Saturday, 21 October 2017

Caste धर्म से नहीं निकला : वर्ण धर्म का अंग है

पिछले 125 सालों में एक अवधारणा विकसित की गयी कि वेदों के रचना के बाद #दुष्टऔर #लालची ब्राम्हणों ने अपनी श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए Caste यानि जाति का निर्माण किया ।
ये बात किसने कही ?
ये बात कही सबसे पहले 20वी शताब्दी के अंत में एक पादरी ने , जो इस बात से परेशान् था कि भारतीय समाज इस व्यवस्था के कारण एक सीमेंट की तरह एक दूसरे से जुड़ा हुवा है । वो इस बात से फ्रुस्टेट था कि 150 साल की लूट खसोट और लोगों को दरिद्रता की खाइं में धकेलने के बाद भी वे इसाईं बनने को तैयार नही थे ।
उस पादरी का नाम था MA Sherring ।
इस बात को आधार बनाकर गौरांग प्रभुओं ने लाखों पन्नों का साहित्य सृजन किया ।
उनके जाने के बाद ये काम वामपंथी नेहरुविअन और मार्कसिये बौद्धिक बौनों के कन्धों पर आन् पड़ा।
वरना आज ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य एवम् शूद्र वर्णो के नाम है न् कि जातियों के ।
आप किसी सरकारी संस्थान में जाते है तो आपसे पूंछा जाता है कि आपका धर्म और जाति क्या है ?
आप लिखते हैं - फलाने पांडेय , धर्म हिंदू , जाति ब्राम्हण ।
खैर इसके पीछे का रहस्य समझें।
"ये है प्रतिउत्तर आपके उस कुतथ्य का जिसमे बौद्धिक बौने , वामिये और दलित चिंतक , सामजिक समरसता के हवाले से जाति को धर्म का byproduct बताते है ।
दरअसल मैकाले का भूत भारत के पढ़े लिखे तबके पर अभी भी सवार है ।
पिछले 150 वर्षों में अंग्रेजी ही भारत के पढ़े लिखे लोगों की एक मात्र भाषा रही है ।
स्वतंत्र भारत में जब् घोंचूँ लोग पढ़ने के लिए तख्ती सिलेट कलम दवात जैसे हथियारों से बख्तरबंद होकर चटाई और बोरे पर प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर उच्च शिक्षा लेने के लिए पहुंचे तो उनके सामने आंग्ल भाषा और गौरांग प्रभुओं के लेखनी के द्वारा लिखित ब्रम्हवाक्यों से भरे साहित्य का भंडार था ।
उन गौरांग प्रभुओं मार्क्स और जेम्स मिल आदि आदि को पढ़लिख कर जब् वे बड़े अकादमिक और सरकारी पदों पर आसीन हुए तो उनको आभास हुवा कि वे तो जाहिल और असभ्यों की वंसजें थे जिनको आंग्ल भाषी गौरंगों ने सभ्य बनाने का पुनीत रास्ता दिखाया था ।
उस आभार से उनके कंधे गौरांग प्रभुओं के चरण में ढीले पड़ गए ।
अब उनके शिथिल कंधों पर ये भार आ गया कि कैसे वे नई पीढ़ी को सभ्य और साक्षर बनाएं, जो अवधी , भोजपुरी , ब्रज बंगाली आदि देशज और गवारूं भाषाओं में संवाद करता है ?
तो इसका एक सहज उपाय निकाला उन्होंने ।
कि हर आंग्ल शब्द का देशज भाषा में अनुवाद किया जाय।
उसमे भी कुछ दिक्कतें आयीं कि जो सभ्यता संस्कृति और शब्द देशज भाषा में उपलब्ध न् हों तो उनका क्या किया जाय ?
तो उसका तोड़ भी खोज लिया ढीले कंधे वाले पढ़े लिखे मैकाले पुत्र बाबुओं ने ।
क्या ?
यदि देशज शब्द न् मिलें तो गौरांग प्रभुओं के पूर्व आये अल्लाह के बंदों की अरबी और पर्सियन भाषा से उनको उधार ले लिया जाय ।
अब उद्धरण :
पहले आंग्ल भाषी प्रभुओं की भाषा के शब्दों का -
रिलिजन - धर्म
Caste - जाति
Secularism - धर्मनिरपेक्षता
Sufficient - पर्याप्त
Insufficient - अपर्याप्त
अब अरबिक और फारसी शब्दों से उधार लिए शब्द -
रिलिजन - मजहब
Honesty - ईमानदारी
Dishonesty - बे ईमानी
Race - नश्ल
अभी इसमें और भी जोड़ूंगा ।
और अन्य मित्रों से भी बोलूंगा कि इसमें जोड़ें ।
जो लोग जाति यानि caste को भारतीय संस्कृति का मूल समझते हैं , उनसे एक प्रश्न है -
"यदि जाति यानि Caste धर्म का byproduct है तो आपसे आग्रह है कि #Half_Casteऔर #Quarter_Caste जैसे शब्दों की उत्पत्ति कहाँ और किस धर्म से हुयी है और ये शब्द आज भी प्रचलन में है ?
लेकिन दुनिया के किन् देशो में प्रचलित हैं ?
क्या धर्म की पहुँच वहां तक है जहाँ ये शब्द प्रचलन में हैं ।
कृपया गूगल की मदद लें ।"

#Review_Of_Literature_and_Eminent_Writers.:Annihilation of Caste

Anyone who wants to observe that what #Intellectual_Slavery means - Must read #Annihilation_of_Caste.
ये बौद्धिक बौनेपन का बहुत सुंदर उदाहरण है , जो व्यक्ति अंग्रेजों से अपनी कास्ट के लिए विशेष उपहार की गुजारिश करता है कि अंग्रेजों की शासन सत्ता की जड़ों को भारत में जमाने में उनकी बिरादरी के लोगों ने विशेष मदद की थी इसलिए उनको विशेष उपहार भेंट किया जाय ।
जो व्यक्ति इस बात को सिद्ध करने पर उतारू हो कि मुस्लमान की क्रूरता हिंदुओं की नीचता से बेहतर है क्योंकि हिंदुओं ने अपने ज्ञान को अपनी जाति के अलावा अन्य किसी जाति के योग्य आदमी को नही सौंपा ।
उनको तो वापस बुलाया नहीं जा सकता, लेकिन उनके समर्थकों को भारत के आर्थिक इतिहास को एक बार पलट कर अवश्य देखना चाहिए कि किस कदर हीनता से पीड़ित व्यक्ति ने उनके समर्थकों के मन में हीनता कुंठा और आत्मकुंठा का बीज बहुत गहरे तक भर दिया है ।
उनको धरमपाल के The Beautiful Tree को भी फ्री डाउनलोड करके पढ़ना चाहिए , जिसमे मैकाले के पूर्व गुरुकुलों में ब्राम्हणों द्वारा चलाये जा रहे गुरुकुलों में पढ़ाये जा रहे बच्चों के वर्णक्रम में 1820-1830 के बीच का डाटा इकठ्ठा किया गया है जिसमे शूद्र छात्रों की संख्या ब्राम्हण छात्रों से चार गुनी थी ।

