Wednesday 23 September 2020

वाणी और मन: स्पीच एंड माइंड

#स्पीच_एंड_माइंड: वाणी और मन 

ॐ वाक् मे मनसि प्रतिष्ठिता।
मनो मे वाचि प्रतिष्ठिता।।
- सरस्वती रहस्योपनिषद

ऋषि का आग्रह है कि मेरी वाणी मेरे मन मे प्रतिष्ठित हो जाय। और मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाय।  कहने का तात्पर्य है वाणी और मन मे तालमेल बैठ जाए। दोनों में भेद न रहे। दोनों एक ही हो जाय। 

हमारे विचार ही उपद्रव हैं। हमारे  अंदर चलने वाले समस्त झगड़ा, झन्झट, अशांति, बेचैनी, सब के सब हमारे  विचारों की देन है। हम उपद्रव पालते हैं विचारों के रूप में। जितना बड़ा विचारक उतना उपद्रवी मन। इसीलिए विचारकों (Thinkers) को भारत में कोई महत्ता नहीं मिली। पश्चिम में विचारकों को बड़ी महत्ता है। क्योंकि वे मन बुद्द्धि और विचार से आगे जा ही नहीं पाए। 

 मन का स्वभाव है कि वह खाली नहीं बैठ सकता। उसको कोई सहारा चाहिए। माइंड अर्थात बन्दर। उसे उछल कूद ही पसंद है। मन को चाहिए उपद्रव, व्यस्तता,  ऑक्यूपेशन। वे कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर। Empty mind is devil's workshop. 
साइकाइट्री में आजकल माइंड का स्वभाव बता रहे हैं #Monkeying । 

और वाणी है संसार मे होने वाले झगड़ा झंझटों की जड़। सारे विवादों की जड़ है वाणी। वाणी के कारण ही समस्त झगड़े शुरू होते हैं।  और हमारी वाणी का शत प्रतिशत हिस्सा प्रायः प्रतिक्रिया है,  रिएक्शन है। क्योंकि हमारा स्वभाव ही रैक्शनरी है। हमारी वाणी प्रायः किसी न किसी विचार या किसी न किसी व्यक्ति की प्रतिक्रिया में निकलती है। यंत्रवत, रोबोटिक।

 हम हर बात पर रियेक्ट करते हैं। हर उस बात पर, जो हमें उकसाती है,  उस पर हम रियेक्ट करते हैं - पहले माइंड से, फिर वाणी से।

 रियेक्ट क्यों करते हैं? इसलिए कि हमने पहले से तय कर रखा है कि सही क्या है गलत क्या है। हमने संसार को अपने लाइक और dislike मे बांट रखा है।

"इन्द्रियस्यइन्द्रियर्थेषु राग द्वेष व्यवस्थितौ" - भगवतवीता।

 हमारा  जब भी किसी वस्तु व्यक्ति भाव या विचार से साक्षात्कार होता है तो हम निर्णयात्मक रूप से उसे या तो पसंद करते हैं या नापसंद। अपने संस्कारों, संस्कृतियों, शिक्षा और अपने विचारों  आदि के कारण ऐसा होता है। यह सामान्य बात है। लाइक और dislike हमारी मनोदशा का अंग है।  यह प्राकृतिक स्वभाव है माइंड का। across the globe mind works with this inherent attitude. So mind is not only individual but cosmic too.  ऐसे ही  हम संसार को देखते हैं। जिसको अटटीच्यूड कहते हैं आजकल। 

ऋषि कहता है कि उसकी वाणी उसके मन मे प्रतिष्ठित हो जाय। अर्थात जो मन मे हो वह ही वाणी से निकले। वही मुखरित हो तो मन में विचार चल रहा हो। 

 लेकिन जो मन में है वही वाणी से प्रकट हो जाय तो घर परिवार संसार मे, सर्वत्र उपद्रव खड़ा हो जाय। कोई पुराना मित्र मिलता है।  उसके लिए हमारे मन मे क्रोध है, घृणा है, अनादर है, उसका गला दबाने की इच्छा है मन में, कि अवसर मिले तो इसका गला दबा दूं।  लेकिन उसे व्यक्त नहीं कर सकते? हम कहते हैं - अहोभाग्य मित्र, बड़े दिनों बाद दर्शन हो रहे हैं। वह भी प्रतिक्रिया में यही बोलेगा। परंतु संभबतः उसके अंदर भी हमारे प्रति वही भाव और विचार हों मन मे। इसलिये हम मुखौटा ओढ़ लेते हैं, सभ्यता का मुखौटा।  असली अटटीच्यूड नहीं दिखाते उसे अपना। हम कहते हैं कि अहोभाग्य मित्र, बड़े दिन बाद आपके दर्शन हो रहे हैं। 

