Friday, 30 January 2015

Precolonial Era में भारत में मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपोर्ट आधारित वाइब्रेंट इकॉनमी का मैन्युफैक्चरर कौन था ? और उसके वंशज कहाँ गए ??

दलित चिंतन की सोच मनुस्मृति मे फँसकर स्वाहा हो जाती है / लेकिन इन तथ्यों का जबाब वो कब देंगे ? जलाओ मनुस्मृति लेकिन इन ऐतिहासिक तथ्यों पर भी एक नजर डालो / दलित नवयुवकों के मन मे कुंठा घृणा भरने वालों क्या तुम उनका भला कर रहे हो ?
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अमिय कुमार बागची एक बहुत तथ्यात्मक आर्थिक इतिहासकार हैं।उनका रिसर्च अभूत पूर्व है।उन्होंने लिखा है कि Precolonial Era में भारत में Smithian Economy थी मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपोर्ट आधारित वाइब्रेंट इकॉनमी ।Smithian से उनका तात्पर्य मार्क्स के जन्म पूर्व की यूरोप की आर्थिक व्यवस्था Adam Smith का आर्थिक पूँजीवादी सिद्धांत।
( एडम स्मिथ ने राष्ट्र और अर्थ व्यवस्था , दोनों को अलग अलग बताया/ राष्ट् का काम मात्र 3 है:
1- बाहरी शक्तियों से राष्ट्र की रक्षा करना /
2- देश मे समाज मे शांति की स्थापना अर्थात law and Order  कायम करना /
3- बेसिक इनफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करना /
यानि राज्य या राष्ट्र का अर्थ व्यवस्था  मे कोई दखल नहीं होना चाहिए/ ) 

फर्क सिर्फ इतना है कि भारत में पूँजीवादी एक तो थे नहीं और अगर थे तो सत्ता से बहुत दूर थे।
यूरोप में इसका ठीक उलट था। पूंजीवादी ही सत्ताधारी थे। आज भी विश्व की  सर्वोच्च  राजनैतिक  शक्ति  ईस्ट इंडिया कंपनी का मालिक रोथ्चिल्ड है /
भारत का मैन्युफैक्चरर विलासी मुग़ल शाशकों से शोषित अवस्य था परंतु बेरोगार और बेघर नहीं हुवा था।colonial शासन के 60 वर्ष के भीतर ही भारत का ये मैन्युफैक्चरर वर्ग की पूँजी और रोजगार नष्ट कर दी गयी।  भारत एक एक्सपोर्टर के बजाय इम्पोर्टर देश हो गया।
 देश के दलित और वामपंथी विद्वान ये बताने का कष्ट करेगा कि क्या कि ये मैन्युफैक्चरर कौन थे और इनकी वंशजों का कालान्तर में क्या हुवा ?????
एक समय जब इंग्लंड जब सूती वस्त्र आयात करता था , तो इनलैंड के ऊन  के वस्त्रनिर्माताओं ने एशिया के सूती वस्त्रों के आयात के खिलाफ स्वदेशी आंदोलन किया था, क्योंकि इंग्लैंड सूती वस्त्र का निर्माण नहीं करता था, लेकिन ऊन के वस्त्रों की मैनुफेक्चुरिंग किया करता था /

1660 से 1700 का इंग्लॅण्ड के सम्पूर्ण आयात का 30 % एशिया और अमेरिका से आता था।
1700 में इंग्लैंड भारत और अन्य देशों से सूती वस्त्र का आयात करता था जिसको एउरोप के बाकी देशो मे पुनर्निर्यात करता था  /   re-एक्सपोर्ट होने वाला 40 % textile
भारत से इम्पोर्ट होता था।
1700 में इंग्लॅण्ड ने भारत से होने वाले इम्पोर्ट पे ban लगा दिया गया सिवा re एक्सपोर्ट होने वाले कपड़ों के। ब्रिटिश की संसद ने इसके लिए -" कालिकों  एक्ट " बनाया /
यानि घरेलू इस्तेमाल के कपड़ों पर ban लग गया। हाँ व्यापार हेतु कपड़ो का आयात जारी रहा।

  मेरा प्रश्न इसी सन्दर्भ में हैं /
इस एक्सपोर्ट क्वालिटी प्रोडक्ट का मन्युफॅक्टरर कौन था ??
और जब भारतीय इकॉनमी नस्ट हुई तो इस विशाल मैन्युफैक्चरर जन आबादी का हस्र क्या हुवा ?

इसका जबाब चिंतक मनुस्मृति में न खोज पाएंगे।
JNU में मनुस्मृति की होलिका भर ही लगा सकते हैं ।

 बागची जी ने neocolonial लेखन को , जो ब्रिटिश रूल को भारत का बेहतरी मानते हैं ,उनको एक संज्ञा दी -Phantasmagorical.  यानी सन्निपात के ज्वर में जैसे आदमी बोलता है।
  ईसाईयों ने भारत का आर्थिक ढांचा नस्ट किया और जो लोग उस आर्थिक ढांचे के प्रोड्यूसर और मार्केटियर थे उनकी रोजी नस्ट की ।वे बेघर और बेरोजगार हुये । और इसी आबादी को जो मैन्युफैक्चरिंग में सर्वाधिक योगदान देती थी जब दरिद्रता और भुखमरी की चपेट में आई तो संस्कृत शासत्रों  की उल जलूल व्याख्या करके " द्रविड़ शुद्र अतिशूद्र अवर्ण असवर्ण" आदि शब्दों की लुगदी फेंटकर ईसाइयत में धर्म परिवर्तन का एक आधार तैयार किया।
और वो आज भी जारी है।
उनकी मदद भारत सर्कार के खर्चे पे एक विश्वविद्यालय है JNU के विद्वान करते हैं  ,वहां ये समाज के बटवारे के लिए सर्कार से वेतन और अनुदान लेते हैं ।
 बागची जी लिखते हैं कि "बिहार और  बंगाल के सकल घरेलू उत्पाद का 7.07 परसेंट देश के बाहर एक्सपोर्ट हो जाता था जिसके एवज में कुछ लौट के आता ही नहीं था।"
ऐसे में मैन्युफैक्चरिंग के लिए पूँजी ही खत्म हो गयी तो लोगों के पास बेरोजगार होने के अलावा कोई चारा ही नही बचा।
 1820 के बाद भारतीय टेक्सटाइल का एक्सपोर्ट और घरेलु मांग में भयानक कमी आई , इस कारण कताई और बुनाई के क्षेत्रो में भी सर्विसेज की आवश्कता घट गयी औऱ घरेलू उत्पादन भी घट गया।
दूसरी तरफ लैंड टैक्स की जबरदस्त वसूली के कारण खेती और सम्बंधित उद्योगों के इन्वेस्टमेंट में अत्यधिक गिरावट आई।
ये था उस भयानक बेरोजगारी का कारण जिसको मार्क्स भी लिखता है और पॉल केनेडी भी ।

