ब्रिटिश रण नीति और उसके भारतीय अधिवक्ता - The British Stratagem and its Indian Advocates.
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दू और मुसलमानो ने मिलकर ब्रिटिश से लड़ाई किये थे।लेकिन जैसे जैसे समय गुजरता गया सर सैयद अहमद के विचारधारा के प्रभाव में स्वतंत्रता संग्राम से अलग होते गए।अंग्रेजों ने देखा कि उनके खिलाफ मुख्य रूप से हिन्दुओ से आने की उम्मीद है , जो हिंदुओं में उतपन्न हो भी रही थी। 19वी शताब्दी के आखिरी समय से आने वाले समयकाल में ब्रिटिश की नीति मुख्यतः हिन्दू समाज को बांटने की दिशा में ही केंद्रित रही ; एक एक सेक्शन को मुख्य समाज से अलग किया , दूसरे समुदायों के लोगों की पीठ भी थपथपाया जो इस बात की घोषणा करेंगे कि भारत एक देश नही था ; और अंग्रेजो के खिलाफ चलने वाले स्वाधीनता संग्राम समस्त भारतीयो की बात नही करता।
इसके लिए जो स्ट्रेटेजी अपनायी गयी वो था कि जो ग्रुप अपने आपको अलग घोषित करे उसको लाभ पहुचाया जाय।और इन लाभों में सबसे कारगर हथियार था लोगो को अलग electotate देकर उनकी एकता भंग कर देना।ये सर्वविदित है , कि किस तरह मुसलमानो को अलग electorate देकर उनको बाकी भारतीयो से अलग किया गया ; कि किस तरह लार्ड मिन्टो और उनकी टीम जब एक मुस्लिम डेलिगेट से मिली तो उन्होंने मुस्लिमों को एक अलग electorate की मांग करने को प्रेरित किया और दरियादिली से उस मांग को स्वीकार किया। यही फार्मूला उन्होंने अनुसूचित जातियों के लिए अपनाना था जो मुसलमानो से भी ज्यादा ईसाई मिशनरियों और अंग्रेज प्रशासन के निशाने पर थे।
यही तरकीब जो मुसलमानों के लिए अपनायी गयी वही तरकीब इनके लिए भी अपनायी गयी।ये एक हवा बनायीं गयी कि ये हिन्दू समाज के अंग नही थे , ये हिन्दुइस्म के अंग हो ही नही सकते इसलिए इनको उनसे बाहर रखा जाय । तत्पश्चात , अनुसूचित जातियों को एक अलग ग्रुप घोषित करने के उपरांत , एक पूर्णतः स्वतंत्र ग्रुप के रूप में , उनको भी अलग electorate देने की पेशकश की गयी, और ये खड्यंत्र 1931 के राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में परवान चढ़ा।
अलग electorate देने के लाभ की गणित इतनी सरल थी कि इसको तो सफल होना ही था ।
ये तो अवश्यम्भावी परिणाम था - अँग्रेज इसको मुस्लिम्स के मामले में सफल होते देखा था।लेकिन टारगेट पापुलेशन के सामने ये टुकड़ा फेंककर चुपचाप बैठ नही जाते थे।वो जानते थे कि सरकारी मान्यता किसी व्यक्ति के पहचान के संकट को खत्म कर कैसे स्थापित करती थी।इस रण नीति के तहत वो सावधानी पूर्वक टारगेट पापुलेशन के खिलाफ किसी व्यक्तिविशेष को patronize करते थे - इस नीति के तहत वाइसराय और सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ने आंबेडकर को लेकर जो प्लान तैयार किया , उसको कहा गया कि -" उन्होंने डॉ आंबेडकर के हाथ को मजबूत करने का हरसंभव प्रयास किया" ।
