#मन_की_भावदशा : #स्वस्थ होना क्या है।
कभी ध्यान दिया है कि आप सड़क पर जा रहे हैं और देखते हैं कि कुछ कुत्ते आने जाने वाले हर वाहन को कुछ दूर दौड़ाते हैं भूंकते हुए। फिर वापस आ जाते हैं।
फिर नए वाहन के साथ यही प्रक्रिया दोहराते हैं।
क्या उनकी अभिलाषा वाहन चलाने की है? या वाहन चालक को हानि पहुंचाने की होती है? उसको धमकाने की होती है?
नहीं यह कुत्तों के मन की भाव दशा होती है। जो उनके कृत्य में दृष्टिगोचर होता है।
ऐसी ही कुछ भाव दशा हमारे मन की होती है। हमारे मन की सड़क पर विचारों का रेला लगा होता है। एक के बाद एक विचार और भाव आते जाते रहते हैं। जैसे ही कोई विचार या भाव हमारे मन की सड़क पर आया - हमारा मन स्वतः उसके साथ चलने लगता है। उस विचार के संदर्भ में हमारे मन में गुणा भाग, विश्लेषण चलने लगता है। हमको पता भी नहीं होता कि हम किन विचारों में खो जाते हैं। यह तब तक चलता रहता है जब तक कि कोई नया विचार हमारे मन की सड़क पर नहीं आ जाता। अब यही प्रक्रिया इस दूसरे विचार या भाव के साथ दोहराया जाने लगेगा।
हमारी यूनिवर्सिटी में दर्शन के एक प्रकांड शिक्षक थे। उनके शिष्य गण उनकी विद्वता का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि साहब उनका तो यह हाल था कि बाजार जाते थे पत्नी के साथ, परंतु कई बार पत्नी को बाजार में ही छोड़कर अकेले घर वापस आ जाते थे। घर आकर उन्हें ध्यान आता था कि वे तो विचारों में इतने मगन थे कि पत्नी को बाजार में ही भूलकर घर चले आये। मुझे लगता था कि यह विद्वानों का कोई लक्षण होता होगा।
लेकिन अब जाकर पता चला कि यह तो सम्मोहन की बीमारी है - जिसे आध्यात्मिक जगत में बेहोशी कहते हैं। Hypnosis कहते हैं। किसी व्यक्ति भाव या विचार के प्रति इतने सम्मोहित हैं कि हमें अपना पता ठिकाना भी नहीं पता।
तुलसीदास कहते हैं:
मोहनिशा जग सोवनहारा।
देखत सपन अनेक प्रकारा।।
या चित्तवृत्ति की बात करते हुए पतंजलि इसे कहते हैं - विकल्प वृत्ति। एक विचार के साथ बहते रहना। संकल्प और विकल्प।
हमने शेखचिल्ली की कहानियां पढ़ी हैं। वह दरअसल किसी शेखचिल्ली की कहानी नहीं है। वह हमारे अंदर ही छुपे हुए शेखचिल्लीपन का यथार्थ है। यही हमारे कृत्य में भी दृष्टिगोचर होता है। जिसे हम कहते हैं प्रतिक्रिया। किसी क्रिया के प्रति प्रतिक्रिया।
जागृति तब आती है जब हम देख सकें कि हमारे मन की सड़क पर कौन कौन से विचार और भाव दशा के बादल आ जा रहे हैं। और जो यह देख सकता है वही अपने अस्तित्व के केंद्र पर स्थित हो सकता है। इसी को कहते हैं स्वस्थ होना। अपने में स्थित होना।
हमारी गति यहीं तक होती है। जिसे धारणा भी कहते हैं।
ध्यान तो स्वतः घटित होता है। उसे ही परमात्मा का प्रसाद कहते हैं जो हमारे किये नहीं घटता बल्कि स्वतः घटता है।
हमारे मन की भाव दशा तो ऐसी रहती है कि हमारे मन में दूसरे ही व्यक्तियों विचारों और भावों का निवास रहता है निरन्तर। यही है अस्वस्थ होना।
ॐ
©त्रिभुवन सिंह
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