Saturday 3 January 2015

सवर्ण अवर्ण और असवर्ण की खोज

वर्ण का अर्थ चमड़ी का रंग होता है , ये ईसाई संस्कृतज्ञों ने हमे पढ़ाया था / लेकिन आज एक नई जानकारी कि caste का अर्थ भी चमड़ी का रंग होता है , एक ईसाई संस्कृतज्ञ के मुह से सुनें /


1776 के अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटेन का अमेरिका में लूटी जा रही धनसम्पत्ति से हिस्सा मिलना बंद हो गया ।उसके बाद अमेरिका में बसने वाले ईसाई यूरोप के गोरे ईसाई थे । उनको अपने सफ़ेद रंग पर इतना घमंड था कि भारत के 1947 में आजादी के 13 साल बाद  1960 तक,  ‪#‎काले‬ और ‪#‎गोरों‬ को स्कूल और बसों में,  अलग अलग ग्रुप में रहने को बाध्य किया जाता था । जिसको हम अखबारों के जरिये #रंगभेद या Apartheid के नाम से जानते थे / इसका सबसे वीभत्स रूप डच और ब्रिटिश शासन मे अफ्रीका मे देखने को मिला /
जबकि भारत में चमड़े के रंग और रूप का कोई महत्व नहीं रहा कभी भी वरना ‪#‎अष्टवक्र‬ राजा ‪#‎जनक‬ के गुरु न हुए होते और ‪#‎वेद_व्यास‬ कुरु राज्य के गुरु न रहे होते ।भारत के  पूज्य  आदर्श  राम और  कृष्ण   #श्याम  वर्ण  के   ही   थे/ 
लेकिन जब यूरोप ने पूरे विश्व को गुलाम बना लिया तो चमड़े के रंग और वाह्य शारीरिक संरचना के आधार पर,  बाइबिल के थेओलॉजी के अनुसार दुनिया के लोगो को विभिन्न समूहों और नश्लों में बांटा , जिसका परिणाम भारत आज भी भुगत रहा है ।।।

र्जॉन मुइर जो एक ईसाई विद्वान था , जो 19 साल की उम्र में भारत आता है इंडियन सिविल सर्विसेज में , और जो इलाहाबाद  और फ़तेहपुर  में अंग्रेजी सरकार मे एक ऑफिसर  था ,वही  जॉन मुइर 29  साल की उम्र में मत्परीक्षा नामक एक पुस्तक लिखता है, और ईसाइयत को हिंदूइस्म से श्रेष्ठ साबित करता है / सरकारी नौकरी में रहते हुए वो संस्कृत का इतना बड़ा विद्वान बन जाता है कि " ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट्स " नामक एक किताब लिखता है , जिसका डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक "शूद्र कौन थे " , में बहुतायत रूप से उद्धृत किया है /
                   उसी पुस्तक के पार्ट -२ सी कुछ ओरिजिनल टेक्स्ट्स पेश करा रहा हूँ , अंग्रेजी में जिसको कहते है - " Right From Horses mouth "---
"ये नॉन आर्यन नश्ल के लोग अमेरिका के रेड इंडियन कि तरह कमजोर नश्ल के थे / दूसरी तरफ Arians ज्यादा organisesed enterprising और creative लोग थे, धरती पर अर्वाचीन जन्म लेने वाले ज्यादा सुदृढ़ पौधे और जानवरों कि तरह वे ज्यादा सुदृढ़ लोग / अंततः दो विपरीत राजनैतिक लोगों की तरह ही अलग दिखने वाले / तीन ऊपरी वर्गों को जिनको द्विज या आर्य के नाम से भी जाना जाता है , एक अलग विशेष क्लास के लोग / Arian इस तरह से एक सुपीरियर और विजेता नश्ल साबित हुई / इसको सिद्ध करने के लिए complexion को एक और सबूत के तौर पर जोड़ा जा सकता है / ( यही 3 तथाकथित वर्णो को सवर्ण मान लिया गया/ जाति के क्रम मे भी इन्हे ऊंची जाति के नाम से जाना जाता है आज / बाकियों को शूद्र मानकर उनको OBC SC और ST मे विभाजित कर दिया गया )

 संस्कृत में Caste को मूलतः रंग (कलर ) के नाम से जाना जाता है / इसलिए caste उनके रंग (चमड़ी के रंग ) से निर्धारित हुई / लेकिन ये सर्विदित हैं कि ब्राम्हणों का रंग शूद्र और चाण्डालों से ज्यादा फेयर था / इसी तरह क्षत्रियों और वैश्यों के भी इसी तरह फेयर complexion रहा होगा /
      इस तरह हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि कि एरियन -इंडियन मूलतः काले मूल निवासियों से भिन्न थे; और इस अनुमान को बल मिलता है कि वे किसी उत्तरी देश से आये थे /
अतः एरियन भारत के मूल निवासी नहीं थे बल्कि किसी दूसरे देश से उत्तर (भारत) में आये , और यही मत प्रोफेसर मैक्समूलर का भी है / "

 From- Original Sanskrit Texts Part Second P. 308-309 ; by John Muir 

जो संस्कृत विद्वान वर्ण और caste के भेद को भी नहीं समझ सकते /वो चमड़ी के रंग के आधार पर सवर्ण अवर्ण  और असवर्ण जैसे शब्दों से समाज को विभाजित करते है , उन्होंने किस संस्कृत ग्रन्थ को पढ़कर ये वाग्जाल फैलाया है ?? 

