Friday, 28 April 2017

सामाजिक विखराव को समझे बिना समरसता कैसे बनेगी

समाज मे व्योहारिक रूप से भेद और विलगाव कब पैदा हुआ उसका विवरण मिलना संभव नहीं है, लेकिन अंग्रेजों और डॉ अंबेडकर के ऋग्वेद का आसरा लेकर समाज को कुंठित और अपराधबोध और घृणा फैलाने का काम निश्चित रूप से उनके भारतीय ग्रन्थों के बारे मे ज्ञान पर सवालिया निशान खड़ा करता है /
वेद के बाद ब्रामहन आरण्यक उपनिषद आदि की रचना हुयी , फिर त्रेता मे रामायण और द्वापर मे महाभारत की / कहीं भी कोई तारतम्य नहीं मिलता कि शास्त्रो मे वर्ण को लेकर विभेद की बात की गई हो / एक उदाहरण महाभारत से प्रस्तुत है -
श्री वैशम्पायन ने राजा जनमेजय से कहा -

"एष धर्मो महायोगों दानम भूतदया तथा /
ब्रम्ह्चर्य तथा सत्यमनुक्रोशो धृति क्षमा //
सनातनस्य धर्मश्य मूलमेतत सनातनम /
श्रूयंते  ही  पुरा वृत्ता विश्वामित्रादयो नृपाह /
विश्वामित्रोंअसितैश्चैव जनकश्च महीपतिः /
कक्षसेनाष्टीर्षेनौ छ सिंधद्वीपश्च पार्थिवह //
एते चान्ये छ बहवः सिद्धिम पर्मिकाम गताः /
न्रिपाः सत्यइश्च दानाईश्च न्यायलब्धइस्तपोधनाह //
ब्रम्हनाह क्षत्रिया वैशयाः शूद्राह चाश्रितस्तास्पः /
दानधर्मांग्निना शुद्धास्ते स्वर्गं यान्ति भारत //" ( महाभारत - आश्व्मेधिकपर्व 91.33 - 37

अर्थात
" दान , प्राणियों पर दया ब्रंहचर्य , सत्य करुणा , धृति और क्षमा - यही धर्म है , महान योग है / यही सनातन धर्म का सनातन मूल है / सुना जाता है कि पूर्व काल मे विश्वामित्र , आसीत , राजा जनक, कक्षसेन ,
आर्श्टिषेण ,तथा भूपाल सिंधद्वीप - ये तथा अन्य बहुत से - नरेश तथा तपस्वी न्यायोचित धन के दान और सत्यभाषण उक्त साधनों द्वारा सिद्धि को प्राप्त हुये /

भरतनन्दन - ब्रामहन क्षत्रिय वैश्य शूद्र - जो भी तप का आश्रय लेते हैं , वे दानधर्मरूपी अग्नि से तपकर सुवर्ण के समान शुद्ध हो , स्वर्गलोक को जाते है " /

तो हमारे शास्त्रो मे जहा भगवान कृष्ण ने उद्भासित किया - "चातुशवर्ण मया श्रिस्टी  गुण कर्म विभागशह" , से लेकर कौटिल्य तक शूद्रों को हीण नहीं माना गया , तो किन धर्माचार्यों की शरण गहे डॉ अंबेडकर ने कि लिखा - "shudras were allotted Menial Jobs " ?

लहर गिनने वालों को कोई नही रोक सकता।

मोदी जी/ योगी जी सिर्फ कठोर कानून और नियम से देश नही सुधरेगा:
एक कहानी सुनाता हूँ -
एक बार एक राजा विरोधी शत्रुओं से लड़ते लड़ते इतना कंगाल हो गया कि उसके खजाने में  अपने सैनिकों के वेतन देने भर का भी धन न बचा।
मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई कि क्या किया जाय।
बहुत सोच विचार के बाद ये निर्णय हुआ कि यदि प्रजा मे कोई दानी निकल आये जो राजा को दान दे दे तो फिर इस आपात काल के संकट से छुटकारा मिल सकता है।
तो ये बात आई कि भाई कौन वो भामाशाह है जो राज्य के इस संकट में दान दे सकता है।
सोचने विचारने के बाद एक वणिक का नाम सुझाया गया।
राजा उस वणिक के पास याचक बनकर पहुंचा। वणिक को अपनी समस्या सुनाई और उससे राजकाज हेतु दान करने का आग्रह किया।
वणिक ने हंसकर कहा कि - राजा साहब ले जाइए दो सहस्र स्वर्ण मुद्राएं और राजकाज कीजिये।
राजा ने उससे धन तो स्वीकार कर लिया परंतु ये बात उनको अखर गयी कि राजा निर्धन और एक वणिक महा धनी। उन्होंने सैनिकों को आदेश दिया कि उस वणिक की संपत्ति जब्त करके इसको पशु शाला में पशुओं के गोबर का हिसाब रखने का काम सौंप दिया जाय।
वणिक खुसी खुसी काम मे लग गया।
तीन चार साल बाद राजा को फिंर धन का संकट हुआ तो
फिंर उनके मंत्रियों ने राजा को उसी वणिक का आश्रय लेने की बाद बोली।
राजा साहब पुणः याचक की मुद्रा में वणिक के पास पहुंचे। वणिक ने फिंर हंसकर उनको दो सहस्र मुद्राएं दान दिया।
राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि कहां से उसने फिंर से धन जुटा लिया। राजा ने उससे पूंछा कि तुमने कैसे धन जुटाया।
वणिक ने कहा - अन्नदाता आपने पशुधन के गोबर का हिसाब देखने की बात की थी । तो मैंने यहां देखा कि घोड़े कम गोबर कर रहे थे। मैने घोड़े के चारे का इंतजाम करने वाले से बोला कि तुम चना कम खिला रहे हो घोड़े को इसीलिए गोबर कम हो रहा है , में राजा को लिखकर शिकायत करूंगा। उसने मेरे हांथ पैर जोड़े, लेकिन मैंने उससे कहा कि प्रतिघोडा एक सेर चने का पैसा सुबह दोपहर शाम मुझे चाहिए। इसके अलावा हांथी गाय आदि में भी यही सिस्टेम लगाया। तभी तो आज आपकी मदद कर रहा हूँ।

