डॉ अंबेडकर के उन संस्कृतज्ञ संदर्भ सूत्रों की एक जांच पड़ताल, जिनके संदर्भों को लेकर उन्होने अपनी थेसिस लिखी थी/
----------------------------------------------------------------------------------------------------------- डॉ अंबेडकर ने लिखा कि - "शूद्र संपत्ति के अधिकार से वंचित थे " /
आइये देखें कि यह एक भ्रांति थी , या झोला छाप ईसाई संस्कृतज्ञों की रची हुयी शाजिश थी , जिनके बिछाए जाल मे डॉ अंबेडकर सहज रूप से फंस कर रह गए /
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तो प्रश्न फिर वही आके अँटक जाता है कि शूद्र संपत्ति के अधिकार या संपत्ति से कब वंचित थे या हुए ??
या तो प्रागैतिहासिक समय में जिसका हमारे पास ग्रंथो के उद्धरण के अलावा कोई सबूत नहीं है या फिर 1807 के बाद ?
तो फिर सबूतों की सुई , घूम फिर कर भारत के 1750 के बाद के आर्थिक इतिहास पर आकर ठहर जाती है /
इस कठोर सच्चाई की ओर नजर उठकर कर देखिये तो सच्चाई कि परतें खुलती हुई नजर आएंगी /
डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक "शूद्र कौन है " में ज्यादातर जॉन ज्यादा मुइर को क्वोट किया है / जॉन मुईर की पर्सनालिटी के बारे में बाद में , लेकिन पहले उसकी पुस्तक Original Sanskrit Texts on the Origin and Progress of the Religion में से कुछ उध्दरण -जो जॉन मुइर की अपनी खुद की राय हैं -
" -हिन्दू ,,जो कि indogerman के उत्पत्ति हैं ,,भारत में बाहर से आये और सबसे पहले उत्तर भारत में रहने लगे / (प्राककथन ) /
-माधव ने कहा कि वेद तीन सिर्फ श्रेष्ठ तीन जातियाँ ही वेद पढने योग्य है /
-मिथिकीय दृष्टिकोण से देखा जाय तो वेदों कि उत्पत्ति के बारे में विरोधाभास है /
- ब्रम्हा ,वेदांत और सरिरिका सूत्र के निर्माता बादरायण जी के बारे मे आचार्य शंकर और जैमिनी दोनों एक मत है / इस प्रश्न के उत्तर में कि क्या कोई भी हिन्दू वेद पढ़ सकता है ? काफी विमर्श के बाद , सूत्रों के रचनाकार इस निर्णय पर पहुंचे हैं ,कि सिर्फ तीन श्रेष्ठ जनजातियाँ (ट्राइब्स) ही वेद पढने के योग्य हैं,,चौथी निम्न जनजाति (ट्राइब) वेदों के पढने के आयोग्य है / "....Original Sanskrit Texts on the Origin and Progress of the Religion and ....पेज ६५-६
- "ये नान आर्यन नश्ल के लोग अम्रीका के रेड इंडियंस की तरह ही कमजोर नश्ल के थे / दूसरी तरफ Arians ज्यादा संगठित और enterprising और creative लोग थे, धरती पर जन्म लेने वाले ज्यादा सुदृढ़ पौधे और जानवरो की तरह ज्यादा सुदृढ़ लोग/ अंततः दो विपरीत राजनैतिक लोगों की तरह अलग दिखने वाले लोग / Arian इस तरह से श्रेष्ठ और विजेता नश्ल साबित हुयी / इसको प्रमाणित करने के लिए complexion ( रंग) को एक और सबूत की तरह प्रस्तुत किया जा सकता है/
संस्कृत मे caste को मूलतः रंग ( कलर) के नाम से जाना जाता है इसलिए caste उनके रंग ( चमड़ी के रंग) से निर्धारित हुयी / लेकिन ये सर्व विदित है की ब्रांहनों का रंग शूद्रों और चांडालों से ज्यादा फेयर था / इसी तरह क्षत्रियों और वैश्यों का रंग भी फेयर रहा होगा /
इस तरह हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि Arian - इंडियन मूलतः काले मूलनिवासियों से भिन्न थे ; और इस अनुमान को बल मिलता है कि वे किसी उत्तरी देश से आए थे / अतः Arian भारत के मूलनिवासी नहीं थे बल्कि किसी दूसरे देश मे उत्तर ( भारत ) मे आए और यही मत प्रोफेसर मक्ष्मुल्लर का भी है "/
from - Original Sanskrit Texts , Second Part ; पेज 308- 309 by john muir
ये है डॉ अंबेडकर के सबसे चहेते संदर्भ वाले संस्कृतज्ञ का एक उद्धरण / कल्पना की भी कोई सीमा होती होगी , लेकिन जॉन मुईर के आरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट के ऑरिजिनैलिटी की की सीमा नहीं , असीमित है , अनिर्वाचनीय है /
जहाँ आंबेडकर जी खुद ही इस निर्णय पर पहुंचे है कि आर्य यानि हिन्दू बाहर से नहीं आये थे बल्कि मूल निवासी थे, indogerman नहीं थे/ तो उसी का खंडन करने वाले जॉन मुईर के बाकी निष्कर्षो से सहमति का क्या आधार है ??