पॉल के हिसाब से 700 % de industrialization हुआ / 

ऐसे मे   मेरा प्रश्न फिर वहीँ आकर विश्राम करने लगता है कि कहाँ गए वो और उनकी संताने , जो इन एक्सपोर्ट क्वालिटी प्रोडक्टस के निर्माता थे ?? 

गणेश सखाराम देउसकर के अनुसार , 1875 से 1900 के बीच तो दो करोड़ लोग अन्न के अभाव मे प्राण त्याग  देते हैं / बाकी लोग शहर मे मिल खदान मे रोजगार खोजते हैं जहां काम की भयानक मारा मारी है / और will Durant के अनुसार बाकी बेरोजगारों की फौज मे जो लोग शौभाग्यशाली थे , उनको गोरों का मैला उठाने का काम मिल जाता है , क्योंकि यदि गुलाम इतने सटे हों तो सौचालय बनवाने की फजीहत कौन मोल ले ?
सरकारी दस्तावेजो से ये पता चलता है कि दक्षिण भारत के किसानो की ब्रिटिश शासन काल में भयानक दुर्दशा थी।
बेल्लारी के कॉल्लेक्टर pelly के 1851 की रिपोर्ट के अनुसार वहां के मात्र 17 प्रतिशत रैयत (किसान) अच्छी दशा में थे ।बाकि के 49 प्रतिशत लोगों को फसल गिरवी रखनी पड़ती थी और 34 प्रतिशत लोगों को खड़ी फसल बेचनी पड़ती थी, किश्त चुकाने के लिए।
  बुचनन हैमिलटन के अनुसार इस de industrialisation का सबसे बुरा प्रभाव सभी वर्गों के महिलाओ की आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता और ऑटोनोमी पर पड़ा।
क्योंकि स्पिनिंग सभी महिलाओं के इनकम का जरिया था खास तौर पर समाज के उस वर्ग का जिनकी महिलाये सामाजिक कारणों से घर के बाहर नहीं निकलती थीं। बूचनान के अनुसार  इन महिलाओं की दोपहर के बाद हंसी खेल के साथ साथ  स्पीनिंग  से  प्रति  महिला  3-7 रुपये सालाना  कमाई  होती  थी , जो परिवार की कमाई  को संवर्धित करती थी /
हालाँकि weavers ने परिस्थितियों से समझौता करते हुए मोटे कपड़ों का निर्माण जारी रखा परंतु गिरती हुई अर्थव्यवस्था में उनकी इनकम बहुत कम हो गयी और वो व्यापारियों और कर्जदाताओं के कर्जदार हो गए ।
इन परिस्थियों में यदि कर्जा लेने वाला weaver मुसलमान निकला और कर्जदाता हिन्दू और उनमे कुछ विवाद हुवा तो अंगरेज अधिकारी उसपे धार्मिक रूप देते हुए उसको धर्मांध जुलाहा करार देते थे।
 इस बात पर सर्व सहमत है कि जो राशि ब्रिटेन ने जो सरप्लस पूँजी 1913 -14 में विश्व भर में किया वो 4000 मिलियन स्टर्लिंग थी जिसका 75 से 95 % पूँजी भारत की लगी थी। इसी पूँजी के दम पर अमेरिका कनाडा ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसी जगहों पर इन्होंने माइग्रेशन किया ।इसमें वो पूँजी भी है जो इन्होंने वहां के मूलनिवासियों की लूटी थी।

Friday, 9 January 2015

#‎अछूत‬ और ‪#‎दलित‬ (Depressed Class ) की उत्पत्ति का कारण , पृष्ठीभूमि और इतिहास तथा यूरोप के बारे मे एंगस मेडीसन के साक्ष्य

#‎अछूत‬ और ‪#‎दलित‬ (Depressed Class ) की उत्पत्ति का कारण , पृष्ठीभूमि और इतिहास /
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एक मजेदार बात -- डॉ ‪#‎अंबेडकर‬ ने कभी भी #दलित (Depressed Class ) शब्द का प्रयोग नहीं किया , बल्कि उन्होने #शूद्र और #अछूत शब्द का प्रयोग किया /
इसके विपरीत ब्रिटीशेर्स ने अपने किसी भी शासकीय दस्तावेज मे #अछूत शब्द का प्रयोग नहीं किया , बल्कि ‪#‎Depressed‬ Class और ‪#‎Oppressed‬ क्लास का प्रयोग किया /
इस लोचे को समझने के लिए पढ़ें --

 Any Besant's Comparison of "British one tenth submerged" and "India's "Generic One Sixth Depressed Class". Both are the Same। 

