Tuesday, 7 August 2018

#विचारक_या_थिंकर्स_एक_मानसिक_बंधुआ_मजदूर:

#विचारक_या_थिंकर्स_एक_मानसिक_बंधुआ_मजदूर:
आज एक भाई ने फिर लंबा चौड़ा व्याख्यान देते हुए आर्यन नश्ल का हवाला देते हुए व्याख्यान लिखा है।
विचार क्या हैं ?
विचार आपके द्वारा एकत्रित की गयी सूचनाओं के डेटा को अपने गुण और धर्म ( स्वभाव) के अनुसार फेंट कर निकाला गया निष्कर्ष है।
इसको आप एक साइकोलॉजिकल ड्रामा भी कह सकते हैं। हर व्यक्ति का अपना साइकोलॉजिकल ड्रामा होता है। इसीलिए वर्षो वर्ष साथ रहने के बाद भी एक ही तरह की सूचनाओं के संग्रह के बाद भी भाई भाई के विचार अलग अलग होते हैं।
इसलिए गुण धर्म तो बदलना संभव नही है। परंतु सूचनाओं की सत्यता प्रामाणिक है कि गढ़ी हुई है यह निश्चित तौर पर पता किय्या जा सकता है।
सूचना संकलन की सबसे बड़ी समस्या है - आपको शिंक्षा के माध्यम से वितरित की गयी सूचना, जिसको आप एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह अपने गुरु या पुस्तकों से एक सत्य की तरह ग्रहण करके, उससे अपना तादात्मिकरण ( आइडेंटिफिकेशन) कर लेते हैं।
मैं अरुण त्रिपाठी और उमेश सिंह जी के साथ कई बार प्रोफेसर अमर सिंह और प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा से मिलने गया हूँ। वे जिस युग के छात्र थे उसमे आर्यन इन्वेजन और संस्कृत को इंडो युरोपियन इंडो जर्मन भाषा के अफवाह को एक ज्ञान की तरह ग्रहण करते आये थे, पढ़ते पढ़ाते आये थे, और उसको सच मानते आये थे।
लेकिन मैने कभी भी इस उम्र में उनके भ्रम को तोड़ना ठीक नही समझा, यद्यपि लोगों ने उसकाया भी। क्योंकि उस उम्र में यदि यह भ्रम टूटे कि जिस अफवाह को हम सच मानकर पढ़ते पढ़ाते आये थे, वह एक अफवाह मात्र थी तो तकलीफ होती है।
इसीलिये कभी नही बताया कि यह थ्योरी कब की खारिज की जा चुकी है।
लेकिन आज भी जब कुछ विद्वानों को उसी अफवाह को सच मानकर इसको लिखते पढ़ते और वाह वाही पाते देखता हूँ तो लगता है कि भ्रम और अफवाह का इंद्रजाल अभी भी ज्ञान समझकर वितरित किया जा रहा है।
तो बात मूल विंदु पर।
कि लोग किस तरह सूचनाओं के बंधुआ मजदूर बन जाते है ?
यह एक सहज मानव स्वभाव है।
चिकित्सा के अपने स्वयम के और अपने निज गृह के अनुभव ( realization) से यह बात मैं जानता हूँ कि जब कभी किसी के जीवन मे उसके किसी प्रिय के साथ कुछ अनहोनी हो जाती है, और उसको बताया जाता है कि ऐसा हो गया तो उसकी प्रथम प्रतिक्रिया उसको नकारने की होती है। फिर वह बीमारी के स्वभाव के अनुकूल कई चिकित्सको से संपर्क करता है कि शायद कहीं से यह बात गलत निकल जाए। सारे चिकित्सक यदि एक ही राय दें तो वह झाड़ फूंक मुल्ला मौलवी का रास्ता देखता है।
उसकी समस्त कोशिश यह होती है कि सत्य को झूंठ प्रमाणित किया जा सके। क्योंकि उसने अपने प्रिय से अपना तादात्मिकरण ( आइडेंटिफिकेशन) कर रखा होता है। और इसलिए मोह वश उसकी सहज बुद्धि काम नही करती।
सूचना से बनने वाले विचारों या साइकोलॉजिकल ड्रामा के साथ भी यही सच है। जिसने अपने जीवन के संघर्ष काल मे सूचनाओं को ज्ञान की तरह गृहीत और संग्रहित किया हो, जिसके कारण उसकी डिग्री या अस्मिता समाज मे स्थापित हुई हो, वह उन सूचनाओं से अपना तादात्मिकरण कर लेता है, स्वयम को उन विचारों से identify करता है।
मनुष्य के सॉफ्टवेयर में चार एप्प्स होते हैं।
मन बुद्धि चित्त अहंकार।
मन है सॉफ्टवेयर का मेमोरी कार्ड।
बुद्धि है तुलनात्मक रूप से इन सूचनाओं और अनुभव के बारे में समझ विकसित करने का एप्प्स।
और अहंकार है - हर भौतिक मॉनसिक और भावनात्मक तथ्य, या सूचना, जिससे आप स्वयम को identify करते हो, अपना तादात्मिकरण करते हो।
तो द्विवेदी जी और सुशोभित जी।
कोई भी भारतीय संस्कृत ग्रंथ उठा लो। काणे खोतर मैक्समुलर जैसे सेकेंडरी स्रोतों को छोड़ो।
आर्य शब्द का अर्थ अमरसिंह प्रणीत अमरकोश से सिर्फ यही मिलता है :
षट सज्जनस्य : महाकुल कुलीन आर्य सभ्य सज्जन साधवः।
अर्थात आर्य का अर्थ है - सज्जन साधु
और अनार्य का अर्थ है - दुर्जन या दुष्ट।
हर समाज और देश तथा हर काल मे यह पाये जाते हैं। यह कही समूह में नही होते।
यह अत्र तंत्र सर्वत्र होते हैं।
बाकी आपका विचार आपका साइकोलॉजिकल ड्रामा है, और मेरे विचार मेरे।
लेकिन सत्य तो एक ही न होगा?
कि सत्य भी अलग अलग होगा ?

Monday, 6 August 2018

दक्षिण भारत मे हिन्दी के विरोध की पृष्ठीभूमि

 ईसाई धरमपरिवर्तको और डिवाइड एंड कन्वर्ट की राजनीति।

आज भी राष्ट्रभाषा हिन्दी का दक्षिणभारत में विरोध होता है और उसकी जगह देशी भाषा नही बल्कि विदेशी नग्रेजी भाषा को स्थापित करने की बात होती है।
ये रहस्य लोगों को समझ में नही आता। लेकिन ये रहस्य भी कोलोनियल शासन और मिशनरी गठबंधन से उपजे समस्कृत विरोध की रणनीति अपनाकर ईसाइयत की स्थापना करने के लिए किए गए षड्यंत्र की देन भर है।
1801 में HT Colerbrooke ने एक आर्टिकल लिखा कि सभी भारतीय भाषाएं संस्कृत से उतपन्न हुई हैं। और समस्त भारतीय भाषाओं को जोड़ती है।

इसका खंडन किया अलैक्सडर D कैम्पबेल और फ्रांसिस whyte Ellis , जो मद्रास का कलेक्टर था और मद्रास के फोर्ट सेंट कॉलेज में अच्छा प्रभाव था, जो भारत में आने वाले अंग्रेज अधिकारियो को भारत के बारे में टीचिंग का केंद्र था, ने ये दावा किया कि दक्षिण भारतीय भाषाएं संस्कृत से नही निकली हैं। इन दोनों ने मिलकर 1816 में "तेलगू भाषा का व्याकरण " नामक पुस्तक भी लिखी - जिसमे ये दावा किया गया कि तेलगू और तमिल गैर संस्कृत उत्पत्ति की भाषाएं है। ऐसा दावा इसके पूर्व किसी ने भी नही किया था।

एलिस ने दावा किया कि इन भाषाओं का संबंध हिब्रू और अरब भाषाओ से है। जिसके मूल में बाइबिल के नोह् के संततियों के द्वारा विश्व की पूरी धरती को आबाद करने का सिद्धान्त की स्थापना की गई थी ।

उनका तर्क ये था कि विलियम जोहन्स ने चूंकि नूह के बड़े पुत्र की भाषा को संस्कृत प्रमाणित किया है तो शेम ही द्रविड़ियन लोगो का पूर्वज रहा होगा । अतः तमिल भाषा का सम्वन्ध हिब्रू और प्राचीन अरब भाषा से है।

