Saturday 21 September 2019

Critical analysisi of Who Were The Shudras

"भगवान् विश्वकर्मा जी के शुभ पर्व पर आज एक अत्यंत निकट और प्रियजन के लिए आशीर्वचन पूर्वक एक लघु समीक्षा लिखता हूँ। यह समीक्षा डॉ त्रिभुवन सिंह जी की पूर्व प्रकाशित समीक्षात्मक पुस्तक के सापेक्ष है।
विश्व को बनाने वाले विश्वकर्मा जी के पुराण महाविश्वकर्मपुराण के बीसवें अध्याय में राजा सुव्रत को उपदेश करते हुए शिवावतार भगवान कालहस्ति मुनि कहते हैं :-
ब्राह्मणाः कर्म्ममार्गेण ध्यानमार्गेण योगिनः।
सत्यमार्गेण राजानो भजन्ति परमेश्वरम्॥
ब्राह्मण अपने स्वाभाविक कर्मकांड आदि से (चूंकि वेदसम्मत कर्मकांड में ब्राह्मण का ही अधिकार है), योगीजन ध्यानमग्न स्थिति से और राजागण सत्यपूर्वक प्रजापालन से परमेश्वर की आराधना करते हैं।
स्त्रियो वैश्याश्च शूद्राश्च ये च संकरयोनयः।
भजन्ति भक्तिमार्गेण विश्वकर्माणमव्ययम्॥
स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा वर्णसंकर जन, (जो कार्यव्यवस्था एवं धर्मव्यवस्था के कारण कर्मकांड अथवा शासन आदि की प्रत्यक्ष सक्रियता से दूर हैं,) वे भक्तिमार्ग के द्वारा उन अविनाशी विश्वकर्मा की आराधना करते हैं।
इन्हीं विश्वकर्मा उपासकों के कारण भारत का ऐतिहासिक सकल घरेलू उत्पाद आश्चर्यजनक उपलब्धियों को दिखाता है, क्योंकि इनका सिद्धांत ही राजा सुव्रत को महर्षि कालहस्ति ने कुछ इस प्रकार बताया है,
शृणु सुव्रत वक्ष्यामि शिल्पं लोकोपकारम्।
पुण्यं तदव्यतिरिक्तं तु पापमित्यभिधीयते॥
इति सामान्यतः प्रोक्तं विशेषस्तत्वत्र कथ्यते।
पुण्यं सत्कर्मजा दृष्टं पातकं तु विकर्मजम्॥
(महाविश्वकर्म पुराण, अध्याय ३२)
हे सुव्रत ! सुनिए, शिल्पकर्म (इसमें हजार से अधिक प्रकार के अभियांत्रिकी और उत्पादन कर्म आएंगे) निश्चित ही लोकों का उपकार करने वाला है। शारीरिक श्रमपूर्वक धनार्जन करना पुण्य कहा जाता है। उसका उल्लंघन करना ही पाप है, अर्थात् बिना परिश्रम किये भोजन करना ही पाप है। यह व्यवस्था सामान्य है, विशेष में यही है कि धर्मशास्त्र की आज्ञानुसार किये गए कर्म का फल पुण्य है और इसके विपरीत किये गए कर्म का फल पाप है।
यही कारण है कि संत रैदास को नानाविध भय और प्रलोभन दिए जाने पर भी उन्होंने धर्मपरायणता नहीं छोड़ी, अपितु धर्मनिष्ठ बने रहे। लेखक ने जो पुस्तक की समीक्षा लिखी है वह अत्यंत तार्किक और गहन तुलनात्मक शोध का परिणाम है जिसका दूरगामी प्रभाव होगा। उचित मार्गदर्शन के अभाव में, धनलोलुपता में अथवा आर्ष ग्रंथों को न समझने के कारण भीमराव अंबेडकर ने तो अनर्गल लेखन किया ही है, आज के अभिनव अम्बेडकरवादी मूर्खजन की स्थिति और भी चिंतनीय है। वामपंथ और ईसाईयत में घोर शत्रुता रही, अंबेडकर इस्लाम के कटु आलोचक रहे और साथ इस इस्लाम और ईसाइयों के रक्तरंजित युद्ध अनेकों बार हुए हैं, किन्तु वामपंथ, ईसाईयत, इस्लाम एवं अंबेडकर की शास्त्रविषयक अज्ञानता, ये चारों आज एक साथ सनातनी सिद्धांतों के विरुद्ध खड़े हो गए हैं।
विडंबना यह है कि अंबेडकर यदि लिखें कि शूद्र नीच थे, तो अम्बेडकरवादी उसे सत्य मानकर सनातन को गाली देते हैं। वही अंबेडकर यदि लिखें कि आर्य बाहर से नहीं आये थे तो यहां अम्बेडकरवादी उसपर ध्यान न देकर वामपंथी राग अलापने लगते हैं। ऐसे में शूद्र को नीच कहने की बात का खंडन समीक्षा लेखक श्री त्रिभुवन सिंह जी ने बहुत कुशलता से किया है।
मनु के कुल में (मानवों में) पांच प्रकार के शिल्पी हैं। इसमें कारव, तक्षक, शुल्बी, शिल्पी और स्वर्णकार आते हैं) अधिक चर्चा भी न करें तो इसमें मुख्य मुख्य कार्य क्या हैं ?