वर्ण व्यवस्था ::सबके रोजगार का जन्म जात रिजर्वेशन सिस्टम था।

●1000 गुलाम होने के बाद भी यदि हिन्दू आज बचा है भारत मे तो इसका कारण है कि इन लोगों ने संघर्ष किया ।
● आप ईस्ट एशिया के खाड़ी के देश और यूरोप अफ्रीका अमेरिका, औट्रलिया आदि की तरफ इस दृष्टिकोण से देखिये तो बात स्पष्ट हो जाएगी।
● कभी समर्पण नही किया।
● लेकिन जो काम मुस्लिम न कर पाए ।
● वो इसाई करने में सफल रहे।
●चारों वर्णों को बेरोजगार कर दिया गया।
● एक के हाँथ से शिंक्षा और ज्ञान छीन लिया गया।
● दूसरे के हाँथ से रक्षा और पालन तथा आत्म उत्सर्ग का अवसर।
● चौथे के हाँथ से मैनुफैक्चरिंग छीन ली ।
● तीसरा हाँथ वाणिज्य किस चीज का करता ?
●सबके रोजगार का जन्म जात रिजर्वेशन सिस्टम था।
●लेकिन जो रिजर्वेशन अब लागू किया गया है वो ; ;:नाश कर रहा है देश और समाज दोनों का।

Friday, 20 October 2017

धर्म क्यों अफीम है ?

धर्म क्यों अफीम है ?
क्योंकि ये बात मार्क्स ने कहा था रिलिजन के बारे में ।
क्यों कहा था ?
शायद इसलिए कि लिबरल सोच वाला मार्क्स बाइबिल और चर्च के बीच सत्ता और शासन को पराधीन देखता था ।
क्योंकि 1600 में वैज्ञानिक ब्रूनो को चर्च सिर्फ इसलिए जलाकर मार् देता है क्योंकि उसने कहा कि - पृथ्वी सूर्य के चककर लगाती है ।जो कि बाइबिल में उल्लिखित सत्य के विरुद्ध है ।

वही गति गैलेलियो की भी होती है । उसको उम्र कैद देती है चर्च ।
प्रोटेस्टेन्ट और कैथोलिक्स एक दूसरे की हत्या सिर्फ इसलिए कर देते हैं क्योंकि वे एक दुसरे को अपने फेथ के विरुद्ध बर्दाश्त नही कर सकते थे ।
इसलिए वहां शासन को #Act_Religious_Tolerance का कानून बनाना पड़ता है ।

लेकिन भारत के पढ़े लिखे गुलाम वामपंथियों को जब् हर विधर्मी संस्कृति और शब्द को अपनी भाषा और संस्कृति से अनुवाद का चस्का लगा तो उन्होंने रिलिजन का अनुवाद किया धर्म में ।

धर्म की विस्तृत व्याख्या तो बहुत बड़ी है परंतु संक्षेप में -
"धृति क्षमा अक्रोधम् दमो स्तेयं च इन्द्रियनिग्रह
धी विद्या सौच --- दसकं धर्म लक्षणम् ।।
अर्थात्
धैर्य, क्षमा, क्रोध पर नियंत्रण, कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण, चोरी न् करना (भौतिक और आध्यात्मिक), इंद्रियों पर नियंत्रण , बुद्धि , विद्या का आलम्बन , और शारीरिक और आत्मिक स्वच्छता ,--- यही धर्म के 10 लक्षण हैं ।

क्या रिलिजन और मजहब का भी यही अर्थ होता है ?

नही होता है तो मानसिक गुलामों बुद्धि विकार दुरुस्त करो और बुद्धि जीवी होने के भ्रम से बाहर निकलो।

जय श्रीराम
जय जय श्रीराम।

पॉल्युशन के मूल कारण :नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को क्या पता है कि पॉल्युशन का मुख्य कारण वन और जंगलों का घटता क्षेत्रफल और धरती पर बढ़ती हुई आबादी है ? ये ही पॉल्युशन के मूल कारण हैं।
जंगल काटे जा रहे हैं प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और कृषि कार्य हेतु। इनके दोहन का उपयोग और उपभोग कौन कर रहा है - बढ़ती हुई आबादी।

अब आबादी किसकी और क्यों बढ़ रही है ?
जिनको स्वयं के निर्णय नही बल्कि अल्लाह के निर्णय और रहमोकरम को ही बढ़ती आबादी का कारण समझते है। और मनुष्य द्वारा विकसित किये गए जनसंख्या वृद्धि रोकने के उपायों को अल्लाह की मर्जी में मनुष्य का दखल समझते है।

जनसंख्या उनकी भी बढ़ रही है जो काफिरियत के सिद्धांत या थ्योरी ऑफ इंफीडेलिस्म के नाम पर गला काट रहे हैं या फिर निरन्तर लालच और फरेब का खेल खेल कर बपतिस्मा करवाते हैं।

सनातन में तो सत चित आनंद को छोड़कर समस्त माया का जाल परिवर्तनशील है, तो ट्रेडिशन भी परिवर्तनशील हो सकता है।

हमारे यहां तो प्राणवायु का शरीर से संपर्क टूटते ही शरीर मिट्टी हो जाती है। रही बात उसके पंच तत्व में विलीन होने की - तो चलिए लकड़ी से न जलाकर इलेक्ट्रिक क्रेमटोरिम में जला दिया जाएगा।

लेकिन उनका क्या होगा जो 2000 वर्षो से लाखों करोड़ मिट्टी हो चुके लोगों के लिए सैकङो करोड़ एकड़ भूभाग पर कब्जा करके ग्रेव यार्ड और कबरिस्तान के नाम पर, सिर्फ इसलिए खण्डहर बना रखा है कि आख़िरत के दिन जीसस और अल्लाह इन कब्र में गड़े मुर्दो का हिसाब किताब करेंगे।

वो दिन कब आएगा क्या ये बात गॉड और अल्लाह के बंदों ने बताया है ?

उनका भी जगह खाली करवाने की सलाह दीजिये जिससे उन खण्डहरों में पेड़ पौधे लगाया जा सके। उनको खेत खलिहान में तब्दील कर उसमें अन्न उगाया जा सके जिससे भूखे पेट सो रही मानवता का पेट भरा जा सके। और प्रकति की प्रदूषण से बचाया जा सके।

#स्वच्छ_भारत

ज्ञान बांटने से धन घटता है : पेटेंट लॉ

ज्ञान बांटने से धन घटता है : पेटेंट लॉ

अभी एक मित्र का फोन आया जो 20 साल इंग्लैंड अमेरिका में अपने बुद्धि विवेक और श्रम से चिकित्सा के एक विशेष क्षेत्र में उत्तम ज्ञान और अनुभव प्राप्त करके आजकल भारत के एक सुप्रसिद्ध अस्पताल में काम कर रहा है। कल तो नही लेकिन 5 साल में आप उसका नाम भारत के बेस्ट वैस्कुलर सर्जन के रूप में सुनेंगे।

उसने बताया कि यार आज एक सुखद बात हुयी।

मैंने पूँछा क्या ?

