Saturday, 19 October 2019

#चित्रगुप्त_डेकोडेड :

चित्रगुप्त एक पौराणिक चरित्र है, जो यमराज के यहां लोगों का डेटा मेन्टेन करते हैं। ऐसा लोग बोलते हैं। पुराण प्रतीकों की भाषा मे बात करते हैं।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि भारतीय इंटेलेकटुअल The Vinci Code के प्रतीकों पर तो सहज विस्वास कर लेते हैं, लेकिन पुराण के प्रतीकों को माइथोलॉजी बोलते हैं।
#कोलोनियल_हैंगओवर का असर है यह।
भारतीय सनातन सिद्धांत के अनुसार दैव ( गॉड ) जैसी कोई शक्ति नही है जो आपके प्रारब्ध को निर्धारित करती हो, जो आपको स्वर्ग या नरक में भेजती हो।
यह अब्राहमिक मजहब और रिलीजन का भारतीय मनस के ऊपर आरोपण है, यदि कोई भारतीय ऐसा समझता है तो।
दूसरी बात - यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे।
जो इस पिंड अर्थात शरीर में है, वही ब्रम्हांड में है। मनुष्य ब्रम्हांड का एक सैंपल है।
तो यमराज और चित्रगुप्त भी आपके इसी पिंड में रहते हैं। जिस दिन आप जन्म लेते हैं उसी दिन से दोनो सक्रिय हो जाते हैं। जन्म के साथ ही मृत्यु शुरू हो जाती है।
सृष्टि लय और प्रलय - ब्रम्हा विष्णु महेश यह तीन शक्तियां निरन्तर आपके अंदर काम करती रहती हैं।
विज्ञान भी सहमत हो गया है कि शरीर की नई नई कोशिकाएं, पुराने मृत कोशिकाओं को विस्थापित करती रहती हैं।
आप जो भी कर्म करते हैं -
" शरीर वाक मनोभि: यत कर्म आरभते नर:"- भगवतगीता
आप जितने भी कर्म शरीर वाणी और मन से करते हैं, उसी के अनुरुप इस जीवन मे आपको परिणाम मिलते हैं।
इसमे किसी भगवान को क्या लादना और लेना?
आप डॉक्टर बनने के लिए कर्म करोगे तो डॉक्टर बन जाओगे। वकील बनने के लिए कर्म करोगे तो वकील बन जाओगे। साधु या आर्य बनने की दिशा में कर्म करोगे तो साधु या आर्य बन जाओगे। असुर या अनार्य बनने के लिए कर्म करोगे तो असुर या अनार्य बन जाओगे।
लेकिन यह कर्म गुप्त चित्रों ( कोडेड या encripted messages ) के रूप में आपके मन मे संकलित रहते हैं - इसी को चित्र गुप्त कहा गया है पौराणिक कथाओं में।
आपके कर्म किसी तीसरे व्यक्ति को न याद हो लेकिन वह आपकी स्मृति में सदैव सुरक्षित रहती है। आपके मन की सारी बातें सिर्फ आपको पता होती हैं। आपकी पत्नी बेटा बेटी तक को नही पता होती आपके मन की बात।
और किसी भगवान को आपके मन से कुछ लेना लादना है नहीं। उसको तो आप तभी समझ पाएंगे जब आपके मन से समस्त कोडेड मैसेज विलुप्त हो जाएं।
आपके मन मे संकलित वासनाओं की संकलित डेटा के साथ जब आपकी मृत्यु होती है, अर्थात जब यमराज के काले भैंसे पर आप सवार होते हैं तो उसी घटना को मृत्य सम्पन्न होना कहते हैं। जैसे आप किसी समारोह के खत्म होने पर कहते हैं कि समारोह सम्पन्न हुवा।
आपके मन से संगृहीत encripted messages के अनुरूप आपको नया जीवन मिलता है जिसको प्रारब्ध या कर्म संस्कार भी कहते हैं। अब आप नए जीवन चक्र में प्रवेश करते हैं।
चित्रगुप्त का बस यही अर्थ है।
और यमराज का भी।
आपने कीड़ो की लाइफ साईकल पढ़ी है न।
उसमे अविस्वास करते हो ?
नही।
तो फिर इस जीवन मृत्य के साईकल में विस्वास क्यों नही करते?