ये एक ऐतिहासिक डॉक्यूमेंट हैं जो आंबेडकर साहित्य का हिस्सा है / डॉ आंबेडकर ने जिस एनी बेसेंट को  "Depressed Class  " की स्थापना के लिए उद्धरत   किया था / उनका 1928 के साइमन कमिशन से संवाद को अवश्य पढ़ें /
उसी तथ्य को मैं एक नए नजरिये से पेश कर रहा हूँ /
 डॉ आंबेडकर ने द्रविड़ शूद्र , अतिशूद्र अछूत भंगी आदि शब्दों को एक जगह जोड़कर उनको एक नए वर्ग से संबोधित किया , जिसको गांधी जी #हरिजन के नाम से बुलाते थे /
 अब एक नजर नयी रेसेअर्चेस के जरिये इस स्टेटमेंट को समझने की कोशिश करते हैं /Angus Madison ने "वर्ल्ड इकनोमिक हिस्ट्री " नामक एक शोधग्रंथ प्रकाशित किया 2000 AD में,  जिसमें उसने 0AD से 2000AD तक का विश्व का आर्थिक इतिहास पर शोध किया है / उसके अनुसार 0AD से 1750 तक भारत पुरे विश्व की कुल जीडीपी का 25 प्रतिशत के आसपास की जीडीपी का हिस्सेदार रहा है (मुग़ल अत्याचार और लूटपाट के बावजूद ) जबकि 1750 तक  ब्रिटेन और अमेरिका दोनों की मिलकर मात्र 2 प्रतिशत GDP का हिस्सेदार था / 1900 आते आते ब्रिटिश लूट और भारतीय उद्योंगो का विनाश के कारन मामला एकदम upside down / भारत की जीडीपी बचती है मात्र 2 प्रतिशत और ब्रिटेन और अमेरिका 42 प्रतिशत GDP के हिस्सेदार / पॉल कैनेडी की बुक राइज एंड फॉल ऑफ़ ग्रेट पावर्स में में पॉल बैरोच नामक इकोनॉमिस्ट के अनुसार भारत में पैर कैपिटा industrialization  भयानक कमी आयी / वही जहाँ 1750 per capita industrialisation जहाँ भारत और इंग्लॅण्ड का लगभग एक बराबर होता है , 1900 आते आते ब्रिटेन की per capita industrialisation में 100  प्रतिशत का इजाफा होता है , वहीं भारत में percapita industrialisation में लगभग 87.5 % की कमी आती हैं / इस बात की पुस्टि 1853 में कार्ल मार्क्स के छपे एक लेख से भी की जा सकती है जिसमे उसने लिखा है कि 1815 में जहाँ ढाका में डेढ़ लाख अर्टिसन निवास करते थे , 1835 आते आते मात्र 20 हजार अर्टिसन बचते हैं /मात्र 20  सालों मे ढाका का मशहूर मलमल बनाने वाले एक लाख 30 हजार manufacturers , कहाँ गए ? क्या हुआ उनका और उनकी संततियों का ? कोई इतिहासकर नहीं बताता /

  यानि जहाँ एक तरफ भारत का अर्टिसन/ उद्योग निर्माता , बेरोजगार और बेघर हो रहा है  इन 150  वर्षों में , वहीँ इंग्लैंड के लोग रोजगार युक्त हो रहें है /अब इस तथ्य को एनी बेसेंट के स्टेटमेंट की तराज़ू पर तौलें / तो पाएंगे कि 1909   में इंग्लैंड में industrialization कि क्रांति के बावजूद देश का एक तबका जिसको एनी बेसेंट ने इंग्लैंड के "one टेंथ submerged (तल्छ्ट ) जनसँख्या की तुलना " भारत के बेरोजगार और बेघर हुए " जेनेरिक one sixth depressed क्लास " से करती हैं , जिनकी आर्थिक सामजिक , शैक्षणिक और जीवन पालन करने का तरीका एक जैसा ही हैं /
आपको क्या ये आर्थिक व्याख्या उचित नहीं प्रतीत होती ??? डायरेक्ट एविडेंस के बजाय आप अछूतों और शूद्रों को स्मृतियों और वेदों में खोजने लगते हैं / (Please Read Below to see How Dr Ambedkar Quoted To Any Besant ) प्रस्तुत है एनी बेसंट का मत अछूत दलित या Depressed  क्लास के बारे मे :

By Annie Besant
[Indian Review, February 1909 edition]

"हर देश मे सामाजिक पिरामिड कुछ इस तरह का होता है कि समाज एक बहुत बड़ा वर्ग अशिक्षित अज्ञानी भाषा और रहन सहन और आदत से गंदा होता है जो समाज के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण काम करता है लेकिन वो उसी समाज से तिरस्कृत और उपेक्षित रहता हैं The Uplift of the Depressed , जिसके लिए वो काम करता है / इंग्लैंड मे इस वर्ग को submerged tenth के नाम से जाना जाता है जो जनसंख्या का दसवां हिस्सा है / ये भुखमरी के कगार पर हैं और जरा सा भी दबाव बर्दाश्त नहीं कर सकता / ये कुपोषण का शिकार है जिसकी वजह से बीमारी से ग्रस्त होता रहता है / मंदबुद्धियों का जैसा स्वभाव होता है , उसी तरह बच्चे तो ये बेहिसाब पैदा करते हैं परंतु इन बच्चों कि मृत्यु दर बहुत ज्यादा है , ये कुपोषित हैं सूखा रोग से ग्रस्त और विकांगता से ग्रस्त हैं / इनमे जो #अच्छे किस्म के लोग हैं उनमे  unskilled मजदूर हैं जो भंगी मेहतर और स्वीपर का काम करते है ,समुद्र के घाटों पर काम करने वाले मजदूर और  गली गली घूम कर समान बेचने वाले लोग शामिल  है ; और जो #खराब किस्म के लोग हैं वो समाज के निकम्मे और कामचोर दारुबाज़ लोफ़र coarsely dissolute tramps vagabonds घटिया किस्म के अपराधी और गुंडे हैं / पहले किस्म के लोग प्रामाणिक तौर पारा ईमानदार और मेहनतकश है और अपनी रोजी रोटी कमाने मे सक्षम हैं , लेकिन दूसरी किस्म के लोगो नियंत्रित करना पड़ता है और उनको रोजी रोटी कमाने के लिए जबर्दस्ती काम करवाना पड़ता है / भारत मे, ये वर्ग जनसंख्या का छठवा हिस्सा बनाता है जिसको हम मोटे तौर पर (generic )Depressed क्लास” कहते हैं / "

नोट - ध्यान रखे कि ये वो समकाल था , जब 1875- 1900 के बीच करीब दो कारों भारतीय अन्न के अभाव मे भुंख से मर गए थे / और Will Durant के 1930 के लेखन के अनुसार लोग इस भुंख से जान बचाने के लिए शहरों की तरफ भागे , और जो उनमे सौभाग्यशाली थे उनको गोरों का मैला साफ करने का काम मिल गया क्योंकि जब गुलाम इतने सस्ते हों तो शौचालय बनवाने का झंझट  कौन पाले ?


