Wednesday, 23 December 2020

Desire Disease Distress and Depression. What's root cause of it?

#दशहरा - उन दस का हरण होने की अवस्था - जिसे इन्द्रिय कहते हैं। रावण अर्थात अनन्य इच्छाओं, कामनाओ, वासनाओं का दास। 
इन वासनाओं कामनाओ और इच्छाओं की पूर्ति के माध्यम हैं हमारी दस इंद्रियां। 
दसानन - जो दस शरीरों से भोगता है भोगों को, वासनाओं को, कामनाओं को, विषय वस्तुओं को - वही हैं है रावण - अनंत इच्छाओं के पीछे भागने वाला। 

#Desires_Disease_Distress और 
#डिप्रेशन: इन सब की उत्पत्ति कैसे होती है? और इनका एक दूसरे से क्या रिश्ता है?

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकलें।
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले।।

ख्वाहिशों का जन्म, जन्म के साथ ही हो जाता है।  जन्म के साथ इसे बाल घुट्टी में हमें पिलाया जाता है - सपने देखो। माता पिता समाज स्कूल सभी एक ही शिक्षा देते हैं: सपने देखो। सपने ही वे ख्वाहिशें हैं जिनका जन्म बालपन में होता है और मृत्यु पर्यंत उनसे मुक्त नहीं हो पाते हम। सपने भी छोटे मोटे नहीं। बिग ड्रीम्स। ड्रीम बिग। छोटे सपने देखोगे तो छोटे हो जाओगे। और फिर अंधी दौड़ शुरू होती है - अनंत ख्वाहिशों की। 

बच्चा अभी क ख ग घ सीख ही रहा है कि उसकी खोपड़ी में घुसेड़ दिया जाता है कि क्या बनेगा? माता पिता अडोसी पड़ोसी उससे पूंछना शुरू कर देते हैं कि बड़े होकर क्या बनोगे ? बनने की इच्छा उसके अंदर डाल दी गयी। अब वह दौड़ेगा उसके पीछे। 

Desire is dis ease. To be at ease ,one needs to halt his desires. 
ख्वाहिशें : यानी भविष्य। भविष्य अर्थात भूत का प्रक्षेपण। भूतकाल का प्रक्षेपण ही भविष्य है। 

जो भोगा था वह है भूत। उसमें रस बना हुआ है। जो भोगा था उससे तृप्ति अभी तक नहीं हुयी है। अभी भी उसमें रस बना हुआ है। भविष्य- आकांक्षा है उन भोगों को भोगते रहने की, और अनभोगे भोगों को भोगने की। 

ख्वाहिशें अर्थात डिजायर अर्थात कामना, अर्थात वासना। जो भी नाम दे दो। जो मिला है, जो भोगा है उससे मन भरा नहीं है। जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं हैं। 

"यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवति अधिवासितः।
अभुक्तेषु निरकांक्षी तादृशो भव दुर्लभ:।।"
- अष्टावक्र गीता

" जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं है और अनभोगे भोगो के प्रति निराकांक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है।"

दो चीजों को संसार मे हम पकड़े हुए हैं - एक तो भोगे हुए भोग। जो भोगा है उसका रस मन मे रचा बसा है। उसे बार बार भोगने का मन करता है। भोगा हुवा अर्थात अतीत। और एक अनभोगे सुख की आकांक्षा अर्थात भविष्य, कामना, वासना, डिजायर। यही दो पाट हैं  जीवन के। जिनके बीच मनुष्य पिसता रहता है:
"दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय। 
चलती  चाकी देखकर दिया कबीरा रोय"'।।

अतीत को भोग कर देखा। उसके रस को देख लिया। शायद निरर्थक था। इसीलिए अब भविष्य में नए भोगों की आकांक्षाओं को हम पालते हैं : यही है कामना, काम वासना, आशा, Hope, future. 

कोई कामना न हो तो हम सहज रहते हैं: at Ease.

 कामना के द्वारा पकड़े जाते ही बेचैनी शुरू हो जाती है। कैसे पूर्ति हो उसकी? Dis ease, distress. 

कामना की पूर्ति में बाधा उतपन्न होते ही क्रोध का जन्म होता है। इच्छित अभिलाषा न पूरी हुयी, तो क्रोध का जन्म होता है।  काम मौलिक है। क्रोध उसका by product है। काम के पेट से क्रोध का जन्म होता है। काम के आपूर्ति में कोई बाधा उतपन्न हुयी, क्रोध का जन्म हो जाता है।

 लेकिन क्रोध का प्रकटीकरण, असामाजिक कृत्य माना जाता है। और हानिकारक भी हो सकता है। एक बाबू अपने अफसर से क्रोधित हो सकता है, परंतु अभिव्यक्त नही कर सकता। करेगा कहीं उसकी अभिव्यक्ति - अपने subordinate पर, अपनी बीबी पर। लेकिन तत्काल नहीं कर सकता। तत्काल तो मुखौटा अपनाना पड़ता है। गाली खाकर भी दांत चियारना पड़ता है। तो उसने मुखौटा धारण कर लिया। मुखौटा अर्थात असहजता। dis ease, डिस्ट्रेस। अंदर कुछ और बाहर कुछ और।
तनाव पैदा हो गया। 

काम की प्राप्ति हो गयी - जो भी प्राप्त हो गया है, वह अपने हाँथ से छूटे न कभी - मोह का जन्म हुवा। जो प्राप्त हुवा है वह हाँथ से निकल न जाय। रुपया पैसा धन बाल बच्चे, धन पद सब कभी छूट न जाय। भय ने मन मे जन्म लिया उनकी सुरक्षा के लिए। असहजता, बेचैनी का जन्म हुवा। भविष्य कभी आएगा कि नही, यह नहीं पता। भविष्य कभी आता भी नहीं, आयेगा कभी तो वर्तमान बनकर ही। लेकिन मोह का जन्म हो गया। 

काम की प्राप्ति हुयी, इच्छाओं वासनाओं की पूर्ति हुयी, लेकिन जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है। जो पड़ोसी के पास है, जो मित्र के पास है, जो भाई के पास है, जो संसार मे कहीं अन्यत्र उपलब्ध है : वह भी चाहिए। लोभ का जन्म हुवा। कल तक 20 रुपये के महंगे थे। आज लखपति हैं। लेकिन निगाह है करोड़पति पर। दौड़ शुरू हो गयी।  comparision और कम्पटीशन का खेल शुरू हुआ। संसार मे आप किसी भी क्षेत्र में शीर्ष पर नहीं हो सकते। कोई न कोई आपसे आगे रहेगा ही। शीर्ष पर पहुंच भी गए तो बने न रह पाएंगे। जैसे किसी को धक्का देकर आपने अपने पूर्व शीर्ष स्थान को प्राप्त किया था, वैसे ही कोई धक्का देकर आपको भी गिरायेगा। 

काम क्रोध लोभ मोह : मद मत्सर। 
यह इसी क्रम में जाना जाता है। सबका जन्म काम से ही होता है। काम है मूल बाकी सब उसके उत्पाद हैं।  

काम या वासनाओं का स्वरूप तीन है:
"सुत वित लोकेषणा तीनी।
येहि कृत केहि कर मन न मलीनी।।"
 - रामचरित मानस। 
काम धन पद और प्रतिष्ठा - वासनाओं, कामनाओं की दौड़ इन्ही तीन दिशाओं में होती है। धन कमा लिय्या तो अब पद और प्रतिष्ठा कमाना है।

डॉक्टर बनने की दौड़ में बचपन से सम्मिलित थे। बन गए डॉक्टर। धन जितना कमाया जा सकता था डॉक्टरी से कमा लिया। अब उसमें आनंद नही आ रहा है। अब एम एल ऐ का टिकट चाहिए। लगे हैं लाइन में हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे नेता के पीछे दुम हिलाते हुए। बुके लेकर स्वागत करने को बेकरार हैं। टिकट मिलता ही नहीं लेकिन। मिल गया यदि और  बन गए  एम एल ए, तो बात ही क्या है। उनकी दौड़ जारी हो गयी मंत्री पद के लिए। 
लेकिन एक ठसक आ गयी। एक मद चढ़ गया। यह मद किसी मद्यप के मद से बहुत अधिक होता है। मद्यप का मद तो कुछ घण्टों का होता है। यह मद पांच वर्षों के लिए पक्का हो गया। कल जिसके सामने वोट मांगने के लिए गिड़गिड़ाते देखे जाते थे। आज उसको पहचानते भी नहीं। 
"प्रभुता पाई काहि मद नाहीं।
नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं। 
- रामचरितमानस

काम की दौड़ में साथ साथ दौड़े थे। एम एल ऐ के टिकट के लिये साथ साथ लाइन में लगे थे। जिसको मिल गया उसको उसका मद पीड़ित करेगा। जिसको नहीं मिला, उसको मत्सर: ईर्ष्या, द्वेष, डाह - यह सब दाह समान है, आग लगा देती हैं शरीर में - सहजता नष्ट हो गयी। at ease रहना सम्भव न होगा अब: dis ease , डिस्ट्रेस। 

#डिप्रेशन: निराशा अवसाद: भविष्य से निराश। वर्तमान में उसे रुचि नहीं है। भूतकाल के अनुभवों के कारण भबिष्य में प्रक्षेपण करना भी बन्द कर देता है मनुष्य। अतीत के भोग आपको दो तरह के अनुभव दे सकते हैं : सुख या दुख। राग या द्वेष। 
"सुखानुषयी राग:।
दुखानुषयी द्वेष : ।।"
- पतंजलि योगसूत्र।

जिन अनुभवों से सुख की अनुभूति होती है वह है राग। आधुनिक भाषा मे उसे लाइक करना कहते हैं। इसके विपरीत जिन अनुभवों से दुःख की अनुभूति होती है वह है द्वेष। आधुनिक भाषा में उसे dislike कहते हैं। जो आप लाइक करते है वह हुवा सुख। जो नापसंद करते हैं उसे कहते हैं दुख। 

अतीत के अनुभव किसी किसी के लिए इतने दुखद होते हैं, इतने dislike भरे होते हैं कि वह अतीत का भविष्य में प्रक्षेपण करने में भी अपने आपको सक्षम नही पाता।उसको अपना भविष्य अंधकार में दिखता है। भविष्य में कुछ प्राप्त होता दिखता नहीं। 

 असहजता की सर्वोच्च स्थिति - dis ease। निराशा का जन्म वहीं से होता है। भविष्य चूंकि कल्पित होता है, इसलिए सभी निराशाएं भी कल्पित होती हैं। लेकिन व्यक्ति का यथार्थ बोध समाप्त होने के कारण उस कल्पित आशाहीन भबिष्य से व्यक्ति व्यथित हो जाता है, भयभीत। उससे निकलने की उसकी मनोष्थिति समाप्त हो जाती है: No Hope for Future is depression. परिणाम कई बार घातक होते हैं: यथा आत्महत्या। 

कल किसी ने कोट किया था चार शब्द: डिजायर, डिजीज, डिस्ट्रेस, और डिप्रेशन।  उसी का विस्तार कर दिया। 

इसमे दशहरा भी जोड़ लीजिये।

दशहरा है प्रतीक इस बात का कि नौ दिन और रातों के तपस्या के द्वारा हमने अपनी दसों इंद्रियों पर विजय पा लिया है।
उसी का लोक प्रतीक है दसहरा।

रावण वह है जो दसों इंद्रियों से संसार मे लिप्त है और भोग रहा है। परंतु भोगों को भोग कौन पाया है आज तक?
बल्कि भोगों ने ही अब तक सबको भोगा है। 
कबीर कहते हैं:
जगत चबैना काल का।
कुछ मुंह मे कुछ गोंद। 

यदि भोग ही पाता कोई तो बुद्ध महावीर और  भर्तहरि जैसे राजा राजपाट त्यागकर सन्यास न लेते। 

Desires और उनको भोगने के संदर्भ में भर्तहरि कहते हैं:

भोगों न भुक्ता वयमेव भुक्ता:
तपो न तृप्त: वयमेव तप्ता:।।
कालो न यातो, वयमेव यातो
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:।।

हम भोगों को नहीं भोगते। भोग ही हमें भोग डालते हैं। भोग हमसे पूर्व भी थे और हमारे बाद भी रहेंगे संसार में। तो भोक्ता कौन हुवा? हम कि भोग? 
तप हम नहीं करते। हम तप ही जाते हैं। 
काल कहाँ जाता है, हम ही चले जाते हैं। 
तृष्णा जीर्ण नहीं होती हम ही जीर्ण हो जाते हैं। 

भर्तहरि कह रहे हैं कि डिजायर वृद्ध नहीं होती,  कम नही  होतीं। हम ही वृद्ध हो जाते हैं। 
डिजायर को प्राप्त करने और पूर्ति करने के माध्यम हैं हमारे शरीर  की दस इंद्रियां। 

उन्हीं के  दहन करने का प्रतीक दिवस है दशहरा। 

शुभकामनाएं। 

©त्रिभुवन सिंह

❤️🙏🏽❤️

Sunday, 20 December 2020

फ्यूज़न साइंस : जेनेटिक्स एंड एपीजनेटिक्स

#फ्यूज़न_साइंस_ऑफ_ह्यूमन_बीइंग :

#जेनेटिक्स_एंड_एपीजनेटिक्स :

प्रत्येक मनुष्य दो कोशिकाओं से निर्मित है -एक शुक्राणु और एक अंडाणु। यह हर बच्चा जानता है। 
Zygot बनता है इनसे। फिर मात्र तीन माह में ये लगभग 200 ट्रिलियन कोशिकाओं के समूह में बंट जाता है। सभी विशेषज्ञ कोशिकाएँ। कोई भी कोशिका सामान्य नहीं। हर कोशिका विशेषज्ञ। हर कोशिका लगभग अपने आप मे सम्पूर्ण। जो एक मनुष्य के शरीर मे घटता है वह सभी कोशिकाओं के अंदर घटता है - खाना पखाना, सांस लेना, मेटाबोलिज्म या उपापचय। 

जीव वैज्ञानिक इनका डेटा एकत्रित कर सकता है, कर लेता है - क्रोमोजोम से लेकर जीन तक - शूक्ष्म और स्थूल अध्ययन के द्वारा।  मेडिकल साइंस जिसको हम लोग पढते हैं। हम मनुष्य के हर गुण दोष को क्रोमोजोम और जीन्स पर डाल देते हैं।
जेनेटिक्स पर  सारा गुण दोष आरोपित करते आये हैं हम। अभी एक ब्रांच आयी है एपीजनेटिक्स। वह कहती है कि गुण दोष बदले जा सकते हैं।प्रकृति अंतिम निर्णय नहीं  सुनाती जीवन के बारे में। जीव अंतिम निर्णय देता है। गुण और जीवन बदले जा सकते हैं। वहीं पहुंच रहे हैं वे जहां हम बीसियों हजार साल पहले पहुंचे थे। 

मेडिकल साइंस और जेनेटिक साइंस आदि समझते हैं कि इतना ही जीव सम्पूर्ण होता है। मेडिकल या जेनेटिक साइंस प्रकृति या लौकिक संसार तक ही जा सकता है। फिजिकल अस्तित्व के ऊपर वह जा नहीं सकता। उसकी एक सीमा है। लेकिन वह समझता है कि यही अंतिम सीमा है।

लेकिन यदि सामान्य बुद्द्धि और जिज्ञासा हो तो इस मिथ को भंग किया जा सकता है। हम एक कोशिका अपने पिता से उधार लेते हैं और एक अपनी माता से । या दूसरी भाषा में कहें कि आनुवंशिकी विज्ञान (जेनेटिक साइंस) के अनुसार एक-एक कोशिका हमे अपने माता पिता से उपहार में मिली हैं। जिसने हम निर्मित होते हैं। लेकिन हमको जो भी चीज उपहार या उधार में मिलती है वह हमारी संपत्ति हो सकती हैं, हम नहीं हो सकते वह। लेकिन हमारा विवेक कहता है कि उसी में हम भी रहते हैं। 

तो फिर प्रश्न उठेगा कि हम हैं कौन? जिस जिस चीज को हमने आज तक अपना होना समझा था वह तो बाहर से ओढ़ी गयी डिग्रियां और उपाधियां मात्र निकलीं। वे हैं तो हमारी संपत्ति लेकिन हम उनसे अलग हैं।

फिर प्रश्न उठेगा कि मैं कौन हूँ?
Who Am I?
जिस दिन यह प्रश्न उठे अंदर से, तो समझना कि तुम्हारे कदम सत्यं शिवं सुंदरं की ओर उठने को तत्पर हैं। फिर तुम स्वयं खोजने लगोगे अपने होने को। 

ईशोपनिषद कहता है:
पूर्णमदम् पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णात पूर्णम् उदच्यते। 
पूर्णस्य पूर्णम आदाय पूर्णमेव अवशिष्यते। 
पूर्ण वह भी है पूर्ण यह भी है। पूर्ण से पूर्ण निकलता है। 
पूर्ण से पूर्ण निकलने के बाद भी पूर्ण ही बचता है। 

तो यह पहली कैसे सुलझे कि उधार या उपहार में प्राप्त दो कोशिकाओं से बने इस स्थूल शरीर मे मैं कहाँ और कैसे रह रहा हूँ? 
सत्वं रजः तम इति गुणा: प्रकृति संभवा।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययं ।। 
- भगवतगीता
प्रकृति से उत्पन्न तीन गुण, सत रज तम मिलकर इस शरीर मे अविनाशी जीव को बांधते हैं। 

