सखाराम गणेश देउस्कर लिखित 1904 में 'देशेर कथा' बांग्ला में लिखी गयी।
इसका हिंदी अनुवाद बाबुराव विष्णु पराड़कर ने किया था।
उसी का कुछ अंश :
प्रायः शक्ति सम्वन्धी संघर्ष इतिहास की भूमि पर होते हैं। उपनिवेशवाद , दूसरे देशों और समाजों के वर्तमान और भविष्य पर कब्ज़ा करने के लिए , व्याख्या की राजनीति के माध्यम से , उनके इतिहास पर भी कब्ज़ा करता रहा है। अफ्रीका के बारे में ऐरोप के अनेक दार्शनिकों ने घोषणा की थी कि वहां कोई इतिहास नहीं है। भारत के बारे में ऐसा नहीं कह सकते थे , इसलिए उन्होंने भारत के इतिहास की पुनर्व्याख्या और दुर्व्याख्या की कोशिश की।सन् 1857 के महाविद्रोह के बाद उपनिवेशवादी दृस्टि से इतिहास - लेखन की जो कोशिश हुई उसमे भारतीय इतिहास के मुस्लिम शासनकाल को अन्याय और अत्याचार का काल साबित किया गया । इसका कारन यह था कि 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध हिन्दूओं और मुसलमानों के बीच जो एकता कायम हुई थी उससे अंग्रेजी राज् डरता था, और उसे तोडना चाहता था , इसीलिये मुसलमानी शासन को अत्याचारी शासन के रूप में प्रस्तुत किया गया।
यदि सन 1833 में बने पार्लियामेंट के कानून के अनुसार काम किया जाता तो ब्रिटिश शासन से भारत के सब लोग प्रसन्न रहते।पर दुःख की बात है कि वैसा नहीं किया गया। पार्लियामेंट में बने कानून में कहा गया था कि -
"भारतवासी धर्म रंग कुल निवास आदि किसी भी बात के आधार पर बिना भेद भाव के कोई भी पद कंपनी के अंदर प्राप्त कर सकता है । "
यहाँ के अधिकारीयों ने यदि कुटिलता न की होती तो हम लोग भारतवर्ष में लॉट साहब का भी पद प्राप्त कर सकते थे। परंतु निरंकुश कंपनी के अधिकारीयों ने पार्लियामेंट के इस कानून के अनुकूल काम नहीं किया ।
1852 में विलायत की अनुसन्धान - सिमिति के सामने साक्ष्य देते हुए विसराय की एग्जीक्यूटिव कमेटी के सदस्य हे. के. मर ने साफ़ कहा था -
" मैं जहाँ तक जानता हूँ सन् 1833 के पार्लियामेंट के नियम के अनुसार एक भी भारतवासी उच्च सरकारी काम पर नियुक्त नहीं किया गया है ।इस नियम के बनाने के पूर्व वे जिन पदों पर नियुक्त किये जाते थे आज भी उन्ही पदों पर नियुक्त किये जाते हैं -- उनकी स्थिति में इस नियम को बनाने से कोई उन्नत नहीं हुयी है " ।
सोर्स: देशेर कथा पेज -9
ऐसा हो ही नहीं सकता कि बड़े बड़े कामों की योग्यता न होने के कारण भारतवासियों को वह काम नहीं दिए जाते हैं । इस देश का धन लूटने ही के लिए सरकार सब बड़े बड़े पदों पर अंग्रेजों को बहाल करती है। एक वर्ष में 1700 भारतीय जितना धन कमाते है , उतना धन एक सिविलियन साहब को पोसने में खर्च होता है । इसके बारे में आर. एन. कांट नामक सहृदय सिविलियन ने कहा है -
"अंग्रेज भारत में नौकरी कर बहुत सा धन इंग्लैंड ले जाते हैं ।इसका परिणाम यह होता है कि भारतवासी दिनों दिन दरिद्र होते जा रहे हैं और अंगेज अमीर। दूसरे का धन कब्जाने को सदैव आतुर मध्यवर्रगीय अंग्रेज और पैदाइशी भुक्खड़ स्कॉट लोग इस देश में बड़ी बड़ी नौकरियां चाहते हैं ; जो भारत वासियों की आशाओं के सारे द्वार बन्द कर देती है " ।
भूतपूर्व बड़े लॉट लार्ड लिटन ने अपने एक गुप्त मंतव्य- पत्र में लिखा --