कारव का कार्य है, "हेतीनां करणं तथा" ये लोग अत्याधुनिक शस्त्र बनाते हैं।
युद्धतंत्राणिकर्माणि मंत्राणां रक्षणं तथा।
बन्धमोक्षादि यंत्राणि सर्वेषामपि जीविनाम्॥
युद्ध की तकनीकी युक्तियों के व्यूह विषयक कार्य, युद्ध में परामर्श, रक्षा विषयक कार्य, बंधन और मोक्ष के यंत्र बनाना इनका काम है। और यह काम किस भावना से करते हैं ? सभी प्राणियों के हित में, उनके जीवन की रक्षा के लिए। वामपंथियों की तरह नरसंहार हेतु नहीं।
ऐसे ही तक्षक का कार्य क्या था ? वास्तुशास्त्रप्रवर्तनम्। आप जो विश्व, भारत के वैभवशाली वास्तुविद्या को देखकर चौंधिया रहा है, उसका प्रवर्तन यही करते थे। इतना ही नहीं, उस समय के अद्भुत किले, महल और अत्याधुनिक गाड़ियां भी बनाते थे, प्रासादध्वजहर्म्याणां रथानां करणं तथा। महाभारत में वर्णन है कि राजा नल ने राजा ऋतुपर्ण को एक विशेष रथ से एक ही दिन में अयोध्या (उत्तरप्रदेश से) से विदर्भ (महाराष्ट्र) पहुंचा दिया था। और ऐसा नहीं है कि ये अनपढ़ थे, इनके कर्म में और भी एक बात थी, न्यायकर्माणि सर्वाणि, आवश्यक होने पर ये न्यायालय का कार्य भी देखते थे।
शुल्बी के कर्मों में धातुविज्ञान से जुड़े समस्त कार्य आते हैं, आज भी मेहरौली, विष्णु स्तम्भ (कालांतर में कुतुब मीनार) वाला अद्भुत धातु स्तम्भ रहस्य बना हुआ है। और यह कार्य भी मनमानी नहीं करते थे, धर्माधर्मविचारश्च, उचित और अनुचित का समुचित विचार करके ही करते थे।
ऐसे ही शिल्पियों के कार्य में विविध भवनों का निर्माण, दुर्ग, किले, मंदिरों का निर्माण करना आता था। इतना ही नहीं, निर्माण कैसे होता रहा ? निर्माणं राजसंश्रयः, राजा के संश्रय में। भाषाविदों को ज्ञात होगा, संश्रय का अर्थ गुलामी नहीं होता, कृपापूर्वक पोषण होता है। साथ ही सद्गोष्ठी नित्यं सुज्ञानसाधनम्। ये लोग समाज के प्रेरणा हेतु अच्छी गोष्ठी, जिसे सेमिनार कहते हैं, उसका आयोजन करते थे ताकि अच्छे अच्छे ज्ञान का संचय और प्रसार हो सके।
स्वर्णकार आदि के कर्म में सुंदर और बहुमूल्य धातु के आभूषण, रत्नशास्त्र का ज्ञान उसके तौल मान की जानकारी के साथ साथ व्यापार, गणित और लेखनकर्म भी आता था। सुवर्णरत्नशास्त्राणां गणितं लेखकर्म च। यदि वे मूर्ख होते तो आज लाखों खर्च करने जो काम लोग बड़ी बड़ी डिग्रियों के लिए सीख रहे हैं, उससे कई गुणा अधिक प्रखर और कुशल काम वे हज़ारों वर्षों से कैसे सीख रहे थे ? कथित इतिहासकार तो उन्हें दलित, शोषित, वंचित, और नीच बताये फिर रहे हैं।
अच्छा, ये यदि इतने ही बड़े दलित थे तो न्यायालय में इनकी सलाह क्यों ली जाती थी ? इतने ही अनपढ़ थे तो रसायन, धातु के बारे में कैसे जानते थे, या फिर गणित और लेखनकर्म में कैसे काम आते थे ? यदि ये इतने ही गरीब और शोषित थे तो इनके लिए निम्न बात क्यों कही गयी ?