आप स्वयं देख सकते हैं कि रंगभेद के चश्मे से दुनिया को बांटने वाले और गुलाम बनाने वाले , 1500 से 1800 के बीच अमेरिका के 200 million मूल निवासी रेड इंडियन का क़त्ल करने वाले ईसाई विद्वान कितने शाश्त्रों का अध्यन कर इस निर्णय पर पहुंचे है ?
 आजकल ईसाइयत फैलाने के लिए एक नयी शाजिश ये ईसाई फिर रच रहे है - AFRO_DALIT प्रोजेक्ट के नाम से , जिसके भारत के न जाने कितने क्षद्म ईसाई , दलित के वेश मे इस कार्य को आगे बढ़ा र्हए हैं / इन्ही संस्कृतज्ञ ईसाई विद्वानो के गढे  हुए कुतर्कों के अनुवादों के अनुवादों के अनुवाद को  आधार बना कर जब डॉ आंबेडकर "शूद्र कौन थे " की  खोज में वेदों कि सैर पर निकल जाते हैं , तो उनकी मंशा पर उंगली उठे न उठे लेकिन उनके सूचना के श्रोतों की विश्वसनीयता पर प्रश्चिन्ह अवस्य लग जाएगा /
 जिस देश के भगवान राम कृष्ण और शंकर श्याम वर्ण के हों वहां डार्क complexion के आधार पर सिर्फ ईसाई संस्कृत विद ही बाँट सकते है।शंकर जी अर्जुन को एक किरात के वेश मे दर्शन देते हैं जब वह वनवास के समय आयुध की खोज मे जाते हैं / हमारे ऋषि मुनि यहाँ तक कि मनुस्मृति के रचनाकार जंगल मे tribal जीवन व्यतीत कर धर्मग्रंथों की रचना करते हैं ; अब यही tribal ईसाई बनाए जा रहे हैं , अंग्रेजों की कार्यपद्धति को अपनाकर / 
संस्कृत ग्रंथों में तो इसका कहीं जिक्र मिलता नहीं / ??

 अनुमानों पर आधारित बायस्ड उनपढ़ कुतर्की और कट्टर  ईसाई संसकृतविदो  को आधार बनाकर लिखा गया भारत का इतिहास हम ढो रहें हैं न जाने कितने वर्षों से।
  गलती उसकी नहीं थी जिसने इस कपोल कल्पना से भरी पुस्तक को #ओरिजिनल_संस्कृत_टेक्स्ट लिख के पेश किया।
गलती उनकी है जो इसको ओरिजिनल मान बैठे और उन  Bigot ईसाइयों  के फैलाये जाल में भहरा के गिर पड़े।

 जब गीता कहती है
 चातुस्वर्ण मया शृष्टि  गुण कर्म विभागसह : अर्थात गुण और कर्म के अनुसार जो मनुस्य जो कार्य करेगा उसी वर्ण मे उसको वर्गीकृत किया जाएगा / आज उसको एप्टिट्यूड टेस्ट के नाम से जाना जाता है , कि कौन सा बच्चा किस प्रॉफ़ेशन के लिए फिट है ? 
 देश का आज तक का सबसे विद्वान ब्रम्हाण और अर्थशास्त्री कौटिल्य उसको कहता है - शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलम शूद्रस्य कर्मम / वार्ता विद्या का एक अंग है : अंवीछकी त्रयी वार्ता दंडनीति इति विद्या / ये विद्या की कौटिल्य की परिभाषा है /
तो डॉ आंबेडकर और दलित साहित्य में शूद्रों को menial जॉब अलॉट करने का काम मुइर जैसे Bigot ईसाई की ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट से पढ़कर लिखा होगा।


आंबेडकर साहित्य में वर्णित सवर्ण अवर्ण और असवर्ण की खोज इन्ही ईसाई bigot विद्वानों की रंगभेद और रंग से जुड़े उनके पूर्वाग्रह से उपजे शब्द है / क्योंकि कुछ शब्द तो संस्कृत में हैं भी नहीं जैसे अवर्ण / सवर्ण और असवर्ण शब्द जरूर हैं लेकिन वो उन अर्थों में प्रयुक्त नहीं होते जिन अर्थों में इन संस्कृत विदों ने प्रयोग किया हैं , और जहाँ से डॉ आंबेडकर ने कॉपी पेस्ट किया है /
वर्ण और कास्ट को चमड़ी के रंग से परिभाषित करने वाले लोग बाइबल के Genesis मे नोह द्वारा Ham को दिये श्राप से उद्धृत है जिसको ईसाई थेओलोगीस्ट ऑर्गन ने तीसरी शताब्दी मे प्रतिपादित किया था /

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