"इस कानून के बनते न बनते (no sooner the act was passed) सरकार (भारत की) इसके अनुसार काम न करने की झंझट से बचने का उपाय खोजने लगी ।हम सभी लोग जानते हैं कि भारतवासियों का उसीजच पद पाने का हौसला और दावा कभी पूर्ण नहीं होगा --- हो ही नहीं सकता। इसलिए हमारे पास उनको इन पदों से वंचित करने और धोखा देने के अलावा कोई चारा नहीं था ; और यही हम लोगों ने किया भी।"
अपनी बात सच कर दिखाने के लिए लार्ड लिटन बहादुर ने सुझाव दिया कि " सिविल सर्विसेज की परिक्षा देने वाले विद्यार्थियों की उम्र (पहले से ) कम होनी चाहिए।" इस आशय का एक कानून बना डाला। इतनी कम उम्र में यहाँ से विलायत जाकर सिविल सर्विसेज की परीक्षा देना साधारण बुद्धि या पारिवारिक पृष्ठिभूमि के लोगों के लिए असंभव सा हो गया हैं।
लार्ड सलिसबरी से लार्ड नॉर्थबुक से 1883 में पूंछा कि भारत में ब्रिटिश पार्लियामेंट और रानी विक्टोरिया के 1858 के घोसणा पत्र के अनुसार काम क्यों नहीं होता तो ब्रिटिस साम्राज्य के तीन बार प्रधानंत्री रह चुके लार्ड सलसिबरी ने इसे political hypocrisy / राजनीतिक धूर्तता कहकर साफ़ उडा दिया।
सं 1875 में इसी राजपुरुष ने कहा कि - India must be bled, " भारतवर्ष का खून अवस्य ही चूसना होगा।
पण्डित श्यामकृष्ण वर्मा ने हिसाब करके दिखाया है कि इंग्लैंड का प्रत्येक स्त्री पुरुष और बच्चा भारत से प्रतिवर्ष 15 रुपये पाता है । खून चूसना और किसे कहते हैं ??
Sir Thomas Munro - the consequence of conquest of India by British arms would be in place of raising , to debase the whole people.
"अंग्रेजों के भारत विजय से भारतवासियों की उन्नति तो नहीं होगी , हाँ उनका मूलाधार अवश्य खिसक जाएगा।"
सर थॉमस मुनरो की यह भविष्यवाणी आज बहुत सच हुयी है।
मि. मेरिडिथ टोनसैंड ने अपनी पुस्तक " Asia and Europe" में लिखा है ----
"भारत के जनता (active class) के लिए हमारा शासन दोष-रहित हो ही नहीं सकता ;और न ही हमारे शासन के दोषों में सुधार ही हो सकता है। इस शासन का सबसे बड़ा दोष ये है कि भारतवासियों का आनंद- शून्य हो गया है ।हमारे आने से पहले उनका जीवन कितना मनोहर और रोमांचक / वैचित्रमय था । और लोगो का कैरियर उन्मुक्त साहसपूर्ण और enterprising और ambitious था। मुझे दृढ विश्वास् है कि जनसाधारण में बहुतायत लोगों का जीवन सुखमय और आनंददायक था।
(It is the active classes who have to be considered , and to them our rule is not , and can not be a rule without prodigious drawbacks .... The greatest one of all is the loss of interestingness in life.It would be hard to explain average English man how interesting Indian life must havebeen before our advent ; how completely open was every career to the bold , the enterprising or the ambitious ..... Life was full of dramatic changes . I firmly believe that to the immense majority of active classes of India the old time was happy time -- देशेर कथा पेज -16 : सखराम गणेश देउस्कर।
अंग्रेज तीन प्रकार की लड़ाई जीतकर निर्बिघ्न राज्य कर रहे है ।