कारुश्च स्फाटिकं लिंगं तक्षा मरकतं तथा।
शुल्बी रत्नं शिल्पी नीलं सुवर्णमत्वर्कशालिकः॥
कारव के लिए स्फटिक के शिवलिंग की पूजा का विधान है। तक्षक को मरकत मणि के शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए। शुल्बी को माणिक्य के शिवलिंग, शिल्पीजनों को नीलम और स्वर्णकार को सोने के शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए।
वामपंथी जिन्हें दलित और शोषित बताते हैं, वो दैनिक पूजन में जैसे शिवलिंग की पूजा करते थे, वैसे शिवलिंग आज के करोड़पति जन भी अपने यहां रखने का साहस नहीं रखते।
विकृत इतिहासकार बताते हैं कि इन्हें गंदगी में रखा गया, इन्हें गरीब, वंचित और अशिक्षित रखा गया। जबकि सत्य यह नहीं है। यह हाल तो मुगलों और विशेषकर अंग्रेजों के समय से हुआ। और शूद्रों का क्या, पूरे सनातन का ही बुरा हाल हुआ। गुरुकुलों में शूद्र छात्रों की संख्या सर्वाधिक थी, यह तो लेखक अपनी समीक्षा में ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध कर ही चुके हैं। गरीबी और अशिक्षा की बात सनातन शास्त्र से मैं इसे खंडित कर चुका।
पापपुण्यविचारश्च तपः शौचं दमः शम:।
सत्यकर्माणि सर्वाणि मनुवंशस्वभावजम्॥
उक्त मनुकुल के (मानव शिल्पियों में) कुछ स्वाभाविक कर्म हैं, जिसमें पाप पुण्य का विचार, तपस्या, बाह्य और आंतरिक शुद्धि, इंद्रियों का दमन, आचरण की पवित्रता और समस्त सत्य के कर्म सम्मिलित हैं।
विश्व में सनातन ही ऐसा है, जहां अपने मार्गदर्शन करने वाले ग्रंथ की पूजा होती है, रक्षा करने वाले शस्त्र की पूजा होती है, निर्णय करने वाले तराजू की भी पूजा होती है और साथ ही नानार्थ आजीविका देने वाले औजारों की भी पूजा होती है। आज भी लोग अपनी बात को सत्य बताने के लिए अपनी आजीविका की, अपने यंत्रों की शपथ लेते हैं। विश्वकर्मा कसम भाई, झूठ नहीं बोल रहा, यह बात भारत का प्रत्येक व्यक्ति कभी न कभी कहता ही है।
जिन्हें लगता है कि शूद्र नीच थे, या तो वे विक्षिप्त हैं, या फिर अज्ञानी और दोनों से बुरे बौद्धिक वेश्या भी हो सकते हैं, क्योंकि सनातन शास्त्रों ने शूद्र को भी सम्माननीय स्थान दिया है।
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चत्वारः श्रेष्ठवर्णकाः॥
(महाविश्वकर्म पुराण, अध्याय २० - ७)
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चारों श्रेष्ठ वर्ण हैं। हमें वैर उसी से है जो उच्छृंखल हो और अमर्यादित हो। इसीलिए यहां शबरी भी सम्मानित हैं और रावण भी निंद्य। इसीलिए यहां रैदास भी सम्मानित हैं धनानन्द भी निंद्य। लेखक ने साहस दिखाते हुए निष्पक्ष इतिहास के माध्यम से जिस सत्य को पुनः प्रकाशित करने का प्रयास किया है, वह श्लाघनीय एवं अनुकरणीय है। ॐ ॐ ॐ ...