सफ़ेद चमड़ी वाले क्रिस्चियन बाइबिल की श्रेष्ठता से इतने ग्रस्त थे कि उनको वेदों के निर्माताओ की बुद्धि को एक बच्चे से बड़ा नहीं समझते थे । मानवता के शुरवात में वेदों की रचना हुई , तो कमतर मस्तिस्क वाले हिन्दू जंगल में ही तो रहता होगा , इसलिए उनको ट्राइब कह कर संबोधित किया गया । ट्राइबल इलाके के निवासी - इसलिए ट्राइब ।
अब कुछ शब्द #जॉन_मुइर के बारे में / जॉन मुइर एक स्कॉटिश था जिसके पैदाइश 1910 में हुई थी ,वो 1929 में बंगाल में सिविल सर्वेंट के रूप में आया बाद में ये इलाहाबाद में रेवेनुए कमिशनर था / बाद में ये फतेहपुर जज बना / ये ईसाइयत फैलाने वाली मिशनरी उत्साह के बजाय सादगी से इसे ईसाइयत को हिन्दू मत से श्रेष्ठ सिद्ध करने का हिमायती था / 1939 में इन्होने एक "मत्परीक्षा" नाम कि पुस्तक लिखी ,जिसमे हिंदूइस्म को ईसाइयत से तुलना तो की,लेकिन ईसाइयत को श्रेष्ठ मत बताया /
इसके बाद इन्होने भारत की सभ्यता ,संस्कृति और धार्मिक इतिहास प् एक किताब लिखी ....... "Original Sanskrit Texts on the Origin and Progress of the Religion and Institutions of India" 1958
अब २ सवाल उठते हैं-
(१) क्या इस उम्र में (लगभग 40 से 50 साल की उम्र ) एक स्कॉटिश ,सरकारी नौकरी करते हुए ,,क्या संस्कृत में इस तरह दीक्षित हो सकता है की ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट पढने की काबिलियत पैंदा कर सकता है ?
(२) क्या कोई संस्कृत में दीक्षित होने के बावजूद उस उम्र में सरकारी नौकरी करते हुए ,,4 वेद ,108 उपनिषद गीता रामायण, ब्राम्हण स्मृतियाँ ,असंख्य पुराण , और महाभारत न जाने कितने सूत्र और भाष्य इत्यादि सारे ग्रंथो को पढ़ सकता है ??
और उन पर एक एक्सपर्ट की तरह अपना मत प्रकट कर सकता है /
तो फिर संदेह होना लाजिम नहीं है क्या कि क्या वाकई ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट है ?? सिर्फ ओरिजिनल लिख भर देने से कोई चीज ओरिजिनल हो सक्ती है क्या ? यानि एक और संस्कृतज्ञ विद्वान से कॉपी एंड पेस्ट / इसीलिये मैंने लिखा कि आंबेडकर जी ने जो भी उद्धरण अपनी पुस्तक में शामिल किया है वो अनुवादों के अनुवादों का अनुवाद है, ओरिजिनल नहीं है / और साथ कल्पना की उड़ान मलाई मार के/
सोचिये जरा एक पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यक्ति जो हिंदूइस्म को ईसाइयत से निम्न समझता है ,,,उसकी ईमानदारी पर आप शक क्यों नहीं करेंगे ??
फिर उस व्यक्ति जो शक के दायरे में आ जाता है उसको पढ़ कर और कॉपी पेस्ट किये गए तथ्यों पर लिखी गयी पुस्तक की प्रामाणिकता कितनी हो सकती है /
दूसरा रिफरेन्स डॉ आंबेडकर ने मॅक्समुल्लर का दिया है जो एक जर्मन इंडोलॉजिस्ट है / इंडोलॉजिस्ट का मतलब जो भारत प्रागऐतिहासिक इतिहास और संस्कृत भाषा के विद्वान है /
अब तक 133 इंडोलॉजिस्ट तो सिर्फ जर्मन विद्वान हुये है , सोचिये जरा ?अनुवादों के अनुवादों का अनुवाद करने वाले /
मॅक्समुल्लर फ्रांस में एक दूसरे इंडोलॉजिस्ट द्वारा संस्कृत English डिक्शनरी ,,पढ़कर संस्कृत के विद्वान बने गया था / उनका जन्म 1828 में जर्मनी में हुवा था और बेसिक शिक्षा जर्मन में हुवी थी , उन्होंने 1860 में ऑक्सफ़ोर्ड में "प्रोफेसरशिप ऑफ़ बोडेन चेयर " के लिए इलेक्शन लड़ा लेकिन एक दूसरे ब्रिटिश इंडोलॉजिस्ट Sir Monier Monier-विलियम्स से हार गए (क्योंकि 1857 में भारत में शहीद किये गए अंग्रेजों, के कारन इंग्लॅण्ड में उत्पन्न जनाक्रोश के कारण ब्रिटिश राष्ट्रवाद बहुत जोरों पर था /)
Sir Monier Monier विलियम जी का भारत में द्रविड़ियन कल्चर को पैदा करने में काफी बड़ा योगदान था /
ऑक्सफ़ोर्ड में "प्रोफेसरशिप ऑफ़ बोडेन चेयर " कि स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्नल जोसफ बोडेन ने भारत में लूट के अपने पैसे को विश्वविद्यालय को दान देकर किया था/ इस चेयर एकमात्र उद्देश्य संस्कृत का अध्ययन करके भारत में ईसाइयत में फैलाना है /(गूगल गुरु से मदद लें )
अब इसके बाद बेरोजगार मैक्समूलर को ईस्ट इंडिया कंपनी में प्रतिदिन की मजदूरी पर ,भारत के संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद करना था / हालांकि मैक्समूलर कभी भारत नहीं आये ,लेकिन उदारमना भारतीयों ने दिल्ली में उनके योगदान के लिए मैक्समूलर भवन कि स्थापना की है /
एक भारतीय इतिहासविद प्रदोष एच ने लिखा है कि मैक्समूलर एक स्विंडलर था / जो आदमी विशेविद्यालय मे झाँका तक न हो उसको भी अगर डॉ और प्रोफेसर कोई बना सकता हैं - तो इस देश के समाजशाश्त्र के विद्वानो का अभिनंदन होना ही चाहिए/ ये प्रदोश आइछ ने अपने शानदार रिसर्च बूक मे प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर लिखा है/
http://www.google.co.in/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s...
