Friday 8 January 2016

वर्ण की भौतिक और अदध्यात्मिक व्याख्या



अमरकोश के अनुसार ‪#‎ज्ञान‬ और ‪#‎विज्ञानं‬ की परिभाषा अलग अलग है।
#ज्ञान - मोक्षेर्धीज्ञानं : अर्थात जो बुद्धि विवेक मोक्ष प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर होता है और उसको प्राप्त करने की दिशा में जिन विद्याओं का अर्जन करता है , योग तप ध्यान और धर्म के अनुरूप कार्य करते हुए , उसको #ज्ञान कहते हैं ।
अर्थात आध्यत्मिक पथ पर चलने से जो विद्यार्जन आप करते है मोक्ष प्राप्त हेतु उसे ज्ञान कहते है ।
#विज्ञानं - अन्य शिल्प शास्त्रयो विज्ञानं ।
अर्थात शिल्प शास्त्र में यदि बुद्धि का उपयोग होता है , तो जो विद्या प्राप्त करते हैं उसे #विज्ञानं कहते हैं। जिससे भौतिक जगत की आवश्यकताओं की पूर्ति में होता है ।अर्थात रोटी कपडा मकान और अन्य जीवन उपयोगी बस्तुओं के निर्माण में जो बुद्धि प्रयोग होती है उससे अर्जित विद्या को #विज्ञानं कहते हैं ।
-" ब्रम्ह सत्यम जगत मिथ्या (माया) जीवो ब्रम्हो नापरह "। यानि ब्रम्ह ही सत्य है जगत (माया ,सांसारिक वस्तुए) मिथ्या है ।जीव और ब्रम्ह अलग अलग नहीं है ।
शंकराचार्य का अद्वैतवाद ,जिसको उनके गुरु ने सिखाया और उसका प्रचार कर पूरे भारत में 4 मठों की स्थापना की ।
लेकिन रामानुजाचार्य ने विशिष्ट अद्वैतवाद की स्थापना की: ब्रम्ह और माया दोनों सत्य हैं । माया ब्रम्ह की शक्ति है । माया अर्थात जगत ।माया को विद्यारण्य स्वामी ने पंचदशी नामक ग्रन्थ में परिभाषित किया :
"तुच्छा अनिर्वचनीय वास्तवी चेत्यसो त्रिधा ।
ग्येया माया त्रिमिबोधे श्रोत यौक्तिक लौकिकः।।"
अर्थात: माया का ज्ञान 3 रूपों में होता है - तुच्छ (सारहीन) अनिर्वचनीय ( भावनात्मक और अभावनात्मक दोनों है ) ,तथा यह वास्तविक संसार की रचना भी करती है । श्रुतियों (वेद) के आधार पर यह तुच्छ या सारहीन है , युक्ति (तार्किक रूप से ) यह व्याख्या की सीमा से पर है , और लौकिक या भौतिक रूप से यह जगत के सञ्चालन के कारण वास्तविक भी है ।
जो ब्रम्ह को जानकर मोक्ष प्राप्त करता है उसको ज्ञान प्राप्त होता है।
और जो माया / जगत/ मिथ्या / प्रकृति/ भौतिकता के निर्माण करना चाहता है और उसके लिए जो विद्यार्जन करता है , उसे विज्ञानं कहते हैं ।
‪#‎कौटिल्य‬ ने वर्णों को भौतिक जगत के लिए वर्ण को परिभाषित करते हुए लिखा -
स्वधर्मो ( as per aptitude) ‪#‎शूद्रश्य‬ द्विजात श्रुसुशा (सर्विस सेक्टर) वार्ता ( विज्ञानं विद्या का एक अंग ) कार्यकुशीलव् कर्मम च ।
यानि व्यक्ति के आतंरिक स्वाभाव (स्वधर्मो) सर्विस सेक्टर विज्ञानं में expertise प्राप्त करना ही शुद्रकर्म कहलाता है ।यानि जो माया यानि जगत की भौतिकता के लिए उपयोगी वस्तुओं के निर्माण हेतु कार्य करता है उसको ‪#‎शुद्र_कर्म‬ कहते हैं ।
लेकिन ‪#‎बाबा_जी‬ ने झोलाछाप ईसाईयों से संस्कृत पढ़कर अंग्रेजी में लिखा - Because Shudras took birth from feet of Purusha , so were allotted menial Jobs .
