Wednesday 11 March 2015

कबीर के द्वारा सद्गुरु की व्याख्या

कबीर के द्वारा सद्गुरु की व्याख्या

आज तक किसी संस्कृत ग्रन्थ में भी मुझे नहीं मिला ।
गुरु की महिमा गान तो मिला - गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णु गुरुः शाक्षत् परमब्रम्ह।
या गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लगाऊँ पाय
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय।"
लेकिन गुरु के अंदर क्या गुड़ होने चाहिए जिसको आप गुरु चुने ये व्याख्या किसी ने नहों की ।
स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण को गुरु बनाने के पहले उनको परखा ये तो सब जानते हैं लेकिन उस परख के मानक क्या थे ये या तो उनको मालूम थे या कबीर दास को ।
देखिये क्या है सद्गुरु का अर्थ कबीर के अनुसार :

गुरु की एक परिभाषा पढ़ी थी ऑटोबायोग्राफी ऑफ़  योगी ।
उन्होंने बताया कि जो अंधकार से निकाल कर प्रकाश में ले जाय।
"यानि तमसो माँ ज्योतिर्गमय"।
लेकिन विस्तृत और हम जैसों को समझ में आने लायक व्याख्या कबीर ने की ।देखिये क्या है वो :

" भाई रे सो सत गुरु कहावे
कोई नैनन अलख लखावे।
डोलत डिगै न बोलत विसरै
अस उपदेश सिखावै।
जप तप योग क्रिया ते न्यारा
सहज समाधि सिखावै।
सो सतगुरु......
कायकष्ट भूलि नहिं देवै
नहिं संसार छोड़ावै।
यह मन जाय जहाँ जहाँ तह तह
परमात्मा दरसावै ।
सो सतगुरु.............
(गीता का उपदेश)
कर्म करै निष्काम रहै
कछु ऐसी जुगति बतावै ।
सदा विलास त्रास नहि मन में
भोग में जोग जगावै ।
सो सतगुरु..............
भीतर बाहर एकै देखै
दूजा दृस्टि न आवै।
कहै कबीर कोई सदगुरु ऐसा
आवागमन छोड़ावै।
भाई रे सो सतगुरु कहावै।
भाई रे सो सतगुरु कहावै।।।"

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