तीसरा रिफरेन्स डॉ आंबेडकर ने दिया है , इंडोलॉजिस्ट प्रोटेस्टंट मिशनरी M A शेररिंग का, जिसने 1872 में "कास्ट एंड ट्राइब्स ऑफ़ इंडिया " नामक किताब लिखी /
ये प्रथम इंडोलॉजिस्ट हैं जिन्होंने पहली बार caste को आधार बनाते हुए पुस्तक लिखी है लेकिन अभी इनके समय तक भी caste का मतलब सिर्फ पेशा ही था /
लेकिन ये इस बात से निराश थे कि ब्रिटिश भारत के हिन्दू ईसाई धर्म अपनाने को तैयार क्यों नहीं हो रहे थे / अतः इन्होने इसका एक नयी तरकीब खोजी / इन्होने तर्क दिया - "क्योंकि वेदों में जातियों का वर्णन नहीं है ( वस्तुतः किसी भी संस्कृत टेक्स्ट में नहीं है ), अतः ये लोगो को जातियों में बांटने की "धूर्त ब्राम्हणों " की शाजिश है / "
ये पहला ईसाई पादरी था जिसने ईसाइयत फ़ैलाने हेतु .ब्राम्हणो और ब्रम्हानिस्म को गाली दी /प्रकारांतर में ये काम वामपंथी और दलित चिंतक कर रहे हैं /
अब फिर बात वहीँ आकर फंस गयी --भारत के 1750 के बाद के आर्थिक इतिहास पर जब भारत का जीडीपी विश्व जीडीपी का 25 प्रतिशत शेयर होल्डर था और ब्रिटेन मात्र 2 प्रतिशत का / भारत एक एक्सपोर्टर देश था / लेकिन एक पादरी को ब्रम्हानिस्म को गरियाने का समय काल को देखिये 1900 के आसपास ,जब भारत का आर्थिक ढांचा पूरी तरह नष्ट हो गया था / और वो मात्र २ प्रतिशत DGP का शेयर होल्डर बचा था / यानि upside डाउन / 87.5 % प्रतिशत वार्ता और कारकुशीलव अर्थात शिल्प निर्माता बेरोजगार बेघर हो चुके थे /और दरिद्रता का आलम ये था कि 1875- 1900 के बीच 2.5 से 3 करोड़ लोग भूख से और अन्न के अभाव से मौत के मुह मे समा जाते हैं , यद्यपि अन्न का कोई अभाव नहीं था , बस उनके पास अन्न खरीदने की क्रयशक्ति नहीं बची थी /
कार्ल मार्क्स के 1853 में भारत के बारे में छपे एक लेख के अनुसार ढाका में 1815 में करीब एक लाख पचास हज़ार शिल्पी थे ,जिनकी संख्या 1935 में घटकर मात्र बीस हज़ार बची थी / बाकी एक लाख 30 हजार शिल्पियों का और उनके परिवार का क्या हुआ , जो भारत के गौरवशाली जीडीपी के दो हजार साल से उत्पादक थे / ये प्रश्न डॉ अंबेडकर की आँख मे आँख डालकर उनके भारतीय समाज और उसके इतिहास के समझ पर प्रश्ञ्चिंह खड़ा कर रहे हैं /
क्या उनको जबाव मिलेगा ? अंबेडकर के झंडाबरदार अनुयायी क्या इन सहज जिज्ञासाओं का सामना करेंगे ?
क्या M A शेरिंग जैसे bigot क्रिश्चियन इंडोलॉजिस्ट के रिफरेन्स पर प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा किया जाना चाहिए ??
