Thursday, 26 July 2018

Renaissance: एक बहुप्रचारित शब्द।

Renaissance: एक बहुप्रचारित शब्द। अब इसकी हिंदी क्या खोज निकाली भाई लोगों ने, भगवान जानें या आप बतावें।
यूरोप में रोमन संस्कृति के बाद ईसाइयत का कब्जा होने के बाद बाइबिल से इतर कोई भी बात सोचने समझने या बोलने की सख्त मनाही थी।
1600 AD में ब्रूनो ने सिर्फ इतना ही बोला कि - पृथ्वी के चारों तरफ सूर्य नहीं घूमता वरन पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ घूमती है - उसको चर्च ने आग में जलाकर मार दिया।
गैलीलियो का भी इसी कारण आजीवन गृह कारावास दिया गया।
यूरोप में 1500 वी शताब्दी में जनसंख्या विस्फोट के कारण जब यूरोपीय ईसाई विश्व के गैर ईसाइयो को लूटने निकले तो धन वैभव के साथ साथ भारतीय साहित्य भी उनके हाँथ लगा जिसके कारण - उनके यहाँ Renaissance जैसी विचार धारा का जन्म हुआ जिसको उन्होंने क्रांति का नाम दिया।
यही से सोचने और विचारने - Thoughts को महत्वपूर्ण माना जाने लगा।
अनुभव नहीं विचार।
इस युरोपियन हैंग ओवर ने अभी भी पूरे विश्व को अपने मकड़जाल में फंसा रखा है।
आप क्या सोचेंगे ? जो आपने अपने पांच ज्ञानेंद्रियों से सूचनाएं एकत्रित की हैं आप वही न सोचेंगे।
फंतासी भी सोच का ही एक अनुभाग है।

#विचार_क्या_हैं ? #विचार_माइंड_मैनीपुलेशन के टूल

#विचार_क्या_हैं?
विचार आपके पांच ज्ञानेंद्रियों द्वारा एकत्रित की गयी सूचनाओं के डेटा से उपजा आपका निजी अनुभवों पर आधारित एक भाव मात्र है।
इसकी जगह डस्ट बिन है। यह कोई सहेजने लायक वस्तु नहीं है। क्योंकि यह मैनिपुलेट किया जा सकता है।
यह मेरा स्वयम् का कुछ दिन पूर्व का सहज अनुभव है।
हुवा यह कि एक फंक्शन में एक गेस्ट के बारे में मेरे करीबी मित्र ने कुछ ऐसी बात बोली कि स्वतः ही उसके बारे में मेरे मन मे नेगेटिव अवधारणा बन गयी और उस तरह का भाव और विचार भी मन मे पैदा हो गया। 
लेकिन उससे व्यक्तिगत रूप से मिलने से मुझे लगा कि मेरी अवधारणा या विचार उचित नहीं है।
ठीक इसी तरह आपके #माइंड को भी #मैनिपुलेट करना सम्भव है। जिस क्षेत्र के बारे में आप अनभिज्ञ हैं उस क्षेत्र के बारे में आपके माइंड को मैनिपुलेट किया जा सकता है। यहां तक कि आपको फनाटिक भी बनाया जा सकता है। यह 2000 वर्षो की विधर्मी रिलीजन में काफी प्रबल रूप से प्रभावी रहा है और इसने विश्व की मानवता को बहुत हानि पहुंचाई है।
क्योंकि किसी के विचार उसके लिए महत्वपूर्ण होंगे, लेकिन यदि आप उस अनुभव से नहीं गुजरे हैं तो वह कूड़ा से अधिक कुछ भी नहीं है।
विधर्मी आस्थाओं के बारे में और पाश्चात्य दर्शन के बारे में यह काफी सच प्रतीत होता है।
इसी लिए सनातन धर्म मे किसी विचार को न नकारने की बात की गयी है न स्वयम् की अनुभूति से गुजरे बिना स्वीकारने की बात की जाती है।
स्वानुभूति से स्वयम को तथा इस ब्रम्हांड को जानने को ही अध्यात्म कहते हैं।
लेकिन इस अनुभव की तकनीक सीखे बिना और इस क्षेत्र में अपना समय खर्च किये बिना, इसके नजदीक जाना असंभव है।
आप जीवन भर पढ़ने लिखने और सीखने को तैयार रहते हैं, लेकिन क्या ? विषय भोग और विचारों के बारे में। लेकिन अनुभव करने के लिए समय है क्या आपके पास ?

