Tuesday, 7 August 2018

#विचारक_या_थिंकर्स_एक_मानसिक_बंधुआ_मजदूर:

#विचारक_या_थिंकर्स_एक_मानसिक_बंधुआ_मजदूर:
आज एक भाई ने फिर लंबा चौड़ा व्याख्यान देते हुए आर्यन नश्ल का हवाला देते हुए व्याख्यान लिखा है।
विचार क्या हैं ?
विचार आपके द्वारा एकत्रित की गयी सूचनाओं के डेटा को अपने गुण और धर्म ( स्वभाव) के अनुसार फेंट कर निकाला गया निष्कर्ष है।
इसको आप एक साइकोलॉजिकल ड्रामा भी कह सकते हैं। हर व्यक्ति का अपना साइकोलॉजिकल ड्रामा होता है। इसीलिए वर्षो वर्ष साथ रहने के बाद भी एक ही तरह की सूचनाओं के संग्रह के बाद भी भाई भाई के विचार अलग अलग होते हैं।
इसलिए गुण धर्म तो बदलना संभव नही है। परंतु सूचनाओं की सत्यता प्रामाणिक है कि गढ़ी हुई है यह निश्चित तौर पर पता किय्या जा सकता है।
सूचना संकलन की सबसे बड़ी समस्या है - आपको शिंक्षा के माध्यम से वितरित की गयी सूचना, जिसको आप एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह अपने गुरु या पुस्तकों से एक सत्य की तरह ग्रहण करके, उससे अपना तादात्मिकरण ( आइडेंटिफिकेशन) कर लेते हैं।
मैं अरुण त्रिपाठी और उमेश सिंह जी के साथ कई बार प्रोफेसर अमर सिंह और प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा से मिलने गया हूँ। वे जिस युग के छात्र थे उसमे आर्यन इन्वेजन और संस्कृत को इंडो युरोपियन इंडो जर्मन भाषा के अफवाह को एक ज्ञान की तरह ग्रहण करते आये थे, पढ़ते पढ़ाते आये थे, और उसको सच मानते आये थे।
लेकिन मैने कभी भी इस उम्र में उनके भ्रम को तोड़ना ठीक नही समझा, यद्यपि लोगों ने उसकाया भी। क्योंकि उस उम्र में यदि यह भ्रम टूटे कि जिस अफवाह को हम सच मानकर पढ़ते पढ़ाते आये थे, वह एक अफवाह मात्र थी तो तकलीफ होती है।
इसीलिये कभी नही बताया कि यह थ्योरी कब की खारिज की जा चुकी है।
लेकिन आज भी जब कुछ विद्वानों को उसी अफवाह को सच मानकर इसको लिखते पढ़ते और वाह वाही पाते देखता हूँ तो लगता है कि भ्रम और अफवाह का इंद्रजाल अभी भी ज्ञान समझकर वितरित किया जा रहा है।
तो बात मूल विंदु पर।
कि लोग किस तरह सूचनाओं के बंधुआ मजदूर बन जाते है ?
यह एक सहज मानव स्वभाव है।
चिकित्सा के अपने स्वयम के और अपने निज गृह के अनुभव ( realization) से यह बात मैं जानता हूँ कि जब कभी किसी के जीवन मे उसके किसी प्रिय के साथ कुछ अनहोनी हो जाती है, और उसको बताया जाता है कि ऐसा हो गया तो उसकी प्रथम प्रतिक्रिया उसको नकारने की होती है। फिर वह बीमारी के स्वभाव के अनुकूल कई चिकित्सको से संपर्क करता है कि शायद कहीं से यह बात गलत निकल जाए। सारे चिकित्सक यदि एक ही राय दें तो वह झाड़ फूंक मुल्ला मौलवी का रास्ता देखता है।
उसकी समस्त कोशिश यह होती है कि सत्य को झूंठ प्रमाणित किया जा सके। क्योंकि उसने अपने प्रिय से अपना तादात्मिकरण ( आइडेंटिफिकेशन) कर रखा होता है। और इसलिए मोह वश उसकी सहज बुद्धि काम नही करती।
सूचना से बनने वाले विचारों या साइकोलॉजिकल ड्रामा के साथ भी यही सच है। जिसने अपने जीवन के संघर्ष काल मे सूचनाओं को ज्ञान की तरह गृहीत और संग्रहित किया हो, जिसके कारण उसकी डिग्री या अस्मिता समाज मे स्थापित हुई हो, वह उन सूचनाओं से अपना तादात्मिकरण कर लेता है, स्वयम को उन विचारों से identify करता है।
मनुष्य के सॉफ्टवेयर में चार एप्प्स होते हैं।
मन बुद्धि चित्त अहंकार।
मन है सॉफ्टवेयर का मेमोरी कार्ड।
बुद्धि है तुलनात्मक रूप से इन सूचनाओं और अनुभव के बारे में समझ विकसित करने का एप्प्स।
और अहंकार है - हर भौतिक मॉनसिक और भावनात्मक तथ्य, या सूचना, जिससे आप स्वयम को identify करते हो, अपना तादात्मिकरण करते हो।
तो द्विवेदी जी और सुशोभित जी।
कोई भी भारतीय संस्कृत ग्रंथ उठा लो। काणे खोतर मैक्समुलर जैसे सेकेंडरी स्रोतों को छोड़ो।
आर्य शब्द का अर्थ अमरसिंह प्रणीत अमरकोश से सिर्फ यही मिलता है :
षट सज्जनस्य : महाकुल कुलीन आर्य सभ्य सज्जन साधवः।
अर्थात आर्य का अर्थ है - सज्जन साधु
और अनार्य का अर्थ है - दुर्जन या दुष्ट।
हर समाज और देश तथा हर काल मे यह पाये जाते हैं। यह कही समूह में नही होते।
यह अत्र तंत्र सर्वत्र होते हैं।
बाकी आपका विचार आपका साइकोलॉजिकल ड्रामा है, और मेरे विचार मेरे।
लेकिन सत्य तो एक ही न होगा?
कि सत्य भी अलग अलग होगा ?

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