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महायोगी कालहस्ति उवाच
वेदशास्त्रेतिहासेषु पुराणेषु च सर्वतः।
विश्वकर्मा जगद्धेतुरिति राजेन्द्र ! कथ्यते॥
अजायता जगत् सर्वं सृष्ट्यादौ विश्वकर्मणः।
स एव कर्ता विश्वस्य विश्वकर्मा जगत्पति: ॥
प्रथमस्तु निराकारः ओंकारस्तदनंतरम्।
चिदानंद: परं ज्योतिः ब्रह्मानन्दस्तु पंचमः ॥
यस्मिन्भूत्वा पुनर्यस्मिन्प्रलीयन्ते भवन्ति च।
ज्योतिषां परमं स्थानं तत्परं ज्योतिरिष्यते ॥
पुष्पमध्ये यथा गन्धो पृथ्वी मध्ये यथा जलम्।
शंखमध्ये यथा नादो वृक्षमध्ये यथा रसः॥
तथा सर्वशरीरेषु अण्ववण्वंतरेष्वपि।
स्थित्वा भ्रमयतीदं हि तत्परंब्रह्म उच्यते ॥
महायोगी शिवावतार कालहस्ति ने कहा
हे राजन् !! वेद, शास्त्रों, इतिहास पुराण आदि सर्वत्र ही इस बात का उल्लेख है कि इस सारे संसार की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय आदि कर्मों के कारणभूत विश्वकर्मा ही हैं। भगवान विश्वकर्मा द्वारा ही इस संसार की सृष्टि की गई है, इसीलिए समस्त विश्व के वे प्रभु ही कर्ता एवं स्वामी हैं। उनके पांच स्वरूप हैं जिनमें प्रथम भेदलीला निराकार है, तदनन्तर ओंकार स्वरूप है, तीसरा चिदानन्द, चौथा परमज्योति और पांचवां भेद ब्रह्मानन्द के नाम से कहा गया है। यह सारा संसार जिनसे जन्म लेकर फिर जिनमें लीन हो रहा है, और यह चक्र निरन्तर चल रहा है, उन ज्योतियों की परम ज्योति भी विश्वकर्मा ही हैं। जैसे पुष्प के अंदर गंध, पृथ्वी में जल, शंख में ध्वनि तथा वृक्षों में रस विद्यमान होता है वैसे ही सभी शरीरों एवं अणु परमाणु में स्थित रहकर उनको इस संसार में घुमाने वाले परब्रह्म विश्वकर्मा हो हैं।
विश्वं गर्भेण संधृत्वा विश्वकर्मा जगत्पतिः।
वटपत्रपुटे शेते यद्दशांगुलमात्रकः॥
बालार्ककोटिलावण्यो बालरूपी दिगम्बर:।
योगमायायुतो देवो विश्वकर्मा च पत्रके॥
आनाभिकमलं ब्रह्मा आकण्ठं वैष्णवी तनुः।
आशीर्षमीश्वरो ज्ञेयो विश्वकर्मात्र ईतनौ ॥
कराभ्यां स पदांगुष्ठं वक्त्रे निक्षिप्य चुम्बयन्।
योगनिद्रा समायुक्तो शेते न्यग्रोधपत्रके ॥
मूर्तिभेदेन जनितास्तद्देवा विश्वकर्मणः।
लक्ष्यन्ते पृथगात्मानो वेदेषु प्रतिपादिताः॥
एकमूले महावृक्षे जातास्ते च पृथक्सुराः।
लक्ष्यन्ते रूपभेदेन तारतम्य विशेषतः॥
पंचशाखा भवन्त्यादौ विश्वकर्म महातरो:।
शिवोमूर्तिर्मूर्तिमांश्च कर्ता कर्म च नामभिः॥
ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः।
पंचब्रह्ममयं प्रोक्तमादीजं पञ्च शाखिनः॥
द्रुमसंस्थो जगत्कर्ता जगदुत्पादनोत्सुकः।
स्वार्थे शक्तिस्वरूपो भूत्साशक्ति: पञ्चधा भवेत्॥
तासां नामानि वक्ष्यामि आदि शक्तिरभूत्पुरा।
इच्छाशक्तिर्द्वितीयास्यात्क्रियाशक्तिस्तृतीयका॥
मायाशक्तिश्चतुर्थी स्यात् ज्ञानशक्तिस्तु पञ्चमी।
वसन्ति ताश्च शाखासु पञ्चब्रह्मासु सङ्गताः ॥
ब्रह्माणपञ्चपूर्वादि चतुर्दिक्षु च मध्यमे।
वसन्ति वक्त्रशाखासु शक्तिभिर्विश्वकर्मणः॥
ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः।
पंचानां ब्रह्मणाम् राजन् पंचैतेप्यधिदेवताः॥
पूर्वं तु शिवनामास्यममूर्तित्वस्य दक्षिणम्।
पश्चिमम्मूर्तिमन्ता च उत्तरे क्रतुनामकम्॥
मध्यं तु कर्मनामास्यं ब्रह्मणो विश्वकर्मणः।
एवमास्यानि जानीहि राजेन्द्र ! मतिमन्विभो: ॥