उसी समयकाल में मिशनरी रोबर्ट कॉडवेल (1814- 91) ने एलिस की कल्पना को समाजशास्त्र से जोड़कर किया कि द्रविड़ एक अलग नश्ल है और भारत में आर्यो के पूर्व से रहती आयी है । उसने Comparative Grammer of Dravidian Race नामक एक पुस्तक लौकही जो आज भी खासी लोकप्रिय है। उस पादरी ने ये दावा किया कि तेलगू भाषा में आर्यों के एजेंट ब्राम्हणो ने धूर्ततापूर्वक संस्कृत घुसेड़ दिया है। और प्रस्तावित किया कि द्रविड़ नश्ल के लोगों को आर्यो के चंगुल से मुक्त करके उनको ईसाइयत के प्रकाश में लाना पड़ेगा और तमिल भाषा से संस्कृत शब्द निकालने होंगे।
दूसरा मोड़ इसमें 1840 में आया जब जॉन स्टीवेंशन नामक पादरी स्कॉटिश मिशनरी और ब्रायन HH ने #एबोरिजिनल_लैंग्वेज का प्रस्ताव रखा और उसमें उसनव उन समस्त भाषाओ को समाहित किया जिनको आज द्रविड़ियन और मुंडा फैमिली की भाषाएं कहते है।

बाकी आगे इस झूंठ को आगे बढ़ने का काम पेरियार और दक्षिण भारत के अन्य नेताओं ने किया और आज भी कर रहे है । आज तमिलनाडु ईसाइयत का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका है ।
तो वस्तुतः दक्षिणभारत में हिंदी विरोध नही होता बल्कि सफेद चमड़ी के हरामियों द्वारा फैलाया हुवा झूंठ और ईसाइयत के फैलाव के लिए आधार बनाने के लिए संस्कृत और ब्रमहिनिस्म का विरोध था , जो आज हिंदी विरिध का रूप धारण कर चुका है।

दक्षिण भारत के लोग भी संभवतः इस गहरी शाजिश से अपरिचित हैं। उत्तर भारतीयों के प्रति उनके अजीब रवैये( विशेषकर तमिलनाडु) को आप इसी पृष्ठिभूमि में समझ सकते हैं।

( ब्रैकिंग इंडिया से )

जो ज्ञान धन जेनेरेट करे वही ज्ञान है?

जो ज्ञान धन जेनेरेट करे वही ज्ञान है।

धन जेनेरेट करने के लिए जितने भी मार्ग और पड़ाव हैं, उन पर चलने वाला व्यक्ति उन मार्ग पर चलता हुवा यदि किसी भी पड़ाव पर पहुंचने में सक्षम हो जाता है, और धन जेनेरेट कर लेता है, तदोपरांत वो जो भी अपने मुखारबिंद से उवाचता है वही असली ज्ञान है। और हम इसी ज्ञानी को सम्मान भी करते हैं।

डॉक्यूमेंट कहते हैं कि आज से मात्र एक शताब्दी पूर्व तक भारत मे दरिद्र ( अपरिग्रही) ब्राम्हण ज्ञानी और सम्मानित माना जाता था। John O Campbell ने 1904 में अपनी पुस्तक में लिखता है कि - Respect for Brahmavidya and Poverty is loosing fast in India and the day will come when they will worship Monmoth like West.

नग्रेजी में इसका अर्थ है - दरिद्र (अपरिग्रही) ब्रम्हवेत्ता का सम्मान भारत में बहुत तेजी से घट रही है और वो दिन दूर नहीं जब भारत धन की पूजा पश्चिम की तरह करेगा।

ऑब्जरवेशन एकदम सटीक था उसका।

लेकिन ये पृष्ठिभूमि तैयार कैसे हुई ?
भारत की गुरुकुल परंपरा को चोरी करके सफेद ईसाइयों ने अपने यहां सर्वजन तक शिंक्षा पहुंचाई।

लेकिन भारत में मैकाले शिंक्षा लागू की गई वुड्स डिस्पैच की 1854 में, जिसमे 1853 का मार्क्स का ऑब्जरवेशन और निर्देश अंतर्निहित था - कि "अंग्रेजों को दो काम करना ही होगा :
(1) भारतीय समाज के ताने बाने का विनष्टीकरण
(2) और उसके ऊपर पश्चिम के भौतिकवाद के नींव लादना।

ये काम सफेद नग्रेज़ों के बाद उनके मानद पुत्र परम प्रपंची कुटिल मुनि वामपंथी विद्वानों ने जारी रखा। उसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि एक नशलभेदी लेखक शेक्सपियर की तुलना कालिदास से की जाती है। और वो भी इस तरह - कालिदास पूर्व ( भारत) के शेक्सपीयर हैं।

दुर्भाग्य की बात ये है कि Narendra Modi की सरकार भी अभी तक उसी ढर्रे पे है जिस पर सफेद और काले नग्रेज चलते आये हैं।

कोई परिवर्तन शिंक्षा नीति या किसी भी क्षेत्र में हुई क्या ?

Don't Take yourself too seriously: stress releasing #Mantra

Don't Take yourself too seriously: stress releasing #Mantra

मद और मत्सर:
नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं
प्रभुता पाई जाहिं मद नाहीं।।

श्रीमद वक्र न कीन्हि केहिं प्रभुता बधिर न काहि।

ये 6 मनोविकारों में दो भाव ऐसे है जो आपके मन मे दूसरों के प्रति जगते हैं। जो आपसे हीन है उसके प्रति मद( अहंकार ) और जो आपसे श्रेष्ठ है उसके प्रति मत्सर ( द्वेष ईर्ष्या) का भाव।

ये प्रकृति प्रदत्त होता है इसमें कोई अपराध भाव जागृत न कोजिये।

लेकिन इसी से आपके मन मे stress का जन्म होता है क्योंकि आप खुद को बहुत सीरियसली लेते हैं।

मुख्य बात ये है कि जिस तरह हरी घास में छुपा हुआ हरा सर्प नही दिखता उसी तरह ये विकार स्वयं को नही दिखते।
दूसरे लोग दूसरों के इस विकार को तड़ से ताड़ लेते हैं ।
लेकिन ये मामला सॉफ्टवेयर का है।
आपका सॉफ्टवेयर आप खुद ही अपडेट कर सकते हैं दूसरा नहीं।
इसलिए इसमें आपकी मदद आप स्वयं कर सकते हैं दूसरा नहीं।
लेकिन समस्या ये है कि हम सदैव दूसरे का सॉफ्टवेयर ही सुधारने के फिराक में रहते हैं। क्योंकि अपने सॉफ्टवेयर में झांकने के लिए जिन एप्प्स को डाउनलोड करना पड़ता है उसे डाउनलोड करना, आधुनिक शिक्षा के कारण संभव नही होता है। क्योंकि सॉफ्टवेयर की मेमोरी corrupt फ़ाइलों से भरी हुई होती है आधुनिक शिक्षा की सूचनाओं से ।

तो क्या किया जाय ?

De Educate yourself.
Don't take yourself too seriously.
You are only single piece out of 6 bullion humans on this earth.

