Monday 13 October 2014

"जन्मना जायते शूद्रः कर्मणाय द्विजः भवति " एक मिथ नहीं एक सच ; प्रमाण कौटिल्य अर्थशास्त्रम्

 ब्रा॒ह्म॒णो॓‌உस्य॒ मुख॑मासीत् । बा॒हू रा॑ज॒न्यः॑ कृ॒तः ।
ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ । प॒द्भ्याग्ं शू॒द्रो अ॑जायतः

 आंबेडकर जी के पूर्व के क्रिश्चियन मिशनरियों के लेखक और इतिहासकारों ने ऋग्वेद के पुरुष शूक्त को आधार बनाकर समाज में राजनैतिक और धर्म परिवर्तन के लिहाज से  प्रमाणित  करने कि कोशिश की कि वैदिक काल से ये समाज का वर्गीकरण कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित रहा है / उसी विचार को बाद में मार्क्सिस्टों ने और आंबेडकर वादियों ने आगे बढ़ाया / १९०१ की के पूर्व जाति आधारित  जनगणना भी नहीं होती थी (पहली जनगणना १८७१ में हुयी थी ) बल्कि वर्ण और धर्म के आधार पर होती थी/ १९०१ में जनगणना कमिशनर रिसले नामक व्यक्ति ने ढेर सारे त्रुटिपूर्ण तथ्यों और एंथ्रोपोलॉजी को आधार बनाकर १५०० से अधिक जातियों और ४३ नश्लों में भारत के हिन्दू समाज की जनगणना की / वही  जनगणना भारतीय हिन्दू समाज का आजतक जातिगत विभाजन का मौलिक आधार है /
   पुनश्च :  गीता के -"जन्मना जायते शूद्रः कर्मण्य द्विजः भवति " को इतिहासकार प्रमाण नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार महाभारत एक मिथ है /
 लेकिन अभी मैं कौटिल्य अर्थशाश्त्रम् पढ़ रहा था तो एक रोचक श्लोक सामने आया / " दायविभागे अंशविभागः " नामक अध्ह्याय में पहला श्लोक है -"एक्स्त्रीपुत्राणाम् ज्येष्ठांशः ब्राम्हणानामज़ा:, क्षत्रियनामाश्वः वैश्यानामगावह , शुद्रणामवयः "
अनुवाद : यदि एक स्त्री के कई पुत्र हों तो उनमे से सबसे बड़े पुत्र को वर्णक्रम में इस प्रकार हिस्सा मिलना चाहिए : ब्राम्हणपुत्र को बकरिया ,क्षत्रियपुत्र को घोड़े वैश्यपुत्र को गायें और शूद्र पुत्र को भेंड़ें /
दो चीजें स्पस्ट होती हैं की वैदिक काल से जन्म के अनुसार वर्ण व्यस्था नहीं थी क्योंकि कौटिल्य न तो मिथ हैं और  न प्रागैतिहासिक / ज्येष्ठपुत्र को कर्म के अनुसार ही हिस्सा मिलता था/ और एक ही मान के पुत्र कर्मानुसार किसी भी वर्ण में जा सकते थे /

5 comments:

  1. अच्छी जानकारी दी है आपने

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  2. Tribhuwan ji. Sadar Namaskar. Aapko is vishay par Acharya Kishor Kunal ki pustak Dalit Devo Bhava ka adhyayan karna chahiye. Apke udahran kafi kam hain, aapko kam se kam panch aur praman dene chahiye. Dhanyavad.

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  3. कोशिश करूंगा /

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  4. स्वार्थ त्याग हमारी संस्कृति रही है। किंतु जब-जब हम स्वार्थी हो जाते हैं अर्थ का अनर्थ ही करते हैं।

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