिद्ध करने का एक उदार फॉर्मुला है आपके पास , वाकई काबीले तारीफ ।See Translation
        • Tribhuwan Singh this comment is for me Murad ji ??
        • Rajja Murad वेसे श्रम का विभाजन वर्गो मेँ करने की क्या जरुरत आ गयी थी , बजाय व्यक्तियो के ?? और जो वर्ग ( जिसे समाज शिरोधार्य माना गया , जो खुद को गतिशीलता का वाहक सिद्ध करता है , जो असल मे बाहरी था और समाज का हिस्सा भी नही था ) मानसिक और दुसरे विलासिता पुर्ण श्रम को अपने खाते मेँ ही क्युँ ले गया , बजाय शारिरीक श्रम के ।See Translation
        • Rajja Murad नही सुमँत जी की पोस्ट के लिए ।See Translation
        • Rajja Murad जिस ज्ञान विज्ञान पर मिथ्याभिमान कर रहै है और उसे चुनौती के रुप मेँ पेश करके , उस से इतर ज्ञान खोजने की बात करतै है , ताकि खुद की श्रेष्ठता का बोध हो तो साफ कर दुँ , ज्ञान किसी वर्ग का पेन्टेट नही है , तमाम आविष्कार , खोजे ,और शोध पुरी इन्सानियत के लिए है , ना कि किसी वर्ग के लिए , अगर ऐसा होता तो सँसार की सारी खोज , आविष्कार को बाँट लिजिए , और देख लिजीए आपके पाले मेँ ज्ञान(वो भी विसँगतिपुर्ण) का कौनसा अँश आता है ।See Translation
        • Arun Kumar Rajja Murad G, . ज्ञान विज्ञान पर मिथ्याभिमान????
        • Rajja Murad और रही बात दलित चिँतको के औवर रिऐक्ट करने की , तो ये साफ है ,( जिस तरह की प्रतिक्रियाऐँ देखने को मिल रही है ,) कि पुराकालिक ब्राह्मणो के विरुद्ध नव ब्राह्मणवाद का उदय हो रहा है , (लेकिन अधिकारो को माँग से अलग रखकर , )See Translation
        • Ashok Kumar उत्तर भारत में यह विस्तृत रूप में परिलक्षित होने वाली समस्या है| आदरणीय तिवारी जी की बात से याद आया कि अपने यहाँ भी शायद ऐसा ही कुछ हुआ था; (पर लिखूँगा नहीं) मेलजोल का ग्राफ लगातार गिर ही रहा है| बात ज्ञानार्जन या श्रम के बंधन की नहीं है, यह कार्य तो सवर्ण और दलित अपनी-2 समझ से कर ही रहे हैं| पर मानसिक वैमनस्यता मिटाने की पहल कैसे हो और कौन करे;ये यक्ष प्रश्न अनुत्तरित है|See Translation
        • Sumant Bhattacharya Rajja Murad भाई, इसके लिए आपको बिना आवेश में आए और बिना गिरोहबंदी का शिकार हुए लंदन आर्बिटेशन में हल्दी के पेटेंट पर हुई बहस को पढना और समझना होगा। हर बात पर हाहाकार मचाने से बेहतर है कि पहले इतिहास बोध के आधार को दुरुस्त किया जाए, ताकि बातचीत शालीनता से हो सके। कोसना यदि समाधान है तो मैं आपके साथ विमर्श से खुद को अलग करना चाहूंगा, बेहद आदर के साथ। अभी मैं आपकी टाइम लाइन पर भी गया। समझने की कोशिश भी की। लेकिन कुछ हासिल ना हुआ मित्र। कोशिश यही कीजिए कि नजरिया नहीं, तथ्य रखिए..और खुद के ज्ञान के अंहकार में डूबने के खतरे से खुद को बरी रखिए। आपको बताना चाहूंगा कि मैं अपनी पोस्ट को सांप्रदायिक और अश्लीलता से मुक्त रखता हूं। उम्मीद है मेरी भावनाओं का ख्याल रखेंगे।See Translation
        • Tribhuwan Singh एक और चीज धयान में रखने योग्य बात है की ब्राम्हण ने भारतवर्ष के इतिहास में समाज के नियम बनाये, और खुद भी उनका पालन किया / पिछले १२०० वर्षों में अगर कोई वर्ग शाशकों के निशाने पर था तो क्षत्रिय और ब्राम्हण / तुर्कों / मुग़लों के हाथ कितने ब्राम्हणों ने जान दिया, इसका अभी तक आकलन नहीं हो पाया/ हजारों साल के पुराने टेक्स्ट को आज के सन्दर्भ में संदर्भित करना कहाँ तक उचित है ?
