Friday 27 March 2015

बंगाल और बिहार के सांख्यकी अकॉउंट ( S A)और gazeetear से प्रमाण: De Industrialisation of India

बंगाल और बिहार के सांख्यकी अकॉउंट ( S A)और gazeetear से प्रमाण: 
पटना के SA के अनुसार 1835 तक ईस्ट इंडिया कंपनी पटना में हैंडलूम के कपड़ों के लिए एक केंद्रीय फैक्ट्री (स्टोर रूम) बना रखा था।इसके अतिरिक्त वहां तुसार सिल्क बुनकर और रंरेज (dyers) रहते थे जो कपड़ों को डाई करके मोटा प्रॉफिट कमाते थे।
1877 आते आते ये इंडस्ट्री खत्म हो गयीं। ज्यादातर बुनकर देशी इस्तेमाल के लिए मोटे कपड़े बनाने लगे थे।
पटना का डिस्ट्रिक्ट ग़ज़्ज़ेटर (DG) भी यही कहानी दोहराता है लेकिन ये भी बताता है कि सूती कपड़ों की बुनाई अब भी लगभग हर गावँ में छोटी मात्रा में होती थी
(लेकिन सेन्सस के लिहाज से ये अतिशियोक्ति लगता है ) खासकर पटना शहर में ।मुख्यतः मोटिया या गाजी ननम का मोटा कपड़ा गरीब लोगों के इस्तेमाल हेतु बनता था।
सिल्क निर्माण का काम केवल बिहार सbdevision में होता था , जहां इसकी संख्या 200 लूम बताया जाता है ।(फ्रांसिस बुचनन ने सिल्क और तुसार बनाने वाले लूमों की संख्या 1250 बताया है )।
SAऔर DG यही कहानी दूसरे जिलों की भी बताते हैं : महीन कपड़ों का बनना लगभग बन्द हो चूका था , सिर्फ आर्डर देने पर ही बनाये जाते हैं ; सिल्क का निर्माण भी वस्तुतः बन्द हो चूका था।मोठे कपड़ों का निर्माण जारी था क्योकि ये durable और सस्ता था।
हण्डलूम व्यवसाय के नष्ट होने से डाई का करने का व्यसाय भी बैठ गया जोकि बुचनन के समय तक फूलता फलता व्यवसाय था। इसी कारण से कॉटन पैदा करने का कृषि भी बन्द हो गयी।टेक्सटाइल इंडस्ट्री के कुछ खास शाखाये जैसे सतरंजि और कारपेट बनाने के व्यव्साय बच गए लेकिन उनकी दशा भी अच्छी नहीं थी। जो थोडा बहुत कॉटन इंडस्ट्री बची थी उसके 3 कारन थे :(1) गरीब लोग अभी भी मोठे कपडे पहनते थे (2) बुनकरों की आय unskilled लेबर से भी कम हो गयी थी।(3) जो कभी फुल टाइम बुनकर थे उनकी सन्ततियां अभी भी पार्ट टाइम व्यवसाय के रूप में बुनकरी कर रहे थे।
खेती पर आधारित हो चुके बुनकर खेती का सीजन खत्म होने पर जीवन यापन के लिए बुनकरी कर लेते थे। गया का DG कहता है कि जोलहा लोग यदि लूम से उत्पादित कपड़ों पर ही यदि आधारित होते तो कब के मर खप गए होते।इसलिए बहुतों ने पुस्तैनी धंधा बन्द कर दूसरे फायदेमन्द धंधे अपना लिए हैं या खेती और मंजूरी करके थोडा बहुत कमाँ लेते हैं । उनमे से बहुत सारे हुगली के जुट मीलों में काम करने लगे हैं या कलकत्ता में ----- menial --- काम करने लगे हैं ।
हण्डलूम इंडस्ट्री का जिन्दा रहना कृषि कार्य में निहित गरीबी का एक इंडेक्स है जो ब्रिटश पालिसी के कारण आम भारतीय और बुनकरों का जीवन दुलभ कर दिया है जो हैंडलूम भारत की ताकत थी कैपिटलिस्ट औपनिवेश के कारण नष्ट हो चुकी है।
सिर्फ हैंडलूम इंडस्ट्री का ही विनाश नही हुवा बल्कि एनी व्यवसाय जैसे पेपर इंडस्ट्री भी उच्छिन्न हो चुकी हैं ।उदाहरण के लिए गया और शादाबाद की पेपर इंडस्ट्री।
रिफाइंड शुगर इंडस्ट्री का भी यही हाल हुवा। शुरू में ये फूली फली फिर विनाश के कगार पर है।गुड़ व्यवसाय या कच्ची शुगर (खांड) भी जावा और मॉरिशस से सस्ती चीनी के आयत ने काफी नुक्सान पहुचाया।
de indusrialisation ने कुछ जिलो की तो हालात ही बदल दिया है। जब बुचनन ने सर्वे किया था तो पूर्णिया में मुग़लों के लिए मिलिट्री आवश्यकता की वस्तुएं बनती थी ।जैसे टेंट और bidriware लाख के गहने बनाने का काम glaaswork सिंदूर बनाने का काम, कम्बल बनाने का काम , सूती कपड़ों की बात तो पहले ही कह चुके हैं।
लगभग 1870 तक सारे व्यवसाय नष्ट हो चुके थे लेकिन ये तब तक जारी रहा जब तक की सारे व्यवसाय नष्ट नहीं हो गए।
बुचनन के सर्वे के समय तक (1809-1813) मुंगेर में लोहे के इंडस्ट्री और हथियार बनाने के व्यवसाय काफी उन्नत किस्म का था।
( धरमपाल जी के एस्टीमेट के अनुसार भारत में लगभग एक लाख टन लोहा उत्पादित किया जाता था कुटीर उद्योगों में । wootz नामक लोहा जिसको दमस्कस स्टील भी कहते हैं । एक अत्यंत उत्तम किस्म का लोहा था जिसकी ब्रिटिशर्स यहाँ से ले गए थे। उस के निर्माण विधि पर दसियों लोग पीएचडी ले चुके हैं। गूगल कर लें )

अमिय बागची -पेज 100-103 

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