When Lord Macaulay’s Education Policy came into being in 1854 through Woods’ Dispatch, the modern education was now thrown open to all the Indians irrespective of Caste, color, religion and gender. Dalits too began sending their children to schools, but hostility followed. Caste Hindus opposed the Dalits’ move violently. At places, their houses were burnt, crops destroyed for sending their children to schools. Caste Order proved mightier than the Crown. Finally, the Indian Education Commission 1884 recommended opening of Separate/Special schools for Dalits. Such schools were opened all over India- and in several thousand schools are in practice even today. But, by the turn of the 20th Century, a debate started to desegregate schools. Annie Besant wrote an article on the subject. Ms. Besant’s article was reproduced by Dr. BR Ambedkar, and latter, published in his “What Congress and Gandhi have done to the Untouchables”, Vol. 9, pages 3-7]. Following is the text of Ms. Besant’s article:

The Uplift of the Depressed Classes
By Annie Besant
[Indian Review, February 1909 edition]
In every nation we find , as the basis of the social Pyramid, a large class of people , ignorant, degraded, unclean in language and habits, people, who perform many tasks which are necessary for Society, but who are despised and neglected by the very Society to whose needs they minister. In England, this class is called the ‘submerged tenth’, forming, as it does, one-tenth of the total population. It is ever on the verge of starvation, and the least extra pressure sends it over the edge. It suffers chronically from under-nutrition, and is a prey to the diseases which spring therefrom. It is prolific, like all creatures in whom the nervous system is of a low type, but its children die off rapidly, ill-nourished, rickety, often malformed. Its better type consists of unskilled labourers, who perform the roughest work, scavengers, sweepers, navvies, casual dock-labourers, costermongers; and into it, forming its worst type, drift all the wastrels of Society, the drunkards, the loafers, the coarsely dissolute, the tramps, the vagabonds, the clumsily criminal, the ruffians. The first type, as a rule, honest and industrious; the second ought to be under continued control, and forced to labour sufficiently to earn its bread. In India, this class forms one-sixth of the total population, and goes by the generic name of the ‘Depressed Classes’. It springs from the aboriginal inhabitants of the country, conquered and enslaved by the Aryan invaders, …. It is drunken and utterly indifferent to cleanliness, whether of food, person or dwelling; but marriage is accompanied with some slight formality, children are kindly treated, and there is very little brutality, violence, or criminality. Criminal communities, such as hereditary thieves, live apart and do not mingle with the scavengers, sweepers, husbandmen and the followers of other simple crafts who make up the huge bulk of the depressed. They are gentle, docile, as a rule industrious, pathetically submissive, merry enough when not in actual want, with a bright though generally very limited intelligence; of truth and the civic virtues they are for the most part utterly devoid – how should they be anything else?- but they are affectionate, grateful for the slightest kindness, and with much ‘natural religion’. In fact, they offer good material for simple and useful through humble civic life.
“What can be done for them by those who feel the barbarity of the treatment meted out to them, by those who feel that the Indians who demand freedoms should show respect to others, and give to others a share of the consideration they claim for themselves?”
“Here, as everywhere, education is the lever by which we may hope to raise them, but a difficulty arises at the outset, for one class of the community, moved by a noble feeling of compassion and benevolence, but not adding thereto a careful and detailed consideration of the conditions, demands, for the children of the pariah community admission to the schools frequented by the sons of the higher classes, and charges with lack of brotherhood those who are not in favour of this policy. It becomes, therefore, necessary to ask whether brotherhood is to mean leveling down, and whether it is usual in family to treat the elder children and the babies in exactly the same way. It is a zeal not according to knowledge – and not according to nature – which would substitute equality for brotherhood and demand from the cultured and refined that they should forfeit the hardly won fruits of the education of generations, in order to create an artificial equality, as disastrous to the progress of the future as it would be useless for the improvement of the present. The children of the depressed classes need, first of all, to be taught cleanliness, outside decency of behaviour, and the earliest rudiments of education, religion and mortality. Their bodies, at present, are ill odorous and foul with the liquor and strong smelling food out of which for generations they have been built up; it will need some generations of purer food and living to make their bodies fit to sit in the close neighborhood of a school room with children who have received bodies from an ancestry trained in habits of exquisite personal cleanliness, and fed on pure food-stuffs. We have to raise the Depressed Classes to a similar level of physical purity, not to drag down the clean to the level of the dirty, and until this is done, close association is undesirable. We are not blaming these children, nor their parents, for being what they are; we are stating a mere palpable fact. The first daily lesson in a school for these children should be a bath, and the putting on of a clean cloth; and the second should be a meal of clean wholesome food; those primary needs cannot be supplied in a school intended for children who take their daily bath in the early morning and who come to school well-fed.
“Another difficulty that faces teachers of these children are the contagious diseases that are bred from first; to take one example, eye-disease, wholly due to neglect, is one of the most common and ‘catching’ complaints among them. In our Panchnama schools in Madras, the teachers are ever on the alert to detect and check this, and the children’s eyes are daily washed and disease is thus prevented. But is it to be expected that fathers and mothers, whose daily care protects their children from such dirty diseases should deliberately expose them at school to this infection?