पिछली पोस्ट पर उठी कुछ जिज्ञासाओं का उत्तर है यह पोस्ट।
तुलसीदास लिखते हैं :
नहिं कोऊ सुख दुख कर दाता।
निज कृत कर्म भोग सुनु भ्राता।।

#शूद्र_एक_घृणित_सम्बोधन_कब_हुआ ,इसके दो पहलू हैं

"#शूद्र_एक_घृणित_सम्बोधन_कब_हुआ ,इसके दो पहलू हैं
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ऋग्वेद मे लिखा है - ब्राम्हण्म मुखम आसीत ..... शूद्रह अजायत । अर्थात परंब्रम्ह की जिह्वा है ब्रामहण । यानि जो तपस्या (रेसेर्च ) से जो मांनव कल्याण हेतु जो मंत्र खोजे जाते है , उसी को जिह्वा से जगत मे प्रचारित प्रसारित करने वाले को ही ब्रामहण कहते हैं ।
दूसरी बात उस परम्ब्रंह की उपासना जब कोई करता है तो उसके चरण को ही प्रणाम कर चरणामृत लेता है , उसके मुह की उपासना नहीं न करता।
कौटिल्य ने लिखा - स्वधर्मों शूद्रस्य द्विजस्य सुश्रुषा वार्ता कारकुशीलव कर्मम च ।अर्थात सर्विस सैक्टर , मैनुफेक्चुरिंग ,एंजिनियरिंग, पशुपालन, खनिजदोहन और व्यापार की शिक्षा मे पारंगत होना ही शूद्र कर्म का हिस्सा है। यही वार्ता का अंग है।
अब इसमे कहीं भी किसी वर्ण विशेष को एक दूसरे से श्रेष्ठ घोसित नहीं किया गया है ।जैसे आज कार्यपालिका न्यायपालिका प्रशासन एक दूसरे से श्रेष्ठ नहीं एक दूसरे के पूरक हैं।
वर्ण व्यवस्था परस्पर पोषक और एक दूसरे पर निर्भर संस्था थी न कि ऊंच नीच आधारित।
जिस देश मे सर्वे भवन्तु सुखिनः, और वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष मंत्र रचे गए हों, वहां जन्मजात श्रेष्ठता की बार करना, निश्चित तौर पर उस संस्कृति पर आक्रान्ता संस्कृति का आरोपण मात्र हो सकता है।

धरमपाल जी ने अपनी पुस्तक The Beautiful Tree में 1830 का अंग्रेजों द्वारा संकलित एक डाटा दिया है जिसमे स्कूल जाने वाले शूद्र छत्रों की संख्या ब्रामहणो से चार गुणी थी।
तवेर्निएर 340 साल पहले कहता है कि शूद्र पदाति योद्धा थे , और उसने या अन्य किसी यात्री ने अछूत लोगों का जिक्र तक नहीं करता।
गणेश सखाराम देउसकर 1904 मे लिखते हैं कि 1875 से 1900 के बीच मे 2.5 करोड़ भारतीय अन्नाभाव मे भूख से प्राण त्याग देते हैं , ऐसा इस लिए नहीं हुआ था कि अन्न की कमी रही हो , ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अन्न खरीदने का उनकी जेब मे (बेरोजगारी के कारण) पैसा नहीं था ।
Will Durant 1930 मे The case for India मे, और J Sunderland ने "India in Bondage" में यही बात लिखते हैं कि 19 वे शताब्दी में 2.5 से 5 करोड़ लोग अन्न के अभाव से भूंख से इसलिए मर् जाते है क़ि देश की मैन्युफैक्चरिंग शक्ति बेरोजगार हो जाती है , और उसके पास अन्न खरीदने का पैसा नही था।
दोनों ही लेखको ने गनेश देउसकर के कथन की पुष्टि करते हुये लिखता है : कि "बेरोजगारी दूर करने हेतु लोग शहरों की ओर भागे कुछ लोगों को मिलों और खदानों मे काम मिल गया , बाकी बचे लोगों मे जो सौभाग्यशाली थे, उनको गोरों का मैला उठाने का काम मिल गया। क्योंकि अगर गुलाम इतने सस्ते हों तो सौचालय बनवाने का झंझट कौन पाले" ?
किसी भी देश मे सरकारी तंत्र द्वारा प्रायोजित ये आज तक का सबसे बड़ा जेनोसाइड है।
लेकिन 1946 में डॉ अंबेडकर लिखते हैं कि ऋग्वेद का पुरुषशूक्त एक क्षेपक है जो ब्रांहनों ने एक शाजिस के तहत बाद मे उसमे घुशेडा है , इसीलिए 20 वीं शताब्दी में अपार जनमानस की हालत दरिद्रों जैसी हो गई है जिसको शुद्र अतिशूद्र या अछूत कहते है । जो आज घृणित जीवन जीने को हजारो साल से मजबूर है ।
तथ्यों पर विश्वास किया जाय कि किसी के मनोमस्तिस्क के कल्पना की उड़ान पर ?