"अनवीक्षकी त्रयी वार्ता दण्डनीति इति विद्या "-- कौटिल्य

"अनवीक्षकी त्रयी वार्ता दण्डनीति इति विद्या "-- कौटिल्य 
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विद्या के चार अंग है --आन्वीक्षकी ,त्रयी वार्ता और दण्डनीति (शासन की नीति )
--आन्वीक्षकी --का अर्थ सांख्य ,योग और लोकायत --धर्म और अधर्म ,अर्थ -अनर्थ , सुशासन -दुशासन का ज्ञान 
--त्रयी --ऋक ,साम और यजुर्वेद का ज्ञान 
--,वार्ता --कृषि पशुपालन और व्यापार वार्ता विद्या के अंग हैं-- यह विद्या धान्य , पशु , हिरण्य ,ताम्र आदि खनिज पदार्थों के बारे में ज्ञान ।

स्वधर्मो ब्राम्हणस्य अध्ययनम अद्ध्यापनम् यजनम ,याजनम् दानं प्रतिग्रहेश्वेति ।
क्षत्रियस्य अध्ययनम यजनम दानं शश्त्राजीवो भूतरक्षणम् च ।
वैश्यस्य अध्ययनम यजनम दानं कृषिपशुपाल्ये वाणिज्य च ।
शूद्रश्य द्विजात शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च "।

अर्थात - ब्राम्हण का धर्म , अध्ययन अद्ध्यापन यजन ,याजन दान देना और लेना है ।
क्षत्रिय का धर्म है अध्ययन यजन ,याजन दान देना शस्त्र जीवी और समस्त जीवधारियों की रक्षा एवं पालन पोषण है।
वैश्य का धर्म अध्ययन यज्ञ करना दान देना कृषि कार्य ,पशुपालन और व्यापार है ।
शूद्र का धर्म कि द्विज की सुश्रुषा करे , कृषि कार्य ,,पशुपालन और व्यापार करे ,और शिल्प शास्त्र ,गायन वादन में कुशलता प्राप्त करे ।
रेफ : वार्तादंडनीतिस्थापना ।
अब आगे देखें और क्या कहते हैं कौटिल्य ..
--प्राचीन आचार्यों का मत है कि तेज कि अतिशयता होने के कारण ब्राम्हण , क्षत्रिय वैश्य और शूद्र , इन चार वर्णों की सेनाओं में उत्तर उत्तर की अपेक्षा पूर्व पूर्व की सेना अधिक श्रेष्ठ है
--इसके विपरीत आचार्य कौटिल्य का मत है कि -" शत्रुपक्ष ब्रम्हानसेना के आगे नमस्कार करके या शीश झुका कर अपने वष में कर लेता है । इसलिए युद्धविद्या में निपुण क्षत्रिय सेना को ही सर्वाधिक क्ष्रेष्ठ समझना चाहिए ; अथवा वैश्य सेना तथा ....शूद्र सेना ... को भी श्रेष्ठ समझना चाहिए , यदि उनमें वीर पुरुषों कि अधिकता हो तो ।

बाबा जी ने अपनी पुस्तक #Whowereshudras में शूद्रास ( menials) लिखते हैं।

भाई कोण सी पुस्तक से पढ़े से बाबा जी?

कि शुद्र को menial job अलॉट किय्या गया ?

स्ट्रेस kills

स्ट्रेस kills
आज कल स्ट्रेस का सबसे बड़ा कारण है - कैरियर बिल्डिंग.
कैरियर जीवन नहीं है, जीवनयापन का साधन मात्र है। कैरियर बनाने के पीछे बच्चे और मां बाप पागल हैं।

खुद भी स्ट्रेस्ड।
बच्चे भी स्ट्रेस्ड।

ज्यादा कमा लोगे तो कैसे जियोगे ?
थोड़ा और साधन संपन्न हो जाओगे। ( याज्ञवल्क्य मैत्रेयी संवाद)

लेकिन क्या अमल मन और विमल दृष्टि मिलेगी ?
नहीं मिलेगी।
तो स्ट्रेस कम होगा?
नही होगा।
मेडिकल साइंस के अनुसार - स्ट्रेस डायबिटीज हाइपरटेंशन डिप्रेशन एंग्जायटी की #जड़ है।

मेडिकल साइंस के पास जड़ का इलाज नही है। सिर्फ स्ट्रेस के कारण उपजी बीमारियों का मैनेजमेंट भर कर सकती है साइंस- क्योर भी नही कर सकती।

स्ट्रेस नामक जड़ का इलाज करना है तो विज्ञान की शरण गहो।

Don't take yourself too seriously.
आज कल स्ट्रेस का सबसे बड़ा कारण है - कैरियर बिल्डिंग.
कैरियर जीवन नहीं है, जीवनयापन का साधन मात्र है। कैरियर बनाने के पीछे बच्चे और मां बाप पागल हैं।

खुद भी स्ट्रेस्ड।
बच्चे भी स्ट्रेस्ड।

ज्यादा कमा लोगे तो कैसे जियोगे ?
थोड़ा और साधन संपन्न हो जाओगे। ( याज्ञवल्क्य मैत्रेयी संवाद)

लेकिन क्या अमल मन और विमल दृष्टि मिलेगी ?
नहीं मिलेगी।
तो स्ट्रेस कम होगा?
नही होगा।
मेडिकल साइंस के अनुसार - स्ट्रेस डायबिटीज हाइपरटेंशन डिप्रेशन एंग्जायटी की #जड़ है।

मेडिकल साइंस के पास जड़ का इलाज नही है। सिर्फ स्ट्रेस के कारण उपजी बीमारियों का मैनेजमेंट भर कर सकती है साइंस- क्योर भी नही कर सकती।

स्ट्रेस नामक जड़ का इलाज करना है तो विज्ञान की शरण गहो।

Don't take yourself too seriously.

Mantra ऑफ गेटिंग #De_Stressed.

Mantra ऑफ गेटिंग #De_Stressed

You are too stressed as you are taking yourself too seriously.

Don't take yourself too seriously. Nobody takes you seriously, as everybody is too self-absorbed and too self obsessed to think about others.Who cares about you except yourself ? No body.
It's you who think that whole world is observing you closely. But it's problem of your मन - भय और शंसय। 

भगवान कृष्ण ने कहा:

प्रकृति क्रियामाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते।।
(गीता)

कोई भी व्यक्ति प्रकृति के गारे मसाले से तैयार किये गए सॉफ्टवेयर के अनुरूप ही जीवन मे कार्य करता है। उसको इस बात का अहंकार नही होना चाहिए कि ये कार्य वो खुद कर रहा है। इस कर्ता भाव से जीने वाला व्यक्ति प्रकृति के नियमों के विरुद्ध सोच रहा है, इसलिए वो मूढात्मा हैं।
प्रकृति ईश्वर की ही माया है। आप उसी माया का एक हिस्सा हैं। प्रकृति आपकी हार्डवेयर बनाती है और सॉफ्टवेयर भी। सॉफ्टवेयर आपको बनी बनायी मिली है। आप हार्डवेयर को कर्ता समझ रहे हैं जबकि मामला मूलतः उल्टा है। सॉफ्टवेयर में जो एप्प्स हैं वैसे ही हार्डवेयर काम करता है।
तो डि स्ट्रेस्ड होने के लिए कुछ एप्प्स डाउनलोड करना होगा आपको। वरना:

अभी आये अभी बैठे अभी दामन सम्भाला है।
तुम्हारे जाऊँ जाऊँ ने हमारा दम निकाला है।।

Life is too short . And carrying baggage of मद मत्सर on our head corrupts our Software.
लेकिन ये मद मत्सर का बोझा सर पे लद जाना बहुत सहज बात है :
नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं।
प्रभुता पाई काहि मद नाही।।

और फिर
श्रीमद काहि न वक्र करि प्रभुता बधिर न काहि।।

और यही आपको अपने आपको गम्भीरता से लेने को बाध्य कर देती है क्योंकि ये सहज प्रक्रिया है। लेकिन यही स्ट्रेस का मूल कारण भी है।

और स्ट्रेस से मनोमस्तिष्क में शंसय उतपन्न होता है। शंसय से confusion उतपन्न होता है । confusion से cheos पैदा होता है।

Remain what you are.
Don't try to copy anybody.