उसने बोला कि आज इंस्टीटूट के मालिक ने बुलाया और बोला कि मेरे बेटे को ट्रेनिंग दो।
मैने बोला - ठीक बात है सर।

लेकिन जब उसको मैने एक केस में असिस्ट करने को बुलाया तो उसका, यानी मालिक का बेटा, पलटकर मुझी को ज्ञान देने लगा।
---- -------

खैर ।
घटना खत्म। मेरा विश्लेषण समझने की कोशिश कीजिये।

मैने उसे बताया कि भाई भारत मे गुरु शिष्य परंपरा में एक सिस्टम है।

प्रायः गुरु शिष्य को खोज लेता है।

लेकिन यदि शिष्य गुरु को खोजते हुए पहुंचता है तो गुरु पहले शिष्य के द्वारा अर्जित ज्ञान, उसकी मनोवृत्ति, और उसकी रुचि का परीक्षण कर ज्ञान देने या न देने का निर्णय लेता है।

पूरे कठोपनिषद में यम नचिकेता संवाद में इसी का वर्णन है ।

लेकिन जब से हम मॉडर्न हुए हमको बताया गया कि ये सब शास्त्र पोंगा पंडितों के द्वारा लिखा गया भरमाने वाला ओप्रेसिव साहित्य मात्र है।
खैर -
हमने जो नीतिवाक्य पढ़े थे तो हमारा सॉफ्टवेयर उसी के अनुरूप पढ़ा और गढ़ा गया है।

तो हम तो निर्विकार भाव से जो ज्ञान मांगने आये उसको वो ज्ञान, जो मेरे पास है, उस याचक को देते आये हैं ।

क्योंकि शास्त्रानुसार -
न चोरहार्यम न राजहार्यम न भतृभाजयं न च भारकारी।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्व धनं प्रधानं।।
इसका अर्थ इस लिंक में पढ़िए -
http://susanskrit.org/sanskrit-subhashit-education/559-2010-05-26-07-31-16.html

मेरा मित्र और हम सब इसी मन्त्र के अनुयायी हैं लेकिन इस मंत्र को एक कलयुगी गुरु ने खारिज कर दिया।

उसने बताया कि ठीक बात बोल रहे हो। पोंगापंथी ऐसे ही बेवकूफ नहीं बनी थी।

"अबे तुम खुद बोल रहे हो कि व्यय करने से नित प्रति बढ़ती ही जाएगी ये धनराशि। लेकिन कौन सी धनराशि बे ?
विद्या की और ज्ञान की । अबे लहकट विद्या और ज्ञान की शरण कौन गहना चाहता है ? इस धन का मोल क्या है " ?

तो उन्होंने बताया कि - इस पोंगापंथी के श्लोक के अनुसार जितना ज्ञान बांटोगे उतना ही तुम्हारा ज्ञान बढ़ता जाएगा - लेकिन जिस अनुपात में तुम ज्ञान बांटोगे उसी अनुपात में तुम्हारा धन घटता जाएगा"। साथ मे किसी यूरोपीय न्यूटन सिद्धांत को इसको जोड़ दिया।

अनुभव यही बताता है कि जो ज्ञान सिर्फ ज्ञान को धन समझता है वो पोंगा सोच है ।
कलयुग का सत ज्ञान वही है जो कुछ रुपया कमवाने की क्षमता रखता हो।
इसलिए यदि कोई भी ज्ञान यदि मिल जाय तो पहले उसको पेटेंट कराओ- यथा नीम हल्दी आदि का पेटेंट यूरोपीय और अमेरिकन करवा रहे हैं।

तुमने फच्च से अपना जातीय सम्मान थूक दिया ।

न खाता न बही जो लार्ड HH रिसले बताए वही सही:
और बाबा साहेब कहिन कि -
भले न रहे रोजी
भले न मिले रोटी।
मिस्टर लगाओ टाइटल
सरकार देगी रोटी।।

अपनी जातीय बोध से घिनाने वालों और अपने कुल परिवार में पैदा होने को हीन मानने वालों, लेकिन यदि मौका मिले तो तिलक तराजू और तलवार का नारा देने वालों के अनुयायियों, तुम्हें कब तुमको जाति के अपराध बोध में डाल कर तुमको उस सनातन सिद्धांत द्वारा प्रदत्त रोजगार में, तुहरी एंट्री बैन कर दिया गया, क्या तुमको पता है ?

बारी बरई और तंबोली ही थे जो पान ताम्बूल के उत्पादन और व्यवसाय तथा वितरण पे कब्जा किये हुए थे।

उनको बताया गया कि अबे सुतियों तुमको ब्राम्हणों ने निकृष्टी जाति बताया है ।
न खाता न बही जो रिसले बताए वही सही।

अब तुम करो पपीहा की तरह सरकारी नौकरी के स्वाति नक्षत्र का इंतजार , कि अब गिरी की तब गिरी, तुम्हारे मुंह मे सरकारी नौकरी।

लेकिन तुम्हारा धंधा चुरा ले गया #पान_पराग #रजनीगंधा और तुलसी का कॉर्पोरेट निर्माता, जिसका प्रचार #अमिताभ_बच्चन करते हैं, और कभी कभार तुम भी इसको खाके सड़क पे फच्च से थूकते ही होंगे।

तुमने फच्च से अपना जातीय सम्मान थूक दिया ।

They desanscritized the Bharatiya mind set . Let us Resanscritize it again.

भारत के आधुनिक मनीषी , जो मैकाले की शिक्षानीति से ही शिक्षित हुए परंतु भारत को पश्चिम के विद्वानों मार्क्स , मैकाले , जेम्स मिल , मैक्समूलर ( अब तो सिद्ध हो गया है कि वो फ्रॉड संस्कृतज्ञ था ) आदि की दृष्टि से न् देखकर भारत को भारत की दृष्टि से देखा , उनके नाम यदि लिए जायँ तो उनमें दादा भाई नौरोजी , बाल गंगाधर तिलक , लाला लाजपत राय , अरबिंदो , गांधी , सुभाषचंद्र बोस आदि आदि लोग मिलेंगे ।

कैसे किया ये कार्य साधना उन्होंने ?

