नैचुरल जस्टिस क्या होता है ?समाज मे जो जितना सम्मानित और जिम्मेदार हो , उसको उसकी गलतियों के लिए उसी अनुपात मे दंड का प्रावधान हो / ये ब्रिटिश द्वारा बनाए कानूनी प्रक्रिया का अंग नहीं है , परंतु भारतीय परंपरा का अंग रहा है / गुलाम बनाना सनातन धर्म का अंग नहीं रहा कभी/ उसके लिये नैचुरल जस्टिस था / इस अपराध के लिए ब्रामहन को प्राण दंड/
"उदर दास को छोड़कर आर्यों के नाबालिग शूद्र वैश्य क्षत्रिय या ब्राम्हण को यदि उनके ही परिवार का कोई व्यक्ति बेंचे या गिरवी रखे तो उन पर क्रमशः बारह पण , चौबीश पण ,छत्तीश पण और अड़तालिश पण का दंड किया जाय / या इन्ही नाबालिग शूद्र आदि को यदि कोई दूसरा व्यक्ति बेंचे या गिरवी रखे ,तो उक्त करम से उनको प्रथम ,माध्यम ,उत्तम साहस और प्राण बढ़ का दंड दिया जाय / यही दंड खरीददारों और इस मामले में गवाही देने वाले का भी किया जाय / " - कौटिल्य अर्थशास्त्रम
" जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , और महिला मातहतों को अनुचित दंड दे ,उसके सतीत्व को नष्ट करे ,नग्न अवस्था में उनके पास जाय, या नंगा कराकर अपने पास बुलाये तो उसके धन जब्त कर लिया जाय / यदि यही व्यवहार दाई (धात्री) परिचारिका , अर्धसीतिका ,,और उपचारिका से करवाया जाय तो उन्हें दासकार्य से मुक्त कराया जाय / यदि उच्चकुलुत्पन्न दास से उक्त कार्य करवाया जाय तो वह दासकर्म को छोड़कर जा सकता है / "--तीसरा अधिकरण --दासकर्मकरकल्पम्
" जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , उसके धन जब्त कर लिया जाय--Kautiya
डॉ अंबेडकर ने जब राजनीति मे कदम रखा तो बहुसंख्यक जनता जो एक्सपोर्ट क्वालिटी मैनुफेक्चुरिंग करती थी , और जो छोटे कृषक थे , वे बेरोजगार और बेघर हो चुके थे / कार्ल मार्क्स के 1853 के लेख के अनुसार 1815 मे ढाका मे 150,000 वस्त्र निर्माता थे , जिनकी संख्या 1835 मे घटकर मात्र 20,000 बची / कहाँ गए 130,000 लोग और उनकी भावी वंशजे ?
विल दुरान्त और गणेश सखाराम सेउसकर के अनुसार 1875 से 1900 के बीच 2.5 कारों अन्न के अभाव मे काल के गाल मे समा जाते है / ऐसा नहीं था कि अन्न कि कमी थी , उनके पास अन्न खरीदने के लिए धन ही नहीं था / शहरो से लोग गावों की ओर भागे जहां उनको शरण मिली / और गाव के किसान जमीन जब्त होने के पश्चात शहरो की ओर / विल दुरान्त के अनुसार - इनमे से कुछ को , 1930 तक कारखानो और खदानों मे कुल श्रमिकों की संख्या 14 लाख मात्र थी , उसका हिस्सा बनने का सौभाग्य प्रपट हुआ / बाकी बचे लोगों मे जो सौभाग्यशाली थे उनको गोरो का मैला उठाने का काम मिला , क्योंकि गुलाम अगर इतने सस्ते हो तो सौचालय बनवाने की मुसीबत कौन पाले /
जबकि अमिय कुमार बघची के हैमिल्टन बूचनान के हवाले से दिये गए आकडे के अनुसार 1809- 1813 के बीच मात्र पूर्णिया और भागलपुर से 6.5 लाख लोग परंपरागत व्यवसाय से विस्थापित हुये / अब आप पूरे देश मे सोचिए कितनी बड़ी संख्या मे लोग बेरोजगार हुये होंगे ?