क्योंकि गीता में कहा गया है कि:

श्रेयांस्वधर्मो विगुणः पर धर्मात सु-अनुष्ठिटात।
स्वधर्मो निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।।

व्यक्ति को प्रकृति से मिले निज स्वधर्म ( स्वभाव सॉफ्टवेयर) के अनुरूप ही काम करना चाहिए। दूसरे का सॉफ्टवेयर कितना भी उन्नत हो उसकी कोपी नही नही करना चाहिए। क्योंकि नकल असल के मुकाबिले श्रेष्ठ नहीं हो सकता।
अपने सॉफ्टवेयर के अनुरूप कार्य करते हुए यदि हार भी गए तो कोई बात नहीं। क्योंकि आगे पुणः अपना रास्ता खोज सकोगे। क्योंकि ये आपका जाना पहचाना मार्ग है।

लेकिन दूसरे के सॉफ्टवेयर की नकल करते हुए यदि कहीं फंसे तो फिर रास्ता खोजे भी नहीं मिलेगा। क्योंकि आप अनजाने रणक्षेत्र में अनजाने हन्थियार से लड़ने गए हैं इसलिए परिणाम भयावह होंगे।

Indian and Dogs are not allowed Vs मंदिरों मे शूद्रों के प्रवेश न करने देने की अफवाह

ईस्ट इंडिया कंपनी के समुद्री लुटेरों ने जब भारत मे 1757 मे टैक्स इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी छीनी तो ऐसा कोई भी मौका हांथ से जाने नहीं दिया , जहां से भारत को लूटा जा सकता हो । वही काम पूरी के जगन्नाथ मंदिर मे हुआ । वहाँ पर शासन और प्रशासन के नाम पर , तीर्थयात्रियों से टैक्स वसूलने मे भी उन्होने कोताही नहीं की । तीर्थयात्रियों की चार श्रेणी बनाई गई । चौथी श्रेनी मे वे लोग रखे गए जो गरीब थे । जिनसे ब्रिटिश कलेक्टर टैक्स न वसूल पाने के कारण उनको मंदिर मे घुसने नहीं देता था । ये काम वहाँ के पांडे पुजारी नहीं करते थे, बल्कि कलेक्टर और उसके गुर्गे ये काम करते थे ।
( रेफ - Section 7 of Regulation IV of 1809 : Papers Relating to East India affairs )
इसी लिस्ट का उद्धरण देते हुये डॉ अंबेडकर ने 1932 मे ये हल्ला मचाया कि मंदिरों मे शूद्रों का प्रवेश वर्जित है । वो हल्ला ईसाई मिशनरियों द्वारा अंबेडकर भगवान को उद्धृत करके आज भी मचाया जा रहा है।
ज्ञातव्य हो कि 1850 से 1900 के बीच 5 करोड़ भारतीय अन्न के अभाव मे प्राण त्यागने को इस लिए मजबूर हुये क्योंकि उनका हजारों साल का मैनुफेक्चुरिंग का व्यवसाय नष्ट कर दिया गया था । बाकी बचे लोग किस स्थिति मे होंगे ये तो अंबेडकर भगवान ही बता सकते हैं। वो मंदिर जायंगे कि अपने और परिवार के लिए दो रोटी की व्यवस्था करेंगे ?
आज भी यदि कोई भी व्यक्ति यदि मंदिर जाता हैं और अस्व्च्छ होता है है तो मंदिर की देहरी डाँके बिना प्रभु को बाहर से प्रणाम करके चला आता है। और ये काम वो अपनी स्वेच्छा और पुरातन संस्कृति के कारण करता है , ण कि पुजारी के भय से।
जो लोग आज भी ये हल्ला मचाते हैं उनसे पूंछना चाहिए कि ऐसी कौन सी वेश भूषा पहन कर या सर मे सींग लगाकर आप मंदिर जाते हैं कि पुजारी दूर से पहचान लेता है कि आप शूद्र हैं ?
विवेकानंद ने कहा था - भूखे व्यक्ति को चाँद भी रोटी के टुकड़े की भांति दिखाई देता है।

एक अन्य बात जो अंबेडकर वादी दलित अंग्रेजों की पूजा करते हैं, उनसे पूंछना चाहूँगा कि अंग्रेजों ने अपनी मौज मस्ती के लिए जो क्लब बनाए थे , उसमे भारतीय राजा महराजा भी नहीं प्रवेश कर पाते थे।
बाहर लिखा होता था -- Indian and Dogs are not allowed । मुझे लगता हैं कि उनही क्लबो के किसी चोर दरवाजे से शूद्रों को अंदर एंट्री अवश्य दी जाती रही होगी ?
ज्ञानवर्धन करें ? ऐसा ही था न ?

Don't take yourself too seriously.



Tribhuwan Singh's photo.
Tribhuwan Singh's photo.
धन से कंफर्ट बढ़ सकता है। सुख शांति आनंद नहीं।

याज्ञवलक्य ने मैत्रियी से पूँछा कि मैं सन्यास लेने जा रहा हूँ आओ तुम्हारा कात्यायनी के साथ बंटवारा कर दूं।

मैत्रयी ने कहा कि यदि मुझे पृथ्वी की समस्त संपत्ति मिल जाये तो मेरा जीवन कैसा हो जाएगा? क्या मैं अमर हो जाऊंगी?

याज्ञवल्क्य ने कहा नही अमर तो नहीं होओगी। हां जीवन वैसा ही हो जाएगा जैसा कि सम्पन्न लोगों का होता है।
मैत्रियी ने कहा कि मुझे परमशान्ति वाला अमरता का ज्ञान दीजिये। ( वृहदारण्यक उपनिषद)

तो यही है हजारों सालों वाला विज्ञान जहां तक साइंस कभी भी नही पहुंच सकता।

बात हो रही थी कि फिजिकल कम्फर्ट तो आपकी बढ़ जाएगी धन से लेकिन मेन्टल डिस्कोम्फोर्ट भी साथ साथ बढ़ेगा। वही स्ट्रेस का कारण बनेगा। और फिर स्ट्रेस से ब्लड प्रेशर , मॉनसिक अवसाद , डिप्रेशन आदि।

इलाज है इसका लेकिन कठिन है।
सबसे आसान इलाज है - Don't take yourself too seriously.

अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम इति मन्यते।।

अब्राहमिक रिलिजन एक पोलिटिकल आईडिया हैं

मूलतः अब्राहमिक रिलिजन एक पोलिटिकल आईडिया हैं, लोगों को मॉनसिक गुलाम बनाने का। 
ये मॉनसिक अवधारणा जन्म हुई है दुनिया के उन देशों में, जिनका इतिहास लूट डकैती और हत्या पवित्र पुस्तकों के माध्यम से उचित ठहराने का रहा है। Plunder Slavery through Militia Power, जिसको आज टेररिज्म के नाम से जाना जाता है।

ये उन गिरोह बाजों को एक झन्डे के नीचे लाकर एक डकैतों की फौज बनाने का पोलिटिकल आईडिया है जिसमे गिरोह में माले गनीमत को आपस मे बांटकर श्रम और बुद्धि से निर्मित लोगो की भौतिक धन दौलत और भूमि पर कब्जा कर लिया जाता है, इसी को रिलिजन और मजहब का नाम दिया गया है।

पूरा मुस्लिम और क्रिस्चियन देशों का इतिहास पढ़ लीजिये - इससे फ़र्क इतिहास नही मिलेगा।

#जऱ_जोरू_जमीन पर कब्जा करने की रणनीति है ये पोलिटिकल गिरोह बाजी - जिसको रिलीजन या मजहब कहा जाता है ।

जात को अगर समझना है तो मात्र क्षत्रिय वर्ण से समझिये ।

जात को अगर समझना है तो मात्र क्षत्रिय वर्ण से समझिये ।
इसमें सूर्यवंशी हैं, चंद्रवंशी हैं, राजकुमार हैं ,गौतम हैं , वैश हैं , गहरवार हैं , बत्सगोत्रीय चौहान , लोनिया वत्सगोत्रीय चौहान हैं । और भी अनेक हैं । ये सब वंश यानि फॅमिली ट्री हैं , कुल वृक्ष हैं । 

सबके गोत्र अलग अलग या मिक्स हैं , शादी विवाह की एक परंपरा है कि किसके यहाँ शादी हो सकती है , किसके यहाँ नहीं ।
इसी को Endogamy कहा गया है अंग्रेज और ईसाई संस्कृतज्ञों द्वारा।
यद्यपि ये बंधन क्षीण हो रहा है ।

परंतु ये caste नहीं है ।
ये वंश परंपरा है ।

अब ये उन ईसाईयों को समझ में न आया तो दोष किसका ?
मनुस्मृति को संदर्भित करके एक नश्लवादी ईसाई इंसान रिसले ने तीन वर्णो - ब्राम्हण क्षत्रिय और वैश्य को #सवर्ण और #आर्य के नाम पर तीन जातियों में तब्दील किया तो दोष किसका है ?

बाकी भारत के कारकुशीलव उत्पादक लोगों को शूद्र वर्ण में चिन्हित कर उनका 2000 जातियों में चिन्हित किया तो डॉ आंबेडकर किसका संहार करना चाहते थे ?
#Annihilation_of_Caste ।

इसी को संविधान में घुसेड़ दिया संविधान निर्माता ने।

बख्तियार ख़िलजी एक डकैत था जिसने नालन्दा का ग्रंथालय जलाया था।

उसको कोई शांति दूत भी आदर्श नही मानता अपना।

लेकिन डॉ आंबेडकर को क्या उपाधि मिलनी चाहिए जिन्होंने मनुषमृति जैसा ग्रंथ जलाया, जिसको पढ़ने और समझने की भी कूबत नहीं थी उनके अंदर।

ज्ञान को स्वाहा करके ही भारत से इंडिया बना है भारत।
उसी स्वाहा ज्ञान के नायक है ग्रंथ जलाने के अपराधी बाबा साहेब।

क्लैश ऑफ सिविलाइज़ेशन में "वसुधैव कुटुम्बकम" का औचित्य बचा भी है ?