यह असेम्बली तैयार होती है - मां के गर्भ में। असेम्बली शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ कि इस शब्द से आप परिचित हैं। हर वस्तु आज असेंबल होती है। मनुष्य जैविक कंप्यूटर है। कृत्रिम कंप्यूटर (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) असेम्बल होता है, यह आप जानते हैं। 

तो जैविक कंप्यूटर की असेम्बली है मां का गर्भ। 
पिता और माता से मिला प्रकृति के तीन गुण - सत रज तम। जिसको जेनेटिक साइंस और मेडिकल साइंस समझ सकते हैं। अब इसमें असेंबली होनी होती है जीव की, जो आत्मा है और परमात्मा का अंश है। स्थूल प्रकृति और आत्मा के बीच का बन्धन बनाता है मन ( माइंड ) तथा पांच ज्ञानेन्द्रिया। ज्ञानेंद्रियों को भी विज्ञान ने समझ लिया है, लेकिन माइंड को अभी समझ नहीं सके हैं - माइंड एक तरह का सूक्ष्म भौतिक और अभौतिक के बीच के तरह का तत्व है। 

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातनः।
मनः षस्टाणि इन्द्रियाणि प्रकृति स्थाने कर्षति।।
- भगवतगीता

माता पिता से प्राप्त कोशिकाओं में हम प्रविष्ट होते हैं मन और पांच इंद्रियों के साथ। मन प्रकृति का हिस्सा है - आत्मा अलौकिक है, सनातन है, जबसे सृष्टि निर्मित हुयी है, तब से अस्तित्व में है - जो समस्त ऊर्जा का स्रोत है, लेकिन वह अकर्ता है। कुछ करता नहीं है। लेकिन सब कुछ उसी की उपस्थिति में घटता है। 

इसको वैज्ञानिक भाषा वालो को ऐसा समझाया जा सकता है। हमने एक तत्व सुना है - catalyst (उत्प्रेरक)। अनेकों जैविक और रसायनिक क्रियाएं तभी घटती हैं जब कैटेलिस्ट उपस्थित हो। वस्तुतः कैटेलिस्ट उसमें कोई सक्रिय योगदान नहीं देता है - अकर्ता है। ठीक आत्मा को ऐसा ही समझा जा सकता है मोटा मोटा। 

यह असेम्बली निर्मित होने के बाद दो कोशिकाओं का विभाजन शुरू होता है - और तीन माह में दो सौ ट्रिलियन कोशिकाओं मे विभाजित हो जाती हैं। इतने कम समय मे इतनी कोशिकाओं को निर्मित करने में कितनी बड़ी फैक्ट्री की आवश्यकता होगी, इसकी मात्र कल्पना की जा सकती है।
प्रकृति को स्त्री सूचक संज्ञा से संबोधित करते हैं हम। माया दुर्गा सीता काली आदि उन्हीं शक्तियों का नाम है जिससे यह जग निर्मित हुवा है। 

और परमात्मा, चेतना, ऋत को पुरूष के नाम से। प्रकति और पुरुष के मिलने से ही जीव का निर्माण होता है।

आदिशक्ति जेहिं जग उपजाया।
सो अवतरेहु मोर यह माया।।

या फिर

जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई।
जद्यपि मृषा छूटत कठिनई।। 
- रामचरितमानस 

यह एक नया तरीका है अस्तित्व को समझने का।
आपको शायद पसंद आये। 

#Note: I hope few medical scientists and genetists will come to counter or hail this article. This is how we can establish value of our heritage in modern world, which is blind enough to accept anything in the name of science - Even Aryan Invasion hoax too, in the name of fake Science Indology.

©Singh Tri Bhuwan

Tuesday, 1 December 2020

जीवन का नियम

जीवन का नियम है - जो हो जाय वही जरूरी था। जो न हो पाए वह गैर जरूरी था। 
लेकिन मनुष्य के मन का नियम यह है कि जो हो गया, वह गैर जरूरी था।  जो न हो पाया वही जरूरी था। 
जो प्राप्त हो गया उसका मूल्य नहीं रहता जीवन में।
जो न मिल पाया वही कचोटता रहता है। 
जो प्राप्त है वह अपर्याप्त है। 
जो अप्राप्त है मन उसी के पीछे भटकता रहता है। 

इसी को #मृग_मरीचिका कहते हैं। 

#मृगतृष्णा

Mirage 
ऐसी प्यास जो कभी बुझती नहीं। 

मनुष्य जब पशु के आयाम में जीवन बिताता है - भूख भय मैथुन निद्रा। यह मनुष्य और पशुओ में सामान्य है। आवश्यकता है जीवन की। 
पशु से मनुष्य को अलग करती हैं उसकी महत्वाकांक्षा। उसके सपने। वह सपने जो वह दिन रात देखता रहता है। 

 मनुष्य की अनंत इच्छाएं, वासनाएं, कामनाएं उसको जीवन भर अप्राप्त के पीछे दौड़ाती रहती हैं। फिर एक दिन जीवन की शाम आ जाती है।

©त्रिभुवन सिंह

Monday, 30 November 2020

भड़ास : Mental Catharsis

#भड़ास एक शब्द है।
उसका क्या अर्थ होता है, यह आप जानते हैं। इसे निकालना ही पड़ता है। वरना यह टॉक्सिक हो जाता है।

भड़ास निकालना - अर्थात जो विष या कुंठा अंदर निर्मित हो रही है, उसे निकालना।
रेचन कहते हैं इसे संस्कृत में।

यथा ऑक्सीजन हम अंदर लेते हैँ - वह बदल जाता है कार्बन डाई ऑक्साइड में। विष में। उसे निकालना रेचन कहलाता है। न निकाल पाएं तो क्या होगा?
मेटाबोलिक आंधी निर्मित होती है - प्राण घातक हो सकती है यह। 

इसी को नग्रेजी में कैथार्सिस कहते हैं।

इसी तरह जितने विचार या सूचनाएं हम अपने मष्तिष्क में प्राप्त करते हैं, एकत्रित करते हैं। वे सब हमारे मन में  उपस्थित राग द्वेष से मिलकर एक केमिकल टोक्सिन निर्मित करती हैं। यह केमिकल टोक्सिन हमारे अंदर हिंसा या क्रोध निर्मित करती है। वह हमारे शरीर में बारूद की भांति संचित होता रहता है। इसे एक चिंगारी की आवश्यकता होती है - भड़ास के रूप निकलती है या क्रोध का बम धमाका फूटता है। 

कुछ लोग कंजूस होते हैं। प्रवृत्ति ही उनकी कंजूसी की होती है। वे देने में विश्वास नहीं करते। वे सिर्फ लेने में विस्वास रखते हैं।  वे सब कुछ संचित करते रहते हैं - क्रोध, हिंसा, मल सब कुछ। वे कब्जियत का जीवन जीते हैं। चेहरे पर एक मुस्कान ओढ़कर सब कुछ छुपाये रहते हैं।  विष अंदर अंदर ही घूमता रहता है। उन्हें आजकल डिप्लोमेटिक या प्रैक्टिकल लोग कहते हैं। निरन्तर अभ्यास करते रहते हैं वे इसका। लेकिन वह विष प्रकट होता है घातक षडयंत्रो के रूप में। यह सर्व समाज को भस्म कर सकता है। उनको तो करेगा ही। 

इससे लाइफ स्टाइल डिजीज निर्मित होती है। डायबिटीज ब्लड प्रेशर आदि के रूप में। आजकल कितनी कम उम्र में यह बीमारियां प्रकट हो रही हैं। चिकित्सक, जो इन बीमारियों का इलाज करते हैं, वे स्वयं भी इसके शिकार हैं। लेकिन चिकित्सक इसको खान पान और कसरत के अभाव को इसके लिए उत्तरदायी ठहरा देते हैं। 
वे भूल जाते हैं कि इमोशन के कारण सिस्टम में विष निर्मित होता है। मेडिकल  साइंस की एक नई शाखा न्यूरो immunology इस दिशा में कार्य कर रही है।  

इसलिए आवश्यक है कि विचार और भावों से निर्मित इन केमिकल टॉक्सिन्स को बाहर निकाला जाए। इनका रेचन करना अति आवशयक है - कैथार्सिस। 
बाहर निकालने के माध्यम हैँ हमारे पास - शरीर और वाणी। 
शरीर से कसरत करने में इनका रेचन होता है। जो लोग निरंतर कुल्हाड़ी और फावड़ा जैसे यंत्रो का उपयोग करता है, उसका क्रोध विलीन हो जाता है।  लेकिन आधुनिक लोगों के लिए यह सम्भव नहीं है। वे लोग कसरत या खेल खेलना पसंद करते हैं। मेडिकल साइंस कहता है कि इससे ब्रेन में एंडोर्फिन ( मॉर्फिन की तरह का एक केमिकल) निकलता है जो #फील_गुड करवाता है। 

दूसरा माध्यम है वाणी। 
वाणी द्वारा रेचन - क्रोध कुंठा हिंसा को बाहर निकालना। कुछ लोग क्रोध को व्यक्त कर देते हैं तुरंत। लेकिन कंजूस लोग इसको निकालने में भी झिझकते हैं। ये डिप्लोमेटिक लोग इसके लिये मंच तलाशते हैँ। 
क्योंकि आफिस या घर में यह रेचन सम्भव नहीं है आजकल। न बॉस पर निकाल सकते हैं न एम्प्लोयी पर।  न बीबी पर निकाल  सकते हैं। न बच्चों पर। भारी और उल्टा पड़ जायेगा। 

इसलिए इसका सर्वाधिक सुरक्षित और उचित प्लेटफॉर्म है किसी मंच या  संस्था का व्हाट्स एप्प ग्रुप या फेसबुक है। 
जमकर कैथार्सिस कीजिये। 
जम कर रेचन कीजिये।
उसे आम भाषा में किचाहिन करना कहते हैं।

दोनों पक्ष कर सकते हैं।

संस्था के भलाई के नाम पर।
सदस्यों के हितों की रक्षा करने के नाम पर। 
ॐ शांति। 
©त्रिभुवन सिंह

Tuesday, 17 November 2020

वेदान्त क्वांटम फिजिक्स एंड Fractal ज्योमेट्री

#वेदान्त_का_लेटेस्ट_विज्ञान : क्वांटम फिजिक्स और fractal ज्योमेट्री।

पश्चिम और अरबी दस्यु भारत आये थे - भूंखमरी से निजात पाने के लिए। लूट और दस्युता उसको अपने स्वयं के सेक्युलर रोमन और अरबी पूर्वजों से मिली थी, जिसको ईसाइयत और इस्लाम के धर्म ग्रंथो ने मान्यता दे रखी हैं। यद्यपि उन्होंने फनाटिसम के कारण अपने पूर्वज संस्कृति को नष्ट कर दिया, परंतु उनके ज्ञान पर अपना दावा बरकरार रखा।
 
प्लेटो, सुकरात अरस्तू से लेकर Euclid तथा हिप्पोक्रेट्स तक। यद्यपि उसमे संग्रहित बहुतायत ज्ञान भारत से ही गया है। 

भारत का आर्थिक सर्वनाश करने के बाद वे उसे मानसिक गुलामों का देश बनाकर चले गए। 

पढ़े लिखे भारतीय - अर्थात मानसिक गुलाम। पश्चिम के चश्मे से भारत को देखने वाले। पश्चिम का चश्मा - दस्युवो लुटेरों और मैक्समुलर जैसे अफवाहबाजों का चश्मा। 

भारत से बटोरे शास्त्रों के ज्ञान को उन्होंने अपनी भाषा मे लिखना शुरू किया - सम्भवतः कुछ रिसर्च भी किया। उन्होंने प्रकृति को समझने का प्रयास विज्ञान के माध्यम से किया। 

भौतिक विज्ञान के माध्यम से जब उन्होंने प्रकृति को समझना चाहा तो क्लासिकल फिजिक्स के नियम काम न आ सके। उसके लिए उन्होंने एक नया फिजिक्स विज्ञान विकसित किया - क्वांटम फिजिक्स। प्रकृति को  समझने के लिए उन्होंने वेदान्त का सहारा लिया या वेदान्त के निर्णय तक पहुंचे, यह फिजिसिस्ट बताएं, लेकिन वे पहुंचे वहीं, जहां वेदान्त पहुंचाता है। 

क्वांटम फिजिक्स के जनक मैक्स प्लांक कहते हैं - Counciousness is fundamental. चेतना सबके मूल में है। कृष्ण अपने ब्रम्ह स्वरूप की व्याख्या करते समय बोलते हैं - चेतना अश्मि सर्वभूतनाम। सभी जीवों में मैं चेतना के रूप में विद्यमान हूँ। 

Hans peter durr भी उसी निर्णय पर पहुंचा - Material is not made out of matter. लगभग समस्त नोबेल पुरस्कार प्राप्त फिजिसिस्ट ने वेदान्त को ही अपनी भाषा मे लिखा है।

लेकिन उनकी खूबसूरती यह रही कि वे उन वैदिक सिद्धांतो को तकनीकी स्वरूप प्रदान करने में सफल रहे - क्वांटम फिजिक्स के इन्ही वेदान्तिक सिद्धांतो को प्रयोग में लाकर कंप्यूटर, मोबाइल आदि आदि बन रहे हैं।

गणितज्ञों ने जब सृष्टि को समझजे का प्रयत्न किया.  आज तक जो क्लासिकल Euclidian ज्योमेट्री पढ़ाई जा रही है वह उसको समझाने में असफल रही। 
Euclidian ज्योमेट्री अर्थात - ट्रायंगल, क्यूब, परल्लेलोग्राम  आदि आदि। 

प्रकृति को समझने के लिए Benoit Mandelbrot ने 1970 में fractal ज्योमेट्री की खोज की - जो आज कंप्यूटर की सबसे प्रिय भाषा और विषय है - किसी भी वस्तु की प्राकृतिक डिजाइनिंग के लिए।

लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि - कॉसमॉस, यूनिवर्स, या स्वयं को समझने और जानने के लिए 1000 वर्ष पूर्व बने मंदिरों में fractal ज्योमेट्री के ज्ञान का उपयोग किया गया था। 

उससे भी बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि - साइंटिस्ट तो थ्योरी देता है। fractal ज्योमेट्री का सिद्धांत ब्राम्हणों ने तैयार किया, जिनको हम ऋषि मुनि बोलते थे, लेकिन उनको वे आज नोबल लौरेट फिजिसिस्ट, बायोलॉजिस्ट, मथमेटिशन आदि बोलते हैं।

लेकिन उसको execute करने वाले, अर्थात धरातल पर उतारने वाले लोगों को शूद्र कहते हैं - राजशिल्पी कहते थे हम। आज उनको सॉफ्टवेयर इंजीनियर कहते हैं या कुछ और भी। 

लेकिन जब अम्बेडकर ने अपने माई बाप - साइमन और लोथियन को लिखकर दिया कि वे अछूत ही हैं क्योंकि मैं ऐसा समझता हूँ,  तबसे वे सर्टिफाइड अछूत हो गए।

उनको हमारा संविधान - #अनुसूचित_जाति बोलता है।


Thursday, 12 November 2020

दीपावली का अर्थ क्या है?