राउंड टेबल कांफ्रेंस इसके लिए बेहतरीन बिंदु था।कांफ्रेंस करना इसलिए आवश्यक था कि संविधान निर्माण की दिशा में आगे बढ़ने का दिखावा करना जरुरी था। ये भी सर्व विदित है कि यदि कांग्रेस उसमे भाग न लेती तो कॉन्फ्रेंस की कोई महत्ता ही न जाहिर होती। लेकिन ये भी स्पस्ट था कि कांग्रेस कॉन्फ्रेंस में जाती और अपने हिसाब से काम करती तो अंग्रेजो को एक कदम और आगे बढ़ कर उसकी मंशा सफल न होने देने के लिए भारत में अपनी शक्ति का और अधिक प्रयोग करना था।
तो मुख्य बिंदु ये है कि यदि कांग्रेस कॉन्फ्रेंस अटेंड भी करे तो इसकी ऊर्जा अन्य समूहों से लड़ने में ही खर्च हो जाय। कांग्रेस को पीछे धकेलना था , गांधी जैस व्यक्ति को पीछे धकेलना था।और ऐसा करने में कोई परेशानी नहीं थी।
कांफ्रेंस शुरू होते ही एक के बाद एक पार्टिसिपेंट ने कहा कि उनका ग्रुप राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा नहीं था ; और जो भारत में हो रहा है वो राष्ट्रीय आंदोलन था ही नहीं ; कि कांग्रेस भारत के मात्र एक पक्ष की ही प्रतिनधि है।
जारी.......
गांधी जी इस खड्यंत्र को भाँपते ही सम्भल गए।उन्होंने कहा कि यहाँ जो भी आया है वो इसलिए नही आया कि वो किसी संस्था विशेष से चुनकर आया है , या किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधि है।वो यहाँ इसलिए उपस्थित है , क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने उसको नामित किया , खुद ही चुना और निमंत्रित किया ; क्योंकि किसी और ने नहीं बल्कि ब्रिटिश सर्कार ने खुद ये निर्णय लिया कि यही व्यक्ति विशेष ही उस वर्ग या संस्था का प्रतिनिधि है।ये बात आंबेडकर को चुभ गयी क्योंकि वो तथा अन्य लोग वही भाषा बोल रहे थे जो अंग्रेजो के हितों को साध रहा था ।
इस तरह हर संभावित अलग वर्ग के प्रतिनिधियों का चुनाव करने के उपरांत - जिनमे भारतीय राजाओ , ब्रिटिश उद्योग हितों की रक्षा समूह, एंग्लो इंडियन, पारसी, मुस्लिम , और डॉ आंबेडकर जो दलितों की तरफ से थे , प्रतिनिधियों को चुनकर - यह निशित करने के उपरांत की इन चुने हुए प्रतिनिधियों में एकमत सम्भव नहिं था , और गांधी जी हर कदम पर पीछे धकेले जाएंगे , ब्रिटिश इस राउंड टेबल कांफ्रेंस में एकदम तैयार था : वो तैयार थे कि या तो एकमत हों आप लोग अन्यथा सरकार एक अवार्ड की घोषणा करेंगे ; लेकिन यदि कनून बनने के पहले ये लोग एकमत हो गए तो सरकार कोई और नीति अपनाएगी।इससे ज्यादा उचित रास्ता और क्या हो सकता था ? मुख्य बात ये थी कि सरकार ने होम वर्क कर रखा था , उसका रहस्य उन लोगों में छुपा हुवा था जिनको सर्कार ने भारतीय समाज में खोजे गए अलग अलग वर्ग के चुने हुए प्रतिनिधियों में था।