एक नई दृष्टि से नीचे वर्णित लेख को पढ़ें , सोचे , और मेरे लेख पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करें /
शूद्र एक घृणित सम्बोधन कब हुआ :
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(१) डॉ बुचनन ने १८०७ में प्रकाशित ,अपनी पुस्तक में ये जिक्र किया है ..बंटर्स शूद्र थे , जो अपनी पवित्र वंशज से उत्पत्ति बताते हैं / देखिय बताने वालों के शब्दों में एक आत्म सम्मान और गर्व का पुट है / यानि 1800 के आस पास तक शूद्र कुल में उत्पन्न होना , उतना ही सम्मानित थे , जितना तथाकथित द्विज वर्ग / इसके अलावा 1500 से 1800 के बीच के ढेर सारे यात्रा वित्रांत हैं जो यही बात बोलते हैं ..अगर आप कहेंगे तो ,,उनको भी क्वोट कर दूंगा/ फिर धूम फिर कर सुई वापस भारत के आर्थिक इतिहास पर आ जाता है / 1900 आते आते भारत के सकल घरेलु उत्पाद में 1750 की तुलना में 1200 प्रतिशत की घटोत्तरी हुई ,700 प्रतिशत जो घरेलु उत्पाद के प्रोडूसर थे , उनके सर से छत , तन से कपडे छीन गए और उनका परिवार भुखमरी ,,और भिखारी की कगार पर पहुँच गया / अब उन्ही पवित्र शूद्रों के वंशजों की स्थिति 150 सालों में ,,upside डाउन हो गयी / अगर छ सात पीढ़ियों में शूद्र "रिचेस तो रुग्स " की स्थिति में पहुँच गया तो समाज का दृष्टिकोण भी बदल गया /जब एक अपर जनसमूह जिसकी रोजी रोटी का आधार हजारों साल से --"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च /" के आधार पर जीवन यापन करने वाला शूद्र वर्ण में विकसित हुवा तबके का आधारभूत, परंपरागत व्यवसाय जाता रहा / यही वर्ग हजारों सालों से भारत के अर्थजगत की रीढ़ हुआ करती थी / समाज में भौतिकता यानि spirituality का ह्रास हो रहा था / एक सोसिओलोगिस्ट प्रोफेसर John Campbell ओमान ने अपनी पुस्तक "Brahmans theism एंड Musalmans " में लिखा .."कि ब्रम्हविद्या और पावर्टी ( अपरिग्रह और हमारे ऋषि मुनि साधू सन्यासी और गांधी के भेष भूसा को कोई ब्रिटिश - पावर्टी ही मानेगा ) का सम्मान जिस तरह ख़त्म हो रहा है ,,बहुत जल्दी वो समय आएगा ,,जब भारत के लोग धन की पूजा ,पश्चिमी देश कि तरह ही करेंगे / " तो ऐसे सामजिक उथल पुथल में ...ये तबका सम्मानित तो नहीं ही रह जाएगा ,,घृणित ही समझा जाएगा / ये तो सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की देन है /
(२) शूद्र शब्द दुबारा तब घृणित हुआ जब इस बेरोजगार बेघर हुए तबके को को बाइबिल के फ्रेमवर्क में फिट किया गया /
बाइबिल के अनुसार जेनेसिस (ओल्ड टेस्टामेंट ) में ये वर्णन है ,( Genesis 5:32-10:1New International Version (NIV) ) नूह की उम्र ५०० थी और उसके तीन पुत्र थे Shem, Ham and Japheth.गॉड ने देखा की जिन मनुष्यों को उसने पैदा किया था, ,उनकी लडकिया खूबसूरत हैं ,और वे जिससे मन करता है उसी से शादी कर लेती हैं ,/ गॉड ने ये भी देखा की मनुस्य दुष्ट हो गया है ,तो उसने महाप्रलय लाकर मनुष्यों को ख़त्म करने का निर्णय लिया / लेकिन नूह सत्चरित्र और नेक इंसान था तो , गॉड ने नूह से कहा कि सारे जीवों का एक जोड़ा लेकर नाव में बैठकर निकल जाओ,जिससे दुबारा दुनिया बसाया जा सके / जब महाप्रलय ख़त्म हुवा ,और धरती सूख गयी, तो नूह ने अंगूर की खेती की ,और उसकी वाइन (शराब ) बनाकर पीकर मदहोश हो गया ,और नंग धडंग होकर टेंट में गिर पड़ा / उसको Ham ने इस हालत में देखा तो बाहर जाकर अपने २ अन्य भाइयों को बताया
/ तो Shem, और Japheth.ने मुहं दूसरी तरफ घुमाकर कपडे से नूह को ढक दिया, और नूह को नंगा नहीं देखा / यानि सिर्फ Ham ने नूह को नंगा देखा ।जब शराब का नशा उतरा तो सारी बात नूह को पता चली ,,तो उसने Ham को श्राप दिया की तुम्हारी आने वाली संतानें ,, Shem, और Japheth.की आने वाली संतानों की गुलाम बनकर रहेंगी /
क्रिस्चियन धर्म गुरु और च्रिस्तिअनों ने इस जेनेसिस में वर्णित घटना को लेटर एंड स्पिरिट में पूरी दुनिया में लागू किया / बाइबिल में , टावर ऑफ़ बेबल ये भी वर्णन है , की गॉड ने नूह की संतानों से कहा की सारी दुनिया में फ़ैल जाओ /
Monotheism वाले रिलिजन की एक बड़ी समस्या है ,,की वे अपने ही रिलिजन को सच्चा रिलिजन मानते हैं ,और बाकियों को असत्य धर्म /
ईसाई धर्म गुरुओं ओरिजन (185- 254 CE ) और गोल्डनबर्ग ने नूह के श्राप की आधार पर Ham के वंशजों को , को गुलामी और और उनके चमड़ी के काले रंग को नूह के श्राप से जोड़कर उसे रिलिजियस सैंक्टिटी दिलाया / काले रंग को उन्होंने अवर्ण,(discolored ) के नाम से सम्बोधित किया / उनकों घटिया , संस्कृति का वाहक और गुलामी के योग्य घोषित किया /
/जहाँ भी क्रिस्चियन गए ,और जिन देशों पर कब्ज़ा किया ,वहां के लोगो को चमड़ी रंग के आधार पर काले discolored लोगों को Hamites की संज्ञा से नवाजा / ईसाइयत में नूह के श्राप के कारन Hamites ,,असभ्य ,बर्बर और शासित होने योग्य बताया /
यही आजमाया हुवा नुस्का उन्होंने भारत पर भी अप्लाई किया / बाहर से आये आर्य गोरे रंग के यानि द्विज सवर्ण और यहाँ के मूल निवासी जिनको द्रविड़ , शूद्र अछूत अतिशूद्र काले यानि अवर्ण आदि संज्ञा दी गई वो बाइबिल के अनुसार Ham कि संताने ,जो अनंत काल की गुलामी में झुलसने को मजबूर ,यानि "घृणित शूद्र " यानि डॉ आंबेडकर के शब्दों में "menial जॉब " करने को मजबूर /
अर्थात कौटिल्य के अनुसार शूद्रों के धर्म -"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च /" से गिरकर अंबेडकर जी के शब्दों में शूद्रों का धर्म (कर्तव्य ) "menial जॉब " में बदल जाता है 1750 से 1946 आते आते /
----------------------------------------------------------------------------------------------------------- डॉ अंबेडकर ने लिखा कि - "शूद्र संपत्ति के अधिकार से वंचित थे " /
आइये देखें कि यह एक भ्रांति थी , या झोला छाप ईसाई संस्कृतज्ञों की रची हुयी शाजिश थी , जिनके बिछाए जाल मे डॉ अंबेडकर सहज रूप से फंस कर रह गए /
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
तो प्रश्न फिर वही आके अँटक जाता है कि शूद्र संपत्ति के अधिकार या संपत्ति से कब वंचित थे या हुए ??