खुद को #De_Educate करके ।

जो संस्कार उन्होंने अपने चरित्र में शिक्षा के जरिये निर्मित किया था उस शिक्षा और संस्कार का परित्याग किया उन्होंने ।

बाकी ये कहने की जरूरत नही है कि नेहरू और आंबेडकर ने न् इस साधना का प्रयास किया और यदि किया भी होगा तो उसमे सफल नहीं हुए ।

क्योंकि जीवन का सबसे मुश्किल काम् है मस्तिष्क पर टंकित इबारतों को मिटाकर उस पर नई इबारत लिखना ।
स्वतंत्र भारत में यद्यपि कहने को तो शिक्षा का भारतीय करण किया गया है , लेकिन वो सच नही है ।

स्वतंत्र भारत में मानसिक बौनों की भरमार है जिनके ऊपर बुद्धिजीवी होने का ठप्पा लगा है ।

ऐसा मात्र इसलिए है क्योंकि वे ऐसे पदों को घेरकर बैठे हुए है जहाँ से उनकी बात देश और दुनिया में जा सकती है ।

हमारा उद्देश्य होना चाहिए कि ऐसे बौने बौद्धिकों को चिन्हित कर उनको #De_Education की ओर धकेला जाय ।

They desanscritized the Bharatiya mind set .
Let us Resanscritize it again.

Get rid of Colonized servitude. Don't remain servile any more.

क्लेश ऑफ सिविलाइज़ेशन : आत्मानं प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत:

आत्मानं प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत:

हटिंगटन जैसे लोगों ने क्लेश ऑफ सिविलाइज़ेशन नामक बीमारी को पहचान तो लिया। कारण भी बताया।
लक्षण भी बताया।

लेकिन इलाज क्या है ?
ये वेस्ट को नहीं पता ।

क्यों ?

क्योंकि वे खुद उसी बीमारी और वायरस की पैदाइश हैं।वे जिस धरती को अपनी कहकर पूरी दुनिया पर धौंस जमा रहे हैं उस पर उन्ही हथियारों से उनके पूर्वजों ने कब्जा किया हुवा है।

वे इस्लामिक सिविलाइज़ेशन को जब टारगेट करते हैं तो ये भूल जाते हैं कि दोनों एक ही बीमारी से ग्रसित है जिसको "काफिरता का सिद्धांत" या "Theology ऑफ़ इंफीडेलिस्म" कहते हैं - जो धर्म परिवर्तन या फिर कत्ल के मूलभूत राजनीति का मूलमंत्र हैं।

यदि विश्व को इससे बचना है तो उसे सनातन की शरण में आना ही पड़ेगा जिसका उद्घोष है - सर्वेभवन्तु सुखिनः और आत्मानं प्रतिकूलानि परेशाम् न समाचरेत


हटिंगटन जैसे लोगों ने क्लेश ऑफ सिविलाइज़ेशन नामक बीमारी को पहचान तो लिया। कारण भी बताया।
लक्षण भी बताया।

लेकिन इलाज क्या है ?
ये वेस्ट को नहीं पता ।

क्यों ?

क्योंकि वे खुद उसी बीमारी और वायरस की पैदाइश हैं।वे जिस धरती को अपनी कहकर पूरी दुनिया पर धौंस जमा रहे हैं उस पर उन्ही हथियारों से उनके पूर्वजों ने कब्जा किया हुवा है।

वे इस्लामिक सिविलाइज़ेशन को जब टारगेट करते हैं तो ये भूल जाते हैं कि दोनों एक ही बीमारी से ग्रसित है जिसको "काफिरता का सिद्धांत" या "Theology ऑफ़ इंफीडेलिस्म" कहते हैं - जो धर्म परिवर्तन या फिर कत्ल के मूलभूत राजनीति का मूलमंत्र हैं।

यदि विश्व को इससे बचना है तो उसे सनातन की शरण में आना ही पड़ेगा जिसका उद्घोष है - सर्वेभवन्तु सुखिनः और आत्मानं प्रतिकूलानि परेशाम् न समाचरेत

मैनीपुलेशन ऑफ माइंडस फ़ॉर सेल्फ designed इंटरेस्ट

एक थोड़ा अलग से सोचिए:
कुछ शताब्दियों पूर्व विश्व में क्रांति यानी अपने "सेल्फ ग्रुप" या "सेल्फ" इंटरेस्ट को सुरक्षित करने के Guliton और तलवार से एक एक विरोधियों का, जिनमे विद्वान भी ( संभवतः वाल्तेयर भी उनमे से एक था ) थे, का कत्ल कर दिया जाता है उसी को क्रांति कहा गया - फ्रेंच क्रांति।
अन्य क्रांतियां भी ऐसे ही हुई है रूस चीन आदि में।

ये कैसे होता है ?

"माइंड मैनेजमेंट" के द्वारा। लोगों के इमोशन्स के साथ खेलकर "अपने ग्रुप" या "सेल्फ" के हित को संरक्षित करने के लिए। सेल्फ एक परिवार, एक समुदाय, या एक पार्टी को बोल सकते हैं। इसी को लोकतंत्र या डेमोक्रेसी का नाम दिया गया।

-" मैनीपुलेशन ऑफ माइंडस फ़ॉर सेल्फ designed इंटरेस्ट".

Very powerful tool to preserve self interest by playing the minds and emotions of people. जिसमें सबसे पावरफुल टूल होता है बराबरी के अधिकार की बात करना।

क्या संभव है सबका बराबर होना ?

सारी उंगलियां बराबर करने का लोभ दिखाकर माइंड मैनेज करके अपने हितों को साधने का नाम लोकतंत्र है।

अब माइंड मैनेजमेंट का दूसरा दृष्टिकोण : आप दूसरों के सॉफ्टवेयर को मैनिपुलेट करने की जगह अपना सॉफ्टवेयर जब अपडेट करते है, तो उसे आध्यत्म कहते हैं। दूसरे के सॉफ्टवेयर को आप मैनिपुलेट कर सकते है परंतु अपडेट नहीं कर सकते। उसको अपना सॉफ्टवेयर स्वयं ही अपडेट करना होगा। और वो कब होगा ?

