Wednesday 7 October 2015

महाभारत प्रकरण: यक्ष-युधिष्ठिर संवाद : yaksha prasha

महाभारत प्रकरण: यक्ष-युधिष्ठिर संवाद – महाजनो येन गतः सः पन
by योगेन्द्र जोशी in अध्यात्म, दर्शन, नीति, महाभारत, लोकव्यवहार, Mahabharata, Morals, philosophy Tags: काल, जीवधारी, दर्शन, पांडव, महाभारत, यक्ष युधिष्ठिर संवाद, Mahabharata
महाकाव्य महाभारत में ‘यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ नाम से एक पर्याप्त चर्चित प्रकरण है । संक्षेप में उसका विवरण यूं है: पांडवजन अपने तेरह-वर्षीय वनवास पर वनों में विचरण कर रहे थे । तब उन्हें एक बार प्यास बुझाने के लिए पानी की तलाश हुई । पानी का प्रबंध करने का जिम्मा प्रथमतः सहदेव को सोंपा गया । उसे पास में एक जलाशय दिखा जिससे पानी लेने वह वहां पहुंचा । जलाशय के स्वामी अदृश्य यक्ष ने आकाशवाणी के द्वारा उसे रोकते हुए पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर देने की शर्त रखी, जिसकी सहदेव ने अवहेलना कर दी । यक्ष ने उसे निर्जीव (संज्ञाशून्य?) कर दिया । उसके न लौट पाने पर बारी-बारी से क्रमशः नकुल, अर्जुन एवं भीम ने पानी लाने की जिम्मेदारी उठाई । वे उसी जलाशय पर पहुंचे और यक्ष की शर्तों की अवज्ञा करने के कारण सभी का वही हस्र हुआ । अंत में युधिष्ठिर स्वयं उस जलाशय पर पहुंचे । यक्ष ने उन्हें आगाह किया और अपने प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहा । युधिष्ठिर ने धैर्य दिखाया, यक्ष को संतुष्ट किया, और जल-प्राप्ति के साथ यक्ष के वरदान से भाइयों का जीवन भी वापस पाया । यक्ष ने अंत में यह भी उन्हें बता दिया कि वे धर्मराज हैं और उनकी परीक्षा लेना चाहते थे ।
उस समय संपन्न यक्ष-युधिष्ठिर संवाद वस्तुतः काफी लंबा है । संवाद का विस्तृत वर्णन वनपर्व के अध्याय ३१२ एवं ३१३ में दिया गया है । यक्ष ने सवालों की झणी लगाकर युधिष्ठिर की परीक्षा ली । अनेकों प्रकार के प्रश्न उनके सामने रखे और उत्तरों से संतुष्ट हुए । अंत में यक्ष ने चार प्रश्न युधिष्ठिर के समक्ष रखे जिनका उत्तर देने के बाद ही वे पानी पी सकते थे । ये प्रश्न अधोलिखित श्लोक में सम्मिलित हैं:
को मोदते किमाश्चर्यं कः पन्थाः का च वार्तिका ।
ममैतांश्चतुरः प्रश्नान् कथयित्वा जलं पिब ।।१४।।
(कः मोदते, किम् आश्चर्यं, कः पन्थाः, का च वार्तिका, मम एतान् चतुरः प्रश्नान् कथयित्वा जलं पिब ।)
अर्थात् १. कौन व्यक्ति आनंदित या सुखी है?
२. इस सृष्टि का आश्चर्य क्या है?
३. जीवन जीने का सही मार्ग कौन-सा है? और
४. रोचक वार्ता क्या है?