          कितने ब्राम्हणों ने धर्म परिवर्तन से और हत्या से बचने हेतु जंगलों की शरण ली ,,इसका तो पता ही नहीं है /
        • Tribhuwan Singh एक प्रश्न है सुमंत दा ,,लोग कहते हैं ब्रामणो ने शूद्रों / दलितों को क्षिक्षा से वंचित किया / कितने लोग हैं जो इस तर्क से सहमत हैं ??
        • Sumant Bhattacharya मैं खुद जानना चाहूंगा कि इस तर्क का आधार क्या है। सिर्फ वार आफ परस्पशन का हिस्सा है कि कोई ठोस आधार भी है इसकाSee Translation
        • Ugra Nath गतिज ( Kinetic ) हों अथवा स्थितिज ( Static ) , भविष्य यह है कि सबको ब्राह्मण ही होना है । दलित कोई रहना नहीं चाहेगा । चाहे ज्ञानी बने या मूर्ख रहे , श्रमिक हो या बौद्धिक , हिन्दू हो या हिन्दू विरोधी । सबको ब्राह्मण बनना है । यही मानव प्रकृति और स्वाभाव की नियति है । ब्राह्मणत्व व्यक्ति की स्वाभाविक नियति है । इस सरलीकृत धारणा को इस तथ्य से पुष्ट और सिद्ध होना पाया जा सकता है कि आज ही देखें तो सारा का सारा शहरी जन समुदाय वस्तुतः श्रमिक ही है । बड़े अफसर से लेकर सामान्य चपरासी तक , सब मजदूर हैं । इनमें कोई ज्ञान कोई बुद्धिमत्ता - धार्मिकता- आध्यात्मिकता नहीं है । फिर भी ये सब ब्राह्मण वाद से परिपूर्ण हैं । क्यों ? क्योंकि कोई भी इसका पात्र हो न हो , बनना वह ब्राह्मण ही चाहता है ।
          ( मेरा पोस्ट किसी ऐतिहासिक ज्ञान पर आधारित नहीं है , जिसकी आप पर आये कमेंट्स में भरमार होती है । इसलिए अपने अज्ञान और धृष्टता के लिए पहले ही माफ़ी माँग लूँ । मैं बहस न झेल पाऊँगा । )
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        • Tribhuwan Singh कुछ और तथ्य जाति के इतिहास और समाज में उसकी वर्तमान स्थिति पर जाने के पूर्व इस प्रश्न पर मैं सारे मित्रों की रे जानना चाहूँगा की क्या ब्राम्हणों ने दलितों को शिक्षा से वंचित किया ?? यदि किया तो कब से कब तक ?? क्या आदि काल से ??
        • Tribhuwan Singh Ugra Nath sir ur comments on my querry pl ??
        • Tribhuwan Singh I have solid evidence to put up , but before that I just want that what is public perception about dalits being denied right of education by Bramhans ?? Sumant Bhattacharyaa
        • Ugra Nath आप ज्ञानी हैं । आप की बात पर टीप करना मेरे वश में नहीं । इतिहास ज्ञान शून्य हूँ मैं , न उसके चक्कर में मैं पड़ता । आपके आशीर्वाद से थोड़े बहुत ध्यान के बल पर कुछ बोल जाता हूँ । वह भी इसलिए कि सुमंत जैसे सुह्रद मित्र बोलने देते हैं ।See Translation
        • Shweta Mishra प्रश्न तब भी पूर्वाग्रह का था ... प्रश्न आज भी पूर्वाग्रह का है ...बस सुविधाभोगी होने की परिस्थितियाँ और नीतियाँ बदल गईं हैं ...
          ... वैसे बतौर एक employer यही कहूँगी कि employment के लिए ज्ञान का विकल्प श्रम नहीं हो सकता ...
          (...इसे श्रम की dignity से इनकार न समझा जाए ... please ...)
        • Tribhuwan Singh sir why making fun of me ..