लेकिन डॉ अंबेडकर ने कभी भी मूल श्रोतो की ओर नजर न डाली , न कौटिल्य को पढ़ा और न ही तात्कालिक स्थापित लेखको को / उनके श्रोत कौन थे ? तथा कथित संस्कृतज्ञ कट्टर ईसाई , जिनके संस्कृत के ज्ञान पर प्रश्ञ्चिंह खड़े हो रहे हैं , जिंका उद्देश्य ही इसाइयत को हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ प्रमाणित करना था /
डॉ अम्बेदकर ने जब "पुरुषसूक्ति" को आधार मानकर ,,वर्ण व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया / तो उनका ये निष्कर्ष कि ''चूंकि शूद्र उस विराट पुरुष के पैरों से पैंदा हुवा है , इसलिए 1900 के बाद भारत के एक बड़ा वर्ग " शूद्र" जैसे घृणित श्रेणी में ,,घृणित काम (Menial जॉब) करने के लिए मजबूर हुवा / और इसके पीछे ब्राम्हणो की शाजिश थी जिन्होंने धूर्ततापूर्वक ऋग्वेद के उस सूक्ति को एक क्षेपक के रूप मे जोड़ दिया (interpolation ) /
लेकिन फिर उसी सूक्ति से ये भी निकल के आता है कि उसी विराट पुरुष के पैरों से हिरण्यगर्भा धरती भी उत्पन्न हुई /
लेकिन सवाल ये है कि जब डॉ अम्बेदकर ये कहते हैं कि उनकी इस हाइपोथिसिस पर इसलिए कोई प्रश्न चिंह नहीं लगा सकता क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते थे , क्योंकि जितने धर्मग्रन्थ थे सबका ,अनुवाद हो चुका है / तो फिर ये भी देखना चाहिए कि किन संस्कृतविदों के अनुवाद से उन्होंने अपनी थीसिस के लिए "मटेरियल एंड मेथड " लिए ? उन संस्कृतविदों की संस्कृतज्ञ होने के क्लेम में कितना दम है ?? और दूसरी बात ये है , की इन संस्कृतज्ञों के संस्कृत में रूचि का कारण अकादमिक था , कि कुछ इतर उद्देश्य थे ?? कम से कम इतना तो सभी मानेंगे कि ये विदेशी संस्कृतज्ञ भारत में फिलैंथ्रॉपी के उद्देश्य से तो नहीं ही आये थे ??
तो क्यों न उनकी जांच कर लिया जाय जिनके पुस्तकों से डॉ अम्बेदकर ने अपनी थेसिस के लिए "मटेरियल एंड मेथड " लिया था / क्या यह अप्रसांगिक है ??
