Sunday, 19 September 2021

उलटबासी

#उलटबासी :

पहले दही जमाइए पीछे दुहिये गाय।
बछड़ा वाके पेट में माखन हाट बिकाय।।
- कबीरदास 
हमारे हिंदीबाजों ने slaves और गुलामों की हिंदीबाजी दास में करके, अपने यूरोपियन आकाओं का अनुसरण किया और अरबी और यूरोपीय लुटेरी संस्कृति को भारत में खोज निकाला। 

कबीर किसके दास हो सकते हैं?
कबीर तो मालिक हैं अपने। स्वामी। 

उनकी उलटबासियों की यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर किस तरह व्याख्या कर पाते होंगे, मैं मात्र इसकी कल्पना कर सकता हूँ। 

वे कहते हैं कि पहले दही जमाइए। अर्थात पहले मन को एकाग्र कीजिये या निरुद्ध कीजिये। दूध तो हल्के से धक्के से छलक जाता है। दही हल्के धक्के से छलकता नहीं हिलता डुलता नहीं। यह योगी के  मनोस्थिति का वर्णन है। 
कृष्ण इसी को कहते हैं :
योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। 

प्रायः हमारे मन की क्या दशा होती है। जैसे ही मन में कोई विचार आया, हम उसी विचार के साथ बहने लगते हैं। 
या हम कोई काम कर रहे हैं। और मन में कुछ और चल रहा है। कभी कभी ऐसा होता है कि पूरा का पूरा पेज पढ़ गए और समझ में ही नहीं आया कि क्या पढ़ा था। क्योंकि मन या चित्त कहीं और था।
 सड़क पर चलते हुए आदमी को देखो। वह चला जा रहा है और मन में उसके कुछ न कुछ चल रहा है। कभी कभी तो वह स्फुट स्वर में कुछ बोल बैठता है। 

या हम गाड़ी चला रहे हैं। गाड़ी चली जा रही है और हमारे मन में सैकड़ो विचार और योजनाएं बन बिगड़ रही हैं। शरीर और मन एक स्थान पर नहीं है।

 कृष्ण कहते हैं योगस्थ होकर या ध्यानस्थ होकर काम करो।
 संग त्यक्तवा - विचारों की आंधी में न बहो। ध्यान से काम करो। हमने बचपन से यह सुना है अपने अभिभावकों से शिक्षकों से कि - ध्यान से खाओ, ध्यान से पढ़ो, ध्यान से काम करो। लेकिन क्या वे इसका अर्थ जानते थे? जब जानते नहीं थे, तो बताते क्या कि ध्यान क्या है? 

फिर कबीर कहते हैं कि पीछे दुहिये गाय। इंद्रियों के निग्रह के बारे में उसके बाद सोचो। हम उल्टा करने लगते हैं। पहले इन्द्रिय निग्रह करने का प्रयास करते हैं। उसका स्वरूप कुछ भी हो सकता है। कई योगियों की जीवन यात्रा में जैसे कि विश्वामित्र की जीवन यात्रा में हमने अप्सराओं की बात सुनी है। यह कोई भौतिक स्त्रियां नहीं थी। यह मन की कल्पना से उपजी स्त्रियां थीं। क्योंकि इन्द्रिय निग्रह के द्वारा उन्होंने ब्रम्हचर्य का पालन करना शुरू तो कर दिया परंतु मन में स्त्री बसी रही। उसी ने अप्सरा का रूप धर लिया। यह बात अपने मन में झांके बिना समझना असंभव है। 

कृश्ण इसे मिथ्याचार कहते हैं।
कर्मेन्द्रिय संयम्य या आस्ते मनसा स्मरण। 
इन्द्रियार्थेषु विमूढात्मा मिथ्याचार स उच्यते। 
कर्मेन्द्रियों का संयम करके जो लोग मन में विषयों के बारे में सोचते रहते हैं, वे विमूढ़ और मिथ्याचारी कहलाते हैं। 

गांधी के तीन बंदरो को सोचिये - बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो। 
अब बिना देखे तो पता न चलेगा कि कोई चीज अच्छी है या बुरी? देखना तो पड़ेगा। लेकिन देखने के बाद यदि आंख बंद भी कर लिया तो वह बुरी बात मन के अंदर चलने लगेगी। वही बात बुरी बात सुनने के संदर्भ में भी है। बुरी बात एक बार सुन लिया और कान बन्द कर लिया तो अब बुरी बात मष्तिष्क से निकलने भी न पाएगी। बुरा मत बोलो। तो गूंगा तो बोल नहीं सकता, लेकिन क्या उसके अंदर बुरे विचार नहीं बनते? 

यह मिथ्याचार है, दिखावा है। कर्म का स्रोत है मन। मन में विचार का बीज बोया जाय तो वह कर्म रूपी पौधे को जन्म देता है। अंग्रेजी में कई लोग बोलते हैं - Thought becomes thing. अमूर्त से मूर्त का जन्म। यद्यपि विचार अमूर्त नहीं होते, वे मूर्त ही होते हैं लेकिन इतने शूक्ष्म कि उनकी मूर्ति बनती नहीं। मेडिकल साइंस भी सिर्फ विचार की तरंगों को पकड़ पाता है, विचारों को नहीं, जिसे वह ब्रेन वेव्स कहता है। 

 जब तक मन पर नियंत्रण न होगा वह कर्म में परिणित होता ही रहेगा। भले वह कर्म मानसिक कर्म तक ही सीमित रहे। समाज उससे अप्रभावित रह सकता है लेकिन हम स्वयं उससे अप्रभावित नहीं रह सकेंगे। 

फिर आता है बछड़ा वाके पेट में।

यहीं से जन्म होता है - द्विजता का। दूसरा जन्म जिसे कहा गया है। साक्षी भी इसे ही कहा जाता है। द्विजता का जन्म होते ही उसकी सुवास चारों दिशाओं में फैलने लगती है। कबीर कहते हैं इसे - माखन हाट बिकाय।  

ॐ 
©त्रिभुवन सिंह

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