“Nor are the manner and habits of these forlorn little ones desirable things to be imitated by gently-nurtured children. Good manners, for instance, are the result of continual and rigid self-control, and of consideration for the comfort and convenience of others; children learn manners chiefly by imitation from well-bred parents and teachers and, secondarily, by suitable precept and reproof. If, at the school, they are to be associated with children not thus trained, they will quickly fall into the ways which they see around them. For, until good habits are rendered fixed by long practice, it is far easier to be slipshod than accurate, to be careless than careful. Ought the children of families in which good manners and courtesy are hereditary, to be robbed of their heritage, a robbery that enriches no one, but drags the whole nation down? Gentle speech, well-modulated voice, pleasant ways, these are the valuable results of long culture, and to let them be swamped out is no true brotherhood…
“In England, it has never been regarded as desirable to educate boys or girls of all classes side by side, and such grotesque equalizing of the unequal would be scouted. Eton and Harrow are admittedly the schools for the higher classes; Rubgy and Winchester are also schools for gentlemen’s sons, though somewhat less aristocratic. Then come a number of schools, frequented chiefly by sons of the provincial middle class. Then, the Board schools, where the sons of artisans and the general manual labour classes are taught; and below all these, for the waifs and strays, are the ‘ragged schools’; the name of which indicates the type of their scholars, and the numerous charitable institutions. A man in England who proposed that ragged school-children should be admitted to Eton and Harrow would not be argued with, but laughed at. Here, when a similar proposition is made in the name of brotherhood, people seem ashamed to point out frankly its absurdity, and they do not realize that the proposal is merely a violent reaction against the cruel wrongs which have been inflicted on the Depressed Classes, the outcry of an awakened conscience, which has not yet had time to call right reason to guide its emotions. It is sometimes said that Government schools pay no attention to social differences; therein they show that they are essentially ‘foreign’ in their spirit. They would not deal so with the sons of their own people, though they may be careless of the sons of Indians, and lump them all together, clean and dirty alike. It is very easy to see the differences of ‘tone’ in the youths when only the sons of the cultured classes are admitted to a school, and it is to the interest of the Indians that they should send their sons where they are guarded from coarse influence as Englishmen guardtheir own sons in England.”.

  •  एक इतिहासकार हैं Jack Goldstone George Mason University के जिन्होंने 2009 में हायर एजुकेशन में चलने वाली एक बुक लिखी The Rise of the West in World History . 1500-1850.
      एक चैप्टर है उसमे "The World Circa 1500 : When Riches Were in the East". उसके introduction में वो लिखते हैं  कि 1500 के आसपास यूरोप धनी देशों में से नहीं था।यद्यपि उन्होंने कुछ तकनीकों में मास्टरी प्राप्त कर ली है और कुछ को उधार लिया है जैसे घडी ,बारूदी हथियार और सामुद्रिक यात्रा। लेकिन जब उन्होंने दूसरे देशोंजैसे मिडिल ईस्ट दक्षिण पूरव एशिया और यहाँ तक कि नया संसार (अमेरिका) की यात्रा की तो वे वहां के Wealth Commerce aur productive skill को देखा तो आश्चर्यचकित रह गए।उस समय एशिया का कृषि उत्पाद यूरोप की तुलना में बहुत ज्यादा था इसलिए महीन कारीगरी यूरोप के मुकाबले काफी बेहतर था ।इसलिए वे विविध प्रकार के उत्पाद पैदा करते थे जैसे कि सिल्क कॉटन फैब्रिक पोर्सलीन कॉफी चाय और मसाले , जोकि यूरोपेन्स की आवश्यकता थी।कोलुम्बुस और अन्य लोगों की सामुद्रिक अभियान जिज्ञासु और मिशनरी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही उन्होंने भारत और चीन की धन संपत्ति तक अपनी पहुँच बनाने की कोशिश की।
     आगे पेज 13.
    कोलुम्बुस के समय काल तक भारत और चाइना ने पश्चिम के देशों में अनुपलब्ध लक्ज़री फैब्रिक का उत्पादन शुरू कर दिया था : फाइन कॉटन।
    इस बात पर आज विश्वास भले न हो परंतु 18वीं शताब्दी तक यूरोपिअन आज जिस कॉटन की शर्ट उंडेर्गारमेंट और जीन्स पहनते हैं वो सिर्फ एशिया में मिलता था।
    ब्रिटिश कॉटन के कपडे यूरोप के लिए बहुत भारी मात्रा में इम्पोर्ट करता था।यहाँ तक कि लेट 1700 में जब ब्रिटिश मशीनों के द्वारा कॉटन स्पिनिंग इंडस्ट्री तैयार कर रहा था तो वो भयभीत थे कि क्या वो एशिया के महीन कॉटन फैब्रिक की गुणवत्ता वाला इन मशीनों से बना भी पाएंगे कि नहीं।
     Finally, Asian lands were also the source of precious spices, ointments, and perfumes—mainly pepper, but also cinnamon, cloves, cardamom, myrrh, and frankincense. Somewhat later, Arabia, India, and China became the source of Europeans’ daily tea and coffee, but that trade only
    developed over 100 years after Columbus’s voyage.Page 13
     
    ज्यादातर एशिया का समाज 1500 से शताब्दियों पूर्व के कृषि उत्पाद और विकसित टेक्नोलॉजी के कारण एऔरोपीय से बहुत धनी थी।
    1750 तक यूरोपियन लोग पूर्व के धन वैभव technological स्किल और सुन्दर तरीके से बनाये गए उत्पादों की ओर  विस्मय के साथ देखता था।
     यहाँ के ब्यापरिक ज्ञान हेतु अंग्रेजो ने 1857 के पूर्व अधिकारिओ को निर्देशन में भारतीय परिवेश का सूक्ष्म अधययन करवाया।यह सर्वे 1857 के पूर्वे से लेकर 1857 तक है। इसमें टेक्स, परिवहन, निर्माण, से लेकर आयात तक के सारे  बिन्दुओ का सिल सिले वॉर ब्यौरा है।इसमें सामाजिक और आर्थिक अध्ययन एक महत्त्व पूर्ण आयाम हो सकता है। जितना भी मैं देख सका ,वह एक आश्चर्य जनक है।उस समय का किसान आज की अपेक्षा बहुत संपन्न था।
    यहाँ की रिफाइंड शुगर पुरे दुनिया में जाती थी।
    पूर्वी यूपी का किसान ,अपने मॉल को नदियो के किनारे स्थित ब्यापारी को मॉल दे देता था वह नाव के द्वारा उसको calcutta पोर्ट से दुनिया के देशो को पंहुचा देते।इस प्रकार से यही प्रक्रिया नील, सोरा, cotton, आदि प्रोडक्ट्स पर भी अपनायी जाती। कुछ commission काट कर ,किसान को international मार्किट का प्रॉफिट प्राप्त होता था।एक बड़ी बात ऐ भी थी कि इस sugar ब्यसाय में ,प्रक्रिया में,सब से ज्यादा ज्ञान दलित के पास था।वही backbone था।इसलिए गिरमिटिया प्रथा जो गन्ने की खेती हेतु भेजा गया था ,सर्वाधिक ,करीब95℅ चमार और दूसरी अन्य जातिया थी। शुगर की monopoly को मिटाने के लिए अंग्रेजो ने पुरी ताकत लगा दिए,,, और मिटा के दम लिए।
     tevernier के Pauzacour अर्टिसन्स और Bernier के शूद्रों का काम artisan और laborers के रहस्य को इस इतिहास कार की कलमों से आँके तो आपको पता चलेगा कि न जाने कितने वर्षो से ( यहाँ तक कि 0 AD के पूर्व से ) भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे एक वर्ग की कमर मात्र 150 सालो में ब्रिटिश हुकूमत ने किया कि भारत की जीडीपी 25 प्रतिशत से घटकर 2 प्रतिशत बचती है और 700 प्रतिशत लोग बेघर बेरोजगार होतें है ।
    इन्ही को एनी बेसेंट ने ने ब्रिटेन के One tenth submerged की तुलना भारत के One sixth generic depressed class से करती हैं।
     80 के दशक में जब पॉल बैरोच ने ये घोषणा की कि पाश्चात्य देश नहीं बल्कि पूर्वी देश धनी थे तो उन देशों के लोगों के नेतृत्व के अभिमान को चोट पहुंची / OECD नामक देशों के एक समूह ने ANGUS MADISON नामक एक प्रसिद्द इकोनॉमिस्ट को उन्होंने इस विषय पर अनुसन्धान करने को कहा , और उसके लिए रेसेर्चेर कि एक बड़ी टीम तैयार की / ANGUS मैडिसन ने २००१ और २००३ में अपना अनुसन्धान खत्म किया और 2001 में The World Economy : A Mellinial Perspective 2003 में The World Economy :Historical Statistics ...प्रकाशित हुयी / गूगल पर फ्री डाउनलोड उपलब्ध है /