#असतो_मा_सत्य_गमय।
#तमो_मा_ज्योतिर्गमय ।।

कल एक मित्र ने कहा - कि एक बड़ा अस्पताल खोल रहा हूँ:
नो इन्वेस्टमेंट, नो ई एम आई, नो टेंशन।

मैंने उसे बताया - कि पहले दो नो तो ठीक हैं।
नो टेंशन वाली बात भूल जा। 

हम जिस तरह का जीवन जी रहे हैं - टेंशन तनाव उलझन दुख उसका अनिवार्य परिणाम हैं। इससे बचना संभव नहीं है। आनंद और सुख मृग मरीचिका हैं। 

हमारा प्रत्येक कृत्य - हमें ले जाएगा - दुःख तनाव और सम्मोहन में। सम्मोहन अर्थात बेहोशी। क्योंकि कृत्य का अर्थ है एक्शन, उसका अर्थ है रजोगुण का प्रभावी होना हमारे जीवन में। रजोगुण की पर्यावाची है दुःख। 

मॉडर्न साइंस कहती है कि संपूर्ण अस्तित्व तीन एलिमेंट्स से बना है - इलेक्ट्रान, प्रोटोन और न्यूट्रॉन से। पॉजिटिव नेगेटिव एंड न्यूट्रल एनर्जी। 

वैदिक साइंस ने इसी को बहुत पहले बताया था - सत रज तम। पॉजिटिव नेगेटिव एंड बैलेंसिंग एनर्जी। इसी को अन्य नामों से भी बुलाया गया - सुख दुख मोह, शांत घोर मूढ़। 
प्रत्येक कृत्य रजोगुण के अंदर आता है। शारीरिक और मानसिक दोनों। तमोगुण है - मोह मूढ़ - अंधकार, आलस्य, प्रमाद, enertia या रोकने वाला। हमारे समस्त कृत्य इन्हीं दो गुणों के अधीन रहते हैं - परिणाम है - अशांति बेचैनी, सम्मोहन, बेहोशी, दुःख। क्योंकि सतोगुण का हमें कोई अता पता नहीं है। 

प्रकृति और पुरुष : यह दो तत्व हैं हमारे जीवन के अस्तित्व के। पुरुष का अर्थ है वह ऊर्जा जिसके आने से हम जन्म लेते हैं और जिसके जाने से हमारी मृत्यु हो जाती है। यह कोई महिला पुरुष वाला पुरुष नहीं है। प्रकृति हमारी सहायता करने हेतु है। हम जो भी करते हैं प्रकृति उसमें हमारी सहायक होती है। हम आम बोएंगे प्रकृति आम उगा देगी। हम बबूल के बीज रोपेंगे, प्रकृति बबूल उगा देगी। हम बोते हैं बबूल और अपेक्षा करते हैं कि आम उगेगा। यही वह लोचा है जिसे हम समझ नहीं पाते। 
हमारे प्रत्येक कृत्य हमारी तृष्णा से उपजते हैं। और तृष्णा है बबूल। तृष्णा अर्थात प्यास। जो कभी बुझती नहीं। बुझ भी जाय थोड़ी देर के लिये तो फिर आ धमकेगी कुछ देर पश्चात। 

बात हो रही है उन तीन मूल तत्वों की जिनसे जीवन निर्मित  हुआ है - सत रज और तम। 
रज है तृष्णा प्यास, एक्शन एक्सीलेरेटर। तम है बेहोशी, सम्मोहन, अंधकार अज्ञानता मूढ़ता मोह, प्रमाद। हम जीवन भर किसी न किसी इच्छा से सम्मोहित रहते हैं। मृत्युपर्यन्त तक। और रजोगुण उसी की ओर हमें धकेलता रहता है। 

जीवन के उच्च आयामों को प्राप्त करने के लिए सतोगुण को बढ़ाना पड़ता है। सतोगुण को ही  - सुख शांति ज्ञान प्रकाश आदि अन्य नामों से अलंकृत किया जाता है। 

इसको समझना हो तो एक कार के माध्यम से समझा जा सकता है - कार को चलाने वाला यंत्र (एक्सीलेरेटर) रजोगुण है। कार को रोकने वाला यंत्र है ब्रेक। इन दोनों का होना अनिवार्य है एक कार या किसी भी वाहन को चलने योग्य बनाने के लिये।  आप इस उद्धरण को साईकल से लेकर हवाई जहाज तक तक में आरोपित कर सकते हैं। बिना एक्सीलेरेटर या पैडिल के न साईकल चलेगी न कार। यदि उसे रोकने के लिए ब्रेक न हो तो वह यंत्र किसी काम का नहीं है। आसमान में फेंकी गयी हर वस्तु  वापस पृथ्वी पर लौट आती है क्योंकि गुरुत्वाकर्षण ब्रेक का काम करता है। वरना वह वस्तु अंतरिक्ष में चली जाय। 
कार साईकल या हवाई जहाज में एक्सीलेरेटर और ब्रेक को नियंत्रित करने के लिये ड्राइवर का होना आवश्यक है।  
यही है सतोगुण, बैलेंसिंग फ़ोर्स। यदि कार में ड्राइवर न हो तो एक्सीडेंट अनिवार्य रूप से घटेगा। 

यही जीवन का सत्य है। 
धनतेरस - तेरह तत्व हमारे अस्तित्व के : पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियां (हार्डवेयर, शरीर) और मन बुद्धि और अहंकार (  सॉफ्टवेयर या माइंड)।  यही तेरह तत्व हमारे जीवन को चलाते हैं। संसार के समस्त धनों को प्राप्त करने के लिए यही वह यंत्र हैं, जो आवश्यक हैं। सुख दुःख तनाव उलझन बेचैनी - समस्त धन इन्हीं यंत्रो से प्राप्य हैं। 
चौदहवाँ तत्व है - चित्त। जिसका हमें कोई अता पता नहीं है। इसका अर्थ होता है - सत्य, प्रकाश, ज्योति,   चेतनता, चैतन्य, होश, जागरण Counciousness, awareness. जिसका उद्धरण विवेकानंद देते थे । कठोपनिषद का वह मन्त्र:
उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत, छुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गम् पथ: तत् कवयो वदन्ति।

 यदि चैतन्य तत्व का हमें बोध हो  जाय तो जीवन के  अमावस ( अंधकार) में दीवाली आ जाय। वरना नरक चतुर्दशी मिलेगा अनिवार्य रूप से। नरक कोई भौगोलिक सत्ता नहीं है। जैसा कि अन्य धर्मों के लोगों का विस्वास है। नरक है स्टेट ऑफ माइंड - दुःख बेचैनी तनाव। 
तुलसीदास कहते हैं:
असन बसन पशु वस्तु विविध विधि सब मनि महँ रह जैसे।
सरग नरक चर अचर लोक सब बसहिं मध्य मन तैसे।।

मनि का अर्थ है - आज के युग मे एक ए टी एम कार्ड। यदि आपके बैंक में धन है और आपके पास ए टी एम है,  तो आपको बर्तन भाड़ा कपड़ा लत्ता का कोई तनाव नहीं लेना है। जहां जाएंगे वही सब मिल जाएगा। उसी तरह सरग नरक सब हमारे स्टेट ऑफ माइंड का नाम है। हम कैसे अपना जीवन निर्मित करते हैं उसी पर निर्भर करता है कि हम नरक चतुर्दशी को प्राप्त करेंगे, या फिर अमावस की दीवाली। 

बाहर जलाया जाने वाला दिया प्रतीक मात्र है उस दिए का जो अंदर जलता है किसी किसी के अंदर, जिसके बारे में बुद्ध ने कहा - अप्प दीपो भव। अपना दिया तुम स्वयं जलाओ। कोई किसी के जीवन में उजियारा नहीं ला सकता है। कोई किसी के जीवन में दुख और अंधकार भले ही ले आये। यद्यपि यह भी असत्य है। हमीं अपने जीवन के अंधेरे और उजाले के लिए उत्तरदायी हैं। 

सबको धनतेरस, नरक चतुर्दशी और दीपावली की शुभकामनाएं।

©त्रिभुवन सिंह

You can get out of negativity. How?

#Be_Positive: #But_why_and_How ?

वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं।
- महर्षि पतंजलि 
वितर्क अर्थात मन में जो भी चलता रहता है-गड्डम गड्ड। जो भी विचार आपके मन को व्यथित करते रहते हैं वह वितर्क की श्रेणी में आते हैं। 

तर्क का अर्थ है- लॉजिकल थिंकिंग। चैतन्य चिंतन है तर्क। आपको पता है कि आप क्या सोच रहे हैं। You know what's going in your mind. वितर्क का अर्थ है कि You are not aware of your mind, but its full of bullshit thoughts which are tremendously bothering you. 

मन में चलता ही रहता है कुछ न कुछ ऐसा। मन में गीत फूट रहा है, संगीत फूट रहा है, नृत्य फुट रहा है, तो वह सुखद होता है। मन में क्रोध पनप रहा है,  हिंसा, घृणा, ईर्ष्या द्वेष अवसाद पनप रहा है, तो वह दुखद होता है। 

लेकिन सुख के क्षण सीमित होते हैं। दुख के क्षण असीमित। दुख के क्षण नहीं होते - घण्टे महीने और साल होते हैं। अधिकतर दुख भूतकाल की पीड़ाओं से या भविष्य के भय से उपजते हैं। दोनों का अस्तित्व नहीं है लेकिन मन में यही सब कुछ गड्डमड्ड चलता रहता है। जो व्यथित करता है, चिंतित करता है, उदास करता है, भयभीत करता है। 

आजकल कुछ नहीं तो कोरोना ने सबको भयभीत कर रखा है। भय मनुष्य के मन का स्वाभाविक अंग है। वृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार मन के दस प्रकोष्ठ हैं: काम (कामना वासना चाहत डिजायर) संकल्प, विचिकित्सा ( संशय) धैर्य, अधैर्य, श्रद्धा, अश्रद्धा, हिं ( लज्जा) भीं ( भय ) धी ( बुद्द्धि विवेक)। 
यह मन या माइंड के अंग हैं। यह सभी मनुष्यों के अंदर होता है। भय बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है मानव मन का। निर्भयता ट्रैनिंग से आती है मन के। 

एक मित्र भयभीत है कोरोना से। यह बात Niraj Agrawal ने मुझे बताया। उसने बताया कि उस मित्र को भय के कारण नींद ही नहीं आ रही है। ऐसे बहुत से लोग होंगे जो भयभीत होंगे। भयभीत तो सभी हैं, परंतु कौन कितना है यह बताना संभव नहीं है। यह तो वह व्यक्ति स्वयं  जानता है। लेकिन मनुष्य का अहंकारी इतना प्रबल होता है कि उसके लिए यह स्वीकार करना कठिन होता है कि वह भयभीत है।

 मेडिकल साइंस इमोशन्स को कोई महत्व नहीं देता। क्योंकि इमोशन्स को शरीर में खोजा नहीं जा सकता। मेडिकल साइंस आजकल एविडेंस बेस्ड मेडिसिन की बात करता है। तो शरीर में इमोशन्स कहाँ खोंजे वह? लेकिन इससे सहमत होता है कि भय से शरीर का एक तंत्र सक्रिय होता है, जिससे निकले केमिकल शरीर की इम्युनिटी कम करते हैं। ( पढिये #फ्लाइट_ओर_फाइट : #HPA_Axis)। 

मन को इन व्यथाओं से मुक्त कराने की विधियों का ही योग विज्ञान में वर्णन है। हर मनुष्य के मन की व्यथा अलग अलग होती है। क्योंकि हर मनुष्य अलग है अनोखा है। लेकिन सबके माइंड का फॉरमेट एक जैसा ही होता है। 

महर्षि पतंजलि ने मन को व्यथा से मुक्त करने की अनेकों विधियों का वर्णन किया है योगसूत्र में। उनमे से एक विधि है - वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं। जब मन विचारों के जंजाल में उलझ जाए और ऊल जलूल विचार मन को व्यथित करने लगें, आतंकित करने लगें, तो प्रतिपक्ष की भावना मन में लाना चाहिए। जिसको आजकल कहा जाता है - Be Positive. Don't think Negative, Be positive.

 महर्षि कह रहे हैं कि ऐसी स्थिति में उल्टी भावना अपने मन के अंदर ले आनी चाहिए। अर्थात यदि मन में हिंसा और क्रोध उतपन्न हो, भय का संचार हो, व्यथा उत्पन्न हो तो करुणा और प्रेम, निर्भयता, हर्ष का भाव मन में लाना चाहिए। 

लेकिन क्या यह इतना आसान है?
नहीं आसान नहीं है। आसान होता तो महर्षि इसे सूत्र बद्व न करते। महर्षि पतंजलि वैज्ञानिक हैं और शब्दों में कंजूस। पूरे योग को तीन शब्दों में व्याख्यायित करने वाले : योगः चित्तवृत्ति निरोध:।

 चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। चित्त अर्थात मन या माइंड। उसकी वृत्ति क्या है? चंचल होना। बार बार वहीं घूमफिर कर आ जाना जो बात मन मे अंटक गयी है, जिस बात पर मन विदक गया है, जो बात मन में चुभ गयी है, जो मन में खटक रही है। यह तो मन का सहज स्वभाव है।
तो फिर ? कैसे होगा वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं?

तो पहली बात तो यह है कि हमें यह समझना होगा कि जिस तरह हम जीवन जीते हैं, उसमें हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे मन में चल क्या रहा है? हम अपने मन के प्रति बेहोश रहते हैं। हम घर से निकले आफिस के लिए। और आधे घण्टे में आफिस पहुँचे। उन आधे घण्टे में हमारे मन में क्या क्या चला, क्या क्या योजनाएं बनी, कौन कौन सी व्यथाएँ उत्पन्न हुयी, इस सबका हमें कोई ख्याल ही नहीं रहता। सब कुछ यंत्रवत हो रहा है। हम एक यंत्र की भांति जीवन गुजार रहे हैं। सर्वप्रथम इस बात को स्वीकार किया जाय कि हम यंत्रवत जीवन जी रहे हैं, बेहोशी में जी रहे हैं। स्वीकार करते ही आधा काम खत्म हो जाता है। लेकिन स्वीकार गहन होना चाहिए।निरंतर होना चाहिए। 

दूसरी बात यह है कि हमें होश में, बोध में जीने की कला सीखनी होगी। हमें अपने मन का चुपके से पीछा करना होगा। हमारे मन में क्या चल रहा है चुपचाप उस पर दृष्टि रखनी होगी। तभी यह समझ मे आएगा कि हमारे मन में क्या चल रहा है।

 इसी को महर्षि पतंजलि स्वाध्यायः कहते हैं। अपना अध्ययन। अपने मन मे जो भाव या विचार आ रहे हैं उनका अध्ययन। तभी यह संभव होगा कि मन में जो विचार उत्पन्न हो रहे हैं, व्यथित कर रहे हैं, उनसे अपने चित्त को सकारात्मक विचारों और भावों की तरफ मोड़ा जा सकेगा। 

©त्रिभुवन सिंह

Wednesday, 11 November 2020

Root Cause of Depression and Frustration

Why people are so much tense and terse, depressed and irritated, angry and violent?

Because we have been designed in such manner that whatever we ingest in our body, important elements are taken by our body and waste material is excreted out in form of मल मूत्र and स्वेद। 
If this doesn't happen?
You are in severe danger. 
Your life is at risk. 

But when it comes about ingesting thoughts ideas and ideologies they make a permanent place our mind. Several thoughts are toxic. But we don't know what they are, and how to throw them out.
So we are bound to become toxic.
Toxicity becomes part of our existence. 
Toxicity means poison. 
This is solely responsible for tension, terseness, frustration anger and violence within us. We are bound to leave a constipated and sick life. 

What is the way out.
We need to do catharsis of out mind. Cleansing of mind is only way out. 

Catharsis of mind is most important.

But it's not an easy procedure.
Neither it's impossible task. 

But most important thing is that does one relly feels to cleanse his/her mind. 

© Tribhuwan Singh 

❤️🙏🏽

Tuesday, 6 October 2020

प्राकृतिक शक्तियों को कैसे संतुलित करें?

#ग्रेस_प्रसाद_Lavitation :

यथैधांसि समिद्ध: अग्नि भस्मसात कुरुते अर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा।। 

- भगवतवीता । 4.37।
जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, हे अर्जुन उसी तरह ज्ञान रूपी अग्नि सभी कर्मों को जलाकर राख कर देती है। 

यह ध्यान की विधि का प्रतीकात्मक वर्णन है। यहाँ ईंधन समिधा और अग्नि तीनों प्रतीक हैं। ईंधन में ही अग्नि विराजमान रहती है परंतु वह स्वयं को नहीं जला सकती। अग्नि में ईंधन जाते ही वह स्वयं अग्नि का रूप धारण कर लेती है। और फिर ईंधन जल जाता है उस अग्नि में। 

कर्म से यहां अर्थ है मानसिक कर्म। कर्म करने के तीन उपकरण हैं हमारे पास - शरीर वाणी और मन। 
"शरीर वाक मनोभि: यत् कर्म प्रारभते नर:"।
- भगवतवीता 
शरीर वाणी और मन से जो भी कर्म मनुष्य करता है। 
वाणी और शरीर से होने वाले समस्त कर्मों का प्रारंभ मन में होता है। मन में बीज निर्मित होता है। शरीर और वाणी द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होती है। बीज मन मे बोया गया। वृक्ष के रूप में वह वाणी और शरीर मे पुष्पित पल्लवित होता है।

 जिस भाव विचार या इच्छाओं का वाणी और शरीर से अभिव्यक्ति हो गयी, उनका बीज नष्ट हो गया। अब उनके कर्मफल न बनेंगे। लेकिन ऐसा न होगा कि कर्म के परिणाम न होंगे। आपको क्रोध आया, आपने सामने वाले का सर फोड़ दिया। इसके परिणाम तो आएंगे ही। हो सकता है पलटकर वह आपका सर फोड़ दे। या पुलिस फाटा के झंझट में फंसे आप। कोर्ट कचहरी मुकदमें में फंसे।
लेकिन मन में क्रोध जागा, लेकिन किसी कारण उसको प्रकट नहीं कर सके। तो वह अंदर ही अंदर घूमेगा। विष निर्मित करेगा शरीर मे। 
  
 जो इच्छाएं आकांक्षाएं भाव और विचार मन मे ही बने परंतु अभिव्यक्ति न हो पायी, वे मन में विचारों के बादल की तरह उमड़ते रहते हैं। मन उसी में फंसा रहता है। रात और दिन। रात में सपनो के रूप में। दिन में मुंगेरीलाल के हसीन सपनो के रूप में - दिवास्वप्न। 

ज्ञानाग्नि - ध्यान की वह अवस्था जब आप सुखासन की स्थिति में बैठकर मन मे उमड़ और घुमड़ रहे विचारों को देखते हैं, साक्षी भाव से। अर्थात उनमें लिप्त हुए बिना, तो वे समस्त विचार धीरे धीरे विलीन हो जाते हैं। ज्ञान का अर्थ है आप। आपने अपने विचारों को देखा तो वे जल जाएंगे। आप अलग हैं। विचार अलग हैं। 

मेडिकल साइंस के अनुसार, हमारे मन में विचारों के बादल केमिकल मैसेंजर के माध्यम से प्रवाहित होते हैं, जिनको न्यूरोट्रांसमीटर कहा जाता है, हॉर्मोन कहा जाता है।यदि विचारों के बादल दिन रात उमड़ते ही रहते हैं, तो यह केमिकल बनते ही जाते हैं निरंतर। जो ग्रंथियों के रूप मे शरीर मे एकत्रित होते रहते हैं - लेकिन ये ग्रन्थियां विषाक्त होती हैं। 