बारम्बार यही अभ्यास करते करते धीरे धीरे ऐसा ही व्यक्तित्व हमारा बन जाता हैं - झूंठा व्यक्तित्व। बाहर से कुछ और अंदर से कुछ और।  इसको हम पर्सनालिटी बिल्डिंग कहते हैं। लेकिन यह बेचैनी और अशांति की जड़ है। क्योंकि यह विभक्त व्यक्तित्व है। साइकेट्रिस्ट इसे कहते हैं - split Personality.  Dissociated Personality Disorder ( भूल भुलैया नामक फ़िल्म इसी पर बनी है) 

इसीलिये ऋषि की प्रार्थना है कि जो मेरे मन मे हो,  वही मेरी वाणी में हो। वाणी से वही बात निकले - जो मेरे मन मे हो। चाहे भला और चाहे बुरा। 

लेकिन संसार मे समस्या यह है कि जो मन में हो, और यदि वही बात निकल भी आवे तो लात खाने की संभावना बढ़ती जाएगी -
"बातहिं हांथी पाइए।
बातहिं हांथी पाव।।"

तो फिर जीवन कैसे सम्भब होगा? 
मन को निर्मल करने से, यह संभव होगा कि मन में वही विचार और भाव उत्पन्न  हों जिन्हें छुपाने की आवश्यकता न पड़े। वह कैसे होगा?
 
राग द्वेष, लाइक और dislike को पीछे रखकर संसार को देखने का अभ्यास करना होगा। "See the things as they are." कठिन है। क्योंकि हम चीजों को वैसे देख नहीं सकते जैसी वह हैं। हम उन पर अपने भाव, विचार, अवधारणाएँ, पसंद, नापसंद आरोपित करके देखते हैं। क्योंकि हमारे मन दुराग्रह से भरे हैं। 
तभी तो ऋषि प्रार्थना कर रहा है सरस्वती जी से। 

ऋषि की दूसरी प्रार्थना है कि मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाय। अर्थात मुझे जब बोलने की आवश्यकता हो तभी मेरा मन, मेरा माइंड काम करे। वरना वह शांत बैठा रहे। यह और भी कठिन है। लेकिन यह एडवांस्ड कोर्स है। पहले वाला बेसिक कोर्स था। बेसिक वाला कोर्स होने के बाद ही इस कोर्स में प्रवेश मिलेगा।

  हमारा मन तो चलता ही रहता है दिन रात। 24 घण्टे, अनवरत, दिन रात माइंड चलता ही रहता है। लेकिन माइंड और बॉडी हमारे टूल हैं, यंत्र हैं। उनको हमारे हिसाब से चलना चाहिए न?

हमारे कमरे में ए सी लगा है, पंखा लगा है, कंप्यूटर लगा है। सभी यंत्र हैं। सब हमारे हिसाब से चलते हैं। जब हम उन्हें चलाना चाहते हैं तो स्विच ऑन कर देते हैं। जब बन्द करना होता है तो स्विच ऑफ कर देते हैं।

 माइंड को भी ऐसे ही काम करने की ट्रेनिंग देनी होगी कि जब वाणी की आवश्यकता हो, जब बोलने की आवश्यकता हो तो माइंड काम करे, अन्यथा चुपचाप बैठा रहे - शांत, चैन से, आराम से - At ease, Not disease। Completely silent. शून्य, सन्नाटा।  बहुत कठिन है।  इसीलिए प्रार्थना की जा रही है सरस्वती जी से। 

वैदिक साइंस में जिस  शक्ति को सरस्वती के नाम से पुकारा जाता रहा है, उसे आज की भाषा मे बोला जाय तो सरस्वती हमारे माइंड और वाणी को को-ऑर्डिनेट करने वाली आंतरिक ऊर्जा या शक्ति का नाम है। 

हम हर एनर्जी को प्रणाम करते हैं। परमात्मा भी हमारे अंदर है एनर्जी के रूप में। जिसे हम चेतना या चैतन्य कहते हैं - Counciousness. 
Counciousness is fundamental - Max Plank, Nobel Prize winner Quantum Physicist. 

इसीलिए हमारे शास्त्रों में सरस्वती जी की पूजा की जाती है - क्योंकि वे माइंड और वाणी की कंट्रोलर हैं। कंट्रोलर की कृपा बनी रहे तो हांथी मिल जाय पुरस्कार स्वरूप। और कृपा न बन पायी तो -   हांथी के पैर के नीचे कुचले भी जा सकते हैं:

बातहिं हांथी पाइए।
बातहिं हांथी पाव।।

इसीलिये हम जब हम प्रार्थना करते हैं:

वर दे वीणा वादनि
वर दे। 

तो हम अपने अंदर की उस ऊर्जा और शक्ति से प्रार्थना करते हैं कि हे माँ मुझे ऐसा वरदान दे कि बुद्द्धि और वाणी हमें हांथी तो दिलवावे, हांथी पाव न दिलवावे।

®त्रिभुवन सिंह

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