विचारक शब्द थिंकर की हिंदीबाजी है। स्वतंत्र सोच विकसित करना पाश्चात्य सभ्यता में आज के कुछ शताब्दी पूर्व एक दुस्साहस भरा कृत्य था। और दंडनीय भी। बाइबिल और चर्च ने सोचने की स्वतंत्रता का अपहरण कर रखा था। आपको याद होगा चर्च ने 1600 ई. में किस तरह ब्रूनो को आग में जलाकर मार डाला था। क्योंकि उसने कहा कि पृथ्वी सूर्य के चारो तरफ घूमती है।
बाद में गैलीलियो को भी इसी वैज्ञानिक सोच और अवधारणा के कारण गृह कारावास दिया गया।
बाद में गैलीलियो को भी इसी वैज्ञानिक सोच और अवधारणा के कारण गृह कारावास दिया गया।
लेकिन भारत का धन वैभव लूटकर जब वे थोड़ा सम्पन्न हुए और यहां से संस्कृत ग्रंथो के अनुवाद वहां पहुंचे तो वहां सोचने की स्वतंत्रता मिली जिसको वे पुनर्जागरण कहते हैं।
यह उनके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। मनुष्य का मन स्वतंत्र हो तो तन कारावास में रहे या बाहर, वीर सावरकर पैदा हो ही सकते हैं।
इसीलिए उनके यहां विचार और विचारकों को इतने सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
लेकिन मन गुलाम हो तो किस तरह के विचारक पैदा होंगे?
बताने की आवश्यकता है क्या?
लेकिन मन गुलाम हो तो किस तरह के विचारक पैदा होंगे?
बताने की आवश्यकता है क्या?
जब विदेशी शिक्षा का मॉडल भारत मे स्थापित किया गया तो यह कोलोनियल हैंगओवर के कारण विचार और विचारक भारत मे भी लोकप्रिय हो गया।
भारत मे विचार को कोई महत्व नही दिया जाता। ज्ञान को महत्व दिया जाता है। विचार ही तो था जिसने हिटलर को पैदा किया था। मैक्समुलर के #आर्यन_अफवाह को आधार बनाकर पूरे यूरोप के ईसाइयों का मस्तिष्क इस तरह विकृत किया गया कि वे सचमुच में स्वयं को आर्यन समझने लगे - और अपने साथ रहने वाले 60 लाख यहूदियों और 40 लाख जिप्सियों का कत्ल किया।
विचार ही तो है जो जन्नत पाने हेतु एक बहुत बड़ी आबादी के नवयुवक अपने आपको बम से उड़ा ले रहे हैं। आपको लगता होगा कि यह क्या बेवकूफी है - मरने के बाद कोई जन्नत और हूर को लेकर करेगा तो क्या करेगा?
लेकिन यह विचार ही तो है जो उन्हें इतना तीव्रता से आकर्षित करता है इन क्रूरताओं को करने के लिए।
लेकिन यह विचार ही तो है जो उन्हें इतना तीव्रता से आकर्षित करता है इन क्रूरताओं को करने के लिए।
इसीलिए भारत मे विचार और विचारकों को कोई महत्व नही दिया गया। ज्ञान को महत्व दिया गया। ज्ञान को, पण्डित्य को नहीं।
क्योंकि हम जानते थे कि विचार तो बाहर से लिया गया कचड़ा है। वह अपना अनुभव जन्य ज्ञान नही है। इसलिए इस कचड़े से मुक्ति पाओ। इसको सिर पर लादकर मत घूमो।
क्योंकि हम जानते थे कि विचार तो बाहर से लिया गया कचड़ा है। वह अपना अनुभव जन्य ज्ञान नही है। इसलिए इस कचड़े से मुक्ति पाओ। इसको सिर पर लादकर मत घूमो।
मनुष्य को ऐसा लगता है कि सोच विचार पर मनुष्य मात्र का अधिकार है। लेकिन तुमको कैसे पता कि कुत्ता बिल्ली सियार चींटी मधुमक्खी नही सोचती, मकड़ी नही सोचती बिचारती? यदि ऐसा होता तो किस तरह जानवरो को ट्रेनिंग देना संभव था? यदि ऐसा होता तो चिड़िया घोसला कैसे बनाती, मकड़ी जाला कैसे बनाती और मधुमक्खी छत्ता कैसे बनाती।
हम उनकी भाषा समझने की तकनीक विकसित नही कर पाए हैं इसलिए हमें ऐसा लगता है।
हम उनकी भाषा समझने की तकनीक विकसित नही कर पाए हैं इसलिए हमें ऐसा लगता है।
भारत मे बताया गया कि सोच ही कारागार है, बन्धन है, कष्ट का सागर है। सोच विचार को ही ह्यूमन सॉफ्टवेयर का मन और बुद्धि कहा गया है। वह तो सदा यही करता रहता है - सोच विचार।
और सोचते क्या हो ?
मैं और मेरा।
तू और तेरा।
और सोचते क्या हो ?
मैं और मेरा।
तू और तेरा।
लक्षमण ने रामचन्द्र जी से पूंछा कि माया क्या है?
मैं और मोर तोर तै माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।
- रामचरितमानस
सोच विचार ही माया है।
आदिगुरु शंकर ने संसार को माया कहा है। संसार माया नही है, आपके सोच विचार की दुनिया माया है।
मैं और मोर तोर तै माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।
- रामचरितमानस
सोच विचार ही माया है।
आदिगुरु शंकर ने संसार को माया कहा है। संसार माया नही है, आपके सोच विचार की दुनिया माया है।
इसी से मुक्ति पाने के लिए समस्त साधना की जाती है।
अर्जुन कृष्ण से पूंछता है कि मनुष्य न चाहते हुए भी वह काम क्यों कर बैठता है जिसे वह करना नही चाहता।
उसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि प्रकृति के गुणों के रचे बसे काम और क्रोध के कारण ही मनुष्य यह दुष्कर्म करता है। इसका उदाहरण ऊपर दिया गया है- यूरोप के ईसाइयों और जिहादी जन्नतियो का।
उसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि प्रकृति के गुणों के रचे बसे काम और क्रोध के कारण ही मनुष्य यह दुष्कर्म करता है। इसका उदाहरण ऊपर दिया गया है- यूरोप के ईसाइयों और जिहादी जन्नतियो का।
उसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि :
इन्द्रियाणि पराणि आहु: इंद्रियेभ्य: परः मनः।
मनस: तु परा बुद्धि: यः बुद्धे परत : तु स: ।।
- भगवत गीता।
मनस: तु परा बुद्धि: यः बुद्धे परत : तु स: ।।
- भगवत गीता।
जिसको ज्ञान कहा जाता है या आत्मज्ञान कहा जाता है वह बुद्धि और मन के परे रहता है। मन और बुद्धि के पार वह रहता है जो न चाहते हुए भी वह सभी कर्म करता है जो पाप कर्म कहलाते हैं।
इसीलिए सोच और विचार के पार जाकर आत्मस्वरूप को उपलब्ध ज्ञानी जन का ही भारत सम्मान करता है जो निर्विचार समाधि को उपलब्ध हो चुका हो।
किसी विचारक और चिन्तक का नहीं।
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