        • Sumant Bhattacharya Tribhuwan Singh
          भाई, अपने Ugra Nath भाई आपका मजाक नहीं उड़ा रहे हैं। दरअसल बहुत खरा और सच बोलने वाला इंसान आज के दौर में झूठा समझ लिया जाता है और मक्कार इंसान भला। उग्र भाई हम सबके बड़े भाई हैं। उन्होंने वाकई में आपकी जानकारी को स्वीकार कियाहै। अब उनकी इस शैली से आप भी धीरे धीरे वाकिफ हो जाएंगे
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        • Ugra Nath नहीं , बिल्कुल नहीं । Seriously, I said .See Translation
        • Tribhuwan Singh माफी चाहता हूँ अगर कोई अपराध किया हो तो पर ज्ञानी वाली गाली न दे।।। हा हा हा
        • Sudha Raje ज्ञान के नाम पर उनका एकमात्र ध्येय किसी तरह अंग्रेजी समझने-जानने और इसके बाद स्थापित नौकरियों में जगह पाना है। ताकि उनका शुमार भी शारीरिक श्रम को हेय समझने वाले उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था में हो जाएTruthSee Translation
        • Tribhuwan Singh सुमंत दा क्या है जन सामान्य की अवधारणा मेरे प्रश्न के सन्दर्भ में। आप लोग पत्र जगत से जुड़े है । आपको इन बातो का ज्यादा अनुभव होता है।
        • Tribhuwan Singh मेरा मानना है कि जनसामान्य में यही बात फैलाई गयी है की दलितों को शिक्षा से वंचित किया गया है। मेरी भी यही अवधारणा थी कुछ वर्ष पूर्व तक ।
        • Tribhuwan Singh फिर मैंने इलाहावाद विश्वविद्यालय में गाँधी भवन में " PG Diploma in Gandhiyan thought and peace studies" में दाखिला लिया ।वहां गाँधी जी के ऊपर एक thesis लिखना होता है ।मैंने कॉपी पेस्ट के बजाय ओरिजिनल रिसर्च करने की सोची।
        • Tribhuwan Singh मेरा टॉपिक था "Gandhi-Hartog Controversy:Britshers are responsible for illiteracy in India ".
        • Bharti Subedi Rawat sumant new socialist theory give importance to all kind of labor manual and mental but as i think in our country it is not acceptable coz of stratification of caste up to down and its link with prestige dignity of labor is less important
        • Rajja Murad क्या वास्तव मेँ ब्रिटिशर भारत की इललिट्रैशी के लिए जिम्मेदार है ? और अगर हाँ तो कौन कौन से व्यक्तियो को इसमेँ जिम्मेदार माना जाए , वेदो के अनुवाद करने वाले या इतिहास के अलग अलग कालखण्डो को लिखने वाले ? @त्रिभूवन सिहँSee Translation
        • Tribhuwan Singh १९३१ के गोलमेज सम्मलेन के दौरे पर ब्रिटेन में गांधी जी ने चैथम लाइन्स में भारतीयों और अंग्रेजों को सम्बोधित करते हुए गांधी ने भारत की समस्यायों और उनके निदान के सन्दर्भ में जब गांधी ने ये कहा कि " भारत आज जितना शिक्षित है (यानि १९३१ में ) , आज से ५० या १०० वर्ष पहले इससे कई गुना शिक्षित था " गांधी के इस बयां ने पूरे गोरी बिरादरी, जो भारत में शासन करना "White men s burden ) समझते थे , उनके विद्वानों में एक खलबली मच गयी /
        • Tribhuwan Singh फिलिप्स hodtog ,जो उस समय dhaka विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर थे , उन्होंने गांधी जी को challange किया कि या तो गांधी अपनी बात को प्रमाणित करें या सार्वजनिक रूप से माफी मांगें / इस पर गांधी ने hodtog को कहा कि यदि मैं गलत सिद्ध हुवा , तो मैं इस से ज्यादा धूम धाम से इस बात को कहूँगा कि मैंने गलतबयानी कि थी / ये विवाद ८ साल चला १९३९ तक दूसरे विश्वयुद्ध के शुरुवात तक /
        • Rajja Murad सुमँत जी , आप मेरे द्रष्टीकोण पर प्रश्न उठाने की बजाय , जो टिप्पणीया रखी उनके सन्दर्भ मेँ कुछ बताते तो अच्छा लगता , । आप मेरी टिप्पणीयो को प्रश्न की तरह ले , बजाय आवेश के । और वैस क्या मेँ हल्दी के पेन्टेट पर हुयी बहस को इसलिए जानूँ कि वो लन्दन मेँ हुयी ? मैँ जरुर जानना चाहुँगा , लेकिन वजह तो मालूम हो ।See Translation