आइये इसकी जांच पड़ताल करें ।
"शूद्र एक घृणित" सम्बोधन कब हुआ ?
इसके दो पहलू हैं
(1 ) डॉ बुचनन ने 1807 में प्रकाशित ,अपनी पुस्तक में ये जिक्र किया है:
"..बंटर्स शूद्र थे , जो अपनी पवित्र वंशज से उत्पत्ति बताते हैं"।
देखिये बताने वालों के शब्दों में एक आत्म सम्मान और गर्व का पुट है।
अर्थात 1800 के आस पास तक शूद्र कुल में उत्पन्न होना , उतना ही सम्मानित था , जितना तथाकथित द्विज वर्ग ।इसके अलावा 1500 से 1800 के बीच के ढेर सारे यात्रा वित्रांत हैं ,जो यही बात बोलते हैं ..अगर आप कहेंगे तो उनको भी क्वोट कर दूंगा। फिर धूम फिर कर सुई वापस भारत के आर्थिक इतिहास पर आ जाता है।
1900 आते आते भारत के सकल घरेलु उत्पाद में 1750 की तुलना में 1200 प्रतिशत की घटोत्तरी हुई । 700 प्रतिशत लोग जो घरेलू उत्पाद के प्रोडूसर थे , उनके सर से छत और तन से कपडे छीन लिए गए और उनका परिवार भुखमरी और भिखारीपन की कगार पर पहुँच गया ।
अब उन्ही पवित्र शूद्रों के वंशजों की स्थिति अंग्रेजों के भारत के आर्थिक दोहन और घरेलू उद्योगों को विनष्ट किए जाने के कारण 150 सालों में upside डाउन हो गयी । अगर छ सात पीढ़ियों में शूद्र "रिचेस to रुग्स " की स्थिति में पहुँच गया , तो उसके प्रति भौतिक कारणों से समाज का दृष्टिकोण भी बदल गया।
जब एक अपर जनसमूह जिसकी रोजी रोटी का आधार हजारों साल से --"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च " के अनुसार मैनुफेक्चुरिंग करके जीवन यापन करना था , और जो भारत के आर्थिक जीडीपी की रीढ़ था , बेघर बेरोजगार होकर दरिद्रता की स्थिति मे जीवन बसर करने को मजबूर हुआ।
यही वर्ग हजारों सालों से भारत के अर्थजगत की रीढ़ हुआ करती थी । समाज में भौतिकता की प्रवृत्ति मैकाले के शिक्षा प्रभाव से बढ़ रही थी , और आध्यात्मिकता का ह्रास हो रहा था।
एक सोसिओलोगिस्ट प्रोफेसर John Campbell ओमान ने अपनी पुस्तक "Brahmans theism एंड Musalmaans " में लिखा .."कि ब्रम्हविद्या और पावर्टी ( अपरिग्रह ,,और गांधी के भेष भूसा ,,को कोई ब्रिटिश - पावर्टी ही मानेगा ) का सम्मान जिस तरह ख़त्म हो रहा है ,बहुत जल्दी वो समय आएगा जब भारत के लोग धन की पूजा ,पश्चिमी देश की तरह ही करेंगे।"
निश्चित तौर पर वह उस भारतीय समाज की बात कर रहा था जो मैकाले की शिक्षा से संस्कारित हो चुका था।
तो ऐसे सामजिक उथल पुथल में ये तबका सम्मानित तो नहीं ही रह जाएगा , घृणित ही समझा जाएगा । ये तो सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की देन है ।
(2) शूद्र शब्द दुबारा तब घृणित हुआ जब इस बेरोजगार बेघर हुए तबके को को बाइबिल के फ्रेमवर्क में फिट किया गया।
बाइबिल के अनुसार जेनेसिस (ओल्ड टेस्टामेंट ) में ये वर्णन है ,( Genesis 5:32-10:1New International Version (NIV) ) नूह Noah की उम्र 500 थी और उसके तीन पुत्र थे Shem, Ham and Japheth.। गॉड ने देखा की जिन मनुष्यों को उसने पैदा किया था, उनकी लडकिया खूबसूरत हैं और वे जिससे मन करता है उसी से शादी कर लेती हैं ,।गॉड ने ये भी देखा की मनुस्य दुष्ट हो गया है ,तो उसने महाप्रलय लाकर मनुष्यों को ख़त्म करने का निर्णय लिया । लेकिन नूह सत्चरित्र और नेक इंसान था तो , गॉड ने नूह से कहा कि सारे जीवों का एक जोड़ा लेकर नाव में बैठकर निकल जाओ,जिससे दुबारा दुनिया बसाया जा सके । जब महाप्रलय ख़त्म हुवा ,और धरती सूख गयी, तो नूह ने अंगूर की खेती की ,और उसकी वाइन (शराब ) बनाकर पीकर मदहोश हो गया ,और नंग धडंग होकर टेंट में गिर पड़ा । उसको Ham ने इस हालत में देखा तो बाहर जाकर अपने 2 अन्य भाइयों को बताया।