#Breaking_India_Forces. What is thought ?

Thoughts are just a bunch of perceptions which one gathers through information gathered by our five senses.
They can make some sense.
But they can be nonsense too.
But they can be used to manipulate the mind of millions of people very strongly.
Knowingly or unknowingly Indian intellectual's mind has-been manipulated in last 150 years in million ways by propagating lots on untruths and concocted stories. They has-been used to emotionally motivate crores of educated Indians. To make these coocked stories worth believing several Indians were wooed, awarded and patronized by Crooked British Pirates - like Devendranath Tagore, Raja Ram Mohan Roy, Fule, Ambedkar and Periyar few eminent names amongst many other names.
Even after India became free several Indians were patronized wooed and awarded by Britons and Americans.
Today they stand naked when economic history of India is explored. Their followers though taking advantage of Reservations and other political advantages, but ground reality is this that they are simply tool of Foreign missionaries and #Breaking_India_Forces.

#इनफार्मेशन_टेररिज्म 1857

1857 की क्रांति के जिन कारणों का आज तक वर्णन हुवा है उनसे मेरा बहुत इत्तफाक नही है ।
भारत के आर्थिक निर्माण उद्योग को 1757 से 1857 तक प्रायः नष्ट किया जा चुका था और करोङो लोग हजारो साल के अपने कृषि और कृषि आधारित मैन्युफैक्चरिंग से बाहर धकेले जा चुके थे।
विल दुरान्त जैसे इक्का दुक्का लेखकों ने इस् क्रांति के लिए आर्थिक कारणों को जिम्मेदार माना है परंतु प्रचलित #कलम_ठग इतिहासकारों ने इस विंदु को छुवा भी नही है।
क्योंकि जिस् तरह बेरोजगारी के कारण भारत की 1/15 आबादी से ज्यादा (15 से 20%) लोग 1850 से 1900 के बीच तथाक्तित famine में इसलिए मृत्यु को वरण करने को बाध्य हुए कि उनकी जेबो में अन्न खरीदने का पैसा भी नही था, और जिस् तरह हर भारतीय उस युद्ध का सिपाही बना, उसको मात्र आर्थिक कारणों से ही व्याख्यायित किया जा सकता है।
जबकि भारत से उपजे अन्न आदि खाद्य पदार्थ जहाँजो में भर भर कर समुद्री लुटेरे ब्रिटेन ले जाते थे और ऐश करते थे।
( लेकिन जिनको इन लुटेरों ने इस हालात में पहुँचाया, वे उन्ही को अपना उद्धारक मानते हैं। )
क्या किसी लेखक ने इस दृश्टिकोण पर प्रकाश डाला है ?

पश्चिम का बिना विचार किये अंधानुकरण क्या आपको वहीं नहीं ले जाएगा ?

