#कर सिर्फ ट्रेडर्स यानी वाणिज्यिक लोगों से लिया जाय।
उपकरणों से शिल्पकर्म रत #शूद्रों से कर न लिया जाय।
--------- ------------------------------------- ---------- ---
--------- ------------------------------------- ---------- ---
टैक्स लेना राज्य का कर्तव्य और अधिकार दोनों है, लेकिन कैसी सरकार टैक्स ले सकती है और किससे कितना ले सकती है, इसके भी सिद्धांत गढे गए हैं, पहले भी और हाल में भी।
ब्रिटिश जब कॉलोनी सम्राट हुवा करता था तब वहां के कुछ बड़े विद्वानों ने गैर जिम्मेदार सरकार को टैक्स न देने की बात की, थी जिनका नाम आज भी उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।
आज के संदर्भ में सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति जिसने टैक्सेशन का सकारण विरोध किया, था वो था डेविड हेनरी थोरौ जिसके सिविल diobedience के फार्मूले को गांधी ने भारत मे दमनकारी कुचक्री क्रूर बर्बर और Hypocrite ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रयोग किया। लेकिन चूंकि हम अनुवाद के मॉनसिक गुलाम है तो भाइयो ने उसे हिंसा और अहिंसा से जोड़ दिया।
बहरहाल ये लिंक पढ़िए जिसमे सिविल disobedience का सिद्धांत वर्णित है ।http://historyofmassachusetts.org/henry-david-thoreau-arre…/
यदि आप जॉन मोर जैसे फेक इंडोलॉजिस्ट द्वारा लिखित "ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट" के बजाय भारतीय संस्कृत ग्रंथों को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि वस्तुतः धर्मशास्त्र कहकर प्रचारित किये ग्रंथ सामाजिक शास्त्र है जो परिवर्तनशील जगत में जीने के दर्शन और सिद्धांत देते हैं। लेकिन चूंकि सनातन के अनुसार जगत परिवर्तनशील है इसलिए सामाजिक नियम और दर्शन भी परिवर्तित किये जाते रहे हैं समय समय पर - As and required टाइप से। कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ने वाले लोग जानते है कि कौटिल्य ने जब समाज के लिए नियम लिखे तो उन्होंने पूर्व के समाजशास्त्री ऋषियों के नियमो का उल्लेख करते हुए लिखा कि, उनके अनुसार ऐसा था लेकिन मेरे अनुसार ऐसा है। और भारतीय हिन्दू जनमानस उसको स्वीकार करता था।
लेकिन गुलाम मानसिकता के स्वतंत्र भारतीय चिंतक, अब्राहमिक मजहबों के उन सिद्धांत से प्रभावित रहे है जो ये कहते है कि होली बुक्स में लिखे गए पोलिटिकल मैनिफेस्टो अपरिवर्तनीय हैं, और उसी चश्मे से भारत को देखने समझने के अभ्यस्त हैं।
ज्ञातव्य है कि डॉ आंबेडकर की पुस्तक #WhoWereTheShudras जैसे गर्न्थो में जॉन मोर एम ए शेरिंग और मैक्समुलर जैसे फेक इंडोलॉजिस्ट और धर्मान्ध ईसाइयों के संदर्भो को ही आधार बनाया गया है।
मैकाले इन्ही भारतीय विद्वानो को "एलियंस और मूर्ख पिछलग्गू' कहा करता था।
मैकाले इन्ही भारतीय विद्वानो को "एलियंस और मूर्ख पिछलग्गू' कहा करता था।
यहां कर यानी टैक्स के सिद्धांतों का अतिप्राचीन संस्कृत ग्रंथ से उद्धारण देना चाहूंगा- जिसका समयकाल आप स्वयं तय कीजिये।
"स्वधर्मो विजयस्तस्य नाहवे स्यात परांमुखः।
शस्त्रेण वैश्यान रक्षित्वा धर्मयमाहरतबलिम्।।
शस्त्रेण वैश्यान रक्षित्वा धर्मयमाहरतबलिम्।।
राजा का धर्म है कि कि वह युद्ध मे विजयप्राप्त करे। पीठ दिखाकर पलायन करना उसके लिए सर्वथा अनुचित है। शास्त्र के अनुसार वही राजा प्रजा से कर ले सकता है जो प्रजा की रक्षा करता है।
धान्ये अष्टमम् विशाम् शुल्कम विशम् कार्षापणावरम।
कर्मोपकरणाः शूद्रा: कारवः शिल्पिनः तथा।।
कर्मोपकरणाः शूद्रा: कारवः शिल्पिनः तथा।।