मेडिकल साइंस के अनुसार कोशिका के स्तर पर हर कोशिका में मेटाबोलिज्म होती रहती है। कोशिकाओं में मेटाबोलिज्म के कारण बचे अवशेष lysosome नामक ग्रंथियों में एकत्रित होती रहती है।

 2016 में मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले Yoshinori Ohsumi ने प्रमाणित किया कि लंबे उपवास के द्वारा इन ग्रंथियों के अवशेषों को जलाया जा सकता है, और उससे ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। इससे अनेक रोगों यथा - डायबिटीज, हाइपरटेंशन के साथ साथ कैंसर आदि के इलाज में सहायता मिलती है -इसे Autophagy कहते हैं मेडिकल साइंस की भाषा में। इसी पर उसको नोबेल मिला उसे। 

मेडिकल साइंस उपवास का अर्थ सिर्फ फास्टिंग। भूंखे रहना। इसीलिए 2016 के बाद एक फ़ैशन आया है - इंटेरेटेन्ट फास्टिंग का। 16 घण्टे के लंबे उपवास के बाद मात्र 8 घण्टे खाना पीना। फिर 16 घंटे का लंबा फ़ास्ट। फिल्मी दुनिया से लेकर डॉक्टरों तक के बीच आजकल यह अत्यंत लोकप्रिय विधि हो गयी है - डायबिटीज, हाइपरटेंशन और वजन को नियंत्रित करने का। 

लेकिन तथ्य तो यह है कि जो जो भी चीज हमारे शरीर के अंदर जाती है, उसमें से जो शरीर और माइंड के लिए उपयोगी है उसको शरीर ले लेता है, बाकी बचा हुवा अवशेष विष का स्वरूप धारण कर लेता है जिसे शरीर से निकालना आवश्यक है। जैसे हम ऑक्सीजन ( प्राणवायु) लेते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड निकालते है। जैसे हम अन्न जल लेते हैं और मल मूत्र पसीना निकालते हैं।

 ठीक उसी तरह अन्य शरीर के अन्य इंद्रियों द्वारा ग्रहण किये गए इनपुट - यथा आंख कान नाक चमड़ी आदि से ग्रहण की गयी सूचनाएं मन में विचार के रूप में एकत्रित होती है। उनकी शरीर में अभिव्यक्ति केमिकल मेसेंजर्स के रूप में होता है। उन केमिकल मेसेंजर्स के अवशेष,  कोशिकाओं में विषाक्त ग्रंथियों के रूप में एकत्रित होती रहती हैं। इसकी अभिव्यक्ति हमारे सिस्टम में तनाव या स्ट्रेस के रूप में भी होता है। मेडिकल साइंस के अनुसार स्ट्रेस  के कारण डायबिटीज हाइपरटेंशन से लेकर कैंसर आदि तक होता है। 

लेकिन उपवास का अर्थ फास्टिंग नहीं होता। उपवास के साथ व्रत शब्द का उपयोग होता है- व्रत उपवास। व्रत का अर्थ है संकल्प - determination. उपवास का अर्थ है उसके पास वास करना, जो तुम हो। उपवास करने का संकल्प। 

उसका तरीका बताया कृष्ण ने :
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदय निरुद्ध च।
मूर्ध्नि आधाय आत्मनः प्राणं आस्थित: योग धारणाम्।।
भगवतवीता। 12। 
इंद्रियों के सभी द्वारों को बंद करके, मन को हृदय में और प्राणवायु को मूर्ध्नि ( दोनों भौओं) मध्य में केंद्रित करके योग धारण किया जाता है। 

इसी को कृष्ण ने - ज्ञानाग्नि में समस्त कर्मो को दग्ध करने की संज्ञा दिया है। आंख बंद करके सुखासन में मूर्ध्नि पर चेतना को केंद्रित करके विचारों को देखने से वे विचार स्वाहा हो जाते हैं। 

मूर्ध्नि के क्षेत्र को मेडिकल साइंस में Prefrontal Cortex कहते हैं। जहां पर सारे विचार बनते हैं जहां पर बुद्द्धि नामक सॉफ्टवेयर यह तय करती है क्या उचित है क्या अनुचित। ब्रेन में  बुद्द्धि और विचार के क्षेत्र को  प्रीफ्रंटल कोर्टेक्स कहते हैं। उसी को योग की भाषा मे मूर्ध्नि या आज्ञाचक्र कहते हैं। यदि किसी का प्रीफ्रंटल कोर्टेस क्षतिग्रस्त हो जाय तो वह व्यक्ति पागल हो जाता है। उसके निर्णय लेने की क्षमता का ह्रास हो जाता है। 

इसी को योगिक साइंस में निर्ग्रंथन भी कहा जाता है। मन और शरीर मे निर्मित विषैली ग्रंथियों को जलाना। 

इसी को आज मेडिकल साइंस autophagy कह रहा है।इंटेरेटेन्ट फास्टिंग से autophagy में सहायता मिलती है।  इससे शरीर को ऊर्जा मिलती है।

उपावस व्यक्ति के शरीर और मन को निर्भार करता है। बोझिल और तनाव ग्रस्त मन को हल्का करता है। इस विषय पर मेडिकल साइंस और योगिक साइंस में सहमति है। लेकिन मेडिकल साइंस के अनुसार उपवास का अर्थ है फास्टिंग। वहीं योगिक साइंस के अनुसार इसका अर्थ है ध्यान। इससे शरीर मे उदानवायु की मात्रा बढ़ती है। शरीर की  Buoyancy में वृद्धि होती है।
हमारे अंदर और बाहर प्रकृति की जो शक्तियां काम करती हैं। उनमें से  एक फ़ोर्स है ग्रेविटेशनल - गुरुत्वाकर्षण - जो नीचे घसीटती है। दूसरी ऊर्जा होती है - Levitational - जो ऊर्ध्व गति देती है। नग्रेजी में जिसे Grace कहते हैं। संस्कृत में जिसे प्रसाद कहते हैं। 

योग की विधियां निम्न गति को, गुरुत्वाकर्षण को अप्रभावी बनाती हैं, और ग्रेस प्रसाद या Lavitation को बढ़ाती हैं। योगिक साइंस आपके अंदर प्रकृति की शक्तियों को बैलेंस करने में सहायता करती है। गुरुत्वाकर्षण अपना काम करता है। levitational फ़ोर्स अपना। मनुष्य को अपने शरीर के अंदर निहित ऊर्जा के इन केंद्रों को सक्रिय करने के लिये अनेक विधियां हैं और उनका विज्ञान है। यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप किस स्तर पर अपने जीवन को ले जाना चाहते हैं। Life energy को किस लेवल तक उठाना चाहते हैं। जीवन मे गुरुता प्रमाद अंधकार बेहोशी को बनाये रखना है, या जाग्रत रहना है, ग्रेस बढ़ाना है, प्रसाद लाना है जीवन में, यह आपको तय करना होगा। 
ॐ 

©त्रिभुवन सिंह

Sunday, 4 October 2020

अछूत और आरक्षण : ब्रिटिश दस्युवों के लूट का परिणाम

#अछूत_आरक्षण_ब्रिटिश_दस्यु_नीति_की_उपज :

400 वर्ष पूर्व जब ईस्ट इंडिया कंपनी के तथाकथित व्यापारी भारत आये तो वे भारत से सूती वस्त्र, छींटज़ के कपड़े, सिल्क के कपड़े आयातित करके ब्रिटेन के रईसों और आम नागरिकों को बेंचकर भारी मुनाफा कमाना शुरू किया।
ये वस्त्र इस कदर लोकप्रिय हुवे कि 1680 आते आते ब्रिटेन की एक मात्र वस्त्र निर्माण - ऊन के वस्त्र बनाने वाले उद्योग को भारी धक्का लगा और उस देश में रोजगार का संकट उतपन्न हो गया।
इस कारण ब्रिटेन में लोगो ने भारत से आयातित वस्त्रों का भारी विरोध किया और उनकी फैक्टरियों में आग लगा दी।
अंततः 1700 और 1720 में ब्रिटेन की संसद ने कैलिको एक्ट -1 और 2 नामक कानून बनाकर ब्रिटेन के लोगो को भारत से आयातित वस्त्रों को पहनना गैर कानूनी बना दिया।

1757 में यूरोपीय ईसाईयों ने बंगाल में सत्ता अपने हाँथ में लिया, तो उन्होंने मात्र जमीं पर टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी ली, शासन व्यवस्था की नहीं। क्योंकि शासन में व्यवस्था बनाने में एक्सपेंडिचर भी आता है, और वे भूखे नँगे लुटेरे यहाँ खर्चने नही, लूटने आये थे। इसलिए टैक्स वसूलने के साथ साथ हर ब्रिटिश सर्वेन्ट व्यापार भी करता था, जिसको उन्होंने #प्राइवेट_बिज़नेस का सुन्दर सा नाम दिया। यानि हर ब्रिटिश सर्वेंट को ईस्ट इंडिया कंपनी से सीमित समय काल के लिये एक कॉन्ट्रैक्ट के तहत एक बंधी आय मिलती थी, लेकिन  प्राइवेट बिज़नेस की खुली छूट थी । 

  परिणाम स्वरुप उनका ध्यान प्राइवेट बिज़नस पर ज्यादा था, जिसमे कमाई ओहदे के अनुक्रम में नहीं , बल्कि आपके कमीनापन, चालाकी, हृदयहीनता, क्रूर चरित्र, और  धोखा-धड़ी पर निर्भर करता था । परिणाम स्वरुप उनमें से अधिकतर धनी हो गए, उनसे कुछ कम संख्या में धनाढ्य हो गए, और कुछ तो धन से गंधाने लगे ( stinking rich हो गए) । और ये बने प्राइवेट बिज़नस से -  हत्या बलात्कार डकैती, लूट, भारतीय उद्योग निर्माताओं से जबरन उनके उत्पाद आधे तीहे दाम पर छीनकर । कॉन्ट्रैक्ट करते थे कि एक साल में इतने का सूती वस्त्र और सिल्क के वस्त्र चाहिए, और बीच में ही कॉन्ट्रैक्ट तोड़कर उनसे उनका माल बिना मोल चुकाए कब्जा कर लेते थे।
 अंततः भारतीय घरेलू उद्योग चरमरा कर बैठ गया, ये वही उद्योग था जिसके उत्पादों की लालच में वे सात समुन्दर पार से जान की बाजी लगाकर आते थे।क्योंकि वहां से आने वाले 20% सभ्य ईसाई रास्ते में ही जीसस को प्यारे हो जाते थे।

ईसाई मिशनरियों का धर्म परिवर्तन का एजेंडा अलग से साथ साथ चलता था।

इन अत्याचारों के खिलाफ 90 साल बाद 1857 की क्रांति होती है, और भारत की धरती गोरे ईसाईयों के खून से रक्त रंजित हो जाती है ।
हिन्दू मुस्लमान दोनों लड़े ।
मुस्लमान दीन के नाम, और हिन्दू देश के नाम ।

तब योजना बनी कि इनको बांटा कैसे जाय। मुसलमानों से वे पूर्व में भी निपट चुके थे, इसलिए जानते थे कि इनको मजहब की चटनी चटाकर , इनसे निबटा जा सकता है।
लेकिन हिंदुओं से निबटने की तरकीब खोजनी थी।

1857 के बाद इंटेरमीडिट पास जर्मन ईसाई मैक्समुलर, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के पैरोल पर था। और  जिसने अपनी पुस्तक लिखने के बाद अपने नाम के आगे MA की डिग्री स्वतः लगा लिया ( सोनिया गांधी ने भी कोई MA इन इंग्लिश लिटरेचर की डिग्री पहले अपने चुनावी एफिडेविट में लगाया था)। 1900 में उसके मरने के बाद उसकी आत्मकथा को 1902 में पुनर्प्रकाशित करवाते समय मैक्समुलर की बीबी ने उसके नाम के आगे MA के साथ पीएचडी जोड़ दी।

अब वे फ़्रेडरिक मष्मील्लीण (Maxmillian) की जगह डॉ मैक्समुलर हो गए। और भारत के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर लोग आज भी उनको संदर्भित करते हुए डॉ मैक्समुलर बोलते हैं।

इसी विद्वान पीएचडी संस्कृतज्ञ मैक्समुलर ने हल्ला मचाया किभारत में  #आर्यन बाहर से नाचते गाते आये। आर्यन यानि तीन वर्ण - ब्राम्हण , क्षत्रिय , वैश्य, जिनको बाइबिल के सिद्धांतों को अमल में लाते हुए #सवर्ण कहा गया।

जाते जाते ये गिरे ईसाई लुटेरे  तीन वर्ण को भारतीय संविधान में तीन उच्च (? Caste) में बदलकर संविधान सम्मत करवा गए।

आज तक किसी भी भारतीय विद्वान ने ये प्रश्न नही उठाया कि मैक्समुलर कभी भारत आया नहीं, तो उसने किस स्कूल से, किस गुरु से समस्कृत में इतनी महारत हासिल कर ली कि वेदों का अनुवाद करने की योग्यता हसिल कर ली।
हमारे यहाँ तो बड़े बड़े संस्कृतज्ञ भी वेदों का भाष्य और टीका लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

अभी हाल में जे एन यू के एक आर्थिक इतिहासकार का लेख छपा है - उषा पटनायक का।
उन्होंने दावा किया किया है कि ब्रिटिश दस्युवो ने भारत से 45 ट्रिलियन पौंड की लूट किया। 
इसका प्रभाव क्या हुवा?
इस पर आज तक इतिहासकार और सामाजिक शास्त्री चुप हैं। 
इसका प्रभाव यह हुवा कि जब ब्रिटिश दस्यु भारत आये थे तो भारत विश्व की 24% जीडीपी का निर्माता था।
और जब गए तो भारत की जीडीपी 1.8% से भी कम बची। 
करोड़ो भारतीय बेरोजगार हुए। 
उनमे से 1850 से 1900 के बीच लगभग 3 करोड़ से अधिक भारतीय भूंखमरी और संक्रामक रोगों की चपेट में आकर काल के गाल में समा गए। 
उन संकामक रोगों के कारण भारत मे छुआछूत का प्रचलन हुवा, जिसको विभिन्न राजनैतिक और ईसाइयत में धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से डॉ आंबेडकर की मदद से भारतीय सरकारी कागजों में छुआछूत को हिन्दू धर्म का अंग बताते हुए सरकारी विधान बनाया गया।
मेरा दावा है कि 1885 के पूर्व के किसी सरकारी या गैर सरकारी दस्तावेज में छुआछूत का जिक्र तक नही है। टेवेरनिर, वेरनिर, बुचनान आदि के किसी ग्रन्थ में इसका जिक्र क्यों नही है। 
15%  और 85% का राजनैतिक सामाजिक न्याय का ढोल पीटने वाले इसका उत्तर क्यों नही देते?

चल संपत्ति की लूट हो सकती है।
अचल संपत्ति कहाँ ले जाओगे।
भारत मे अभी भी हजारों वर्ष पूर्व निर्मित विशाल और भव्य मंदिर हैं।
अम्बेडकर जी बताते है कि शूद्र 3000 वर्षो से नीच है।
तो उनके अनुयायी बतावें कि इन भव्य मंदिरों का निर्माण किसने किया?
ब्राम्हणों ने, क्षत्रियों ने, या वैश्यों ने?

आज राजशिल्पी अनुषुचित जाति में आते हैं संविधान में।
उनके पुर्वजों द्वारा निर्मित यह भव्य इमारतें इस बात का प्रमाण है कि भारत मे हिन्दुओ का कास्ट के अनुसार बंटवारा और ऊंच नीच, ब्रिटिश दस्युवो की सरकारी नीति की देन है। 

#नोट : यह पोस्ट पिछले वर्ष लिखी गयी थी। 20 सितंबर 2019 को। तब न कोरोना था और न ही सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर टिप्पड़ी की थी। 

और पोस्ट खोजता हूँ।

Profession and Passion:

#Choiceless_Awareness:

This word was coined and popularized by Ziddu Krishnamurti.

This is being popularized by Scholars especially western scholars, that it's philosophy. It's totally wrong. It's not philosophy. Philosophy is something what you think about life nature or cosmos. Theories and hypothesis propounded by thoughtful thinkers is philosophy. The word दर्शन is considered to be synonym of philosophy. But it's totally wrong. Darshan is when you see the things without getting entangled emotionally or without being prejudiced about them. 

Only Drashta can do Darshan. Darshan is not thought or thinking. Whatsoever goes in West from anywhere,  it is concocted by them. Same thing have happened with this word choice less awareness. Becuase West haven't gone beyond intellect mind and thinking. 

Our brought up is such that right from beginning of our life, we are taught to see the things as right or wrong.Our family society culture and education teaches us to see the things in the framework of righteousness or wrongness. We develop our liking and disliking according to that framework. This linking and disliking goes upto extent of Religion and Nation. This is the root cause of most bloody wars between communities and Nations in last several centuries. 

Choiceless - denotes developing an awarenesses about the things, where we can stop making decisions in form of right or wrong, good or bad. We can elevate our awareness beyond our likings and dislikings. We can refrain ourselves from being prejudiced. We see the whole lot of things with our jaundiced eyes. That's why we can't see the things as they are. 

Awareness- Just getting out of bed and continue following the same routine everyday, this is what is happening in our life, more or less. When we close our eyes, we sleep. And when we open our eyes, we consider it to be awakened.

 But that is not true. Awakening means we are aware of each and every physical and Mental activities going on within ourself. A close observation and alertness about our physical activity as well as mental activities. 