भारत हजारों वर्षों से दुनिया का सबसे धनी समाज और देश था। लेकिन हम जानते थे कि भौतिक उपलब्धि मनुष्य के खुशी का आधार नही बन सकता क्योंकि मनुष्य के पास सिर्फ शरीर ही नही है, जिसकी समस्त भौतिक आवश्यकता को अधिकतम पूर्ति के उपरांत भी खुशी हैप्पीनेस और जॉय नही मिल सकता, उसके पास अंतः करण भी है । हैप्पीनेस अंतःकरण का विषय है, शरीर का नहीं।
इसलिए हमारे ऋषियों और मुनियों से भौतिक जगत की आवश्यकता की पूर्ति हेतु यांत्रिक शिल्प शास्त्र ( साइंस) के विकास के साथ साथ मनोविज्ञान ( अंतः करण) को समझने के लिए विज्ञान पर अपना ध्यान सबसे अधिक केंद्रित किया।
लेकिन अद्ध्यत्मिक पुस्तको में #इनफार्मेशन_टेररिज्म से पीड़ित विद्वान समाजिक शास्त्र खोजते रहते हैं।
#कठोपनिषद में सम्पूर्ण अंतःकरण का विज्ञान यम और नचिकेता संवाद के रूप में लिखा गया है। इन मूर्खो से पूंछो कि आज तक कोई यम से संवाद कर पाया है?
इसको प्रतीकात्मक शैली कहते हैं।
खैर।
अंतःकरण के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए जब नचिकेता यम से निरन्तर आग्रह करता है तो यम उसको तमाम धन वैभव राज्य सुंदरियों आदि की लालच देकर टालना चाहते हैं।
लेकिन नचिकेता कहता है कि - वित्तेन न तर्पड़ियो मनुष्यो। अर्थात शारीरिक विषय भोगों से मनुष्य तृप्त नही होता।
तब जाकर यम उसको अंतः करण का ज्ञान देते हैं। अर्थात अंतः करण का दान लेने की पात्रता सिद्ध होने पर ही वह ज्ञान शिष्य को देने का विधान था।
खैर। अभी पाश्चात्य देशों को दुनिया मे धन वैभव का सम्राट बने मात्र 150 वर्ष से अधिक नही हुवा है। लेकिन आज अमेरिका जैसे धनी देश मे 40% लोग आजीवन या जीवन मे किसी समय साइकियाट्रिक ड्रग्स की शरण मे रहने को बाध्य हैं।
क्या यह विचार नही होना चाहिए कि शिंक्षा और विकास का मॉडल क्या हो ?
क्या हम दूसरों की समस्याओं से सीख नहीं ले सकते?
पश्चिम का बिना विचार किये अंधानुकरण क्या आपको वहीं नहीं ले जाएगा , जिस खोह में वह आज स्वयम भहरा चुके हैं।
विचारिए।

What is Ism ?

Every kind of #ism leads to mindlessness, madness and paranoid of people. 
This have happened in the past, it's happening even today. People persuing ism thought and ideology are psychologically deranged. 
This ism ideology is part of gift of invading barbaric religious bandits to the India. Ism essentially means you are looking towards particular idea or issue with semiblinded eyes. 
If you are semi blinded then how you can see the real nature of a particular idea or issue. 
But Colonized Indians want every foreign invading idea to own as their own, so lots of confusion prevails.

#Competition is stress riser.

#Competition is one thing which modern educationists stress upon most. Our children are asked to develop drive for competition, rather for more deeper level of competition known as #cut_throat_competition.
But competition is one thing which snatches joy of your life. This puts you under great #stress which is accumulation of #negative thoughts emotions and energy which we collect while competing.
It's better we should learn to compliment a person who succeeds rather than trying to compete him.
Accumulated negative thoughts emotion and energy impacts hugely physiology of your body which manifests in psychological disorder hypertension diabetese, and may be auto immune disorder.
#latest thought ¡.e. junk of my thought process. Accept or deny. But give a look at it.

