दूसरी बात उस परम्ब्रंह की उपासना जब कोई करता है तो उसके चरण को ही प्रणाम कर चरणामृत लेता है , उसके मुह की उपासना नहीं न करता।
कौटिल्य ने लिखा - स्वधर्मों शूद्रस्य द्विजस्य सुश्रुषा वार्ता कारकुशीलव कर्मम च ।अर्थात सर्विस सैक्टर , मैनुफेक्चुरिंग ,एंजिनियरिंग, पशुपालन, खनिजदोहन और व्यापार की शिक्षा मे पारंगत होना ही शूद्र कर्म का हिस्सा है। यही वार्ता का अंग है।
अब इसमे कहीं भी किसी वर्ण विशेष को एक दूसरे से श्रेष्ठ घोसित नहीं किया गया है ।जैसे आज कार्यपालिका न्यायपालिका प्रशासन एक दूसरे से श्रेष्ठ नहीं एक दूसरे के पूरक हैं।
वर्ण व्यवस्था परस्पर पोषक और एक दूसरे पर निर्भर संस्था थी न कि ऊंच नीच आधारित।
जिस देश मे सर्वे भवन्तु सुखिनः, और वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष मंत्र रचे गए हों, वहां जन्मजात श्रेष्ठता की बार करना, निश्चित तौर पर उस संस्कृति पर आक्रान्ता संस्कृति का आरोपण मात्र हो सकता है।
धरमपाल जी ने अपनी पुस्तक The Beautiful Tree में 1830 का अंग्रेजों द्वारा संकलित एक डाटा दिया है जिसमे स्कूल जाने वाले शूद्र छत्रों की संख्या ब्रामहणो से चार गुणी थी।
तवेर्निएर 340 साल पहले कहता है कि शूद्र पदाति योद्धा थे , और उसने या अन्य किसी यात्री ने अछूत लोगों का जिक्र तक नहीं करता।
गणेश सखाराम देउसकर 1904 मे लिखते हैं कि 1875 से 1900 के बीच मे 2.5 करोड़ भारतीय अन्नाभाव मे भूख से प्राण त्याग देते हैं , ऐसा इस लिए नहीं हुआ था कि अन्न की कमी रही हो , ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अन्न खरीदने का उनकी जेब मे (बेरोजगारी के कारण) पैसा नहीं था ।
Will Durant 1930 मे The case for India मे, और J Sunderland ने "India in Bondage" में यही बात लिखते हैं कि 19 वे शताब्दी में 2.5 से 5 करोड़ लोग अन्न के अभाव से भूंख से इसलिए मर् जाते है क़ि देश की मैन्युफैक्चरिंग शक्ति बेरोजगार हो जाती है , और उसके पास अन्न खरीदने का पैसा नही था।
दोनों ही लेखको ने गनेश देउसकर के कथन की पुष्टि करते हुये लिखता है : कि "बेरोजगारी दूर करने हेतु लोग शहरों की ओर भागे कुछ लोगों को मिलों और खदानों मे काम मिल गया , बाकी बचे लोगों मे जो सौभाग्यशाली थे, उनको गोरों का मैला उठाने का काम मिल गया। क्योंकि अगर गुलाम इतने सस्ते हों तो सौचालय बनवाने का झंझट कौन पाले" ?
किसी भी देश मे सरकारी तंत्र द्वारा प्रायोजित ये आज तक का सबसे बड़ा जेनोसाइड है।
लेकिन 1946 में डॉ अंबेडकर लिखते हैं कि ऋग्वेद का पुरुषशूक्त एक क्षेपक है जो ब्रांहनों ने एक शाजिस के तहत बाद मे उसमे घुशेडा है , इसीलिए 20 वीं शताब्दी में अपार जनमानस की हालत दरिद्रों जैसी हो गई है जिसको शुद्र अतिशूद्र या अछूत कहते है । जो आज घृणित जीवन जीने को हजारो साल से मजबूर है ।
तथ्यों पर विश्वास किया जाय कि किसी के मनोमस्तिस्क के कल्पना की उड़ान पर ?
आइये इसकी जांच पड़ताल करें ।
"शूद्र एक घृणित" सम्बोधन कब हुआ ?