इसमें पहले को हम #बाहुयुद्ध_या_शारीरिक_युद्ध कह सकते हैं। राजनीति के कुटिल कौशल से तथा नए नए अश्त्र-शश्त्र के फल से अंग्रेजो ने जो इस देश पर अधिकार जमाया है , वो इसी युद्ध का फल है।
अंग्रेजों के इस देश में पधारने के बाद से ही भारतवासियों को एक नए युद्ध का परिचय मिलने लगा है । इस युद्ध में वे अपना धन-बल खो बैठे हैं ।पाठक समझ गए होंगे कि हम " #वाणिज्यिक_युद्ध" की बात कर रहे हैं । बनियों के राजा अंग्रेजों के साथ वाणिज्यिक युद्ध हमे कहां तक विपदा में फंसना पीडीए है , यह बहुतों को मालूम है। एक सौ साल पहले जो भारतवर्ष सब प्रकार की कारीगरी का जन्मस्थान था , जहाँ की शिल्प - जात वस्तुओं से भरे हुए एशिया और यूरोप के बाजार विदेशोयों के मन में आस्चर्य और ईर्ष्या उत्पन्न करते थे , उसी भारत के निवासियों को आज सामान्य सुई डोरे से लेकर बड़े बड़े कल - कारखानों की सामग्री के लिए -- जीवन रक्षा और समाज के लिए आवश्यक सब पदार्थों के लिए अति दीन भाव से पराये मुंह की तरफ देखना पड़ता है। आज यहाँ अंग्रेजों का राज्य जम गया है
भारतवासियों का #बाहुबल और #शश्त्र बल नाश होने के कारण यहाँ शांति विराजने लगी है , लिहाजा अंग्रेजो का बाहु- युद्ध भी बन्द हो गया है । पर उनका #वाणिज्य_युद्ध अभी भी बन्द नहीं हुवा है;नहीं कह सकते कि कभी होगा भी या नहीँ। रेल , तार ,जहाज और बिना लगाम की #वाणिज्य_नीति (फ्री ट्रेड) --- यही लड़ाई के हथियार हैं ।प्रबल राजशक्ति से सहायता पाये गोर बनिए इस लड़ाई के योद्धा हैं। दुर्बल भारतवासियों का धन लूटना और भारतीय शिल्प --वाणिज्य का नाश करना , इस उउद्ध का प्रधान उद्देश्य है। इसी युद्ध में दिन --दिन हमारा धन_बल कम हुवा जाता है। अकाल हमारा साथी हो गया है। अस्थि -पिंजर देश भर में भर भर गए हैं।
इसका हिंदी अनुवाद बाबुराव विष्णु पराड़कर ने किया था।
उसी का कुछ अंश :
प्रायः शक्ति सम्वन्धी संघर्ष इतिहास की भूमि पर होते हैं। उपनिवेशवाद , दूसरे देशों और समाजों के वर्तमान और भविष्य पर कब्ज़ा करने के लिए , व्याख्या की राजनीति के माध्यम से , उनके इतिहास पर भी कब्ज़ा करता रहा है। अफ्रीका के बारे में ऐरोप के अनेक दार्शनिकों ने घोषणा की थी कि वहां कोई इतिहास नहीं है। भारत के बारे में ऐसा नहीं कह सकते थे , इसलिए उन्होंने भारत के इतिहास की पुनर्व्याख्या और दुर्व्याख्या की कोशिश की।सन् 1857 के महाविद्रोह के बाद उपनिवेशवादी दृस्टि से इतिहास - लेखन की जो कोशिश हुई उसमे भारतीय इतिहास के मुस्लिम शासनकाल को अन्याय और अत्याचार का काल साबित किया गया । इसका कारन यह था कि 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध हिन्दूओं और मुसलमानों के बीच जो एकता कायम हुई थी उससे अंग्रेजी राज् डरता था, और उसे तोडना चाहता था , इसीलिये मुसलमानी शासन को अत्याचारी शासन के रूप में प्रस्तुत किया गया।
यदि सन 1833 में बने पार्लियामेंट के कानून के अनुसार काम किया जाता तो ब्रिटिश शासन से भारत के सब लोग प्रसन्न रहते।पर दुःख की बात है कि वैसा नहीं किया गया। पार्लियामेंट में बने कानून में कहा गया था कि -
"भारतवासी धर्म रंग कुल निवास आदि किसी भी बात के आधार पर बिना भेद भाव के कोई भी पद कंपनी के अंदर प्राप्त कर सकता है । "