लेकिन आगे बढ़ने के पहले एक संक्षिप्त टिप्पड़ी ,,,, "भंगी " पर /
गांधी ने कहा कि अछूत ,भंगी और मलप्रक्षालन जैसी शर्मनाक कुव्यवस्था ,हिन्दू समाज और हिंदूइस्म के माथे पर एक कलंक है, जब तक हिन्दू समाज इस कलंक से अपने आपको मुक्त नहीं करता, हिन्दू धर्म अपने गौरव को पुनः प्राप्त नहीं कर पायेगा / गांधी जैसे घोर हिन्दू नेता , जब हिन्दुस्म को इस कलंक के लिए जिम्मेदार मान लेता है और प्रायश्चित स्वरुप स्वयं शौचालयों को साफ़ करने का बीड़ा उठाता है और अपनी पत्नी को ,,दक्षिण भारत में एक अछूत के सौचालय को साफ़ करने से इंकार करने के कारण , मध्य रात्रि में, घसीटते हुए घर के गेट तक घसीटते हुए ले जाता हैं ,,,और गुस्से से कहते हैं कि -" सुन लो ये घर मेरा है , और जो मेरे बनाये हुए नियमों का पालन नहीं करेगा उसको मेरे घर में रहने का कोई अधिकार नहीं है "/ ( लुइस फिशर - लाइफ ऑफ़ महात्मा गांधी )
गांधी जी जब इंग्लॅण्ड में बैरिस्टरी कि पढाई कर रहे थे , तो ब्रिटेन का कब्ज़ा लगभग पूरे विश्व पर था / उनका सूर्य डूबता ही नहीं था / तो ब्रिटिशर्स, और उनके "सत्य धर्म " (ईसाइयत) का अहंकार का सूर्य भी कि तरह दैदीप्यमान था / गांधी के पास इंग्लॅण्ड में निवास के दौरान ,ईसाइयत में धर्म परिवर्तन के लिए अनेकों बार आवेदन आया था / लेकिन उन्होंने ईसाई बनने से इंकार कर दिया / हालांकि कहीं हमने पढ़ा तो नहीं लेकिन लगता है कि हिन्दू धर्म न छोड़ने के लिए उनको उस समय भारत में प्रचलित अछूत और मल प्रच्छालन प्रथा के लिए उन्हें काफी जलील किया गया होगा जिसकी सफाई में बोलने के लिए ,, उनके पास कोई तर्क नहीं रहा होगा / यहाँ दो प्रश् उठते है-
(१) उन्होंने जब हिंदूइस्म को शुद्ध करने का वीड़ा उठाया तो उस जनसमूह को नाम दिया --" हरिजन " /
लेकिन हरिजन शब्द को भी अशुद्ध कर दिया उस समाज के चिंतकों ने स्वतंत्र भारत में / क्या तर्क --"हरिजन का मतलब जिसका जन्मदाता भगवान हो" . यानी जिसके बाप का पता न हो यानि जिसके बाप भगवान हो, अर्थात हरामी / कितना विकृत किया समाज को दलित चिंतकों ने ?? अर्थात हरिजन से उसको हरिजना बना दिया /
सज्जन का अर्थ --क्या सत ( सज्जन व्यकित ) का पुत्र ?? या जिसमें सच्चे व्यक्ति के गुण हों / दुर्जन का क्या मतलब == दुस्ट बाप कि संतान ?? या जिसके चरित्र में गन्दगी भरी हो /
तो फिर हरिजन का मतलब -- भगवान की संतान यानि जिसके बाप का पता न हो ?? या जिसके अंदर भगवान के सत्चितानन्द का गुण हो /
लेकिन घृणा की असीम कीचङ में आकंठ डूबे दलित चिंतकों ने गांधी के नाम का परित्याग कर,दलित शब्द से बिभूषित होना ज्यादा उचित समझा जिसका मतलब oppressed caste एक्ट तहत depressed class का गठन , जो 1935 में रानी विक्टोरिया ने रची -- उसके हिंदी अनुवाद को --दलित शब्द से नवाजा जाना ज्यादा उचित समझा /
(२) दूसरा है सूचनाओं के श्रोत का मामला --- गांधी के पास भी वही ,,ग्रन्थ उपलब्ध थे ,ब्रिटिश अधिकारयों और पादरियों के द्वारा हिंदूइस्म को बाइबिल के फ्रेमवर्क में परिभाषित करने का / लेकिन उन्होंने उनके खिलाफ जंग तो छेड़ा लेकिन उनको अपने देश की परम्पराओं पर दृढ विश्वास था इसीलिये भारतीय राजनीति में पैर रखने के पूर्व भारत का भ्रमण किया , गोखले के निर्देश पर , और इसीलिये वे गीता का भी अपने हिसाब से अनुभाषित करने और समझने में सक्षम रहे - गीता माता /
लेकिन आंबेडकर भारतीय राजनीति में 1925 के आस पास भारतीय राजनीति में उदित होते हैं और 1931 में इंग्लॅण्ड में गांधी के बगल बैठकर ,,गोलमेज सम्मलेन में उन्ही ब्रिटिशर्स द्वारा उजाड़े गए लोगों को एक अलग कम्युनिटी की तरह रिप्रेजेंट करते हैं , और कम्युनल अवार्ड से सम्मानित होते है /
क्या अप्रसांगिक है इसकी विवेचना करना?
डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक -" अछूत कौन और कैसे " में मैला ढोने की 1900 के आसपास प्रचलित सामाजिक बुराई को, ऋग्वेद में पुरुश्सूक्ति के ब्राम्हणों के द्वारा बाद में घुसेड़े जाने यानी क्षेपक , से जोड़कर थीसिस लिखी है ।
लेकिन किस युग में ??
ये नहीं बताते ।
लेकिन अपनी थीसिस के "मटेरियल और मेथड " को प्रमानित् करने के लिए नारदस्मृति को प्रमाण के रूप में उल्लिखित करते हैं ।
लेकिन नारद तो मिथक थे । और सतयुग में पाए जाते थे । कितने साल पहले ??
तो फिर ये भी , एक अलग तस्वीर ये है कि सतयुग में प्रचलित हुए -- मैला धोने और ढोने की परंपरा को चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु , ऐतिहासिक भारत के सबसे बड़े राजनीतिज्ञ कौटिल्य ने , कलयुग में उसका सुधार किया /
वैसे भी धरमपाल जैसे गांधीवादी ने अपनी पुस्तक -"The Beautiful Tree" में भारत में मैकाले की शिक्षा लागू होने के पूर्व , देशी शिक्षा के जरिये शिक्षित होने वाली 1830 के आसपास की जो लिस्ट प्रकाशित की है ,उनके लिस्ट में स्कूल जाने वाले शूद्र छात्रो की संख्या , तथाकथित विद्वान ब्रम्हाण छात्रो से चार गुना है ।
आंबेडकर जी के पूर्व के क्रिश्चियन मिशनरियों के लेखक और इतिहासकारों ने ऋग्वेद के पुरुष शूक्त को आधार बनाकर समाज में राजनैतिक और धर्म परिवर्तन के लिहाज से प्रमाणित करने कि कोशिश की कि वैदिक काल से ये समाज का वर्गीकरण कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित रहा है / उसी विचार को बाद में मार्क्सिस्टों ने और आंबेडकर वादियों ने आगे बढ़ाया / 1901 के पूर्व जाति आधारित जनगणना भी नहीं होती थी (पहली जनगणना 1871 में हुयी थी ) बल्कि वर्ण और धर्म के आधार पर होती थी/ 1901 में जनगणना कमिशनर रिसले नामक व्यक्ति ने ढेर सारे त्रुटिपूर्ण तथ्यों और एंथ्रोपोलॉजी को आधार बनाकर 1500 से अधिक जातियों और 42 नश्लों में भारत के हिन्दू समाज की जनगणना की / वही जांगना आजतक जातिगत विभाजन का मौलिक आधारहै /
पुनश्च : गीता के -"जन्मना जायते शूद्रः कर्मण्य द्विजः भवति " को इतिहासकार प्रमाण नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार महाभारत एक मिथ है /
लेकिन अभी मैं कौटिल्य अर्थशाश्त्रम् पढ़ रहा था तो एक रोचक श्लोक सामने आया / " दायविभागे अंशविभागः " नामक अध्ह्याय में पहला श्लोक है -"एक्स्त्रीपुत्राणाम् ज्येष्ठांशः ब्राम्हणानामज़ा:, क्षत्रियनामाश्वः वैश्यानामगावह , शुद्रणामवयः "
अनुवाद : यदि एक स्त्री के कई पुत्र हों तो उनमे से सबसे बड़े पुत्र को वर्णक्रम में इस प्रकार हिस्सा मिलना चाहिए : ब्राम्हणपुत्र को बकरिया ,क्षत्रियपुत्र को घोड़े वैश्यपुत्र को गायें और शूद्र पुत्र को भेंड़ें /
