Sunday 27 December 2015

विद्वान् की विद्वता और राजा की राजसियता की तुलना कभी नहीं करनी चाहिए

विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ।।
यथा चतुर्भिः कनकं पराक्ष्यते
निघर्षणं छेदनतापताडनैः ।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्य़ते
त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा
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नीचे वाला ‪#‎त्रिभुवन_तीर्थंकर‬ द्वारा रचित
गुलामों की दुनिया
अनुवादों के विशेषज्ञ
अनुवादों के गुलाम
जरा इसको तो समझो
धरम और मजहब
रेलीजन के विज्ञों
कभी अपनी थाती को
अपना तो समझो /

 विद्वान् की विद्वता और राजा की राजसियता की तुलना कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि राजा सिर्फ अपने देश में पूजा जाता है और विद्वान् की सर्वत्र पूजा होती है ।। प्रत्येक पर्वत पर माणिक्य नहीं होता और प्रत्येक हाथी के सर पर मुक्तामणि नहीं होती । साधू पुरुष सब जगह नहीं होते और प्रत्येक वन में चन्दन के पेड़ नहीं होते ।। जीस प्रकार सोने का घिस कर छेद कर तपा कर और पिट कर परीक्षण किया जाता है उसी प्रकार पुरुष की भी त्याग शील गुण और कर्म के आधार पर परीक्षा होती है ।।

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