मेरे इन चार प्रश्नों का उत्तर देने के बाद तुम जल पिओ ।
यहां तथा आगे उद्धृत सभी श्लोक महाभारत, वनपर्व, अध्याय ३१३ में प्राप्य हैं । एक टिप्पणी करना समीचीन होगा कि पारंपरिक संस्कृत में ‘कॉमा’ तथा ‘हाइफन’ का कोई स्थान नहीं है । किंतु वर्तमान काल में वाक्यों में स्पष्टता दर्शाने के लिए इनका प्रयोग होने लगा है । यहां पर भी ऐसा किया जा रहा है ।
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे ।
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ।।१५।।
(वारिचर, स्वे गृहे पञ्चमे वा षष्ठे अहनि शाकं पचति, अनृणी च अप्रवासी च सः मोदते ।)
१. हे जलचर (जलाशय में निवास करने वाले यक्ष), जो व्यक्ति पांचवें-छठे दिन ही सही, अपने घर में शाक (सब्जी) पकाकर खाता है, जिस पर किसी का ऋण नहीं है और जिसे परदेस में नहीं रहना पड़ता है, वही मुदित-सुखी है । यदि युधिष्ठिर के शाब्दिक उत्तर को महत्त्व न देकर उसके भावार्थ पर ध्यान दें, तो इस कथन का तात्पर्य यही है जो सीमित संसाधनों के साथ अपने परिवार के बीच रहते हुए संतोष कर पाता हो वही वास्तव में सुखी है ।
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम् ।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।१६।।
(इह अहनि अहनि भूतानि यम-आलयम् गच्छन्ति, शेषाः स्थावरम् इच्छन्ति, अतः परम् आश्चर्यम् किम् ।)
२. यहां इस लोक से जीवधारी प्रतिदिन यमलोक को प्रस्थान करते हैं, यानी एक-एक कर सभी की मृत्यु देखी जाती है । फिर भी जो यहां बचे रह जाते हैं वे सदा के लिए यहीं टिके रहने की आशा करते हैं । इससे बड़ा आश्चर्य भला क्या हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है और उस मृत्यु के साक्षात्कार के लिए सभी को प्रस्तुत रहना चाहिए । किंतु हर व्यक्ति इस प्रकार जीवन-व्यापार में खोया रहता है जैसे कि उसे मृत्यु अपना ग्रास नहीं बनाएगी ।
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः सः पन्थाः ।।१७।।
(तर्कः अप्रतिष्ठः, श्रुतयः विभिन्नाः, एकः ऋषिः न यस्य मतं प्रमाणम्, धर्मस्य तत्त्वं गुहायाम् निहितं, महाजनः येन गतः सः पन्थाः ।)
३. जीवन जीने के असली मार्ग के निर्धारण के लिए कोई सुस्थापित तर्क नहीं है, श्रुतियां (शास्त्रों तथा अन्य स्रोत) भी भांति-भांति की बातें करती हैं, ऐसा कोई ऋषि/चिंतक/विचारक नहीं है जिसके वचन प्रमाण कहे जा सकें । वास्तव में धर्म का मर्म तो गुहा (गुफा) में छिपा है, यानी बहुत गूढ़ है । ऐसे में समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है वही अनुकरणीय है । ‘बड़े’ लोगों के बताये रास्ते पर चलने की बातें अक्सर की जाती हैं । यहां प्रतिष्ठित या बड़े व्यक्ति से मतलब उससे नहीं है जिसने धन-संपदा अर्जित की हो, या जो व्यावसायिक रूप से काफी आगे बढ़ चुका हो, या जो प्रशासनिक अथवा अन्य अधिकारों से संपन्न हो, इत्यादि । प्रतिष्ठित वह है जो चरित्रवान् हो, कर्तव्यों की अवहेलना न करता हो, दूसरों के प्रति संवेदनशील हो, समाज के हितों के प्रति समर्पित हो, आदि-आदि ।
अस्मिन् महामोहमये कटाहे सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन ।
मासर्तुदर्वीपरिघट्टनेन भूतानि कालः पचतीति वार्ता ।।१९।।
(कालः अस्मिन् महा-मोह-मये कटाहे सूर्य-अग्निना रात्रि-दिवा-इन्धनेन मास-ऋतु-दर्वी-परिघट्टनेन भूतानि पचति इति वार्ता ।)
४. काल (यानी निरंतर प्रवाहशील समय) सूर्य रूपी अग्नि और रात्रि-दिन रूपी इंधन से तपाये जा रहे भवसागर रूपी महा मोहयुक्त कढ़ाई में महीने तथा ऋतुओं के कलछे से उलटते-पलटते हुए जीवधारियों को पका रहा है । यही प्रमुख वार्ता (खबर) है । इस कथन में जीवन के गंभीर दर्शन का उल्लेख दिखता है । रात-दिन तथा मास-ऋतुओं के साथ प्राणीवृंद के जीवन में उथल-पुथल का दौर निरंतर चलता रहता है । प्राणीगण काल के हाथ उसके द्वारा पकाये जा रहे भोजन की भांति हैं, जिन्हें एक न एक दिन काल के गाल में समा जाना है । यही हर दिन का ताजा समाचार है ।