साकाररूपाण्येतानि निर्गुणस्य महाविभो:।
अनन्तानन्तवीर्यस्य ब्रह्मणो विश्वकर्मणः॥
(महाविश्वकर्मपुराण)
वे जगत्प्रभु विश्वकर्मा समस्त विश्व को अपने उदर में धारण करके दस अंगुल परिमाण के होकर वटपत्र पर शयन करते हैं। ऐसा लगता है मानो उन्होंने करोड़ों उदीयमान सूर्यों के तेज को धारण किया हो। वे दिगम्बर होकर अपनी योगमाया के साथ उस वटपत्र पर सोये हैं। उन गुणातीत विश्वकर्मा का वेदरूपी शरीर चरणों से नाभि तक ब्रह्मा के समान, नाभि से कंठ तक विष्णु के समान तथा कंठ से शीर्षभाग तक शिव के समान प्रतिभासित होता है। परब्रह्म विश्वकर्मा अपने हाथों से लीलापूर्वक अपने पांव का अंगूठा चूसते हुए बालरूप में योगनिद्रा से युक्त होकर वटपत्र पर शयित हैं। विश्वकर्मा के विग्रह से अलग अलग उत्पन्न हुए देवताओं को वेदों में अलग अलग रूपों में प्रतिपादित करके दिखाया गया है। एक ही मूल का विश्वकर्मा संज्ञक महावृक्ष है एवं उसके मूल से अनेक रूप एवं नामभेद के तारतम्य से जन्मे ये देवगण अनेक प्रकार के दिखाई देते हैं। विश्वकर्मा से सबसे पहले पांच भावों से युक्त शाखाओं का उद्भव हुआ जो शिव, अमूर्त, मूर्त, कर्ता एवं कर्म की संज्ञा से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर एवं सदाशिव रूपी पञ्चब्रह्ममय जगत के नाम से प्रसिद्ध हुए।
पूर्व में जिस विश्वकर्मा संसारवृक्ष की संस्था के विषय में कहा गया है, उन जगत्कर्ता ने संसार को उत्पन्न करने की आकांक्षा से अपनी काया को शक्ति का स्वरूप बनाया। वह शक्ति पांच प्रकार की है, जिनके नाम बताता हूँ। प्रथम आदिशक्ति है जो प्रारम्भ में रची गई। द्वितीय इच्छाशक्ति और तीसरी क्रियाशक्ति है। चौथी मायाशक्ति एवं पांचवीं ज्ञान शक्ति है। इन पांचों शक्तियों के रूप में शाखा रूप धारण करके वह पंचब्रह्म (मनु, मय, त्वष्ट, शिल्पी, विश्वज्ञ) सहित निवास करते हैं। उक्त मनु आदि पंचब्रह्म पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और उर्ध्व (मध्य) दिशाओं में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर तथा सदाशिव रूपी आधिदैविक शक्तियों के साथ निवास कर रहे हैं। वह विश्वकर्मब्रह्म पूर्वादि क्रम से शिव, अमूर्ति, मूर्तिमान्, क्रतु तथा कर्म नामक मुख वाले हैं। हे राजन् सुव्रत !! इस प्रकार उन जगत्पति के नाम सहित मुख बताये गए हैं। इस प्रकार उन निर्गुण महाविभु का साकार स्वरूप जानना चाहिए जो अनन्त शक्ति से युक्त हैं।
(महाविश्वकर्मपुराण)"
श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Shri Bhagavatananda Guru ji ने मेरी इस पुस्तक की समीक्षा किया है।
डॉ आंबेडकर अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि शूद्र निम्न नीच या मेनियाल थे।
मैने उनके इस कथन और निर्णय को अपनी पुस्तक में गलत सिद्ध किया हैं।
वर्णव्यवस्था समाज की एक श्रेष्ठ व्यवस्था थी जिसमे चारो वर्ण एक दूसरे के सहायक और अवलंब पर निर्भर करते थे।
बाबा साहेब को उस व्यवस्था की समझ नहीं थी, तो दोष व्यवस्था का नही हो सकता।
बालगुरु भगवतानंद जी ने शास्त्र प्रमाण के साथ यही बात प्रामाणिक रूप से सिद्ध किया है।
उनका अभिनंदन और उनको प्रणाम।

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