क्लैश ऑफ सिविलाइज़ेशन में "वसुधैव कुटुम्बकम" का औचित्य बचा भी है ?
ग्लोबल विलेज का नारा भी समुद्री डकैतों के वंशजों द्वारा डिज़ाइन किया गया नव उपनिवेश वाद ही है जिसको यंत्र बनाकर तथाकथित तीसरी दुनिया के लोगों का वेल्थ ड्रेन करना ही इस चित्ताकर्षक नारे का उद्द्देष्य है।

इतनी यातनाओं, इतने बड़े पैमाने पर नरसंहार झेलने के बाद भी यदि हम बचे हैं तो उसमें हमारी अद्ध्यत्मिक दर्शन का बहुत बड़ा हाथ रहा है। गुरु गोविंद सिंह अपने बच्चों के साथ आत्म बलिदान करने को प्रस्तुत हो जाते हैं क्योंकि वे जानते थे कि - "मृत्युर्ध्रुवो सत्यं जन्म मृत्यु तथैव च" : जन्म और मृत्यु तथा कर्मफल सिद्धांत से वे परिचित थे। वे जानते थे कि मृत्यु के बाद जन्म लेने की बाध्यता है इसलिए धर्म काज हेतु जीवन बलिदान करना सौभाग्य की बात है।
लेकिन शायद यही अध्यात्म हमारी कमजोरी भी बनी - क्योंकि "स्वभाव अध्यात्म उच्चयते",। हम अपने स्वभाव से ही दुनिया के हर मजहब और रिलीजन के व्यक्ति या व्यक्ति समूह को आकलित करते हैं। हमारे सॉफ्टवेयर में धर्म के जिन लक्षणों की अवधारणा थी, उसी से हमने उन लुटेरों के धर्म का भी आकलन करना चाहा जो अरब या यूरोप से आये। यही हमारी भूल और कमजोरी सिद्ध हुई और 1000 साल की गुलामी हमारे हिस्से में आई। अहिंसा धर्म का मूल है, लेकिन हिंसा रिलीजन और मजहब की आत्मा है , साधन है सिद्धांत है। झूंठ छल फरेब धर्म के विरुद्ध है लेकिन अलतकिया मजहब की मूलआत्मा है। मनसा वाचा कर्मणा एक होना धर्म का मूलमंत्र है जबकि मुख में अल्ला और जीसस, बगल में बाइबिल और कुरान तथा हाँथ में तलवार ये रिलीजन और मजहब की ताकत रही है। इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नही है। आज 120 देश मे ईसाइयत और 56 देशों में इस्लाम का प्रसार इन्ही नीतियों और इन्ही हथियारों से हुवा है।
ऐसे में जब हम नारा देते हैं कि -
"इयं निजः परोवेति गणना लघु चेतसाम।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम"।।
तो सोचना ये पड़ेगा कि जब हमारे महामानव ऋषियो ने इस मंत्र की रचना तब किया था जब दुनिया में छल झूंठ फरेब और "किताब" के कमांड्स पर संगठित डकैतों के गिरोहों का जन्म नहीं हुआ था जो धर्म को जऱ जोरू जमीन पर कब्जा करने की मैन्युअल से ज्यादा कुछ नहीं है।
ऐसा न होता तो शायद पृथ्वीराज चौहान ने गोरी को रणक्षेत्र में हराने के बाद भी बार बार क्षमा नहीं किया होता। क्योंकि पृथ्वीराज के सॉफ्टवेयर के मैन्युअल में वो एप्प्स नहीं डाउनलोड थे जिसको विशुद्ध हरामीपन कहा जाता है - अलतकिया। इसलिए उन्होंने ये मूर्खता किया था।
लेकिन परेशानी और चिंता की बात ये है कि ये मूर्खता आज भी जारी है।
जब हम "गोल्डन रूल ऑफ रेसिप्रोसिटी" या गोल्डन एथिकल रूल के बारे में लिखते हौ कि ये तो हमारे ऋषियों ने बहुत पहले लिखा था कि -
" श्रूयतां धर्मसर्वस्वम् श्रुत्वा चाप्यवधार्यात्म।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत।।
अर्थात "धर्म का जीस्ट सुनो और उसको धारण करो। कि जो कर्म अपने विरुद्ध प्रतीत होता हो वह दूसरों के साथ व्यवहार न करो।
लेकिन यह तो दो सभ्य सुसंस्कृत आर्य लोगों के बीच होने वाले व्यवहार की बात की जा रही है। परंतु जब बात एक तरफ विश्वकल्याण की भावना वाले सॉफ्टवेयर वालों का मसला हो और दूसरी तरफ दुनिया के जर जोरू और जमीन पर किसी भी यंत्र तंत्र मंत्र से कब्ज करने वालो का गिरोह हो , तो "वसुधैव कुटुम्बकम" जैसे नारे सिर्फ भाषण के लिए ठीक हैं, व्यवहार के लिए नहीं ।

क्लेश ऑफ सिविलाइज़ेशन में रहीम का ये दोहा एकदम सटीक है कि :
"कह रहीम कैसे निभै केर बेर के संग"
वह डोलत रस आपने उनके फाटत अंग"।
क्योंकि छल फरेब झूंठ धोखा ताकत तलवार के दम पर उन्होंने दुनिया की जऱ जोरू जमीन पर कब्जा किया है। ये उनका मोडस ऑपरेंडी है। इतिहास इस बात का गवाह है।
इसलिए वसुधैव कुटुम्बकम के साथ एक मंत्र और जोड़ लीजिये - "शठे शाठयम् समाचरेत"।

क्योंकि उनका नारा है -"Survival of Fittest". और फिटेस्ट की परिभाषा है - साम दाम दंड भेद से फिट फाट।
और आपका नारा है :
"आत्म मोक्षर्थाय सर्वभूतेषु हिताय च। न सिर्फ मनुष्यों वरण समस्त जीवों का हित ही मनुष्य धर्म है।

इसलिए नारा थोड़ा जोर शोर से लगाइये लेकिन सावधान इंडिया।

ग्रंथ जलाने की मानसिकता

 आंबेडकर ने मनुषमृति जलायी 1927 में। 

बख्तियार ख़िलजी ने नालन्दा विश्विद्यालय का ग्रंथालय। 

एक ने ग्रंथ जलाया दूसरे ने ग्रंथालय। 

दोनों के कृत्य एक ही हुए। 

ये मोडस ऑपरेंडी अब्राहमिक रेलिजन्स की मूल कार्यप्रणाली है। असहमति को सहन न करना। दरअसल आसमानी किताबों के पैगम्बरों ने विश्व के श्रम और मेधा से अर्जित धन वैभव और भूमि पर कब्जा करने के लिए जो विधान बनाया उसी को धर्म का नाम देकर एक गिरोह तैयार किया जो तीसरी शताब्दी में यूरोप और सातवी शताब्दी से अरब में पैदा हुवा।
इतने वर्षों में इसी मोडस ऑपरेंडी से विश्व के 122 देशों में ईसाइयों ने , और 56 देशों में मुसलमानों ने जर जोरू और जमीन पर कब्जा किया।

भारत शाश्त्रार्थ का देश है - 1030 में अलुबेरणी ने लिखा।
सैकड़ो दृश्टान्त है जब लोगों ने शाश्त्रार्थ से एक दूसरे को अपना अनुयायी बनाया। आदि शंकर और मंडन मिश्र का प्रसिद्ध शाश्त्रार्थ इसका उद्धरण है।

ये जाहिलियत भारत भूमि की धरती का कलंक है।

क्या डॉ अम्बेडकर को संस्कृत आती थी ?
नहीं आती थी।
तो कहां से पढ़ लिया उन्होंने।
पढ़ भी लिया और असहमति थी तो क्या किसी शास्त्री के पास जिज्ञासा लेकर गए कि ऐसा ही है या कि किसी ने क्षेपक घुसेड़ दिय्या है ?