#अछूत और #दलित (Depressed Class ) की उत्पत्ति का कारण , #पृष्ठीभूमि_और_इतिहास ।

#अछूत और #दलित (Depressed Class ) की उत्पत्ति का कारण , #पृष्ठीभूमि_और_इतिहास ।
एक मजेदार बात -- डॉ #अंबेडकर ने कभी भी #दलित (Depressed Class ) शब्द का प्रयोग नहीं किया , बल्कि उन्होने शूद्र और #अछूत शब्द का प्रयोग किया।
इसके विपरीत ब्रिटीशेर्स ने अपने किसी भी शासकीय दस्तावेज मे #अछूत शब्द का प्रयोग नहीं किया , बल्कि #Depressed Class और #Oppressed क्लास का प्रयोग किया ।
इस लोचे को समझने के लिए पढ़ें --
Any Besant's Comparison of "British one tenth submerged" and "India's "Generic One Sixth Depressed Class". Both are the Same
Any Besant's Comparison of "British one tenth submerged" and "India's "Generic One Sixth Depressed Class". Both are the Same।
ये एक ऐतिहासिक डॉक्यूमेंट हैं जो आंबेडकर साहित्य का हिस्सा है । डॉ आंबेडकर ने जिस एनी बेसेंट को "Depressed Class " की स्थापना के लिए उद्धरत किया था । उनका 1928 के साइमन कमिशन से संवाद को अवश्य पढ़ें ।
उसी तथ्य को मैं एक नए नजरिये से पेश कर रहा हूँ ।
डॉ आंबेडकर ने द्रविड़ शूद्र , अतिशूद्र अछूत भंगी आदि शब्दों को एक जगह जोड़कर उनको एक नए वर्ग से संबोधित किया , जिसको गांधी जी हरिजन के नाम से बुलाते थे।
अब एक नजर नयी रेसेअर्चेस के जरिये इस स्टेटमेंट को समझने की कोशिश करते हैं ।
Angus Madison ने "वर्ल्ड इकनोमिक हिस्ट्री " नामक एक शोधग्रंथ प्रकाशित किया 2000 AD में, जिसमें उसने 0AD से 2000AD तक का विश्व का आर्थिक इतिहास पर शोध किया है। उसके अनुसार 0AD से 1750 तक भारत पुरे विश्व की कुल जीडीपी का 25 प्रतिशत के आसपास की जीडीपी का हिस्सेदार रहा है (मुग़ल अत्याचार और लूटपाट के बावजूद ) जबकि 1750 तक ब्रिटेन और अमेरिका दोनों की मिलकर मात्र 2 प्रतिशत GDP का हिस्सेदार था। 1900 आते आते ब्रिटिश लूट और भारतीय उद्योंगो का विनाश के कारन मामला एकदम upside down । भारत की जीडीपी बचती है मात्र 2 प्रतिशत और ब्रिटेन और अमेरिका 42 प्रतिशत GDP के हिस्सेदार । पॉल कैनेडी की बुक राइज एंड फॉल ऑफ़ ग्रेट पावर्स में में पॉल बैरोच नामक इकोनॉमिस्ट के अनुसार भारत में पैर कैपिटा industrialization भयानक कमी आयी। वही जहाँ 1750 per capita industrialisation जहाँ भारत और इंग्लॅण्ड का लगभग एक बराबर होता है , 1900 आते आते ब्रिटेन की per capita industrialisation में 1000 प्रतिशत का इजाफा होता है , वहीं भारत में percapita industrialisation में लगभग 700 की कमी आती हैं ।
इस बात की पुस्टि 1853 में #कार्ल_मार्क्स के छपे एक लेख से भी की जा सकती है जिसमे उसने लिखा है कि 1815 में जहाँ ढाका में डेढ़ लाख अर्टिसन निवास करते थे , 1835 आते आते मात्र 20 हजार अर्टिसन बचते हैं /मात्र 20 सालों मे ढाका का मशहूर मलमल बनाने वाले एक लाख 30 हजार manufacturers , कहाँ गए ? क्या हुआ उनका और उनकी संततियों का ? कोई इतिहासकर नहीं बताता।