यहाँ के अधिकारीयों ने यदि कुटिलता न की होती तो हम लोग भारतवर्ष में लॉट साहब का भी पद प्राप्त कर सकते थे। परंतु निरंकुश कंपनी के अधिकारीयों ने पार्लियामेंट के इस कानून के अनुकूल काम नहीं किया ।
1852 में विलायत की अनुसन्धान - सिमिति के सामने साक्ष्य देते हुए विसराय की एग्जीक्यूटिव कमेटी के सदस्य हे. के. मर ने साफ़ कहा था -
" मैं जहाँ तक जानता हूँ सन् 1833 के पार्लियामेंट के नियम के अनुसार एक भी भारतवासी उच्च सरकारी काम पर नियुक्त नहीं किया गया है ।इस नियम के बनाने के पूर्व वे जिन पदों पर नियुक्त किये जाते थे आज भी उन्ही पदों पर नियुक्त किये जाते हैं -- उनकी स्थिति में इस नियम को बनाने से कोई उन्नत नहीं हुयी है " ।
सोर्स: देशेर कथा पेज -9
ऐसा हो ही नहीं सकता कि बड़े बड़े कामों की योग्यता न होने के कारण भारतवासियों को वह काम नहीं दिए जाते हैं । इस देश का धन लूटने ही के लिए सरकार सब बड़े बड़े पदों पर अंग्रेजों को बहाल करती है। एक वर्ष में 1700 भारतीय जितना धन कमाते है , उतना धन एक सिविलियन साहब को पोसने में खर्च होता है । इसके बारे में आर. एन. कांट नामक सहृदय सिविलियन ने कहा है -
"अंग्रेज भारत में नौकरी कर बहुत सा धन इंग्लैंड ले जाते हैं ।इसका परिणाम यह होता है कि भारतवासी दिनों दिन दरिद्र होते जा रहे हैं और अंगेज अमीर। दूसरे का धन कब्जाने को सदैव आतुर मध्यवर्रगीय अंग्रेज और पैदाइशी भुक्खड़ स्कॉट लोग इस देश में बड़ी बड़ी नौकरियां चाहते हैं ; जो भारत वासियों की आशाओं के सारे द्वार बन्द कर देती है " ।
भूतपूर्व बड़े लॉट लार्ड लिटन ने अपने एक गुप्त मंतव्य- पत्र में लिखा --
"इस कानून के बनते न बनते (no sooner the act was passed) सरकार (भारत की) इसके अनुसार काम न करने की झंझट से बचने का उपाय खोजने लगी ।हम सभी लोग जानते हैं कि भारतवासियों का उसीजच पद पाने का हौसला और दावा कभी पूर्ण नहीं होगा --- हो ही नहीं सकता। इसलिए हमारे पास उनको इन पदों से वंचित करने और धोखा देने के अलावा कोई चारा नहीं था ; और यही हम लोगों ने किया भी।"
अपनी बात सच कर दिखाने के लिए लार्ड लिटन बहादुर ने सुझाव दिया कि " सिविल सर्विसेज की परिक्षा देने वाले विद्यार्थियों की उम्र (पहले से ) कम होनी चाहिए।" इस आशय का एक कानून बना डाला। इतनी कम उम्र में यहाँ से विलायत जाकर सिविल सर्विसेज की परीक्षा देना साधारण बुद्धि या पारिवारिक पृष्ठिभूमि के लोगों के लिए असंभव सा हो गया हैं।
लार्ड सलिसबरी से लार्ड नॉर्थबुक से 1883 में पूंछा कि भारत में ब्रिटिश पार्लियामेंट और रानी विक्टोरिया के 1858 के घोसणा पत्र के अनुसार काम क्यों नहीं होता तो ब्रिटिस साम्राज्य के तीन बार प्रधानंत्री रह चुके लार्ड सलसिबरी ने इसे political hypocrisy / राजनीतिक धूर्तता कहकर साफ़ उडा दिया।
सं 1875 में इसी राजपुरुष ने कहा कि - India must be bled, " भारतवर्ष का खून अवस्य ही चूसना होगा।
पण्डित श्यामकृष्ण वर्मा ने हिसाब करके दिखाया है कि इंग्लैंड का प्रत्येक स्त्री पुरुष और बच्चा भारत से प्रतिवर्ष 15 रुपये पाता है । खून चूसना और किसे कहते हैं ??