महाभारत और उसके अंतर्गत यक्ष-युधिष्ठिर संवाद का कितना ऐतिहासिक महत्त्व है इस पर मेरी कोई टिप्पणी नहीं है । कदाचित् महाभारत मानव जीवन के सच का प्रतीकात्मक निरूपण है । ग्रंथ में वर्णित कथाएं शब्दशः अर्थपूर्ण न हों ऐसा संभव है । फिर भी उनका दार्शनिक पक्ष प्रभावी है, और मेरी दृष्टि में ग्रंथकार के चिंतन की व्यापकता आकर्षक है । – योगेन्द्र
छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति – संस्कृत नाट्यकृति मृच्छकटिकम् की उक्ति
22 जून 2009 टिप्पणी करे
by योगेन्द्र जोशी in नाटक, नीति, मृच्छकटिक, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति, Morals Tags: छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति, मृच्छकटिकम्, संस्कृत नाट्यकृति, Mruchchhakatikam, Sanskrit play
अक्सर यह देखने को मिलता है कि जब मनुष्य किसी एक विपत्ति का सामना कर रहा होता है तो और भी कई अड़चनें उसके सामने एक-एक कर प्रकट होने लगती हैं । ऐसी स्थिति की व्याख्या लोग ‘कंगाली/गरीबी में आटा गीला’ के कहावत से करते हैं । इस प्रकार की विपरीत परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर अंगरेजी में ‘मिसफॉर्च्यून्स् सेल्डम कम् अलोन् (misfortunes seldom come alone)’ कहावत का प्रयोग किया जाता है । संस्कृत भाषा में ऐसी कष्टकर परिस्थिति उत्पन्न होने पर ‘छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति’ कहना पड़ता है । मैं कह नहीं सकता कि इस उक्ति का मूल स्रोत क्या है, लेकिन मुझे इसके दर्शन नाट्यकार शूद्रक द्वारा रचित संस्कृत नाट्यकृति मृच्छकटिकम् के अधोलिखित श्लोक में मिले:
यथैव पुष्पं प्रथमे विकासे समेत्य पातुं मधुपाः पतन्ति ।
एवं मनुष्यस्य विपत्तिकाले छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति ।।
(मृच्छकटिकम्, नवम् अंक, २६)
(यथा एव प्रथमे विकासे पुष्पं पातुं मधुपाः समेत्य पतन्ति, एवं मनुष्यस्य विपत्तिकाले छिद्रेषु अनर्थाः बहुलीभवन्ति ।)
अर्थात् किसी पुष्प के आरंभिक विकास के समय यानी उसके खिलने की आरंभिक अवस्था में उसमें निहित मधु का पान करने जिस प्रकार भौंरों के समूह उसे आ घेरते हैं, उसी प्रकार विपत्ति के समय जरा-सी चूकों के घटित होने पर अनेकों अनर्थ अर्थात् अनिष्ट एक साथ मनुष्य के ऊपर आ पहुंचती हैं । (छिद्र = दोष, अवगुण, भूल, चूक; अनर्थ = अनिष्ट, दुर्योग, अवांछित स्थिति; बहुलीभू = एक के बदले अनेक हो जाना ।)
मृच्छकटिकम् नाटक के बारे में दो शब्द अन्यत्र लिखे गये हैं । नाटक में उसके प्रमुख पात्र चारुदत्त (नगर का एक सुख्यात, गुणी और प्रतिष्ठित नागरिक) पर राजा के रखैल का भाई शकार नायिका वसंतसेना (चारुदत्त की प्रेमिका) की हत्या का नितांत झूठा आरोप लगाता है । वस्तुतः शकार ने स्वयं ही वसंतसेना की हत्या का प्रयास किया होता है और उसे मृत मानते हुए छोड़ जाता है । परंतु वह मरती नहीं और एक बौद्ध भिक्षुक उसको अपने आश्रम चिकित्सा-शुश्रूषा के लिए ले गया होता है । न्यायालय में न्यायाधिकारी के सामने शकार पूर्व में चारुदत्त के साथ हुई घटनाओं का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि वे उसके विरुद्ध परिस्थितिजन्य साक्ष्य के रूप में स्वीकारे जा सकें । चारुदत्त असत्य का सहारा लेकर उन घटनाओं को नकार नहीं पाता है, अतः न्यायालय की दृष्टि में दोषी सिद्ध हो जाता है । न्यायालय में चल रही बहस के समय चारुदत्त अपनी पूर्व की भूलों का स्मरण करते हुए उक्त श्लोक का स्वगत पाठन करते हुए नाटक में दिखाया गया है ।
