वर्ण सवर्ण और असवर्ण की व्याख्या
वर्ण के कई अर्थ होते हैं ।
1- वर्ण का एक अर्थ होता है अक्षर उदहारण स्वरूप वर्णमाला यानि अक्षरों की माला।
2- दूसरा अर्थ होता है रंग जैसे कृष्ण और राम श्याम_वर्ण के थे ।
3- वर्ण का तीसरा अर्थ होता है - वर्गीकरण उदहारण स्वरूप वर्णधर्माश्रम वर्ण व्यवस्था तथा वर्णाक्षर /
वर्णधर्माश्रम : में जीवन का ब्रम्हचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ और सन्यास अवस्था में वर्गीकरण ।
वर्णाक्षर : का विभाजन स्वर और व्यंजन मे
वर्ण व्यवस्था : जैसा शब्द संस्कृत में नही है ।लेकिन अगर जिसको हम गुण कर्म या स्वधर्म भी कह सकते हैंउसके अनुसार वर्ण को आप परिभासित करेंगे तो गुण धर्म/कर्तव्यों के अनुसार मानव संसाधन का ब्राम्हड़ क्षत्रिय वैश्य शुद्र में, गुण और कर्म के अनुरूप वर्गीकरण ।
गीता में लिखा है : चातुस्वर्ण मया सृस्टि गुण कर्म विभागसह् । अर्थात मैंने मनुष्यों को उनके गुण और कर्म के आधार चार वर्गों की रचना की है /
और ये प्रथा कौटिल्य के काल तक चलती आयी इसके तथ्यात्मक प्रमाण हैं / चाणक्य कहते हैं कि एक स्त्री के यदि चार पुत्र हों और चारों स्वधर्म के अनुसार ब्रामहन क्षत्रिय वैश्य या शूद्र कर्म के अनुरूप जीवन यापन कर रहे हों तो पत्रिक संपत्ति के बँटवारे मे ब्रामहन को बकरी , क्षत्रिय को अश्व , वैश्य को गाय और शूद्र को भेंड दिया जाना चाहिए /
अब सवर्ण का अर्थ : एक ही वर्ण या वर्ग में , प्रायः शादी के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता था। जैसे सगोत्रीय शादी या सजातीय शादी / अर्थात Within the same class
असवर्ण का अर्थ दूसरे वर्ण में , प्रायः शादी के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता था / अर्थात In different class
अर्थात अगर ब्राम्हण गुण कर्म वाले पुरुष की शादी उसी गुण कर्म वाली स्त्री से होती है तो सवर्ण । लेकिन यदि उसकी शादी किसी अन्य गुण कर्म वाले वर्ण से शादी होती है तो असवर्ण।
बाकी ये व्याख्या कि सवर्ण का अर्थ ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य और असवर्ण का अर्थ शुद्र ; ये ईसाई संस्कृतज्ञों द्वारा फैलाये हुए झूठ कि #आर्य_बाहर_से आये की शाजिश मात्र है, जिसमे वर्ण कि वो व्याख्या भी है कि #वर्ण का अर्थ #चमड़ी का रंग / और बाहर से आने वाले आर्य अर्थात ब्रामहन क्षत्रिय वैश्य मूलनिवासी काले शूद्रो से ज्यादा साफ रंग (fair color) के थे / ये व्याख्या जॉन मुईर की है उसके आरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट में , जिसको डॉ अंबेडकर ने बहुतायत से अपनी पुस्तकों मे उद्धृत किया है / इसाइयों की इस शजिश को कालान्तर में दलित चिंतको ने और वामपंथियों ने आगे बढ़ाया। शुद्र भी #सवर्ण होता है ।ये डॉ आंबेडकर ने भी लिखा है।
दूसरा भ्रम कि #वर्ण का रंग एक खास #चमणी का #रंग ये ईसाईयों की बाइबिल से उत्रंपत्र रंगभेद्व नीति का हिस्सा भर है ।और रंगभेद की बीमारी से ग्रसित गोरे लोगों की परिकल्पना है/ क्योंकि अगर चमड़ी के रंग को आधार माना जाएगा तो भगवान राम और कृष्ण भी असवर्ण माने जाएँगे/
आज की स्थिति : लेकिन अंग्रेजों ने , डॉ अंबेडकर ने , और तत्पश्चात कलम और कागज पर एकाधिकार जमाने वाले वामपंथियों ने भारत के समाज को सवर्ण ( ब्रामहन क्षत्रिय वैश्य ) और असवर्ण ( शूद्र ) मे बाँट रखा है , थ जिसका किसी भारतीय परंपरा और ग्रंथ मे उल्लेख तक नहीं है /
उससे आगे बढ़ते हुये संविधान सभा ने और डॉ अंबेडकर ने भारत को और विभाजित करने के लिए शाजिश के तहत तथाकथित सवर्णों / आर्यों को जाति मे बदलकर , और फिर शूद्रकर्मा भारतीय उत्पादों के विनिर्मांकर्ताओं को हजारों जातियों मे चिन्हित कर #संविधान मे आत्मसात कर लिया /
अब जब ये संविधान इस धरती का कानून बन गया, जो वेदों उपनिषदों से भी ऊपर है ,और उसने जाति को संवैधानिक संस्था बना दिया , तो भारत के उन महानुभावों को, जिनहोने जाति को संवैधानिक पहचान का कानून बनाया , उनको जूतों की माला पहनाने के बजाय ये एक तरफ उनकी पूजा कर रहे हैं, और दूसरी तरफ जाति खत्म करने का #रंडीरोना पिछले 70 सालों से मचाए हुये हैं /
इस शाजिश और मानसिक दिवालिये पन का क्या इलाज है ?