किस ग्रन्थ से पढ़ा उन्होंने भगवान जाने ।
खैर ‪#‎आध्यत्म‬ यानि #ज्ञान के मार्ग में जाने वाले लोगों की वर्ण व्याख्या ‪#‎स्वामी_अड़गड़ानंद‬ ने क्या कहा है, वो देखें
----------------------------------------------- --- ---------- - ~ 'वर्ण' सनातन धर्म है। सनातन है आत्मा ~
उस आत्मा को पाने के एक ही साधक के क्रमोन्नत चार सोपान हैं 'वर्ण'।
-परमपुज्य स्वामी 'श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज'
~
वर्ण वास्तव में सनातन धर्म है। सनातन है आत्मा ! उस आत्मा को प्राप्त करने की साधना की सीढ़ी में चार सोपान ये चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। यदि आप साधन-क्रम नहीं जानते, ईश्वर-प्राप्ति की साधना का नियत कर्म नहीं जानते और जानकारी के पश्चात् साधन आरम्भ नहीं करते तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की बात क्या आप शूद्र भी कदापि नहीं ।
'या निशा सर्वभूतानां तस्यां जगर्ति सयमी।'- इस जगत् रूपी रात्रि में सभी निश्चेष्ट पड़े हुए हैं, दीर्घ तन्द्रा में है। रात-दिन परिश्रम कर रहे हैं मात्र स्वप्न देखते हैं। संयमी पुरुष इसमें जग जाता है। जिस दिन से संयम की शुरुआत है उस दिन से वह ‘शूद्र’ है। आरम्भ में संयम सधेगा नहीं, उसके लिये किसी महापुरुष की सेवा करें। ‘शूद्र’ अर्थात क्षुद्र, अल्पज्ञ।
यह भगवत्पथ की प्रवेशिका है। यदि भगवत्पथ जानकर हमने उस पर कदम नहीं रखा तो हम शूद्र भी नहीं हैं। उसे जानकर यदि कदम रख दिया तो चाहे वह अरब में ही क्यों न जन्मा हो, वह आपके सनातन धर्म के प्रशस्त पथ पर है। विधि जागृत हुयी, सद्गुणों का संग्रह होने लगा तो ‘वैश्य’। प्रकृति से संघर्ष झेलने की क्षमता आयी तो ‘क्षत्रिय’। विकारसशान्त हुए, ब्रह्म में विलय की योग्यता आयी तो ‘ब्राह्मण’। विलय पा लेने के बाद श्रेणियाँ समाप्त ! फिर तो ‘न ब्राह्मणो न क्षत्रिय: न वैश्यो न शूद्र: चिदानन्दरूपो शिवोsहं शिवोsहम्।’
इस प्रकार वर्ण अनत:करण की योग्यता का पैमाना था। जिस प्रकार शास्त्रोक्त अच्छे-अच्छे नाम लोग अपने घरों में रख लेते हैं, इसी प्रकार कालान्तर में व्यवसायों के सम्बोधन में इन वर्णों का प्रयोग कर समाज में विभिन्न जातियों का सृजन हुआ जो सेवा-विधि से जीते थे शूद्र, धन संग्रह करते थे वैश्य, सुरक्षा-व्यवस्था देखनेवाले क्षत्रिय और पढ़ने-पढ़ाने वाले ब्राह्मण कहे गये।
आरम्भ में इनका उद्देश्य अच्छा ही था किन्तु परावर्ती व्यवस्थाकारों ने पूर्वजों के नाम का दुरूपयोग कर गर्हित सामाजिक व्यवस्था दे डाली।
उदाहरण के लिये मनु के नाम से प्रचलित स्मृति के अनुसार, जन्म के बारहवें दिन शिशु का नामकरण किया जाये। ब्राह्मण का नाम मंगलसूचक, क्षत्रिय का नाम बल सूचक, वैश्य का धनसूचक और शूद्र का नाम घृणासूचक रखें। जन्मराशि का अक्षर मान लें ‘क’ आया तो ब्राह्मण का नाम कृष्णदत्त, ‘प’ आया तो पतीतपावन, क्षत्रिय बालक के लिए ये क्रन्दन सिंह, पर्वत सिंह, वैश्य बालक का करोड़ीमल, पन्नालाल, और शूद्र के यहाँ उसी समय कोई बालक आया तो कतवारू, पतवारू नाम रखा जाता है, जिससे कोई कहीं भी जाकर नाम भर बता दे तो लोग समझ लें कि इसके साथ कैसा व्यवहार करें। यह धोखाधड़ी नहीं तो और क्या है ?