तो Shem, और Japheth.ने मुहं दूसरी तरफ घुमाकर कपडे से नूह को ढक दिया, और नूह को नंगा नहीं देखा ।
यानि सिर्फ Ham ने नूह को नंगा देखा ।जब शराब का नशा उतरा तो सारी बात नूह को पता चली तो उसने Ham को श्राप दिया की तुम्हारी आने वाली संतानें Shem, और Japheth.की आने वाली संतानों की गुलाम बनकर रहेंगी।
क्रिस्चियन धर्म गुरु और च्रिस्तिअनों ने इस जेनेसिस में वर्णित घटना को लेटर एंड स्पिरिट में पूरी दुनिया में लागू किया । बाइबिल में , टावर ऑफ़ बेबल ये भी वर्णन है , की गॉड ने नूह की संतानों से कहा की सारी दुनिया में फ़ैल जाओ ।
Monotheism वाले रिलिजन की एक बड़ी समस्या है की वे अपने ही रिलिजन को सच्चा रिलिजन मानते हैं ,और बाकियों को असत्य धर्म।
ईसाई धर्म गुरुओं ओरिजन (१८५-२५४ CE ) और गोल्डनबर्ग ने नूह के श्राप की आधार पर Ham के वंशजों को , को गुलामी और और उनके चमड़ी के काले रंग को नूह के श्राप से जोड़कर उसे रिलिजियस सैंक्टिटी दिलाया ।
काले रंग को उन्होंने अवर्ण,(discolored ) के नाम से सम्बोधित किया । उनकों घटिया , संस्कृति का वाहक और गुलामी के योग्य घोषित किया ।
जहाँ भी क्रिस्चियन गए ,और जिन देशों पर कब्ज़ा किया ,वहां के लोगो को चमड़ी रंग के आधार पर काले discolored लोगों को Hamites की संज्ञा से नवाजा।
ईसाइयत में नूह के श्राप के कारन Hamites असभ्य ,बर्बर और शासित होने योग्य बताया।
यही आजमाया हुवा नुस्का उन्होंने भारत पर भी अप्लाई किया ।बाहर से आये आर्य गोरे रंग के यानि द्विज सवर्ण, और यहाँ के मूल निवासी जिनको द्रविड़ शूद्र अछूत अतिशूद्र ,काले यानि अवर्ण। अर्थात बाइबिल के अनुसार Ham की संताने ,जो अनंत काल की गुलामी में झुलसने को मजबूर ,यानि "घृणित शूद्र " यानि डॉ आंबेडकर के शब्दों में "menial जॉब " करने को मजबूर।
अर्थात कौटिल्य के अनुसार शूद्रों कुछ धर्म --"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च ।" से गिरकर ...आंबेडकर जी के शब्दों में शूद्रों का धर्म (कर्तव्य ) --" "menial जॉब " में बदल जाता है १७५० से १९४६ आते आते।
शुश्रूषा या परिचर्या को जब् बाइबिल में खोजा गया तो वहां एक शब्द मिला #Servitude और servile यानि हैम के वंशज जो Perpetual Slavery के लिए शापित थे ।
तभी से #शूद्र शब्द को घृणित यानि मेनिअल जॉब वाला वर्ग मान लिया ।
इन डकैतों द्वारा प्रायोजित सरकारी नरसंहार और अछूत बनाये गए लोगों की तस्वीरें देखें।
सारी फोटुएं देखिये।
जिनके मन में इस बात की पीड़ा क्रोध और हीन भाव है कि उनके पूर्वजो का छुवा कोई खाता नहीं था, उनको ये समझ नही आता कि जो इस स्थिति में भी नही थे कि अपने इन मासूम बच्चों के मुहं में रोटी का टुकडॉ भी डाल सकें वे किसी दूसरे को अपने हाँथ का छुवा खिलाते और पिलाते क्या?