गीता कहती है - "गुणा: गुणेषु वर्तन्ते"। मनुष्य के भीतर विद्यमान गुण ही उससे वे कर्म करवाते हैं जो वो कर रहा है। ये गुण कर्म विभागयो का विश्लेषण है ।

उदाहरण स्वरूप - एक ही माँ बाप के चार बच्चे होते है। उनमे से एक डॉक्टर बन जाता है, दूसरा ड्राइवर बनता है, तीसरा डकैत बन जाता है और चौथे के हिस्से में चपरास गीरी भी नही आती। नजर उठाकर देख लीजिए।सैकड़ो उदाहरण मिलेंगे।

लेकिन यदि किसी को सही समय पर सही गुरु गाइड और फिलॉसफर मिल जाय तो "गुणा : गणेषु वर्तन्ते" में सुधार संभव है और वह व्यक्ति अवगुण और दुर्गुण से निकल कर सद्गुण की राह पकड़ सकता है।
रत्नाकर डाकू की वाल्मीकि यात्रा, विश्वामित्र की ब्रम्हर्षि की यात्रा, राजन्य बुद्ध की बुद्धत्व की यात्रा, महावीर जैन की राजा से ब्रम्हर्षि यात्रा, कबीर, कालिदास, सुंघनी साहू जयशंकर प्रसाद आदि आदि उदाहरण विद्यमान है।

थोड़ा इस तरह भी सोचकर देखिये तो शायद दुसरे को खुद की तकलीफों के लिए जिम्मेदार मानना बन्द कर सकें।
बाबा ने कहा है मानस में -
"काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।
निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ।।"
लक्ष्मण - निषादराज संवाद।
अथवा
"अपनी करनी पार उतरनी गुरु होयँ चाहे चेला।
दुनिया दर्शन का है मेला ।"
-कबीर।

Thursday, 19 October 2017

Brain Drain and Money Drain

What is America today. Whole of American population is mixture of Invaders and Immigrants. Previously they defined their society by "Melting pot theory", but as of now they define themselves by "Bowl Salad Theory", which simulates old "Jat Statement" of India.
After British Pirates plundered, #money drained, and destroyed the system and means of earning of Indians.
Our British Educated Indian Barristers (BEIBs) created a system where nobility, knowledge, science had no place, only humanity could survive because of the reservation policies.
This lead to #Brain_drain. So many good brains who were trained and cultivated by Indian money flew to serve British and Americans.
So nation was deserted of money before Independence, and is being deserted of brain after Independence.
Hey Ram.

अंतः विज्ञान ( सॉफ्टवेयर) की कार्यप्रणाली :मन

अंतः विज्ञान ( सॉफ्टवेयर) की कार्यप्रणाली :

सूचनाओं का भंडारण आपके मन मे होता है जिसको मेमोरी कहते हैं।
मन स्वयं कुछ नही करता । शाश्त्रो में इसे पग्रहम यानी लगाम कहते हैं। एक गवांर शब्द है पगहा, जिससे पशुओं को खूँटे से बांधा जाता है। वो गवांर शब्द इसी संस्कृत शब्द से निकला है।
शास्त्रों में मन को पग्रहरम कहते हैं। इंद्रियों की तुलना घोड़ों से और बुद्धि/ विवेक की तुलना सारथि से की गई है। ये शरीर रथ है।
मन इन घोड़ों की पग्रहम यानी पगहा अर्थात लगाम है।
(कठोपनिषद)

मन मे ही भाव भी बनते हैं जिनका निर्माण एकत्रित की गई सूचनाओं से होता है। यहीं से विचारों का निर्माण भी होता है।

दोष सूचनाओं का नही है। न दोष व्यक्ति का होता है ।
मन तो सदैव स्वयं कुछ नही करता है। असली खेल बुद्धि या विवेक का होता है।
अब बुद्धि की प्रोग्रामिंग कैसे होती है।
यदि आपके पास स्वविवेक नहीं है तो आपकी बुद्धि दूसरों के बुद्धि से उपजे विचार से संचालित होते हैं। दूसरे का विचार भी अपने मन मे एकत्रित सूचनाओं को अपने मनोभाव से बनाता है। ये मनोभाव संचालित होते है स्व अर्थ ( स्वार्थ) से।
स्वार्थ साधन एषणाओं ( इच्छाओं) की पूर्ति होने से होती है। एषणाये 3 प्रकार की होती हैं - पुत्रैषणा, धन एषणा, लोक एषणा।
इन तीन इच्छाओं की पूर्ति जो भी करता है वो विचारक उसी के हित साधन हेतु सूचनाओं को विश्लेषित करके अपने तर्क गढ़ता है और समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है जिसको विचार कहते हैं। स्वविवेक रहित व्यक्ति उन्ही विचारों में ट्रैप हो जाता है।
लेकिन जिसके पास स्वविवेक है लेकिन उसका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं होता वह इन सूचनाओं का उपयोग समाज देश और विश्व के हित में करता है। उसको भी विचार ही कहते हैं। लेकिन ये वही कर सकता है जिसको जीवन का मूलमंत्र " आत्म मोक्षार्थय सर्वभूतेषु हिताय च" पता होता है ।

कोशिश कीजिये - समझ पाएंगे।

Wednesday, 18 October 2017

Role Of BEIBS British Educated Indian Barristers In Todays India

BEIBs :

British Educated Indian Barristers are solely responsible for chaos of modern India. Though Most of them acted as nationalists, but few were India and Hindu hating colonized bigots, who have become #Bhasmasurbecause of electoral politics.

They were expert of British created legal system, which was created after revolt and freedom struggle of 1857.What have not been focused yet, as a cause of revolt is - Economic destruction and destruction of manufacturers and manufacturing of India. It needs to be researched by scholars. We simply can't believe on British and monkey communist historians.

Secondly laws were made to stop happening of second 1857. '#Will_Durant wrote -" By 1858 crimes of the company so smelled to heaven that the British Government took over the captured and plundered territories as a colony of the crown. England paid the company handsomely, and added the purchase price to the public debt of India, to be redeemed, principal and interest ( Originally 10.5%), out of the taxes put upon the Hindu people. Exploitation was dressed now in all the forms of Law- I.e. the rules laid down by the Victor's for the vanquished. Hypocrisy was added to brutality, while the robbery went on." ( The case for India, P. 13)

So these BEIBs were expert of these exploratory tools. According to inner science you start believing as truth what you read and memorise.

Otherwise few of them must have read at least Francis Hamilton Buchanan Dada Bhai Nauroji, Ramesh Chandra Dutt, Ganesh Sakharam deuskar, Will Durant and J Sunderland, and several other writers. If they had read few other books than law books , I am sure they must have reached to different conclusion about history and sociology of India.
These BEIBs, I am sure, If they had different vision about History and sociology of India, than colonized masters, they wouldn't have accepted this constitution which is made on the template of Government of India Act 1935.
Didn't they knew that this Act was creation of Plunderers Of India, which according to Will Durant were tools of Exploitation and robbery ?

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : ग्रंथ या ग्रंथालय जलाने की मानसिकता ही bigotry है:...

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : ग्रंथ या ग्रंथालय जलाने की मानसिकता ही bigotry है:...: ग्रंथ या ग्रंथालय जलाने की मानसिकता ही bigotry है: बिगोट्री शब्द से बहुसंख्यक भारतीय परिचित नही है । इसको अरबी या फ़ारसी में क्या कहते है...

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : शूद्रों से टैक्स न लिया जाय : #कर सिर्फ ट्रेडर्स य...

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : शूद्रों से टैक्स न लिया जाय : #कर सिर्फ ट्रेडर्स य...: # मनु_महाराज  का मनुवादी आदेश:  # कर  सिर्फ ट्रेडर्स यानी वाणिज्यिक लोगों से लिया जाय। उपकरणों से शिल्पकर्म रत  # शूद्रों  से कर न लिया ...