या तो प्रागैतिहासिक समय में जिसका हमारे पास ग्रंथो के उद्धरण के अलावा कोई सबूत नहीं है या फिर 1807 के बाद ?
तो फिर सबूतों की सुई , घूम फिर कर भारत के 1750 के बाद के आर्थिक इतिहास पर आकर ठहर जाती है /
इस कठोर सच्चाई की ओर नजर उठकर कर देखिये तो सच्चाई कि परतें खुलती हुई नजर आएंगी /
डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक "शूद्र कौन है " में ज्यादातर जॉन ज्यादा मुइर को क्वोट किया है / जॉन मुईर की पर्सनालिटी के बारे में बाद में , लेकिन पहले उसकी पुस्तक Original Sanskrit Texts on the Origin and Progress of the Religion में से कुछ उध्दरण -जो जॉन मुइर की अपनी खुद की राय हैं -
" -हिन्दू ,,जो कि indogerman के उत्पत्ति हैं ,,भारत में बाहर से आये और सबसे पहले उत्तर भारत में रहने लगे / (प्राककथन ) /
-माधव ने कहा कि वेद तीन सिर्फ श्रेष्ठ तीन जातियाँ ही वेद पढने योग्य है /
-मिथिकीय दृष्टिकोण से देखा जाय तो वेदों कि उत्पत्ति के बारे में विरोधाभास है /
- ब्रम्हा ,वेदांत और सरिरिका सूत्र के निर्माता बादरायण जी के बारे मे आचार्य शंकर और जैमिनी दोनों एक मत है / इस प्रश्न के उत्तर में कि क्या कोई भी हिन्दू वेद पढ़ सकता है ? काफी विमर्श के बाद , सूत्रों के रचनाकार इस निर्णय पर पहुंचे हैं ,कि सिर्फ तीन श्रेष्ठ जनजातियाँ (ट्राइब्स) ही वेद पढने के योग्य हैं,,चौथी निम्न जनजाति (ट्राइब) वेदों के पढने के आयोग्य है / "....Original Sanskrit Texts on the Origin and Progress of the Religion and ....पेज ६५-६
- "ये नान आर्यन नश्ल के लोग अम्रीका के रेड इंडियंस की तरह ही कमजोर नश्ल के थे / दूसरी तरफ Arians ज्यादा संगठित और enterprising और creative लोग थे, धरती पर जन्म लेने वाले ज्यादा सुदृढ़ पौधे और जानवरो की तरह ज्यादा सुदृढ़ लोग/ अंततः दो विपरीत राजनैतिक लोगों की तरह अलग दिखने वाले लोग / Arian इस तरह से श्रेष्ठ और विजेता नश्ल साबित हुयी / इसको प्रमाणित करने के लिए complexion ( रंग) को एक और सबूत की तरह प्रस्तुत किया जा सकता है/
संस्कृत मे caste को मूलतः रंग ( कलर) के नाम से जाना जाता है इसलिए caste उनके रंग ( चमड़ी के रंग) से निर्धारित हुयी / लेकिन ये सर्व विदित है की ब्रांहनों का रंग शूद्रों और चांडालों से ज्यादा फेयर था / इसी तरह क्षत्रियों और वैश्यों का रंग भी फेयर रहा होगा /
इस तरह हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि Arian - इंडियन मूलतः काले मूलनिवासियों से भिन्न थे ; और इस अनुमान को बल मिलता है कि वे किसी उत्तरी देश से आए थे / अतः Arian भारत के मूलनिवासी नहीं थे बल्कि किसी दूसरे देश मे उत्तर ( भारत ) मे आए और यही मत प्रोफेसर मक्ष्मुल्लर का भी है "/
from - Original Sanskrit Texts , Second Part ; पेज 308- 309 by john muir
ये है डॉ अंबेडकर के सबसे चहेते संदर्भ वाले संस्कृतज्ञ का एक उद्धरण / कल्पना की भी कोई सीमा होती होगी , लेकिन जॉन मुईर के आरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट के ऑरिजिनैलिटी की की सीमा नहीं , असीमित है , अनिर्वाचनीय है /
जहाँ आंबेडकर जी खुद ही इस निर्णय पर पहुंचे है कि आर्य यानि हिन्दू बाहर से नहीं आये थे बल्कि मूल निवासी थे, indogerman नहीं थे/ तो उसी का खंडन करने वाले जॉन मुईर के बाकी निष्कर्षो से सहमति का क्या आधार है ??
