Tuesday 6 October 2020

प्राकृतिक शक्तियों को कैसे संतुलित करें?

#ग्रेस_प्रसाद_Lavitation :

यथैधांसि समिद्ध: अग्नि भस्मसात कुरुते अर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा।। 

- भगवतवीता । 4.37।
जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, हे अर्जुन उसी तरह ज्ञान रूपी अग्नि सभी कर्मों को जलाकर राख कर देती है। 

यह ध्यान की विधि का प्रतीकात्मक वर्णन है। यहाँ ईंधन समिधा और अग्नि तीनों प्रतीक हैं। ईंधन में ही अग्नि विराजमान रहती है परंतु वह स्वयं को नहीं जला सकती। अग्नि में ईंधन जाते ही वह स्वयं अग्नि का रूप धारण कर लेती है। और फिर ईंधन जल जाता है उस अग्नि में। 

कर्म से यहां अर्थ है मानसिक कर्म। कर्म करने के तीन उपकरण हैं हमारे पास - शरीर वाणी और मन। 
"शरीर वाक मनोभि: यत् कर्म प्रारभते नर:"।
- भगवतवीता 
शरीर वाणी और मन से जो भी कर्म मनुष्य करता है। 
वाणी और शरीर से होने वाले समस्त कर्मों का प्रारंभ मन में होता है। मन में बीज निर्मित होता है। शरीर और वाणी द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होती है। बीज मन मे बोया गया। वृक्ष के रूप में वह वाणी और शरीर मे पुष्पित पल्लवित होता है।

 जिस भाव विचार या इच्छाओं का वाणी और शरीर से अभिव्यक्ति हो गयी, उनका बीज नष्ट हो गया। अब उनके कर्मफल न बनेंगे। लेकिन ऐसा न होगा कि कर्म के परिणाम न होंगे। आपको क्रोध आया, आपने सामने वाले का सर फोड़ दिया। इसके परिणाम तो आएंगे ही। हो सकता है पलटकर वह आपका सर फोड़ दे। या पुलिस फाटा के झंझट में फंसे आप। कोर्ट कचहरी मुकदमें में फंसे।
लेकिन मन में क्रोध जागा, लेकिन किसी कारण उसको प्रकट नहीं कर सके। तो वह अंदर ही अंदर घूमेगा। विष निर्मित करेगा शरीर मे। 
  
 जो इच्छाएं आकांक्षाएं भाव और विचार मन मे ही बने परंतु अभिव्यक्ति न हो पायी, वे मन में विचारों के बादल की तरह उमड़ते रहते हैं। मन उसी में फंसा रहता है। रात और दिन। रात में सपनो के रूप में। दिन में मुंगेरीलाल के हसीन सपनो के रूप में - दिवास्वप्न। 

ज्ञानाग्नि - ध्यान की वह अवस्था जब आप सुखासन की स्थिति में बैठकर मन मे उमड़ और घुमड़ रहे विचारों को देखते हैं, साक्षी भाव से। अर्थात उनमें लिप्त हुए बिना, तो वे समस्त विचार धीरे धीरे विलीन हो जाते हैं। ज्ञान का अर्थ है आप। आपने अपने विचारों को देखा तो वे जल जाएंगे। आप अलग हैं। विचार अलग हैं। 

मेडिकल साइंस के अनुसार, हमारे मन में विचारों के बादल केमिकल मैसेंजर के माध्यम से प्रवाहित होते हैं, जिनको न्यूरोट्रांसमीटर कहा जाता है, हॉर्मोन कहा जाता है।यदि विचारों के बादल दिन रात उमड़ते ही रहते हैं, तो यह केमिकल बनते ही जाते हैं निरंतर। जो ग्रंथियों के रूप मे शरीर मे एकत्रित होते रहते हैं - लेकिन ये ग्रन्थियां विषाक्त होती हैं। 

मेडिकल साइंस के अनुसार कोशिका के स्तर पर हर कोशिका में मेटाबोलिज्म होती रहती है। कोशिकाओं में मेटाबोलिज्म के कारण बचे अवशेष lysosome नामक ग्रंथियों में एकत्रित होती रहती है।

 2016 में मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले Yoshinori Ohsumi ने प्रमाणित किया कि लंबे उपवास के द्वारा इन ग्रंथियों के अवशेषों को जलाया जा सकता है, और उससे ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। इससे अनेक रोगों यथा - डायबिटीज, हाइपरटेंशन के साथ साथ कैंसर आदि के इलाज में सहायता मिलती है -इसे Autophagy कहते हैं मेडिकल साइंस की भाषा में। इसी पर उसको नोबेल मिला उसे। 

मेडिकल साइंस उपवास का अर्थ सिर्फ फास्टिंग। भूंखे रहना। इसीलिए 2016 के बाद एक फ़ैशन आया है - इंटेरेटेन्ट फास्टिंग का। 16 घण्टे के लंबे उपवास के बाद मात्र 8 घण्टे खाना पीना। फिर 16 घंटे का लंबा फ़ास्ट। फिल्मी दुनिया से लेकर डॉक्टरों तक के बीच आजकल यह अत्यंत लोकप्रिय विधि हो गयी है - डायबिटीज, हाइपरटेंशन और वजन को नियंत्रित करने का। 

लेकिन तथ्य तो यह है कि जो जो भी चीज हमारे शरीर के अंदर जाती है, उसमें से जो शरीर और माइंड के लिए उपयोगी है उसको शरीर ले लेता है, बाकी बचा हुवा अवशेष विष का स्वरूप धारण कर लेता है जिसे शरीर से निकालना आवश्यक है। जैसे हम ऑक्सीजन ( प्राणवायु) लेते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड निकालते है। जैसे हम अन्न जल लेते हैं और मल मूत्र पसीना निकालते हैं।