        • Rajja Murad क्या गाँधी जी की उक्त बात का वास्तव मेँ ही कोई प्रमाणिक आधार था ? और क्या साबित हुआ , उसके बाद ? या गाँधी जी ने मुगलकाल की पढी लिखी मुस्लिम आबादी के प्रँसग मेँ ये बात रखी ?See Translation
        • Tribhuwan Singh सुमंत दा आप कहेंगे कि इतनी बड़ी प्रस्तावना क्यों पेश कर रहे हैं --- प्रस्तावना इसलिए कि इसका सम्बन्ध उस जिज्ञासा से है ,,,जिसमे ये भ्रम है समाज में कि ब्राह्यणों ने दलितों को शिक्षा से (वेदों कि और वैदिक काल कि बात नहीं कर रह मैं ) वंचित किया ?? ब्राम्हणवाद का सबसे प्रबल विरोध इसी बात से है , जहाँ तक मेरा ज्ञान है ...इसमें कुछ ऐसे विद्वान भी मिलेंगे जो इस बात को खारिज करेंगे कि जो मैं बोल रहा हूँ गलत है ,,तो उसका रिफरेन्स भी देना पड़ेगा / मिलेंगे ठीक एक घंटे बाद अगर कोई जिज्ञासु प्रश्न करेगा तो /

          • Tribhuwan Singh मुग़ल काल के बारे में गांधी ने कुछ नहीं लिखा न कहा ,,लेकिन मेरा अनुमान है मुग़ल काल में मुसलानों ने जो फ़ारसी और अरबिक मदरसे चलाये उसमे सिर्फ मुस्लिम ही प्रवेश पाते थे ..अगर इससे इतर बात है तो आप बताएं ? Rajja Murad ji
          • Rajja Murad चुँकि आपकी टिप्पणी मेँ गाँधी जी का व्यक्तवय भारत के सन्दर्भ मेँ था , ना कि किसी पर्टिकूलर वर्ग के । दुसरी बात गाँधी जी ने जो समयावधि बतायी वो मुगल और मुस्लिम काल के आस पास है , जिस दिन ये बात बोली , उससे पचास साल पिछे जाऐँगे तो क्रान्ति से पहले का समय रहा होगा । अब क्रान्ति के बाद ब्रिटिशो ने क्रान्ति के बाद मुस्लिम को मुख्य षडयँत्रकारी मान लिया था , हालाँकि मै ये दावा नही करता ब्रिटिशो ने मुस्लिमो को शिक्षा से वँचित किया , इसलिए भारत की शिक्षा का स्तर घट गया , लेकिन गाँधी जी की उक्त बात से ये कहीँ भी सिद्ध नही होता कि ब्राह्मणो नेँ दलितो को शिक्षा से लौटपोट कर रखा था और ब्रिटिशो नेँ वँचित कर दियाSee Translation
          • Tribhuwan Singh मुस्लमान छात्रों का भी जिक्र है मेरे आने वाले वक्तव्यों में । धैर्य धारण करें ।
          • Rajja Murad खैर आपके अनुमान से कोई इतेफाक नही , ओर मदरसो का प्रवक्ता तो मैँ बिल्कुल भी नही हुँ । अगर मदरसो मे शिक्षा हासिल होती थी तो शेख , जुलाहे ओर तेली सब ही पढते रहेँ होगेँ ।See Translation
          • Tribhuwan Singh खैर ब्राम्हणविरोधयों के लिए एक छोटी सी सुचना है ,,जो ये मानते हैं कि दुष्ट ब्राम्हणों ने वैदिक काल से ही अछूत..शूद्र और दलितों को प्रताणित किया ..
          • Tribhuwan Singh I mean in above blog posted by me ..
          • Tribhuwan Singh यद्यपि मेरे कांमेंट्स लेखक द्वारा उठाये गए विषय से एकदम 100 प्रतिशत मैच नहीं करते। लेकिन यदि सुमंत दा अगर बोलेंगे तो मैं आगे कुछ और लिखूंगा।
          • Sumant Bhattacharya Rajja Murad भाई जान पोस्ट आपकी समझ में आई नहीं, जरा खुले दिल से गौर से पढ़ें, ज्ञान के अनुशासन पर अपनी आपत्ति दर्ज कराएं..विरासत को खारिज करने पर अपनी आक्रामकता समझाएं,,,बात कुछ और आप कुछ और लेकर उड़े फिर हाहाकार मचा दें..यह तो मायावती के गिरोह वाले करते हैं,जो चौतरफा खारिज हो रहे हैं। बहुत साफ शब्दों में बेहद पारदर्शी से तरीके से सब कुछ लिखा है,पर ना जाने क्यों आप अपनी ही धुन में मस्त हैं।See Translation
          • Tribhuwan Singh Ugra Nath sir सबको ब्राम्हण होना है ,,लेकिन ब्राम्हण होना आसान नहीं है , उसकी कुछ विशेषता और क्वालिफिकेशन होती है --विद्यावान अस्तेय अपरिर्ग्रह शौच आदि / क्या संभव है सबके लिए - इस स्थिति को प्राप्त करना ...