नाटक मृच्छकटिकम् मुझे काफी दिलचस्प लगा । आज से एक-डेड़ हजार साल पहले रचित इस नाटक में तत्कालीन परिस्थितियों का जो वर्णन मिलता है उसमें अपने देश में आज व्याप्त सामाजिक-राजनैतिक-प्रशासनिक वास्तविकता की झलक देखने को मिलती है । उदाहरणार्थ, न्यायाधिकारी चारुदत्त के निर्दोष होने को समझता है, किंतु वह इतना साहस नहीं जुटा पाता है कि शकार के मनःप्रतिकूल निर्णय लेने के लिए प्रस्तुत हो सके । शकार का राजा का निकटस्थ होना न्यायाधिकारी के प्रति उसकी समर्पिता को प्रभावित किए बिना नहीं रहती ।
विपत्तियां क्या वास्तव में एक साथ आ पड़ती हैं ? शायद सदैव नहीं, परंतु यह संभावना तो रहती ही है कि जब आप किसी एक समस्या को सुलझाने में लग जाते हैं तो किसी अन्य समस्या का समाधान छूट जाता है और उसके समय पर हल न हो पाना नई-नई समस्याओं को जन्म दे जाता है । अन्य एक कारण यह भी हो सकता है कि जब आपके समक्ष कोई समस्या आ खड़ी होती है तो जिन मित्र-परिचितों पर आप भरोसा किये रहते हैं वे किसी न किसी बहाने आपसे दूर होने लगते हैं । तब आपको लगता है कि आप अकेले पड़ रहे हैं । मनोवैज्ञानिक कारणों से नई छोटी-सी अड़चनें भी आपको भारी नजर आने लगती हैं । मित्र-परिचित सहयोग के लिए प्रस्तुत हो जायें तो स्थिति तथा उसके प्रति दृष्टिकोण बदल जायें । – योगेन्द्र
लोभः पापस्य कारणम् (हितोपदेश) – लोभ से प्रेरित होती है ठगी
13 जून 2009 1 टिप्पणी
by योगेन्द्र जोशी in दर्शन, नीति, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति, हितोपदेश, Morals Tags: ठगी, तृष्णा, महाभारत, लोभ, हितोपदेश, greed, Hitopadesha, Mahabharata
इधर कुछ दिनों से टीवी समाचार चैनलों पर ठगी के मामलों की चर्चा सुनने को मिल रही हैं । बताया जा रहा है कि गुजरात के अशोक जडेजा का देश भर में ठगी का जाल फैला हुआ है । इस किस्से की चर्चा के एक-दो दिन बाद दिल्ली के सुभाष अग्रवाल के कारनामों की भी चर्चा होने लगी । ठगी के इन मामलों में वास्तविक तथ्य क्या हैं इसे टीवी दर्शकों द्वारा तय कर पाना संभव नहीं है । यह सभी जानते हैं कि ये चैनल पूरे प्रकरण को अक्सर सनसनीखेज तथा अतिरंजित बनाकर पेश करते हैं । फिर भी वे निराधार नहीं होने चाहिए यह माना जा सकता है ।
ठगी की घटनाएं हमारे समाज में आये दिन होती हैं । हर घटना का समाचार अखबार और टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित नहीं किया जाता है, लेकिन वे घटती रहती हैं । किसी को धन दुगुना-तिगुना करने के नाम पर ठगा जाता है, तो किसी को नौकरी दिलाने के नाम पर । किसी को अस्पताल में कारगर इलाज के नाम पर ठगा जाता है, तो किसी को सरकारी दस्तावेज बनाने के नाम पर, इत्यादि । कई नादान लोग बेवकूफ बनते हैं, तो कुछ गिने-चुने शातिर लोग बेवकूफ बना रहे होते हैं ।
कुछ मामले हैं जिनमें व्यक्ति का ठगा जाना समझ में आता है । अपने देश की अधिकांश जनता अनपढ़ तथा नियम-कानूनों से अनभिज्ञ रहती है । वे लोग कई मौकों पर दूसरों के झांसे में आ सकते हैं, विशेषतः सरकारी कामकाज के संदर्भ में । लेकिन जो लोग जेवर-जेवरात को बैठे-बैठे ही दूना करके देने का वादा करने वालों के चंगुल में फंसते हैं और जो धनराशि को अल्प काल में ही दुगुना-तिगुना करके लौटाने की बात करने वालों के झांसे में आते है उन्हें में मूर्ख तथा लोभी मानता हूं । जरा सोचने की बात है कि कोई व्यक्ति कैसे ऐसा चमत्कार कर सकता है ? और यदि किसी के पास ऐसी जादुई शक्ति है तो वह क्योंकर दूसरों पर इतना मेहरबान होने लगता है ? क्यों नहीं वह बिना कुछ लिए ही जनसेवा में ही लग जाता है ?