दो चीजें स्पस्ट होती हैं की वैदिक काल से जन्म के अनुसार वर्ण व्यस्था नहीं थी क्योंकि कौटिल्य न तो मिथ हैं और न प्रागैतिहासिक / ज्येष्ठपुत्र को कर्म के अनुसार ही हिस्सा मिलता था/ और एक ही मा के पुत्र कर्मानुसार किसी भी वर्ण में जा सकते थे /
"उदर दास को छोड़कर आर्यों के नाबालिग शूद्र वैश्य क्षत्रिय या ब्राम्हण को यदि उनके ही परिवार का कोई व्यक्ति बेंचे या गिरवी रखे तो उन पर क्रमशः बारह पण , चौबीश पण ,छत्तीश पण और अड़तालिश पण का दंड किया जाय / या इन्ही नाबालिग शूद्र आदि को यदि कोई दूसरा व्यक्ति बेंचे या गिरवी रखे ,तो उक्त करम से उनको प्रथम ,माध्यम ,उत्तम साहस और प्राण बढ़ का दंड दिया जाय / यही दंड खरीददारों और इस मामले में गवाही देने वाले का भी किया जाय / " - कौटिल्य अर्थशास्त्रम
" जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , और महिला मातहतों को अनुचित दंड दे ,उसके सतीत्व को नष्ट करे ,नग्न अवस्था में उनके पास जाय, या नंगा कराकर अपने पास बुलाये तो उसके धन जब्त कर लिया जाय / यदि यही व्यवहार दाई (धात्री) परिचारिका , अर्धसीतिका ,,और उपचारिका से करवाया जाय तो उन्हें दासकार्य से मुक्त कराया जाय / यदि उच्चकुलुत्पन्न दास से उक्त कार्य करवाया जाय तो वह दासकर्म को छोड़कर जा सकता है / "--तीसरा अधिकरण --दासकर्मकरकल्पम्
" जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , उसके धन जब्त कर लिया जाय--Kautiya
डॉ अंबेडकर ने जब राजनीति मे कदम रखा तो बहुसंख्यक जनता जो एक्सपोर्ट क्वालिटी मैनुफेक्चुरिंग करती थी , और जो छोटे कृषक थे , वे बेरोजगार और बेघर हो चुके थे / कार्ल मार्क्स के 1853 के लेख के अनुसार 1815 मे ढाका मे 150,000 वस्त्र निर्माता थे , जिनकी संख्या 1835 मे घटकर मात्र 20,000 बची / कहाँ गए 130,000 लोग और उनकी भावी वंशजे ?
विल दुरान्त और गणेश सखाराम सेउसकर के अनुसार 1875 से 1900 के बीच 2.5 कारों अन्न के अभाव मे काल के गाल मे समा जाते है / ऐसा नहीं था कि अन्न कि कमी थी , उनके पास अन्न खरीदने के लिए धन ही नहीं था / शहरो से लोग गावों की ओर भागे जहां उनको शरण मिली / और गाव के किसान जमीन जब्त होने के पश्चात शहरो की ओर / विल दुरान्त के अनुसार - इनमे से कुछ को , 1930 तक कारखानो और खदानों मे कुल श्रमिकों की संख्या 14 लाख मात्र थी , उसका हिस्सा बनने का सौभाग्य प्रपट हुआ / बाकी बचे लोगों मे जो सौभाग्यशाली थे उनको गोरो का मैला उठाने का काम मिला , क्योंकि गुलाम अगर इतने सस्ते हो तो सौचालय बनवाने की मुसीबत कौन पाले /
जबकि अमिय कुमार बघची के हैमिल्टन बूचनान के हवाले से दिये गए आकडे के अनुसार 1809- 1813 के बीच मात्र पूर्णिया और भागलपुर से 6.5 लाख लोग परंपरागत व्यवसाय से विस्थापित हुये / अब आप पूरे देश मे सोचिए कितनी बड़ी संख्या मे लोग बेरोजगार हुये होंगे ?