1- वर्ण का एक अर्थ होता है अक्षर उदहारण स्वरूप वर्णमाला यानि अक्षरों की माला।
2- दूसरा अर्थ होता है रंग जैसे कृष्ण और राम श्याम_वर्ण के थे ।
3- वर्ण का तीसरा अर्थ होता है - वर्गीकरण उदहारण स्वरूप वर्णधर्माश्रम वर्ण व्यवस्था तथा वर्णाक्षर /
वर्णधर्माश्रम : में जीवन का ब्रम्हचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ और सन्यास अवस्था में वर्गीकरण ।
वर्णाक्षर : का विभाजन स्वर और व्यंजन मे
वर्ण व्यवस्था : जैसा शब्द संस्कृत में नही है ।लेकिन अगर जिसको हम गुण कर्म या स्वधर्म भी कह सकते हैंउसके अनुसार वर्ण को आप परिभासित करेंगे तो गुण धर्म/कर्तव्यों के अनुसार मानव संसाधन का ब्राम्हड़ क्षत्रिय वैश्य शुद्र में, गुण और कर्म के अनुरूप वर्गीकरण ।
गीता में लिखा है : चातुस्वर्ण मया सृस्टि गुण कर्म विभागसह् । अर्थात मैंने मनुष्यों को उनके गुण और कर्म के आधार चार वर्गों की रचना की है /
और ये प्रथा कौटिल्य के काल तक चलती आयी इसके तथ्यात्मक प्रमाण हैं / चाणक्य कहते हैं कि एक स्त्री के यदि चार पुत्र हों और चारों स्वधर्म के अनुसार ब्रामहन क्षत्रिय वैश्य या शूद्र कर्म के अनुरूप जीवन यापन कर रहे हों तो पत्रिक संपत्ति के बँटवारे मे ब्रामहन को बकरी , क्षत्रिय को अश्व , वैश्य को गाय और शूद्र को भेंड दिया जाना चाहिए /
अब सवर्ण का अर्थ : एक ही वर्ण या वर्ग में , प्रायः शादी के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता था। जैसे सगोत्रीय शादी या सजातीय शादी / अर्थात Within the same class
असवर्ण का अर्थ दूसरे वर्ण में , प्रायः शादी के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता था / अर्थात In different class
अर्थात अगर ब्राम्हण गुण कर्म वाले पुरुष की शादी उसी गुण कर्म वाली स्त्री से होती है तो सवर्ण । लेकिन यदि उसकी शादी किसी अन्य गुण कर्म वाले वर्ण से शादी होती है तो असवर्ण।
बाकी ये व्याख्या कि सवर्ण का अर्थ ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य और असवर्ण का अर्थ शुद्र ; ये ईसाई संस्कृतज्ञों द्वारा फैलाये हुए झूठ कि #आर्य_बाहर_से आये की शाजिश मात्र है, जिसमे वर्ण कि वो व्याख्या भी है कि #वर्ण का अर्थ #चमड़ी का रंग / और बाहर से आने वाले आर्य अर्थात ब्रामहन क्षत्रिय वैश्य मूलनिवासी काले शूद्रो से ज्यादा साफ रंग (fair color) के थे / ये व्याख्या जॉन मुईर की है उसके आरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट में , जिसको डॉ अंबेडकर ने बहुतायत से अपनी पुस्तकों मे उद्धृत किया है / इसाइयों की इस शजिश को कालान्तर में दलित चिंतको ने और वामपंथियों ने आगे बढ़ाया। शुद्र भी #सवर्ण होता है ।ये डॉ आंबेडकर ने भी लिखा है।
दूसरा भ्रम कि #वर्ण का रंग एक खास #चमणी का #रंग ये ईसाईयों की बाइबिल से उत्रंपत्र रंगभेद्व नीति का हिस्सा भर है ।और रंगभेद की बीमारी से ग्रसित गोरे लोगों की परिकल्पना है/ क्योंकि अगर चमड़ी के रंग को आधार माना जाएगा तो भगवान राम और कृष्ण भी असवर्ण माने जाएँगे/
आज की स्थिति : लेकिन अंग्रेजों ने , डॉ अंबेडकर ने , और तत्पश्चात कलम और कागज पर एकाधिकार जमाने वाले वामपंथियों ने भारत के समाज को सवर्ण ( ब्रामहन क्षत्रिय वैश्य ) और असवर्ण ( शूद्र ) मे बाँट रखा है , थ जिसका किसी भारतीय परंपरा और ग्रंथ मे उल्लेख तक नहीं है /
उससे आगे बढ़ते हुये संविधान सभा ने और डॉ अंबेडकर ने भारत को और विभाजित करने के लिए शाजिश के तहत तथाकथित सवर्णों / आर्यों को जाति मे बदलकर , और फिर शूद्रकर्मा भारतीय उत्पादों के विनिर्मांकर्ताओं को हजारों जातियों मे चिन्हित कर #संविधान मे आत्मसात कर लिया /
अब जब ये संविधान इस धरती का कानून बन गया, जो वेदों उपनिषदों से भी ऊपर है ,और उसने जाति को संवैधानिक संस्था बना दिया , तो भारत के उन महानुभावों को, जिनहोने जाति को संवैधानिक पहचान का कानून बनाया , उनको जूतों की माला पहनाने के बजाय ये एक तरफ उनकी पूजा कर रहे हैं, और दूसरी तरफ जाति खत्म करने का #रंडीरोना पिछले 70 सालों से मचाए हुये हैं /
इस शाजिश और मानसिक दिवालिये पन का क्या इलाज है ?
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