Tuesday, 17 October 2017

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : मनु महरज के टै...

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शूद्रो को टैक्स के दायरे से बाहर रखा जाय - मनुस्मृति

कोई भी शासन कर (टैक्स) लिए बिना नहीं चल सकता, वो चाहे राजतंत्र हो या फिर लोकतन्त्र हो/ टैक्स के दायरे मे कौन आए और कौन न आए, इसकी बात पर जब नीति निर्धारण होगा तो स्पष्ट सी बात है कि बीपीएल टाइप के जनसंख्या से टैक्स वसूलने की बात को संसद मे उठाने वाले को पप्पू नहीं बल्कि महापप्पू कि उपाधि मिलेगी /
तो यदि मनुस्मृति शूद्रों से संकट के समय में भी टैक्स न वसूलने की बात करती है तो इसका अर्थ है वे टैक्स देने की स्थिति मे थे परंतु वे श्रमजीवी थे इसलिए उनसे टैक्स वसूलने की मनाही थी /
भारत में चार मान्य वर्ण थे - मेधाशक्ति , रक्षाशक्ति , वाणिज्य शक्ति और श्रमशक्ति /

मनुस्मृति मात्र वाणिज्यशक्ति पर निर्भर लोगों से टैक्स वसूलने की बात करती है /

"स्वधर्मो विजयस्तस्य नाहवे स्यात परांमुखः।
शस्त्रेण वैश्यान रक्षित्वा धर्मयमाहरतबलिम्।।
राजा का धर्म है कि कि वह युद्ध मे विजयप्राप्त करे। पीठ दिखाकर पलायन करना उसके लिए सर्वथा अनुचित है। शास्त्र के अनुसार वही राजा प्रजा से कर ले सकता है जो प्रजा की रक्षा करता है।
धान्ये अष्टमम् विशाम् शुल्कम विशम् कार्षापणावरम।
कर्मोपकरणाः शूद्रा: कारवः शिल्पिनः तथा।।
संकटकाल में ( आपातकाल में सामान्य दिनों में नहीं) राजा को वैष्यों से धान्य के लाभ का आठवां भाग, स्वर्णादि के लाभ का बीसवां भाग कर के रूप में लेना चाहिए। किंतु शूद्र, शिल्पकारों, व बढ़ई आदि से कोई कर नहीं लेना चाहिए क्योंकि वे उपकरणों से कार्य करके जीवन यापन करते हैं।
#मनुषमृति : दशम अध्याय ; श्लोक संख्या 116, 117।
नोट: स्पष्ट निर्देश है कि श्रमजीवी या श्रम शक्ति से कर संकटकाल में भी नही लेना चाहिए।
कर सिर्फ वाणिज्य करने वाले वाणिज्य शक्ति से ही लेना चाहिए।"
#राजा #कर #वाणिज्य #उपकरण #शिल्पी #शूद्र

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : मनु महरज के टैक्सेशन का नियम: श्रमजीवी शूद्र शिल्प...

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : मनु महरज के टैक्सेशन का नियम: श्रमजीवी शूद्र शिल्प...: 16 October 2017 11:21 Henry David Thoreau Arrested For Nonpayment of Poll Tax historyofmassachusetts.org # मनु_महाराज  का ...

मनु महरज के टैक्सेशन का नियम: श्रमजीवी शूद्र शिल्पियों से टैक्स न लिया जाय


#मनु_महाराज का मनुवादी आदेश: #कर सिर्फ ट्रेडर्स यानी वाणिज्यिक लोगों से लिया जाय।

उपकरणों से शिल्पकर्म रत #शूद्रों से कर न लिया जाय।
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टैक्स लेना राज्य का कर्तव्य और अधिकार दोनों है, लेकिन कैसी सरकार टैक्स ले सकती है और किससे कितना ले सकती है, इसके भी सिद्धांत गढे गए हैं, पहले भी और हाल में भी।

ब्रिटिश जब कॉलोनी सम्राट हुवा करता था तब वहां के कुछ बड़े विद्वानों ने गैर जिम्मेदार सरकार को टैक्स न देने की बात की, थी जिनका नाम आज भी उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।

आज के संदर्भ में सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति जिसने टैक्सेशन का सकारण विरोध किया, था वो था डेविड हेनरी थोरौ जिसके सिविल diobedience के फार्मूले को गांधी ने भारत मे दमनकारी कुचक्री क्रूर बर्बर और Hypocrite ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रयोग किया। लेकिन चूंकि हम अनुवाद के मॉनसिक गुलाम है तो भाइयो ने उसे हिंसा और अहिंसा से जोड़ दिया।

बहरहाल ये लिंक पढ़िए जिसमे सिविल disobedience का सिद्धांत वर्णित है ।http://historyofmassachusetts.org/henry-david-thoreau-arrested-for-nonpayment-of-poll-tax/
यदि आप ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट के बजाय भारतीय संस्कृत ग्रंथों को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि वस्तुतः धर्मशास्त्र कहकर प्रचारित किये ग्रंथ सामाजिक शास्त्र है जो परिवर्तनशील जगत में जीने के दर्शन और सिद्धांत देते हैं। लेकिन चूंकि सनातन के अनुसार जगत परिवर्तनशील है इसलिए सामाजिक नियम और दर्शन भी परिवर्तित किये जाते रहे हैं समय समय पर - As and required टाइप से। कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ने वाले लोग जानते है कि कौटिल्य ने जब समाज के लिए नियम लिखे तो उन्होंने पूर्व के समाजशास्त्री ऋषियों के नियमो का उल्लेख करते हुए लिखा कि, उनके अनुसार ऐसा था लेकिन मेरे अनुसार ऐसा है। और भारतीय हिन्दू जनमानस उसको स्वीकार करता था।

लेकिन गुलाम मानसिकता के स्वतंत्र भारतीय चिंतक, अब्राहमिक मजहबों के उन सिद्धांत से प्रभावित रहे है जो ये कहते है कि होली बुक्स में लिखे गए पोलिटिकल मैनिफेस्टो अपरिवर्तनीय हैं, और उसी चश्मे से भारत को देखने समझने के अभ्यस्त हैं।

यहां कर यानी टैक्स के सिद्धांतों का अतिप्राचीन संस्कृत ग्रंथ से उद्धारण देना चाहूंगा- जिसका समयकाल आप स्वयं तय कीजिये।

"स्वधर्मो विजयस्तस्य नाहवे स्यात परांमुखः।
शस्त्रेण वैश्यान रक्षित्वा धर्मयमाहरतबलिम्।।

राजा का धर्म है कि कि वह युद्ध मे विजयप्राप्त करे। पीठ दिखाकर पलायन करना उसके लिए सर्वथा अनुचित है। शास्त्र के अनुसार वही राजा प्रजा से कर ले सकता है जो प्रजा की रक्षा करता है।