As of now we are dissociated physically and mentally. Meaning by,  when we are indulged in any activity,  something other is going on in our mind. 

Simplest tasks like eating, we can't do with full awareness. While eating we are watching TV, mobile, newspaper or a book. And if we are not doing this, even then our mind is full of bizarre thoughts while eating. This is not awareness. In spiritual sense it's called sleeping. 

या निशा सर्वभूतेषु जागृति तस्य संयमी। 
यस्यामि जागर्ति सर्वभूतेषु सा निशा पश्यते मुने:।।
  - Bhagwat geeta 

What is known as night for all creatures Yogi is aware in those moments. What we called our awakend stage Yogi calls it as sleeping stage

So choice less awareness is not a philosophy as Western thinkers and psychologists have been propagating it. It's stage of being. It's not thought.

Rather than its state of thoughtlessness.

 © Tribhuwan Singh

Choiceless Awareness:

#Choiceless_Awareness:

This word was coined and popularized by Ziddu Krishnamurti.

This is being popularized by Scholars especially western scholars, that it's philosophy. It's totally wrong. It's not philosophy. Philosophy is something what you think about life nature or cosmos. Theories and hypothesis propounded by thoughtful thinkers is philosophy. The word दर्शन is considered to be synonym of philosophy. But it's totally wrong. Darshan is when you see the things without getting entangled emotionally or without being prejudiced about them. 

Only Drashta can do Darshan. Darshan is not thought or thinking. Whatsoever goes in West from anywhere,  it is concocted by them. Same thing have happened with this word choice less awareness. Becuase West haven't gone beyond intellect mind and thinking. 

Our brought up is such that right from beginning of our life, we are taught to see the things as right or wrong.Our family society culture and education teaches us to see the things in the framework of righteousness or wrongness. We develop our liking and disliking according to that framework. This linking and disliking goes upto extent of Religion and Nation. This is the root cause of most bloody wars between communities and Nations in last several centuries. 

Choiceless - denotes developing an awarenesses about the things, where we can stop making decisions in form of right or wrong, good or bad. We can elevate our awareness beyond our likings and dislikings. We can refrain ourselves from being prejudiced. We see the whole lot of things with our jaundiced eyes. That's why we can't see the things as they are. 

Awareness- Just getting out of bed and continue following the same routine everyday, this is what is happening in our life, more or less. When we close our eyes, we sleep. And when we open our eyes, we consider it to be awakened.

 But that is not true. Awakening means we are aware of each and every physical and Mental activities going on within ourself. A close observation and alertness about our physical activity as well as mental activities. 

As of now we are dissociated physically and mentally. Meaning by,  when we are indulged in any activity,  something other is going on in our mind. 

Simplest tasks like eating, we can't do with full awareness. While eating we are watching TV, mobile, newspaper or a book. And if we are not doing this, even then our mind is full of bizarre thoughts while eating. This is not awareness. In spiritual sense it's called sleeping. 

या निशा सर्वभूतेषु जागृति तस्य संयमी। 
यस्यामि जागर्ति सर्वभूतेषु सा निशा पश्यते मुने:।।
  - Bhagwat geeta 

What is known as night for all creatures Yogi is aware in those moments. What we called our awakend stage Yogi calls it as sleeping stage

So choice less awareness is not a philosophy as Western thinkers and psychologists have been propagating it. It's stage of being. It's not thought.

Rather than its state of thoughtlessness.

 © Tribhuwan Singh

Wednesday, 30 September 2020

योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय

#योगस्थ_कुरु_कर्माणि :

  आपके काम करने का क्या तरीका है? समग्रता से काम करते हैं या फिर विभाजित व्यक्तित्व से काम करते हैं? 

योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धन्नजय।
-भगवतवीता

योग का अर्थ है मिलन। किसका मिलन? कर्म के संदर्भ में बात हो रही है। तो कर्म कितने अंगों से होता है?

कृष्ण कहते हैं:
शरीर वाक मनोभि: यत् कर्म प्रारभते नर:।

शरीर मन और वाणी से जो कर्म मनुष्यों द्वारा शुरू किए जाते हैं। अर्थात यही तीन यंत्र हैं हमारे पास कर्म करने के। इन्ही तीन उपकरणों की सहायता से हम अपने समस्त कर्म करते हैं : शरीर वाणी और मन। 

कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी कर्म करना हो उनको करते समय तीनों का मेल होना चाहिए। तभी जीवन में सफलता मिलेगी। इसी मिलन का नाम ध्यान है। हमारे गुरुओं ने माता पिता ने सबने हमको समझाया कि ध्यान से काम करना सीखो। हम अपने बच्चों को यही प्रवचन दे रहे हैं कि बेटा ध्यान से पढो, ध्यान से काम करो।  

लेकिन क्या हम स्वयं ध्यान से काम करना सीख पाये हैं? क्या हम इस शब्द का अर्थ समझते हैं? 

योगस्थ कुरु कर्माणि - ध्यान से काम करो। ध्यान - शरीर और मन:
अभी तो हमारे काम करने का तरीका ऐसा है कि हमें ध्यान का कुछ अता पता ही नहीं है। हम काम कुछ कर रहे हैं और मन में कुछ और चल रहा हैं। हम बैठे हैं आफिस में और मन में घर में हुवा महाभारत चल रहा है। पत्नी की किचकिच चल रही हैं। हम बैठे हैं घर में। पत्नी के साथ चाय पी रहे हैं। और मन में बॉस दहाड़ रहा है। घर मे बैठे हैं तो आफिस की किचकिच चल रही है। हम गाड़ी चलकर आफिस जा रहे हैं और रास्ते में मन मे सैकड़ो योजनाएं बन बिगड़ रही हैं। 
और तो और साधारण से साधारण नित्यकर्मों के समय भी मन स्थिर नहीं रहता।  शरीर के साथ नहीं रहता। भोजन करने बैठे हैं तो  टी वी खोल लिया। अखबार खोल लिया। किताब खोल ली। क्यों? क्योंकि भोजन करते समय भी मन इतना बेचैन है कि यदि उसे खुला छोड़ दें तो वह न जाने कौन कौन सा उपद्रव खड़ा कर दे? इस भय के कारण हम मन को कहीं न कहीं अटका देते हैं - टी वी में, किताबों में, अखबार में। मन के उपद्रव से बचने के लिए। मैं स्वयं अभी एक वर्ष पूर्व तक भोजन करते समय कुछ न कुछ अवश्य पढ़ता था। मेरी श्रीमती जी ऐतराज करती थीं तो संभबतः मेरे पास कोई तर्कपूर्ण तर्क नहीं रहता होगा। लेकिन अपने आप को सही प्रमाणित करने के लिए मैं कहता था कि " इससे भोजन खराब भी बना हो तो पता नहीं चलता"। खा लेता हूँ। इसे कहते हैं बेध्यानी से भोजन करना। बेहोशी में भोजन करना। होश नहीं है खाते समय। बेहोश हैं हम भोजन करते समय भी। 

 अरे भैया भोजन प्रेम से बनाया है आपकी पत्नी ने, माँ ने, उस प्रेम का तो अपमान न करो। ध्यान से खाओ। ध्यान का एक नाम प्रेम भी है। 
इस तरह हम शरीर और मन के स्तर पर प्रायः बंटे रहते हैं - विभक्त रहते हैं। यही बँटा पन यदि प्रगाढ़ हो जाय तो मनोवैज्ञनिक उसे #SplitPersonalityDisorder कहते हैं। एक मनोवैज्ञनिक बीमारी। 

अब मन और वाणी के द्वारा किये जाने वाले कर्मो में मेल, मिलन के बारे में: हम जैसा जीवन जीते हैं उसमें हमारी वाणी में कुछ चलता है और मन मे कुछ और। संसार में यह बहुत सामान्य बात है। मन में किसी के प्रति द्वेष है, घृणा है, लेकिन वह सामने आ जाय तो हमारी वाणी में मिठास आ जाती है। अहोभाग्य मित्र, आपके दर्शन हुए। लेकिन मन में चल रहा है कि अवसर मिले तो इसका गला दबा दूं। कहाँ से आ टपका यह नामुराद। मन और वाणी में कोई मेल नहीं है। मेरे एक सीनियर हैं। उनके बारे में सुना है कि किसी एक विषय में अलग अलग लोगों से इतनी अलग अलग बाते करते हैं कि शाम तक भूल जाता है कि किससे कौन सी बात की थी। बात तो एक ही करनी थी उस विषय पर। लेकिन मन में उसी बात के लिए अलग अलग व्यक्ति के लिए अलग अलग साँचा तैयार कर रखा है। अंत में सब गड्डम गड्ड हो जाती है कि किससे क्या कहा। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि अपने गुरु को सामने पाकर तुरंत पैर छूते हैं और जैसे ही गुरु एक कदम आगे बढ़ा, वे अपने गुरु को एक भद्दी गाली समर्पित करते हैं। तो मन और वाणी में कोई मेल नहीं है। यह भी विभक्त व्यक्तित्व निर्मित करता है - Split personality. 

ऐसा क्यों हो रहा है?
कृष्ण कह रहे हैं कि - योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। 

कर्म करते समय शरीर मन और वाणी से एक रहो। लेकिन ऐसा तभी होगा जब आसक्ति अर्थात संग का त्याग कर सकोगे। मन में हजारों इच्छाएं जन्म ले रही हैं। मन भाग रहा है निरन्तर उन इच्छाओं के पीछे। हर इच्छा के पीछे राग और द्वेष का भाव जुड़ा हुआ है। तो हम जहां हैं मन वहां से अनुपस्थित है। और जहां पर मन उपस्थित हैं वहां हम अनुपस्थित हैं। जहां मन और शरीर दोनों उपस्थित हैं वहां वाणी तो है लेकिन कौन सी? यह कहना मुश्किल है। सच्ची या झूंठी यह कहना मुश्किल है। 
शरीर वाणी और मन में विभाजन व्यक्ति के अंदर खींचतान उत्पन्न करता है, तनाव और बेचैनी उतपन्न करता है। उपद्रव पैदा करता है। 

कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी कर्म करना हो, उसे समग्रता के साथ करो, ध्यान के साथ करो। शरीर मन और वाणी में एकत्व स्थापित करके करो। विभक्त व्यक्तित्व के साथ कोई काम न करो। समग्र व्यक्तित्व के साथ करो। तभी मन का द्वंद, मन का तनाव, मन की उलझनें, बेचैनियों से बच सकोगे। 

©त्रिभुवन सिंह

Tuesday, 29 September 2020

Quantum Physics Fractal Geometry and वेदांत

#वेदान्त_का_लेटेस्ट_विज्ञान : क्वांटम फिजिक्स और fractal ज्योमेट्री।

पश्चिम और अरबी दस्यु भारत आये थे - भूंखमरी से निजात पाने के लिए। लूट और दस्युता उसको अपने स्वयं के सेक्युलर रोमन और अरबी पूर्वजों से मिली थी, जिसको ईसाइयत और इस्लाम के धर्म ग्रंथो ने मान्यता दे रखी हैं। यद्यपि उन्होंने फनाटिसम के कारण अपने पूर्वज संस्कृति को नष्ट कर दिया, परंतु उनके ज्ञान पर अपना दावा बरकरार रखा।
 
प्लेटो, सुकरात अरस्तू से लेकर Euclid तथा हिप्पोक्रेट्स तक। यद्यपि उसमे संग्रहित बहुतायत ज्ञान भारत से ही गया है। 

भारत का आर्थिक सर्वनाश करने के बाद वे उसे मानसिक गुलामों का देश बनाकर चले गए। 

पढ़े लिखे भारतीय - अर्थात मानसिक गुलाम। पश्चिम के चश्मे से भारत को देखने वाले। पश्चिम का चश्मा - दस्युवो लुटेरों और मैक्समुलर जैसे अफवाहबाजों का चश्मा। 

भारत से बटोरे शास्त्रों के ज्ञान को उन्होंने अपनी भाषा मे लिखना शुरू किया - सम्भवतः कुछ रिसर्च भी किया। उन्होंने प्रकृति को समझने का प्रयास विज्ञान के माध्यम से किया। 

भौतिक विज्ञान के माध्यम से जब उन्होंने प्रकृति को समझना चाहा तो क्लासिकल फिजिक्स के नियम काम न आ सके। उसके लिए उन्होंने एक नया फिजिक्स विज्ञान विकसित किया - क्वांटम फिजिक्स। प्रकृति को  समझने के लिए उन्होंने वेदान्त का सहारा लिया या वेदान्त के निर्णय तक पहुंचे, यह फिजिसिस्ट बताएं, लेकिन वे पहुंचे वहीं, जहां वेदान्त पहुंचाता है। 

क्वांटम फिजिक्स के जनक मैक्स प्लांक कहते हैं - Counciousness is fundamental. चेतना सबके मूल में है। कृष्ण अपने ब्रम्ह स्वरूप की व्याख्या करते समय बोलते हैं - चेतना अश्मि सर्वभूतनाम। सभी जीवों में मैं चेतना के रूप में विद्यमान हूँ। 

Hans peter durr भी उसी निर्णय पर पहुंचा - Material is not made out of matter. लगभग समस्त नोबेल पुरस्कार प्राप्त फिजिसिस्ट ने वेदान्त को ही अपनी भाषा मे लिखा है।

लेकिन उनकी खूबसूरती यह रही कि वे उन वैदिक सिद्धांतो को तकनीकी स्वरूप प्रदान करने में सफल रहे - क्वांटम फिजिक्स के इन्ही वेदान्तिक सिद्धांतो को प्रयोग में लाकर कंप्यूटर, मोबाइल आदि आदि बन रहे हैं।

गणितज्ञों ने जब सृष्टि को समझजे का प्रयत्न किया.  आज तक जो क्लासिकल Euclidian ज्योमेट्री पढ़ाई जा रही है वह उसको समझाने में असफल रही। 
Euclidian ज्योमेट्री अर्थात - ट्रायंगल, क्यूब, परल्लेलोग्राम  आदि आदि। 

प्रकृति को समझने के लिए Benoit Mandelbrot ने 1970 में fractal ज्योमेट्री की खोज की - जो आज कंप्यूटर की सबसे प्रिय भाषा और विषय है - किसी भी वस्तु की प्राकृतिक डिजाइनिंग के लिए।

लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि - कॉसमॉस, यूनिवर्स, या स्वयं को समझने और जानने के लिए 1000 वर्ष पूर्व बने मंदिरों में fractal ज्योमेट्री के ज्ञान का उपयोग किया गया था। 

उससे भी बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि - साइंटिस्ट तो थ्योरी देता है। fractal ज्योमेट्री का सिद्धांत ब्राम्हणों ने तैयार किया, जिनको हम ऋषि मुनि बोलते थे, लेकिन उनको वे आज नोबल लौरेट फिजिसिस्ट, बायोलॉजिस्ट, मथमेटिशन आदि बोलते हैं।

लेकिन उसको execute करने वाले, अर्थात धरातल पर उतारने वाले लोगों को शूद्र कहते हैं - राजशिल्पी कहते थे हम। आज उनको सॉफ्टवेयर इंजीनियर कहते हैं या कुछ और भी। 

लेकिन जब अम्बेडकर ने अपने माई बाप - साइमन और लोथियन को लिखकर दिया कि वे अछूत ही हैं क्योंकि मैं ऐसा समझता हूँ,  तबसे वे सर्टिफाइड अछूत हो गए।

उनको हमारा संविधान - #अनुसूचित_जाति बोलता है।

यह लिंक भी पढ़ लीजिये:

Monday, 28 September 2020

हनुमान का क्या अर्थ है?