गांधी जी ने इस खड्यंत्र को नेस्तनाबूद कर दिया।जैसा कि सर्व विदित है कि उन्होंने प्रधानमंत्री के सामने प्रस्ताव रखा कि जब तक आमन्त्रित प्रतिनिधियों से एक बार informal आपसी वार्तालाप न हो जाय कंफेरेंस की formal कार्यवाही स्थगित रखा जाय। 8 अक्टूबर 1931 को अल्पसंख्यक समिति की बैठक हुयी।गांधी जी को बैठक की रिपोर्ट पेश करने को कहा गया। उन्होंने कहा -" बहुत दुःख और अपमान के साथ मुझे घोषणा करनी पड़ रही है कि मुझे विभिन्न समूहों के प्रतिनिधियों से वार्तालाप में सांप्रदायिक मुद्दों पर सामूहिक समाधान खोजने में मैं विफल रहा। लेकिन ये कहना कि वार्तालाप हमारे लिए अत्यंत शर्मनाक रही , ये अर्धसत्य है ।क्योंकि इस विफलता का कारण भारतीय डेलीगेशन के संरचना में ही निहित थी।लगभग हममे से सब के सब जिनका प्रतिनिधि माना जा रहा है , उन पार्टियों या वर्गों के प्रतिनिधि नहीं हैं ; यहाँ हम सर्कार द्वारा नामित लोग हैं ।और यहाँ वो लोग भी उपस्थित नहीं है जो सामूहिक समाधान निकवाने में सक्षम सिद्ध होते। आगे आपको मुझे ये कहने की भी अनुमति देनी होगी कि इस समय अल्पसंख्यक समिति की मीटिंग बुलाने का कोई औचित्य भी नही है ।इस मीटिंग में हमको इस बात का कोई अनुमान तक नहीं है कि हमको इससे मिलेगा क्या ? अगर हमको अभास होता कि हमको वो चीज मिलने वाली है जो हम चाहते है , और इस डेलीगेशन के परफॉरमेंस की काबिलियत पर कि यदि वो सAमप्रदायिक मुद्दे पर सर्वसहमति से समाधान निकाल ले तो वो हमे प्राप्त हो जायेगा ; तो इस तरह पलायित होने के पूर्व हम पचास बार सोचते । मुझे जरा सा भी आशंका नही है कि ये सांप्रदायिक मुददा स्वतंत्रता मिलते ही खत्म हो जाएगा।
From: Worshipping False Gods
By Arun Shauri.
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दू और मुसलमानो ने मिलकर ब्रिटिश से लड़ाई किये थे।लेकिन जैसे जैसे समय गुजरता गया सर सैयद अहमद के विचारधारा के प्रभाव में स्वतंत्रता संग्राम से अलग होते गए।अंग्रेजों ने देखा कि उनके खिलाफ मुख्य रूप से हिन्दुओ से आने की उम्मीद है , जो हिंदुओं में उतपन्न हो भी रही थी। 19वी शताब्दी के आखिरी समय से आने वाले समयकाल में ब्रिटिश की नीति मुख्यतः हिन्दू समाज को बांटने की दिशा में ही केंद्रित रही ; एक एक सेक्शन को मुख्य समाज से अलग किया , दूसरे समुदायों के लोगों की पीठ भी थपथपाया जो इस बात की घोषणा करेंगे कि भारत एक देश नही था ; और अंग्रेजो के खिलाफ चलने वाले स्वाधीनता संग्राम समस्त भारतीयो की बात नही करता।