लेकिन डॉ अंबेडकर ने कभी भी मूल श्रोतो की ओर नजर न डाली , न कौटिल्य को पढ़ा और न ही तात्कालिक स्थापित लेखको को / उनके श्रोत कौन थे ? तथा कथित संस्कृतज्ञ कट्टर ईसाई , जिनके संस्कृत के ज्ञान पर प्रश्ञ्चिंह खड़े हो रहे हैं , जिंका उद्देश्य ही इसाइयत को हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ प्रमाणित करना था /
डॉ अम्बेदकर ने जब "पुरुषसूक्ति" को आधार मानकर ,,वर्ण व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया / तो उनका ये निष्कर्ष कि ''चूंकि शूद्र उस विराट पुरुष के पैरों से पैंदा हुवा है , इसलिए 1900 के बाद भारत के एक बड़ा वर्ग " शूद्र" जैसे घृणित श्रेणी में ,,घृणित काम (Menial जॉब) करने के लिए मजबूर हुवा / और इसके पीछे ब्राम्हणो की शाजिश थी जिन्होंने धूर्ततापूर्वक ऋग्वेद के उस सूक्ति को एक क्षेपक के रूप मे जोड़ दिया (interpolation ) /
लेकिन फिर उसी सूक्ति से ये भी निकल के आता है कि उसी विराट पुरुष के पैरों से हिरण्यगर्भा धरती भी उत्पन्न हुई /
लेकिन सवाल ये है कि जब डॉ अम्बेदकर ये कहते हैं कि उनकी इस हाइपोथिसिस पर इसलिए कोई प्रश्न चिंह नहीं लगा सकता क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते थे , क्योंकि जितने धर्मग्रन्थ थे सबका ,अनुवाद हो चुका है / तो फिर ये भी देखना चाहिए कि किन संस्कृतविदों के अनुवाद से उन्होंने अपनी थीसिस के लिए "मटेरियल एंड मेथड " लिए ? उन संस्कृतविदों की संस्कृतज्ञ होने के क्लेम में कितना दम है ?? और दूसरी बात ये है , की इन संस्कृतज्ञों के संस्कृत में रूचि का कारण अकादमिक था , कि कुछ इतर उद्देश्य थे ?? कम से कम इतना तो सभी मानेंगे कि ये विदेशी संस्कृतज्ञ भारत में फिलैंथ्रॉपी के उद्देश्य से तो नहीं ही आये थे ??
तो क्यों न उनकी जांच कर लिया जाय जिनके पुस्तकों से डॉ अम्बेदकर ने अपनी थेसिस के लिए "मटेरियल एंड मेथड " लिया था / क्या यह अप्रसांगिक है ??
लेकिन आगे बढ़ने के पहले एक संक्षिप्त टिप्पड़ी ,,,, "भंगी " पर /
गांधी ने कहा कि अछूत ,भंगी और मलप्रक्षालन जैसी शर्मनाक कुव्यवस्था ,हिन्दू समाज और हिंदूइस्म के माथे पर एक कलंक है, जब तक हिन्दू समाज इस कलंक से अपने आपको मुक्त नहीं करता, हिन्दू धर्म अपने गौरव को पुनः प्राप्त नहीं कर पायेगा / गांधी जैसे घोर हिन्दू नेता , जब हिन्दुस्म को इस कलंक के लिए जिम्मेदार मान लेता है और प्रायश्चित स्वरुप स्वयं शौचालयों को साफ़ करने का बीड़ा उठाता है और अपनी पत्नी को ,,दक्षिण भारत में एक अछूत के सौचालय को साफ़ करने से इंकार करने के कारण , मध्य रात्रि में, घसीटते हुए घर के गेट तक घसीटते हुए ले जाता हैं ,,,और गुस्से से कहते हैं कि -" सुन लो ये घर मेरा है , और जो मेरे बनाये हुए नियमों का पालन नहीं करेगा उसको मेरे घर में रहने का कोई अधिकार नहीं है "/ ( लुइस फिशर - लाइफ ऑफ़ महात्मा गांधी )