#पवनपुत्र_हनुमान का रहस्य: 

सीय राम मय सब जग जानी।
करहुं प्रणाम जोर जुग पानी।।
- रामचरितमानस

ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुखराशी।।
- रामचरितमानस

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातनः।
मनः षष्टाणिइन्द्रयानि प्रकृति स्थाने कर्षति।।
- भगवतगीता
जीव तो मेरा ही अंश है। आज से नहीं जबसे सृष्टि की रचना हुयी है। लेकिन मन सहित छः इंद्रियों के द्वारा संसार मे संघर्ष कर रहा है। कष्ट भोग रहा है। 
कृश्नः तो परमानंद सच्चिदानंद हैं। तो उनका अंश कष्ट क्यों भोग रहा है। संघर्ष क्यों कर रहा है? 
क्योंकि छः इंद्रियों सहित स्वयं को कर्ता मान बैठा है। और सबसे शक्तिशाली इन्द्रिय है मन अर्थात माइंड। उसी के कारण इतना कष्ट भोग रहा है। 

समस्त जीव  पुरुष और प्रकृति , चेतना और जड़ से बने हैं। 
राम चेतना हैं।
सीता उनकी शक्ति - प्रकृति।

हनुमान कौन हैं फिर। 
हनुमान हैं पवन पुत्र। 
वायु पुत्र। 
प्राण वायु हैं हनुमान। 

जीवन की गहराइयों को समझने के लिए प्राणवायु का सहारा लेना पड़ता है। वैसे भी यदि सतह पर जीना हो, तो भी प्राणवायु तो आवश्यक ही है। सतह अर्थात शरीर। केंद्र की परिधि। 
जब तक प्राणवायु आ जा रही है। तभी तक वह प्राणी है।अन्यथा निष्प्राण मिटटी। चेतना के जाते ही सब मिट्टी ही मिट्टी। तुरन्त इसको जलाओ फूको, गाड़ो। 

वायुपुत्र मनुष्य से सम्बन्ध है - प्राणवायु का।
प्राणवायु का सम्बन्ध है प्राणायाम से। 
प्राणायाम का सम्बन्ध है योग से भगवत प्राप्ति से। 
इसीलिए हनुमान वैराग्य के प्रतीक हैं।

ध्यान रहे:
यथा पिंडे।
तथा ब्रम्हांडे।।

हनुमान का #बन्दर स्वरूप माइंड की दशा का परिचायक है। माइंड अर्थात मन। मन में जब तक संसार बसा हुआ है तब तक यह बहुत चंचल रहता है। अस्थिर। कभी इधर कभी उधर। विचार के बादल सोते जागते मन मे मंडराते रहते हैं।बेचैन बन्दर की तरह मनुष्य की तरह इस पेड़ से उस पेड़ पर कूदता रहता है।

योग विज्ञान में मन की इस दशा को क्षिप्त और विक्षिप्त कहते हैं। मेडिकल साइंस इसे विभिन्न ब्रेन वेव्स के नाम से जानता है- अल्फा बीटा गामा डेल्टा थीटा। योग विज्ञान कहता है मन की पांच अवस्थाएं हैं - मूढ़ क्षिप्त, विक्षिप्त एकाग्र निरुद्ध। 
निरुद्ध की अवस्था योगी की अवस्था कहलाती है। योगी का माइंड निरुद्ध होता है। निर्विचार, शून्य, मौन। 
तुलसीदास कहते हैं -
सबहिं नचावत राम गोसाईं।
नाचत नर मर्कट की नाईं।।
मर्कट यानी बन्दर। 
भगवतवीता में कृष्ण कहते हैं:
"ईश्वर सर्वभूतेषु हृतदेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रमायन सर्वभूतानि यंत्र आरूढानि मायया"। 

ईश्वर सभी जीवों के हृदय में निवास करता है अर्जुन। परंतु अपनी माया से सबको रोबोट की तरह घुमाता रहता है। 

योग का ज्ञान प्राप्त करने के बाद अर्जुन अपनी समस्या बताता है कि मेरा माइंड तो बहुत अस्थिर रहता है प्रभु। इसका इलाज बताइये:
"चंचलम हि मनः कृश्नः प्रमाथि बलवत दृढम।
तस्य अहं निग्रह मन्ये वायुर्पि सुदुष्क्रतं।।"

मेरा मन बहुत चंचल है कृश्नः। मथता रहता है। बलशाली है और बहुत जिद्दी है। 

तो कृष्ण उसे क्रिया योग की विधि बताते है:
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रह चलं। 
अभ्यासेन तू कौंतेय वैराग्येण च ग्रहते।"
इसमे कोई संदेह नहीं है महाबाहु अर्जुन कि मन बहुत चंचल है और इसका निग्रह अर्थात नियंत्रण बहुत कठिन है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य से ऐसा संभव है।

अभ्यास। परंतु किसका अभ्यास? 

यही समस्या राम के सामने आयी थी। उन्होंने गुरु वशिष्ठ से पूंछा कि हे गुरुवर मन क्या है? What's mind guru ji ? 
गुरु वशिष्ठ ने उत्तर दिया:
"हे राम मनः संसार वन मर्कट:। 
चंचलत्वम मनो धर्म: यथा वहिनो उष्णता।।"

हे राम मन संसार संसार रूपी जंगल मे मन एक भटकते बन्दर की भांति है। चंचलता उसका स्वभाव है। ठीक उसी तरह जैसे अग्नि का स्वाभव है उसकी उष्णता। उसकी ऊष्मा। उसकी गर्मी। 

योगिक साइंस और वेदांत के अनुसार देह की पांच परतें हैं:
1- अन्न मय कोष - फ़ूड बॉडी या फिजिकल बॉडी।
2- प्राणमय कोष - एनर्जी बॉडी - every cell have mightochondria, which generates ATP by oxydation. (ऑक्सीजन को हम प्राणवायु कहते हैं। और हनुमान हैं वायु पुत्र। प्राणवायु के प्रतीक) 
3- मनोमय कोष - माइंड बॉडी - Thoughts and Emotions
4- विज्ञानमय कोष - Experiencia Body या बुद्द्धि विवेक 
5- आनंदमय कोष - Bliss body. Science has found a particle in human body - #Anandamide which means आनंद एमाइड। 

हनुमान एनर्जी बॉडी और माइंड बॉडी के प्रतीक हैं। एनर्जी बॉडी - वायु पुत्र
माइंड बॉडी - बन्दर। - महावीर विक्रम बजरंगी।
संसार में सफलता प्राप्त करना हो तो भी एनर्जी बॉडी और माइंड बॉडी की ही आवश्यकता पड़ती है।
और अध्यात्म की प्राप्ति करनी हो तो भी माइंड अर्थात मन या चित्त को प्राणवायु पर सवार करके प्राणायाम करना पड़ता है। 

अष्टांग योग में आठों चरण के मध्य में है - प्राणायाम।
-"यम नियम आसन प्राणायाम धारणा ध्यान समाधि"।।

इसीलिये हनुमान की इतनी महिमा कही गयी है। 
मनुष्यो की दो श्रेणी है - एक हैं श्रद्धा और भक्ति वाले। भक्ति के पथ के पथिकों के लिये हनुमान जी की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। लेकिन वे गवांर और पोगापंथी समझे जाते हैं। दूसरी श्रेणी के लोगों के द्वारा।   

दूसरे हैं पढ़े लिखे, शिक्षित,  बुद्द्धि वाले। ये प्रायः अपने को नास्तिक कहते हैं। लेकिन वे इस शब्द का अर्थ नहीं जानते। उनके लिए ही इस तरह की व्याख्याओं की आवश्यकता पड़ती है। 

अंत मे हनुमान के परम इष्ट भगवान राम नामक परम चैतन्य के लिए तुलसी दास लिखते हैं-
"विषय करन सुर जीव समेता।
सकल एक ते एक सचेता।
सबकर परम प्रकाशक जोई।
राम अनादि अवधिपति सोई।।
जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू।
मायाधीश ज्ञान गुण धामू।।

आपका मन संसार की तरफ उन्मुख है तो बन्दर।
परम चैतन्य प्रभु राम की तरफ उन्मुख है तो हनुमान। 
लेकिन हनुमान आपके अस्तित्व का हिस्सा हैं। 

यह गुह्य ज्ञान है। गुह्य का अर्थ गुप्त नहीं है। गुह्य का अर्थ है अप्रकट। है परंतु दिखता नहीं है। क्योंकि दृष्टि निर्मल नहीं है। दृष्टि परेज्यूडिसड है। राग द्वेष से पीड़ित है। मेमोरी से भरी हुयी है। 

®त्रिभुवन सिंह 

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Sunday, 27 September 2020

Disire Disease Depression : are interconnected

#Desires_Disease_Distress: और 
#डिप्रेशन

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकलें।
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले।।

ख्वाहिशों का जन्म, जन्म के साथ ही हो जाता है।  जन्म के साथ इसे बाल घुट्टी में हमें पिलाया जाता है - सपने देखो। माता पिता समाज स्कूल सभी एक ही शिक्षा देते हैं: सपने देखो। सपने ही वे ख्वाहिशें हैं जिनका जन्म बालपन में होता है और मृत्यु पर्यंत उनसे मुक्त नहीं हो पाते हम। सपने भी छोटे मोटे नहीं। बिग ड्रीम्स। ड्रीम बिग। छोटे सपने देखोगे तो छोटे हो जाओगे। और फिर अंधी दौड़ शुरू होती है - अनंत ख्वाहिशों की। 

बच्चा अभी क ख ग घ सीख ही रहा है कि उसकी खोपड़ी में घुसेड़ दिया जाता है कि क्या बनेगा? माता पिता अडोसी पड़ोसी उससे पूंछना शुरू कर देते हैं कि बड़े होकर क्या बनोगे ? बनने की इच्छा उसके अंदर डाल दी गयी। अब वह दौड़ेगा उसके पीछे। 

Desire is dis ease. To be at ease ,one needs to halt his desires. 
ख्वाहिशें : यानी भविष्य। भविष्य अर्थात भूत का प्रक्षेपण। भूतकाल का प्रक्षेपण ही भविष्य है। 

जो भोगा था वह है भूत। उसमें रस बना हुआ है। जो भोगा था उससे तृप्ति अभी तक नहीं हुयी है। अभी भी उसमें रस बना हुआ है। भविष्य- आकांक्षा है उन भोगों को भोगते रहने की, और अनभोगे भोगों को भोगने की। 

ख्वाहिशें अर्थात डिजायर अर्थात कामना, अर्थात वासना। जो भी नाम दे दो। जो मिला है, जो भोगा है उससे मन भरा नहीं है। जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं हैं। 

"यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवति अधिवासितः।
अभुक्तेषु निरकांक्षी तादृशो भव दुर्लभ:।।"
- अष्टावक्र गीता

" जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं है और अनभोगे भोगो के प्रति निराकांक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है।"

दो चीजों को संसार मे हम पकड़े हुए हैं - एक तो भोगे हुए भोग। जो भोगा है उसका रस मन मे रचा बसा है। उसे बार बार भोगने का मन करता है। भोगा हुवा अर्थात अतीत। और एक अनभोगे सुख की आकांक्षा अर्थात भविष्य, कामना, वासना, डिजायर। यही दो पाट हैं  जीवन के। जिनके बीच मनुष्य पिसता रहता है:
"दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय। 
चलती  चाकी देखकर दिया कबीरा रोय"'।।

अतीत को भोग कर देखा। उसके रस को देख लिया। शायद निरर्थक था। इसीलिए अब भविष्य में नए भोगों की आकांक्षाओं को हम पालते हैं : यही है कामना, काम वासना, आशा, Hope, future. 

कोई कामना न हो तो हम सहज रहते हैं: at Ease.

 कामना के द्वारा पकड़े जाते ही बेचैनी शुरू हो जाती है। कैसे पूर्ति हो उसकी? Dis ease, distress. 

कामना की पूर्ति में बाधा उतपन्न होते ही क्रोध का जन्म होता है। काम मौलिक है। क्रोध उसका by product है। काम के पेट से क्रोध का जन्म होता है। काम के आपूर्ति में कोई बाधा उतपन्न हुयी, क्रोध का जन्म हो जाता है।

 लेकिन क्रोध का प्रकटीकरण, असामाजिक कृत्य माना जाता है। और हानिकारक भी हो सकता है। एक बाबू अपने अफसर से क्रोधित हो सकता है, परंतु अभिव्यक्त नही कर सकता। करेगा कहीं उसकी अभिव्यक्ति - अपने subordinate पर, अपनी बीबी पर। लेकिन तत्काल नहीं कर सकता। तत्काल तो मुखौटा अपनाना पड़ता है। गाली खाकर भी दांत चियारना पड़ता है। तो उसने मुखौटा धारण कर लिया। मुखौटा अर्थात असहजता। dis ease, डिस्ट्रेस। अंदर कुछ और बाहर कुछ और।
तनाव पैदा हो गया। 

काम की प्राप्ति हो गयी - जो भी प्राप्त हो गया है, वह अपने हाँथ से छूटे न कभी - मोह का जन्म हुवा। असहजता, बेचैनी का जन्म हुवा। भविष्य कभी आएगा कि नही, यह नहीं पता। भविष्य कभी आता भी नहीं, आयेगा कभी तो वर्तमान बनकर ही। लेकिन मोह का जन्म हो गया। 

काम की प्राप्ति हुयी, इच्छाओं वासनाओं की पूर्ति हुयी, लेकिन जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है। जो पड़ोसी के पास है, जो मित्र के पास है, जो भाई के पास है, जो संसार मे कहीं अन्यत्र उपलब्ध है : वह भी चाहिए। लोभ का जन्म हुवा। comparision और कम्पटीशन का खेल शुरू हुआ। संसार मे आप किसी भी क्षेत्र में शीर्ष पर नहीं हो सकते। कोई न कोई आपसे आगे रहेगा ही। शीर्ष पर पहुंच भी गए तो बने न रह पाएंगे। जैसे किसी को धक्का देकर आपने अपने पूर्व शीर्ष स्थान को प्राप्त किया था, वैसे ही कोई धक्का देकर आपको भी गिरायेगा। 

काम क्रोध लोभ मोह : मद मत्सर। 
यह इसी क्रम में जाना जाता है। सबका जन्म काम से ही होता है। काम है मूल बाकी सब उसके उत्पाद हैं।  

काम या वासनाओं का स्वरूप तीन है:
"सुत वित लोकेषणा तीनी।
येहि कृत केहि कर मन न मलीनी।।"
 - रामचरित मानस। 
काम धन पद और प्रतिष्ठा - वासनाओं, कामनाओं की दौड़ इन्ही तीन दिशाओं में होती है। धन कमा लिय्या तो अब पद और प्रतिष्ठा कमाना है।

डॉक्टर बनने की दौड़ में बचपन से सम्मिलित थे। बन गए डॉक्टर। धन जितना कमाया जा सकता था डॉक्टरी से कमा लिया। अब उसमें आनंद नही आ रहा है। अब एम एल ऐ का टिकट चाहिए। लगे हैं लाइन में हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे नेता के पीछे दुम हिलाते हुए। बुके लेकर स्वागत करने को बेकरार हैं। टिकट मिलता ही नहीं लेकिन। मिल गया यदि और  बन गए  एम एल ए, तो बात ही क्या है। उनकी दौड़ जारी हो गयी मंत्री पद के लिए। 
लेकिन एक ठसक आ गयी। एक मद चढ़ गया। यह मद किसी मद्यप के मद से बहुत अधिक होता है। मद्यप का मद तो कुछ घण्टों का होता है। यह मद पांच वर्षों के लिए पक्का हो गया। कल जिसके सामने वोट मांगने के लिए गिड़गिड़ाते देखे जाते थे। आज उसको पहचानते भी नहीं। 
"प्रभुता पाई काहि मद नाहीं।
नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं। 
- रामचरितमानस

काम की दौड़ में साथ साथ दौड़े थे। एम एल ऐ के टिकट के लिये साथ साथ लाइन में लगे थे। जिसको मिल गया उसको उसका मद पीड़ित करेगा। जिसको नहीं मिला, उसको मत्सर: ईर्ष्या, द्वेष, डाह - यह सब दाह समान है, आग लगा देती हैं शरीर में - सहजता नष्ट हो गयी। at ease रहना सम्भव न होगा अब: dis ease , डिस्ट्रेस। 

#डिप्रेशन: निराशा अवसाद: भविष्य से निराश। वर्तमान में उसे रुचि नहीं है। भूतकाल के अनुभवों के कारण भबिष्य में प्रक्षेपण करना भी बन्द कर देता है मनुष्य। अतीत के भोग आपको दो तरह के अनुभव दे सकते हैं : सुख या दुख। राग या द्वेष। 
"सुखानुषयी राग:।
दुखानुषयी द्वेष : ।।"
- पतंजलि योगसूत्र।

जिन अनुभवों से सुख की अनुभूति होती है वह है राग। आधुनिक भाषा मे उसे लाइक करना कहते हैं। इसके विपरीत जिन अनुभवों से दुःख की अनुभूति होती है वह है द्वेष। आधुनिक भाषा में उसे dislike कहते हैं। जो आप लाइक करते है वह हुवा सुख। जो नापसंद करते हैं उसे कहते हैं दुख। 

अतीत के अनुभव किसी किसी के लिए इतने दुखद होते हैं, इतने dislike भरे होते हैं कि वह अतीत का भविष्य में प्रक्षेपण करने में भी अपने आपको सक्षम नही पाता।उसको अपना भविष्य अंधकार में दिखता है। भविष्य में कुछ प्राप्त होता दिखता नहीं। 

 असहजता की सर्वोच्च स्थिति - dis ease। निराशा का जन्म वहीं से होता है। भविष्य चूंकि कल्पित होता है, इसलिए सभी निराशाएं भी कल्पित होती हैं। लेकिन व्यक्ति का यथार्थ बोध समाप्त होने के कारण उस कल्पित आशाहीन भबिष्य से व्यक्ति व्यथित हो जाता है, भयभीत। उससे निकलने की उसकी मनोष्थिति समाप्त हो जाती है: No Hope for Future is depression. परिणाम कई बार घातक होते हैं: यथा आत्महत्या। 

कल किसी ने कोट किया था चार शब्द: डिजायर, डिजीज, डिस्ट्रेस, और डिप्रेशन।  उसी का विस्तार कर दिया। 

©त्रिभुवन सिंह

Thursday, 24 September 2020

कृष्ण: माइंड रीडर

#कृष्ण_माइंड_रीडर :

वैसे तो माना यह जाता है कि हिंसक पशु होते हैं। इसीलिये कई पशुओं के साथ हिंसक शब्द स्वतः जोड़ दिया जाता है।लेकिन यह मान्यता पूरी तरह से सत्यता से परे है। 

पशु प्रायः अपना पेट भरने या अपनी रक्षा हेतु हिंसा करता है। मनुष्य स्वभाव से हिंसक होता है। 

हिंसा का जन्म माइंड में होता है। पशु शरीर प्रधान है इसलिए उसकी हिंसा सीमित होती है।
मनुष्य माइंड प्रधान है इसलिए उसके अंदर हिंसा असीमित मात्रा में  और निरन्तर घटती रहती है।