इसके दो पहलू हैं
(1 ) डॉ बुचनन ने 1807 में प्रकाशित ,अपनी पुस्तक में ये जिक्र किया है:
"..बंटर्स शूद्र थे , जो अपनी पवित्र वंशज से उत्पत्ति बताते हैं"।
देखिये बताने वालों के शब्दों में एक आत्म सम्मान और गर्व का पुट है।
अर्थात 1800 के आस पास तक शूद्र कुल में उत्पन्न होना , उतना ही सम्मानित था , जितना तथाकथित द्विज वर्ग ।इसके अलावा 1500 से 1800 के बीच के ढेर सारे यात्रा वित्रांत हैं ,जो यही बात बोलते हैं ..अगर आप कहेंगे तो उनको भी क्वोट कर दूंगा। फिर धूम फिर कर सुई वापस भारत के आर्थिक इतिहास पर आ जाता है।
1900 आते आते भारत के सकल घरेलु उत्पाद में 1750 की तुलना में 1200 प्रतिशत की घटोत्तरी हुई । 700 प्रतिशत लोग जो घरेलू उत्पाद के प्रोडूसर थे , उनके सर से छत और तन से कपडे छीन लिए गए और उनका परिवार भुखमरी और भिखारीपन की कगार पर पहुँच गया ।
अब उन्ही पवित्र शूद्रों के वंशजों की स्थिति अंग्रेजों के भारत के आर्थिक दोहन और घरेलू उद्योगों को विनष्ट किए जाने के कारण 150 सालों में upside डाउन हो गयी । अगर छ सात पीढ़ियों में शूद्र "रिचेस to रुग्स " की स्थिति में पहुँच गया , तो उसके प्रति भौतिक कारणों से समाज का दृष्टिकोण भी बदल गया।
जब एक अपर जनसमूह जिसकी रोजी रोटी का आधार हजारों साल से --"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च " के अनुसार मैनुफेक्चुरिंग करके जीवन यापन करना था , और जो भारत के आर्थिक जीडीपी की रीढ़ था , बेघर बेरोजगार होकर दरिद्रता की स्थिति मे जीवन बसर करने को मजबूर हुआ।
यही वर्ग हजारों सालों से भारत के अर्थजगत की रीढ़ हुआ करती थी । समाज में भौतिकता की प्रवृत्ति मैकाले के शिक्षा प्रभाव से बढ़ रही थी , और आध्यात्मिकता का ह्रास हो रहा था।
एक सोसिओलोगिस्ट प्रोफेसर John Campbell ओमान ने अपनी पुस्तक "Brahmans theism एंड Musalmaans " में लिखा .."कि ब्रम्हविद्या और पावर्टी ( अपरिग्रह ,,और गांधी के भेष भूसा ,,को कोई ब्रिटिश - पावर्टी ही मानेगा ) का सम्मान जिस तरह ख़त्म हो रहा है ,बहुत जल्दी वो समय आएगा जब भारत के लोग धन की पूजा ,पश्चिमी देश की तरह ही करेंगे।"
निश्चित तौर पर वह उस भारतीय समाज की बात कर रहा था जो मैकाले की शिक्षा से संस्कारित हो चुका था।
तो ऐसे सामजिक उथल पुथल में ये तबका सम्मानित तो नहीं ही रह जाएगा , घृणित ही समझा जाएगा । ये तो सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की देन है ।
(2) शूद्र शब्द दुबारा तब घृणित हुआ जब इस बेरोजगार बेघर हुए तबके को को बाइबिल के फ्रेमवर्क में फिट किया गया।
बाइबिल के अनुसार जेनेसिस (ओल्ड टेस्टामेंट ) में ये वर्णन है ,( Genesis 5:32-10:1New International Version (NIV) ) नूह Noah की उम्र 500 थी और उसके तीन पुत्र थे Shem, Ham and Japheth.। गॉड ने देखा की जिन मनुष्यों को उसने पैदा किया था, उनकी लडकिया खूबसूरत हैं और वे जिससे मन करता है उसी से शादी कर लेती हैं ,।गॉड ने ये भी देखा की मनुस्य दुष्ट हो गया है ,तो उसने महाप्रलय लाकर मनुष्यों को ख़त्म करने का निर्णय लिया । लेकिन नूह सत्चरित्र और नेक इंसान था तो , गॉड ने नूह से कहा कि सारे जीवों का एक जोड़ा लेकर नाव में बैठकर निकल जाओ,जिससे दुबारा दुनिया बसाया जा सके । जब महाप्रलय ख़त्म हुवा ,और धरती सूख गयी, तो नूह ने अंगूर की खेती की ,और उसकी वाइन (शराब ) बनाकर पीकर मदहोश हो गया ,और नंग धडंग होकर टेंट में गिर पड़ा । उसको Ham ने इस हालत में देखा तो बाहर जाकर अपने 2 अन्य भाइयों को बताया।