यदि यही सनातन था तो अब यह व्यवस्था टूट चुकी है। अब शूद्र समझे जानेवाले बालकों के नाम भी परमानन्द, ब्रह्मा नन्द रखे जानेलगे हैं। स्टेट पिरीयड की यह सामन्ती व्यवस्था अब तीरोहित होती जारही है। समाज की इन जातियों के लिये निर्धारित जो गुण थे, वे भी सामन्ती युग में शिथिल होते गये।
यह इतना रूढ़ हो गयी कि शूद्र का बेटा शूद्र ही होगा। ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण ही कहलायेगा, चाहे अँगूठा छाप ही क्यों न हो। साधन-क्रिया न भी हो, ब्राह्मण माने मुक्त! क्योंकि शास्त्रों मे ब्राह्मण माने मुक्त होता ही है। ब्रह्म-दर्शन, ब्रहम में विलय और ब्रह्म में स्थिति पानेवाला ब्राह्मण वस्तुत: मुक्त है।
किन्तु योग्यताविहीन भी वही दावा करने लगे कि ये जातियाँ ही वर्ण हैं और बाहर समाज का चार वर्ण ही सनातन धर्म है इसी व्यवस्था में रहो, इसी में मुक ति मिलेगी- हमारे आर्षग्रन्थों में ऐसा कुछ नहीं है।
वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध मे वेद में एक ऋचा मिलती है- ‘ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत्’ भगवान मुख-स्तर पर ब्राह्मण हैं। उस अवसस्था में शम, दम, तप, शौच, शान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान, ब्रह्म में विलय दिलादेनेवाले सारे गुण साधक के स्वभाव में ढल जाते हैं। उस समय बुद्धि मात्र यंत्र होती है। साधक के मुख से भगवान ही बोलता है। अस्तु, भगवान् ममुख स्तर पर ब्राह्मण हैं। विकारों को काटते-छाँटते हैं तो बाहु स्तर पर भगवान् ही क्षत्रिय हैं। भगवान् ही तुम्हें थोड़ा चलना सीखाते हैं तो उरु (जंघा) स्तर पर वैश्य और साधना के आरम्भ में अर्थात् जागृति-काल में चरण स्तर पर वह शूद्र जन्मता है।
भागवत का एक श्लोक है कि परमात्मा की तुष्टि के लिये उनके पावन चरण-कमलों से सेवावृत्ति और शूद्र का जन्म हुआ अत: भगवान को प्रसन्न करने की क्षमता यदि किसी में पायी गयी तो शूद्र में, अन्य किसी में नहीं। साधना के आरम्भ में परम पावन चरणों में जहाँ हम समर्पित हुए तो भगवान ही सेवा विधि देंगे कि भजन कैसे करें ? उस विधि को पकड़ा तो मान लो भर्ती हो गयी, वह जनम गया। साधना के आरम्भ के साथ ही वह शूद्र है। वह प्रभु के निर्देशन के अनुसार प्रभु की सेवा, सुमिरण करता है।
ठीक यही गीता में है कि चार वर्णों की रचना मैंने की। तो क्या मनुष्यों को चार वर्णोन में बांटा ? भगवान कहते हैं- नहीं, ‘कर्माणि प्रविभक्तानि’- कर्म को चार भागों में बाँटा। साधन पद्धति को मैने चार भागों में बाँटा।
उस बँटवारे के अनुसार आचरण करना हमारा धर्म है। इसलिये वर्ण हमारा सनातन धर्म है। यदि हम भजन की विधि नहीं जानते तो हमारे लिये कोई वर्ण नहीं है। तब तक हम इस संसार के क्षेत्र मेन कार्यरत प्रकृति की चक्की में पीसने वाले एक प्राणी हैं। इन्हीं मे से जड़ साधना समझ में आयी, समझकर सुमिरण शुरू किया, भगवान स्वीकृति प्रदान करनेलगे, उस दिन से वह शूद्र है। इसके पूर्व जब तक वह कर्म नहीं जानता , शूद्र भी नहीं है।
(परमपुज्य श्री स्वामी जी कृत 'अनछुए प्रश्न' से साभार)
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