धान्ये अष्टमम् विशाम् शुल्कम विशम् कार्षापणावरम।
कर्मोपकरणाः शूद्रा: कारवः शिल्पिनः तथा।।

संकटकाल में ( आपातकाल में सामान्य दिनों में नहीं) राजा को वैष्यों से धान्य के लाभ का आठवां भाग, स्वर्णादि के लाभ का बीसवां भाग कर के रूप में लेना चाहिए। किंतु शूद्र, शिल्पकारों, व बढ़ई आदि से कोई कर नहीं लेना चाहिए क्योंकि वे उपकरणों से कार्य करके जीवन यापन करते हैं।
#मनुषमृति : दशम अध्याय ; श्लोक संख्या 116, 117।

नोट: स्पष्ट निर्देश है कि श्रमजीवी या श्रम शक्ति से कर संकटकाल में भी नही लेना चाहिए।
कर सिर्फ वाणिज्य करने वाले वाणिज्य शक्ति से ही लेना चाहिए।

#राजा #कर #वाणिज्य #उपकरण #शिल्पी #शूद्र

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : यूनिवरसिटी और विश्वविद्यालय का अंतर

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : यूनिवरसिटी और विश्वविद्यालय का अंतर: एक प्रश्न  Sumant Bhattacharya  सर निरन्तर उठाते आये हैं कि विश्वविद्यालय की परिभाषा क्या है ? मुझे नही लगता कि पत्रकारिता के जगत में पद...

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : ग्रंथ या ग्रंथालय जलाने की मानसिकता ही bigotry है:...

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : ग्रंथ या ग्रंथालय जलाने की मानसिकता ही bigotry है:...: ग्रंथ या ग्रंथालय जलाने की मानसिकता ही bigotry है: बिगोट्री शब्द से बहुसंख्यक भारतीय परिचित नही है । इसको अरबी या फ़ारसी में क्या कहते है...

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : शूद्रों से टैक्स न लिया जाय : #कर सिर्फ ट्रेडर्स य...

TRIBHUWAN UVACH - "त्रिभुवन उवाच" : शूद्रों से टैक्स न लिया जाय : #कर सिर्फ ट्रेडर्स य...: # मनु_महाराज  का मनुवादी आदेश:  # कर  सिर्फ ट्रेडर्स यानी वाणिज्यिक लोगों से लिया जाय। उपकरणों से शिल्पकर्म रत  # शूद्रों  से कर न लिया ...

शूद्रों से टैक्स न लिया जाय : #कर सिर्फ ट्रेडर्स यानी वाणिज्यिक लोगों से लिया जाय - मनुस्मृति

#मनु_महाराज का मनुवादी आदेश: #कर सिर्फ ट्रेडर्स यानी वाणिज्यिक लोगों से लिया जाय।
उपकरणों से शिल्पकर्म रत #शूद्रों से कर न लिया जाय।
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टैक्स लेना राज्य का कर्तव्य और अधिकार दोनों है, लेकिन कैसी सरकार टैक्स ले सकती है और किससे कितना ले सकती है, इसके भी सिद्धांत गढे गए हैं, पहले भी और हाल में भी।
ब्रिटिश जब कॉलोनी सम्राट हुवा करता था तब वहां के कुछ बड़े विद्वानों ने गैर जिम्मेदार सरकार को टैक्स न देने की बात की, थी जिनका नाम आज भी उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।
आज के संदर्भ में सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति जिसने टैक्सेशन का सकारण विरोध किया, था वो था डेविड हेनरी थोरौ जिसके सिविल diobedience के फार्मूले को गांधी ने भारत मे दमनकारी कुचक्री क्रूर बर्बर और Hypocrite ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रयोग किया। लेकिन चूंकि हम अनुवाद के मॉनसिक गुलाम है तो भाइयो ने उसे हिंसा और अहिंसा से जोड़ दिया।
बहरहाल ये लिंक पढ़िए जिसमे सिविल disobedience का सिद्धांत वर्णित है ।http://historyofmassachusetts.org/henry-david-thoreau-arre…/
यदि आप ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट के बजाय भारतीय संस्कृत ग्रंथों को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि वस्तुतः धर्मशास्त्र कहकर प्रचारित किये ग्रंथ सामाजिक शास्त्र है जो परिवर्तनशील जगत में जीने के दर्शन और सिद्धांत देते हैं। लेकिन चूंकि सनातन के अनुसार जगत परिवर्तनशील है इसलिए सामाजिक नियम और दर्शन भी परिवर्तित किये जाते रहे हैं समय समय पर - As and required टाइप से। कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ने वाले लोग जानते है कि कौटिल्य ने जब समाज के लिए नियम लिखे तो उन्होंने पूर्व के समाजशास्त्री ऋषियों के नियमो का उल्लेख करते हुए लिखा कि, उनके अनुसार ऐसा था लेकिन मेरे अनुसार ऐसा है। और भारतीय हिन्दू जनमानस उसको स्वीकार करता था।
लेकिन गुलाम मानसिकता के स्वतंत्र भारतीय चिंतक, अब्राहमिक मजहबों के उन सिद्धांत से प्रभावित रहे है जो ये कहते है कि होली बुक्स में लिखे गए पोलिटिकल मैनिफेस्टो अपरिवर्तनीय हैं, और उसी चश्मे से भारत को देखने समझने के अभ्यस्त हैं।
यहां कर यानी टैक्स के सिद्धांतों का अतिप्राचीन संस्कृत ग्रंथ से उद्धारण देना चाहूंगा- जिसका समयकाल आप स्वयं तय कीजिये।
"स्वधर्मो विजयस्तस्य नाहवे स्यात परांमुखः।
शस्त्रेण वैश्यान रक्षित्वा धर्मयमाहरतबलिम्।।
राजा का धर्म है कि कि वह युद्ध मे विजयप्राप्त करे। पीठ दिखाकर पलायन करना उसके लिए सर्वथा अनुचित है। शास्त्र के अनुसार वही राजा प्रजा से कर ले सकता है जो प्रजा की रक्षा करता है।
धान्ये अष्टमम् विशाम् शुल्कम विशम् कार्षापणावरम।
कर्मोपकरणाः शूद्रा: कारवः शिल्पिनः तथा।।
संकटकाल में ( आपातकाल में सामान्य दिनों में नहीं) राजा को वैष्यों से धान्य के लाभ का आठवां भाग, स्वर्णादि के लाभ का बीसवां भाग कर के रूप में लेना चाहिए। किंतु शूद्र, शिल्पकारों, व बढ़ई आदि से कोई कर नहीं लेना चाहिए क्योंकि वे उपकरणों से कार्य करके जीवन यापन करते हैं।
#मनुषमृति : दशम अध्याय ; श्लोक संख्या 116, 117।
नोट: स्पष्ट निर्देश है कि श्रमजीवी या श्रम शक्ति से कर संकटकाल में भी नही लेना चाहिए।
कर सिर्फ वाणिज्य करने वाले वाणिज्य शक्ति से ही लेना चाहिए।