Sir Thomas Munro - the consequence of conquest of India by British arms would be in place of raising , to debase the whole people.
"अंग्रेजों के भारत विजय से भारतवासियों की उन्नति तो नहीं होगी , हाँ उनका मूलाधार अवश्य खिसक जाएगा।"
सर थॉमस मुनरो की यह भविष्यवाणी आज बहुत सच हुयी है।
मि. मेरिडिथ टोनसैंड ने अपनी पुस्तक " Asia and Europe" में लिखा है ----
"भारत के जनता (active class) के लिए हमारा शासन दोष-रहित हो ही नहीं सकता ;और न ही हमारे शासन के दोषों में सुधार ही हो सकता है। इस शासन का सबसे बड़ा दोष ये है कि भारतवासियों का आनंद- शून्य हो गया है ।हमारे आने से पहले उनका जीवन कितना मनोहर और रोमांचक / वैचित्रमय था । और लोगो का कैरियर उन्मुक्त साहसपूर्ण और enterprising और ambitious था। मुझे दृढ विश्वास् है कि जनसाधारण में बहुतायत लोगों का जीवन सुखमय और आनंददायक था।
(It is the active classes who have to be considered , and to them our rule is not , and can not be a rule without prodigious drawbacks .... The greatest one of all is the loss of interestingness in life.It would be hard to explain average English man how interesting Indian life must havebeen before our advent ; how completely open was every career to the bold , the enterprising or the ambitious ..... Life was full of dramatic changes . I firmly believe that to the immense majority of active classes of India the old time was happy time -- देशेर कथा पेज -16 : सखराम गणेश देउस्कर।
अंग्रेज तीन प्रकार की लड़ाई जीतकर निर्बिघ्न राज्य कर रहे है ।
इसमें पहले को हम #बाहुयुद्ध_या_शारीरिक_युद्ध कह सकते हैं। राजनीति के कुटिल कौशल से तथा नए नए अश्त्र-शश्त्र के फल से अंग्रेजो ने जो इस देश पर अधिकार जमाया है , वो इसी युद्ध का फल है।
अंग्रेजों के इस देश में पधारने के बाद से ही भारतवासियों को एक नए युद्ध का परिचय मिलने लगा है । इस युद्ध में वे अपना धन-बल खो बैठे हैं ।पाठक समझ गए होंगे कि हम " #वाणिज्यिक_युद्ध" की बात कर रहे हैं । बनियों के राजा अंग्रेजों के साथ वाणिज्यिक युद्ध हमे कहां तक विपदा में फंसना पीडीए है , यह बहुतों को मालूम है। एक सौ साल पहले जो भारतवर्ष सब प्रकार की कारीगरी का जन्मस्थान था , जहाँ की शिल्प - जात वस्तुओं से भरे हुए एशिया और यूरोप के बाजार विदेशोयों के मन में आस्चर्य और ईर्ष्या उत्पन्न करते थे , उसी भारत के निवासियों को आज सामान्य सुई डोरे से लेकर बड़े बड़े कल - कारखानों की सामग्री के लिए -- जीवन रक्षा और समाज के लिए आवश्यक सब पदार्थों के लिए अति दीन भाव से पराये मुंह की तरफ देखना पड़ता है। आज यहाँ अंग्रेजों का राज्य जम गया है
भारतवासियों का #बाहुबल और #शश्त्र बल नाश होने के कारण यहाँ शांति विराजने लगी है , लिहाजा अंग्रेजो का बाहु- युद्ध भी बन्द हो गया है । पर उनका #वाणिज्य_युद्ध अभी भी बन्द नहीं हुवा है;नहीं कह सकते कि कभी होगा भी या नहीँ। रेल , तार ,जहाज और बिना लगाम की #वाणिज्य_नीति (फ्री ट्रेड) --- यही लड़ाई के हथियार हैं ।प्रबल राजशक्ति से सहायता पाये गोर बनिए इस लड़ाई के योद्धा हैं। दुर्बल भारतवासियों का धन लूटना और भारतीय शिल्प --वाणिज्य का नाश करना , इस उउद्ध का प्रधान उद्देश्य है। इसी युद्ध में दिन --दिन हमारा धन_बल कम हुवा जाता है। अकाल हमारा साथी हो गया है। अस्थि -पिंजर देश भर में भर भर गए हैं।
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