संकटकाल में ( आपातकाल में सामान्य दिनों में नहीं) राजा को वैष्यों से धान्य के लाभ का आठवां भाग, स्वर्णादि के लाभ का बीसवां भाग कर के रूप में लेना चाहिए। किंतु शूद्र, शिल्पकारों, व बढ़ई आदि से कोई कर नहीं लेना चाहिए क्योंकि वे उपकरणों से कार्य करके जीवन यापन करते हैं।
#मनुषमृति : दशम अध्याय ; श्लोक संख्या 116, 117।
#मनुषमृति : दशम अध्याय ; श्लोक संख्या 116, 117।
नोट: स्पष्ट निर्देश है कि श्रमजीवी या श्रम शक्ति से कर संकटकाल में भी नही लेना चाहिए।
कर सिर्फ वाणिज्य करने वाले वाणिज्य शक्ति से ही लेना चाहिए।
कर सिर्फ वाणिज्य करने वाले वाणिज्य शक्ति से ही लेना चाहिए।
कौटिल्य ने उत्पाद पर टैक्स रेट 1/6 निर्धारित किया था। टैक्स उसी तरह हो जैसे सूर्य पानी से भाप बनाता है।
अंग्रेज इसे 1/3 से 1/2 तक ले गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी के समुद्री लुटेरों ने जब भारत मे 1757 मे टैक्स इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी छीनी तो ऐसा कोई भी मौका हांथ से जाने नहीं दिया , जहां से भारत को लूटा जा सकता हो। वही काम पूरी के जगन्नाथ मंदिर मे हुआ। वहाँ पर शासन और प्रशासन के नाम पर , तीर्थयात्रियों से टैक्स वसूलने मे भी उन्होने कोताही नहीं की। तीर्थयात्रियों की चार श्रेणी बनाई गई। चौथी श्रेनी मे वे लोग रखे गए जो गरीब थे। जिनसे ब्रिटिश कलेक्टर टैक्स न वसूल पाने के कारण उनको मंदिर मे घुसने नहीं देता था। ये काम वहाँ के पांडे पुजारी नहीं करते थे, बल्कि कलेक्टर और उसके गुर्गे ये काम करते थे।
( रेफ - Section 7 of Regulation IV of 1809 : Papers Relating to East India affairs )
( रेफ - Section 7 of Regulation IV of 1809 : Papers Relating to East India affairs )
इसी लिस्ट का उद्धरण देते हुये डॉ अंबेडकर ने 1932 मे ये हल्ला मचाया कि मंदिरों मे शूद्रों का प्रवेश वर्जित है। वो हल्ला ईसाई मिशनरियों द्वारा अंबेडकर भगवान को उद्धृत करके आज भी मचाया जा रहा है।
ज्ञातव्य हो कि 1850 से 1900 के बीच 5 करोड़ भारतीय अन्न के अभाव मे प्राण त्यागने को इस लिए मजबूर हुये क्योंकि उनका हजारों साल का मैनुफेक्चुरिंग का व्यवसाय नष्ट कर दिया गया था। बाकी बचे लोग किस स्थिति मे होंगे ये तो अंबेडकर भगवान ही बता सकते हैं। वो मंदिर जायंगे कि अपने और परिवार के लिए दो रोटी की व्यवस्था करेंगे ?
आज भी यदि कोई भी व्यक्ति यदि मंदिर जाता हैं और अस्व्च्छ होता है है तो मंदिर की देहरी डाँके बिना प्रभु को बाहर से प्रणाम करके चला आता है। और ये काम वो अपनी स्वेच्छा और पुरातन संस्कृति के कारण करता है , ण कि पुजारी के भय से।
जो लोग आज भी ये हल्ला मचाते हैं उनसे पूंछना चाहिए कि ऐसी कौन सी वेश भूषा पहन कर या सर मे सींग लगाकर आप मंदिर जाते हैं कि पुजारी दूर से पहचान लेता है कि आप शूद्र हैं ?
विवेकानंद ने कहा था - भूखे व्यक्ति को चाँद भी रोटी के टुकड़े की भांति दिखाई देता है।
विवेकानंद ने कहा था - भूखे व्यक्ति को चाँद भी रोटी के टुकड़े की भांति दिखाई देता है।
एक अन्य बात जो अंबेडकर वादी दलित अंग्रेजों की पूजा करते हैं, उनसे पूंछना चाहूँगा कि अंग्रेजों ने अपनी मौज मस्ती के लिए जो क्लब बनाए थे , उसमे भारतीय राजा महराजा भी नहीं प्रवेश कर पाते थे।
बाहर लिखा होता था -- Indian and Dogs are not allowed . मुझे लगता हैं कि उनही क्लबो के किसी चोर दरवाजे से शूद्रों को अंदर एंट्री अवश्य दी जाती रही होगी ?
ज्ञानवर्धन करें ?
बाहर लिखा होता था -- Indian and Dogs are not allowed . मुझे लगता हैं कि उनही क्लबो के किसी चोर दरवाजे से शूद्रों को अंदर एंट्री अवश्य दी जाती रही होगी ?
ज्ञानवर्धन करें ?
गुलाम मानसिकता का दुष्परिणाम तो भुगतना ही होगा।
No comments:
Post a Comment