उनको उनसे बहुत लगाव है जिन्होंने इनके पूर्वजो का जेनोसाइड किया। आज मैकाले का ये बर्थडे मनाते हैं और सरस्वती जी के स्थान पर अंग्रेजी की पूजा कर रहे हैं।

#विचार_शोधन :

यदि यह समझ मे आ जाय कि हमारे विचार हमारे नहीं हैं, वे बाहर से संग्रहीत सूचनाएं मात्र हैं, तो उनके प्रति आसक्ति कम हो जाती है।
इन सूचनाओं को अपना समझना और उनके प्रति घोर आसक्ति ही हमारे मस्तिष्क में समस्त उपद्रव की जड़ है।
यह मैं फेसबुक पर भी देखता हूँ। निजी जीवन मे भी। और अपने बैच के व्हाट्सएप ग्रुप में भी।
हमारे समस्त ह्यूमन सिस्टम में यदि कोई सबसे महत्वपूर्ण चीज है तो वह है यह शरीर और उसके माध्यम से जिया जाने वाला जीवन।
जीवन को अनुभव करने के लिए समस्त सूचनाओं से आसक्ति खत्म करने की आवश्यकता होती है।
ध्यान रहे। सूचना लेने से परहेज बरतने की बात नही कर रहा, उसके प्रति आसक्ति, अपनापन खत्म करने की बात कर रहा हूँ। क्योंकि सूचनाएं बाहर से लेना बंद भी कर दोगे सप्रयास तो भी लोग सूचनाएं हमारे ऊपर प्रेषित करते रहेंगे।
क्योंकि हमारे मन के काम करने की एक ही तकनीक है - समस्त वस्तुवों, व्यक्तियों, भावनाओं और विचारों के प्रति, जिनसे हमारा साक्षात्कार होता है, उनके प्रति राग या द्वेष।
लाइक या dislike.
यह बात तुरंत हमारे मन मे आती है - इसी को प्रतिक्रिया कहते हैं। आवश्यकता है प्रति संवाद की। प्रतिक्रिया तो मन का कार्य है। प्रति संवाद विवेक का काम है।
यही बात भगवान कृष्ण भगवतगीता में कह रहे हैं:
इंद्रियस्य इंद्रियस्य अर्थेषु राग द्वेष व्यवस्थितौ।
तयो न वशं आगच्छेत तौ हि अस्य परिपंथनौ।।
हमारे मन मे सदैव राग और द्वेष का ही भाव रहता है अर्थात हम सदैव प्रेज्यूडिस रहते हैं। यही जीवन को अनुभव करने में सबसे बड़ी बाधा है।
यही तप है, यही शम है, यही दम है।
यही पूजा और तपस्या है।
इतना आसान नहीं है इसे समझना और इसका अनुपालन करना।
लेकिन क ख ग घ पढना लिखना और समझना भी आसान नही था। भूल गए कि क को समझने के लिये कबूतर भी पढना पड़ता था?