इस प्रकार की घटनाओं के पीछे लोभ एक, कदाचित् एकमेव, कारण रहता है ऐसी मेरी मान्यता है । लोभ ही है जो व्यक्ति को उचितानुचित का विचार त्यागकर धनसंपदा अर्जित करने को प्रेरित करता है । यह तो ठगी करने वाले की बात हुई । दूसरी तरफ लोभ ही है जो किसी व्यक्ति को ठगी करने वाले के द्वारा किए जा रहे दावे पर विश्वास करने को बाध्य करता है । गंभीरता से विचार करने और वस्तुस्थिति की पर्याप्त जानकारी हासिल किये बिना ही वह झांसे में आ जाता है ।
शिक्षाप्रद लघुकथाओं के संग्रह ‘हितोपदेश’ ग्रंथ में लोभ के बारे में कहा गया हैः
लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।
लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ।।
(हितोपदेश, मित्रलाभ, २७)
अर्थात् लोभ से क्रोध का भाव उपजता है, लोभ से कामना या इच्छा जागृत होती है, लोभ से ही व्यक्ति मोहित हो जाता है, यानी विवेक खो बैठता है, और वही व्यक्ति के नाश का कारण बनता है । वस्तुतः लोभ समस्त पाप का कारण है ।
इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया हैः
लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम् ।
तृषार्तो दुःखमाप्नोति परत्रेह च मानवः ।।
(हितोपदेश, मित्रलाभ, १४२)
अर्थात् लोभ से बुद्धि विचलित हो जाती है, लोभ सरलता से न बुझने वाली तृष्णा को जन्म देता है । जो तृष्णा से ग्रस्त होता है वह दुःख का भागीदार बनता है, इस लोक में और परलोक में भी ।
ग्रंथ में अन्यत्र यह वचन भी पढ़ने को मिलता हैः
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ते अध्रुवं नष्टमेव हि ।।
(हितोपदेश, मित्रलाभ, २१५)
अर्थात् जो व्यक्ति ध्रुव यानी जो सुनिश्चित् है उसकी अनदेखी करके उस वस्तु के पीछे भागता है जो अनिश्चित् हो, तो अनिष्ट होना ही है । निश्चित् को भी वह खो बैठता है और अनिश्चित् का ता पहले से ही कोई भरोसा नहीं रहता है । ठगी के मामलों में फंसे लोगों के बारे में यह पूर्णतः लागू होता । जिस जमा-पूंजी को निश्चित् तौर पर वे अपना कह सकते हैं उसको जब बिना सोचे-समझे वे दांव पर लगा दें, तो उससे वे हाथ धो बैठते हैं, और बदले में वांछित फल पाते नहीं हैं ।
इतना सब कहने का तात्पर्य यह है कि अविलंब अपनी धनसंपदा को दुगुना-तिगुना करने की चाहत से व्यक्ति को बचना चाहिए और उसे यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि कोई व्यक्ति कैसे धनवृद्धि के अपने अविश्वसनीय दावे को सफल कर सकता है ।
लोभ या तृष्णा यानी भौतिक धन-संपदा आदि के प्रति अदम्य चाहत के बारे में महाकाव्य महाभारत में भी काफी कुछ कहा गया है, जिनका संक्षिप्त उल्लेख मैंने इसी ब्लॉग में अन्यत्र (‘कभी न बुढ़ाने वाली तृष्णा …’ एवं ‘तृष्णा से मुक्ति भोग से नहीं …’) किया है । – योगेन्द्र

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