यानि जहाँ एक तरफ भारत का अर्टिसन बेरोजगार और बेघर हो रहा है , इन 150 वर्षों में वहीँ इंग्लैंड के लोग रोजगार युक्त हो रहें है । अब इस तथ्य को एनी बेसेंट के स्टेटमेंट की तराज़ू पर तौलें तो पाएंगे कि 1909 में इंग्लैंड में industrialisation कि क्रांति के बावजूद देश का एक तबका जिसको एनी बेसेंट ने इंग्लैंड के "one टेंथ submerged जनसँख्या कि तुलना " भारत के बेरोजगार और बेघर हुए " जेनेरिक one sixth depressed क्लास " से करती हैं , जिनकी आर्थिक सामजिक , शैक्षणिक और जीवन पालन करने का तरीका एक जैसा ही हैं ।
आपको क्या ये आर्थिक व्याख्या उचित नहीं प्रतीत होती ? डायरेक्ट एविडेंस के बजाय आप अछूतों और शूद्रों को स्मृतियों और वेदों में खोजने लगते हैं । (Please Read Below to see How Dr Ambedkar Quoted To Any Besant ) प्रस्तुत है एनी बेसंट का मत अछूत दलित या Depressed क्लास के बारे मे :
Classes
By Annie Besant
[Indian Review, February 1909 edition]
"हर देश मे सामाजिक पिरामिड कुछ इस तरह का होता है कि समाज एक बहुत बड़ा वर्ग अशिक्षित अज्ञानी भाषा और रहन सहन और आदत से गंदा होता है जो समाज के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण काम करता है लेकिन वो उसी समाज से तिरस्कृत और उपेक्षित रहते हैंThe Uplift of the Depressed , जिसके लिए वो काम करता है । इंग्लैंड मे इस वर्ग को submerged tenth के नाम से जाना जाता है जो जनसंख्या का दसवां हिस्सा है । ये भुखमरी के कगार पर हैं और जरा सा भी दबाव बर्दाश्त नहीं कर सकता । ये कुपोषण का शिकार है जिसकी वजह से बीमारी से ग्रस्त होता रहता है । मंदबुद्धियों का जैसा स्वभाव होता है , उसी तरह बच्चे तो ये बेहिसाब पैदा करते हैं परंतु इन बच्चों कि मृत्यु दर बहुत ज्यादा है , ये कुपोषित हैं सूखा रोग से ग्रस्त और विकांगता से ग्रस्त हैं । इनमे जो अच्छे किस्म के लोग हैं उनमे unskilled मजदूर हैं जो भंगी मेहतर और स्वीपर का काम करते है ,समुद्र के घाटों पर काम करने वाले मजदूर और गली गली घूम कर समान बेचने वाले लोग शामिल है ; और जो खराब किस्म के लोग हैं वो समाज के निकम्मे और कामचोर दारुबाज़ लोफ़र coarsely dissolute tramps vagabonds घटिया किस्म के अपराधी और गुंडे हैं । पहले किस्म के लोग प्रामाणिक तौर पारा ईमानदार और मेहनतकश है और अपनी रोजी रोटी कमाने मे सक्षम हैं , लेकिन दूसरी किस्म के लोगो नियंत्रित करना पड़ता है और उनको रोजी रोटी कमाने के लिए जबर्दस्ती काम करवाना पड़ता है । भरता मे, ये वर्ग जनसंख्या का छठवा हिस्सा बनाता है जिसको हम मोटे तौर पर (generic ) “Depressed क्लास” कहते हैं। "
नोट - ध्यान रखे कि ये वो समकाल था , जब 1875- 1900 के बीच करीब दो करोण भारतीय अन्न के अभाव मे भुंख से मर गए थे / और Will Durant के 1930 के लेखन के अनुसार लोग इस भुंख से जान बचाने के लिए शहरों की तरफ भागे , और जो उनमे सौभाग्यशाली थे उनको गोरों का मैला साफ करने का काम मिल गया क्योंकि जब गुलाम इतने सस्ते हों तो शौचालय बनवाने का झंझट कौन पाले ?