यदि मनुष्य हिंसक न होता तो उसे अहिंसा की शिक्षा क्यो  दी जाती? पशुओं को तो अहिंसा की शिक्षा नहीं दी जाती।
 और यह देखा गया है कि ऋषियों मुनियों के आश्रम में ही नहीं हिंसक पशु उनके साथ रहते थे, वरन आज भी अनेक लोग तथातकठित हिंसक पशुओं को अपने साथ रखते हैं। क्योंकि उनके अंदर अहिंसा है - और पशु इसे पहचान लेता है। एक वीडियो होगी यु ट्यूब पर प्रसिद्ध डॉ आप्टे के बेटे की।  उसको देखिये। 

बात हो रही है #माइंड_रीडर योगिराज #कृष्ण की, जिन्होंने भगवतगीता के रूप में "मैन्युअल ऑफ माइंड" का उपदेश अर्जुन को दिया था।

 उन्हें कैसे पता कि धृतराष्ट्र भीम का बध करने का प्रयास करेगा? 
क्योंकि वे माइंड रीडर थे। 
यदि कभी आपके अंदर क्रोध अचानक फुट पड़ा हो, तो उस पर यदि आप ध्यान दीजिएगॉ तो पाइयेगा कि यह क्रोध जो अचानक फुट पड़ा था। बहुत से मामूली कारण से फूट पड़ा था। विचार करने पर  कालांतर में आपने पाया होगा कि आपके क्रोध की प्रतिक्रिया की तुलना में क्रोध को फूटने का अवसर उतपन्न करने वाली घटना बहुत छोटी थी। तुलनात्मक रूप से आपकी प्रतिक्रिया बहुत अधिक थी। बारूद की तुलना में चिंगारी बहुत सीमित थी। 
लेकिन आपका क्रोध हर स्थान पर, हर व्यक्ति के समक्ष्य नहीं फूटेगा।  क्रोध फूटेगा उसी के समक्ष्य , जिसके समक्ष्य आपका क्रोध बिना आपको तात्कालिक नुकसान पहुंचाए फूट सकता है। इतनी चेतना तो सदैव काम करती है। यह भी ध्यान से देखने वाली बात है। क्योंकि भय मनुष्य का ही सभी जीवों का मूल स्वभाव है। 
क्रोध ऐसे ही निर्मित और एकत्रित होता है। 
इसके निर्माण का आरंभ तब होता है जब आप किसी बात से असहमत होते हैं परंतु असहमति व्यक्त नही कर पाते किसी कारण। जानबूझकर या उचित अवसर के अभाव में। वह क्रोध आपके अंदर वाली मनस की खूंटी पर टंग जाता है। जितनी मात्रा में क्रोध निर्मित होता है उतनी ही मात्रा में आपके अंदर केमिकल और रसायन निर्मित होते हैं- जिनको मैं #इमोशनल_टोक्सिन कहता हूँ। वे कालान्तर में आपके अंदर डायबिटीज और हाइपरटेंशन जैसी बीमारियों की पृष्ठभूमि बनाते हैं। 

जो भी हमारे अंदर जाता है या निर्मित होता है उसका रेचन आवश्यक है। भोजन पानी अंदर जाता है - अनुपयोगी अंश मलमूत्र के रूप में रेचित होता है। सांस अंदर जाती है ऑक्सीजन के साथ - कार्बन डाई ऑक्साइड के साथ बाहर आती है- रेचित होती है। 
क्रोध भी निर्मित हो तो उसका रूपांतरण या रेचन आवश्यक है। अन्यथा वह इमोशनल टोक्सिन निर्मित करती है। 

बात भटक गयी। 
असहमति के प्रथम बीज से क्रोध का निर्माण शुरू होता है, और वह आपके अंदर टंगी खूंटी में टंगता जाता है। एक अवसर आता है कि क्रोध का घड़ा भर जाता है और एक छोटी सी चिन्गारी आपके क्रोध के घड़े में भरे बारूद में आग लगा देती है - और आप क्रोध से फट पड़ते हैं। 
यह है माइंड के काम करने का तरीका। 

कृष्ण माइंड रीडर हैं। 
योगी का एक अर्थ होता है माइंड को जानने वाला। 
माइंड को पढ़ने में वही सक्षम होगा जो माइंड को जानता होगा। 

धृतराष्ट्र है तो राजा - लेकिन वह राजा बनने के समय से ही असुरक्षित अनुभव करता रहता है - उसे राज के हाँथ से निकल जाने का भय निरन्तर बना रहता है। हर बार उस भय से उसके अंदर असहमति का जन्म होता है। क्रोध का जन्म होता है। 

क्योंकि वह पांडु से बड़ा था, नियमतः उसी को राजा होना था। लेकिन प्रकृति ने उसकी आंखें छीन ली थी। उसने उसको प्रकृति और संसार के प्रति सहज क्रोधी बना दिया था। क्रोध की ऊर्जा को काम की ऊर्जा में बदलकर उसने 100 पुत्र पैदा किए। 
जब उसके अपने पुत्र को राजा बनाने का अवसर आया तो पुनः संसार ने उससे यह अवसर छीन लिया। 

अब आइए - महाभारत के 18 दिन के युद्ध की तरफ। 
वह सदैव इस बात की जोड़ तोड़ में लगा रहता था कि किसी तरह पाण्डुपुत्र युद्ध करने के निर्णय से विरत हो जायँ, या युद्ध का परित्याग कर देवें। या कि कृष्ण ही सबसे घोटालेबाज थे, उन्ही के कारण उसके भतीजे युद्ध करने के लिए तैयार हुए थे। हर घटना पर उसकी आशापूर्ण प्रतिक्रियाओं को देखिये। मोस्ट पॉजिटिव माइंड सेट का व्यक्ति महाभारत में। कभी आशा छोड़ी ही नहीं उसने। 

 लेकिन हर घटना उसके मन के विरुद्ध घटती जाती है। हर क्षण वह युद्ध में घट रही घटनाओं से असहमत होता जाता है। यद्यपि वह भीम से भी अधिक बलशाली है।एक लाख हांथीयों का बल है उसके अंदर। लेकिन अपनी असहमति, और उससे उपजे क्रोध तथा हिंसा को बाहर निकानले के लिए वह युद्धक्षेत्र में नही जा सकता था क्योंकि अंधा था। रेचन नही कर सकता था क्रोध और हिंसा का। 
अतएव क्रोध निरन्तर उसके अन्दर संचित होता रहता है। 
पांच पांडवों में भीम ही ऐसा व्यक्ति था जो निरन्तर बिना शंसय के युद्ध करता आया था - बिना धर्म अधर्म आदि के चक्कर मे फंसे हुए। 
भीम ही वह व्यक्ति था जिसने उसके सबसे अधिक पुत्रो का बध किया था। 
भीम ही वह व्यक्ति था, जिसने उसके सबसे अधिक प्रिय पुत्रो दुशासन और दुर्योधन का जघन्य पूर्वक हत्या की थी।
इसलिए उसके क्रोध का घड़ा भर चुका था। फूटने का अवसर चाहिए था। बारूद एकत्रित हो चुका था। चिंगारी भर की देर थी। 
भीम को देखते ही उसका क्रोध फट पड़ता - यह बात माइंड रीडर कृष्ण जानते थे। इसीलिए उन्होंने धृतराष्ट्र के आमंत्रण पर भीम को पीछे करके, उसके पुतले को गला लगाने हेतु आगे प्रेषित कर दिया। 

उसके क्रोध का घड़ा फूटते ही वह एक बच्चे की भांति शांत हो जाता है, बिलख बिलख कर रोने लगता है।

हमारे ग्रन्थ लिखे हैं गुह्य भाषा मे - जिनको आजकल cryptology या cryptic भाषा कहते हैं। उनको डिकोड करने की आवश्यकता है - नयी पीढ़ी तक पंहुंचाने के लिए। क्योंकि उन्हें शास्त्रों की भाषा नही समझ मे आती है। क्रिप्टोलॉजी उनको समझ मे आती है।

दोष उनका नही है - उन्हें इसी भाषा मे शिक्षा दी जा रही है। या तो हम ग्रंथ को उनकी समझ के अनुरूप डिकोड करें या उनको शाश्त्रो की भाषा मे पढने की व्यवस्था निर्मित करें।

Singh Tri Bhuwan

Wednesday, 23 September 2020

वाणी और मन: स्पीच एंड माइंड

#स्पीच_एंड_माइंड: वाणी और मन 

ॐ वाक् मे मनसि प्रतिष्ठिता।
मनो मे वाचि प्रतिष्ठिता।।
- सरस्वती रहस्योपनिषद

ऋषि का आग्रह है कि मेरी वाणी मेरे मन मे प्रतिष्ठित हो जाय। और मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाय।  कहने का तात्पर्य है वाणी और मन मे तालमेल बैठ जाए। दोनों में भेद न रहे। दोनों एक ही हो जाय। 

हमारे विचार ही उपद्रव हैं। हमारे  अंदर चलने वाले समस्त झगड़ा, झन्झट, अशांति, बेचैनी, सब के सब हमारे  विचारों की देन है। हम उपद्रव पालते हैं विचारों के रूप में। जितना बड़ा विचारक उतना उपद्रवी मन। इसीलिए विचारकों (Thinkers) को भारत में कोई महत्ता नहीं मिली। पश्चिम में विचारकों को बड़ी महत्ता है। क्योंकि वे मन बुद्द्धि और विचार से आगे जा ही नहीं पाए। 

 मन का स्वभाव है कि वह खाली नहीं बैठ सकता। उसको कोई सहारा चाहिए। माइंड अर्थात बन्दर। उसे उछल कूद ही पसंद है। मन को चाहिए उपद्रव, व्यस्तता,  ऑक्यूपेशन। वे कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर। Empty mind is devil's workshop. 
साइकाइट्री में आजकल माइंड का स्वभाव बता रहे हैं #Monkeying । 

और वाणी है संसार मे होने वाले झगड़ा झंझटों की जड़। सारे विवादों की जड़ है वाणी। वाणी के कारण ही समस्त झगड़े शुरू होते हैं।  और हमारी वाणी का शत प्रतिशत हिस्सा प्रायः प्रतिक्रिया है,  रिएक्शन है। क्योंकि हमारा स्वभाव ही रैक्शनरी है। हमारी वाणी प्रायः किसी न किसी विचार या किसी न किसी व्यक्ति की प्रतिक्रिया में निकलती है। यंत्रवत, रोबोटिक।

 हम हर बात पर रियेक्ट करते हैं। हर उस बात पर, जो हमें उकसाती है,  उस पर हम रियेक्ट करते हैं - पहले माइंड से, फिर वाणी से।

 रियेक्ट क्यों करते हैं? इसलिए कि हमने पहले से तय कर रखा है कि सही क्या है गलत क्या है। हमने संसार को अपने लाइक और dislike मे बांट रखा है।

"इन्द्रियस्यइन्द्रियर्थेषु राग द्वेष व्यवस्थितौ" - भगवतवीता।

 हमारा  जब भी किसी वस्तु व्यक्ति भाव या विचार से साक्षात्कार होता है तो हम निर्णयात्मक रूप से उसे या तो पसंद करते हैं या नापसंद। अपने संस्कारों, संस्कृतियों, शिक्षा और अपने विचारों  आदि के कारण ऐसा होता है। यह सामान्य बात है। लाइक और dislike हमारी मनोदशा का अंग है।  यह प्राकृतिक स्वभाव है माइंड का। across the globe mind works with this inherent attitude. So mind is not only individual but cosmic too.  ऐसे ही  हम संसार को देखते हैं। जिसको अटटीच्यूड कहते हैं आजकल। 

ऋषि कहता है कि उसकी वाणी उसके मन मे प्रतिष्ठित हो जाय। अर्थात जो मन मे हो वह ही वाणी से निकले। वही मुखरित हो तो मन में विचार चल रहा हो। 

 लेकिन जो मन में है वही वाणी से प्रकट हो जाय तो घर परिवार संसार मे, सर्वत्र उपद्रव खड़ा हो जाय। कोई पुराना मित्र मिलता है।  उसके लिए हमारे मन मे क्रोध है, घृणा है, अनादर है, उसका गला दबाने की इच्छा है मन में, कि अवसर मिले तो इसका गला दबा दूं।  लेकिन उसे व्यक्त नहीं कर सकते? हम कहते हैं - अहोभाग्य मित्र, बड़े दिनों बाद दर्शन हो रहे हैं। वह भी प्रतिक्रिया में यही बोलेगा। परंतु संभबतः उसके अंदर भी हमारे प्रति वही भाव और विचार हों मन मे। इसलिये हम मुखौटा ओढ़ लेते हैं, सभ्यता का मुखौटा।  असली अटटीच्यूड नहीं दिखाते उसे अपना। हम कहते हैं कि अहोभाग्य मित्र, बड़े दिन बाद आपके दर्शन हो रहे हैं। 

बारम्बार यही अभ्यास करते करते धीरे धीरे ऐसा ही व्यक्तित्व हमारा बन जाता हैं - झूंठा व्यक्तित्व। बाहर से कुछ और अंदर से कुछ और।  इसको हम पर्सनालिटी बिल्डिंग कहते हैं। लेकिन यह बेचैनी और अशांति की जड़ है। क्योंकि यह विभक्त व्यक्तित्व है। साइकेट्रिस्ट इसे कहते हैं - split Personality.  Dissociated Personality Disorder ( भूल भुलैया नामक फ़िल्म इसी पर बनी है) 

इसीलिये ऋषि की प्रार्थना है कि जो मेरे मन मे हो,  वही मेरी वाणी में हो। वाणी से वही बात निकले - जो मेरे मन मे हो। चाहे भला और चाहे बुरा। 

लेकिन संसार मे समस्या यह है कि जो मन में हो, और यदि वही बात निकल भी आवे तो लात खाने की संभावना बढ़ती जाएगी -
"बातहिं हांथी पाइए।
बातहिं हांथी पाव।।"

तो फिर जीवन कैसे सम्भब होगा? 
मन को निर्मल करने से, यह संभव होगा कि मन में वही विचार और भाव उत्पन्न  हों जिन्हें छुपाने की आवश्यकता न पड़े। वह कैसे होगा?
 
राग द्वेष, लाइक और dislike को पीछे रखकर संसार को देखने का अभ्यास करना होगा। "See the things as they are." कठिन है। क्योंकि हम चीजों को वैसे देख नहीं सकते जैसी वह हैं। हम उन पर अपने भाव, विचार, अवधारणाएँ, पसंद, नापसंद आरोपित करके देखते हैं। क्योंकि हमारे मन दुराग्रह से भरे हैं। 
तभी तो ऋषि प्रार्थना कर रहा है सरस्वती जी से। 

ऋषि की दूसरी प्रार्थना है कि मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाय। अर्थात मुझे जब बोलने की आवश्यकता हो तभी मेरा मन, मेरा माइंड काम करे। वरना वह शांत बैठा रहे। यह और भी कठिन है। लेकिन यह एडवांस्ड कोर्स है। पहले वाला बेसिक कोर्स था। बेसिक वाला कोर्स होने के बाद ही इस कोर्स में प्रवेश मिलेगा।

  हमारा मन तो चलता ही रहता है दिन रात। 24 घण्टे, अनवरत, दिन रात माइंड चलता ही रहता है। लेकिन माइंड और बॉडी हमारे टूल हैं, यंत्र हैं। उनको हमारे हिसाब से चलना चाहिए न?

हमारे कमरे में ए सी लगा है, पंखा लगा है, कंप्यूटर लगा है। सभी यंत्र हैं। सब हमारे हिसाब से चलते हैं। जब हम उन्हें चलाना चाहते हैं तो स्विच ऑन कर देते हैं। जब बन्द करना होता है तो स्विच ऑफ कर देते हैं।

 माइंड को भी ऐसे ही काम करने की ट्रेनिंग देनी होगी कि जब वाणी की आवश्यकता हो, जब बोलने की आवश्यकता हो तो माइंड काम करे, अन्यथा चुपचाप बैठा रहे - शांत, चैन से, आराम से - At ease, Not disease। Completely silent. शून्य, सन्नाटा।  बहुत कठिन है।  इसीलिए प्रार्थना की जा रही है सरस्वती जी से। 

वैदिक साइंस में जिस  शक्ति को सरस्वती के नाम से पुकारा जाता रहा है, उसे आज की भाषा मे बोला जाय तो सरस्वती हमारे माइंड और वाणी को को-ऑर्डिनेट करने वाली आंतरिक ऊर्जा या शक्ति का नाम है। 

हम हर एनर्जी को प्रणाम करते हैं। परमात्मा भी हमारे अंदर है एनर्जी के रूप में। जिसे हम चेतना या चैतन्य कहते हैं - Counciousness. 
Counciousness is fundamental - Max Plank, Nobel Prize winner Quantum Physicist. 

इसीलिए हमारे शास्त्रों में सरस्वती जी की पूजा की जाती है - क्योंकि वे माइंड और वाणी की कंट्रोलर हैं। कंट्रोलर की कृपा बनी रहे तो हांथी मिल जाय पुरस्कार स्वरूप। और कृपा न बन पायी तो -   हांथी के पैर के नीचे कुचले भी जा सकते हैं:

बातहिं हांथी पाइए।
बातहिं हांथी पाव।।

इसीलिये हम जब हम प्रार्थना करते हैं:

वर दे वीणा वादनि
वर दे। 

तो हम अपने अंदर की उस ऊर्जा और शक्ति से प्रार्थना करते हैं कि हे माँ मुझे ऐसा वरदान दे कि बुद्द्धि और वाणी हमें हांथी तो दिलवावे, हांथी पाव न दिलवावे।

®त्रिभुवन सिंह

Cherish or Perish: It's your choice

#Perish_or_cherish :. Choice is yours. 
 दुखी रहो या आनंदित रहो। चुनाव तुम्हारा। 

मैं खोज रहा हूँ किसी सुखी व्यक्ति को। मेरे जीवन में तो कोई न दिखा - सुखी संतुष्ट शांत। 
सुख की परिभाषा चार्वाक से लेकर सबने किया है। चार्वाक कहता है ऋण लेकर घी पियो। आजकल कौन घी पीता है?