इसके लिए जो स्ट्रेटेजी अपनायी गयी वो था कि जो ग्रुप अपने आपको अलग घोषित करे उसको लाभ पहुचाया जाय।और इन लाभों में सबसे कारगर हथियार था लोगो को अलग electotate देकर उनकी एकता भंग कर देना।ये सर्वविदित है , कि किस तरह मुसलमानो को अलग electorate देकर उनको बाकी भारतीयो से अलग किया गया ; कि किस तरह लार्ड मिन्टो और उनकी टीम जब एक मुस्लिम डेलिगेट से मिली तो उन्होंने मुस्लिमों को एक अलग electorate की मांग करने को प्रेरित किया और दरियादिली से उस मांग को स्वीकार किया। यही फार्मूला उन्होंने अनुसूचित जातियों के लिए अपनाना था जो मुसलमानो से भी ज्यादा ईसाई मिशनरियों और अंग्रेज प्रशासन के निशाने पर थे।
यही तरकीब जो मुसलमानों के लिए अपनायी गयी वही तरकीब इनके लिए भी अपनायी गयी।ये एक हवा बनायीं गयी कि ये हिन्दू समाज के अंग नही थे , ये हिन्दुइस्म के अंग हो ही नही सकते इसलिए इनको उनसे बाहर रखा जाय । तत्पश्चात , अनुसूचित जातियों को एक अलग ग्रुप घोषित करने के उपरांत , एक पूर्णतः स्वतंत्र ग्रुप के रूप में , उनको भी अलग electorate देने की पेशकश की गयी, और ये खड्यंत्र 1931 के राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में परवान चढ़ा।
अलग electorate देने के लाभ की गणित इतनी सरल थी कि इसको तो सफल होना ही था ।
ये तो अवश्यम्भावी परिणाम था - अँग्रेज इसको मुस्लिम्स के मामले में सफल होते देखा था।लेकिन टारगेट पापुलेशन के सामने ये टुकड़ा फेंककर चुपचाप बैठ नही जाते थे।वो जानते थे कि सरकारी मान्यता किसी व्यक्ति के पहचान के संकट को खत्म कर कैसे स्थापित करती थी।इस रण नीति के तहत वो सावधानी पूर्वक टारगेट पापुलेशन के खिलाफ किसी व्यक्तिविशेष को patronize करते थे - इस नीति के तहत वाइसराय और सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ने आंबेडकर को लेकर जो प्लान तैयार किया , उसको कहा गया कि -" उन्होंने डॉ आंबेडकर के हाथ को मजबूत करने का हरसंभव प्रयास किया" ।
राउंड टेबल कांफ्रेंस इसके लिए बेहतरीन बिंदु था।कांफ्रेंस करना इसलिए आवश्यक था कि संविधान निर्माण की दिशा में आगे बढ़ने का दिखावा करना जरुरी था। ये भी सर्व विदित है कि यदि कांग्रेस उसमे भाग न लेती तो कॉन्फ्रेंस की कोई महत्ता ही न जाहिर होती। लेकिन ये भी स्पस्ट था कि कांग्रेस कॉन्फ्रेंस में जाती और अपने हिसाब से काम करती तो अंग्रेजो को एक कदम और आगे बढ़ कर उसकी मंशा सफल न होने देने के लिए भारत में अपनी शक्ति का और अधिक प्रयोग करना था।
तो मुख्य बिंदु ये है कि यदि कांग्रेस कॉन्फ्रेंस अटेंड भी करे तो इसकी ऊर्जा अन्य समूहों से लड़ने में ही खर्च हो जाय। कांग्रेस को पीछे धकेलना था , गांधी जैस व्यक्ति को पीछे धकेलना था।और ऐसा करने में कोई परेशानी नहीं थी।
कांफ्रेंस शुरू होते ही एक के बाद एक पार्टिसिपेंट ने कहा कि उनका ग्रुप राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा नहीं था ; और जो भारत में हो रहा है वो राष्ट्रीय आंदोलन था ही नहीं ; कि कांग्रेस भारत के मात्र एक पक्ष की ही प्रतिनधि है।
जारी.......