गांधी जी जब इंग्लॅण्ड में बैरिस्टरी कि पढाई कर रहे थे , तो ब्रिटेन का कब्ज़ा लगभग पूरे विश्व पर था / उनका सूर्य डूबता ही नहीं था / तो ब्रिटिशर्स, और उनके "सत्य धर्म " (ईसाइयत) का अहंकार का सूर्य भी कि तरह दैदीप्यमान था / गांधी के पास इंग्लॅण्ड में निवास के दौरान ,ईसाइयत में धर्म परिवर्तन के लिए अनेकों बार आवेदन आया था / लेकिन उन्होंने ईसाई बनने से इंकार कर दिया / हालांकि कहीं हमने पढ़ा तो नहीं लेकिन लगता है कि हिन्दू धर्म न छोड़ने के लिए उनको उस समय भारत में प्रचलित अछूत और मल प्रच्छालन प्रथा के लिए उन्हें काफी जलील किया गया होगा जिसकी सफाई में बोलने के लिए ,, उनके पास कोई तर्क नहीं रहा होगा / यहाँ दो प्रश् उठते है-
(१) उन्होंने जब हिंदूइस्म को शुद्ध करने का वीड़ा उठाया तो उस जनसमूह को नाम दिया --" हरिजन " /
लेकिन हरिजन शब्द को भी अशुद्ध कर दिया उस समाज के चिंतकों ने स्वतंत्र भारत में / क्या तर्क --"हरिजन का मतलब जिसका जन्मदाता भगवान हो" . यानी जिसके बाप का पता न हो यानि जिसके बाप भगवान हो, अर्थात हरामी / कितना विकृत किया समाज को दलित चिंतकों ने ?? अर्थात हरिजन से उसको हरिजना बना दिया /
सज्जन का अर्थ --क्या सत ( सज्जन व्यकित ) का पुत्र ?? या जिसमें सच्चे व्यक्ति के गुण हों / दुर्जन का क्या मतलब == दुस्ट बाप कि संतान ?? या जिसके चरित्र में गन्दगी भरी हो /
तो फिर हरिजन का मतलब -- भगवान की संतान यानि जिसके बाप का पता न हो ?? या जिसके अंदर भगवान के सत्चितानन्द का गुण हो /
लेकिन घृणा की असीम कीचङ में आकंठ डूबे दलित चिंतकों ने गांधी के नाम का परित्याग कर,दलित शब्द से बिभूषित होना ज्यादा उचित समझा जिसका मतलब oppressed caste एक्ट तहत depressed class का गठन , जो 1935 में रानी विक्टोरिया ने रची -- उसके हिंदी अनुवाद को --दलित शब्द से नवाजा जाना ज्यादा उचित समझा /
(२) दूसरा है सूचनाओं के श्रोत का मामला --- गांधी के पास भी वही ,,ग्रन्थ उपलब्ध थे ,ब्रिटिश अधिकारयों और पादरियों के द्वारा हिंदूइस्म को बाइबिल के फ्रेमवर्क में परिभाषित करने का / लेकिन उन्होंने उनके खिलाफ जंग तो छेड़ा लेकिन उनको अपने देश की परम्पराओं पर दृढ विश्वास था इसीलिये भारतीय राजनीति में पैर रखने के पूर्व भारत का भ्रमण किया , गोखले के निर्देश पर , और इसीलिये वे गीता का भी अपने हिसाब से अनुभाषित करने और समझने में सक्षम रहे - गीता माता /
लेकिन आंबेडकर भारतीय राजनीति में 1925 के आस पास भारतीय राजनीति में उदित होते हैं और 1931 में इंग्लॅण्ड में गांधी के बगल बैठकर ,,गोलमेज सम्मलेन में उन्ही ब्रिटिशर्स द्वारा उजाड़े गए लोगों को एक अलग कम्युनिटी की तरह रिप्रेजेंट करते हैं , और कम्युनल अवार्ड से सम्मानित होते है /
क्या अप्रसांगिक है इसकी विवेचना करना?
डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक -" अछूत कौन और कैसे " में मैला ढोने की 1900 के आसपास प्रचलित सामाजिक बुराई को, ऋग्वेद में पुरुश्सूक्ति के ब्राम्हणों के द्वारा बाद में घुसेड़े जाने यानी क्षेपक , से जोड़कर थीसिस लिखी है ।
लेकिन किस युग में ??
ये नहीं बताते ।
लेकिन अपनी थीसिस के "मटेरियल और मेथड " को प्रमानित् करने के लिए नारदस्मृति को प्रमाण के रूप में उल्लिखित करते हैं ।
लेकिन नारद तो मिथक थे । और सतयुग में पाए जाते थे । कितने साल पहले ??
तो फिर ये भी , एक अलग तस्वीर ये है कि सतयुग में प्रचलित हुए -- मैला धोने और ढोने की परंपरा को चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु , ऐतिहासिक भारत के सबसे बड़े राजनीतिज्ञ कौटिल्य ने , कलयुग में उसका सुधार किया /
वैसे भी धरमपाल जैसे गांधीवादी ने अपनी पुस्तक -"The Beautiful Tree" में भारत में मैकाले की शिक्षा लागू होने के पूर्व , देशी शिक्षा के जरिये शिक्षित होने वाली 1830 के आसपास की जो लिस्ट प्रकाशित की है ,उनके लिस्ट में स्कूल जाने वाले शूद्र छात्रो की संख्या , तथाकथित विद्वान ब्रम्हाण छात्रो से चार गुना है ।
आंबेडकर जी के पूर्व के क्रिश्चियन मिशनरियों के लेखक और इतिहासकारों ने ऋग्वेद के पुरुष शूक्त को आधार बनाकर समाज में राजनैतिक और धर्म परिवर्तन के लिहाज से प्रमाणित करने कि कोशिश की कि वैदिक काल से ये समाज का वर्गीकरण कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित रहा है / उसी विचार को बाद में मार्क्सिस्टों ने और आंबेडकर वादियों ने आगे बढ़ाया / 1901 के पूर्व जाति आधारित जनगणना भी नहीं होती थी (पहली जनगणना 1871 में हुयी थी ) बल्कि वर्ण और धर्म के आधार पर होती थी/ 1901 में जनगणना कमिशनर रिसले नामक व्यक्ति ने ढेर सारे त्रुटिपूर्ण तथ्यों और एंथ्रोपोलॉजी को आधार बनाकर 1500 से अधिक जातियों और 42 नश्लों में भारत के हिन्दू समाज की जनगणना की / वही जांगना आजतक जातिगत विभाजन का मौलिक आधारहै /
पुनश्च : गीता के -"जन्मना जायते शूद्रः कर्मण्य द्विजः भवति " को इतिहासकार प्रमाण नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार महाभारत एक मिथ है /
लेकिन अभी मैं कौटिल्य अर्थशाश्त्रम् पढ़ रहा था तो एक रोचक श्लोक सामने आया / " दायविभागे अंशविभागः " नामक अध्ह्याय में पहला श्लोक है -"एक्स्त्रीपुत्राणाम् ज्येष्ठांशः ब्राम्हणानामज़ा:, क्षत्रियनामाश्वः वैश्यानामगावह , शुद्रणामवयः "
अनुवाद : यदि एक स्त्री के कई पुत्र हों तो उनमे से सबसे बड़े पुत्र को वर्णक्रम में इस प्रकार हिस्सा मिलना चाहिए : ब्राम्हणपुत्र को बकरिया ,क्षत्रियपुत्र को घोड़े वैश्यपुत्र को गायें और शूद्र पुत्र को भेंड़ें /
दो चीजें स्पस्ट होती हैं की वैदिक काल से जन्म के अनुसार वर्ण व्यस्था नहीं थी क्योंकि कौटिल्य न तो मिथ हैं और न प्रागैतिहासिक / ज्येष्ठपुत्र को कर्म के अनुसार ही हिस्सा मिलता था/ और एक ही मा के पुत्र कर्मानुसार किसी भी वर्ण में जा सकते थे /