तो Shem, और Japheth.ने मुहं दूसरी तरफ घुमाकर कपडे से नूह को ढक दिया, और नूह को नंगा नहीं देखा ।
यानि सिर्फ Ham ने नूह को नंगा देखा ।जब शराब का नशा उतरा तो सारी बात नूह को पता चली तो उसने Ham को श्राप दिया की तुम्हारी आने वाली संतानें Shem, और Japheth.की आने वाली संतानों की गुलाम बनकर रहेंगी।
क्रिस्चियन धर्म गुरु और च्रिस्तिअनों ने इस जेनेसिस में वर्णित घटना को लेटर एंड स्पिरिट में पूरी दुनिया में लागू किया । बाइबिल में , टावर ऑफ़ बेबल ये भी वर्णन है , की गॉड ने नूह की संतानों से कहा की सारी दुनिया में फ़ैल जाओ ।
Monotheism वाले रिलिजन की एक बड़ी समस्या है की वे अपने ही रिलिजन को सच्चा रिलिजन मानते हैं ,और बाकियों को असत्य धर्म।
ईसाई धर्म गुरुओं ओरिजन (१८५-२५४ CE ) और गोल्डनबर्ग ने नूह के श्राप की आधार पर Ham के वंशजों को , को गुलामी और और उनके चमड़ी के काले रंग को नूह के श्राप से जोड़कर उसे रिलिजियस सैंक्टिटी दिलाया ।
काले रंग को उन्होंने अवर्ण,(discolored ) के नाम से सम्बोधित किया । उनकों घटिया , संस्कृति का वाहक और गुलामी के योग्य घोषित किया ।
जहाँ भी क्रिस्चियन गए ,और जिन देशों पर कब्ज़ा किया ,वहां के लोगो को चमड़ी रंग के आधार पर काले discolored लोगों को Hamites की संज्ञा से नवाजा।
ईसाइयत में नूह के श्राप के कारन Hamites असभ्य ,बर्बर और शासित होने योग्य बताया।
यही आजमाया हुवा नुस्का उन्होंने भारत पर भी अप्लाई किया ।बाहर से आये आर्य गोरे रंग के यानि द्विज सवर्ण, और यहाँ के मूल निवासी जिनको द्रविड़ शूद्र अछूत अतिशूद्र ,काले यानि अवर्ण। अर्थात बाइबिल के अनुसार Ham की संताने ,जो अनंत काल की गुलामी में झुलसने को मजबूर ,यानि "घृणित शूद्र " यानि डॉ आंबेडकर के शब्दों में "menial जॉब " करने को मजबूर।
अर्थात कौटिल्य के अनुसार शूद्रों कुछ धर्म --"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च ।" से गिरकर ...आंबेडकर जी के शब्दों में शूद्रों का धर्म (कर्तव्य ) --" "menial जॉब " में बदल जाता है १७५० से १९४६ आते आते।
शुश्रूषा या परिचर्या को जब् बाइबिल में खोजा गया तो वहां एक शब्द मिला
#Servitude और servile यानि हैम के वंशज जो Perpetual Slavery के लिए शापित थे ।
तभी से
#शूद्र शब्द को घृणित यानि मेनिअल जॉब वाला वर्ग मान लिया ।
इन डकैतों द्वारा प्रायोजित सरकारी नरसंहार और अछूत बनाये गए लोगों की तस्वीरें देखें।
सारी फोटुएं देखिये।
जिनके मन में इस बात की पीड़ा क्रोध और हीन भाव है कि उनके पूर्वजो का छुवा कोई खाता नहीं था, उनको ये समझ नही आता कि जो इस स्थिति में भी नही थे कि अपने इन मासूम बच्चों के मुहं में रोटी का टुकडॉ भी डाल सकें वे किसी दूसरे को अपने हाँथ का छुवा खिलाते और पिलाते क्या?
उनको उनसे बहुत लगाव है जिन्होंने इनके पूर्वजो का जेनोसाइड किया। आज मैकाले का ये बर्थडे मनाते हैं और सरस्वती जी के स्थान पर अंग्रेजी की पूजा कर रहे हैं।