 बॉलिवुड कभी माया नगरी कहलाती थी। धन नाम सब कमाया। फिर भी सुख खोज रहा है वीड ( गांजे) में, हैश ( ड्रग्स) में। सुख शांति होती तो क्या आवश्यकता थी वीड की, और  हैश की शरण मे जाने की?
कुछ ड्रग की शरण में है तो कुछ डायबिटीज ब्लड प्रेशर की। 

कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं कि सुखी व्यक्ति कौन है। 

शक्नोतीहैव य: सोढुम् प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामकोध उद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नर:।।
-(भगवतगीता 5.23) 

प्राक् शरीर विमोक्षणात:
शरीर को त्यागने के पूर्व। शरीर तो त्यागना ही पड़ेगा। कब? यह किसी को नहीं पता। लेकिन त्यागना पड़ेगा। जिसने जन्म लिया है उसको मरना होगा। यही ध्रुव सत्य है। 
कृश्नः पहले ही कह चुके हैं : जातस्य हि ध्रुवों मृत्यु:। जिसने जन्म लिया है वह मरेगा यह ध्रुव सत्य है। यह परम सत्य है। हर व्यक्ति इस ध्रुव सत्य से परिचित है। 

मृत्यु का महोत्सव चल रहा है पूरे विश्व में। एक छोटे से जीव के कारण - विषाणु - covid 19. इतना शूक्ष्म है कि देखा नहीं जा सकता आंखों से। फिर भी मृत्यु का तांडव उसने फैला रखा है। जो कल तक हमारे साथ हंस बोल रहे थे। जीवन के हर उत्सव में, हर दुःख में हमारे साथी थे, सहयोगी थे, वे आज हमारे साथ नहीं हैं। 
 
हम शरीर को न छोड़ना चाहें तो भी शरीर हमसे छूटेगा ही। और जब शरीर छूटेगा तो समस्त कामनाएं, समस्त योजनाएं, समस्त धन पद प्रतिष्ठा छिन जाएगी। छोड़ना पड़ेगा। यही सत्य है। 

शक्नोति इह एव य: सोंढुम्
 - जो समर्थ है इसको रोकने में।
क्या रोकने में?

काम क्रोध उद्भवं वेगं:

काम और क्रोध के उद्भवं के वेग को। जो काम और क्रोध के उद्भवं के वेग को रोकने में समर्थ है वही योगी है और वही सुखी मनुष्य है। 

काम और क्रोध दोनों वेगवान होते हैं। दोनों में  वेग होता है। 
काम अर्थात कामना। इच्छा तृष्णा विषय वासना। 

वैसे तो 
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले।
   बहुत निकले मेरे अरमां फिर भी कम निकलें। 

इच्छाएं तो अनंत हैं - लेकिन तीन इच्छाएं ही सब के मूल में हैं - सेक्स, धन, पद या प्रतिष्ठा। जीवन की समस्त कामनाएं इन्हीं के इर्द गिर्द घूमती हैं। 
इच्छाएं हर क्षण नए नए रूप लेती हैं। लेकिन इच्छाये जब गहन आसक्ति का रूप लेती हैं तो कामनाएं प्रगाढ़ होने लगती हैं। उनमें वेग आने लगता है। फिर उन पर हमारा नियंत्रण खो जाता है। फिर लैला मजनू की कहानी बन जाती है। उन कामनाओं की पूर्ति न हो तो जीवन व्यर्थ। अवसाद निराशा आत्महत्या। 

कामनाओं की पूर्ति न हो तो उनसे क्रोध का भी जन्म हो सकता है।
जो चाहते थे वह हो सकता था। लेकिन हो न सका। किसी ने रोड़ा अटका दिया। किसी ने कामनाओं की कोठरी में आग लगा दिया। उसके प्रति मन क्रोध की अग्नि  धधक  उठेगी। और उस  क्रोध का वेग इतना अधिक हो सकता है कि यह हिंसक स्वरूप ले सकता है। सामने वाले का सर फूट सकता है। उसकी हत्या हो सकती है। इतना वेगवान भाव हैं यह। इन पर हमारा नियंत्रण न रहा। उसी की बात कर रहे हैं कृष्ण। 

वह कह रहे हैं - शरीर छूटने पर काम का भी अवसान हो जाएगा और क्रोध का भी। मुर्दे की क्या कामना हो सकती है?
जो कल अपने आप होना है, क्या उसे आज आप समझदारी के साथ, बोध के साथ नहीं कर सकते क्या?

 यदि कोई व्यक्ति जागकर इस तथ्य को देख सके तो वह काम और क्रोध के उद्भव और उसके वेग को रोकने में समर्थ हो सकता है। वही व्यक्ति योगी होता है । और वही व्यक्ति सुखी हो सकता है। 
अन्यथा तो बुद्ध कहते हैं कि चाहे जो कर लो : जीवन दुख है। 
एक राजा ने इसको अनुभव किया - जिसके पास पाने को सब कुछ था, और खोने को जीवन। 

©त्रिभुवन सिंह

Tuesday, 22 September 2020

ब्रिटिश दस्युओं ने कितने भारतीयों को एकलव्य बनाया?

पुरानी पोस्ट है : #एकलव्य_महाभारत को संदर्भित करके ऊंची नीची जाति तथा शोषण का प्रोपगंडा फैलाने वालों से अपेक्षा है कि वे मात्र कुछ सौ वर्ष पहले हमारे शिल्पकारों के अंगूठे काटे जाने के सत्य इतिहास से परिचित होंगे। 

1772 के #एकलव्यों का  अंगूठा किस द्रोणाचार्य ने काटा था ? 

आज एक उद्भट विद्वान की वाल पर गया, जो उच्च शिक्षा आयोग में निरन्तर कई वर्ष तक सदस्य रहे हैं। 
#शम्बूक_कथा पर अपने पद के अनुरूप ही  अति गर्वीली पोस्ट लिखी थी। 

मैंने मात्र दो कमेंट लिखा और वे धराशायी हो गए। 
सत्य एक ही होता है। असत्य के अनेकों स्वरूप और कलेवर होते हैं। एक बार आप जोर से दहाड़िये तो। 
पेंट गीली होना निश्चित है। 

#मिथक के एक #एकलव्य के #अंगूठा काटने को लेकर भारत मे 3000 या 5000 वर्षो के अत्याचार का #रंडी_रोना मचाए वामियों और दलित चिंतको , मात्र 250 साल पहले सिल्क के कपड़े बनाने वाले भारतीयों ने #अपने_अंगूठे_खुद काट लिए। वे कहां गए क्या हुवा उनका? 10,000 साल की कथा तुम्हे पता है और 200 साल की कथा तुम्हे नही याद है।
तुम निम्न किस्म के केंचुए हो। स्वार्थ घृणा और  कुंठा से भरे हुए जोंक हो तुम। 
क्योंकि तुमको देश का खून चूसने और झूंठ का ढिंढोरा पीटने में आनंद आने लगा है। 

ब्रिटिश दस्युवो ने तुमको नष्ट किया बर्बाद किया और तुमको एकलव्य और शम्बूक का झुनझुना थमा दिया:

 “18वी शताब्दी मे विश्व के अन्य देशों की तरह ही, भारत मे भी सड़क या नदी से होने वाले व्यापार पर ड्यूटी लगा करती थी। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक सरकारी फरमान प्राप्त कर लिया था जिसके माध्यम से आयातित या निर्यात होने वाली वस्तुओं को टैक्स फ्री कर दिया था। अतः कंपनी द्वारा निर्यातित या आयातित किसी भी वस्तु पर टैक्स नहीं लगता था”।

(रिफ्रेन्स – रोमेश दुत्त इकनॉमिक हिसटरि ऑफ ब्रिटिश इंडिया, पेज -18)

"1757 मे मीर जफर को बंगाल का नवाब  बनाया गया लेकिन मात्र 3 साल बाद 1760 मे उसके ऊपर असमर्थ बताकर मीर कासिम को नवाब बनाया , जिसने कंपनी को बर्धमान मिदनापुर और चित्तगोंग नामक तीन जिलों का रवेनुए तथा मीरजाफ़र पर द्वारा दक्षिण भारत मे हुये युद्ध मे कंपनी द्वारा खर्च  किए गए, देय उधार धन 5 लाख रुपये कंपनी के खाते मे जमा करवाया"।
 ( रोमेश दुत्त – पेज -19 )

लेकिन उसके बाद सभ्य अंग्रेजों ने जो आम जनता के द्वारा निर्मित वस्तुओं की लूट मचाई, वो किसी भी सभ्य समाज द्वारा एक अकल्पनीय घटना है।  उस दृश्य को आप बंगाल के नवाब द्वारा मई 1762 को ईस्ट इंडिया कंपनी को लिखे पत्र से समझा जा सकता है:
 “ हर जिले, हर परगना , और हर फ़ैक्ट्री मे वे ( कंपनी के गुमाश्ते ) नमक, सुपाड़ी, घी , चावल धान का पुवाल ( सूखा डंठल, जरा सोचिए क्या क्या खरीद कर ये दरिद्र समुद्री डकैत खरीद कर यूरोप ले जाते थे ) बांस ,मछली ,gunnies अदरक चीनी तंबाकू अफीम और अन्य ढेर सारी वस्तुयेँ,जिनको लिख पान संभव नहीं है , को खरीदते बेंचेते रहते हैं । वे रैयत और व्यापारियों की वस्तुए ज़ोर जबर्दस्ती हिंसा और दमन करके ,उनके मूल्य के एक चौथाई मूल्य पर ले लेते हैं , पाँच रुपये की वस्तु एक रुपए मे लेकर भी वे रैयत पर अहसान करते हैं। 

 प्रत्येक जिले के ओफिसर अपने कर्तव्यो का पालन नहीं करते और उनके दमानात्मक रवैये और मेरा टैक्स न चुकाने के कारण मुझे प्रत्येक वर्ष 25 लाख रुपयों का नुकसान हो रहा है। मैं उनके द्वारा किए गए किसी समझौते का न उल्लंघन करता हूँ न भविष्य मे करूंगा , तो फिर क्यूँ अंग्रेज़ो के उच्च अधिकारी मेरा अपमान कर रहे हैं, और मेरा निरंतर नुकसान कर रहे हैं ”।
( रोमेश दुत्त पेज – 23 ) 

सभ्य बनाने आए इयसाइयों के नैतिक ऊंचाई को आप इस एक उद्धरण से ही माप सकते हैं।

यही बात ढाका का कलेक्टर महोम्मद अली ने कलकत्ता के अंग्रेज़ गवर्नर 26 मई 1762 मे लिखा “पहली बात तो ये है कि व्यापारी  फ़ैक्टरी मे रुचि दिखा रहे हैं और अपने नावों पर अंग्रेजों का झण्डा लगाकर अपने को अंग्रेजो का समान होने का दिखावा करते हैं , जिससे कि उनको duty न देना पड़े। दूसरी बात ढाका और लकीपुर की फ़क्टरियाँ व्यापारियों को तंबाकू सूती कपड़े , लोहा और अनेक विविध वस्तुओं को बाज़ार से ज्यादा दामों मे खरीदने का प्रलोभन देते हैं, लेकिन बाद मे जबर्दस्ती वो पैसा उनसे छीन लेते हैं; वे व्यापारियों को पैसा एडवांस मे देते हैं।

लेकिन फिर उनके ऊपर एग्रीमंट तोड़ने का बहाना बनाकर उनके ऊपर फ़ाइन लगाते हैं । तीसरी बात लुकीपुर फैक्ट्री के गुमाश्ते तहसीलदार से ताल्लूकदारों से उनके ताल्लूक ( कृषि योग्य जमीन ) को निजी प्रयोग के लिए जबरन कब्जा कर लेते हैं , और उसका भाड़ा  भी नहीं देते।  कुछ लोगों के कहने पर ,कोई शिकायत होने पर वे यूरोपेयन लोगों को एक सरकारी आदेश का परवाना लेकर गावों मे जाकर उपद्रव करते हैं। वे टोल स्टेशन बनाते हैं और जो भी किसी गरीब के घर समान मिलता है उसको बैंचकर पैसा बनाते हैं। इन उपद्रवों के कारण पूरा देश नष्ट हो गया है और रैयत न अपने घरों मे रह सकते हैं और न ही मालगुजारी चुका सकते हैं।  मिस्टर चवालीर ने कई स्तर पर झूँटे बाजार और झूंठे फक्ट्रिया बनाया हैं, और अपनी तरफ से झूंठे सिपाही बनाए हैं जो जिसको चाहे उसको पकड़कर उनसे जबरन अर्थदण्ड वसूलते हैं । उनके इस जबर्दस्ती के अत्याचारों के कारण कई हाट बाजार और परगना नष्ट हो गए हैं। ” 
( रोमेश दुत्त पेज 24- 25 )

“इस तरह बंगाल के प्रत्येक महत्वपूर्ण जिले के व्यापार को कंपनी के नौकरों और अजेंटों ने नष्ट किया और इन वस्तुओं के निरमातों को निर्दयता के साथ अपना गुलाम बनाया । उसका वर्णन एक अंग्रेज़ व्यापारी विलियम बोल्ट्स ने आंखो देखी हाल खुद लिखा है :
“ अब इस बात को सत्यता के साथ बताया जा सकता है कि वर्तमान मे यह व्यापार जिस तरह इस देश मे हो रहा है , और जिस तरह कंपनी अपना इनवेस्टमेंट यूरोप मे कर रही है,वो एक दमनकारी प्रक्रिया है; जिसका अभिशाप इस देश का हर बुनकर और निर्माता भुगतने को मजबूर है, प्रत्येक उत्पाद को एकाधिकार मे बदला जा रहा है ; जिसमे अंग्रेज़ अपने बनियों और काले गुमाश्तों के मदद से, मनमाने तारीके से यह तय करते हैं कि कौन निर्माता किस वस्तु का कितनी मात्रा मे, और किस दर पर निर्मित करेगा ...गुमाश्ते औरंग या निर्माताओं के कस्बे मे पहुँचने के बाद वो एक दरबार लगाता है जिसको वह अपनी कचहरी कहता है। 

जिसमे वो अपने चपरासी और हरकारों की मदद से वो दलाल और पयकार और बुनकरों को बुलाता है, और अपने मालिक द्वारा दिये गए धन मे से कुछ पैसा उनको एडवांस मे देता है और उनसे एक एग्रीमंट पर दस्तखत  करवाता है जिसके तहत एक विशेष प्रॉडक्ट , एक विशेष मात्रा मे, एक विशेष समय के अंदर डेलीवर करना है। उस मजबूर बुनकर की सहमति आवश्यक नहीं समझी जाती है। और ये गुमाश्ते, जो कंपनी के वेतनभोगी थे , प्रायः इस तरह के एग्रीमंट उनसे अपने मन मुताबिक करवाते रहते थे; और यदि बुनकरों ने ये एडवांस रकम स्वीकार करने से इंकार किया तो उनको बांधकर शारीरिक यातना दी जाती है.... कंपनी के गुमाश्तों के रजिस्टर मे बहुत से बुनकरों के नाम दर्ज रहते थे, जो किसी दूसरे के लिए काम नहीं कर सकते थे, और वे प्रायः एक गुलाम की तरह एक गुमाश्ते से दूसरे गुमाश्ते के हाथों तब्दील किए जाते रहते हैं, जिनके ऊपर दुष्टता और अत्याचार हर नए गुमाश्ते के हाँथो बढ़ता  ही जाता है ... इस विभाग मे जो अत्याचार होता है वो अकल्पनीय है ; लेकिन इसका अंत इन बेचारे बुनकरों को धोखा देने मे ही होता है; क्योंकि गुमाश्तों और जांचकारो ( कपड़े की क्वालिटी जाँचने वाला ) द्वारा जो दाम उनके प्रोडक्टस का ताया किया जाता था वो कम से कम बाजार के दाम से 15 से 40 % कम होता है ...।

बंगाल के बुनकरों के साथ, कंपनी के अजेंटों द्वारा जबर्दस्ती किए गए इन अग्रीमेंट्स को पूरा न करने की स्थिति मे, उनके खिलाफ मुचलका जारी किया जाता था , उसके तहत उनके सारे सामान (कच्चा और पक्का माल ) उस एग्रीमंट की भरपाई के लिए कब्जा कर लिया जाता है और उसी स्थान पर उनको बेंच दिया जाता है ; कच्चे सिल्क को कपड़ों मे बुनने वाले लोगों के, जिनको Nagoads कहते हैं, उनके साथ भी इसी तरह का अन्याय होता है, और ऐसी घटनाए आम बात हैं जिसमे उन्होने जबर्दस्ती #सिल्क के #कपड़े #बनाने की #मजबूरी से बचने के लिए स्वयं ही अपने #अंगूठे #काट लिए / 

( and the winders of raw silk , called Nagoads, have been known of their cutting off their thumbs to prevent their being forced to wind silk ) 
(Ref: Consideration on India affairs (London 1772), p 191 to 194 : from Romesh Dutt ; Economic History of British India , page 25-27 )

इस सच्चाई तक तुम्हारी पहुंच नही है धूर्त और मक्कारों?
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