भारत के संविधान की आर्टिकल 25 से 30 तक देश के माइनॉरिटी को स्पेशल स्टेटस देता है ।
यानि उनको दो तरह के अधिकार प्राप्त हैं ।
एक सामान्य नागरिक की तरह और एक माइनॉरिटी की तरह ।
जबकि मेजोरिटी को कहने को तो ,एक सामान्य नागरिक के अधिकार प्राप्त है , लेकिन जब तुलनात्मक रूप से देखा जाय तो मेजोरिटी को नागरिक के लिहाज से दोयम दर्जे की नागरिकता प्राप्त है ।
दूसरी बात जिस शब्द का संविधान में जिक्र ही न हो तो उसको कहाँ से सामान्य नागरिकता के अधिकार प्राप्त हो सकते हैं ?
क्योंकि मानने से नही होता , हम लिखित संविधान से शासित होते हैं । और उस लिखित संविधान में मेजोरिटी का जिक्र ही नही है तो उसको कहाँ से उसे बराबर का दर्जा मिला ?
कारण क्या है ?
दो कारण हैं ।
1- हमारे अंग्रेजी दीक्षित संविधान निर्माताओं को धर्म रिलिजन और मजहब का फर्क ही नही मालूम था।
2- सेकुलरिज्म को संविधान में घुसेड़ना ।
सेकुलरिज्म जैसे कांसेप्ट को अपनाना वैसा ही है कि हम किसी दूसरे theology इतिहास भूगोल को अपने ऊपर लादना ।
सेकुलरिज्म का जन्म होता है यूरोप से । क्योंकि वहां किसी समयकाल में चर्च सत्ता का केंद्र था जिसकी खुद की सेना थी और संपत्ति थी , जो टैक्स वसूल सकता था , जो ईसाइयत को न मानने वाले का जीवनलीला समाप्त कर सकता था । बाद में राजतन्त्र और लोकतंत्र को स्थापित करने के पूर्व वहां चर्च के शासकीय सत्ता को खत्म किया गया ।और इसको सेकुलरिज्म के नाम से संबोधित किया ।
दूसरी तरफ मजहब का नजारा तो आप कश्मीर , बांग्लादेश पाकिस्तान , इराक में ISIS तक देखिये - उनको सेकुलरिज्म कोई पढ़ा सकता है ?
जबकि रिलिजन और मजहब के लोग अपने धर्मग्रंथो के आदेशानुसार , जोकि कोई आध्यातमिक पुस्तक न होकर एक पोलिटिकल पार्टीज का uneditable पोलिटिकल मैनिफेस्टो मात्र है , क्या उसकी तुलना किसी धर्म पुस्तक से हो सकती है , जो राजसत्ता स्थापित न करने की बात कर मात्र जीवन के नैतिक आदर्शो की बात करता है ।
तो ये संविधान भारत के बहुसंख्यकों का अपराधी है , इसमें संसोधन क्यों नही होना चाहिए ?
यानि उनको दो तरह के अधिकार प्राप्त हैं ।
एक सामान्य नागरिक की तरह और एक माइनॉरिटी की तरह ।
जबकि मेजोरिटी को कहने को तो ,एक सामान्य नागरिक के अधिकार प्राप्त है , लेकिन जब तुलनात्मक रूप से देखा जाय तो मेजोरिटी को नागरिक के लिहाज से दोयम दर्जे की नागरिकता प्राप्त है ।
दूसरी बात जिस शब्द का संविधान में जिक्र ही न हो तो उसको कहाँ से सामान्य नागरिकता के अधिकार प्राप्त हो सकते हैं ?
क्योंकि मानने से नही होता , हम लिखित संविधान से शासित होते हैं । और उस लिखित संविधान में मेजोरिटी का जिक्र ही नही है तो उसको कहाँ से उसे बराबर का दर्जा मिला ?
कारण क्या है ?
दो कारण हैं ।
1- हमारे अंग्रेजी दीक्षित संविधान निर्माताओं को धर्म रिलिजन और मजहब का फर्क ही नही मालूम था।
2- सेकुलरिज्म को संविधान में घुसेड़ना ।
सेकुलरिज्म जैसे कांसेप्ट को अपनाना वैसा ही है कि हम किसी दूसरे theology इतिहास भूगोल को अपने ऊपर लादना ।
सेकुलरिज्म का जन्म होता है यूरोप से । क्योंकि वहां किसी समयकाल में चर्च सत्ता का केंद्र था जिसकी खुद की सेना थी और संपत्ति थी , जो टैक्स वसूल सकता था , जो ईसाइयत को न मानने वाले का जीवनलीला समाप्त कर सकता था । बाद में राजतन्त्र और लोकतंत्र को स्थापित करने के पूर्व वहां चर्च के शासकीय सत्ता को खत्म किया गया ।और इसको सेकुलरिज्म के नाम से संबोधित किया ।
दूसरी तरफ मजहब का नजारा तो आप कश्मीर , बांग्लादेश पाकिस्तान , इराक में ISIS तक देखिये - उनको सेकुलरिज्म कोई पढ़ा सकता है ?
जबकि रिलिजन और मजहब के लोग अपने धर्मग्रंथो के आदेशानुसार , जोकि कोई आध्यातमिक पुस्तक न होकर एक पोलिटिकल पार्टीज का uneditable पोलिटिकल मैनिफेस्टो मात्र है , क्या उसकी तुलना किसी धर्म पुस्तक से हो सकती है , जो राजसत्ता स्थापित न करने की बात कर मात्र जीवन के नैतिक आदर्शो की बात करता है ।
तो ये संविधान भारत के बहुसंख्यकों का अपराधी है , इसमें संसोधन क्यों नही होना चाहिए ?
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