गांधी जी इस खड्यंत्र को भाँपते ही सम्भल गए।उन्होंने कहा कि यहाँ जो भी आया है वो इसलिए नही आया कि वो किसी संस्था विशेष से चुनकर आया है , या किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधि है।वो यहाँ इसलिए उपस्थित है , क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने उसको नामित किया , खुद ही चुना और निमंत्रित किया ; क्योंकि किसी और ने नहीं बल्कि ब्रिटिश सर्कार ने खुद ये निर्णय लिया कि यही व्यक्ति विशेष ही उस वर्ग या संस्था का प्रतिनिधि है।ये बात आंबेडकर को चुभ गयी क्योंकि वो तथा अन्य लोग वही भाषा बोल रहे थे जो अंग्रेजो के हितों को साध रहा था ।
इस तरह हर संभावित अलग वर्ग के प्रतिनिधियों का चुनाव करने के उपरांत - जिनमे भारतीय राजाओ , ब्रिटिश उद्योग हितों की रक्षा समूह, एंग्लो इंडियन, पारसी, मुस्लिम , और डॉ आंबेडकर जो दलितों की तरफ से थे , प्रतिनिधियों को चुनकर - यह निशित करने के उपरांत की इन चुने हुए प्रतिनिधियों में एकमत सम्भव नहिं था , और गांधी जी हर कदम पर पीछे धकेले जाएंगे , ब्रिटिश इस राउंड टेबल कांफ्रेंस में एकदम तैयार था : वो तैयार थे कि या तो एकमत हों आप लोग अन्यथा सरकार एक अवार्ड की घोषणा करेंगे ; लेकिन यदि कनून बनने के पहले ये लोग एकमत हो गए तो सरकार कोई और नीति अपनाएगी।इससे ज्यादा उचित रास्ता और क्या हो सकता था ? मुख्य बात ये थी कि सरकार ने होम वर्क कर रखा था , उसका रहस्य उन लोगों में छुपा हुवा था जिनको सर्कार ने भारतीय समाज में खोजे गए अलग अलग वर्ग के चुने हुए प्रतिनिधियों में था।
गांधी जी ने इस खड्यंत्र को नेस्तनाबूद कर दिया।जैसा कि सर्व विदित है कि उन्होंने प्रधानमंत्री के सामने प्रस्ताव रखा कि जब तक आमन्त्रित प्रतिनिधियों से एक बार informal आपसी वार्तालाप न हो जाय कंफेरेंस की formal कार्यवाही स्थगित रखा जाय। 8 अक्टूबर 1931 को अल्पसंख्यक समिति की बैठक हुयी।गांधी जी को बैठक की रिपोर्ट पेश करने को कहा गया। उन्होंने कहा -" बहुत दुःख और अपमान के साथ मुझे घोषणा करनी पड़ रही है कि मुझे विभिन्न समूहों के प्रतिनिधियों से वार्तालाप में सांप्रदायिक मुद्दों पर सामूहिक समाधान खोजने में मैं विफल रहा। लेकिन ये कहना कि वार्तालाप हमारे लिए अत्यंत शर्मनाक रही , ये अर्धसत्य है ।क्योंकि इस विफलता का कारण भारतीय डेलीगेशन के संरचना में ही निहित थी।लगभग हममे से सब के सब जिनका प्रतिनिधि माना जा रहा है , उन पार्टियों या वर्गों के प्रतिनिधि नहीं हैं ; यहाँ हम सर्कार द्वारा नामित लोग हैं ।और यहाँ वो लोग भी उपस्थित नहीं है जो सामूहिक समाधान निकवाने में सक्षम सिद्ध होते। आगे आपको मुझे ये कहने की भी अनुमति देनी होगी कि इस समय अल्पसंख्यक समिति की मीटिंग बुलाने का कोई औचित्य भी नही है ।इस मीटिंग में हमको इस बात का कोई अनुमान तक नहीं है कि हमको इससे मिलेगा क्या ? अगर हमको अभास होता कि हमको वो चीज मिलने वाली है जो हम चाहते है , और इस डेलीगेशन के परफॉरमेंस की काबिलियत पर कि यदि वो सAमप्रदायिक मुद्दे पर सर्वसहमति से समाधान निकाल ले तो वो हमे प्राप्त हो जायेगा ; तो इस तरह पलायित होने के पूर्व हम पचास बार सोचते । मुझे जरा सा भी आशंका नही है कि ये सांप्रदायिक मुददा स्वतंत्रता मिलते ही खत्म हो जाएगा।
From: Worshipping False Gods
By Arun Shauri.
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