दरअसल 1927 तक उनको कोई नही जानता था। ये कदम उन्होंने स्वयं के मन से राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु उठाया या फिर अंग्रेज आकाओं ने उनसे ऐसा करवाया - ये गहन जांच का विषय है।

क्योंकि 1928 में जब साइमन आया तो पूरे भारत ने उसका विरोध किया। लाला लाजपत राय ने अपने जीवन की कुर्बानी उसी का विरोध करते हुए दिया था।

लेकिन साइमन डॉ आंबेडकर को बहुत पसंद आया। और उसके साथ इन्होंने पहली बार अछूत शब्द को ब्रिटिश डॉक्यूमेंट का हिस्सा बनाया। आगे की कहानी आप जानते हैं।

https://sabrangindia.in/article/why-did-dr-babasaheb-ambedkar-publicly-burn-manu-smruti-dec-25-1927

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1892041780825880&id=100000602280268

Tribhuwan Singh's photo. #जंक_फ़ूड #नेगेटिव_एनर्जी का #स्रोत:



Tribhuwan Singh's photo.
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"अहमन्नमहमन्नम" मैं अन्न हूँ । ( तै. उपनिषद)
अन्न ब्रम्ह है। अर्थात अन्न ही एनर्जी है। अन्न ही प्राणरस है। अन्न न मिलने की स्थिति में प्राण पखेरू इस काया को त्याग देते हैं।
रहीम ने लिखा:
"रहिमन रहिला की भली जो परसत चित लाय।
परसत मन मैला करै सो मैदा जरि। जाय ।।"

चित लगाकर बनाये और परोसे गए भोजन में प्राण होता है। प्राण यानी सात्विक या पॉजिटिव एनर्जी। मां के हाँथ का बनाया गया रूखा सूखा भी दुनिया का स्वादिष्ट व्यंजन लगता है। क्योंकि उसमें मां के मन का भाव भी भोजन में ट्रांसफर हो जाता है। और उस भोजन से सात्विक ऊर्जा या पॉजिटिव एनर्जी मिलती है।

इसीलिए कृष्ण ने दुर्योधन के राजसी आतिथ्य का त्यागकर विदुर के घर साग रोटी खाया था। इसीलिए भोजन वही करना चाहिए जो प्रेम से पकाया और परोसा गया हो। ये भोजन का मनोवैज्ञानिक पक्ष है ।

ताजे भोजन में भी सात्विक या पॉजिटिव एनर्जी मिलती है। भागवत गीता के अनुसार एक प्रहर यानी 3 घण्टे से ज्यादा बासी भोजन तामसी हो जाता है। तामसी अर्थात नेगेटिव एनर्जी।

"यातयामम् गतरसम् पूति पर्युषितं च यत।
उच्छिष्टमपि चामेध्यम् भोजनं तामसप्रियम्।।"
( भाग गीता 17.10)
अर्थात " खाने से तीन घण्टे पूर्व पकाया गया, रसहीन, बिगड़ा एवं दुर्गन्धयुक्त जूठा एवं अश्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन तामसी लोगो को प्रिय होते हैं। "
तामसी अर्थात नेगेटिव एनर्जी से युक्त पर्सनालिटी।
जितने भी जंक फूड हैं वे नेगेटिव एनर्जी के स्रोत होते हैं। यदि उनमे presrvative न मिलाया जाय तो वे सड़ जायँ।
( आजकल ऑर्गनिक का बड़ा जोर है। भारत मे सिरका अचार आदि जो भी बनते थे वे बिना preservative के बनते थे।
अब मॉडर्न युग के लोगों को वो सब उपलब्ध नहीं है। )
नेगेटिव एनर्जी स्ट्रेस का प्रबल स्रोत होता है और स्ट्रेस से आप जानते है कि मॉनसिक अवसाद होता है उससे - डायबिटीज ब्लड प्रेशर आदि होता है।
सात्विक भोजन से आयु, सत्व ( अस्तित्व), बल, आरोग्य, सुख और संतोष बढ़ता है। यानी स्ट्रेस कम होता है।

पश्चिमी जीवन पद्धति नेगेटिव एनर्जी का संचय करती है और मन मे असंतोष, भय, संशय और कुंठा पैदा करती है क्योंकि उनका भोज्य प्रायः नेगेटिव एनर्जी वाला ही होता है।

पैक्ड फ़ूड = जंक फूड = स्ट्रेस युक्त जीवन = ब्लड प्रेशर डायबिटीज, मॉनसिक अवसाद।

#जैसा_खाय_अन्न #वैसा_बने_मन्न

हिन्दुओ को टुकडे टुकड़े में बांटने की अंग्रेजों की शाजिश को संविधान में जगह क्यों दी गयी ?

हिन्दुओ को टुकडे टुकड़े में बांटने की अंग्रेजों की शाजिश को संविधान में जगह क्यों दी गयी ?

जाहिर सी बात है कि पूरी दुनिया में अपना परचम लहराने वाले यूरोपीय ईसाईयों को जितनी संपत्ति भारत में मिली उतना ही कड़ा मुकाबला भी उनको भारत की धरती पर ही मिली ।

प्रामाणिक सूत्र आज बताते हैं कि अमेरिका में इन्होंने 1500 से 1800 AD के बीच वहां के सोने चांदी के खदानों और वेयरहाउस के मालिकों का कत्ल करके उस पर कब्जा किया और वही सोना चांदी बहुत बाद में भारत में आकर व्यापार किया ।
लेकिन इस दौरान उन्होंने 20 करोड़ रेड इंडियन का ईसाइयत का परचम गाड़ने के लिए उनका क़त्ल कर दिया ।

लेकिन भारत जैसे विकसित तकनीक के देश में वे ऐसा न कर पाए ।
क्यों ?

क्योंकि भारत के लोगों ने उनका सशस्त्र विरोध किया ।

1857 इसका एक उदाहरण है जिसको mutiny का नाम दिया उन्होंने ।

मुघलो ने राज्य किया लेकिन वे भारत के निर्माण कला और सशस्त्र भारतियों को खत्म न कर पाए ।
न वे इस देश में लुटे धन को देश के बाहर ले गए।
इसलिए 1750 तक भारत पूरी दुनिया के 25% जीडीपी का मालिक बना रहा ।

1500 तक भारत पूरी दुनिया की 35% जीडीपी का मालिक था ।

लेकिन जब उन्होंने भारतीय शिल्प को नष्ट करना शुरू किया तो 1857 में भारतीयों ने उनका सशस्त्र विरोध किया।

इसीलिए 1860 में उन्होंने Indian Arms Act बनाकर भारतियों को निशस्त्र किया ।

फिर उसके बाद भी विरोध जारी रहा तो उन्होंने भारतियों को , विशेषकर हिंदुओं को कई टुकड़ों में बांटने का सफल प्रयास किया ।
1932 में उन्होंने हिंदुओं की एक लड़ाकी कौम सिख को हिंदुओं से अलग मान्यता दिया।
उसके पहले उन्होंने वन वासी और पहाड़ वासी हिंदुओं को #Animist के नाम से अलग किया ।

फिर 1935 में भारत के इस 25% जीडीपी के निर्माताओं के वंशजों को कंगाल , बेरोजगार, और बेघर करने के उपरांत #एनिमिस्ट को शेड्यूल ट्राइब और बेरोजगार लोगों को शेड्यूल कास्ट में बाँट कर अलग हिंदुओं को अलग अलग बाँट दिया।
अपनी शाजिश को भारतीय पक्ष बनाने हेतु उन्होंने #फुले#आंबेडकर और #पेरियार को उसी तरह प्रयोग किया जिस तरह 1757 में #मीरजाफर का प्रयोग किया था ।

यही ईसाइयत की शाजिश संविधान में भी घुसेड़ दिया , संविधान निर्माताओ ने ।

देखिये आज कितने ST और SC ईसाई बन गये हैं और निरन्तर बनते जा रहे है ।

रोमन और ग्रीक सभ्यता को किस तरह नष्ट कर उन्होंने ईसाईयत फैलाई , उस अनुभव को भारत में execute किया ।

और ओबीसी उसी शाजिश की स्वतंत्र भारत में एक्सटेंशन है वरना कोई कमीशन पुरे भारत का मात्र 6 महोने में सर्वेक्षण करके किसी निर्णय पर पहुँच सकता है ?
वो भी 1989 में ?
जब लोगों के पास एक लैंडलाइन भी एक उपलब्धि थी ?