राजा को बहुत क्रोध आया उसने आदेश दिया कि इसकी सब संपत्ति राजकोष मे जमा करवाकर इसको समुंदर किनारे ड्यूटी लगा दो जहां कोई मानृस जाति आती जाती नही।
मंत्रियों ने पूंछा कि - हुजूर ये वहां करेगा क्या ?
राजा ने कहा - समुद्र की लहरें गिनेगा।

खैर वणिक पहुंच गया समुद्र किनारे । गहरी सोच में डूबा था कि इस वीराने के करूं क्या ? तब तक उसने देखा कि एक मालवाहक जहाज समुद्र से धरती की ओर चलता चला आ रहा है। वणिक की बुद्धि तुरंत हरकत में आ गयी।
उसने तुरंत समुद्र के चालक को वार्निंग दी - खबरदार तुम  राजाज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो। तुम्हारी जहाज घाट पर अपना माल नही उतारः सकती, क्योंकि इससे लहर डिस्टर्ब हो रही है। देखो मेरे पास राजाज्ञा है कि लहर गिनकर रोज के रोज डेटा राजा के पास भेजना होता है।
जहाज का मालिक बहुत गिड़गिड़ाया कि हुजूर मेरा करोङो का नुकसान हो जाएगा, जहाज में कच्चा माल है, यदि समय से इसे बाजार में नही पहुंचाया तो सब माल सड़ जाएगा।
वणिक ने बोला कि राजाज्ञा का उल्लंघन संभव नही है।
तब जहाज वाले ने पूंछा कि राजाज्ञा की बात छोड़ो , संभव कैसे होगा ये बताओ।
वणिक ने कहा कि अंटी ढीली करो कुंछ माल मेरे एकाउंट मे ट्रांसफर करो, हो जाएगा।

खैर चलता रहा।

कुछ सालों बाद राजा को पुनह् आर्थिक संकट आया तो फिर उसके सलाहकारों ने उनको उसी वणिक के पास भेजा। वणिक ने फिंर अपने खजाने से राजा को दो सहस्र मुद्राएं दान दी।
इस बार राजा गुस्सा नही हुआ।
उसने पूंछा कि प्रभु इस निर्जन समुद्र तट पर कैसे धन कमाया।
वणिक ने बताया।
राजा ने इस बार उसको सजा नही दी, उसे अपने मंत्रिमंडल का मुख्य सलाहकार बनाया।

ये है तो लोककथा लेकिन समसामयिक है।

ये किसी वर्ग को लेकर लिखी गयी पोस्ट नही है ।
मन बुद्धि चित्त अहंकार नामक चार चीजे मानव स्वभाव का अंग हैं उसी पर कहानी का फोकस है।

दृश्टान्त ये है कि - लहर गिनने वालों का क्या कीजिये

नक्सल अपराधी है जिनकी वैचारिकी की आपूर्ति संस्थाएं करती

नक्सल संगठित अपराधियो का गिरोह है।
इसको वैचारिक खाद पानी शहरों और JNU टाइप के संस्थानों से मिलता है ।

मूल सिद्धांत जिस पर इनको बहकाया जाता है वो है -"सत्ता बंदूक की गोली से प्राप्त की जाती है - माओ"।

माओ अपने देश का कितना बड़ा हत्यारा था , अब ये बात गुप्त  नही है।

जो बहकाये गए हैं ।
इनको एक माह का समय दिया जाय और  यदि ये एक माह में न सुधरें तो इनके साथ साथ इनके बौद्धिक आकाओं को  भी इन्ही की भाषा मे प्रतिउत्तर देना चाहिए।