©त्रिभुवन सिंह

#मनु_महाराज_का_मनुवादी_आदेश:उपकरणों से शिल्पकर्म रत #शूद्रों से कर न लिया जाय।

#कर सिर्फ ट्रेडर्स यानी वाणिज्यिक लोगों से लिया जाय।
उपकरणों से शिल्पकर्म रत #शूद्रों से कर न लिया जाय।
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टैक्स लेना राज्य का कर्तव्य और अधिकार दोनों है, लेकिन कैसी सरकार टैक्स ले सकती है और किससे कितना ले सकती है, इसके भी सिद्धांत गढे गए हैं, पहले भी और हाल में भी।
ब्रिटिश जब कॉलोनी सम्राट हुवा करता था तब वहां के कुछ बड़े विद्वानों ने गैर जिम्मेदार सरकार को टैक्स न देने की बात की, थी जिनका नाम आज भी उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।
आज के संदर्भ में सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति जिसने टैक्सेशन का सकारण विरोध किया, था वो था डेविड हेनरी थोरौ जिसके सिविल diobedience के फार्मूले को गांधी ने भारत मे दमनकारी कुचक्री क्रूर बर्बर और Hypocrite ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रयोग किया। लेकिन चूंकि हम अनुवाद के मॉनसिक गुलाम है तो भाइयो ने उसे हिंसा और अहिंसा से जोड़ दिया।
बहरहाल ये लिंक पढ़िए जिसमे सिविल disobedience का सिद्धांत वर्णित है ।http://historyofmassachusetts.org/henry-david-thoreau-arre…/
यदि आप जॉन मोर जैसे फेक इंडोलॉजिस्ट द्वारा लिखित "ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट" के बजाय भारतीय संस्कृत ग्रंथों को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि वस्तुतः धर्मशास्त्र कहकर प्रचारित किये ग्रंथ सामाजिक शास्त्र है जो परिवर्तनशील जगत में जीने के दर्शन और सिद्धांत देते हैं। लेकिन चूंकि सनातन के अनुसार जगत परिवर्तनशील है इसलिए सामाजिक नियम और दर्शन भी परिवर्तित किये जाते रहे हैं समय समय पर - As and required टाइप से। कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ने वाले लोग जानते है कि कौटिल्य ने जब समाज के लिए नियम लिखे तो उन्होंने पूर्व के समाजशास्त्री ऋषियों के नियमो का उल्लेख करते हुए लिखा कि, उनके अनुसार ऐसा था लेकिन मेरे अनुसार ऐसा है। और भारतीय हिन्दू जनमानस उसको स्वीकार करता था।
लेकिन गुलाम मानसिकता के स्वतंत्र भारतीय चिंतक, अब्राहमिक मजहबों के उन सिद्धांत से प्रभावित रहे है जो ये कहते है कि होली बुक्स में लिखे गए पोलिटिकल मैनिफेस्टो अपरिवर्तनीय हैं, और उसी चश्मे से भारत को देखने समझने के अभ्यस्त हैं।
ज्ञातव्य है कि डॉ आंबेडकर की पुस्तक #WhoWereTheShudras जैसे गर्न्थो में जॉन मोर एम ए शेरिंग और मैक्समुलर जैसे फेक इंडोलॉजिस्ट और धर्मान्ध ईसाइयों के संदर्भो को ही आधार बनाया गया है।
मैकाले इन्ही भारतीय विद्वानो को "एलियंस और मूर्ख पिछलग्गू' कहा करता था।
यहां कर यानी टैक्स के सिद्धांतों का अतिप्राचीन संस्कृत ग्रंथ से उद्धारण देना चाहूंगा- जिसका समयकाल आप स्वयं तय कीजिये।
"स्वधर्मो विजयस्तस्य नाहवे स्यात परांमुखः।
शस्त्रेण वैश्यान रक्षित्वा धर्मयमाहरतबलिम्।।
राजा का धर्म है कि कि वह युद्ध मे विजयप्राप्त करे। पीठ दिखाकर पलायन करना उसके लिए सर्वथा अनुचित है। शास्त्र के अनुसार वही राजा प्रजा से कर ले सकता है जो प्रजा की रक्षा करता है।
धान्ये अष्टमम् विशाम् शुल्कम विशम् कार्षापणावरम।
कर्मोपकरणाः शूद्रा: कारवः शिल्पिनः तथा।।
संकटकाल में ( आपातकाल में सामान्य दिनों में नहीं) राजा को वैष्यों से धान्य के लाभ का आठवां भाग, स्वर्णादि के लाभ का बीसवां भाग कर के रूप में लेना चाहिए। किंतु शूद्र, शिल्पकारों, व बढ़ई आदि से कोई कर नहीं लेना चाहिए क्योंकि वे उपकरणों से कार्य करके जीवन यापन करते हैं।