Believers can be trained to fanatic

If you are believer, you are compelled to follow a fanatic ideology. Human mind, which is not capable of perceiving the things as they are, can be manipulated to believe some written text, which has been given devine sanction by people.
That's why in our culture believing has not been given any value. What you believe is your psychological drama, which is known as illusion in medical and yogic law. You may believe that every rope like looking object is snake, it's your psychological drama. It happens because you gather all the dustbin material from here and there before knowing that what it is.
That's why in our dharma our Rishis told us to know, seek, realize, not to believe.

शरीर और अंतःकरण

शरीर और अंतःकरण यह दो भाग होते हैं हर जीव के।
मनुष्य का अंतःकरण अन्य जीवों से ज्यादा विकसित होता है। और यह जीव के लाखों सालों के एवोल्यूशन का परिणाम है।
स्पष्ट है कि जो मेरी पोस्ट पढ़ रहे हैं वे भौतिक रूप से, बहुत सारे भारतीयों से समृद्ध हैं। जो समृद्ध नहीं है वे जीवन यापन हेतु शरीर का अधिक से अधिक उपयोग करते हैं, और स्वस्थ रहते हैं - शारीरिक रूप से और मॉनसिक रूप से भी। वे अंतः करण के जाल में नहीं फंसते।
जो यह पोस्ट पढ़ रहे हैं, वे याद करें कि विगत वर्षों में शारीरिक रूप से कितना पीड़ित रहे हैं और मॉनसिक रूप से कितना पीड़ित रहे हैं ?
बाकी जीव यदि शरीर रक्षा के लिए भोजन की व्यवस्था हो जाय तो वह निश्चिंत हो जाते हैं। कोई तनाव नहीं। कहीं भी रह लेंगे, निश्चिंत सो जाएंगे।
मनुष्य की समस्या ही भोजन की व्यवस्था होने के बाद शुरू होती है - अतः करण में चिंता तनाव स्ट्रेस आदि आदि।
हमारे जितने शास्त्र हैं, वे मात्र अंतःकरण को समझने, और उसके देखभाल की तकनीक पर लिखे गए हैं।
शाश्त्रो के अनुसार जो इस पिंड में है वही ब्रम्हांड में है : यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे। और इस पिंड की प्रकृति को समझना ही आत्म साक्षात्कार कहलाता है।
इसी पिंड के अंतः करण में देव और असुर दोनों रहते हैं।  मनुष्य में जन्म के समय दोनों वृत्तियां बैलेंस में होती हैं, लेकिन असुर वृत्तियां अधिक शक्तिशाली होती है। वे असुर वृत्तियां है - काम क्रोध लोभ मोह : मद और मत्सर। इसके अतिरिक्त - दया क्षमा प्रेम आर्जव निष्कपटता आदि दैव वृत्तियां है। जिस मनुष्य में जिस वृत्ति की अधिकता होती है, वह वैसा ही बन जाता है।
अब मूल प्रश्न यह है कि मॉडर्न साइंस से लेकर सारा संसार इस शरीर के पोषण, मेंटेनेंस, ओवर हौलिंग और नियंत्रण की बात पर ही जोर देता है, लेकिन क्या वह अंतः करण के पोषण मेंटेनेंस, ओवर हौलिंग और नियंत्रण पर जोर देता है क्या ?
जोर देने की बात छोड़िए - इस अंतः करण को समझता है, या समझने का प्रयास भी करता है क्या ?
और जब तक नही समझेगा उसके जीवन मे, समाज मे, या विश्व मे शांति खुशहाली और उमंग आएगी क्या ?
अंतः करण को समझने की प्रक्रिया को ही अध्यात्म कहते हैं - गीता कहती है -"स्वभाव अध्यात्म उच्चयते"।
यह मेरा theoritical ज्ञान है जिसको अविद्याजनित ज्ञान कहते हैं, जिसने #स्वभाव को समझ लिया हो उसको विद्या ज्ञान कहते हैं। कोई हो विद्या ज्ञान वाला तो इसमें विस्तार दे।

भारतीय गुरुकुल और पाठशाला वाली शिंक्षा को विनष्ट क्यों किया अंग्रेजो ने?



