#चित्त_की_दशा : माइंड सेट
या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोय।
ज्यों ज्यों डूबे श्याम रंग त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।
चित्त अर्थात मन का अर्थ ही है - किसी न किसी चीज से रंगा होना। किसी न किसी चीज से उलझे रहना। मन खाली नहीं बैठ सकता। वह उसके स्वभाव के विरुद्ध है। अखबार पढ़ो, किताब पढ़ो, फेसबुक या व्हाट्सएप में उलझे रहो। कुछ न कुछ करते रहो। खाली होते ही मन में घबराहट और उलझन होने लगती है।
चित्त की तीन दशा हो सकती है - अनुरागी विरागी और वीतरागी।
अनुरागी - अर्थात जिसका अनुगमन करता हो। मन की निरंतर किसी न किसी चीज के पीछे भागता रहता है। चंचलता उसका स्वभाव है। वह स्थिर नहीं रह सकता। वह खोजता है सुख, आनंद। इच्छाओं के माध्यम से, कामनाओं के माध्यम से। लेकिन पाता है अशांति, दुख, तनाव, निराशा। इसका अर्थ क्या हुवा? लक्ष्य तो हमारा ठीक है परंतु सम्भवतः लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग ठीक नहीं है।
मन को बन्दर कहा गया है उसे शास्त्रों में। अर्जुन भी चित्त की इसी भाव दशा से परेशान था। अर्जुन कहता है:
चन्चलं ही मनः कृष्ण: प्रमाथ बलवत दृढम्।
मन बहुत चन्चल है, मथता रहता है, बलवती है और दृढ़ भी।
मन का स्वभाव है कि यह न्यूनतम प्रतिरोध वाली दिशा में भागता है। न्यूनतम प्रतिरोध का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि जहां वह पहले जा चुका है बारम्बार। इसलिए वह वहीं जाता है। जिन विषयों में मन बारम्बार लगाया जाता है। जबरदस्ती नहीं, रुचि के साथ, अनुराग के साथ, वहां वह बारम्बार जाता है।
इसीलिये मन पढ़ाई से भागता है। क्योंकि वहां कोई अनुराग नहीं है। उसे जबरदस्ती वहां लगाना पड़ता है। पढ़ते समय भी वह कई बार वहां से भाग खड़ा होता है। और पूरा पेज पढ़ने के उपरांत भी समझ में नहीं आता कि पढा क्या था?
तो मन जब उन उन चीजों में जाय जहाँ उसे लगता है कि खुशी मिलेगी, सुख मिलेगा, आनंद मिलेगा, वह है अनुराग। मन का यह पॉजिटिव आयाम हुवा।
इसी का नेगेटिव आयाम है - विराग। पहले जिन जिन वस्तुओं से अनुराग था, कालांतर में उसी से विराग उत्पन्न हो गया। कल जिससे दांत काटी रोटी का रिश्ता था, आज वह शक्ल भी नहीं पसंद है। उसे देखते ही सारे शरीर में आग लग जाती है। सारा मन विषाक्त हो जाता है। फिर भी मन में बारम्बार वही घूमता रहता है। मन को लाख चाहें कि कहीं और ले जाएं, वह जाने को तैयार नहीं होता। परिणाम स्वरूप उतपन्न होती है व्यथा, कुंठा, निराशा तनाव और अवसाद।
इन दोनों ही स्थितियों में हम मन मे जो भी अनुराग विराग चल रहा है, उसमें लिप्त हैं। हम अपने मन से अलग नहीं हैं। मन जहां जहां जा रहा है हम मन के साथ जा रहे हैं।
एक तीसरा आयाम भी है चित्त का - वीतराग। मन न अनुरक्त होता है न विरक्त। दोनों से ऊपर उठ गया। द्रस्टा हो गया। साक्षी बन गया। मन में जो भी चल रहा है। वह स्पष्ट दिखने लगा। अब मन से पर्याप्त दूरी निर्मित करने में आपने सफलता प्राप्त कर लिया है। मन अब मलिन न रहा। अब वह उज्ज्वल होने लगा। मलिन और मन दो अलग अलग शब्द नहीं हैं। मन का होना ही मलिनता है। मन के पार जाना ही मन का उज्ज्वल होना है।
लेकिन यह होगा कैसे?