#मनुषमृति : दशम अध्याय ; श्लोक संख्या 116, 117।
नोट: स्पष्ट निर्देश है कि श्रमजीवी या श्रम शक्ति से कर संकटकाल में भी नही लेना चाहिए।
कर सिर्फ वाणिज्य करने वाले वाणिज्य शक्ति से ही लेना चाहिए।
कौटिल्य ने उत्पाद पर टैक्स रेट 1/6 निर्धारित किया था। टैक्स उसी तरह हो जैसे सूर्य पानी से भाप बनाता है।
अंग्रेज इसे 1/3 से 1/2 तक ले गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी के समुद्री लुटेरों ने जब भारत मे 1757 मे टैक्स इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी छीनी तो ऐसा कोई भी मौका हांथ से जाने नहीं दिया , जहां से भारत को लूटा जा सकता हो। वही काम पूरी के जगन्नाथ मंदिर मे हुआ। वहाँ पर शासन और प्रशासन के नाम पर , तीर्थयात्रियों से टैक्स वसूलने मे भी उन्होने कोताही नहीं की। तीर्थयात्रियों की चार श्रेणी बनाई गई। चौथी श्रेनी मे वे लोग रखे गए जो गरीब थे। जिनसे ब्रिटिश कलेक्टर टैक्स न वसूल पाने के कारण उनको मंदिर मे घुसने नहीं देता था। ये काम वहाँ के पांडे पुजारी नहीं करते थे, बल्कि कलेक्टर और उसके गुर्गे ये काम करते थे।
( रेफ - Section 7 of Regulation IV of 1809 : Papers Relating to East India affairs )
इसी लिस्ट का उद्धरण देते हुये डॉ अंबेडकर ने 1932 मे ये हल्ला मचाया कि मंदिरों मे शूद्रों का प्रवेश वर्जित है। वो हल्ला ईसाई मिशनरियों द्वारा अंबेडकर भगवान को उद्धृत करके आज भी मचाया जा रहा है।
ज्ञातव्य हो कि 1850 से 1900 के बीच 5 करोड़ भारतीय अन्न के अभाव मे प्राण त्यागने को इस लिए मजबूर हुये क्योंकि उनका हजारों साल का मैनुफेक्चुरिंग का व्यवसाय नष्ट कर दिया गया था। बाकी बचे लोग किस स्थिति मे होंगे ये तो अंबेडकर भगवान ही बता सकते हैं। वो मंदिर जायंगे कि अपने और परिवार के लिए दो रोटी की व्यवस्था करेंगे ?
आज भी यदि कोई भी व्यक्ति यदि मंदिर जाता हैं और अस्व्च्छ होता है है तो मंदिर की देहरी डाँके बिना प्रभु को बाहर से प्रणाम करके चला आता है। और ये काम वो अपनी स्वेच्छा और पुरातन संस्कृति के कारण करता है , ण कि पुजारी के भय से।
जो लोग आज भी ये हल्ला मचाते हैं उनसे पूंछना चाहिए कि ऐसी कौन सी वेश भूषा पहन कर या सर मे सींग लगाकर आप मंदिर जाते हैं कि पुजारी दूर से पहचान लेता है कि आप शूद्र हैं ?
विवेकानंद ने कहा था - भूखे व्यक्ति को चाँद भी रोटी के टुकड़े की भांति दिखाई देता है।
एक अन्य बात जो अंबेडकर वादी दलित अंग्रेजों की पूजा करते हैं, उनसे पूंछना चाहूँगा कि अंग्रेजों ने अपनी मौज मस्ती के लिए जो क्लब बनाए थे , उसमे भारतीय राजा महराजा भी नहीं प्रवेश कर पाते थे।
बाहर लिखा होता था -- Indian and Dogs are not allowed . मुझे लगता हैं कि उनही क्लबो के किसी चोर दरवाजे से शूद्रों को अंदर एंट्री अवश्य दी जाती रही होगी ?
ज्ञानवर्धन करें ?
गुलाम मानसिकता का दुष्परिणाम तो भुगतना ही होगा।

Monday, 7 October 2019

#ब्रम्हानिस्म_और_कास्ट : एक अभारतीय और औपनिवेशिक दस्युवों द्वारा रचित अवधारणा।

#ब्रम्हानिस्म_और_कास्ट : एक अभारतीय और औपनिवेशिक दस्युवों द्वारा रचित अवधारणा।
#ब्रम्हानिस्म शब्द का प्रयोग ईसाई मिशनरियों ने शुरू किया था। रोबर्ट de निबोली अपने आपको रोमन सन्यासी बताकर हिन्दू समाज मे धर्म परिवर्तन की सेंध लगाना चाहता था।