भारतीय गुरुकुल और पाठशाला वाली शिंक्षा को विनष्ट क्यों किया अंग्रेजो ने?
जबकि उसी भारतीय पद्धति को मद्रास सिस्टम ऑफ एजुकेशन के नाम से अपने यहां आम जन तक शिंक्षा पहुंचाई। जिसको एंड्रू बेल एजुकेशन सिस्टम का नाम दिया गया। 
भारतीय गुरुकुलों को नष्ट करके अंग्रेजी भाषा मे शिंक्षा देने के पीछे कई कुटिल षड्यंत्र थे। 
प्रथम षड्यंत्र तो यह था कि भारत के बारे में भारतीयों को अपने प्राथमिक सूत्रों से ज्ञान न मिलकर, यूरोपीय ईसाइयो द्वारा लिखे गए सेकेंडरी सोर्सेज से पढ़ने और समझने को मिले।
दूसरा षड्यंत्र यह था कि जिन देशों का अपना कोई इतिहास नहीं था यथा - अमेरिका कनाडा अफ्रीका आदि, उनके इतिहास को अपने मनमाने तरीके से लिखा जाए।परंतु जिन देशों का इतिहास था , यथा भारत- उसको मनमाने हिसाब से तोड़ फोड़कर लिखा जा सके।
तीसरा षड्यंत्र यह था - कि शिंक्षा मात्र एलीट क्लास तक ही पहुंच सके, और उस एलीट क्लास का माइंड मैनिपुलेसन अपनी आवस्यकता अनुरूप किय्या जा सके।
आज भी नग्रेजी माध्यम से पढा लिखा भारतीयो का रोल मॉडल Shashi Tharoor जैसा स्नॉब है जो हवाई जहाज की इकॉनमी क्लास को कैटल क्लास समझता है।
वही भारतीयों का एक पढ़ा लिखा विशिष्ट वर्ग ऐसा है जिसको नग्रेजी भाषा मे लिखा हुआ कुछ देखकर जुड़ी और बुखार चढ़ जाता है। #दिलीप_चु_मंडल या @ Ravish Kumar जैसे प्रबुध्द लोग इस दूसरी श्रेणी में आते हैं।
तिलक भारतीयों की शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। और गांधी के पूर्व भारत के सबसे बड़े नेता थे। यदि वे जिंदा रहते तो गांधी को शायद राजनीति में जगह भी नही मिलती।
विल दुरान्त ने जोर देकर लिखा है कि -" 1911 में हिन्दुओ के प्रतिनिधि गोखले ने " भारत मे यूनिवर्सल कंपल्सरी प्राइमरी एजुकेशन बिल का प्रस्ताव रखा जिसको ( विसरेगल समिति) के ब्रिटिश और सरकार द्वारा चयनित सदस्यों ने खारिज कर दिया। 1916 में पटेल ने भी ऐसा ही बिल प्रस्तावित किया, जिसको ब्रिटिश और सरकार द्वारा चयनित सदस्यों ने खारिज कर दिया"। 
( The Case for India : Will Durant ,P. 45-46)
अब एनालिसिस इस बात की होनी चाहिए कि आखिर ऐसा करने के पीछे मंशा क्या थी? क्यों ब्रिटिश नही चाहते थे कि यूनिवर्सल प्राइमरी एजुकेशन बिल लागू न हो? सती प्रथा के क्रेडिट लिए तो सबकी शिंक्षा के विरुद्ध क्यो थे ?
क्योंकि उन्होंने अभी तक भारत को लूटा और विनष्ट किया था। बिगोट रिलीजन के अनुयायियों का उद्द्देष्य मात्र काफिरों को लूटना ही नही होता। उनका लांग टर्म उद्द्देष्य होता है धर्म परिवर्तन करना।
1906 में उन्होंने हिन्दुओ और मुसलमानों को बांटा था। 
मुसलमानों का धर्म बदलवाने की क्षमता ऊनमें नहीं है वे जानते थे। तो उन्होंने हिन्दुओ को निशाने पर लिया।
1911 और 1916 में यूनिवर्सल प्राइमरी एजुकेशन बिल को खारिज करके 1917 में "एजुकेशन फ़ॉर डिप्रेस्ड क्लास" नामक पाखंडी कागजी कृत्य किया। 
1921 में #डिप्रेस्ड_क्लास शब्द को जनगणना में उद्धरित करते हुए इस शब्द को वैधानिक शब्द बनाया। अभी तक उंनको राजा राम मोहन राय और महात्मा फुले के अतिरिक्त ऐसा कोई व्यक्ति नही मिल पॉया था जिसके मुहं से वे ब्रिटिश और ईसाइयत को श्रेष्ठ और भारत और हिंदूइस्म को निम्न बोलवा सकें। 
1928 में अम्बेडक़र जी को उन्होंने निशाने पर लिया और वे उनके जाल मे फँस गए। किसको लोकेषणा नही होती। लेकिन लोकेषणा की किस चीज की कीमत पर। 
साइमोंड कमीशन से 1928 में अम्बेडकर जी ने गंठजोड़ की तो डिप्रेस्ड क्लास संविधान का अंग बन गया।
इस तरह वे भारत के संविधान के माध्यम से आज तक धर्म परिवर्तन करते आ रहे हैं।
और इसका क्रेडिट "ब्रिटिश एडुकेटेड इंडियन बररिस्टर्स" को जाता है।

