Wednesday 23 September 2020

Cherish or Perish: It's your choice

#Perish_or_cherish :. Choice is yours. 
 दुखी रहो या आनंदित रहो। चुनाव तुम्हारा। 

मैं खोज रहा हूँ किसी सुखी व्यक्ति को। मेरे जीवन में तो कोई न दिखा - सुखी संतुष्ट शांत। 
सुख की परिभाषा चार्वाक से लेकर सबने किया है। चार्वाक कहता है ऋण लेकर घी पियो। आजकल कौन घी पीता है?

 बॉलिवुड कभी माया नगरी कहलाती थी। धन नाम सब कमाया। फिर भी सुख खोज रहा है वीड ( गांजे) में, हैश ( ड्रग्स) में। सुख शांति होती तो क्या आवश्यकता थी वीड की, और  हैश की शरण मे जाने की?
कुछ ड्रग की शरण में है तो कुछ डायबिटीज ब्लड प्रेशर की। 

कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं कि सुखी व्यक्ति कौन है। 

शक्नोतीहैव य: सोढुम् प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामकोध उद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नर:।।
-(भगवतगीता 5.23) 

प्राक् शरीर विमोक्षणात:
शरीर को त्यागने के पूर्व। शरीर तो त्यागना ही पड़ेगा। कब? यह किसी को नहीं पता। लेकिन त्यागना पड़ेगा। जिसने जन्म लिया है उसको मरना होगा। यही ध्रुव सत्य है। 
कृश्नः पहले ही कह चुके हैं : जातस्य हि ध्रुवों मृत्यु:। जिसने जन्म लिया है वह मरेगा यह ध्रुव सत्य है। यह परम सत्य है। हर व्यक्ति इस ध्रुव सत्य से परिचित है। 

मृत्यु का महोत्सव चल रहा है पूरे विश्व में। एक छोटे से जीव के कारण - विषाणु - covid 19. इतना शूक्ष्म है कि देखा नहीं जा सकता आंखों से। फिर भी मृत्यु का तांडव उसने फैला रखा है। जो कल तक हमारे साथ हंस बोल रहे थे। जीवन के हर उत्सव में, हर दुःख में हमारे साथी थे, सहयोगी थे, वे आज हमारे साथ नहीं हैं। 
 
हम शरीर को न छोड़ना चाहें तो भी शरीर हमसे छूटेगा ही। और जब शरीर छूटेगा तो समस्त कामनाएं, समस्त योजनाएं, समस्त धन पद प्रतिष्ठा छिन जाएगी। छोड़ना पड़ेगा। यही सत्य है। 

शक्नोति इह एव य: सोंढुम्
 - जो समर्थ है इसको रोकने में।
क्या रोकने में?

काम क्रोध उद्भवं वेगं:

काम और क्रोध के उद्भवं के वेग को। जो काम और क्रोध के उद्भवं के वेग को रोकने में समर्थ है वही योगी है और वही सुखी मनुष्य है। 

काम और क्रोध दोनों वेगवान होते हैं। दोनों में  वेग होता है। 
काम अर्थात कामना। इच्छा तृष्णा विषय वासना। 

वैसे तो 
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले।
   बहुत निकले मेरे अरमां फिर भी कम निकलें। 

इच्छाएं तो अनंत हैं - लेकिन तीन इच्छाएं ही सब के मूल में हैं - सेक्स, धन, पद या प्रतिष्ठा। जीवन की समस्त कामनाएं इन्हीं के इर्द गिर्द घूमती हैं। 
इच्छाएं हर क्षण नए नए रूप लेती हैं। लेकिन इच्छाये जब गहन आसक्ति का रूप लेती हैं तो कामनाएं प्रगाढ़ होने लगती हैं। उनमें वेग आने लगता है। फिर उन पर हमारा नियंत्रण खो जाता है। फिर लैला मजनू की कहानी बन जाती है। उन कामनाओं की पूर्ति न हो तो जीवन व्यर्थ। अवसाद निराशा आत्महत्या। 

कामनाओं की पूर्ति न हो तो उनसे क्रोध का भी जन्म हो सकता है।
जो चाहते थे वह हो सकता था। लेकिन हो न सका। किसी ने रोड़ा अटका दिया। किसी ने कामनाओं की कोठरी में आग लगा दिया। उसके प्रति मन क्रोध की अग्नि  धधक  उठेगी। और उस  क्रोध का वेग इतना अधिक हो सकता है कि यह हिंसक स्वरूप ले सकता है। सामने वाले का सर फूट सकता है। उसकी हत्या हो सकती है। इतना वेगवान भाव हैं यह। इन पर हमारा नियंत्रण न रहा। उसी की बात कर रहे हैं कृष्ण। 

वह कह रहे हैं - शरीर छूटने पर काम का भी अवसान हो जाएगा और क्रोध का भी। मुर्दे की क्या कामना हो सकती है?
जो कल अपने आप होना है, क्या उसे आज आप समझदारी के साथ, बोध के साथ नहीं कर सकते क्या?

 यदि कोई व्यक्ति जागकर इस तथ्य को देख सके तो वह काम और क्रोध के उद्भव और उसके वेग को रोकने में समर्थ हो सकता है। वही व्यक्ति योगी होता है । और वही व्यक्ति सुखी हो सकता है। 
अन्यथा तो बुद्ध कहते हैं कि चाहे जो कर लो : जीवन दुख है। 
एक राजा ने इसको अनुभव किया - जिसके पास पाने को सब कुछ था, और खोने को जीवन। 

©त्रिभुवन सिंह

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