    पेश है उसी पुस्तक से इस लेख के बारे मे साक्ष्य :
    Page 23 .-26 भारत में सत्ता हन्टरन्तरित करने के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकरों ने देशी शासको के धन संपत्ति पर कब्ज़ा कर लिया / उनके शासन काल में 1757 से 1857 तक भारत प्रतिव्यक्ति औसर आय घाट गयी जबकि ब्रिटेन को बहुत ज्यादा लाभ मिला /
    1820 से 1913 के बीच ब्रिटिश percapita इनकम बहुत अभूतपूर्व तरीके से बढ़ी , लगभग 1700 से 1820 के बीच जो इनकम हुयी उसका तीन गुना /
    ब्रिटिश ने भारत सहित सभी कोलोनोयों पर फ्री ट्रेड की नीति लगाई /
    East India कंपनी के अफसरों के अंदर , जोकि भारत के 1757 से 1857 के बीच में भारतीय समाज के अंदर " Benthamite Radicalism " का प्रचार प्रसार करते थे परन्तु 1857 के विद्रोह के बाद इस प्रवित्ति पर रोक लग गयी /
     पेज ५२- ५३
    अब यूरोपियन सभ्यता के कुछ मुख्य और खास राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक इतिहास के बारे में अँगुस Maddison के मुहं से -पहली शताब्दी से दसवी शताब्दी तक --
    (१) पहली और दूसरी शताब्दी में रोमन अंपायर अपने चरम पर था ,स्कॉटिश बॉर्डर से Egypt तक , लगभग मिलियन पापुलेशन यूरोप में ,२० मिलियन वेस्ट एशिया , और ८ मिलियन नार्थ अफ्रीका , का एक विशाल राजनैतिक सत्ता / इस साम्राज्य में लगभग ४० ००० mile की पक्की सड़क और ५ प्रतिशत शहरी जनता जिसका कि सेक्युलर कल्चर हुवा करती था / सिल्क और मसाले एशिया से रेड सी से Egypt के जरिये लाया जाता था /
    (२) रोमन साम्राज्य मुख्यः डकैती (Plunder ) गुलामी (Enslavement ) और सैनिक ताकत के दम पर चलाया जाता था / 285 में DIOCLETION पूर्वी और पश्चिमी रोमन साम्राज्य में बंटवारा कर दिया / पशिमी रोमन साम्राज्य मुख्यतः ताकत के दम पर लोगों के ऊपर बर्बरता पूर्वक राज्य करता था /लेकिन जब लोगों ने विद्रोह कर दिया तो सारा सिस्टम कोलॅप्स कर गया /
    (३) ५वॆ शताब्दी तक रोमन साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया / गॉल कार्थेज और इटली का ज्यादातर भाग पर अशिक्षित और बर्बर लोगों ने कब्ज़ा कर लिया / लोग ब्रिटेन को छोकर भाग खड़े हुए / अंतिम झटका तब लगा जब अरब लोगों ने Egupt नार्थ अफ्रीका स्पेन cicily ज़रिए औ पलेस्टाइन पर ६४०- ८०० AD के बीच में कब्ज़ा कर लिया /
    ($) १० वीं शताब्दी आते आते सारी राजनैतिक सत्ता छीन भिन्न हो गयी / शहरी सभ्यता ख़त्म होकर ग्रामीण सभ्यता में बदल गयी / पशिमी यूरोप नोटः अफ्रीका और एशिया के बीच के सारे व्यापारिक सम्बन्ध खत्म हो गए / बेल्जियन हिस्टोरियन PIRENNE ने लिखा कि " सोने का बनना बंद हो गया ,व्यापार और व्यापारी ख़त्म हो गए , आम आदमी न लिख सकता था न पढ़ सकता था /
    1000 - 1500 अड़ के पशिमी यूरोप बीच इस स्थिति से उभरता है / इस दौरान पशिमी यूरोप में भयानक जनसँख्या विस्फोट होती है , शहरी जनसँख्या में शून्य से बढ़कर ६ प्रतिशत की ग्रोथ होती है / खेती और कॉमर्स में सुधार होता है / कृषि उत्पाद का मुख्या अंश कपड़ा (ऊनी ) बनाने में , वाइन और बियर बनाने में उपयोग होता था / इसके साथ साथ पशुपालन में भी सुधार होता है / उन के व्यवसाय में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करता है और चीनी उत्पादन कागज बनाना और प्रिंटिंग व्यवसाय में उन्नति होती है /
    राष्ट्र स्टेट सिस्टम का जन्म होता है / फ्रांस और इंग्लैंड के बीच १०० साल का युद्ध (१३३७-१४५३ अंतिम युद्ध नहीं होता लेकिन इसके बाद दोनों राष्ट्रों कि एक अलग पहचान बनना शुरू हो जाती है /