          • Tribhuwan Singh और विद्या कि परिभाषा - "आवंछकी ,त्रयी ,वार्ता दण्डनीतिति विद्या "
          • Tribhuwan Singh सुमंत डा मैं आपके पोस्ट पर उपस्थित सुधीजनों के कोई कमेंट न आने से अनुत्साहित महसूस कर रहा हूँ -- मुझे लग रहा है कि एक विद्यावान के पोस्ट पर कोई पागल प्रलाप कर रहा है /
          • Tribhuwan Singh "घूरे के दिन फिरने वाले हैं क्या?" अवधी में कहते है - " घूरव क दिन फिरा थै " इस पर कल कुछ लिखूंगा /
            सन्दर्भ है -- मोदी जी द्वारा शुरुवात किये गए - भारत स्वच्छता अभियान के सन्दर्भ में
          • डा. प्रदीप कुमार मिश्र त्रिभुवन सर! कम-अज़-कम मैं बड़े ध्यान से पढ़ रहा हूँ, और आगे भी पढ़ना चाहता हूँ.....
          • Tribhuwan Singh relieved that I am not Pappu ,,atleast I have one person , who plans to vote for me . Thanks Pradip sir .
          • Ugra Nath फिर वही गलती , मेरे ख्याल से , भाई साहेब ! गुण धर्म के चक्कर में पड़ गये । सब झूठे हैं । आज जो ब्राह्मण ऐंठे ऐंठे घूम रहे हैं, उनमें कोई ब्राह्मणत्व है , जिसका उल्लेख आपने किया और ठीक ठीक ही किया ? कभी कभी मेरी तरह सड़क छाप सोचिये । आज ब्राह्मण की ज़मीनी परिभाषा है - जन्म से श्रेष्ठता की अहंमन्यता ! ज्ञान हो न हो, ज्ञानी होने का दंभ, आडम्बर - अहंकार ढोना । ब्राह्मण माने - श्रेष्ट,उच्च,उत्कृष्ट , होना नहीं, होने का दिखावा करना, दूसरों से मनवाना । अपना पैर छुआने की चाह रखना , पूज्य के रूप में माने जाने का आग्रह करना, छल छछ्न्द फैलाना ।
            अब दूसरी ओर देखिये । इससे जन्मना जाति की क्या शर्त ? प्रत्येक जाति के नर नारी ही यही ब्राह्मण होना चाहते हैं । महान माने जाने की अंधी दौड़ में शामिल हैं । जो नहीं हैं वे होना चाहते हैं और बाकी आगे शामिल ही जायेंगे । यही है उस ब्राह्मणत्व की नियति । बालू के ढेर पर खड़ा शीशमहल ! यही आधुनिक सभ्यता की कहानी है । मैं प्रत्येक भविष्य का ज्ञाता नहीं हूँ । फिर भी आशान्वित हूँ कि यह छद्म जब मिटेगा, पुराना जर्जर महल गिरेगा , तब उदय होगा जन्मना जात पात से निरपेक्ष, वर्ण संप्रदाय रहित, ऊँच नीच विहीन असली आध्यात्मिक गुण धर्मवादी ब्राह्मणत्व जिसका उल्लेख आपने किया , और बिल्कुल ठीक ही तो किया !
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          • Tribhuwan Singh सर आप मॉडर्न ब्राम्हण की बात कर रहें है। अब ओरिजिनल कहाँ बचे सर ।
          • Tribhuwan Singh रजा मुराद जी ब्रितिशेर्स ने भारत को शिक्षित किया कि भारत की शिक्षा प्रणाली को इम्पोर्ट किया । ये एक जुदा मुद्दा है। प्राचीन काल रोमन युग से यानि प्राचीन से अर्वाचीन काल तक। सुमंत भाई से आग्रह करूंगा कि इस पर एक नई पोस्ट अलग से डालें तो विमर्श हो सकेगा
          • Tribhuwan Singh अभी तो बात उसी पर अंटकी है कि क्या ब्राम्हणवाद के विरोधी दलित चिंतकों के उस तथ्य की, कि क्या ब्राम्हणों ने दलितों को शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकार से वंचित रखा ?? और रखा तो क्या इसके प्रमाण पेश किये जा सकते हैं?? या फिर विद्या के एक आयाम वार्ता के तहत सिर्फ तर्क वितर्क और कुतर्क तक की ही ये यात्रा है विमर्श की??