टोटल फ्रॉड विथ भारत that is India .

वर्ण व्यवस्था शाजिश या आधुनिक लोकतन्त्र की जननी


varna system ?? colour of skin or more than modern democratic institutions / It is classification of duties
वर्ण व्यवस्था शाजिश या आधुनिक लोकतन्त्र की जननी
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#पूर्वपक्ष :

जब यूरोप के ईसाई विद्वानों ने संस्कृत ग्रंथो का अदध्ययन किया तो विलियम जोहन्स ने 19वी शताब्दी के अंत मे बताया कि संस्कृत latin और ग्रीक से भी भव्य भाषा है / बाद मे इस को सारी यूरोपीय भाषाओं कि जननी घोषित किया / बाद मे अनेक ईसाई विद्वान आए जिनहोने संस्कृत ग्रन्थों से भारतीय परंपरा को समझने कि कोशिश की और फिर उसका विश्लेषण किया लेकिन मासूमियत मे या शाजिसन उसको अपनी रीति रिवाज और बाइबल के धर्मसिद्धांतों के अनुरूप उसकी व्याख्या भी की /

उनका पहला शिकार बना वर्ण व्यवस्था / उन्होने बताया कि वर्ण अर्थात चमड़ी का रंग / और उसी के साथ साथ दक्षिण भारत मे ईसाई अधिकारियों और मिशानरियो ने एक विवेचना की और स्थापित किया कि दक्षिण भारतीय तमिल एक अलग नश्ल थे जिनको #द्रविड़ की संज्ञा दी गई /
अब एक नयी परिकल्पना मैक्स मुलर ने गढ़ी कि आर्य अर्थात संस्कृत बोलने वाले लोग बाहर से आए और द्रविणों को दक्षिण मे विस्थापित कर दिया / ये आर्य गोरों अंग्रेजों से निम्न थे परंतु काले द्र्विनों से उच्च थे / अब फिर उसमे बताया कि पूरे भारत के तीन वर्ग क्षत्रिय ब्राम्हण वैश्य आर्य अर्थात साफ रंग के थे और शूद्र और द्रविन काले थे / तो जो साफ रंग के थे वो हुये सवर्ण बाकी सब असवर्ण / लेकिन कौटिल्य के अर्थशास्त्रम और अन्य ग्रन्थों के अनुसार सवर्ण और असवर्ण मात्र शादी विवाह के संदर्भ मे ही उद्धृत है/ अर्थात एक ही और समान कुल समुदाय मे हये विवाह को सवर्ण और पृथक पृथक कुल समुदाय मे होने वाले विवाह को असवर्ण की संज्ञा दी गई/
लेकिन आज समाज मे और राजनीति मे इसका अर्थ किस रूप मे प्रयोग होता है , आप सब लोग उससे अवगत हैं /

ये तो हुआ संक्षिप्त सारांश : अब इसी आधार पर भारत के जो लोग आर्य थे वो हुये सवर्ण और जो काले शूद्र और द्रविण थे वो हुये असवर्ण बाद मे एक और वर्ण भी जोड़ा गया अवर्ण / तो सवर्ण ; असवर्ण : और अवर्ण

#उत्तरपक्ष :

अलुबेर्नी ने 1030 AD मे संस्कृत के बारे मे लिखा कि ये ऐसी भाषा है जिसमे किसी शब्द का अर्थ समझने के लिए उस वाक्य मे उस शब्द के पहले और बाद के शब्दों को , और किस संदर्भ और प्रसंग मे उसका प्रयोग किया जा रहा है ; इसको यदि नहीं समझा गया तो उस शब्द का अर्थ समझ मे नहीं आएगा , क्योंकि एक ही शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं /
ईसाई संस्कृतज्ञों ने बताया कि वर्ण यानि चमड़ी का रंग / ठीक है हो सकता है, क्योंकि श्याम वर्ण भारत मे काफी श्रद्धा से जुड़ा हुआ रंग है भगवान राम और कृष्ण दोनों ही श्याम वर्ण के थे /
लेकिन वर्ण का एक अर्थ शब्द भी होता है / तुलसीदास की रामचरीत मानस का प्रथम श्लोक है :
वर्णनामर्थसंघानाम रसानाम छन्दसामपि /
मंगलनाम च कर्तारौ वंदे वाणी विनायकौ //
अर्थात – अक्षरों अर्थसमूहों रसों छंदो और मगल करने वाली सरस्वती और गणेश जी की मैं वंदना करता हूँ /
वर्ण का अर्थ अगर चमड़े का रंग है तो वरणाक्षर का क्या अर्थ है ? वर्णमाला का क्या अर्थ है ?
वर्णध्रर्मआश्रम का क्या अर्थ है ?
वर्ण व्यवस्था मे और वर्णध्रर्मआश्रम मे वर्ण का अर्थ होता है वर्गीकरण / तो किस चीज का वर्गीकरण ?
वर्णधर्मआश्रम में जीवन को चार चरणों मे व्यतीत करने का वर्गिकरण है वर्ण का अर्थ ब्रांहचर्य गृहस्थ वानप्रसथा तथा सन्यास , ये चारा आश्रम हैं /
वर्ण-व्यवस्था : मे भी वर्ण का अर्थ है वर्गीकरण / क्लासिफिकेसन
तो प्रश्न उठता है कि किस चीज का वर्गीकरण ??

आइये समझते हैं / किसी भी समाज के उत्थान के लिए ज्ञान का उद्भव और उसका प्रसार और उसका समाज के हित मे जीवन राज्य और राष्ट्र की समृद्धि के लिए उपयोग आवश्यक है - जो इन कार्यों मे रुचि रखेगा और ज्ञान प्राप्त करेगा -- उसको ब्रामहन की संज्ञा दी जाएगी / लेकिन ज्ञान को प्राप्त करने वाले को अपरिग्रही जीवन व्यतीत करना होगा/
किसी राज्य या राष्ट्र मे जीवन उपयोगी वस्तु अन्न पशु पालन व्यवसाय और सर्विस सैक्टर की आवश्यकता होती है - जो इन कार्यों मे रुचि रखेगा और इन कार्यों को संपादित करेगा उसे शूद्र की संज्ञा दी जाएगी - आज की तारीख मे सर्विस सैक्टर इंजीनियर टेक्नोक्रटे आदि आदि /
किसी भी राष्ट्र मे निर्मित वस्तुओं को देश विदेश मे ले जाकर क्रय विक्रय की आवश्यकता होती है - जो व्यक्ति स्वरूचि के अनुसार ये काम करेगा - उसे वैश्य कहा जाएगा /
किसी भी समाज मे सुशासन हेतु समाज ज्ञान विज्ञान , निर्माण और व्यवसाय के उन्नति के लिए इन तीन वर्गों और राज्य और राष्ट्र की रक्षा करने की आवश्यकता होती है - जो व्यक्ति इस कार्य को स्वरूचि के अनुसार करेगा उसको क्षत्रिय की संज्ञा दी गई /

अब इस कर्म आधारित धर्म यानि कर्तव्य के वर्गीकरण को संस्कृत ग्रन्थों से समझने की कोशिस करते हैं /

गीता मे कृष्ण कहते हैं कि – चतुषवर्ण मया शृष्टि गुणकर्म विभागसः
अर्थात मैंने चारो वर्णों की रचना की है लेकिन गुण और कर्मों के अनुसार / अर्थात जिसके जैसे कार्य होंगे उन्हीं गुणों के आधार पर उनको उस श्रेणी मे रखा जाएगा /
आचार्य कौटिल्य कहते है – #स्वधर्मो ब्रांहनस्य अध्ययनम अद्ध्यापनम यजनम याजनम दानम प्रतिगहश्वेति /
क्षत्रियस्य अद्ध्ययनम यजनम दानम शस्त्राजीवो भूतरक्षणम च /
वैश्यस्य अध्ययनम यजनम दानम कृशिपाल्ये वाणिज्या च/
शूद्रश्य द्विजात्शुश्रूषा वार्ता वार्ता कारकुशीलवकर्म च /
बाकी तो सबको सब पता ही है मैं सिर्फ स्वधर्मों और शूद्र पर लिखूंगा /
स्व धर्मो अर्थात अपने धर्मानुसार ,अपनी इच्छा से , अपने विवेक से ,अपने एप्टिट्यूड के अनुसार अपने धर्म का पालन करें /ज़ोर जबर्दस्ती नहीं है, न समाज की तरफ से सरकार की तरफ से क्योंकि ये कौटिल्य का G O हैं यानि सरकारी परवाना छपा है/
धर्म का अर्थ रिलीजन नहीं है ये आप सब जानते हैं और अगर नहीं जानते तोhttps://www.facebook.com/…/difference_between_dharma_and_re… पढे /
जब आप मातृधर्म पित्रधर्म राष्ट्रधर्म पुत्रधर्म जैसे शब्दों का प्रयोग कराते है तो धर्म का अर्थ कर्तव्य होता है /