#मन_माइंड_या_मस्तिष्क_का_स्वभाव:

सुबह सोकर उठते ही शरीर चाहे जो करे, मस्तिष्क माइंड या मन स्वतः ऑन हो जाता है। स्वनियंत्रित ऑटो मोड पर। कभी भूत काल की तलहटियों में गोते लगाकर आपके मन को दुखी करता है, कभी भविष्य में होने वाली काल्पनिक अनहोनी को लेकर भयभीत हो जाता है, और उससे निबटने की योजनाएं बनाने लगता है।
इस दौरान आप दिन भर अपना कार्य करते रहते हैं। उसमें तात्कालिक रूप से इन्वॉल्व भी होते हैं। परंतु माइंड ऑटो मोड में बीच बीच मे उस समय भी अपने ढर्रे पर चला जाता है भूत या भविष्य में।
लेकिन यह बात आप नोटिस ही नहीं करते। क्योंकि ऐसा ही मानव मन का स्वभाव होता है।
यह कार्य तब तक चलता रहता है जब तक आप सो नहीं जाते।
सुबह उठते ही पुणः यही क्रम शुरू हो जाता है।
और यह हर स्वभाव हर मनुष्य का होता है। धर्म रिलीजन और मजहब इसमें आड़े नहीं आता।
यह सार्वभौमिक स्वभाव होता है विश्व के हर मानव का - चाहे वह सिटीजन हो या गवांर।
चाहे वह प्रयाग में रहे, या कैलिफ़ोर्निया में।

लोग ओपीनियन कैसे बनाते हैं?

लोग ओपीनियन कैसे बनाते हैं?
जो डेटा उन्होंने अपने ज्ञानेंद्रियों से अपने मन मे एकत्रित कर रखा है, उसको अपनी प्रकृति स्वभाव और निजी अनुभव के अनुरूप मथकर जो निष्कर्ष निकालते हैं उसी से ओपिनियन बनती है।
इसीलिए किसी भी विषय या वस्तु के बारे में अलग अलग ओपिनियन बनती है।
लेकिन यह ओपिनियन भी प्रायः "एक हांथी और पांच अंधों की कहानी जैसी ही होती है। क्योंकि हमारा अनुभव सीमित है लेकिन ओपिनियन हर उस विषय के बारे में रखते है - जिसका नाम भी हमने कभी सुन देख या पढ़ रखा होगा।
ये ज्यादातर ओपिनियन और ओपिनियन मेकर स्वयं किसी न किसी से पहले से ही ओपीनिअटेड होते हैं।
इसलिए अधिकतर ओपिनियन की वैल्यू प्रायः कूड़े से अधिक नहीं होती। मेरी इस ओपिनियन की भी।
लेकिन ओपिनियन माइंड मैनीपुलेशन का बहुत बड़ा टूल हैं पिछले 150 वर्षों से पूरे विश्व मे, जब से इनफार्मेशन को ज्ञान के नाम से परोसा जा रहा है। इनके माध्यम हैं - आधुनिक शिक्षा, प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी तक। यदि कोई किसी विषय मे पीएचडी है तो समझ लीजिए कि वह उस विषय या टॉपिक का सबसे #भंगार ( कबाड़ी) है।
इनके माध्यम है मीडिया और उनके #इन्फॉर्मेशन_टेररोरिस्ट्स, पत्रिकाएं, टेलीविज़न, फॉउंडेशन्स, पुरस्कार आदि आदि।
इनके माध्यम है हिस्टोरिकल theorizers - जैसे मैक्समुलर और उनके चिलान्दू - जिनको फिलोलोजिस्ट और इंडोलॉजिस्ट के नाम से जाना जाता है।
इनके माध्यम है सिनेमा और नाटक।
इनके माध्यम है - विभिन्न NGOs में घूम घूम ज्ञान देने वाले स्पीकर्स।
तथाकथित थिंकर्स और ओपिनियन मेकर्स मूलतः #इनफार्मेशन_टेररोरिस्ट्स हैं।