          • Tribhuwan Singh मेरा आग्रह है कि सुधीजनों की राय अभी तक स्पस्ट नहीं हो पायी इस सन्दर्भ में।
          • Tribhuwan Singh सुमंत डा बीच में आप के शीर्षक से जुडी एक तथ्य नरेन्द्र कोहली के अभ्युदय से उद्धृत --गतिहीन ब्राम्हण के सन्दर्भ में।
            जब विश्वामित्र दशरथ जी से राम और लक्षिमन को यज्ञ की पूर्ती हेतु वन ले जा रहे थे तो राम ने एक जिज्ञासा प्रकट की- " ऋषिवर आपके पास शाष्त्र के साथ साथ शश्त्रों का भी भण्डार है, और आप की तुलना में दिव्यश्त्रों का ज्ञान भी मुझे नहीं है , फिर आप उन राक्षसों से स्वयम न लड़ कर हमें क्यों ले जा रहे है ??
          • Tribhuwan Singh गुरु विश्वा मित्र हँसे और बोले- " प्रकृति का न्याय बड़ा विचित्र है पुत्र। प्रकृति किसी एक व्यक्ति को सम्पूर्ण शक्तियां नहीं देती ।दो पक्ष हैं पुत्र। एक चिंतन और दूसरा कर्म। यह भी एक अदभुत नियम है कि जो चिंतन करता है , जो न्याय अन्याय की बात सोचता है , सामाजिक कल्याण की बात सोचता है , उसके व्यक्तित्व का चिंतन-पक्ष विकसित होता है और उसका कर्म पक्ष पीछे छूट जाता है। तुम देखोगे पुत्र की चिन्तक सिर्फ सोचता
          • Tribhuwan Singh है । वह जानता है कि क्या उचित है क्या अनुचित ।समाज और देश में क्या होना चाहिए क्या नहीं ।किन्तु चिंतन को कर्म में परिणित कर पाना उसके बस में नहीं होता। उसकी कर्म शक्ति क्षीण हो जाती है। वहां केवल मस्तिस्क रह जाता है ।दूसरी ओर जो न्याय और औचित्य राष्ट्र और समाज की बात न सोचते हुए सिर्फ स्वार्थ बस कम करते हैं , वो कर्म उनको राक्षस बना देता है ।न्याय और अन्याय का विचार मनुष्य को ऋषि बना देता है। और पुत्र , ऐसे लोग जिनमे न्याय-अन्याय का विचार और कर्म दोनों हों ,ऐसे अद्भुत लोग संसार में बहुत कम है । जनसामान्य ऐसे ही लोगों को इश्वर का अवतार मान लेता है।जब न्यायपूर्ण कर्म करने की शक्ति किसी में आ जाय और जनसामान्य का नेतृत्व अपने हाँथ में लेकर आगे बढे, अन्याय का विरोध करे , तो उसमे प्रकृति की शक्तियां पूर्णता में साक्षात् हो उठती हैं ।जब मुझमे कर्म था तब चिंतन नहीं था ;पर जब आज चिंतन है ज्ञान है, ऋषि कहलाता हूँ तो कर्म की शक्ति मुझमे नहीं है। सामान्यतः बुद्धिवादी ऋषि अपंग और कर्म शून्य हो जाया है। इसीलिये मुझे तुम्हारी आवश्यकता है राम।
          • Tribhuwan Singh फिर बोले-"जब तुम मेरे आदेश के अनुसार काम करोगे तो तुम मेरे पूरक कहलाओगे। किन्तु जब तुम स्वयं न्याय की बात सोचकर स्वतंत्र कर्म करोगे तो अवतार कहलाओगे।"

1 comment:

  1. हम जब देश के लिए एक #समान_नागरिक_संहिता की बात करते हैं तो हमें एक #समान_हिन्दू_संहिता की भी बात कर ही लेना चाहिए जिसमे तथाकथित अवर्ण और स्वर्ण लोगों को अपनी कुंठाए एवं पूर्वाग्रह छोड़कर विमर्श करना चाहिए।
    पता नहीं मैं कही विषय वस्तु से अलग तो नहीं सोंच रहा हूँ।

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