यूनिवरसिटी और विश्वविद्यालय का अंतर

एक प्रश्न Sumant Bhattacharya सर निरन्तर उठाते आये हैं कि विश्वविद्यालय की परिभाषा क्या है ?
मुझे नही लगता कि पत्रकारिता के जगत में पद्मश्री अवार्डी पत्रकार भी इन मूलभूत महत्वपूर्ण विषयो पे अपनी बात रखने की हिम्मत रखते हैं ।
क्यों ? क्योंकि वे आसक्त भाव की पत्रकारिता करते हैं।
ये प्रश्न कोई निरासक्त जिज्ञासु पत्रकार ही उठा सकता है ।
मैं इस विषय पे सुमन्त दा द्वारा उठाये प्रश्नो को लाइक करके चला आता हूँ। कभी कमेंट नहीं करता।
लेकिन जो कमेंट आते हैं उनसे ये लगता है कि ये लोग विश्विद्यालय को, यूनिवर्सिटी का ठीक उसी तरह समकक्षी समझते हैं, जैसे आमजन धर्म को रिलीजन और मजहब का समकक्षी समझते हैं।
लेकिन मेरा ज्ञान नही, अनुभव बताता है कि यूनिवर्सिटी ट्यूबलर ज्ञान की एक ऐसी प्रयोगशाला है, जहां कुछ विशेष लोगों को, किसी विषय विशेष का, विशेषज्ञ बनने की डिग्री दी जाती है - जिससे आप रोजी रोटी के एक्सपर्ट बन सकें।
लेकिन विश्वविद्यालय एक अंतरिक्षीय ( related to cosmos) संस्था है, जिसमे विश्व को बसुधैव कुटुम्बकम समझते हुए , विश्व और अंतरिक्ष को, खुद से जोड़ने की, और स्वयं को अंतरिक्ष और विश्व से जोड़ने की तकनीक समझाई जाती है।
अर्थात स्वयं को समझने का ज्ञान वितरित किया जाता था, जिसको अध्यात्म के नाम से जाना जाता है। इसी को विदेशी भारत के संदर्भ में Centre of higher learning बोलते आये है। इसी को विश्वविद्यालय कहते हैं।
कबीर तुलसी मीरा बाई विश्वविद्यालय के छात्र थे।
अम्बेडकर नेहरू आदि यूनिवर्सिटी स्टूडेंट थे।
अपनी समझ के अनुसार लिखा।
अंतिम सत्य नहीं है ये।

ग्रंथ या ग्रंथालय जलाने की मानसिकता ही bigotry है: बख्तियार खिलजी हो या अंबेडकर

ग्रंथ या ग्रंथालय जलाने की मानसिकता ही bigotry है:
बिगोट्री शब्द से बहुसंख्यक भारतीय परिचित नही है । इसको अरबी या फ़ारसी में क्या कहते है ये मुझे नहीं मालूम और उनको भी नही मालूम जो बिगोट्री का अनुवाद धर्मान्धता में करते हैं।
जो इस बिगोट्री शब्द का भारत के संदर्भ में, धर्मान्धता में अनुवाद करते और समझते है, उनके लिए सिर्फ यही कहा जा सकता है कि उनको मॉनसिक गुलामी ( Mental servitude) की बीमारी है, जो न उनको समझते है जिनकी पवित्र पुस्तकों में ये शब्द और सिद्धांत वर्णित है और न ही भारत को समझते हैं।
ये काफिरता का सिद्धांत ( Theology of Infidelism) है जो ये कहता है कि मेरा गॉड या अल्लाह ही सच्चा गॉड/ अल्लाह है, और मेरा रिलीजन या मजहब ही सच्चा रिलीजन/मजहब है। जो इस बात को स्वीकार नहीं करता वो काफ़िर (Infidels) है। और उसको इस धरती पर जीने का अधिकार नही है। इसलिए इनका कत्ल करके इनकी जर जोरू और जमीन पर कब्जा करना ही गॉड या अल्लाह के आदेश का पालन करना है। और इस सिद्धांत का पालनकरने वाला ही इन मजहबों का सच्चा बन्दा है।
2000 वर्षों से इसी सिद्धांत को अपनाते हुए पूरे विश्व मे कत्ले आम हुए। इसी सिद्धांत के तहत दूसरे विश्वयुद्ध में 60 लाख यहूदियों और 40 लाख जिप्सियों का कत्ल किया गया।
जेरुसलम और अरब के तीन टोलों ( ट्राइब्स) की मानसिकता को आधार बना कर पूरे विश्व में मानवता की हत्या करके उनके जर जोरू जमीन पर कब्जा किया गया। अमेरिका ऑस्ट्रेलिया इराक ईरान भारत सहित पूरा विश्व इस सिद्धांत का भुक्तभोगी है।
जर जोरू जमीन पे कब्जे के साथ साथ पुस्तको को जलाना भी इसी मानसिकता का परिचायक है।
हमको तो सिखाया जाता है कि पुस्तक यानी विद्या माई। गलतो से भी पुस्तक की तो बात ही छोड़िए, किसी कॉपी पर भी पैर पड़ जाय तो तुरंत उसको उठाकर माथे से लगाना और सरस्वती मां से क्षमा मांगना। हमने तो आज तक किसी की पुस्तक नहीं जलायी।
तो नालंदा का ग्रंथालय जलाने वाला चाहे बख्तियार ख़िलजी रहा हो या फिर मनुषमृति जलाने वाले डॉ अम्बेडकर, इतिहास दोनों का आकलन एक बिगोट के रूप में ही करेगा।

Why India Needs Different Policies from rest of the world

कुछ भारतीय विद्वानों के लिए:
जो हर बात में भारत को अमेरिका इंग्लैंड और सिंगापुर के तराजू से तौलने की बीमारी से ग्रसित है, उनको ये बात पता भी है कि भारत विश्व की मात्र 4% धरती का मालिक है, लेकिन उसको विश्व की 20% आबादी को पालित पोसित करना है।
तो जमाना चाहे बैलगाड़ी का रहा हो चाहे हवाई जहाज और ग्लोबल विलेज का - जिनसे आप भारत की तुलना करते हैं, उनके बनाये नियम कानून, सामाजिक दृष्टि और दृष्टिकोण, आर्थिक दर्शन और नीति, भारत के संदर्भ में लागू करना निहायत ही मूर्खता है।
भारत को अपने जीवन के हर क्षेत्र में अपने स्वयं के नियम कानून दर्शन और सिद्धांत बनाने होंगे।
मॉनसिक गुलामी से बाहर निकलो।
70 साल हो गए।
दफन करो इसको।
©त्रिभुवन सिंह

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