 ठीक उसी तरह अन्य शरीर के अन्य इंद्रियों द्वारा ग्रहण किये गए इनपुट - यथा आंख कान नाक चमड़ी आदि से ग्रहण की गयी सूचनाएं मन में विचार के रूप में एकत्रित होती है। उनकी शरीर में अभिव्यक्ति केमिकल मेसेंजर्स के रूप में होता है। उन केमिकल मेसेंजर्स के अवशेष,  कोशिकाओं में विषाक्त ग्रंथियों के रूप में एकत्रित होती रहती हैं। इसकी अभिव्यक्ति हमारे सिस्टम में तनाव या स्ट्रेस के रूप में भी होता है। मेडिकल साइंस के अनुसार स्ट्रेस  के कारण डायबिटीज हाइपरटेंशन से लेकर कैंसर आदि तक होता है। 

लेकिन उपवास का अर्थ फास्टिंग नहीं होता। उपवास के साथ व्रत शब्द का उपयोग होता है- व्रत उपवास। व्रत का अर्थ है संकल्प - determination. उपवास का अर्थ है उसके पास वास करना, जो तुम हो। उपवास करने का संकल्प। 

उसका तरीका बताया कृष्ण ने :
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदय निरुद्ध च।
मूर्ध्नि आधाय आत्मनः प्राणं आस्थित: योग धारणाम्।।
भगवतवीता। 12। 
इंद्रियों के सभी द्वारों को बंद करके, मन को हृदय में और प्राणवायु को मूर्ध्नि ( दोनों भौओं) मध्य में केंद्रित करके योग धारण किया जाता है। 

इसी को कृष्ण ने - ज्ञानाग्नि में समस्त कर्मो को दग्ध करने की संज्ञा दिया है। आंख बंद करके सुखासन में मूर्ध्नि पर चेतना को केंद्रित करके विचारों को देखने से वे विचार स्वाहा हो जाते हैं। 

मूर्ध्नि के क्षेत्र को मेडिकल साइंस में Prefrontal Cortex कहते हैं। जहां पर सारे विचार बनते हैं जहां पर बुद्द्धि नामक सॉफ्टवेयर यह तय करती है क्या उचित है क्या अनुचित। ब्रेन में  बुद्द्धि और विचार के क्षेत्र को  प्रीफ्रंटल कोर्टेक्स कहते हैं। उसी को योग की भाषा मे मूर्ध्नि या आज्ञाचक्र कहते हैं। यदि किसी का प्रीफ्रंटल कोर्टेस क्षतिग्रस्त हो जाय तो वह व्यक्ति पागल हो जाता है। उसके निर्णय लेने की क्षमता का ह्रास हो जाता है। 

इसी को योगिक साइंस में निर्ग्रंथन भी कहा जाता है। मन और शरीर मे निर्मित विषैली ग्रंथियों को जलाना। 

इसी को आज मेडिकल साइंस autophagy कह रहा है।इंटेरेटेन्ट फास्टिंग से autophagy में सहायता मिलती है।  इससे शरीर को ऊर्जा मिलती है।

उपावस व्यक्ति के शरीर और मन को निर्भार करता है। बोझिल और तनाव ग्रस्त मन को हल्का करता है। इस विषय पर मेडिकल साइंस और योगिक साइंस में सहमति है। लेकिन मेडिकल साइंस के अनुसार उपवास का अर्थ है फास्टिंग। वहीं योगिक साइंस के अनुसार इसका अर्थ है ध्यान। इससे शरीर मे उदानवायु की मात्रा बढ़ती है। शरीर की  Buoyancy में वृद्धि होती है।
हमारे अंदर और बाहर प्रकृति की जो शक्तियां काम करती हैं। उनमें से  एक फ़ोर्स है ग्रेविटेशनल - गुरुत्वाकर्षण - जो नीचे घसीटती है। दूसरी ऊर्जा होती है - Levitational - जो ऊर्ध्व गति देती है। नग्रेजी में जिसे Grace कहते हैं। संस्कृत में जिसे प्रसाद कहते हैं। 

योग की विधियां निम्न गति को, गुरुत्वाकर्षण को अप्रभावी बनाती हैं, और ग्रेस प्रसाद या Lavitation को बढ़ाती हैं। योगिक साइंस आपके अंदर प्रकृति की शक्तियों को बैलेंस करने में सहायता करती है। गुरुत्वाकर्षण अपना काम करता है। levitational फ़ोर्स अपना। मनुष्य को अपने शरीर के अंदर निहित ऊर्जा के इन केंद्रों को सक्रिय करने के लिये अनेक विधियां हैं और उनका विज्ञान है। यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप किस स्तर पर अपने जीवन को ले जाना चाहते हैं। Life energy को किस लेवल तक उठाना चाहते हैं। जीवन मे गुरुता प्रमाद अंधकार बेहोशी को बनाये रखना है, या जाग्रत रहना है, ग्रेस बढ़ाना है, प्रसाद लाना है जीवन में, यह आपको तय करना होगा। 
ॐ 

©त्रिभुवन सिंह

1 comment:

  1. अति सुंदर व्याख्या सर।
    सनातन परम्परा में एकादशी व्रत मानव मात्र के कल्याण हेतु स्थापित है / था। हम भटक चुके हैं।

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