सफ़ेद चमड़ी वाले क्रिस्चियन बाइबिल की श्रेष्ठता से इतने ग्रस्त थे कि उनको वेदों के निर्माताओ की बुद्धि को एक बच्चे से बड़ा नहीं समझते थे । मानवता के शुरवात में वेदों की रचना हुई , तो कमतर मस्तिस्क वाले हिन्दू जंगल में ही तो रहता होगा , इसलिए उनको ट्राइब कह कर संबोधित किया गया । ट्राइबल इलाके के निवासी - इसलिए ट्राइब ।
अब कुछ शब्द #जॉन_मुइर के बारे में / जॉन मुइर एक स्कॉटिश था जिसके पैदाइश 1910 में हुई थी ,वो 1929 में बंगाल में सिविल सर्वेंट के रूप में आया बाद में ये इलाहाबाद में रेवेनुए कमिशनर था / बाद में ये फतेहपुर जज बना / ये ईसाइयत फैलाने वाली मिशनरी उत्साह के बजाय सादगी से इसे ईसाइयत को हिन्दू मत से श्रेष्ठ सिद्ध करने का हिमायती था / 1939 में इन्होने एक "मत्परीक्षा" नाम कि पुस्तक लिखी ,जिसमे हिंदूइस्म को ईसाइयत से तुलना तो की,लेकिन ईसाइयत को श्रेष्ठ मत बताया /
इसके बाद इन्होने भारत की सभ्यता ,संस्कृति और धार्मिक इतिहास प् एक किताब लिखी ....... "Original Sanskrit Texts on the Origin and Progress of the Religion and Institutions of India" 1958
अब २ सवाल उठते हैं-
(१) क्या इस उम्र में (लगभग 40 से 50 साल की उम्र ) एक स्कॉटिश ,सरकारी नौकरी करते हुए ,,क्या संस्कृत में इस तरह दीक्षित हो सकता है की ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट पढने की काबिलियत पैंदा कर सकता है ?
(२) क्या कोई संस्कृत में दीक्षित होने के बावजूद उस उम्र में सरकारी नौकरी करते हुए ,,4 वेद ,108 उपनिषद गीता रामायण, ब्राम्हण स्मृतियाँ ,असंख्य पुराण , और महाभारत न जाने कितने सूत्र और भाष्य इत्यादि सारे ग्रंथो को पढ़ सकता है ??
और उन पर एक एक्सपर्ट की तरह अपना मत प्रकट कर सकता है /
तो फिर संदेह होना लाजिम नहीं है क्या कि क्या वाकई ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट है ?? सिर्फ ओरिजिनल लिख भर देने से कोई चीज ओरिजिनल हो सक्ती है क्या ? यानि एक और संस्कृतज्ञ विद्वान से कॉपी एंड पेस्ट / इसीलिये मैंने लिखा कि आंबेडकर जी ने जो भी उद्धरण अपनी पुस्तक में शामिल किया है वो अनुवादों के अनुवादों का अनुवाद है, ओरिजिनल नहीं है / और साथ कल्पना की उड़ान मलाई मार के/
सोचिये जरा एक पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यक्ति जो हिंदूइस्म को ईसाइयत से निम्न समझता है ,,,उसकी ईमानदारी पर आप शक क्यों नहीं करेंगे ??
फिर उस व्यक्ति जो शक के दायरे में आ जाता है उसको पढ़ कर और कॉपी पेस्ट किये गए तथ्यों पर लिखी गयी पुस्तक की प्रामाणिकता कितनी हो सकती है /
दूसरा रिफरेन्स डॉ आंबेडकर ने मॅक्समुल्लर का दिया है जो एक जर्मन इंडोलॉजिस्ट है / इंडोलॉजिस्ट का मतलब जो भारत प्रागऐतिहासिक इतिहास और संस्कृत भाषा के विद्वान है /
अब तक 133 इंडोलॉजिस्ट तो सिर्फ जर्मन विद्वान हुये है , सोचिये जरा ?अनुवादों के अनुवादों का अनुवाद करने वाले /
मॅक्समुल्लर फ्रांस में एक दूसरे इंडोलॉजिस्ट द्वारा संस्कृत English डिक्शनरी ,,पढ़कर संस्कृत के विद्वान बने गया था / उनका जन्म 1828 में जर्मनी में हुवा था और बेसिक शिक्षा जर्मन में हुवी थी , उन्होंने 1860 में ऑक्सफ़ोर्ड में "प्रोफेसरशिप ऑफ़ बोडेन चेयर " के लिए इलेक्शन लड़ा लेकिन एक दूसरे ब्रिटिश इंडोलॉजिस्ट Sir Monier Monier-विलियम्स से हार गए (क्योंकि 1857 में भारत में शहीद किये गए अंग्रेजों, के कारन इंग्लॅण्ड में उत्पन्न जनाक्रोश के कारण ब्रिटिश राष्ट्रवाद बहुत जोरों पर था /)
Sir Monier Monier विलियम जी का भारत में द्रविड़ियन कल्चर को पैदा करने में काफी बड़ा योगदान था /
ऑक्सफ़ोर्ड में "प्रोफेसरशिप ऑफ़ बोडेन चेयर " कि स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्नल जोसफ बोडेन ने भारत में लूट के अपने पैसे को विश्वविद्यालय को दान देकर किया था/ इस चेयर एकमात्र उद्देश्य संस्कृत का अध्ययन करके भारत में ईसाइयत में फैलाना है /(गूगल गुरु से मदद लें )
अब इसके बाद बेरोजगार मैक्समूलर को ईस्ट इंडिया कंपनी में प्रतिदिन की मजदूरी पर ,भारत के संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद करना था / हालांकि मैक्समूलर कभी भारत नहीं आये ,लेकिन उदारमना भारतीयों ने दिल्ली में उनके योगदान के लिए मैक्समूलर भवन कि स्थापना की है /
एक भारतीय इतिहासविद प्रदोष एच ने लिखा है कि मैक्समूलर एक स्विंडलर था / जो आदमी विशेविद्यालय मे झाँका तक न हो उसको भी अगर डॉ और प्रोफेसर कोई बना सकता हैं - तो इस देश के समाजशाश्त्र के विद्वानो का अभिनंदन होना ही चाहिए/ ये प्रदोश आइछ ने अपने शानदार रिसर्च बूक मे प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर लिखा है/
http://www.google.co.in/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s...