एक मिशनरी ईसाई मोनिर एंड मोनिर, जिसने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत की एकमात्र उपलब्ध अकादमिक पोस्ट बोडेन चेयर ऑफ संस्कृत के लिए, महान संस्कृतज्ञ मैक्समुलर को पराजित करके वह सीट हथियाया था। वह लिखता है "जब ब्रम्हानिस्म के शक्तिशाली किले को कमजोर कर दिया जाय तो ईसाइयत के सैनिक एक बार मे धावा बोलकर उसको समाप्त कर दें"।
लेकिन भारत मे जाति नामक संस्था के जीवित रहते यह सम्भव नही था। क्योंकि जाति एक विस्तारित वंश वृक्ष या समुदाय हुवा करता था, जिसको प्रशासित और नियंत्रित करने का उत्तरदायित्व उसी समुदाय के द्वारा चुने हुए बुजुर्ग करते थे। वह ईसाइयत के प्रवेश के लिए अभेद्य किला था। क्योंकि धर्म परिवर्तित व्यक्ति को तुरन्त जाति बाहर किया जाता था।
इसीलिए मैक्समुलर नामक फ़ण्डामेंटालिस्ट ईसाई ने अपना अनुभव लिखा:
" जाति ...... धर्म परिवर्तन में सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन हो सकता है कि यह कभी पूरे समुदाय के धर्म परिवर्तन हेतु शक्तिशाली इंजन की तरह काम करे"।
मैक्समुलर ने 1859 में #आर्यन_अफवाह नामक फिक्शन की रचना किया जिसको फेक साइंस में विज्ञान की तरह प्रसारित प्रचारित किया गया।
इसलिए जाति को हिंदूइस्म का विलेन बोलकर प्रसारित करने की योजना बनायी गयी। इससे ब्राम्हण और जाति दोनो को ठिकाने लगाया जा सकता था।
1872 में "कास्ट एंड ट्राइब्स ऑफ इंडिया" के लेखक एम ए शेरिंग नामक धर्मान्ध और फ़ण्डामेंटालिस्ट पादरी लिखता है:
" कास्ट हिंदुओं के पूरे धार्मिकता का वर्णन करती है। कास्ट ने ही हिंदुओं को गुलाम बनाया है और यह 'इन सहज विश्वासी गुलाम हिन्दू मनोमस्तिष्क ने ही सत्ता और अच्छे उपहारों के प्यासे दुस्ट ब्राम्हणो ( Wily Brahmins) को स्वर्णिम अवसर प्रदान किया है। ये दुस्ट ब्राम्हण ही विशेष दोषी हैं। ब्राम्हण न सिर्फ दुस्ट है वरन 'अहंकारी' घमंडी, स्वार्थी,अत्याचारी, आपस मे सांठ- गांठ करने वाला, और महत्वाकांक्षी है। शेरिंग इस बात पर दृढ़ था वैदिक काल के बाद जाति की उत्पत्ति निश्चित तौर पर ब्राम्हणो का षड्यंत्र था। " कास्ट की उत्पत्ति के लिए ब्राम्हण उत्तरदायी हैं। यह उसी का अविष्कार है"।
इस तरह के सतही और निराधार गालियां का साँचा ( टेमपलेट) तैयार किया गया जो आज तक काम कर रहा है।
आगे चलकर मैक्समुलर के आर्यन अफवाह के सांचे को हिन्दू समाज पर फिट किया गया तो HH Risley जैसे अनेक रेसिस्ट फ़ण्डामेंटालिस्ट ईसाई शासकों ने इसी तरह के अन्य फेक न्यूज़ की रचना किया।
एक साथ उन्होंने दो शिकार किया - हिन्दू समाज की मेधाशक्ति को गाली देकर उसे निम्न प्रमाणित किया। और समाज के आंतरिक ग्लू "जाति" को निम्न और ब्राम्हणो के द्वारा रचित निम्न सामाजिक संरचना बताकर उस जाति नामक उस अभेद्य दुर्ग को तोड़ने में सफल रहे जिसके जीवित रहते ईसाइयत का हिन्दू समाज मे प्रवेश सम्भव नही था।
आगे चलकर अम्बेडकर जैसे "एलियंस और स्टूपिड प्रोटागोनिस्ट्स" पैदा होंगे जो फ़ण्डामेंटलिस्ट ईसाइयों के बिछाए गए नरेटिव के जाल में फंसकर #AnnihilationOfCast जैसी अवधारणा का जन्म देंगे जिन्हें न वर्ण व्यवस्था की समझ थी न जाति की।
संविधान में कास्ट को घुसेड़वाना उसी ईसाई फ़ण्डामेंटलिस्ट षड्यन्त्र का हिस्सा था, जिसको हमारे पूर्वजों ने बिना सोचे समझे लपक लिया।
( ब्रेकिंग इंडिया - राजीव मल्होत्रा, और तथ्यों के आलोक में अम्बेडकर - डॉ त्रिभुवन सिंह से साभार उद्धरित है अधिकतर कंटेंट)
#नोट : कास्ट न वर्ण है, और न ही जाति।
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अब एक लेख पढिये जिसे किसी स्कॉलर ने लिखा है :