आज लोकतन्त्र मे जब न्यायपालिका संसद सेना और कार्यकारिणी हैं सबके कर्तव्य ही तो निर्धारित किया गए हैं संविधान ने / तो वर्ण व्यवस्था आधुनिक लोकतन्त्र की जननी ही तो है /
और जहां तक जन्मना किसी वर्ण को धारण करने की बात है तो ये कम से कम कौटिल्य के समय तक तो नहीं था /
जन्मना जायते शूद्रः कर्मणाय द्विजः भवति " एक मिथ नहीं एक सच ; प्रमाण कौटिल्य अर्थशास्त्रम्
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आंबेडकर जी के पूर्व के क्रिश्चियन मिशनरियों के लेखक और इतिहासकारों ने ऋग्वेद के पुरुष शूक्त को आधार बनाकर समाज में राजनैतिक और धर्म परिवर्तन के लिहाज से प्रमाणित करने की कोशिश की कि वैदिक काल से ये समाज का वर्गीकरण कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित रहा है /
उसी विचार को बाद में मार्क्सिस्टों ने और आंबेडकर वादियों ने आगे बढ़ाया / 1901 की के पूर्व जाति आधारित जनगणना भी नहीं होती थी (पहली जनगणना 1871 में हुयी थी ) बल्कि वर्ण और धर्म के आधार पर होती थी/ 1901 में जनगणना कमिशनर रिसले नामक व्यक्ति ने ढेर सारे त्रुटिपूर्ण तथ्यों और एंथ्रोपोलॉजी को आधार बनाकर 1700 से अधिक जातियों और 43 नाशलों में भारत के हिन्दू समाज को बाटा / वही जनगणना भारतीय हिन्दू समाज का आजतक जातिगत विभाजन का मौलिक आधार है / जाति के इस नियम को उसने "कभी गलत न सेद्ध होने वाला जाति का नियम " बनाया जिसके अनुसारे जिसकी नाक जितनी चौणी वो समाज के हैसियत के पिरामिड मे उतना ही नीचे होगा / और उसले अल्फबेटिकल लिस्ट न बनाकर इसी नाक के सुतवापन और चौड़ाई को मानक मानकर इसी हैसियर के अनुसार लिस्ट बनाई / जो इस लिस्ट ऊपर दर्ज हैं वो हुये ऊंची जाति और जो नीचे हैं वो हुये निचली जाति /

पुनश्च : गीता के -"जन्मना जायते शूद्रः कर्मण्य द्विजः भवति " को इतिहासकार प्रमाण नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार महाभारत एक मिथ है /

लेकिन अभी मैं कौटिल्य अर्थशाश्त्रम् पढ़ रहा था तो एक रोचक श्लोक सामने आया / " दायविभागे अंशविभागः " नामक अध्ह्याय में पहला श्लोक है -"एक्स्त्रीपुत्राणाम् ज्येष्ठांशः ब्राम्हणानामज़ा:, क्षत्रियनामाश्वः वैश्यानामगावह , शुद्रणामवयः "
अनुवाद : यदि एक स्त्री के कई पुत्र हों तो उनमे से सबसे बड़े पुत्र को वर्णक्रम में इस प्रकार हिस्सा मिलना चाहिए : ब्राम्हणपुत्र को बकरिया ,क्षत्रियपुत्र को घोड़े वैश्यपुत्र को गायें और शूद्र पुत्र को भेंड़ें /
दो चीजें स्पस्ट होती हैं की वैदिक काल से जन्म के अनुसार वर्ण व्यस्था नहीं थी क्योंकि कौटिल्य न तो मिथ हैं और न प्रागैतिहासिक / ज्येष्ठपुत्र को कर्म के अनुसार ही हिस्सा मिलता था/ और एक ही मान के पुत्र कर्मानुसार किसी भी वर्ण में जा सकते थे /
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अब शुद्र् के कर्तव्यों के बारे मे जानना हो तो शुश्रूषा यानि सर्विस सैक्टर , और वार्ता जो की विद्या का ही एक अंग है उसमे एक्सपर्ट होना / वार्ता का अर्थ है -https://www.blogger.com/blogger.g
अब अंत मे सवर्ण असवर्ण और अवर्ण जैसे शब्दों को जानना चाहते है तो पढ़ें -https://www.blogger.com/blogger.g
ईसाई विद्वानों ने ये तो बताया कि वर्ण यानि चमड़ी का रंग ।लेकिन ये न बताया कि कौन सा रंग ? काला सफ़ेद की पीला ।
तो सवर्ण किस रंग का ?
और असवर्ण किस रंग का ?
अगर असवर्ण माने काला रंग तो हमारे भगवान् राम और कृष्ण तो काले / साँवले ही थे न
तो वो भी असवर्ण ??
यानि पेंच कही और है ।
हाँ सही सोचा आपने ये बाइबिल का लोचा है।

संविधान मे खडयंत्र : ऊपर वर्णित तीन वर्ग ब्रामहन क्षत्रिय और वैश्य , जिनको कि मक्ष्मुल्लर ने आर्य ( पीले या गहए रंग का : सफ़ेद रंग से नीचे ) होने की कहानी गढ़ी - उनको 1901 मे वर्ण के बजाय 3 जातियों का नाम दिया गया / बाकी एन वर्ग शूद्र मे से 1700 से ऊपर जातिया खोजकर , बाद मे उनको SC ST और OBC बनाकर संविधान मे घुशेड दिया गया /

भारत के संविधान मे ये फर्जी #Aryan_Invasion_Theory घुसेड़ी गई है / जब तक इसका निरीक्षण परीक्षण और शोधन और संशोधन नहीं होगा, भारत खंड खंड मे बंटा रहेगा , और राजनीतिज्ञो कसाइयों इसाइयों और मर्कसियों का #भारत_तोड़ो_भारत_लूटो अभियान चलता ही रहेगा /

Thursday, 26 July 2018

Renaissance: एक बहुप्रचारित शब्द।

Renaissance: एक बहुप्रचारित शब्द। अब इसकी हिंदी क्या खोज निकाली भाई लोगों ने, भगवान जानें या आप बतावें।
यूरोप में रोमन संस्कृति के बाद ईसाइयत का कब्जा होने के बाद बाइबिल से इतर कोई भी बात सोचने समझने या बोलने की सख्त मनाही थी।
1600 AD में ब्रूनो ने सिर्फ इतना ही बोला कि - पृथ्वी के चारों तरफ सूर्य नहीं घूमता वरन पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ घूमती है - उसको चर्च ने आग में जलाकर मार दिया।
गैलीलियो का भी इसी कारण आजीवन गृह कारावास दिया गया।
यूरोप में 1500 वी शताब्दी में जनसंख्या विस्फोट के कारण जब यूरोपीय ईसाई विश्व के गैर ईसाइयो को लूटने निकले तो धन वैभव के साथ साथ भारतीय साहित्य भी उनके हाँथ लगा जिसके कारण - उनके यहाँ Renaissance जैसी विचार धारा का जन्म हुआ जिसको उन्होंने क्रांति का नाम दिया।
यही से सोचने और विचारने - Thoughts को महत्वपूर्ण माना जाने लगा।
अनुभव नहीं विचार।
इस युरोपियन हैंग ओवर ने अभी भी पूरे विश्व को अपने मकड़जाल में फंसा रखा है।
आप क्या सोचेंगे ? जो आपने अपने पांच ज्ञानेंद्रियों से सूचनाएं एकत्रित की हैं आप वही न सोचेंगे।
फंतासी भी सोच का ही एक अनुभाग है।