तीसरा रिफरेन्स डॉ आंबेडकर ने दिया है , इंडोलॉजिस्ट प्रोटेस्टंट मिशनरी M A शेररिंग का, जिसने 1872 में "कास्ट एंड ट्राइब्स ऑफ़ इंडिया " नामक किताब लिखी /
ये प्रथम इंडोलॉजिस्ट हैं जिन्होंने पहली बार caste को आधार बनाते हुए पुस्तक लिखी है लेकिन अभी इनके समय तक भी caste का मतलब सिर्फ पेशा ही था /
लेकिन ये इस बात से निराश थे कि ब्रिटिश भारत के हिन्दू ईसाई धर्म अपनाने को तैयार क्यों नहीं हो रहे थे / अतः इन्होने इसका एक नयी तरकीब खोजी / इन्होने तर्क दिया - "क्योंकि वेदों में जातियों का वर्णन नहीं है ( वस्तुतः किसी भी संस्कृत टेक्स्ट में नहीं है ), अतः ये लोगो को जातियों में बांटने की "धूर्त ब्राम्हणों " की शाजिश है / "
ये पहला ईसाई पादरी था जिसने ईसाइयत फ़ैलाने हेतु .ब्राम्हणो और ब्रम्हानिस्म को गाली दी /प्रकारांतर में ये काम वामपंथी और दलित चिंतक कर रहे हैं /
अब फिर बात वहीँ आकर फंस गयी --भारत के 1750 के बाद के आर्थिक इतिहास पर जब भारत का जीडीपी विश्व जीडीपी का 25 प्रतिशत शेयर होल्डर था और ब्रिटेन मात्र 2 प्रतिशत का / भारत एक एक्सपोर्टर देश था / लेकिन एक पादरी को ब्रम्हानिस्म को गरियाने का समय काल को देखिये 1900 के आसपास ,जब भारत का आर्थिक ढांचा पूरी तरह नष्ट हो गया था / और वो मात्र २ प्रतिशत DGP का शेयर होल्डर बचा था / यानि upside डाउन / 87.5 % प्रतिशत वार्ता और कारकुशीलव अर्थात शिल्प निर्माता बेरोजगार बेघर हो चुके थे /और दरिद्रता का आलम ये था कि 1875- 1900 के बीच 2.5 से 3 करोड़ लोग भूख से और अन्न के अभाव से मौत के मुह मे समा जाते हैं , यद्यपि अन्न का कोई अभाव नहीं था , बस उनके पास अन्न खरीदने की क्रयशक्ति नहीं बची थी /
कार्ल मार्क्स के 1853 में भारत के बारे में छपे एक लेख के अनुसार ढाका में 1815 में करीब एक लाख पचास हज़ार शिल्पी थे ,जिनकी संख्या 1935 में घटकर मात्र बीस हज़ार बची थी / बाकी एक लाख 30 हजार शिल्पियों का और उनके परिवार का क्या हुआ , जो भारत के गौरवशाली जीडीपी के दो हजार साल से उत्पादक थे / ये प्रश्न डॉ अंबेडकर की आँख मे आँख डालकर उनके भारतीय समाज और उसके इतिहास के समझ पर प्रश्ञ्चिंह खड़ा कर रहे हैं /
क्या उनको जबाव मिलेगा ? अंबेडकर के झंडाबरदार अनुयायी क्या इन सहज जिज्ञासाओं का सामना करेंगे ?
क्या M A शेरिंग जैसे bigot क्रिश्चियन इंडोलॉजिस्ट के रिफरेन्स पर प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा किया जाना चाहिए ??
एक नई दृष्टि से नीचे वर्णित लेख को पढ़ें , सोचे , और मेरे लेख पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करें /
शूद्र एक घृणित सम्बोधन कब हुआ :
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(१) डॉ बुचनन ने १८०७ में प्रकाशित ,अपनी पुस्तक में ये जिक्र किया है ..बंटर्स शूद्र थे , जो अपनी पवित्र वंशज से उत्पत्ति बताते हैं / देखिय बताने वालों के शब्दों में एक आत्म सम्मान और गर्व का पुट है / यानि 1800 के आस पास तक शूद्र कुल में उत्पन्न होना , उतना ही सम्मानित थे , जितना तथाकथित द्विज वर्ग / इसके अलावा 1500 से 1800 के बीच के ढेर सारे यात्रा वित्रांत हैं जो यही बात बोलते हैं ..अगर आप कहेंगे तो ,,उनको भी क्वोट कर दूंगा/ फिर धूम फिर कर सुई वापस भारत के आर्थिक इतिहास पर आ जाता है / 1900 आते आते भारत के सकल घरेलु उत्पाद में 1750 की तुलना में 1200 प्रतिशत की घटोत्तरी हुई ,700 प्रतिशत जो घरेलु उत्पाद के प्रोडूसर थे , उनके सर से छत , तन से कपडे छीन गए और उनका परिवार भुखमरी ,,और भिखारी की कगार पर पहुँच गया / अब उन्ही पवित्र शूद्रों के वंशजों की स्थिति 150 सालों में ,,upside डाउन हो गयी / अगर छ सात पीढ़ियों में शूद्र "रिचेस तो रुग्स " की स्थिति में पहुँच गया तो समाज का दृष्टिकोण भी बदल गया /जब एक अपर जनसमूह जिसकी रोजी रोटी का आधार हजारों साल से --"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च /" के आधार पर जीवन यापन करने वाला शूद्र वर्ण में विकसित हुवा तबके का आधारभूत, परंपरागत व्यवसाय जाता रहा / यही वर्ग हजारों सालों से भारत के अर्थजगत की रीढ़ हुआ करती थी / समाज में भौतिकता यानि spirituality का ह्रास हो रहा था / एक सोसिओलोगिस्ट प्रोफेसर John Campbell ओमान ने अपनी पुस्तक "Brahmans theism एंड Musalmans " में लिखा .."