ज्यों ज्यों डूबे श्याम रंग।
कृष्ण के प्रेम में ज्यों ज्यों डूबता जाता है, त्यों त्यों ऐसा होने लगता है। अचानक न होगा। धीरे धीरे होगा। जैसे पानी को एक एक डिग्री गरम करने से वह 100 डिग्री तक गरम होता है। तब जाकर पानी भाप में बदलता है। ठीक वैसे ही।
कृष्ण कहते हैं:
शनैः शनैः उपरमेत बुद्ध्या धृत गृहीतया।
आत्म संस्थम मन: कृत्वा न कश्चित अपि चिंतयेत।
मन जहाँ जहाँ जाती है बुद्द्धि भी वहीं वहीं जाती है और जो भी कुछ मन में चल रहा होता है उसके बारे में गलत सही का निर्णय लेती चलती है, विश्लेषण करती रहती है। जैसे कंप्यूटर में मेमोरी और प्रोसेसर एक साथ काम करते हैं ठीक वैसे ही।
अब कृष्ण कह रहे हैं कि बुद्द्धि दो प्रकार की होती हैं। प्रवृत्त मार्गी और निवृत्त मार्गी।
प्रवृत्त मार्गी बुद्द्धि वह है जो ऊपर वर्णित दो दशाओं - अनुराग और विराग में मन के साथ चलती रहती है।
निवृत्त मार्गी बुद्द्धि वह है जो वीतरागी व्यक्ति की बुद्द्धि होती है। निर्लिप्त होती या निर्लिप्त बुद्द्धि। कृश्नः कह रहे हैं कि निवृतमार्गी बुद्द्धि और धैर्य पूर्वक योग के मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति का मन केन्द्रीभूत होने लगता है और उसका मन शांत हो जाता है। यही शांति ही आनंद है।
हम शांति और आनंद से परिचित नहीं हैं। हम तो परिचित हैं उस आनंद से जो अशांति के साथ आती है। किसी ने कहा - हर्षोन्माद। हर्ष के साथ उन्माद। हर्ष के साथ कोलाहल। पार्टी, गाजा बाजा धूम धड़ाका वाले आनंद से ही हम परिचित हैं। शांति और आनंद जैसा कोई आयाम होता है जीवन का, इससे तो हम पूर्णतः अपरिचित हैं। हमने उसका स्वाद ही कभी नहीं लिया।
प्रवृत्ति और निवृत्ति को एक अन्य उद्धरण द्वारा समझें। कृष्ण दुर्योधन को उपदेश देते हैं। तो वह कहता है:
जानामि धर्म: न च मे प्रवृत्ति।
जानामि अधर्म: न च में निवृत्ति।
धर्म को जानता हूँ मैं परंतु मैंने अधर्म का गहन अभ्यास किया है बचपन से ही, इसलिए मेरी कोई रुचि ही नहीं है धर्म की ओर जाने की।
और मैं अधर्म को भी जानता हूँ। परंतु उसका गहन अभ्यास किया है कि अब वही मेरी प्रवृत्ति बन चुकी है, आदत बन चुकी हैं। अब मैं उससे निकल नहीं सकता।
जो हम बारम्बार अभ्यास करते हैं वही हमारी प्रवृत्ति बन जाती है, हैबिट कहिए, आदत कहिए, संस्कार कहिए, जो कहना हो कहिए।
परंतु एक बात तो तय है कि संसार में कोई व्यक्ति नहीं है जिसे सुख और आनंद की खोज न हो। परमानंद की खोज भले न हो। भले ही वह नाष्तिक क्यों न हो, लेकिन सुख और आनंद उसे भी चाहिये।
लेकिन चाहने से क्या होता है?
लक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग भी तो ऐसा होना चाहिए जो लक्ष्य की ओर जाता हो। क्योंकि जिस मार्ग पर हम जा रहे हैं वह भविष्य के गहन खोल में छिपा है।
तय हमें करना है कि हमारा मार्ग प्रवृत्ति का होगा।
या निवृत्ति का?
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