     ब्रिटेन के बारे में Angus Maddison ..पेज ९१ - ९८
    (१) 1000 से 1500 के बीच ब्रिटेन की जनसँख्या वृद्धि और आय पशिमी यूरोप की तुलना में बहुत धीमी थी / ११वॆ शताब्दी से १५ शताब्दी के मध्य ब्रिटेन की कोई खास राष्ट्रीय पहचान नहीं थी (AMBIGUOUS ) / शाशन करने वाले लोग राजा और उसके Elete अन्ग्लोफ्रेन्च वॉर लार्ड हुवा करते थे जिनकी आय का श्रोत लड़ाई करके इलाकों पे कब्ज़ा करके हिटी थी / राज्य की आमदनी मुख्यतः इन सामंती वॉर लॉर्ड्स के द्वारा शासन को भेजा गया धन होता था ,साथ में गुलाम किसान ... भी उनकी आय के श्रोत थे/
    इस दौरान कुछ व्यापारिक और राजनैतिक सत्ता में वृद्धि भी हुयी / ऊँ के व्यापर में अच्छी वृद्धि हुयी / १४वॆ शताब्दी में इंग्लिश को मुख्या भाषा घोषित किया गया , उसके पहले राजा के न्यायलय में फ्रेंच ही मुख्य भाषा थी /
    (२) 15 वीं शताब्दी से १७वॆ शताब्दी के अंत में ब्रिटेन की जनसँख्या ४ गुना बढ़ी / एवरेज लाइफ टाइम की आयु सुधरी और कोस्टल शिपिंग के कारण अनाज के इन्तिजाम में सुधार होने के कारन सूखे से होने वाली मौतों में कमी आयी
    (२) 1500 से 1700 के बीच ब्रिटेन की प्रति व्यक्ति आय दर में दुगुना वृद्धि हुयी /
    (३) 1760 में कॉटन टेक्सटाइल इंडस्ट्री में बहुत अच्छी ग्रोथ हुयी / उसके पहले 150 वर्षों में कॉटन के कपडे और घरों के फर्नीचर का सामन भारत से इम्पोर्ट होता था /
    (४) 1774 और 1820 के बीच कच्चे कॉटन का इम्पोर्ट २० गुना बढ़ गया / और इन इन टेक्सटाइल मिलों में जहाँ 1770 में लगभग न के बराबर लोग काम करते थे , वहीँ 1820 तक सम्पूर्ण लेबर फ़ोर्स का छ प्रतिशत से ज्यादा लोग रोजगार प्राप्त करते हैं / कॉटन के कपड़ों का एक्सपोर्ट जो 1774 में मात्र दो प्रतिशत रहता है वो 1820 में बढ़कर 62 % हो जाता है /
    अब इस बात को समझिए क़ि जब अँगुस मैडिसन ये डेटा पेश करते हैं क़ि १७५० तक भारत की जीडीपी विश्व क़ि जीडीपी का 0 अड़ से 1750 AD तक लाघग 25 प्रतिशत का हिस्सेदार था ,जबकि 1750 में ब्रिटेन और अमेरिका दोंनों मिलकर मात्र 2 प्रतिशत जीडीपी के हिस्सेदार रहते हैं / जीडीपी का मतलब सकल घरेलु उत्पाद , तो उस उत्पाद का उत्पादक भी होगा / मशीनीकरण का युग नहीं था इस लिए हाँथ से हर घर और गावं में ये उत्पाद बनाये जाते थे / तो उनके उत्पादक वही हुए न जिनको टैवर्नियर PAUZACOUR के नाम से बुलाता है और वेर्निएर अर्टिसन के नाम से /
    1900 आते आते ब्रिटिश लूट और उसकी शाजिशन भारतीय उद्योग को नष्ट करने की नीतियों के कारण भारत क़ि हिस्सेदारी मात्र 2 प्रतिशत बचती है , और ब्रिटेन और अमेरिका मिलकर 42 प्रतिशत क़ि जीडीपी के हिस्सेदार बनते हैं , तो स्थिति पूरी तरह upside down हो जाती है /
    1760 में कॉटन टेक्सटाइल इंडस्ट्री में बहुत अच्छी ग्रोथ हुयी / उसके पहले 150
    वर्षों में कॉटन के कपडे और घरों के फर्नीचर का सामन भारत से इम्पोर्ट
    होता था /
    (४)
    1774 और 1820 के बीच कच्चे कॉटन का इम्पोर्ट २० गुना बढ़ गया / और इन इन
    टेक्सटाइल मिलों में जहाँ 1770 में लगभग न के बराबर लोग काम करते थे , वहीँ
    1820 तक सम्पूर्ण लेबर फ़ोर्स का छ प्रतिशत से ज्यादा लोग रोजगार प्राप्त
    करते हैं / कॉटन के कपड़ों का एक्सपोर्ट जो 1774 में मात्र दो प्रतिशत रहता
    है वो 1820 में बढ़कर 62 % हो जाता है / ................................................................इस कथन को ध्यान से पढ़ें और समझने क़ि कोशिश करें क़ि इसका अर्थ क्या है ?
     अब जब इसी बात को पॉल बरोच कहता है क़ि भारत में 1750 से 1900 के बीच 700 प्रतिशत पैर कैपिटा deindustrialisation होता है , यानि जो लोग हजारों सैलून से अपनी तकनिकी ज्ञान के कारन इस देश की जीडीपी का आधार रहें हो , वो बेघर और बेरोजगार हो जाते हैं /
     इस तथ्य की पुस्टि कार्ल मार्क्स भी करता है /
     कार्ल मार्क्स के 1853 के न्यूयॉर्क ट्रिब्यून में छापे लेख से उद्धृत एक लेखांश -
