Saturday 21 September 2019

#आप_अपने_शत्रु_भी_हैं_और_मित्र_भी


उद्धरेत् आत्मना आत्मानं न आत्मानं अवसायदेत्।
आत्मा एव हि आत्मनः बन्धु आत्मा एव ही रिपु: आत्मनः।।
- भगवत गीता 6/5
मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे। यह मन मनुष्य का मित्र भी है शत्रु भी है।
बहुत सुंदर मंत्र है।
हम सोचते हैं कि हमारे दुख और सुख के लिए कोई दूसरा उत्तरदायी है। क्यों? क्योंकि हम सदैव दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वह हमारे मन के अनुकूल चले। और यदि ऐसा नही होता तो हम दुखी हो जाते हैं।
इसीलिए हम परिस्थियों को नियंत्रित करना चाहते हैं, उन्हें अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं। यही काम राजनीति करती है, यही काम क्रांति के नाम पर साम्यवादी करते हैं। लेकिन इससे कुछ होता नही हैं। गोरे अंग्रेज की जगह काले अंग्रेज बैठ जाते हैं। जार का स्थान स्टॅलिन और लेनिन ले लेते हैं जो जार से बड़े अत्याचारी, हिंसक, और नरसंहार करने वाले हैं।
लेकिन हम यह भी जानते हैं कि हम अपने बच्चे या पत्नी तक को अपने अनुसार सोचने को विवश नही कर सकते तो परिस्थितियों को बदलने की सोचना या दूसरों से अपने अनुसार सोचने की अपेक्षा करना एकदम बचपना है, मूढ़ता है।
हम इतने कमजोर हैं कि सपने भी हमे प्रभावित कर लेते हैं। सोते सोते सपना देखा कि कोई आपको मारने के लिए दौड़ाए है। नीद खुली तो देखिए - सपना तो झूंठा था परंतु धड़कन तेज है और गला सूख रहा है।
लेकिन जगते हुए भी हमारी स्थिति कोई विशेष भिन्न नही होती। हमारे अगल बगल से गुजरते लोग, गुजरती कारें, हमारे अंदर उनको देख कर उठते विचार, या उनकी अनुपस्थिति में भी हमारे अंदर घुमड़ते विचार, हमें घसीटे लिए जाते हैं और हम परवश उनके पीछे बंधे हुए चले जाते हैं।
यह है वह स्थिति जिसको तुलसीदास ने कहा है:
मोहनिशा जग सोवन हारा।
देखत सपना विविध प्रकारा।
यही मन है जो मनुष्य का शत्रु है। जो मन मनुष्य को अपने बस में रखे वह मन मनुष्य का शत्रु है।
मन अर्थात मन मे उमड़ते घुमड़ते विचार, उनसे उतपन्न होने वाली कामनाएं, अपेक्षाएं, जिनको आज की भाषा मे टारगेट, गोल, जीवन का लक्ष्य आदि आदि नाम दिया गया है।
लक्ष्य और प्राप्ति के बीच जितनी दूरी होगी, उतना ही तनाव चिंता फ्रस्टेशन आदि जन्म लेगा। यह अज्ञानता की स्थिति कहलाती है।
मनुष्य का यही मन मित्र भी बन सकता है। लेकिन उसके लिए उसको सजग होना पड़ेगा, जाग्रत होना पड़ेगा। परिस्थितियों को देखेगा, लेकिन उनसे प्रभावित होने से, अपने को सतत प्रयास द्वारा रोकने का प्रयास करेगा।
वस्तुत: होता तो यह है कि हम जिन भी परिस्थितियों, व्यक्ति, वस्तु, भाव या विचार का साक्षात्कार करते हैं, उनके बारे में निर्णय ले लेते हैं कि यह बुरा है या अच्छा है।
भगवान कृष्ण इससे आगाह करते हैं:
इंद्रियस्य इंद्रियस्य अर्थे राग द्वेष व्यवस्थितौ।
तयो न वशं आगच्छेत तौ हि अस्य परिपंथनौ।।
- भगवतगीता
कृष्ण कह रहे है कि हमारे मन मे विषयो के प्रति राग या द्वेष ही रहता है। लेकिन उसके बस में न आएं क्योंकि यही बन्धन है। यही दुख का कारण है।
निर्णय लेते ही आप पक्षकार हो जाते हैं। अब यदि आप उसको पसंद करते हैं और कोई उसके विरुद्ध होगा तो आप संघर्ष करेंगे। संघर्ष ही दुख है।
तो निर्णय न लें। देख लें। उसका रस ले लें। निर्णय न लें।
यह स्थिति भी अज्ञान की ही है परंतु अब परिस्थितियों के बस में आप नही हैं। मन के बस में आप नही हैं। आप सतत जाग्रत होने का प्रयत्न कर रहे हैं। यही मन आपका मित्र है।
तीसरी स्थिति बुद्ध या जाग्रत मनुष्य की है। उसको प्रयास नही करना है। वह सदैव जाग्रत है। लेकिन वह परिस्थितियों को बदलने की क्षमता रखता है। उसकी उपस्थिति से परिश्थितिया बदल जाती है।
यह ज्ञानी की स्थिति है।
तो दो काम करें।
1- निर्णय न ले। दर्शक या साक्षी रहें।
2- मन के पीछे पीछे न भागिए। मन का पीछा कीजिये। मन पर पहरा दीजिये कि यह कहाँ कहाँ जाता है।

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