कि ब्रम्हविद्या और पावर्टी ( अपरिग्रह और हमारे ऋषि मुनि साधू सन्यासी और गांधी के भेष भूसा को कोई ब्रिटिश - पावर्टी ही मानेगा ) का सम्मान जिस तरह ख़त्म हो रहा है ,,बहुत जल्दी वो समय आएगा ,,जब भारत के लोग धन की पूजा ,पश्चिमी देश कि तरह ही करेंगे / " तो ऐसे सामजिक उथल पुथल में ...ये तबका सम्मानित तो नहीं ही रह जाएगा ,,घृणित ही समझा जाएगा / ये तो सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की देन है /
(२) शूद्र शब्द दुबारा तब घृणित हुआ जब इस बेरोजगार बेघर हुए तबके को को बाइबिल के फ्रेमवर्क में फिट किया गया /
बाइबिल के अनुसार जेनेसिस (ओल्ड टेस्टामेंट ) में ये वर्णन है ,( Genesis 5:32-10:1New International Version (NIV) ) नूह की उम्र ५०० थी और उसके तीन पुत्र थे Shem, Ham and Japheth.गॉड ने देखा की जिन मनुष्यों को उसने पैदा किया था, ,उनकी लडकिया खूबसूरत हैं ,और वे जिससे मन करता है उसी से शादी कर लेती हैं ,/ गॉड ने ये भी देखा की मनुस्य दुष्ट हो गया है ,तो उसने महाप्रलय लाकर मनुष्यों को ख़त्म करने का निर्णय लिया / लेकिन नूह सत्चरित्र और नेक इंसान था तो , गॉड ने नूह से कहा कि सारे जीवों का एक जोड़ा लेकर नाव में बैठकर निकल जाओ,जिससे दुबारा दुनिया बसाया जा सके / जब महाप्रलय ख़त्म हुवा ,और धरती सूख गयी, तो नूह ने अंगूर की खेती की ,और उसकी वाइन (शराब ) बनाकर पीकर मदहोश हो गया ,और नंग धडंग होकर टेंट में गिर पड़ा / उसको Ham ने इस हालत में देखा तो बाहर जाकर अपने २ अन्य भाइयों को बताया
/ तो Shem, और Japheth.ने मुहं दूसरी तरफ घुमाकर कपडे से नूह को ढक दिया, और नूह को नंगा नहीं देखा / यानि सिर्फ Ham ने नूह को नंगा देखा ।जब शराब का नशा उतरा तो सारी बात नूह को पता चली ,,तो उसने Ham को श्राप दिया की तुम्हारी आने वाली संतानें ,, Shem, और Japheth.की आने वाली संतानों की गुलाम बनकर रहेंगी /
क्रिस्चियन धर्म गुरु और च्रिस्तिअनों ने इस जेनेसिस में वर्णित घटना को लेटर एंड स्पिरिट में पूरी दुनिया में लागू किया / बाइबिल में , टावर ऑफ़ बेबल ये भी वर्णन है , की गॉड ने नूह की संतानों से कहा की सारी दुनिया में फ़ैल जाओ /
Monotheism वाले रिलिजन की एक बड़ी समस्या है ,,की वे अपने ही रिलिजन को सच्चा रिलिजन मानते हैं ,और बाकियों को असत्य धर्म /
ईसाई धर्म गुरुओं ओरिजन (185- 254 CE ) और गोल्डनबर्ग ने नूह के श्राप की आधार पर Ham के वंशजों को , को गुलामी और और उनके चमड़ी के काले रंग को नूह के श्राप से जोड़कर उसे रिलिजियस सैंक्टिटी दिलाया / काले रंग को उन्होंने अवर्ण,(discolored ) के नाम से सम्बोधित किया / उनकों घटिया , संस्कृति का वाहक और गुलामी के योग्य घोषित किया /
/जहाँ भी क्रिस्चियन गए ,और जिन देशों पर कब्ज़ा किया ,वहां के लोगो को चमड़ी रंग के आधार पर काले discolored लोगों को Hamites की संज्ञा से नवाजा / ईसाइयत में नूह के श्राप के कारन Hamites ,,असभ्य ,बर्बर और शासित होने योग्य बताया /
यही आजमाया हुवा नुस्का उन्होंने भारत पर भी अप्लाई किया / बाहर से आये आर्य गोरे रंग के यानि द्विज सवर्ण और यहाँ के मूल निवासी जिनको द्रविड़ , शूद्र अछूत अतिशूद्र काले यानि अवर्ण आदि संज्ञा दी गई वो बाइबिल के अनुसार Ham कि संताने ,जो अनंत काल की गुलामी में झुलसने को मजबूर ,यानि "घृणित शूद्र " यानि डॉ आंबेडकर के शब्दों में "menial जॉब " करने को मजबूर /
अर्थात कौटिल्य के अनुसार शूद्रों के धर्म -"शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च /" से गिरकर अंबेडकर जी के शब्दों में शूद्रों का धर्म (कर्तव्य ) "menial जॉब " में बदल जाता है 1750 से 1946 आते आते /
Nice Article..
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थैंक्स
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