    अब जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने भूतपूर्व शाशकों से फाइनेंस और वॉर का विभाग तो अपने जिम्मे ले लेती है ,लेकिन जनता के देखरेख का दायित्व लेने से इंकार कर देती है / ईसलिए कृषि क़ि दुर्दशा होने लगती है / लेकिन एशिया के साम्राज्यों में आम बात है क़ि एक शासक के समय यह स्थिति बिगड़ती है , परन्तु दूसरे शासक के आने पर सुधार जाती है / जैसे यूरोप में कृषि मौैसम के हिसाब से बिगड़ती सुधरती रहती है , वैसे ही वहां (भारत में ) सरकारों के बदलने पर कृषि का यही हां;ल होता है / इसलिय्रे कृषि क़ि दुर्दशा से भारतीय समाज को उतने खस्ता हाल नहीं हुयी जितनी क़ि एशियाटिक एनल्स में दर्ज अन्य महत्वपूर्ण बात से हुयी / प्राचीन काल से ही भारत में चाहे जो भी राजनैतिक परिवर्तन हो ,उसका असर वाहन के समाज पर कभी नहीं पड़ा है , सिवा १९वॆ शताब्दी के प्रथम दशक को छोड़कर (1810 ) / अनंतकाल से हैंड लूम और स्पिनिंग व्हील और स्पिनर्स और वीवर्स क़ि फ़ौज इस समाज क़ि धुरी हुवा करता है , और यूरोप उस भारतीय श्रम से उत्पन्न शानदार टेक्सटाइल के बदले उनको महंगे सोना चंडी देता आया है , जिनके अंदर इन अभूषणों के के प्रति इतनी लगाव है क़ि गरीब से गरीब तबका जो लगभग नंगा रहता है वो भी कान में सोने क़ि बलि या गले में एक आभूषण जरूर पहनता है / औरतें और बच्चे अक्सर सोने या चांदी के भारी भारी ब्रेसलेट (बाजूबंद ) या अंकलेट अ(गोड़हरा ) अवश्य पहनते हैं / ये ब्रिटिश आक्रांतकर्ता थे जिन्होंने भारतीय हैंडलूम को बंद करवाया और स्पिनिनिंग व्हील को नष्ट किया /इंग्लैंड ने पहले यूरोपियन मार्किट से भारतीय कॉटन को बाहर किया फिर , फिर इसने उल्टा भारत को कॉटन सप्लाई करना शुरू किया , यानि कॉटन की मदर कंट्री को ही कॉटन देने का काम / 1818 से 1836 ग्रेट ब्रिटेन से उल्टा को भारत ही कॉटन निर्यात 1 से बढ़कर ५२०० गुना हो गया / जहाँ १८२४ में भारत को ब्रिटिश कपड़ों क़ि मात्र १'०००'००० गज था , वो १८३७ में बढ़कर ६४'०००'०००' गज हो जाता है , लेकिन उसी समयकाल में ढाका की जनसँख्या १५०,०००, से घटकर मात्र २०.००० बचती है / किसी समय फैब्रिक के लिए मशहूर कसबे की गिरावट अंतिम कील नहीं थी , अंतिम कील ब्रिटेन की स्टीम और साइंस ने ठोंका , जिससे हिन्दोस्तान का , कृषि और मैन्युफैक्चरिंग का सम्बन्ध ही ख़त्म हो गया /...............................................................Written: June 10, 1853;
    First published: in the New-York Daily Tribune, June 25, 1853;
    Proofread: by Andy Blunden in February 2005.
    In writing this article, Marx made use of some of Engels’ ideas as in his letter to Marx of June 6, 1853.
     अब ब्रिटेन एक ऐसा देश जहाँ इंडस्ट्री और उसके जरिये लोगों को रोजगार मिलना शुरू हो गया है । तब भी 1917 तक उस 10 प्रतिशत आबादी विकास और इंडस्ट्री का हिस्सा नही बन पाया है , unskilled है ,गंदे तरीके से रहता है लोफर है गन्धाता रहता है गन्दगी से रहने खाने और शराब पीने के कारण , और समाज के सारे मेहनत का काम menial जॉब वही 10 % तबका करता है , इसलिए एनी बेसेंट के शब्दों में - " One tenth submerged class ".
     वहीँ भारत में एक तबका ऐसा पैदा हो गया था उसी समयकाल तक जो स्किल्ड था लेकिन उसके पास काम नहीं था ।हजारों साल से जिसके दम पर पैदा किये गए उत्पादों की लालच में न जाने कितने बर्बर और अत्याचारी तुर्क मुग़ल और यूरोपीय ईसाई खिंचे चले आते थे ।वो बेरोजगार बेघर हो चूका है। भारत की अर्तव्यवस्था 1200 % मात्र डेढ़ सौ सालो में गिरकर धराशायी हो चुकी है।मैकाले की शिक्षा से दीक्षित न जाने कितने शासक और जनता के बीच के बिचौलिए पैदा हो चुके थे - देखने में और खून से भारतीय लेकिन सोच समझ और अंग्रेज माइंडसेट के लोग।
    ऐसे में ब्रिटिश शासक इस बेघर बेटोजगार तबके को , जो ऊपर एनी बेसेंट के शब्दों में वर्णित गन्दगी में जीने को मजबूर भुखमरी के कगार पर कुछ भी काम करके जीवनयापन करने को विवश, उसको "Depreesed Class" में categorize करते है जो 1917 में आबादी का एक छठा हिस्सा है ।
    एनी बेसेंट के शब्दों में -One Sixth Generic Depreesed class ".
    यही जेनेरिक डिप्रेस्ड क्लास 1935 आते आते डॉ आंबेडकर की आँखों के आगे दलित चिंतको के अनुमान से तीन चौथाई से ज्यादा - ब्रांडेड opressed Claas" में तब्दील हो जायेगा ।
    फिर इसी की scheduling हो जायेगी।
      लेकिन उनका क्या हुवा जो artisan गायब हो गए handcraft और artisan के व्यवसाय से गायब होने के बाद ।
    मर तो नही गएँ होंगे ।
    जिन्दा रहने के लिए किसी नयी जगह पर गए होंगे।
    जीने के लिए कोई नया साधन इख़्तियार किया होगा।



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